China Country

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

For Gotra see China

China today is administratively divided into two states: the People's Republic of China (PRC) and the Republic of China (ROC). The PRC administers and governs the majority of China (mainland China, Hong Kong, and Macau), while the ROC administers the island groups of Taiwan, the Pescadores, Kinmen, and Matsu, as well as the Pratas and Taiping.

China has one of the world's longest periods of mostly uninterrupted civilization and one of the world's longest continuously used written language systems. The successive states and cultures of China date back more than six millennia. For centuries, China was the world's most advanced civilization, and the cultural center of East Asia, with an impact lasting to the present day. China is also home to many of the great technical inventions in world history, including the four great inventions of ancient China: paper, compass, gunpowder, and printing.

Variants

  • China (चीन) (p.338)

Origin of word China

English and many other languages use forms of the name "China" and the prefix "Sino-" or "Sin-". These are believed to be derived from the name of the Qin Dynasty that first unified the country. The Qin dynasty was short-lived and often regarded as tyrannical, but it unified the written language in China and gave the supreme ruler of China the title of "Emperor"; thus the subsequent Silk Road traders might have identified themselves by that name. In any case, the word "China" passed through many languages along the Silk Road before it finally reached Europe and England. The Western "China", transliterated to "Shina" was also used by the Japanese from the nineteenth a[1]

Jat King Kanishka of Kushan

The Jat ruler Kanishka had won Yarkand, Khotan etc provinces of China and reigned over there. Some of the Chinese princesses were protected under the authority of Kanishka. There is a place called "China Patti", which is after Chinese princes. Kanishka was a strong propagator of principles of Mahayana in Buddhism religion in China. Chinese have great faith in Buddhism. India being the Buddha’s birthplace Chinese travelers came to India one after other.

The Chinese traveler Fa-Hien [2] came to India during the rule of Jat king Chandragupta II (Vikramaditya) in the period (399 AD - 414 AD). Fa-Hien or Fa-hsien) (ca. 337 - ca. 422) was a Chinese Buddhist monk, who, between 399 and 414 travelled to India and Sri Lanka to bring Buddhist scriptures. His journey is described in his work A Record of Buddhistic Kingdoms, Being an Account by the Chinese Monk Fa-Hien of his Travels in India and Ceylon in Search of the Buddhist Books of Discipline. [3] In this book Fa-hien mentions about the Jat Kingdom of Kanishka in India. He also mentions about kingdom of Punia and Ruhela Jat clans in Afghanistan. (A Record of Buddhistic Kingdoms Ch. XIV)

Jat ruler Harshavardhana

The Chinese traveler Xuanzang [4] visited India from 630 AD – 644 AD. In 646, under the Emperor's request, Xuanzang completed his book "Journey to India in the Great Tang Dynasty", which has become one of the primary sources for the study of medieval history in India. Here he met a talented Mahayana monk and spent his two years (631-633) studying Mahayana alongside other schools of Buddhism. During this time, Xuanzang writes about the fourth Buddhist Council that took place nearby, ca. 100 AD, under the order of King Kanishka of Kushan. He visited the northern Indian emperor Jat Emperor Harshavardhana’s grand capital of Kanyakubja (Kanauji). Here, in 636, Xuanzang encountered 100 monasteries of 10,000 monks (both Mahayana and Theravada), and was impressed by the king's patronage of both scholarship and Buddhism. Additionally, he was known for recording the events of the reign of the northern Indian Jat emperor, Harshavardhana.

Jats in China

Bhim Singh Dahiya[1] writes that Jats are known as Yue-che/Yetha/Yeta by the Chinese.


Many Jats also went to China to spread the message of Buddhism. Jats who had gone to China were Jivgun Varman, Jingupta and Amogh Bajra. Jats had close relations with Chinese provinces like Korea, Mongolia, and Manchuria due to their works of spreading Buddhism to these regions. Jats were mainly responsible for the spread of Mahayana into China. The Chinese history also records this fact that Jats were the followers of Buddhism. (KL Faujdar)

Mahabharata mentions about two republics namely tangan and Partangan on border of China. These are Tangar and Pratihar Jats of today. They had moved there near Hingu Hill and Hignu River during Mauryan period. This Indian Aryan clan ruled here for a long period and returned after that to India. These people are known as Hunga. Their influence and state are still discussed in China. The Jats had established colonies in China is proved from the fact that in the Chinese history Yuezhi clan is mentioned as Chinese a ruling clan. Mr. Grouse in ‘Mathura memoirs’ mentions Nauhwar Jats as people returned from Nauh Lake near Khotan. He says that the Nauhwars were Indian nationals who had reached beyond Khotan and returned before the attack of Huns and settled at Nauh Lake in Mathura district. (Thakur Deshraj)

Gen. Cunningham writes in his book – “History of Sikhs” that The China, Bhuraich, Chulye are famous clans of Jats. The existence of China clan in Jats proves that Jats had gone to China either for propagation of religion or to establish colonies. Jats had done both works in China.

De Guignes, who has written history of China, describes about Jats and states that Jats were the followers of Buddhism. De Guignes says as quoted by Elphinstone "That De Guignes, mentions, on Chinese authorities, the conquest of the country of the Indus (river) by body of Yuezhi or Getae (Jats), and that there are still Jits (Jats) on both sides of that river". Elphinstone supports the above statement by saying "The account of De Guignes has every appearance of truth". [5]

डिगायन

डिगायन - इसने चीन का इतिहास लिखा है और उसमें जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। यह भी लिखा है कि जाटों ने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था। [2]

चीन

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...चीन (AS, p.338) चीन तथा भारत के व्यापारिक तथा सांस्कृतिक संबंध अति प्राचीन हैं। प्राचीन काल में चीन का रेशमी कपड़ा भारत में प्रसिद्ध था। महाभारत, सभापर्व 51, 26 में कीटज तथा पट्टज कपड़े का चीन के संबंध में उल्लेख है। इस प्रकार का वस्त्र पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अनेक निवासी (शक, तुषार, कंक, रोमश आदि) युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट स्वरूप लाए थे- 'प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं वाल्ही चीनसमुद्भवम् ओर्ण च रांकवंचैव कीटजं पट्टजं तथा।' त्कालीन भारतीयों को इस बात का ज्ञान था कि रेशम कीट से उत्पन्न होता है। महाभारत, सभापर्व 51, 23 में चीनियों का शकों के साथ उल्लेख है। ये युधिष्ठिर की राज्य सभा में भेंट लेकर उपस्थित हुए थे- 'चीनाछकांस्तथा चौड्रान् बर्वरान् वनवासिन:, वार्ष्णेयान् हारहूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा।' भीष्मपर्व में विजातीयों की नामसूची में चीन के निवासियों का भी उल्लेख है- 'उत्तराश्चापरम्लेच्छा: क्रूरा [p.339]: भरतसत्तम यवनश्चीनकाम्बोजा दारुणाम्लेच्छजातय:। सकृद्ग्रहा कुलत्थाश्चहूणा: पारसिकै: सह, तथैव रमणाश्चीनास्तथैवदशमालिका:। महाभारत, भीष्मपर्व 9, 65-66

कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में भी चीन देश का उल्लेख है, जिससे मौर्य काल के भारत और चीन के व्यापारिक संबंधों का पता लगता है। कालिदास ने 'अभिज्ञानशाकुंतलम' ( 1, 32) में 'चीनांशुक' (चीन का रेशमी वस्त्र) का वर्णन बड़े काव्यात्मक प्रसंग में किया है- 'गच्छति पुर: शरीरं धावति पश्चादसंस्थितश्चेत: चीनांशुकमिवकेतो: प्रतिवातं नीयमानस्य।'

'हर्षचरित' के प्रथमोच्छवास में बाणभट्ट ने शोण के पवित्र और तरंगित बालुकामय तट को चीन के बने रेशमी कपड़े के समान कोमल बताया है।

बौद्ध धर्म का प्रचार: चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार चीन के हान वंश के सम्राट मिगंती के समय में (65 ई.) हुआ था। उसने स्वप्न में सुवर्ण पुरुष बुद्ध को देखा और तदुपरांत अपने दूतों को भारत से बौद्ध सूत्रग्रन्थों और भिक्षुओं को लाने के लिए भेजा। परिणामस्वरूप, भारत से 'धर्मरक्ष' और 'काश्यपमातंग' अनेक धर्मग्रन्थों तथा मूर्तियों को साथ लेकर चीन पहुंचे और वहां उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना की। धर्मग्रन्थ श्वेत अश्व पर रख कर चीन ले जाए गए थे, इसलिए चीन के प्रथम बौद्ध विहार को श्वेताश्वविहार की संज्ञा दी गई। भारत-चीन के सांस्कृतिक संबंधों की जो परंपरा इस समय स्थापित की गई थी, उसका पूर्ण विकास आगे चल कर फ़ाह्यान (चौथी शती ई.) और युवानच्वांग (सातवीं शती ई.) के समय में हुआ, जब चीन के बौद्धों की सबसे बड़ी आकांक्षा यहां रहती थी कि किसी प्रकार भारत जाकर वहां के बौद्ध तीर्थों का दर्शन करें और भारत के प्राचीन ज्ञान और दर्शन का अध्ययन कर अपना जीवन समुन्नत बनाएं। उस काल में चीन के बौद्ध, भारत को अपनी पुण्यभूमि और संसार का महानतम सांस्कृतिक केंद्र मानते थे।


चीन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक, जो एशियाई महाद्वीप के पू‍र्व में स्थित है। चीन की सभ्यता एवं संस्कृति छठी शताब्दी से भी पुरानी है। यह दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। चीन ही एक ऐसा देश है, जिसने सबसे पहले काग़ज़ बनाने का काम शुरू किया था। ऐतिहासिक रूप से चीनी संस्कृति का प्रभाव पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों पर रहा है और चीनी धर्म, रिवाज़ और लेखन प्रणाली को इन देशो में अलग-अलग स्तर तक अपनाया गया है। चीन के निवासी अपनी भाषा में अपने देश को 'चंगक्यूह' कहते हैं। कदाचित इसीलिये भारत तथा फ़ारस के प्राचीन निवासियों ने इस देश का नाम अपने यहाँ 'चीन' रख लिया था।[4]

चीन तथा मंगोलिया

दलीप सिंह अहलावत[5] ने लिखा है.... चीना या चीमा क्षत्रिय चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र (अनु के वंशज हैं। ये लोग आर्यावर्त से चीन देश में गये और वहां बस्तियां बसाकर राज्य स्थापित किया1। चीन शब्द के विषय में प्रो. हीरन लिखते हैं कि चीन शब्द हिन्दुओं का है और हिन्दुस्थान से ही आया है। मंगोल, तातार और चीनी लोग अपने को चन्द्रवंशी क्षत्रिय मानते हैं। तातार लोग ‘अय’ को अपना पूर्वज मानते हैं जबकि चीनी लोग ‘यू’ को अपना पूर्वज मानते हैं। तातारों का ‘अय’, चीनियों का ‘यू’ और पौराणिकों का आयु एक ही व्यक्ति है। इन तीनों का आदि पुरुष चन्द्र (सोम) था जिससे चन्द्रवंश प्रचलित हुआ। अनेक इतिहासज्ञ चीना या चीमा जाटों को ही चीन देश के आदि शासक मानते हैं2। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, चीना या चीमा प्रकरण)।

वैदिक सम्पत्ति के लेखक पं० रघुनंदन शर्मा साहित्यभूषण ने पृ० 426-427 पर लिखा है कि “चीनियों के आदि पुरुष के विषय में प्रसिद्ध चीनी विद्वान् यांगत्साई ने सन् 1558 ई० में एक ग्रन्थ लिखा था। इस ग्रन्थ को सन् 1776 ई० में ‘हूया’ नामी विद्वान् ने फिर सम्पादित किया। उसी पुस्तक



1. क्षत्रियों का उत्थान पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 382 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
2. वैदिक सम्पत्ति, पृ० 415-426, लेखक पं० रघुनन्दन शर्मा, जाट इतिहास पृ० 7-8, लेखक श्रीमदाचार्य श्रीनिवासाचार्य महाराज; तथा भारत का शुद्ध इतिहास, प्राचीन भारत (भाग 1, पृ० 134, लेखक आचार्य प्रेमभिक्षु)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-323


का पादरी क्लार्क ने अनुवाद किया है। उसमें लिखा है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में भारत के मो० लो० ची० राज्य का आइ० यू० नामक राजकुमार यून्नन प्रान्त में आया। इसके पुत्र का नाम ती० मोगंगे था। इनके नौ पुत्र पैदा हुए। इन्हीं के सन्ततिविस्तार से समस्त चीनियों की वंशवृद्धि हुई है। चीनवालों का भारत से इतना अधिक सम्बन्ध रहा कि यहां से ब्राह्मण लोग धर्मप्रचार के लिए चीन को जाते थे और चीन निवासी यहां आकर फिर से आर्यों के समाज में मिल जाते थे। सर्वप्रथम आर्य लोग ‘चीनी’ बनकर चीन गये थे, इसीलिए चीनियों के आर्यवंशज होने में जरा भी सन्देह नहीं है।”

जाट इतिहास लेखक श्रीमदाचार्य श्रीनिवासाचार्य ने पृ० 8 पर लिखा है कि “तातार लोग भी अपने को चन्द्रवंशी मानते हैं। तातार शब्द यों बना है - तातः = पिता, ‘तारको यस्य स ताततारः’। जिस वंश का तात = पिता तारा (बुध) हो वह वंश ताततार होता है जो आगे चलकर तातार हो गया। जर्मन लोग भी अपने को तातार मानते हैं और इसीलिए चन्द्रमा को अपना पूज्य मानते हैं।”

महाभारतकाल में चीन देश में चीना-चीमा, औलिक, पौरव आदि अनेक जाटवंशों का राज्य था। चीन के उत्तर तथा मंगोलिया में अहलावत, तङ्गण-परतङ्गण, अर्ह, पारद, चट्ठा-चगता आदि जाटों के राज्य थे। उस समय अहलावत जाटों का प्रजातन्त्र राज्य इलावृत देश में था जो आज मंगोलिया में अल्ताई नाम से कहा जाता है। अर्ह, पारद, तङ्गण, परतङ्गण जाटों का प्रजातन्त्र राज्य मेरु और मन्दराचल पर्वतों के बीच में बहने वाली शैलोदा नदी के दोनों तटों पर था। (अधिक जानकारी के लिए इन गोत्रों के प्रकरण, तृतीय अध्याय में देखो)।

जाट इतिहास पृ० 173-174 पर ठा० देशराज लिखते हैं कि - :“अब भी टांग (तांग) पर्वतमाला तङ्गण जाटों के नाम से मानसरोवर से आगे है। मौर्यकाल में यादव कुल के हैंगा जाट भारतवर्ष से चीन गये और वहां पर हिंगू पहाड़ एवं हुंगहू नदी के किनारे काफी समय तक राज्य किया और फिर स्वदेश आ गये जो आजकल हैंगा1 कहलाते हैं।” चीनी इतिहासकार डिगायन ने जाटों का अन्य वर्णन करते हुए उन्हें बौद्ध-धर्मावलंबी लिखा है (टाड राजस्थान पहली जिल्द)। मि० ग्राउस साहब अपने लिखित इतिहास ‘मथुरा मेमायर्स’ में नववीर (नोहवार) जाटों को खोतन के पास नोह झील से वापिस आए हुए बताते हैं। वे लिखते हैं कि “नोहवार भारतीय नवराष्ट्र के रहने वाले लोग थे और वे खोतन के ऊपर तक पहुंच गये थे। हूणों के आक्रमण से पहले वे भारत में वापिस आ गये थे और अब नोह झील (जिला मथुरा) क्षेत्र में रहते हैं।” मि० कनिंघम साहब सिक्ख इतिहास में लिखते हैं कि “जाटों के अन्दर एक चीन गोत्र है जिससे उसका चीन जाना सिद्ध होता है। विदेशों में जातियां या तो उपनिवेश स्थापना के लिये जाती हैं अथवा धर्म-प्रचार के लिये। जाटों ने दोनों ही कार्य चीन में जाकर किये।”

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० X, XI पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “चीनियों के कहने अनुसार हिंगनू लोग यूची (जाट) लोगों का ही एक हिस्सा था। इन यूची या जूटी लोगों के


1. हैंगा शब्द को चीनी भाषा में हिंगनू बोलते हैं। इन हैंगा जाटों के नाम पर हिंगू पहाड़ एवं हुंगहू नदी चीन देश में है। हैंगा जाट जिला मथुरा में काफी संख्या में आबाद हैं। इनके वहां 360 गांव हैं। हिंगू लोगों की धाक और उनके राज्य की चर्चा चीन देश में अब तक व्याप्त है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-324


दो बड़े खण्ड (विभाग) थे जिनमें से एक नाम “ता-यू-ची”, जिसका अर्थ है - महान् (प्रसिद्ध, शक्तिशाली) जाट संघ और दूसरे का नाम “सिऊ-यू-ची” था, जिसका अर्थ है छोटा या साधारण जाटसंघ। यूनानी प्रसिद्ध इतिहासकार हैरोडोटस ने जाटों के इन दो बड़े विभागों को मस्सा-गेटाई, जिसका अर्थ है “महान् जाट” (Great Jats) और थीस्सा गेटाई, जिसका अर्थ है छोटे जाट (Little Jats) लिखा है।” आगे इसी लेखक ने पृ० 25 पर लिखा है कि हिंगनू जाटों के दबाव से सिऊ-यूची जाट दक्षिण में तिब्बत की ओर चले गये और ता-यूची जाट पश्चिम की ओर गये और उन्होंने बैक्ट्रिया (बल्ख) पर अधिकार कर लिया।”

शिव गोत्र के जाट आरम्भ में शिवालिक की पहाड़ियों और मानसरोवर के निचले हिस्से में आबाद थे। ये लोग यहां से तीन हिस्सों में अलग-अलग फैल गये, जिनमें से इनका एक समुदाय तिब्बत को पार करके चीन पहुंच गया जो वहां की भाषा में श्यूची कहलाने लगे। कई इतिहासकारों का मत है कि कुषाण लोग इन्हीं श्यूची (शिवि) लोगों की एक शाखा थे। महाराजा कनिष्क कुषाणवंश के जाट नरेश थे (तृतीय अध्याय, शिवि गोत्र के प्रकरण में देखो)।

दहिया लोगों ने महाभारत युद्ध में भाग लिया था। उस समय ये लोग चीन की दक्षिणी भूमि पर रहते थे। (तृतीय अध्याय, दहिया प्रकरण देखो)।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 264 पर महाभारत भीष्मपर्व का हवाला देकर लिखा है कि “पामीर पठार के पूर्व में क्रौंच द्वीप (चीन, श्याम, मलाया-कम्बोडिया आदि देश) में एक देश का नाम चीनी भाषा में मानोनुगट (Manonugat) है जो कि भारतीय भाषा में मांगट है। यह मांगट जाट गोत्र है।” आगे यही लेखक पृ० 292 पर लिखते हैं कि “वराइच (वराइश) जाटवंशज लोग, चीना (चीमा), औधराण, हेर आदि के साथ थे। महाभारत में शिशिका देश का नाम है जो कि भारतवर्ष के उत्तर में था। यह शिशि गोत्र के जाटों के नाम पर शिशिका देश कहलाया।” ये सब जाट गोत्र हैं।

जाट्स दी एन्शेन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 4 पर चीनी इतिहासकारों के हवाले से लिखा है कि “जाटों का निवास बाहरी मंगोलिया तथा चीन के कांसू प्रान्त में था। (Ssu-Ma-Chien Sse-ki (Historical records) completed before 91 B.C.)।”

आगे यही लेखक पृ० 27 पर लिखते हैं कि “चांग-किन (Chang-kien) के लेख अनुसार, जिनको ‘एस एस इ-की’, अध्याय 123, फोल 4 (sse-ki chapter 123, Fol 4) में लिखा गया है, महान् जाट (तायूची) शुरु में तुन ह्वांग (Tun-Hawang) और की-लीन (Ki-Lien) के बीच के क्षेत्र में रहते थे। जाटों का पुराना देश चीन के कांसू प्रान्त में था। हूण लोग उनके निकटवर्ती प्रदेश में रहते थे (इण्डियन अनटिक्वेरी, 1905, P 75 तथा 1919, P 70)।” शक लोगों ने सिर दरिया और अरल सागर के प्रदेशों को आबाद किया। सिर दरिया के उत्तर के सब प्रदेश तब शक लोगों द्वारा आबाद थे। इन लोगों ने सिर दरिया के उत्तर-पूर्व इसिक-कुल झील क्षेत्र तथा उससे भी परे विविध प्रदेशों को आबाद किया था। गत वर्षों में रूस के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने शकों के प्राचीन भग्नावशेषों का अनुसन्धान कर इस जाति के धर्म, रीतिरिवाज तथा सभ्यता के विषय में बहुत सी नई बातें मालूम की हैं। शक लोग स्वलियु (सूर्य), दिवू (द्यौ), अपिया (आप्या = पृथ्वी), पक (भग--) आदि की पूजा करते थे। ऋषिक जाटों का निवास चीन के ठेठ पश्चिम में लोपनोर


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-325


झील के क्षेत्र में था। शकों और युइशि (ऋषिक) लोगों द्वारा आबाद प्रदेशों में बीच में तारिम नदी के उत्तर तथा श्वेत पर्वत (तिएनशान पर्वत) के दक्षिण के प्रदेश में तुखार (तुषार) लोग आबाद थे। शक, ऋषिक और तुषार (तीनों जाट गोत्र) लोगों की इस विशाल भूमि (चीन के पश्चिम से लगाकर अरल सागर तक के सब प्रदेशों) के उत्तरपूर्व में हूण जातियां बसी हुईं थीं। वर्तमान समय के मंगोलिया, मंचूरिया और उनके उत्तर में साइबेरिया के प्रदेश (प्रान्त) हूण लोगों की भूमि थी1

श्वेत हूण या हेफताल (Hephthalites) :

  1. कुछ इतिहासज्ञों का मत है कि हेफताल हूण न होकर शक जाति के थे, पर हूणों के सम्पर्क में रहने के कारण उनके रहन-सहन तथा संस्कृति पर हूणों का बहुत प्रभाव हो गया था। इतिहास के ग्रन्थों में इन्हें प्रायः श्वेत हूण के नाम से ही लिखा जाता है। अतः हम भी इसी संज्ञा का प्रयोग करेंगे2
  2. थुङ्ग-किअङ्ग-नू (Thung-Kiang-Nu) पुस्तक के चीनी लेखक ने सन् 555 ई० में लिखा है कि “अपतल या हेफताल (Aptal or Hephthalites) लोग ता-यूची (महान् जाट) जाति के थे।3
  3. एच० जी वल्ज़ (H.G. Wells) ने हेफताल (Hephthalite) को हूण कहा है और लिखा है कि ये लोग यूची (जाट) जाति के वंशज थे4
  4. कलविन केफर्ट ने हेफताल या श्वेत हूणों के विषय में लिखा है कि उन लोगों को उनके शत्रुओं ने श्वेत हूण कहा। चीनियों के अनुसार वास्तव में वे लोग यू-ची या गेटी, यानि जाट जाति के थे। (P. 525 quoting Encyclopaedia Britannica, 13th Edition, Vol. 9, P, 679-680 and Vol. 20, P. 422) (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 345, लेखक बी० एस० दहिया)।

ऊपरलिखित लेखकों के आधार पर यह तो माना जा सकता है कि श्वेत हूण जाट जाति के वंशज थे परन्तु यह कहना कि जाट लोग हूणों के वंशज थे, बिल्कुल निराधार तथा प्रमाणशून्य है।

चीन में तांगवंश के जाट राजाओं का शासन - इस तांगवंश के शासन का प्रारम्भ 618 ई० में हुआ था और इसका प्रथम राजा काओत्सु था जिसने खोतान देश को भी अपने अधीन कर लिया था। इस कारण से वहां के राजा चीन के साथ मैत्री-सम्बन्ध कायम रखने के उत्सुक रहते थे।

सातवीं शताब्दी के शुरु में विजितसंग्राम नामक राजा ने खोतन देश को तुर्कों की अधीनता से स्वतन्त्र करा लिया था। यह राजा खोतन के पुराने राजाओं (जाट) का वंशज था। इस राजा ने 632 ई० में अपना एक दूतमंडल चीन के तांग वंशज सम्राट् के दरबार में भेजा और तीन वर्ष बाद अपने पुत्र को भी चीन के दरबार में भेजा। 628 ई० में राजा, जो कि विजितसंग्राम का उत्तराधिकारी था, स्वयं चीन के राजदरबार में उपस्थित हुआ था। इस काल में चीन में तंगवंश के राजाओं का शासन था, जो अत्यन्त शक्तिशाली तथा महत्त्वाकांक्षी थे।


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 77-78, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।
2. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 82, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।
3. (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 25, लेखक बी० एस० दहिया।
4. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 50, लेखक उजागरसिंह माहिल


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-326


सातवीं सदी में तिब्बत में ‘स्रोङ्-गचन-पो’ नाम का शक्तिशाली राजा हुआ। उसने पड़ौस के अनेक राज्यों को जीत लिया। इसके उत्तराधिकारियों ने खोतन को भी तिब्बत की अधीनता में कर लिया। खोतन का अन्तिम राजा विजितवाहम था।

चीन के तांगवंशी राजाओं ने अपने शक्ति फिर से बढ़ाई और आठवीं सदी का अन्त होने से पूर्व ही मध्य एशिया के विविध प्रदेशों पर से तिब्बत के शासन का अन्त कर दिया1

नोट - खोतन प्रदेश जाटों ने आबाद किया तथा वहां पर शासन किया। इसका वर्णन आगे के पृष्ठों पर किया जाएगा।

हूणों का आक्रमण - चीन और मंगोलिया के इतिहास की जंजीर मध्य एशिया तथा अन्य देशों तक चली गई है। इस शृंखला को जोड़ने के लिये अन्य सम्बन्धित देशों का भी संक्षिप्त इतिहास लिखने की आवश्यकता है।

यह पहले लिख दिया गया कि विशाल शकभूमि के उत्तरपूर्व तथा चीन के उत्तर में मंगोलिया, मंचूरिया आदि में हूण लोग रहते थे। समय-समय पर ये लोग चीन देश पर आक्रमण करते रहते थे। इनके धावों से बचाव करने के प्रयोजन से चीनवालों ने एक विशाल दीवार का निर्माण शुरु किया। 246 ई० पू० में चीनी सम्राट् शेह्नांगती ने इस विशाल दीवार बनाने का कार्य पूरा किया, जो कि संसार के सात आश्चर्यजनक निर्माणों में से एक है।

अब हूणों ने पश्चिम-दक्षिण की ओर से ऋषिक लोगों के प्रदेश पर लगभग 176 ई० पू० में आक्रमण कर दिया। हूणों से हारकर ये लोग तारिम नदी के उत्तर तथा तिएनशान पर्वत के दक्षिण के उस प्रदेश में प्रविष्ट हो गए, जहां तुखार (तुषार) लोग रहते थे। ऋषिकों ने तुषारों को अपने अधीन कर लिया। हूणों ने 165 ई० पू० में ऋषिक-तुषारों पर वहां भी आक्रमण कर दिया। ये लोग हूणों से हारकर पश्चिम दक्षिण की ओर तिएनशान पर्वत को लांघकर सिर दरिया की घाटी के उस प्रदेश में जा पहुंचे, जहां पर शक लोगों की प्रधान शाखा रहती थी। ऋषिक-तुषारों से परास्त होकर शक लोग वहां से सुग्ध तथा वाह्लीक की ओर अग्रसर हुए। पर ऋषिक-तुषारों ने वहां पर भी शक लोगों पर आक्रमण जारी रखा। उन दिनों वाह्लीक (बाख्त्री-बैक्ट्रिया-बल्ख) में यवनों (यूनानियों) का शासन था। ऋषिक-तुषारों ने यूनानियों को परास्त करके उनके इस राज्य का अन्त कर दिया तथा वहां पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने कम्बोज (आज का बदख्शां) जो अफगानिस्तान के उत्तर पश्चिम में है, पर भी अधिकार कर लिया। तुखार (तुषार) ऋषिकों के नाम पर यह देश तुखार देश या ‘तुखारिस्तान’ कहलाने लगा जिसकी सीमा भारत और ईरान के बीच में थी और बदख्शां तथा बल्ख के प्रदेश इसके अन्तर्गत थे। तीसरी सदी ईस्वी पूर्व तक इस देश में तुषार-ऋषिकों का प्रवेश नहीं हुआ था। तब वहां पर आर्य जाति की कतिपय शाखाएं बसी हुईं थीं जिनकी भाषा तथा धर्म आदि भारत तथा ईरान के आर्यों जैसा था। ऋषिक-तुषार लोगों ने दूसरी सदी ई० पू० का अन्त होने से पहले ही इस देश को जीत लिया था। इससे पहले बदख्शां तथा बल्ख प्रदेशों पर ईरान के हखामनी सम्राटों का शासन था और सिकन्दर की विजयों के पश्चात् बल्ख के क्षेत्र में एक यवन (यूनानी) राज्य स्थापित हो गया था, जिसे


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 94-95, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-327


बैक्ट्रिया (बाख्त्री) कहते थे।

चीन के प्राचीन ग्रन्थों में तुखारिस्तान का नाम ‘ताहिआ’ लिखा है। ह्यू एन-त्सांग ने इस देश का वर्णन किया है कि इसके उत्तर में दरबन्त (बदख्शां के समीप), दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, पश्चिम में पर्शिया (ईरान) और पूर्व में पामीर की पर्वतमाला थी। उस समय तुखारिस्तान बौद्धधर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । ऋषिक तुषारों का धर्म बौद्ध और जीवन युद्धमय था1

ऋषिक-तुषारों ने हूणों को हराकर मंगोलिया की ओर भगा दिया और पूर्व की ओर बहुत बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उनकी इस विशाल भूमि का नाम सरिन्दिया (Ser-India) पड़ा, जिसको हिन्दी में ‘ऊपरला हिन्द’ कहा जाता है2

यह ऊपरला हिन्द पश्चिमी बदख्शां से आरम्भ होकर पूर्व में लोपनोर झील तथा गोबी के मरुस्थल तक विस्तृत था। इस क्षेत्र के नगरों के अवशेष इस समय काशगर, यारकन्द, नीया, खोतन, कुचि आदि में उपलब्ध हुए हैं। इनसे यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि राजनैतिक दृष्टि से भारत के अन्तर्गत न होते हुए भी ये सब भारतीय सभ्यता के केन्द्र थे। इस तुखारिस्तान में ऋषिक-तुषारों ने अपने अनेक राज्य कायम किए। आगे चलकर कुषाण वंश के राजाओं ने जिन्हें जीतकर अपने अधीन कर लिया और एक शक्तिशाली व सुविस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। पांचवीं सदी तक तुखारिस्तान कुषाणों के शासन में रहा3। इसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

रामायणकाल में ऋषिकों का राज्य था और महाभारत एवं पुराणों के लेख अनुसार ऋषिक व तुषार वंश महाभारतकाल में अपने पूरे वैभव पर थे, ये लोग महाभारत युद्ध में लड़े थे। सम्राट् कनिष्क कुषाणगोत्री जाट के शासनकाल में ऋषिकवंशी महात्मा लल्ल ने इन चन्द्रवंशी ऋषिक व तुषार जाटों के संघों का संगठन कर दिया जिनसे इनका नाम गठवाला पड़ गया। इनका पूज्य पुरुष लल्ल ऋषि था और पदवी मलिक हुई जिससे इनका पूरा नाम लल्ल गठवाला मलिक है। (पूरी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, ऋषिक-तुषार मलिक प्रकरण)।

चीन के उत्तर में विशाल दीवार बनने के बाद, हूण लोग अब चीन के पश्चिम के उन प्रदेशों में आ बसे थे, जहां पहले ऋषिकों (युइशियों) का निवास था। ये लोग समय-समय पर पश्चिम की ओर से आक्रमण करते रहते थे; जिनका सामना करना चीन के लिए कठिन था। इस दशा में चीन के सम्राट् वू-ती (142-85 ई० पू०) ने अपने सेनापति चाङ्-कियन को 138 ईस्वी पूर्व में हूणों के विरुद्ध सहयोग प्राप्त करने के लिये ऋषिक-तुषारों के पास भेजा। उस समय इन लोगों का शासन तुखारिस्तान पर था। चाङ्-कियन को हूणों ने मार्ग में ही पकड़ लिया और उसे 10 वर्ष तक अपनी कैद में रखा। कैद से छूटकर वह सिर दरिया के दक्षिण में स्थित खोकन्द पहुंचा, और वहां से समरकन्द होता हुआ बल्ख (बैक्ट्रिया) आ गया जो उस समय ऋषिक-तुषारों के शासन में था। चाङ्-कियन ने उनसे हूणों के विरुद्ध सहयोग की याचना की। अतः ऋषिक-तुषारों ने हूणों पर पश्चिम की ओर से पुरजोर आक्रमण आरम्भ कर दिया तथा चीन ने हूणों पर पूर्व की ओर से


1, 2. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 12, 78-79, 108-109,
3. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 332, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


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दबाव डाला। ये आक्रमण 127 ई० पू० से 119 ई० पू० तक होते रहे। अन्त में हूणों को परास्त करके चीन की पश्चिमी सीमा से उत्तर में मंगोलिया की ओर खदेड़ दिया। चीन-भारत की मैत्री का यह पहला अवसर माना जाता1 है।

पहली सदी ईस्वी पूर्व, उत्तर में हूणों के सम्राट् को चीनी भाषा में ‘जीजी’ कहा जाता था। इस समय से पहले ता-यूची (महान् जाट) की एक शाखा हेंगा जाटों की थी जिसे जन्जौ-जनजौन गोत्र के जाटों ने परास्त किया था। श्वेत हूणों ने मंगोलिया से अन्य जातियों को बाहर धकेल दिया था। वे चीन से रोम तक बढ़ गये थे; इस विषय में आगे लिखा जायेगा1

सन् 551 ई० में अलताई क्षेत्र के लोगों ने जन्जौन जाटों के विरुद्ध बलवा कर दिया और बाहरी मंगोलिया में अपना राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी राजधानी ओरखोन (Orkhon) के निकट थी। उन लोगों को चीनियों ने ‘तू-कियु’ कहा है जबकि अन्य लेखकों ने ‘तुर्क’ कहा है। सन् 551 ई० से पहले ‘तुर्क’ शब्द का प्रयोग नहीं था, हो सकता है इनकी शक्ति कम थी3

चंगेजखां और उसके पूर्वपुरुष” नामक पुस्तक में हैनरी एच. होवर्थ ने लिखा है कि चंगेजखां बोगदा शूरवीर था (इण्डियन अन्टिक्वारी, 1886; जिल्द 15, पृ० 129)। यह बोगदावत जाट गोत्र है। चंगेजखां की सेना में 30,000 जाट एवं 20,000 भारतीय मूल के सैनिक थे, जिनका सेनापति बेला नौयन था जो कि नैण जाट गोत्र है।

तैमूरलंग का जाटों के साथ अनेक बार युद्ध हुआ है। एक बार तैमूरलंग समरकन्द के जाट राज्यपाल जिसका नाम औघलान उपनाम खोजा था, के सलाहकार के तौर पर उसके दरबार में रहा था। यह औघलान जाट गोत्र3 है। इनका वर्णन आगे उचित स्थान पर किया जाएगा।

सम्राट् कनिष्क कुषाण वंशी जाट का चीन से युद्ध - चीन ने ऋषिकों के प्राचीन प्रदेश, जो लोपनोर झील से तिएनशान पर्वतमाला तक थे, अपने अधीन कर लिया था। तकला मकान की मरुभूमि के दक्षिण में उन दिनों तेरह राज्य थे, जिनमें खोतन सर्वप्रधान था। सन् 73 ई० में चीनी सम्राट् हो-ती ने अपने सेनापति पान-छाओ को इस उद्देश्य से खोतन भेजा, ताकि वहां के राजा से सहयोग प्राप्त कर इन सब राज्यों को चीन का वशवर्ती बना लिया जाए। पान-छाओ को यह सहयोग मिल गया जिससे उसने दक्षिणी मध्य एशिया के सब राज्यों को अधीन कर लिया तथा सुग्ध (सोग्डियाना) देश को जीतकर चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा को कैस्पियन सागर तक पहुंचा दिया। तारिम नदी की घाटी में जो अनेक राज्य थे, पान-छाओ ने उनको भी जीतकर अपने अधीन कर लिया। इस स्थिति को देखकर सम्राट् कनिष्क ने चीन से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने हेतु अपना दूत यह सन्देश लेकर पान-छाओ के पास भेजा, कि एक चीनी राजकुमारी का उसके साथ विवाह कर दिया जाए। पान-छाओ ने उस दूत को जेल में डाल दिया। इस पर कनिष्क ने एक


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 79, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार, जाटों का उत्कर्ष पृ० 332, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, ऋषिक-तुषार प्रकरण।
3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० क्रमशः 283 एवं 29 लेखक बी० एस० दहिया, बहवाला Paul Pelliot La, Haute Asie, P. 12.
4. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज]] पृ० 60-61, लेखक बी० एस० दहिया।


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विशाल सेना के साथ उत्तर-पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। पर पान-छाओ ने उसे पामीर से पूर्व की ओर नहीं बढ़ने दिया। ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी के समाप्त होने से पूर्व ही पान-छाओ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र पान-छांग चीन की पश्चिमी सेना का सेनापति बना। अब कनिष्क ने फिर चीन पर आक्रमण करके पान-छांग को परास्त कर, अपने पुराने जातीय ऋषिकों के प्रदेश को फिर से अपने अधिकार में ले लिया। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया के उन सब प्रदेशों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया जो पहले चीन के वशवर्ती थे। चीन कहीं फिर उसके विरुद्ध सैन्यशक्ति का प्रयोग न करे, इसके लिए कनिष्क कुछ चीनी राजकुमारों को बन्धक या जामिन के रूप में अपने साथ भारत ले आया। कनिष्क अब उत्तरी भारत एवं मध्य एशिया का शासक बन गया था। इसने भारतीय संस्कृति तथा बौद्ध-धर्म को चीन व मध्य एशिया में फैलाया1

चीन तथा मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति तथा धर्म के फैलाने में जाटों का योगदान

दलीप सिंह अहलावत[6] ने लिखा है....“मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति” नामक पुस्तक, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार -

1. चीन की एक प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार अशोक (273 ई० पू० से 237 ई० पू०) के समय कुछ बौद्ध प्रचारक चीन गए थे और उनके द्वारा वहां बौद्धधर्म का प्रचार प्रारम्भ किया गया था (पृ० 15)। यह तृतीय अध्याय में लिख दिया गया है कि सम्राट् अशोक मौर्य-मौर वंशज जाट थे।

2. चीन के प्राचीन वृत्तान्तों के अनुसार हानवंश के चीनी सम्राट् मिंग-ती ने अपने दूत पश्चिम की ओर भेजे। वे दूत ऋषिकों (युइशियों) के राज्य में जा पहुंचे। ये लोग इस समय तक बौद्धधर्म को अपना चुके थे और वहां पर बहुत से भारतीय बौद्ध विद्वान् विद्यमान थे। मिंग-ती के निमन्त्रण पर वहां से 60 ई० पू० में धर्मरत्न और कश्यप मातंग नामक भारतीय भिक्षु चीन गये। ये दोनों भिक्षु ऋषिक गोत्र के थे। ये चीन की राजधानी सीङान्-फू (जो अब चीन के हूपे प्रान्त का मुख्य नगर है, में ठहरे, जहां पर उन्होंने श्वेताश्व नामक विहार की स्थापना की। वहां निवास करते हुए इन्होंने बौद्धधर्म का प्रचार किया तथा अनेक बौद्ध-ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया (पृ० 15)।

3. युइशि (ऋषिक) प्रचारक लोकक्षेम नामक भिक्षु, अमू दरिया के क्षेत्र पर ऋषिकों के राज्य से, सन् 147 ई० में चीन गया। उसने लोयांग को केन्द्र बनाकर अनेक बौद्धग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। सन् 147 से 188 ई० तक 41 वर्ष के लम्बे समय में इस भिक्षु ने चीन में बौद्धधर्म के प्रचार के लिए अत्यन्त सराहनीय कार्य किया। लोकक्षेम द्वारा अनूदित अनेक ग्रन्थ इस समय भी पाये जाते हैं।

लोकक्षेम का एक शिष्य चे-कियन था, जो अपने गुरु के समान ऋषिकवंशज जाट था। वह लोयांग से नानकिंग चला गया और उसने चीन की इस नगरी को केन्द्र बनाकर अपना कार्य शुरू किया। सन् 220 से 253 ईस्वी तक चे-कियन ने 100 से भी अधिक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिसमें से 49 अब भी उपलब्ध हैं। दक्षिणी चीन में कार्य करने वाला यह सर्वप्रथम बौद्ध-भिक्षु था। (पृ० 163)।


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 80-81, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


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4. चीन में धर्मप्रचार का कार्य करने वाले युइशि (ऋषिक) वंशज भिक्षुओं में धर्मरक्ष का विशेष महत्त्व है। इसका जन्म तीसरी शताब्दी के मध्य में एक ऋषिक परिवार में हुआ था जो कि तुङ्-ह्रांग में बसा हुआ था। उसने अपने भारतीय गुरु से शिक्षा ली तथा उसके साथ मध्य एशिया के अनेक बौद्ध विहारों की यात्रा की। इस प्रकार भ्रमण करते हुए धर्मरक्ष ने 36 भाषायें सीख लीं और बौद्धधर्म का गम्भीर ज्ञान प्राप्त कर लिया। सन् 284 से 313 ईस्वी तक वह चीन में रहा। वहां उसने 200 से भी अधिक संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिनमें से 90 अब तक भी उपलब्ध हैं। उसने चीन में अनुवादकों के एक संघ को भी गठित किया, जिसमें भारतीय, ऋषिक, चीनी आदि विद्वान् व भिक्षु एक साथ मिलकर कार्य करते थे। लोकक्षेम, चेकियन तथा धर्मरक्ष के समान ऋषिकवंशज अनेक भिक्षु चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये गए थे। कुषाणवंशी राजा भी ऋषिकवंशज थे और भारत के सम्पर्क में आकर पूर्णतया भारतीय बन गये थे (पृ० 163-164)।

5. पार्थियन बौद्ध प्रचारक - प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पार्थिया को ‘पह्लव’ कहा गया है, और रामायण, महाभारत तथा पुराणों में शक, पह्लव, बर्बर नाम प्रायः साथ-साथ आते हैं जो कि जाटवंश हैं। (तृतीय अध्याय, शक पह्लव, बर्बर प्रकरण देखो)।

पार्थिया प्रदेश बैक्ट्रिया (बल्ख) के पश्चिम और कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित था। इसकी स्थापना पह्लववंशज जाटों ने 248 ई० पू० में की थी, जिनके नेता असरक और तरिदात थे। इन्होंने ईरान को भी जीत लिया था। यहां के राजाओं तथा निवासियों ने बौद्धधर्म अपना लिया था। दूसरी सदी ईस्वी में पह्लव वंश का बौद्धभिक्षु चीन गया। चीनी साहित्य में उसका नाम न्गन-चे-काओ तथा संस्कृत नाम लोकोत्तम था। वह चीन में श्वेताश्व विहार में रहा, जहां इसने अनुवादकों के लिए एक पीठ की स्थापना की। इसने स्वयं 100 से भी अधिक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिसमें से 55 इस समय भी उपलब्ध हैं। उस अनुवाद पीठ में बहुत से विद्वानों में से ‘न्गन हिउअन’ का नाम उल्लेखनीय है। वह भी पह्लव वंश का था और व्यापार के लिए लोयांग में बसा हुआ था (पृ० 53, 165)।

6. खोतन - इसकी स्थिति यारकन्द के पूर्व में है, जो प्राचीनकाल में तकला मकान मरुस्थल के दक्षिण के राज्यों में सबसे समृद्ध तथा शक्तिशाली था। खोतन को मौर्य-मौर जाटों ने आबाद किया था तथा वहां पर शासन किया था जिसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा। खोतन बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यहां से अनेक जाट बौद्ध-भिक्षु चीन गये और वहां पर बौद्ध-धर्म को फैलाया। समय-समय पर चीन के बौद्ध-भिक्षु, बौद्ध-धर्म के उच्च अध्ययन के लिए खोतन आते रहते थे। इनमें से प्रसिद्ध ‘चोउ-शे-हिंग’ नामक चीनी भिक्षु है, जो सन् 258 ईस्वी में खोतन गया था।

सन् 291 ईस्वी में मोक्षल नामक भिक्षु खोतन से चीन गया और वहां उसने पंचविंशतिसाहस्रिका पारमिता ग्रन्थ का चीनी भाषा में अनुवाद किया।

पांचवीं सदी के प्रारम्भ (401-433 ईस्वी) में न्गन-यांग नामक चीनी राजकुमार बौद्ध-ग्रन्थों के उच्च अध्ययन के प्रयोजन से खोतन गया था। (पृ० 168-169)।

7. कुची राज्य के प्रचारक - तकला मकान मरुस्थल के उत्तर में स्थित राज्यों में ‘कुची’ सबसे अधिक शक्तिशाली था। इसके निवासियों में भारतीयों की संख्या बहुत अधिक थी। तीसरी सदी के


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अन्त तक यह सारा प्रदेश बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो चुका था। यहां से अनेक बौद्ध-भिक्षु चीन में गये। चीन में बौद्ध-धर्म का प्रचार करने वाले कुची के भिक्षुओं में कुमारजीव का स्थान सर्वोपरि है। उसके पिता का नाम कुमारायन था जो भारत के एक राजकुल में उत्पन्न हुआ था। वह भिक्षु होकर कुची पहुंचा। वहां के राजा ने उसकी विद्या तथा ज्ञान से प्रभावित होकर उसे गुरु के पद पर नियुक्त कर दिया। कुची के उस राजा की बहन जीवा उस पर मोहित हो गई और अन्त में दोनों का विवाह हो गया। इनकी दो सन्तानें हुईं, कुमारजीव और पुष्यदेव। कुमारजीव की माता जीवा भिक्षुणी हो गई और उसने कुमारजीव को कश्मीर लाकर वहां के राजा के भाई बन्धुदत्त बौद्ध आचार्य से बौद्ध-धर्म की ऊंची शिक्षा दिलाई। कश्मीर में विद्या ग्रहण करके कुमारजीव शैल देश (काशगर) आया। उसने वहां चारों वेदों, वेदांगों, दर्शन और ज्योतिष आदि का अध्ययन किया। उस समय शैल देश प्राचीन वैदिकधर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था। 383 ईस्वी में कुमारजीव अपने देश कुची आ गया और वहां से वह 401 ईस्वी में चीन की राजधानी में पहुंचा। वहां उसने 10 वर्ष में 106 संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। उसके पाण्डित्य की कीर्ति सारे चीन में फैली हुई थी और उससे शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से चीनी विद्यार्थी तथा भिक्षु उसकी सेवा में पहुंचा करते थे।

कुमारजीव ने अपने कार्य में सहायता के लिए बहुत से विद्वानों को भारत से भी चीन बुलाया। उसके अनुरोध से जो भारतीय विद्वान् चीन गये, उनमें विमलाक्ष, पुण्यत्रात, बुद्धयश, गौतम संघदेव, धर्मयश, गुणवर्मा, गुणभद्र और बौद्धवर्मा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। चीन में जो बौद्ध-धर्म का प्रसार हुआ, उसमें ये सब कुमारजीव के सहयोगी थे (पृ० 166-68)।

इसी प्रकार तिब्बत में भी भारतीयों ने बौद्ध-धर्म फैलाया। मध्य एशिया, चीन, तिब्बत, मध्य-पूर्व, मंगोलिया आदि देशों में जाटों ने उपनिवेश स्थापित किए तथा वहां शासन किया। ये देश सांस्कृतिक दृष्टि से वृहत्तर भारत के अंग रहे हैं।

संस्कृति तथा धर्म के प्रकरण को लिखने का तात्पर्य यह है कि पाठक समझ जाएं कि जाट केवल युद्धवीर तथा योग्य शासक ही नहीं हैं बल्कि समय-समय पर उच्चकोटि के विद्वान् भी होते आये हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति तथा धर्म को देश-विदेशों में फैलाया।

Further Reading

  • Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992.
  • Kishori Lal Faujdar:Jat aur Iran Desh, Jat Samaj Magazine Agra, November 1997
  • JAMES LEGGE : A RECORD OF BUDDHISTIC KINGDOMS (Being an Account by the Chinese Monk Fa-Hien of his Travels in India and Ceylon (A.D. 399-414) in Search of the Buddhist Books of Discipline Translated and annotated with a Corean recension of the Chinese text)

References

External links

See also


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