Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter IV

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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चतुर्थ अध्याय: महाभारत युद्ध के बाद विदेशों में जाट राज्य

Contents

मध्य एशिया, सीथिया देश, यूरोप, मिश्र, मध्य पूर्व

पाठकों की जानकारी के लिए इस विषयसम्बन्धी कुछ आवश्यक स्थानों का भौगोलिक ब्यौरा निम्नलिखित है -

(क) मध्य एशिया -

चीन के पश्चिम, ईरान तथा अफगानिस्तान के उत्तरपूर्व, तिब्बत के उत्तर और एशियाई रूस के दक्षिण में जो विशाल खण्ड है, उसे ही स्थूल रूप से मध्य एशिया कहा जाता है। इसे तुर्किस्तान भी कहते हैं। राजनैतिक दृष्टि से वर्तमान समय में यह दो भागों में विभक्त है - 1. चीनी तुर्किस्तान 2. रूसी तुर्किस्तान।

  1. चीन के जनवादी गणतन्त्र राज्य के अन्तर्गत चीनी तुर्किस्तान है जिसे सिंगकियांग कहते हैं। इसे पूर्वी मध्य एशिया भी कहा जाता है।
  2. रूसी तुर्किस्तान जो रूस की समाजवादी सोवियत रिपब्लिक के अन्तर्गत है, इसे पश्चिमी मध्य एशिया भी कहा जाता है। प्राकृतिक दृष्टि से पश्चिमी मध्य एशिया के दो भाग हैं, दक्षिणापथ और उत्तरापथ। सिर दरिया और अरल सागर के दक्षिण में पश्चिमी मध्य एशिया का जो भाग है उसे दक्षिणापथ कह सकते हैं। इस भाग में तुर्कमान रिपब्लिक, उजबेक रिपब्लिक, ताजिक रिपब्लिक और किरगिज रिपब्लिक स्थित हैं। उत्तरापथ में कज्ज़ाख रिपब्लिक है जो कि अरल सागर के उत्तर में स्थित है।

मध्य एशिया के इस विशाल भूखण्ड का बड़ा भाग मरुभूमि के रूप में है, यद्यपि सीता (तारिम) नदी, सिर दरिया, अमू दरिया आदि अनेक नदियां इसमें विद्यमान हैं। पामीर पठार, कराकुरम, तिएनशान, कनलुन, उल्लाई आदि अनेक पर्वतमालायें भी इसमें स्थित हैं।

अमू दरिया (ऑक्सस) - यह पामीर पठार से निकलकर उत्तर की ओर बहता हुआ अरल सागर में गिरता है।

सिर दरिया (सीर) - यह तिएनशान पर्वत से निकलकर पश्चिम की ओर बहता है और फिर अपना बहाव उत्तर की ओर करता हुआ अरल सागर में गिरता है।

सुग्धदेश या सोग्डियाना - अमू दरिया और सिर दरिया के मध्यवर्ती प्रदेशों को प्राचीनकाल में सुग्धदेश कहते थे। इसका प्रधान नगर बुखारा या बोखारा था।

सीता (तारिम) नदी - यह नदी पामीर पठार से निकलकर उत्तर-पूर्व को बहती है। आगे चलकर पूर्व की ओर अपना बहाव कर लेती है और ‘तकला मकान’ मरुस्थल के उत्तर में बहती हुई लोपनोर झील में गिर जाती है।

तारिम नदी की दो सहायक नदियां यारकन्द और खोतन हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-316


तारिम नदी के उत्तर में काशगर (खश), तुर्फान (काओशांग), अक्सू, भरूक, कुचि और कारा शहर आदि हैं और दक्षिण में यारकन्द (चौककुक), खोतन, नीया और चर्चन आदि हैं।

सरिन्दिया (Serindia) - पामीर की पर्वतमाला से गोबी के मरुस्थल के बीच के प्रदेश को “सरिन्दिया” या हिन्दी में “ऊपरला हिन्द” कहा गया है।

यह ऊपरला हिन्द पश्चिमी बदख्शां (कम्बोज) से शुरु होकर पूर्व में लोपनोर झील तथा गोबी के मरुस्थल तक विस्तृत था। इसमें तारिम नदी के उत्तर तथा दक्षिण में स्थित अनेक जनपदों की स्थिति थी। यहां तक का मध्य एशिया का भौगोलिक वर्णन है।

  • (i) बदख्शां - अफगानिस्तान के उत्तर-पश्चिम में बदख्शां का प्रदेश है, जिसे प्राचीनकाल में ‘कम्बोज’ जनपद कहते थे।
  • (iv) पुष्कलावती नगरी - सिन्ध नदी के पश्चिम में स्वात (सुवास्तु), पंजकोरा (गौरी) और कुनार नदिया, काबुल (कुभा) नदी में मिलती हैं और फिर यह काबुल नदी सिन्ध नदी में आ मिलती है। स्वात, पंजकोरा और काबुल नदियों से सिंचित यह प्रदेश ‘पश्चिमी गान्धार’ कहलाता था और इसकी राजधानी पुष्कलावती थी। इस नगरी के भग्नावशेष स्वात और काबुल नदियों के संगम पर उपलब्ध हुए हैं।
  • (v) कपिश देश - पश्चिमी गान्धार से और आगे पश्चिम की ओर चलने पर हिन्दुकुश पर्वत के साथ का प्रदेश प्राचीन समय में ‘कपिश देश’ कहलाता था। इस देश के उत्तर-पश्चिम में आजकल बदख्शां और बल्ख हैं जिन्हें प्राचीन काल में कम्बोज और वाह्लीक देश कहते थे।
  • (vi) अफगानिस्तान - पश्चिमी गान्धार और कपिश देश के क्षेत्र आज अफगानिस्तान कहलाते हैं, जिसकी राजधानी काबुल है।

पेशावर को पहले पुरुषपुर और जलालाबाद को नगरहार कहते थे।

(ख) सीथिया देश -

इस देश का कुछ भाग यूरोप में तथा कुछ भाग एशिया में स्थित था। देन्यूब नदी (Danube) से लेकर ठीक दक्षिणी रूस के पार तक, कैस्पियन सागर के पूर्व में अमू दरियासिर दरिया की घाटी तक, पामीर पहाड़ियों की शृंखला तक तथा पूर्वी तुर्किस्तान की तारिम नदी की घाटी तक यह सीथिया देश फैला हुआ था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-317


  • 4. मैकदूनिया (Macedonia) देश - यह देश थ्रेस के दक्षिण में है।
  • 5. सोग्डियाना (Sogdiana) या सुग्ध देश - आज के पश्चिमी तुर्किस्तान में अमू दरिया और सिर दरिया के मध्यवर्ती प्रदेशों को प्राचीनकाल में सुग्ध या सोग्डियाना देश कहते थे। उसकी राजधानी समरकन्द थी। आजकल यह उजबेक (Uzbek) प्रान्त है।
  • 6. पर्थिया (Parthia) - बैक्ट्रिया के पश्चिम और कैस्पियन सागर के दक्षिण पूर्व में पर्थिया देश था।
  • 8. खीवा (Khiva) - यह रूस के प्रान्त उजबेक का एक नगर है जो अरल सागर के दक्षिण में और अमू दरिया के पश्चिम में स्थित है।
  • 9. सेरबिया (Serbia) - यह यूगोस्लाविया का एक प्रान्त है।
  • 12. नीस्टर नदी (Dniester River) - यह नदी रूस के यूक्रेन (Ukraine) प्रान्त में बहती हुई काला सागर में गिरती है।
  • 13. आर्मानिया (Armenia) - यह रूस का एक प्रान्त है जो कि कैस्पियन सागर के पश्चिम तथा तुर्की से लगता हुआ है।
  • 14. नीपर नदी (Dnieper) - यह नदी रूस के श्वेतरूस (White Russia) तथा यूक्रेन प्रान्तों में से बहती हुई काला सागर में गिरती है।
  • 15. मस्सा गेटाई (Massagetae) - कैस्पियन सागर के पश्चिमी किनारों पर वह प्रदेश जिसको अरेक्षिज एवं उसकी सहायक नदी कुर सींचती है। यह जाटों का शक्तिशाली प्रान्त था जो कि सीथिया देश का ही एक भाग था। इसका प्राचीन नाम उद्यान था।

(ग) यूरोप -

  • 1. राइन नदी (Rhine River) - यह नदी आल्पस पर्वत से निकलकर उत्तर की ओर बहती है और पश्चिमी जर्मनी व हॉलैण्ड में होती हुई उत्तरी सागर में गिरती है।
  • 2. म्यूज नदी (Meuse River) - यह नदी फ्रांस के जूरा पर्वत से निकलकर उत्तर की ओर बहती है और फ्रांस में बहती हुई राइन नदी में मिलकर उत्तरी सागर में गिरती है।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-318


  • 4. गॉटलैंड - यह स्वीडन देश का एक टापू है जो कि स्वीडन के पूर्व में बाल्टिक सागर में स्थित है।
  • 5. जटलैंड - यह डेन्मार्क के मध्य में एक प्रान्त है।
  • 6. जाटीवा (Jativa) - यह नगर स्पेन के प्रान्त वालेंसिया में स्थित है। यह वालेंसिया प्रान्त रूम सागर के पश्चिमी तट पर है।

(घ) मिश्र -

  • 1. सिकन्दरिया - रूमसागर के तट पर यह मिश्र की बड़ी बन्दरगाह है।
  • 3. कुश द्वीप - नील नदी के उद्गम स्थान को कुश द्वीप कहा गया है। आज यह स्थान ईथियोपिया देश के अबीसीनिया प्रान्त में है।

(ङ) मध्य पूर्व (Middle East)

  • 2. शकस्थान (सीस्तान) - यह ईरान के पूर्व प्रदेश में है तथा अफगानिस्तान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
  • 7. तुखारिस्तान (तुखार-तुषारवंश) - यह देश भारतवर्ष और ईरान के बीच स्थित था। सुग्ध, बदख्शां (कम्बोज), बल्ख प्रदेश इसके अन्तर्गत थे। इस तुखारिस्तान या तुषार देश की राजधानी तेरमिज (ता-मी) थी।
  • 8. एकबाताना (Ecbatana) - यह मांडा साम्राज्य की राजधानी थी जो इस समय ईरान में हमादान नाम से है।
  • 9. असीरिया (Assyria) - आज का कुर्दिस्तान प्रदेश है। इसकी राजधानी नाईन्वेह (Ninevah) थी जो टिग्रिस नदी के किनारे पर आबाद है।
  • 10. लीडिया (Lydia) - यह लघु एशिया (एशिया माईनर) में उत्तरी भाग में स्थित है।
  • 11. बेबीलोनिया (Babylonia) - यह लघु एशिया में दक्षिणी भाग में स्थित है।
  • 12. हखामनी वंश का राज्य ईरान में रहा था। इस वंश को अंग्रेजी में अचामनीद (Achaemenid) कहते थे।

द्वितीय अध्याय में उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया गया है कि आर्यों का मूल निवास स्थान


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-319


आर्यावर्त (भारतवर्ष) है। ये लोग यहां के आदिवासी हैं, यहां से जाकर विदेशों में भी उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किए। आदिसृष्टि से लेकर महाभारतकाल तक आर्यों का संसार में चक्रवर्ती राज्य रहा तथा वेदों का प्रचार भी रहा। जाट विशुद्ध आर्य नस्ल के हैं। ये लोग भी भारतवर्ष के आदिवासी हैं और यहां से विदेशों में गये, उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किए। आदिसृष्टि से आज के युग तक जाटों ने देश-विदेशों में राज्य किया। वास्तव में जाटों का इतिहास आर्यों तथा भारतवर्ष का इतिहास है। (अधिक जानकारी के लिए इस प्रकरण को द्वितीय अध्याय में देखो)। तृतीय अध्याय में वैदिककाल, रामायणकाल और महाभारतकाल में जाटवंशों (गोत्रों) का राज्य लिखा गया है। इनको पढ़ने से मालूम हो जाता है कि भारतवर्ष तथा विदेशों में जाटों का राज्य था। इन सब जाटवंशों की विद्यमानता आज भी भारतवर्ष तथा विदेशों में है जो कि अनेक धर्मों के अनुयायी हैं।

महाभारतकाल में विदेशों में अनेक उन जाटवंशज शासकों का उल्लेख किया जा चुका है जिनका पाण्डवों की दिग्विजय के समय अर्जुन से युद्ध हुआ, जो युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में द्रव्य लाये और महाभारत युद्ध में भाग लिया। युद्ध में उनके सैनिक तो वीरगति को प्राप्त हुए किन्तु उन जाटवंशों के नागरिक तो विदेशों में स्थित रहे। वहां पर उनका राज्य तथा अस्तित्व अवश्य रहा जिनका वर्णन उचित स्थान पर किया जायेगा।

महाभारत युद्ध में क्षत्रियों के सर्वनाश के बाद भारत की राष्ट्रीयता को गहरा धक्का लगा। देश की आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था बिगड़ गई जिसका विदेशों पर भी काफी प्रभाव पड़ा। वेदों का स्थान पुराणों ने ले लिया। संस्कृत भाषा के स्थान पर देश-विदेशों में अपनी-अपनी प्राकृत भाषायें प्रचलित हो गईं।

इस युद्ध के बाद से बौद्धकाल के आरम्भ तक भारतवर्ष एवं संसार का इतिहास लुप्त है। युधिष्ठिर से लगभग 800 वर्ष पश्चात् महर्षि पाणिनि का जन्म [Gandhar|गांधार]] देश में हुआ। उन्होंने अष्टाध्यायी लिखी जिसमें देश विदेशों में जाटवंशों के गणराज्य का उल्लेख है। परन्तु उसके आधार पर जाटवंशों का अलग से कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। विदेशों में जाट राज्य की मुख्य उपलब्धि बौद्धकाल में मिलती है जिसका समय लगभग 525 वर्ष ई० पूर्व से सन् 650 ई० तक लगभग 1200 वर्ष का माना गया है। विदेशों में जाट उपनिवेश तथा इनके राज्य की मुख्य सामग्री निम्नलिखित इतिहासकारों के लेखों से प्राप्त होती है जिनमें यूनानी व अरबी इतिहासकार मुख्य हैं।

1. थूसीडाईड्स (Thucydides) - यह यूनान का एक महान् इतिहासकार था जो कि छठी शताब्दी ई० पू० में हुआ है। इसने सीथियन जाटों को सब जातियों से अधिक शक्तिशाली कहा है।

2. हैरोडोटस (Herodotus) - इस यूनानी इतिहासकार का जन्म 484 ईस्वी पूर्व एशिया माइनर के यूनानी नगर हालीकारनास्स में हुआ था जो कि मांडा जाटराज्य के अधीन था। इसको इतिहास का पिता कहा गया है। इसने जाटों के सम्बन्ध में काफी लिखा है। इसका लिखा इतिहास भारत में कहीं नहीं मिलता। इसी के लेखों का उदाहरण देकर कनिंघम और टॉड ने विदेशों में जाटों के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला है इलियट ने भी अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-320


में इसी के कुछ उदाहरण दिये हैं।

3. स्ट्रेबो (Strabo) - यह भी यूनानी लेखक था। रूम के आक्रमणों के बाद से इसका परिचय जाटों से हुआ था। उसने जाटों का वर्णन किया है।

4. कनिंघम - इन्होंने पर्शिया की हिस्ट्री लिखी है जिसमें फारस (ईरान) स्थिर जाटों का वर्णन है।

5. तिरमिजी अबवाबुल इम्साल - यह अरबी ग्रन्थ है। इसमें हजरत मुहम्मद और अली के समय के जाटों के सम्बन्ध और अस्तित्व का वर्णन है।

6. तारीखे-तबरी - यह भी अरबी ग्रन्थ है जिसका लेखक सुलेमान नदवी था। इसमें जाटों का रोम के विरुद्ध अरबों की सहायता करने का वर्णन है।

7. एड्डा - यह स्केंडीनेविया की धर्म पुस्तक है। इसमें जाटों द्वारा प्रचारित रस्मों का वर्णन है। मि० जन्स्टर्न ने इसे भारत से लाए हुए धर्म के आधार पर बनी पुस्तक बताया है।

8. डिगायन - इसने चीन का इतिहास लिखा है जिसमें जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। इनके अतिरिक्त अनेक अरबी, फारसी, यूरोपियन और चीनी इतिहासों में जाटों के उपनिवेशों तथा उनके युद्धों का वर्णन है, जो कि उचित स्थान पर लिखा जाएगा।

पाठकों को ध्यान दिलाया जाता है कि जाट के भिन्न-भिन्न देशों में पुकारे जाने वाले नाम निम्नलिखित हैं - “चीन में यूची-यूईचि; मध्य एशिया व मंगोलिया में जट्टे; जर्मनी व यूरोप में गाथ-गेटी; यूनानथ्रेश में गेटा-गिट; रोमस्वीडन में गाथ-गोथ; डेनमार्क में जुट-जूट; अरब देशों में जोत-जत; ईरान व रूस में जट-जिट-जुट; भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में जाट-जट-जट्ट।”

ग्रिमज के परिवर्तन के सिद्धान्त (Grimm's Law of Variation) के अनुसार भाषा भेद से ये सब नाम ‘जाट’ ही हैं। (पूरी जानकारी के लिए देखो अध्याय द्वितीय)।

जहां कहीं भी इन नामों का प्रयोग किया जाता है तो इनको ‘जाट’ समझो। सीथिया देश में जाट निवासी एवं शासन करने वालों को सीथियन जाट कहा गया है।

विकिंग्ज (Vikings) या नॉरमन्ज (Normans) - विकिंग्ज को नार्थमेन (Northmen) कहते थे क्योंकि वे नार्थ (उत्तर) में रहते थे। इनको संक्षेप में नॉरमन्ज (Normans) पुकारा जाने लगा। सन् 912 में इन नॉरमन्ज की एक बस्ती रोल्फ दी गेंजर (Rolf the Ganger) के अधीन फ्रांस के समुद्री किनारे पर नॉरमण्डी (Normandy) नामक थी। यह फ्रांस देश का एक प्रान्त है। डेन्ज (Danes), विकिंग्ज या नॉरमन सब जूट्स (Jutes) या जाट हैं। ये सब सीथियन जाटों के वंशज तथा उनके ही विभिन्न नाम हैं। अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 12-13 लेखक उजागरसिंह माहिल)।

शकवंश - वैदिक सम्पत्ति लेखक पं० रघुनंदन शर्मा ने पृ० 424 पर लिखा है कि वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु, नरिष्यन्त (नरहरि) आदि 10 पुत्र हुए। इस लेखक ने विष्णु पुराण एवं हरिवंश का हवाला देकर लिखा है कि नरिष्यन्त के पुत्रों का ही नाम शक है। इनकी प्रसिद्धि से इनके नाम पर क्षत्रिय आर्यों का संघ शकवंश कहलाया जो कि एक जाटवंश है। सम्राट् सगर ने अपने पिता


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-321


बाहु की हार का बदला शत्रुओं को हराकर इस तरह से लिया कि उसने शकों, पारदों, यवनों और पह्लवों को अपने देश से निकाल दिया। शक लोगों ने आर्यावर्त से बाहिर जाकर एक देश आबाद किया जो कि इनके नाम से शकावस्था कहलाया जिसका अपभ्रंश नाम सीथिया पड़ गया। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय शक प्रकरण)।

सीथियन जाट - शकावस्था या सीथिया देश में निवास एवं राज्य करने वाले जाटों को सीथियन जाट कहा गया।

कुषाण - जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज ने पृ० 168 पर लिखा है कि “पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय उनके साथ अनेकों यादव साइबेरिया तक पहुंचे और वहां यादवों ने वज्रपुर बसाया। ये लोग चीनी भाषा में यूची अथवा कुशान कहलाये।” यही लेखक आगे पृ० 197-198 पर लिखते हैं कि “राजतरंगिणी का लेखक इन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्वान् यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों की एक राय यह भी है कि कुशान लोग ‘हिगनू’ लोग हैं। ये लोग हर हालत में जाट हैं। चौ० रामलाल हाला ने भी कुषाणों को जाट लिखा है। कुषाण वे लोग हैं जो पाण्डवों के साथ महाप्रस्थान में कृष्णवंशियों में से गये थे। कृष्णवंशियों को संस्कृत में कार्ष्णेय तथा कार्ष्णिक कहा है जिसका अपभ्रंश शब्द कुशन बन गया जो जाटों के अन्तर्गत पाये जाने वाले कुशवान या कुशान गोत्र हैं।” आगे यही लेखक पृ० 199 पर लिखते हैं कि “भारतवर्ष में जाट राज्य के लिए ‘जाटशाही’ का प्रयोग किया जाता है और कुशानवंशी राजाओं के लिए भी ‘शाही’ अथवा ‘शहनशाही’ का प्रयोग किया जाता था। देवसंहिता में जाटों को देव या देवताओं के समान लिखा है। कुशानवंशी राजाओं के लेखों में इनकी उपाधि देवपुत्र लिखी हुई मिलती है।”

“मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति”, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार ने पृ० 164 पर लिखा है कि “कुषाणवंशी राजा युइशि (जाट) थे।”

“(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज” में बी० एस० दहिया ने पृ० XI पर लिखा है कि “कुषाण लोगों का शुद्ध नाम कसवांन है तथा इस गोत्र के जाट आज भी हरयाणा व राजस्थान प्रान्तों में विद्यमान हैं।” आगे इसी लेखक ने पृ० 32 पर लिखा है कि वी. वाई. जेजन्कोव (Y.V. Zezenkova) ने ‘कुषाण स्टड्डीज इन यू. एस. एस. आर.’ के पृ० 150-151 पर लिखा है कि “कुषाण लोग आर्यवंशज हैं।” इन उदाहरणों से सिद्ध हो जाता है कि कुषाण लोग जाट थे।

तुर्किस्तान एवं तुर्क - चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु के शासित देश का नाम तुर्वस्थान-तुर्कस्थान-तुर्किस्तान-तुर्की पड़ा। इसी सम्राट् तुर्वसु के नाम पर तंवर-तोमर जाटवंश प्रचलित हुआ। इस देश में बसे चन्द्रवंशी आर्यों का नाम उनके सौन्दर्य के कारण ‘तुर्वस’ तथा भाषा-भेद से बाद में ‘तुर्क’ पड़ा। (अधिक जानकारी के लिए देखो, अध्याय तृतीय, तंवर तोमर वंश प्रकरण)। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 4 पर लिखा है कि तुर वंश (तंवर) की प्रधानता के कारण इस विशाल भूमिखण्ड का नाम तुर्किस्तान पड़ा और जब यहां तातराणवंश की प्रधानता हुई तब यह देश तातारी कहलाया।

इसी लेखक दहिया ने पृ० 29 पर लिखा है कि “तुर्क शब्द ईस्वी छठी-सातवीं शताब्दियों में प्रचलित हुआ। यह शब्द कुषाणों के शासनकाल, जो दूसरी शताब्दी ई० पूर्व से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक रहा, में प्रचलित नहीं था। मंगोलिया में अल्ताई पर्वत के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों को


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-322


सन् 551 ई० में चीनियों ने तु-कियु तथा दूसरों ने तुर्क कहा। 551 ई० से पहले इस तुर्क शब्द का प्रयोग नहीं था।”

यवन - महाभारत आदिपर्व अध्याय 85वां, श्लोक 34-35 में लिखा है कि “तुर्वसु की सन्तान यवन कहलाई।”

पाठक समझ गये होंगे कि शक, कुषाण, यवन, तुर्क, तुर, पारद, पह्लव आदि क्षत्रिय आर्य हैं जो कि भारतवर्ष से बाहर गये। वहां बस्तियां बसाईं तथा राज्य स्थापित किये और समय अनुसार अपने पैतृक देश में लौट आये। इनमें से शक, कुषाण, तुर, पारद, पह्लव जाटवंश (गोत्र) हैं। कुछ इतिहासकारों ने यह लिखने की भूल की है कि जाट लोग शक, कुषाण आदि विदेशों से आने वालों की सन्तान हैं। वास्तविकता यह है कि शक, कुषाण आदि अलग-अलग जाट गोत्र हैं। अन्य जाट गोत्रों की उत्पत्ति इनसे नहीं हुई बल्कि आदिसृष्टि से इस युग तक समय-समय पर क्षत्रिय आर्यों के संघ किसी प्रसिद्ध सम्राट् एवं स्थान आदि के नाम पर जाट गोत्र तथा उनके शाखा गोत्र प्रचलित हुए हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो द्वितीय अध्याय, जाट वीरों की उत्पत्ति)।

मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार ने पृ० 39 पर लिखा है कि “युइशि, वू-सुन, तुखार तथा शक आदि जातीय दृष्टि से आर्य ही थीं।”

1. युइशि = ऋषिक गोत्री जाट,
2. वू-सुन = शकों की एक शाखा का नाम
3. तुखार = तुषार गोत्री जाट,
4. शक = शकवंशज जाट

महाभारत युद्ध के बाद विदेशों में जाटों का निवास एवं साम्राज्य निम्नलिखित हैं -

I. चीन तथा मंगोलिया

चीना या चीमा क्षत्रिय चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र (अनु के वंशज हैं। ये लोग आर्यावर्त से चीन देश में गये और वहां बस्तियां बसाकर राज्य स्थापित किया1। चीन शब्द के विषय में प्रो. हीरन लिखते हैं कि चीन शब्द हिन्दुओं का है और हिन्दुस्थान से ही आया है। मंगोल, तातार और चीनी लोग अपने को चन्द्रवंशी क्षत्रिय मानते हैं। तातार लोग ‘अय’ को अपना पूर्वज मानते हैं जबकि चीनी लोग ‘यू’ को अपना पूर्वज मानते हैं। तातारों का ‘अय’, चीनियों का ‘यू’ और पौराणिकों का आयु एक ही व्यक्ति है। इन तीनों का आदि पुरुष चन्द्र (सोम) था जिससे चन्द्रवंश प्रचलित हुआ। अनेक इतिहासज्ञ चीना या चीमा जाटों को ही चीन देश के आदि शासक मानते हैं2। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, चीना या चीमा प्रकरण)।

वैदिक सम्पत्ति के लेखक पं० रघुनंदन शर्मा साहित्यभूषण ने पृ० 426-427 पर लिखा है कि “चीनियों के आदि पुरुष के विषय में प्रसिद्ध चीनी विद्वान् यांगत्साई ने सन् 1558 ई० में एक ग्रन्थ लिखा था। इस ग्रन्थ को सन् 1776 ई० में ‘हूया’ नामी विद्वान् ने फिर सम्पादित किया। उसी पुस्तक



1. क्षत्रियों का उत्थान पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 382 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
2. वैदिक सम्पत्ति, पृ० 415-426, लेखक पं० रघुनन्दन शर्मा, जाट इतिहास पृ० 7-8, लेखक श्रीमदाचार्य श्रीनिवासाचार्य महाराज; तथा भारत का शुद्ध इतिहास, प्राचीन भारत (भाग 1, पृ० 134, लेखक आचार्य प्रेमभिक्षु)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-323


का पादरी क्लार्क ने अनुवाद किया है। उसमें लिखा है कि अत्यन्त प्राचीनकाल में भारत के मो० लो० ची० राज्य का आइ० यू० नामक राजकुमार यून्नन प्रान्त में आया। इसके पुत्र का नाम ती० मोगंगे था। इनके नौ पुत्र पैदा हुए। इन्हीं के सन्ततिविस्तार से समस्त चीनियों की वंशवृद्धि हुई है। चीनवालों का भारत से इतना अधिक सम्बन्ध रहा कि यहां से ब्राह्मण लोग धर्मप्रचार के लिए चीन को जाते थे और चीन निवासी यहां आकर फिर से आर्यों के समाज में मिल जाते थे। सर्वप्रथम आर्य लोग ‘चीनी’ बनकर चीन गये थे, इसीलिए चीनियों के आर्यवंशज होने में जरा भी सन्देह नहीं है।”

जाट इतिहास लेखक श्रीमदाचार्य श्रीनिवासाचार्य ने पृ० 8 पर लिखा है कि “तातार लोग भी अपने को चन्द्रवंशी मानते हैं। तातार शब्द यों बना है - तातः = पिता, ‘तारको यस्य स ताततारः’। जिस वंश का तात = पिता तारा (बुध) हो वह वंश ताततार होता है जो आगे चलकर तातार हो गया। जर्मन लोग भी अपने को तातार मानते हैं और इसीलिए चन्द्रमा को अपना पूज्य मानते हैं।”

महाभारतकाल में चीन देश में चीना-चीमा, औलिक, पौरव आदि अनेक जाटवंशों का राज्य था। चीन के उत्तर तथा मंगोलिया में अहलावत, तङ्गण-परतङ्गण, अर्ह, पारद, चट्ठा-चगता आदि जाटों के राज्य थे। उस समय अहलावत जाटों का प्रजातन्त्र राज्य इलावृत देश में था जो आज मंगोलिया में अल्ताई नाम से कहा जाता है। अर्ह, पारद, तङ्गण, परतङ्गण जाटों का प्रजातन्त्र राज्य मेरु और मन्दराचल पर्वतों के बीच में बहने वाली शैलोदा नदी के दोनों तटों पर था। (अधिक जानकारी के लिए इन गोत्रों के प्रकरण, तृतीय अध्याय में देखो)।

जाट इतिहास पृ० 173-174 पर ठा० देशराज लिखते हैं कि - :“अब भी टांग (तांग) पर्वतमाला तङ्गण जाटों के नाम से मानसरोवर से आगे है। मौर्यकाल में यादव कुल के हैंगा जाट भारतवर्ष से चीन गये और वहां पर हिंगू पहाड़ एवं हुंगहू नदी के किनारे काफी समय तक राज्य किया और फिर स्वदेश आ गये जो आजकल हैंगा1 कहलाते हैं।” चीनी इतिहासकार डिगायन ने जाटों का अन्य वर्णन करते हुए उन्हें बौद्ध-धर्मावलंबी लिखा है (टाड राजस्थान पहली जिल्द)। मि० ग्राउस साहब अपने लिखित इतिहास ‘मथुरा मेमायर्स’ में नववीर (नोहवार) जाटों को खोतन के पास नोह झील से वापिस आए हुए बताते हैं। वे लिखते हैं कि “नोहवार भारतीय नवराष्ट्र के रहने वाले लोग थे और वे खोतन के ऊपर तक पहुंच गये थे। हूणों के आक्रमण से पहले वे भारत में वापिस आ गये थे और अब नोह झील (जिला मथुरा) क्षेत्र में रहते हैं।” मि० कनिंघम साहब सिक्ख इतिहास में लिखते हैं कि “जाटों के अन्दर एक चीन गोत्र है जिससे उसका चीन जाना सिद्ध होता है। विदेशों में जातियां या तो उपनिवेश स्थापना के लिये जाती हैं अथवा धर्म-प्रचार के लिये। जाटों ने दोनों ही कार्य चीन में जाकर किये।”

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० X, XI पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “चीनियों के कहने अनुसार हिंगनू लोग यूची (जाट) लोगों का ही एक हिस्सा था। इन यूची या जूटी लोगों के


1. हैंगा शब्द को चीनी भाषा में हिंगनू बोलते हैं। इन हैंगा जाटों के नाम पर हिंगू पहाड़ एवं हुंगहू नदी चीन देश में है। हैंगा जाट जिला मथुरा में काफी संख्या में आबाद हैं। इनके वहां 360 गांव हैं। हिंगू लोगों की धाक और उनके राज्य की चर्चा चीन देश में अब तक व्याप्त है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-324


दो बड़े खण्ड (विभाग) थे जिनमें से एक नाम “ता-यू-ची”, जिसका अर्थ है - महान् (प्रसिद्ध, शक्तिशाली) जाट संघ और दूसरे का नाम “सिऊ-यू-ची” था, जिसका अर्थ है छोटा या साधारण जाटसंघ। यूनानी प्रसिद्ध इतिहासकार हैरोडोटस ने जाटों के इन दो बड़े विभागों को मस्सा-गेटाई, जिसका अर्थ है “महान् जाट” (Great Jats) और थीस्सा गेटाई, जिसका अर्थ है छोटे जाट (Little Jats) लिखा है।” आगे इसी लेखक ने पृ० 25 पर लिखा है कि हिंगनू जाटों के दबाव से सिऊ-यूची जाट दक्षिण में तिब्बत की ओर चले गये और ता-यूची जाट पश्चिम की ओर गये और उन्होंने बैक्ट्रिया (बल्ख) पर अधिकार कर लिया।”

शिव गोत्र के जाट आरम्भ में शिवालिक की पहाड़ियों और मानसरोवर के निचले हिस्से में आबाद थे। ये लोग यहां से तीन हिस्सों में अलग-अलग फैल गये, जिनमें से इनका एक समुदाय तिब्बत को पार करके चीन पहुंच गया जो वहां की भाषा में श्यूची कहलाने लगे। कई इतिहासकारों का मत है कि कुषाण लोग इन्हीं श्यूची (शिवि) लोगों की एक शाखा थे। महाराजा कनिष्क कुषाणवंश के जाट नरेश थे (तृतीय अध्याय, शिवि गोत्र के प्रकरण में देखो)।

दहिया लोगों ने महाभारत युद्ध में भाग लिया था। उस समय ये लोग चीन की दक्षिणी भूमि पर रहते थे। (तृतीय अध्याय, दहिया प्रकरण देखो)।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 264 पर महाभारत भीष्मपर्व का हवाला देकर लिखा है कि “पामीर पठार के पूर्व में क्रौंच द्वीप (चीन, श्याम, मलाया-कम्बोडिया आदि देश) में एक देश का नाम चीनी भाषा में मानोनुगट (Manonugat) है जो कि भारतीय भाषा में मांगट है। यह मांगट जाट गोत्र है।” आगे यही लेखक पृ० 292 पर लिखते हैं कि “वराइच (वराइश) जाटवंशज लोग, चीना (चीमा), औधराण, हेर आदि के साथ थे। महाभारत में शिशिका देश का नाम है जो कि भारतवर्ष के उत्तर में था। यह शिशि गोत्र के जाटों के नाम पर शिशिका देश कहलाया।” ये सब जाट गोत्र हैं।

जाट्स दी एन्शेन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 4 पर चीनी इतिहासकारों के हवाले से लिखा है कि “जाटों का निवास बाहरी मंगोलिया तथा चीन के कांसू प्रान्त में था। (Ssu-Ma-Chien Sse-ki (Historical records) completed before 91 B.C.)।”

आगे यही लेखक पृ० 27 पर लिखते हैं कि “चांग-किन (Chang-kien) के लेख अनुसार, जिनको ‘एस एस इ-की’, अध्याय 123, फोल 4 (sse-ki chapter 123, Fol 4) में लिखा गया है, महान् जाट (तायूची) शुरु में तुन ह्वांग (Tun-Hawang) और की-लीन (Ki-Lien) के बीच के क्षेत्र में रहते थे। जाटों का पुराना देश चीन के कांसू प्रान्त में था। हूण लोग उनके निकटवर्ती प्रदेश में रहते थे (इण्डियन अनटिक्वेरी, 1905, P 75 तथा 1919, P 70)।” शक लोगों ने सिर दरिया और अरल सागर के प्रदेशों को आबाद किया। सिर दरिया के उत्तर के सब प्रदेश तब शक लोगों द्वारा आबाद थे। इन लोगों ने सिर दरिया के उत्तर-पूर्व इसिक-कुल झील क्षेत्र तथा उससे भी परे विविध प्रदेशों को आबाद किया था। गत वर्षों में रूस के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने शकों के प्राचीन भग्नावशेषों का अनुसन्धान कर इस जाति के धर्म, रीतिरिवाज तथा सभ्यता के विषय में बहुत सी नई बातें मालूम की हैं। शक लोग स्वलियु (सूर्य), दिवू (द्यौ), अपिया (आप्या = पृथ्वी), पक (भग--) आदि की पूजा करते थे। ऋषिक जाटों का निवास चीन के ठेठ पश्चिम में लोपनोर


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झील के क्षेत्र में था। शकों और युइशि (ऋषिक) लोगों द्वारा आबाद प्रदेशों में बीच में तारिम नदी के उत्तर तथा श्वेत पर्वत (तिएनशान पर्वत) के दक्षिण के प्रदेश में तुखार (तुषार) लोग आबाद थे। शक, ऋषिक और तुषार (तीनों जाट गोत्र) लोगों की इस विशाल भूमि (चीन के पश्चिम से लगाकर अरल सागर तक के सब प्रदेशों) के उत्तरपूर्व में हूण जातियां बसी हुईं थीं। वर्तमान समय के मंगोलिया, मंचूरिया और उनके उत्तर में साइबेरिया के प्रदेश (प्रान्त) हूण लोगों की भूमि थी1

श्वेत हूण या हेफताल (Hephthalites) :

  1. कुछ इतिहासज्ञों का मत है कि हेफताल हूण न होकर शक जाति के थे, पर हूणों के सम्पर्क में रहने के कारण उनके रहन-सहन तथा संस्कृति पर हूणों का बहुत प्रभाव हो गया था। इतिहास के ग्रन्थों में इन्हें प्रायः श्वेत हूण के नाम से ही लिखा जाता है। अतः हम भी इसी संज्ञा का प्रयोग करेंगे2
  2. थुङ्ग-किअङ्ग-नू (Thung-Kiang-Nu) पुस्तक के चीनी लेखक ने सन् 555 ई० में लिखा है कि “अपतल या हेफताल (Aptal or Hephthalites) लोग ता-यूची (महान् जाट) जाति के थे।3
  3. एच० जी वल्ज़ (H.G. Wells) ने हेफताल (Hephthalite) को हूण कहा है और लिखा है कि ये लोग यूची (जाट) जाति के वंशज थे4
  4. कलविन केफर्ट ने हेफताल या श्वेत हूणों के विषय में लिखा है कि उन लोगों को उनके शत्रुओं ने श्वेत हूण कहा। चीनियों के अनुसार वास्तव में वे लोग यू-ची या गेटी, यानि जाट जाति के थे। (P. 525 quoting Encyclopaedia Britannica, 13th Edition, Vol. 9, P, 679-680 and Vol. 20, P. 422) (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 345, लेखक बी० एस० दहिया)।

ऊपरलिखित लेखकों के आधार पर यह तो माना जा सकता है कि श्वेत हूण जाट जाति के वंशज थे परन्तु यह कहना कि जाट लोग हूणों के वंशज थे, बिल्कुल निराधार तथा प्रमाणशून्य है।

चीन में तांगवंश के जाट राजाओं का शासन - इस तांगवंश के शासन का प्रारम्भ 618 ई० में हुआ था और इसका प्रथम राजा काओत्सु था जिसने खोतान देश को भी अपने अधीन कर लिया था। इस कारण से वहां के राजा चीन के साथ मैत्री-सम्बन्ध कायम रखने के उत्सुक रहते थे।

सातवीं शताब्दी के शुरु में विजितसंग्राम नामक राजा ने खोतन देश को तुर्कों की अधीनता से स्वतन्त्र करा लिया था। यह राजा खोतन के पुराने राजाओं (जाट) का वंशज था। इस राजा ने 632 ई० में अपना एक दूतमंडल चीन के तांग वंशज सम्राट् के दरबार में भेजा और तीन वर्ष बाद अपने पुत्र को भी चीन के दरबार में भेजा। 628 ई० में राजा, जो कि विजितसंग्राम का उत्तराधिकारी था, स्वयं चीन के राजदरबार में उपस्थित हुआ था। इस काल में चीन में तंगवंश के राजाओं का शासन था, जो अत्यन्त शक्तिशाली तथा महत्त्वाकांक्षी थे।


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 77-78, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।
2. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 82, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।
3. (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 25, लेखक बी० एस० दहिया।
4. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 50, लेखक उजागरसिंह माहिल


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सातवीं सदी में तिब्बत में ‘स्रोङ्-गचन-पो’ नाम का शक्तिशाली राजा हुआ। उसने पड़ौस के अनेक राज्यों को जीत लिया। इसके उत्तराधिकारियों ने खोतन को भी तिब्बत की अधीनता में कर लिया। खोतन का अन्तिम राजा विजितवाहम था।

चीन के तांगवंशी राजाओं ने अपने शक्ति फिर से बढ़ाई और आठवीं सदी का अन्त होने से पूर्व ही मध्य एशिया के विविध प्रदेशों पर से तिब्बत के शासन का अन्त कर दिया1

नोट - खोतन प्रदेश जाटों ने आबाद किया तथा वहां पर शासन किया। इसका वर्णन आगे के पृष्ठों पर किया जाएगा।

हूणों का आक्रमण - चीन और मंगोलिया के इतिहास की जंजीर मध्य एशिया तथा अन्य देशों तक चली गई है। इस शृंखला को जोड़ने के लिये अन्य सम्बन्धित देशों का भी संक्षिप्त इतिहास लिखने की आवश्यकता है।

यह पहले लिख दिया गया कि विशाल शकभूमि के उत्तरपूर्व तथा चीन के उत्तर में मंगोलिया, मंचूरिया आदि में हूण लोग रहते थे। समय-समय पर ये लोग चीन देश पर आक्रमण करते रहते थे। इनके धावों से बचाव करने के प्रयोजन से चीनवालों ने एक विशाल दीवार का निर्माण शुरु किया। 246 ई० पू० में चीनी सम्राट् शेह्नांगती ने इस विशाल दीवार बनाने का कार्य पूरा किया, जो कि संसार के सात आश्चर्यजनक निर्माणों में से एक है।

अब हूणों ने पश्चिम-दक्षिण की ओर से ऋषिक लोगों के प्रदेश पर लगभग 176 ई० पू० में आक्रमण कर दिया। हूणों से हारकर ये लोग तारिम नदी के उत्तर तथा तिएनशान पर्वत के दक्षिण के उस प्रदेश में प्रविष्ट हो गए, जहां तुखार (तुषार) लोग रहते थे। ऋषिकों ने तुषारों को अपने अधीन कर लिया। हूणों ने 165 ई० पू० में ऋषिक-तुषारों पर वहां भी आक्रमण कर दिया। ये लोग हूणों से हारकर पश्चिम दक्षिण की ओर तिएनशान पर्वत को लांघकर सिर दरिया की घाटी के उस प्रदेश में जा पहुंचे, जहां पर शक लोगों की प्रधान शाखा रहती थी। ऋषिक-तुषारों से परास्त होकर शक लोग वहां से सुग्ध तथा वाह्लीक की ओर अग्रसर हुए। पर ऋषिक-तुषारों ने वहां पर भी शक लोगों पर आक्रमण जारी रखा। उन दिनों वाह्लीक (बाख्त्री-बैक्ट्रिया-बल्ख) में यवनों (यूनानियों) का शासन था। ऋषिक-तुषारों ने यूनानियों को परास्त करके उनके इस राज्य का अन्त कर दिया तथा वहां पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने कम्बोज (आज का बदख्शां) जो अफगानिस्तान के उत्तर पश्चिम में है, पर भी अधिकार कर लिया। तुखार (तुषार) ऋषिकों के नाम पर यह देश तुखार देश या ‘तुखारिस्तान’ कहलाने लगा जिसकी सीमा भारत और ईरान के बीच में थी और बदख्शां तथा बल्ख के प्रदेश इसके अन्तर्गत थे। तीसरी सदी ईस्वी पूर्व तक इस देश में तुषार-ऋषिकों का प्रवेश नहीं हुआ था। तब वहां पर आर्य जाति की कतिपय शाखाएं बसी हुईं थीं जिनकी भाषा तथा धर्म आदि भारत तथा ईरान के आर्यों जैसा था। ऋषिक-तुषार लोगों ने दूसरी सदी ई० पू० का अन्त होने से पहले ही इस देश को जीत लिया था। इससे पहले बदख्शां तथा बल्ख प्रदेशों पर ईरान के हखामनी सम्राटों का शासन था और सिकन्दर की विजयों के पश्चात् बल्ख के क्षेत्र में एक यवन (यूनानी) राज्य स्थापित हो गया था, जिसे


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 94-95, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


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बैक्ट्रिया (बाख्त्री) कहते थे।

चीन के प्राचीन ग्रन्थों में तुखारिस्तान का नाम ‘ताहिआ’ लिखा है। ह्यू एन-त्सांग ने इस देश का वर्णन किया है कि इसके उत्तर में दरबन्त (बदख्शां के समीप), दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, पश्चिम में पर्शिया (ईरान) और पूर्व में पामीर की पर्वतमाला थी। उस समय तुखारिस्तान बौद्धधर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था । ऋषिक तुषारों का धर्म बौद्ध और जीवन युद्धमय था1

ऋषिक-तुषारों ने हूणों को हराकर मंगोलिया की ओर भगा दिया और पूर्व की ओर बहुत बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उनकी इस विशाल भूमि का नाम सरिन्दिया (Ser-India) पड़ा, जिसको हिन्दी में ‘ऊपरला हिन्द’ कहा जाता है2

यह ऊपरला हिन्द पश्चिमी बदख्शां से आरम्भ होकर पूर्व में लोपनोर झील तथा गोबी के मरुस्थल तक विस्तृत था। इस क्षेत्र के नगरों के अवशेष इस समय काशगर, यारकन्द, नीया, खोतन, कुचि आदि में उपलब्ध हुए हैं। इनसे यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि राजनैतिक दृष्टि से भारत के अन्तर्गत न होते हुए भी ये सब भारतीय सभ्यता के केन्द्र थे। इस तुखारिस्तान में ऋषिक-तुषारों ने अपने अनेक राज्य कायम किए। आगे चलकर कुषाण वंश के राजाओं ने जिन्हें जीतकर अपने अधीन कर लिया और एक शक्तिशाली व सुविस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। पांचवीं सदी तक तुखारिस्तान कुषाणों के शासन में रहा3। इसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

रामायणकाल में ऋषिकों का राज्य था और महाभारत एवं पुराणों के लेख अनुसार ऋषिक व तुषार वंश महाभारतकाल में अपने पूरे वैभव पर थे, ये लोग महाभारत युद्ध में लड़े थे। सम्राट् कनिष्क कुषाणगोत्री जाट के शासनकाल में ऋषिकवंशी महात्मा लल्ल ने इन चन्द्रवंशी ऋषिक व तुषार जाटों के संघों का संगठन कर दिया जिनसे इनका नाम गठवाला पड़ गया। इनका पूज्य पुरुष लल्ल ऋषि था और पदवी मलिक हुई जिससे इनका पूरा नाम लल्ल गठवाला मलिक है। (पूरी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, ऋषिक-तुषार मलिक प्रकरण)।

चीन के उत्तर में विशाल दीवार बनने के बाद, हूण लोग अब चीन के पश्चिम के उन प्रदेशों में आ बसे थे, जहां पहले ऋषिकों (युइशियों) का निवास था। ये लोग समय-समय पर पश्चिम की ओर से आक्रमण करते रहते थे; जिनका सामना करना चीन के लिए कठिन था। इस दशा में चीन के सम्राट् वू-ती (142-85 ई० पू०) ने अपने सेनापति चाङ्-कियन को 138 ईस्वी पूर्व में हूणों के विरुद्ध सहयोग प्राप्त करने के लिये ऋषिक-तुषारों के पास भेजा। उस समय इन लोगों का शासन तुखारिस्तान पर था। चाङ्-कियन को हूणों ने मार्ग में ही पकड़ लिया और उसे 10 वर्ष तक अपनी कैद में रखा। कैद से छूटकर वह सिर दरिया के दक्षिण में स्थित खोकन्द पहुंचा, और वहां से समरकन्द होता हुआ बल्ख (बैक्ट्रिया) आ गया जो उस समय ऋषिक-तुषारों के शासन में था। चाङ्-कियन ने उनसे हूणों के विरुद्ध सहयोग की याचना की। अतः ऋषिक-तुषारों ने हूणों पर पश्चिम की ओर से पुरजोर आक्रमण आरम्भ कर दिया तथा चीन ने हूणों पर पूर्व की ओर से


1, 2. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 12, 78-79, 108-109,
3. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 332, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-328


दबाव डाला। ये आक्रमण 127 ई० पू० से 119 ई० पू० तक होते रहे। अन्त में हूणों को परास्त करके चीन की पश्चिमी सीमा से उत्तर में मंगोलिया की ओर खदेड़ दिया। चीन-भारत की मैत्री का यह पहला अवसर माना जाता1 है।

पहली सदी ईस्वी पूर्व, उत्तर में हूणों के सम्राट् को चीनी भाषा में ‘जीजी’ कहा जाता था। इस समय से पहले ता-यूची (महान् जाट) की एक शाखा हेंगा जाटों की थी जिसे जन्जौ-जनजौन गोत्र के जाटों ने परास्त किया था। श्वेत हूणों ने मंगोलिया से अन्य जातियों को बाहर धकेल दिया था। वे चीन से रोम तक बढ़ गये थे; इस विषय में आगे लिखा जायेगा1

सन् 551 ई० में अलताई क्षेत्र के लोगों ने जन्जौन जाटों के विरुद्ध बलवा कर दिया और बाहरी मंगोलिया में अपना राज्य स्थापित कर लिया, जिसकी राजधानी ओरखोन (Orkhon) के निकट थी। उन लोगों को चीनियों ने ‘तू-कियु’ कहा है जबकि अन्य लेखकों ने ‘तुर्क’ कहा है। सन् 551 ई० से पहले ‘तुर्क’ शब्द का प्रयोग नहीं था, हो सकता है इनकी शक्ति कम थी3

चंगेजखां और उसके पूर्वपुरुष” नामक पुस्तक में हैनरी एच. होवर्थ ने लिखा है कि चंगेजखां बोगदा शूरवीर था (इण्डियन अन्टिक्वारी, 1886; जिल्द 15, पृ० 129)। यह बोगदावत जाट गोत्र है। चंगेजखां की सेना में 30,000 जाट एवं 20,000 भारतीय मूल के सैनिक थे, जिनका सेनापति बेला नौयन था जो कि नैण जाट गोत्र है।

तैमूरलंग का जाटों के साथ अनेक बार युद्ध हुआ है। एक बार तैमूरलंग समरकन्द के जाट राज्यपाल जिसका नाम औघलान उपनाम खोजा था, के सलाहकार के तौर पर उसके दरबार में रहा था। यह औघलान जाट गोत्र3 है। इनका वर्णन आगे उचित स्थान पर किया जाएगा।

सम्राट् कनिष्क कुषाण वंशी जाट का चीन से युद्ध - चीन ने ऋषिकों के प्राचीन प्रदेश, जो लोपनोर झील से तिएनशान पर्वतमाला तक थे, अपने अधीन कर लिया था। तकला मकान की मरुभूमि के दक्षिण में उन दिनों तेरह राज्य थे, जिनमें खोतन सर्वप्रधान था। सन् 73 ई० में चीनी सम्राट् हो-ती ने अपने सेनापति पान-छाओ को इस उद्देश्य से खोतन भेजा, ताकि वहां के राजा से सहयोग प्राप्त कर इन सब राज्यों को चीन का वशवर्ती बना लिया जाए। पान-छाओ को यह सहयोग मिल गया जिससे उसने दक्षिणी मध्य एशिया के सब राज्यों को अधीन कर लिया तथा सुग्ध (सोग्डियाना) देश को जीतकर चीनी साम्राज्य की पश्चिमी सीमा को कैस्पियन सागर तक पहुंचा दिया। तारिम नदी की घाटी में जो अनेक राज्य थे, पान-छाओ ने उनको भी जीतकर अपने अधीन कर लिया। इस स्थिति को देखकर सम्राट् कनिष्क ने चीन से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने हेतु अपना दूत यह सन्देश लेकर पान-छाओ के पास भेजा, कि एक चीनी राजकुमारी का उसके साथ विवाह कर दिया जाए। पान-छाओ ने उस दूत को जेल में डाल दिया। इस पर कनिष्क ने एक


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 79, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार, जाटों का उत्कर्ष पृ० 332, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, ऋषिक-तुषार प्रकरण।
3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० क्रमशः 283 एवं 29 लेखक बी० एस० दहिया, बहवाला Paul Pelliot La, Haute Asie, P. 12.
4. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज]] पृ० 60-61, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-329


विशाल सेना के साथ उत्तर-पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। पर पान-छाओ ने उसे पामीर से पूर्व की ओर नहीं बढ़ने दिया। ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी के समाप्त होने से पूर्व ही पान-छाओ की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र पान-छांग चीन की पश्चिमी सेना का सेनापति बना। अब कनिष्क ने फिर चीन पर आक्रमण करके पान-छांग को परास्त कर, अपने पुराने जातीय ऋषिकों के प्रदेश को फिर से अपने अधिकार में ले लिया। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया के उन सब प्रदेशों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया जो पहले चीन के वशवर्ती थे। चीन कहीं फिर उसके विरुद्ध सैन्यशक्ति का प्रयोग न करे, इसके लिए कनिष्क कुछ चीनी राजकुमारों को बन्धक या जामिन के रूप में अपने साथ भारत ले आया। कनिष्क अब उत्तरी भारत एवं मध्य एशिया का शासक बन गया था। इसने भारतीय संस्कृति तथा बौद्ध-धर्म को चीन व मध्य एशिया में फैलाया1

चीन तथा मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति तथा धर्म के फैलाने में जाटों का योगदान

“मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति” नामक पुस्तक, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार -

1. चीन की एक प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार अशोक (273 ई० पू० से 237 ई० पू०) के समय कुछ बौद्ध प्रचारक चीन गए थे और उनके द्वारा वहां बौद्धधर्म का प्रचार प्रारम्भ किया गया था (पृ० 15)। यह तृतीय अध्याय में लिख दिया गया है कि सम्राट् अशोक मौर्य-मौर वंशज जाट थे।

2. चीन के प्राचीन वृत्तान्तों के अनुसार हानवंश के चीनी सम्राट् मिंग-ती ने अपने दूत पश्चिम की ओर भेजे। वे दूत ऋषिकों (युइशियों) के राज्य में जा पहुंचे। ये लोग इस समय तक बौद्धधर्म को अपना चुके थे और वहां पर बहुत से भारतीय बौद्ध विद्वान् विद्यमान थे। मिंग-ती के निमन्त्रण पर वहां से 60 ई० पू० में धर्मरत्न और कश्यप मातंग नामक भारतीय भिक्षु चीन गये। ये दोनों भिक्षु ऋषिक गोत्र के थे। ये चीन की राजधानी सीङान्-फू (जो अब चीन के हूपे प्रान्त का मुख्य नगर है, में ठहरे, जहां पर उन्होंने श्वेताश्व नामक विहार की स्थापना की। वहां निवास करते हुए इन्होंने बौद्धधर्म का प्रचार किया तथा अनेक बौद्ध-ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया (पृ० 15)।

3. युइशि (ऋषिक) प्रचारक लोकक्षेम नामक भिक्षु, अमू दरिया के क्षेत्र पर ऋषिकों के राज्य से, सन् 147 ई० में चीन गया। उसने लोयांग को केन्द्र बनाकर अनेक बौद्धग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। सन् 147 से 188 ई० तक 41 वर्ष के लम्बे समय में इस भिक्षु ने चीन में बौद्धधर्म के प्रचार के लिए अत्यन्त सराहनीय कार्य किया। लोकक्षेम द्वारा अनूदित अनेक ग्रन्थ इस समय भी पाये जाते हैं।

लोकक्षेम का एक शिष्य चे-कियन था, जो अपने गुरु के समान ऋषिकवंशज जाट था। वह लोयांग से नानकिंग चला गया और उसने चीन की इस नगरी को केन्द्र बनाकर अपना कार्य शुरू किया। सन् 220 से 253 ईस्वी तक चे-कियन ने 100 से भी अधिक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिसमें से 49 अब भी उपलब्ध हैं। दक्षिणी चीन में कार्य करने वाला यह सर्वप्रथम बौद्ध-भिक्षु था। (पृ० 163)।


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 80-81, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-330


4. चीन में धर्मप्रचार का कार्य करने वाले युइशि (ऋषिक) वंशज भिक्षुओं में धर्मरक्ष का विशेष महत्त्व है। इसका जन्म तीसरी शताब्दी के मध्य में एक ऋषिक परिवार में हुआ था जो कि तुङ्-ह्रांग में बसा हुआ था। उसने अपने भारतीय गुरु से शिक्षा ली तथा उसके साथ मध्य एशिया के अनेक बौद्ध विहारों की यात्रा की। इस प्रकार भ्रमण करते हुए धर्मरक्ष ने 36 भाषायें सीख लीं और बौद्धधर्म का गम्भीर ज्ञान प्राप्त कर लिया। सन् 284 से 313 ईस्वी तक वह चीन में रहा। वहां उसने 200 से भी अधिक संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिनमें से 90 अब तक भी उपलब्ध हैं। उसने चीन में अनुवादकों के एक संघ को भी गठित किया, जिसमें भारतीय, ऋषिक, चीनी आदि विद्वान् व भिक्षु एक साथ मिलकर कार्य करते थे। लोकक्षेम, चेकियन तथा धर्मरक्ष के समान ऋषिकवंशज अनेक भिक्षु चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये गए थे। कुषाणवंशी राजा भी ऋषिकवंशज थे और भारत के सम्पर्क में आकर पूर्णतया भारतीय बन गये थे (पृ० 163-164)।

5. पार्थियन बौद्ध प्रचारक - प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पार्थिया को ‘पह्लव’ कहा गया है, और रामायण, महाभारत तथा पुराणों में शक, पह्लव, बर्बर नाम प्रायः साथ-साथ आते हैं जो कि जाटवंश हैं। (तृतीय अध्याय, शक पह्लव, बर्बर प्रकरण देखो)।

पार्थिया प्रदेश बैक्ट्रिया (बल्ख) के पश्चिम और कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में स्थित था। इसकी स्थापना पह्लववंशज जाटों ने 248 ई० पू० में की थी, जिनके नेता असरक और तरिदात थे। इन्होंने ईरान को भी जीत लिया था। यहां के राजाओं तथा निवासियों ने बौद्धधर्म अपना लिया था। दूसरी सदी ईस्वी में पह्लव वंश का बौद्धभिक्षु चीन गया। चीनी साहित्य में उसका नाम न्गन-चे-काओ तथा संस्कृत नाम लोकोत्तम था। वह चीन में श्वेताश्व विहार में रहा, जहां इसने अनुवादकों के लिए एक पीठ की स्थापना की। इसने स्वयं 100 से भी अधिक बौद्ध ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया, जिसमें से 55 इस समय भी उपलब्ध हैं। उस अनुवाद पीठ में बहुत से विद्वानों में से ‘न्गन हिउअन’ का नाम उल्लेखनीय है। वह भी पह्लव वंश का था और व्यापार के लिए लोयांग में बसा हुआ था (पृ० 53, 165)।

6. खोतन - इसकी स्थिति यारकन्द के पूर्व में है, जो प्राचीनकाल में तकला मकान मरुस्थल के दक्षिण के राज्यों में सबसे समृद्ध तथा शक्तिशाली था। खोतन को मौर्य-मौर जाटों ने आबाद किया था तथा वहां पर शासन किया था जिसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा। खोतन बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। यहां से अनेक जाट बौद्ध-भिक्षु चीन गये और वहां पर बौद्ध-धर्म को फैलाया। समय-समय पर चीन के बौद्ध-भिक्षु, बौद्ध-धर्म के उच्च अध्ययन के लिए खोतन आते रहते थे। इनमें से प्रसिद्ध ‘चोउ-शे-हिंग’ नामक चीनी भिक्षु है, जो सन् 258 ईस्वी में खोतन गया था।

सन् 291 ईस्वी में मोक्षल नामक भिक्षु खोतन से चीन गया और वहां उसने पंचविंशतिसाहस्रिका पारमिता ग्रन्थ का चीनी भाषा में अनुवाद किया।

पांचवीं सदी के प्रारम्भ (401-433 ईस्वी) में न्गन-यांग नामक चीनी राजकुमार बौद्ध-ग्रन्थों के उच्च अध्ययन के प्रयोजन से खोतन गया था। (पृ० 168-169)।

7. कुची राज्य के प्रचारक - तकला मकान मरुस्थल के उत्तर में स्थित राज्यों में ‘कुची’ सबसे अधिक शक्तिशाली था। इसके निवासियों में भारतीयों की संख्या बहुत अधिक थी। तीसरी सदी के


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अन्त तक यह सारा प्रदेश बौद्ध-धर्म का अनुयायी हो चुका था। यहां से अनेक बौद्ध-भिक्षु चीन में गये। चीन में बौद्ध-धर्म का प्रचार करने वाले कुची के भिक्षुओं में कुमारजीव का स्थान सर्वोपरि है। उसके पिता का नाम कुमारायन था जो भारत के एक राजकुल में उत्पन्न हुआ था। वह भिक्षु होकर कुची पहुंचा। वहां के राजा ने उसकी विद्या तथा ज्ञान से प्रभावित होकर उसे गुरु के पद पर नियुक्त कर दिया। कुची के उस राजा की बहन जीवा उस पर मोहित हो गई और अन्त में दोनों का विवाह हो गया। इनकी दो सन्तानें हुईं, कुमारजीव और पुष्यदेव। कुमारजीव की माता जीवा भिक्षुणी हो गई और उसने कुमारजीव को कश्मीर लाकर वहां के राजा के भाई बन्धुदत्त बौद्ध आचार्य से बौद्ध-धर्म की ऊंची शिक्षा दिलाई। कश्मीर में विद्या ग्रहण करके कुमारजीव शैल देश (काशगर) आया। उसने वहां चारों वेदों, वेदांगों, दर्शन और ज्योतिष आदि का अध्ययन किया। उस समय शैल देश प्राचीन वैदिकधर्म का बहुत बड़ा केन्द्र था। 383 ईस्वी में कुमारजीव अपने देश कुची आ गया और वहां से वह 401 ईस्वी में चीन की राजधानी में पहुंचा। वहां उसने 10 वर्ष में 106 संस्कृत ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। उसके पाण्डित्य की कीर्ति सारे चीन में फैली हुई थी और उससे शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से चीनी विद्यार्थी तथा भिक्षु उसकी सेवा में पहुंचा करते थे।

कुमारजीव ने अपने कार्य में सहायता के लिए बहुत से विद्वानों को भारत से भी चीन बुलाया। उसके अनुरोध से जो भारतीय विद्वान् चीन गये, उनमें विमलाक्ष, पुण्यत्रात, बुद्धयश, गौतम संघदेव, धर्मयश, गुणवर्मा, गुणभद्र और बौद्धवर्मा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। चीन में जो बौद्ध-धर्म का प्रसार हुआ, उसमें ये सब कुमारजीव के सहयोगी थे (पृ० 166-68)।

इसी प्रकार तिब्बत में भी भारतीयों ने बौद्ध-धर्म फैलाया। मध्य एशिया, चीन, तिब्बत, मध्य-पूर्व, मंगोलिया आदि देशों में जाटों ने उपनिवेश स्थापित किए तथा वहां शासन किया। ये देश सांस्कृतिक दृष्टि से वृहत्तर भारत के अंग रहे हैं।

संस्कृति तथा धर्म के प्रकरण को लिखने का तात्पर्य यह है कि पाठक समझ जाएं कि जाट केवल युद्धवीर तथा योग्य शासक ही नहीं हैं बल्कि समय-समय पर उच्चकोटि के विद्वान् भी होते आये हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति तथा धर्म को देश-विदेशों में फैलाया।

II. सीथिया तथा मध्य एशिया

सीथिया देश - पिछले पृष्ठों पर लिख दिया है कि “यह देश (देन्यूब नदी) से लेकर ठीक दक्षिणी रूस के पार तक, कैस्पियन सागर के पूर्व में अमू दरिया एवं सिर दरिया की घाटी तक, पामीर पहाड़ियों की शृंखला तक तथा तारिम नदी की घाटी तक फैला हुआ था। शकवंशीय जाटों ने आर्यावर्त से बाहर जाकर शक देश आबाद किया जो कि उनके नाम पर शकावस्था कहलाया, जिसका अपभ्रंश नाम सीथिया पड़ गया।”

मध्य एशिया - सीथिया देश की सीमा के भीतर ही मध्य एशिया या तुर्किस्तान देश की स्थिति है। चीन देश के पश्चिम, ईरान तथा अफगानिस्तान के उत्तरपूर्व, तिब्बत के उत्तर और एशियाई रूस के दक्षिण में जो विशाल खण्ड है, उसे मध्य एशिया या तुर्किस्तान कहते हैं। चन्द्रवंशज सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु के नाम पर इस देश का नाम तुर्वसस्थान-तुर्कस्थान-तुर्किस्तान पड़ा,


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तुर्की भी इसी नाम पर है। (देखो तृतीय अध्याय, शक एवं तंवर-तोमर जाटवंश)

पाठकों की जानकारी के लिए, विदेशों में जाट राज्य सम्बन्धित कुछ विशेष बातें जो कि पण्डित कालीचरण शर्मा की लिखित “आर्यों का प्राचीन गौरव” नामक पुस्तक के आधार पर हैं -

1. कैस्पियन सागर - दुष्यन्तपुत्र भरत, जिसकी माता शकुन्तला ने उसका पालन-पोषण कश्यप ऋषि के आश्रम पर किया था और कश्यप जी का आश्रम कैस्पियन सागर और काले सागर के मध्य कौकेशश (कॉकेशश या काफ पर्वत) के निकट ऐलबुर्ज पर्वत पर था, जहां से कि फरात नदी निकलती है। कैस्पियन सागर के किनारे कश्यप महर्षि का आश्रम था इसलिए वहां के निवासी आज पर्यन्त कैस्पियन रेश के कहलाते हैं। कैस्पियन को बहर-ए-खिजर भी कहते हैं। खिजर अपभ्रंश है केसर का। तात्पर्य है केसर के रंग वाले समुद्र से (पृ० 29-31)।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 90-91 पर लेखक बी० एस० दहिया ने लिखा है कि –

“जब कश्यप गोत्र के जाटों का शासन इस क्षेत्र पर हुआ तब उनके नाम पर यह सागर, ‘कैस्पियन सागर’ कहलाया। इसके पश्चात् जब वरिक (वाह्लीक) जाटों की शक्ति वहां पर हुई, तब इसका नाम ‘हिरकानिया सागर’ पड़ा। वरिक को ईरानी भाषा में वरकन-वर्क तथा यूनानी भाषा में हिरकान कहा गया है। जब वहां पर दहिया जाटों का शासन हुआ, तब इसको ‘दहाय सागर’ कहा गया। गिल जाटों का वहां शासन होने पर यह ‘गिलन सागर’ कहा गया। गिल को फारस वालों ने गिलन तथा यूनानियों ने गिलन्ज-गेलन्ज लिखा है। बाद में जब खजर (गूजर जाटवंश) की शक्ति उस क्षेत्र पर हुई, तब यह ‘बहर-अल-खजर’ कहलाया जिसका अर्थ है खजरों का सागर (History of Persia, P. syke, Vol. 1, P. 26)।”

पण्डित कालीचरण शर्मा ने तुर्की एवं यूनान के विषय में लिखा है –

2. यूरोपियन टर्की - इसको ‘सल्तनत आटोमेन ऐम्पायर’ कहते हैं। (देखो दी हिस्टोरिकल लीजेन्ड्स आफ पर्शिया बाई जोन विलसन डी, डी, ऐम, आर, ए, ऐस)। आटोमेन यौगिक शब्द है ओटो + मेन का। ओटो अपभ्रंश है यदु का। मेन अपभ्रंश है मनु का। तात्पर्य है यदुवंशियों से। इस साम्राज्य की राजधानी कुन्सतुनतुनिया को यदुवंशी बादशाह कोन्स्टेनटाइन ने आबाद किया था। कोन्स्टेनटाइन अपभ्रंश है कंसतनतनियां का। कंसतन = कंस का लड़का। तनियां = कंसतन की लड़की, अर्थात् कंस के लड़के की लड़की के वंश में। इसीलिए इस वंश की पदवी ‘अफरासिआब जाह’ कहलाती है। अफरासिआब अपभ्रंश है अप्रिय श्याम का। तात्पर्य है श्री कृष्णचन्द्र जी से शत्रुता रखने वाले कंस के वंश के यदुवंशी। (पृ० 10-11)

यह पहले लिखा जा चुका है कि सम्राट् ययातिपुत्र यदु से यादववंश प्रचलित हुआ जो कि जाटवंश है। देखो तृतीय अध्याय, यादववंश प्रकरण)।

3. ग्रीस (यूनान) - सल्तनत यूनान को ग्रीस कहते हैं। ग्रीस अपभ्रंश है गौरेश का। गोर = गौरे, ईश = स्वामी अर्थात् यूरोप निवासी गोरे आदमियों का देश। इसीलिए महाभारत आदि में गौराण्ड करके पुकारा गया है। यूनान में जो सबसे पहला राजा हुआ उसका नाम माइनस् था। माइनस् अपभ्रंश है मनु का। मनु सबसे प्रथम श्रेणी का फिलोस्फर (योगी), लेजिस्लेटर (कानूदां) और चक्रवर्ती महाराजा हुआ है। (पृ० 11)


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4. ताशकन्दी - ताशकन्दी के रहने वाले ताशकन्दी कहलाते हैं। ताशकन्दी अपभ्रंश है तक्षखण्डा का। तात्पर्य है भरत जी के ज्येष्ठपुत्र तक्ष के उत्तराधिकारियों से। तक्ष की राजधानी तक्षशिला थी। पेशावर के निवासी पेशावरी कहलाते हैं। पेशावर अपभ्रंश है पुष्कलावरी का। तात्पर्य है भरत जी के द्वितीय पुत्र पुष्कल के उत्तराधिकारियों से। पुष्कल की राजधानी पुष्कलावती थी जिसको अब पेशावर कहते हैं जो कि अपभ्रंश है पुष्कलावत का। (देखो वा० रा० उत्तरकाण्ड, सर्ग 101)। इससे सिद्ध हुआ है कि तक्ष के पुत्र ताशकन्दी और पुष्कल के पुत्र पेशावरी कहलाते हैं (पृ० 16-17)।

5. मुग़ल - मंगोलिया के रहने वाले मुगल कहलाते हैं। मुगल को अरबी में माहकुल कहते हैं और माहकुल को फारसी में चन्द्रकुल कहते हैं। माह = चन्द्र और कुल = खानदान। तात्पर्य है चन्द्रवंशियों से। मुगलों के आदिपुरुष को चगटाई, दी चंगेजखां कहते हैं। चगटाई अपभ्रंश है चकीटो का।

तात्पर्य है श्रीकृष्ण जी के उत्तराधिकारी महाराज बलन्द के पौत्र चकीटो से (टॉड राजस्थान)। महाराज बलन्द, जो कि शालिवाहनपुर रहा करते थे, वे गजनी देश का राज्य अपने पौत्र चकीटो के अधीन छोड़ आये। चकीटो ने म्लेच्छ कौम के लोगों को अपनी सेना में भरती कर लिया तथा उनको सेना के तमाम बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त कर दिया। उन्होंने चकीटो को तज़वीज़ पेश की कि अगर आप अपने पुरुषाओं के धर्म को त्याग देवें तो आपको बल्ख-बुखारा का मालिक बना दिया जाएगा, जहां पर उषबेक जाति आबाद है, जिसके बादशाह के पास एक लड़की के सिवाय कोई औलाद नहीं है। चकीटो ने यह सुझाव मानकर बादशाह की उस लड़की के साथ विवाह कर लिया और बल्ख-बुखारे का बादशाह बन गया तथा 28,000 घोड़ों का सरदार हो गया। चकीटो बलिखशान के फाटक से हिन्दुस्तान के मुंहड़े तक सबका बादशाह था और उसी से चकीटो मुग़ल के फ़िर्के की उत्पत्ति है। (ऐनल्स आफ जैसलमेर अध्याय 1 पृष्ठ 1061)। (पृ० 18-19)

(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 118 पर बी० एस० दहिया ने भी op, cit, p.248 के हवाले से, ऊपर वाले लेख के समान ही लिखा है। आगे लिखा है कि तुर्क और तातार, ये तुर और तातरान जाटवंशज थे जिन्होंने छठी सदी ईस्वी तथा उससे भी बाद में अमू दरिया (मध्य एशिया) घाटी में राज्य किया (पृ 119)।

ऊपर वाले उदाहरणों से यह बात साफ है कि मुगल, यदुवंशज श्रीकृष्ण जी के वंशज हैं, जो कि जाट थे।

6. समरक़न्द - समरक़न्द के निवासी समरक़न्दी कहलाते हैं। समरक़न्दी अपभ्रंश है सम्बरखण्डी का। तात्पर्य है महाराणी उषा के पिता सम्बासुर के उत्तराधिकारियों से। इसीलिए समरक़न्द के नजदीक खीवा और बुखारा के बीच रहने वाले लोग उषबेक कहलाते हैं। उषबेक अपभ्रंश है उषबेंक का। तात्पर्य है श्रीमती महाराणी उषा के पितृवंशियों से (टॉड राजस्थान) (पृ० 20)। जिस स्थान पर श्रीकृष्ण जी का सम्बरासुर से युद्ध हुआ था, समरकन्द कहलाता है।

यह वही सम्बरासुर है जिसकी राजकन्या उषा का श्रीकृष्णपुत्र अनिरुद्ध के साथ स्वयंवर हुआ था। वह स्थान जहां पर सम्बरासुर की माता ‘कोटरा’ रहती थी, ‘कोक़न्द’ कहलाता है, जो कि


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अपभ्रंश और लघुरूप है ‘कोटरा खण्ड’ का (देखो श्रीमद् भागवत)। वह स्थान जहां पर असुर लोगों ने पहली आबादी स्वीकार की थी, ‘निशांपुर’ कहलाता है जो कि अपभ्रंश है ‘निशापुर’ का। जैसे - निशाचर या असुरों का देश। (पृ० 44-45)।

7. ईरान (फारस) - ईरान को ‘सिकन्दर नामा अंग्रेजी’ में एरियाना करके माना गया है। एरियाना अपभ्रंश है आर्याना का। आर्यान् बहुवचन है आर्य का अर्थात् आर्यों के रहने का देश। तात्पर्य है आर्यावर्त के पश्चिमी भाग से। इसलिए अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान और ईरान की उग्रभूमि को प्लेटो ऑफ एरियान कहा जाता है (पृ० 21)।

ईरान को फारस भी कहते हैं। फारस अपभ्रंश और लघुरूप है भारतवर्ष का। त और ब का लोप हो गया। ईरान के रहने वाले ईरानी कहलाते हैं। ईरानी गुणवाचक है एरियान् का। तात्पर्य है आर्यान् से। फारस के रहने वाले फारसी तथा पारसी कहलाते हैं। फारस तथा पारसी अपभ्रंश और लघुरूप है भारतवासी का। त और व का लोप हो गया है। संस्कृत का ‘भ’ अपभ्रंश होकर फारसी में ‘फ’ हो जाता है। जैसे गृभिः से गिर्फ़्त (दी फौनटेन हैड आफ़ रिलीजन बाई बाबू गंगाप्रसाद एम० ए० एम० आर० ए० एस० पृ० 88 व 89)।

आर्य शब्द जिन्दावस्था (पारसियों की धार्मिक पुस्तक) में अनेक स्थानों में आया है। इससे सिद्ध हुआ कि पारसी अपने को स्वयं आर्यजाति से मानते हैं। (पृ० 22-23)

ईरानियों के दो खानदान प्रसिद्ध हैं। 1. खानदान पेशदादा 2. खानदान सासानियां। पेशदादा यौगिक शब्द है पेश + दाद का। पेश = आगे, दाद = इन्साफ़। अर्थात् न्याय प्रणाली (मानव धर्मशास्त्र) को सबसे पहले चलानेवाला खानदान, तात्पर्य है सूर्यवंशियों से। (देखो दी पारसी रिलीजन जिन्दावस्था बाई जौन विल्सन डी० डी० म० आर० ए० एस०)।

सासानियां अपभ्रंश है शशिनियां का। शशिनियां गुणवाचक है शशि का। शशि = चन्द्रमा। तात्पर्य है चन्द्रवंशियों से। (पृ० 23-24)

8. एशिया माइनर (लघु एशिया) - एशिया माइनर और यूरोपियन टर्की के राज खानदान को ओटोमेन कहते हैं।

ओटोमेन अपभ्रंश है यदुमनु का। तात्पर्य है यदुवंशियों से। (देखो दी पारसी रिलीजन जिन्दावस्था बाई जौन विल्सन डी० डी० ऐम० आर० ए० एस० पृ० 581)

खानदान ‘ओटोमेन’ जो इस समय कुस्तुनतनियां में राज कर रहा है। इसलिए एशिया माइनर वाले अपने को ‘जुडाह’ से मानते हैं। जुडाह अपभ्रंश है यदु का। (देखो दी पारसी रिलीजन जिन्दावस्था बाई जौन विल्सन डी० डी० एम० आर० ए० एस० पृ० 564)

जुडाहवंशीय ‘जुड्डास’ कहलाते हैं। उनको मुसलमान ‘यहूदी’ और यूरोपियन ‘ज्यूज’ कहते हैं। (देखो दी फौनटेन हेड ऑफ रिलीजन बाई गंगाप्रसाद वर्मा एम० ए० एम० आर० ए० एस०)। यहूदियों की तरह ईसाई लोग भी तौरेत को ईश्वरीय आज्ञा मानते हैं।

श्रीकृष्ण जी के उत्तराधिकारी एशिया माईनर में ‘सेमी’ तथा सेमीटिक्स कहलाते हैं। इन्हीं को मुसलमान ‘सामी’ कहते हैं। सामी अपभ्रंश है साम्बु का। तात्पर्य है श्रीकृष्ण जी के पुत्र


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साम्बुवंशियों से (देखो टॉड राजस्थान)। श्रीकृष्ण जी की सातवीं पटरानी का नाम जाम्बुवन्ती था, जिसका ज्येष्ठ पुत्र साम्बु कहलाया। उसने सिन्ध नदी के दोनों ओर के देशों में अधिकार प्राप्त किया और खानदान ‘सीना-साम’ कायम किया, जिससे ‘जरेजा’ वंश की उत्पत्ति हुई। जरेजावंश के कविराजाओं का कथन है कि उनके पूर्व पुरुष शाम या सीरिया से आये थे। (ऐनल्स ऑफ जैसलमेर पृ० 1054) (पृ० 24-26)

एशिया माइनर के देशों में रहने वाले लोगों को मीडीज भी कहते हैं। मीडीज़ अपभ्रंश है मधु का। तात्पर्य है मधुवंशियों से (देखो टॉड राजस्थान अंग्रेजी)। मीडीज़ सम्राट् ययाति की सन्तान हैं (देखो श्रीमद्भागवत, पृ० 44)। आगे श्रीमद्भागवत, अध्याय 23, पृ० 70, श्लोक 28-29 में लिखा है कि यद्यपि वृष्णि और यदु के कारण से मधु का वंश माधव, वृष्णि और यादव इन तीन नामों को प्राप्त हुआ था, परन्तु वृष्णि ही इस वंश में श्रेष्ठ था (ये तीनों जाटगोत्र हैं)। ऊपरलिखित उदाहरणों से प्रमाणित हो जाता है कि एशिया माइनर के सब देश यदुवंशज, श्रीकृष्णवंशज या जाटवंशज हैं।

9. प्राचीन आर्यावर्त के भाग - इस समय प्राचीन आर्यावर्त के दो भाग हैं।

एक - वैदिक धर्मावलम्बी, संस्कृत भाषा के जाननेवाले आर्यजनों का देश ब्रह्मपुत्र से लेकर सिन्धु नदी तक।

दूसरा - अवैदिक धर्मावलम्बी, अपभ्रंश भाषाओं के जानने वाले आर्यजनों का देश सिन्धु नदी से लेकर यूफ्रीट्स (फ्राद) और टिग्रिस (दजला) नदियों तक।

अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, मध्य एशिया, ईरान और एशिया माइनर कोई पृथक् देश नहीं थे वरन् आर्यावर्त के प्रान्त मात्र थे। (पृ० 33)

10. अरमेनियां - वह स्थान जो असुरों के महान् बल का अड्डा था, अरमेनियां कहलाता है। अरमेनियां अपभ्रंश है अरि-महान् का। अरि = शत्रु, महान् = बलवान्।

11. ऐज़रबैजान - अरमेनियां के दक्षिण जहां पर देवासुर संग्राम हुआ था, ऐज़रबैजान कहलाता है। जो कि अपभ्रंश है असुरभंजन का (देखो हिस्टोरिकल लीजेन्ड्स आफ़ पर्शिया बाई जौन विल्सन डी० डी० एम० आर० ए० एस० अंग्रेजी (पृष्ठ 578)। क्योमर्ष ने साम्राज्य ईरान की स्थापना की और उसकी राजधानी प्रान्त ऐज़रबैजान नियत की। पहाड़ और जंगलों के रहने वाले जिंनों (असुरों) ने इन शुभकार्यों में बाधा डाली तथा देव और जिंनों का युद्ध आरम्भ हो गया। शाहनामा ईरान पृ० 4-5 पर इस युद्ध को “जंगवा लश्करे देवासार” लिखा है, जो कि अपभ्रंश है देवासुर का। वाल्मीकि रामायण, सर्ग 47, पृ० 112 पर इस युद्ध को देवासुर संग्राम लिखा है। उस समय विष्णु जी के प्रतिकूल जो असुर खड़ा हुआ उसी को ही विष्णु जी ने वैष्णवी चक्र से चूर्ण कर डाला॥43॥ इस प्रकार अदिति के वीर पुत्र अगणित दैत्य इस देवासुर संग्राम में मारे गये॥44॥

12. जियोर्जिया (Georgia) - अरमेनियां में जहां पर देवता अर्थात् आर्यों को पूर्ण विजय प्राप्त हुई थी ‘जियोर्जिया’ कहलाता है, जो कि अपभ्रंश है ‘जब आर्य’ का।

13. इराक़ -ऐजरबैजान के दक्षिण में, जहां पर श्री नारायण जी का हिरण्याक्ष से युद्ध हुआ था,


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इराक़ कहलाता है जो कि अपभ्रंश है ‘हिरण्याक्ष’ का।

14. परथिया - ईरान का हरा-भरा देश ‘परथिया’ कहलाता है, जो कि अपभ्रंश है पृथा का। महाराणी कुन्ती के तीन नाम प्रसिद्ध थे - मायके का नाम ‘पृथा’, पांचाल देश के राजा कौन्त की पोष्य-पुत्री होने से ‘कुन्ती’ और देवहूती मंत्र जानने से ‘देवहूती’। इसीलिए ईरानी लोग पृथा की जन्मभूमि अर्थात् मायके को ‘परथिया’ और देवहूत को ‘हुमा’ कहते हैं, जो कि अपभ्रंश और लघुरूप है ‘देवहूती’ का (देखो हिस्टोरिकल लीजेन्ड्स आफ़ पर्शिया बाई जौन विल्सन डी० डी० एम० आर० ए० एस०)।

हूमा, एक नाम है जिससे अभिप्राय है स्वर्ग में रहनेवाली चिड़िया। देवहूती जिसका अर्थ है देवताओं का आवाहन करने वाली। दोनों का तात्पर्य एक ही है।

इसी परथिया देश में सूर्यकुमार कर्ण की उत्पत्ति हुई थी। इसीलिए जिस नदी में कर्ण का प्रवाह किया गया था आज भी वह नदी ‘करन’ कहलाती है जो कि ईरान की खाड़ी में गिरती है। ‘करन’ अपभ्रंश है कर्ण का। (पृ० 34-36)।

ईरानी लोग कर्ण को ‘दारा’ तथा ‘दराव’ कहते हैं। दारा अपभ्रंश है ‘द्यौरा’ का और दाराब अपभ्रंश है ‘द्यौरवि’ का। द्यौ = सूर्य, रवि रविनन्दन। तात्पर्य है सूर्यकुमार कर्ण से। दाराब या दारा जिसको यूनानी ‘दी बास्टर्ड’ कहते हैं अर्थात् जो कवारेपन में उत्पन्न हुआ हो और जिसके पिता का पता न हो। जिस नगर को महाराणी कुन्ती अर्थात् हूमा ने श्री कृष्णचन्द्र व बलराम जी के नाम से बसाया था उसको सामराम कहते हैं, जो कि अपभ्रंश है ‘श्यामराम’ का (देखो हिस्टोरिकल लीजेन्ड्स आफ़ पर्शिया बाई जौन विल्सन डी० डी० एम० आर० ए० एस० (पृष्ठ 583-584)।

15. बल्ख - कर्दम प्रजापति के बड़े पुत्र जिनका नाम ‘इल’ था, की पहली राजधानी ‘बल्ख’ थी जो कि अपभ्रंश है वाह्लीक का। ‘इल’ धर्मात्मा सम्राट् का शासन वाह्लीक देश पर था (वा० रा० उ० का० सर्ग 90)। यह वही बल्ख है जहां पर व्यास ऋषि ने गश्ताश्य शाह के अभिवादन पर उसके मन्त्री ज़र्दश्न अर्थात् ज़ौरेस्टर की वेदान्त में परीक्षा ली थी। (देखो दी फौंटेन हैड आफ़ रिलीजन बाई बाबू गंगाप्रसाद)।

नोट - वाह्लीक (बल्ख) देश - वरिक वाहिक-वाह्लीक गोत्र के जाटों के नाम पर इस देश का नाम वाह्लीक पड़ा।

16. अफ़गानिस्तान - यह अपभ्रंश है अपगानस्थान का। अप = बुरा, गान = गाना, स्थान = देश। अर्थात् बुरे गायकों का देश। इसीलिए इस देश को फ़ारसी लुग़ात में गिरिया व जारी करने वालों का देश कहा है। वास्तव में यह देश गान्धर्व देश था, जिसका अर्थ है गानविद्या को धारण करने वालों का देश। यह सर्वगत ब्रह्म के जानने वाले, सामवेद के गाने वालों का देश था जिसको अब ‘कन्धार’ कहते हैं जो कि अपभ्रंश है ‘गान्धार’ का। यह वही देश है जिसके राजा की राजकन्या श्रीमती महाराणी गान्धारी महाराज धृतराष्ट्र से ब्याही थी। (वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड सर्ग 100 में भी गन्धर्व देश का नाम है)। (पृ० 39)।

17. ग़ज़नी - अफ़गानिस्तान की प्राचीन राजधानी ग़ज़नी है जो कि अपभ्रंश है गजनी का।


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इस नगर को श्रीकृष्ण जी के वंशज राजा गज ने बनवाया था (टॉड राजस्थान)। जब राजा गज की यादव सेना का युद्ध असुरों की सेना से हो रहा था और असुर सेना अपना बल बढ़ा रही थी तो इस दशा में एक किला बनाने की आवश्यकता पड़ी। तब राजा गज ने अपने मंत्रियों की सलाह से उत्तरी पहाड़ों के मध्य एक किला बनवाया तथा उसका नाम गजनी रखा। संवत् धर्मराज (युधिष्ठिर) 3008, रोहिणी नक्षत्र, वसन्त ऋतु, वैसाख बदी तीज, रविवार को राजा गज, गजनी के सिंहासन पर आसीन हुआ और यदुवंशियों के नाम को कायम रखा। (टॉड राजस्थान, पृष्ठ 1057, 1059) (पृ० 40)।

नोट - 1. आज युधिष्ठिरी संवत् 5088 है जो कि ईस्वी सन् से 3100 वर्ष पहले चालू हुआ था तथा राजा गज, गजनी के राजसिंहासन पर ईस्वी सन् से 1020 वर्ष पहले आसीन हुआ था। 2. श्रीकृष्ण जी के वंशज राजा गज एवं उसके वीर सैनिक जाट थे।

18. हिन्दूकुश - तृतीय अध्याय, रामायणकाल में ऋषिक-तुषार जाटवंश के प्रकरण में यह लिख दिया गया है कि इस पर्वत का नाम महाभारतकाल में तुषारगिरि था जो कि इस क्षेत्र पर तुषार गोत्र के जाटों का शासन होने से उनके नाम पर ‘तुषारगिरि’ कहा गया। बाद में मुसलमानों के समय में इस पर्वत का नाम हिन्दुकुश पड़ गया, जिसका ब्यौरा निम्नलिखित है -

हिन्दुकुश अपभ्रंश है इन्दुकुश का। इन्दु चन्द्रमा और कुश = मारना, अर्थात् जहां पर चन्द्रवंशीय श्रीकृष्ण जी के वंशज महाराज सुबाहु, रिझ, गज, शालिवाहन और बलंद ने मुसलमानों से भीषण युद्ध किये थे, इसीलिए उस देश के पहाड़ों की पंक्ति को इन्दुकुश या हिन्दुकुश कहते हैं (टॉड राजस्थान, पृ० 41)। इन युद्धों का वर्णन इसी अध्याय में उचित स्थान पर किया जायेगा।

19. क्रौंचवन - करांची अपभ्रंश है क्रौंच का। क्रौंच देश यदुवंशियों की मौरुसी सल्तनत है। वा० रा० उत्तरकाण्ड सर्ग 59, श्लोक 20 में लिखा है कि “राजकुल से बहिष्कृत यदु ने नगर में तथा दुर्गम कौंचवन में सहस्रों यातुधानों को जन्म दिया।” (पृ० 42)

पूर्वकाल में राजपूताना से लेकर मराको तक (सुआहारः अर्थात् छुहारे के जंगल) और उसकी शाखाओं में जितने देश विस्तृत हैं वे सब वेरान थे तथा क्रौंचवन के नाम से प्रसिद्ध थे। सम्राट् ययाति ने अपने पुत्र यदु को क्रौंच का वन दिया था। जंगल के साफ और आबाद होने पर इस वन का नाम मरुस्थली पड़ा। ‘मराको’ अपभ्रंश है ‘मरु’ का, तात्पर्य है मरुदेश से।

राजपूताना, अफ़गानिस्तान, बलूचिस्तान, ईरान, अरब, मिश्र, लीबिया, अल्जीरिया और मराको आदि देशों की मरुभूमियां प्रसिद्ध ही हैं। अतः राजपूताना से लेकर मराको तक जितने देश (सहारा के जंगल) तथा उसकी शाखाओं में आबाद हैं, उन सबको मरुस्थली कहते हैं (टॉड राजस्थान)।

मरुस्थली के राजा नाभा के पुत्र पृथबाहु ने भी श्रीकृष्ण जी के राजचिन्ह विश्वकर्मा के बनाए हुए शाही छत्र के सहित धारण किए। इसीलिए दजला व फ्रात नदियों के मध्य देश को जुडिया कहते हैं, जो कि अपभ्रंश है ‘जदु’ का। तात्पर्य उस देश से है जिसको यदुवंशियों के आदि पुरुष ‘यदु’ ने आवर्त्त किया था (देखो दी प्रोफेसिज़ रस्पेक्टिंग क्राइस्ट विद देअर फुलफिलमेंट बाई जौन विल्सन डी० डी० एम० आर० ए० एस० पृष्ठ 556। यदु से यादव जाटवंश चला।


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जैसस, जुडिया के बैथेलियम में उत्पन्न हुआ था। इस देश को सीरिया या शाम भी कहते हैं। सीरिया अपभ्रंश है श्री का, शाम अपभ्रंश है श्याम का, तात्पर्य सेनीटोरियम् (श्री कृष्ण जी से) है इसीलिए एशिया माइनर व शमूल सीरिया या शाम, अरब और टर्की का साम्राज्य आज तक ‘आटोमेन ऐम्पायर’ कहलाता है। ‘आटोमेन’ अपभ्रंश है ‘यदुमनु’ का। तात्पर्य साम्राज्य यदुवंशियों से है (देखो “दी हिस्टोरिकल लीजेन्ड्स आफ़ पर्शिया बाई जौन विल्सन डी० डी० एस० आर० ए० एस० पृष्ठ 581)। खानदान आटोमेन, जो इस समय कुस्तुनतुनिया में राज्य करता है, इसकी तसदीक टॉड राजस्थान से भी होती है (देखो ऐनल्स ऑफ जैसलमेर पृ० 1054)।

जरेजा वंशावली में लिखा है कि उनके पुरुषा शाम या सीरिया से आये थे। सीरिया की प्राचीन राजधानी बेबीलोन मानी जाती है, जो कि अपभ्रंश है बाहुबलान् का। बाहुबलान् बहुवचन है बाहुबल का। यह नगर श्रीकृष्ण जी के उत्तराधिकारी महाराज बाहुबल का आवर्त्त कराया मालूम देता है। (देखो टॉड राजस्थान ऐनल्स ऑफ जैसलमेर पृष्ठ 1055)।

नाभा के पुत्र, मरुस्थली के राजा पृथबाहु ने श्रीकृष्ण जी के राजचिह्न विश्वकर्मा के बनाए हुए राजसी छत्र के सहित धारण किए। पृथबाहु के पुत्र का नाम बाहुबल था। ‘बाहुल मंडप’ अपभ्रंश है “बाहुबल मंडप” का। तात्पर्य महाराज बाहुबल के सभा स्थान से है (पृ० 43-44)।

ऊपरलिखित प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में यूफ्रेट्स (फ्रात) और टाईग्रिस (दजला) नदियों तक, उत्तर में हिमालय पर्वत की माला, समरकन्द, कोकन्द, निशांपुर, कैस्पियन और कॉकेशस, दक्षिण में समुद्र पर्यन्त आर्यजन निवास करते थे। इन सीमाओं के अन्तर्गत जितने देश हैं वे आर्यावर्त कहलाते थे। इसलिए ईरान, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, एशिया माइनर, पाकिस्तान, बांग्लादेश और वर्तमान भारतवर्ष के जितने प्रदेश हैं वे सब आर्यावर्त के प्रांत मात्र हैं।

20. यूरोप देश - इस देश को प्राचीनकाल में कारुपथ तथा अङ्गदियापुरी कहते थे, जिसको श्रीमान् महाराज रामचन्द्र जी के आज्ञानुसार लक्ष्मण जी ने एक वर्ष यूरोप में रहकर अपने ज्येष्ठ पुत्र अंगद के लिए आबाद किया था1 जो कि द्वापर में हरिवर्ष तथा अंगदेश और अब हंगरी आदि नामों से प्रसिद्ध है। अंगदियापुरी के दक्षिणी भाग में रूम सागर और अटलांटिक सागर के किनारे-किनारे अफ्रीका निवासी हब्शी आदि राक्षस जातियों के आक्रमण रोकने के लिए लक्ष्मण जी ने वीर सैनिकों की छावनियां आवर्त्त कीं। जिसको अब ऑस्ट्रिया कहते हैं। उत्तरी भाग में ब्रह्मपुरी बसाई जिसको अब जर्मनी कहते हैं। दोनों भागों के मध्य लक्ष्मण जी ने अपना हैडक्वार्टर बनाया जिसको अब लक्षमबर्ग कहते हैं। उसी के पास श्री रामचन्द्र जी के खानदानी नाम नारायण से नारायण मंडी आबाद हुई जिसको अब नॉरमण्डी कहते हैं। नॉरमण्डी के निकट एक दूसरे से मिले हुए द्वीप अंगलेशी नाम से आवर्त्त हुए जिसको पहले ऐंग्लेसी कहते थे और अब इंग्लैण्ड कहते हैं।

द्वापर के अन्त में अंगदियापुरी देश, अंगदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसका राज्य सम्राट् दुर्योधन ने अपने मित्र राजा कर्ण को दे दिया था। करीब-करीब यूरोप के समस्त देशों का राज्य


1. लक्षमण जी अंगदियापुरी में एक वर्ष तक रहे, अंगद का वहां राज्य दृढ़ होने पर, अयोध्या को चले आये (वा० रा० उत्तरकाण्ड, सर्ग 102, श्लोक 2 से 11 तक)।


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शासन आज तक महात्मा अंगद के उत्तराधिकारी अंगवंशीय तथा अंगलेशों के हाथ में है, जो कि ऐंग्लो, एंग्लोसेक्शन, ऐंग्लेसी, इंगलिश, इंगेरियन्स आदि नामों से प्रसिद्ध है और जर्मनी में आज तक संस्कृत भाषा का आदर तथा वेदों के स्वाध्याय का प्रचार है। (पृ० 1-3)।

यूरोप अपभ्रंश है युवरोप का। युव-युवराज, रोप-आरोप किया हुआ। तात्पर्य है उस देश से, जो लक्ष्मण जी के ज्येष्ठपुत्र अङ्गद के लिए आवर्त्त किया गया था। यूरोप के निवासी यूरोपियन्स कहलाते हैं। यूरोपियन्स बहुवचन है यूरोपियन का। यूरोपियन विशेषण है यूरोपी का। यूरोपी अपभ्रंश है युवरोपी का। तात्पर्य है उन लोगों से जो यूरोप देश में युवराज अङ्गद के साथ भेजे और बसाए गये थे। (पृ० 4)

कारुपथ यौगिक शब्द है कारु + पथ का। कारु = कारो, पथ = रास्ता। तात्पर्य है उस देश से जो भूमध्य रेखा से बहुत दूर कार्पेथियन पर्वत (Carpathian Mts.) के चारों ओर ऑस्ट्रिया, हंगरी, जर्मनी, इंग्लैण्ड, लक्षमबर्ग, नॉरमण्डी आदि नामों से फैला हुआ है। जैसे एशिया में हिमालय पर्वतमाला है, इसी तरह यूरोप में कार्पेथियन पर्वतमाला है।

इससे सिद्ध हुआ कि श्री रामचन्द्र जी के समय तक वीरान यूरोप देश कारुपथ देश कहलाता था। उसके आबाद करने पर युवरोप, अङ्गदियापुरी तथा अङ्गदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ और ग्रेट ब्रिटेन, आयरलैण्ड, ऑस्ट्रिया, हंगरी, जर्मनी, लक्षमबर्ग, नॉरमण्डी, फ्रांस, बेल्जियम, हालैण्ड, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, इटली, पोलैंड आदि अङ्गदियापुरी के प्रान्तमात्र महात्मा अङ्गद के क्षेत्र शासन के आधारी किये गये थे। (पृ० 4-5)

नोट - महाभारतकाल में यूरोप को ‘हरिवर्ष’ कहते हैं। हरि कहते हैं बन्दर को। उस देश में अब भी रक्तमुख अर्थात् वानर के समान भूरे नेत्र वाले होते हैं। ‘यूरोप’ को संस्कृत में ‘हरिवर्ष’ कहते थे। (सत्यार्थप्रकाश दशम समुल्लास पृ० 173)

वैदिक संस्कृत भाषा का संसार की अन्य भाषाओं से सम्बन्ध -

अरबी, फारसी व अंग्रेजी भाषाओं के अक्षर और आर्यभाषा के अक्षर एक ही हैं। इनका उच्चारण भी एक ही है। अन्तर केवल इतना है कि आर्यभाषा के अक्षर शुद्ध, सरल और पूर्ण लिखे जाते हैं। अन्य भाषाओं के अक्षर कहीं सीधे, कहीं उल्टे, कहीं करवट से, कहीं लेटे हुए, कहीं बैठे हुए, कहीं विशेषता के साथ और कहीं न्यूनता के साथ खींचे जाते हैं। आर्यभाषा के अक्षरों का उच्चारण शुद्ध और सरल, ठीक वही होता है जिसके लिए उनका प्रयोग होता है। अन्य भाषाओं के अक्षरों का उच्चारण कहीं विशेष अक्षरों और कहीं विशेष मात्राओं के साथ किया जाता है जिनके उच्चारण की वहां नितान्त आवश्यकता नहीं है। इसी तरह से पारसियों की भाषा ‘जिन्द’ भी संस्कृत भाषा की अपभ्रंश है। (देखो दी फौनटेन हैड आफ़ रिलीजन बाई बाबू गंगाप्रसाद एम० ए० एम० आर० ए० एस०, एम० आर० ए० सी० पृष्ठ 76 से 78 तक)।

प्रोफेसर मैक्समूलर साहब कहते हैं कि “आर्य जाति का व्याख्यान वेदों और जिन्दवस्था (पारसियों की धार्मिक पुस्तक) में है। संस्कृत मिलान खाती है जिन्द से।” (पृ० 50-51)

जिन्द भाषा में असंख्य शब्द संस्कृत भाषा के हैं। इससे सिद्ध हुआ कि जिन्द भाषा कोई स्वतन्त्र


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-340


भाषा नहीं है वरन् वैदिक संस्कृत भाषा का अपभ्रंश है। संस्कृत भाषा संसार की अन्य सब भाषाओं की जननी है।

इन सब बातों से सिद्ध होता है कि सारे संसार को सभ्यता, विज्ञान व संस्कृति आर्यों ने प्रदान की और सारे संसार को बसाने वाले और मनुष्यमात्र की उत्पत्ति आर्यों की नस्ल से है। पाठक इस थोड़े से लेख से ही सब कुछ ज्ञात कर सकते हैं (पृ० 54-55)।

जाटों के नाम पर देश, नगर, पर्वत, नदियों आदि के कुछ नाम पिछले पृष्ठों पर लिखे जा चुके हैं और शेष अगले पृष्ठों पर उचित स्थान पर लिखे जायेंगे।

सीथिया तथा मध्य एशिया में महाभारतकाल में जाटवंश

शक, बर्बर, शिवि, पह्लव, चोल, कम्बोज, वाह्लीक, पाण्ड्य, ऋषिक, तुषार, कुण्डू, नागवंश, कालखण्डे, कंग, दरद आदि (महाभारत, भीष्मपर्व, सभापर्व, आदिपर्व, वनपर्व, उद्योगपर्व)। इन सब जाट गोत्रों के वहां पर राज्य स्थापित थे। (तृतीय अध्याय में इन गोत्रों के प्रकरण को देखो)।

इनके अतिरिक्त - सिहाग, हेर, भुल्लर, दहिया लोगों के निकट सिर दरिया के पूर्व में थे तथा तुर्किस्तानईरान में भी थे। मौर्य-मौर जाटों का राज्य खोतनतुर्किस्तान के क्षेत्रों पर था तथा यूनान, यूरोप व इंग्लैंड में भी इनका निवास था।

नव-नौवर जाटों ने महाभारत युद्ध के बाद खोतन प्रदेश पर शासन किया।

शिवि - इन लोगों का राज्य पेशावर के उत्तर में उद्यान नामक प्रदेश पर था।

यौधेय - इन लोगों का एक दल भारतवर्ष से हिमालय को पार करके अमू दरिया को पार करता हुआ कैस्पियन सागर तक पहुंच गया। वहां पर ये लोग ढेदहाये कहे गये।

दहिया - ये लोग महाभारत युद्ध के बाद ईरान, कैस्पियन सागर तक पहुंच गये थे। इन क्षेत्रों पर इन लोगों का शासन रहा है।

जाखड़ - ये लोग मध्य एशिया के बल्ख क्षेत्र में आबाद थे।

पूनिया - इन लोगों का स्वतन्त्र राज्य काला सागर के निकट लघु एशिया में था। ये लोग अमू दरिया के निकट क्षेत्र में भी रहे हैं। पूनियातोखर जाट छठी शताब्दी ई० पू० यूरोप में भी थे।

गौरवंशज जाट - इन लोगों का राज्य मध्य एशिया में गौरूया नामक प्रदेश पर था।

नागवंशज जाट - मध्य एशिया में शकवंशज जाटों के साथ एक न्यूरिअन जाति रहती थी, जिस पर नाग जाटों ने आक्रमण किया था।

कलकल - इन लोगों का राज्य मध्य एशिया के ‘वाकाटक’ प्रदेश पर रहा था। (अधिक जानकारी के लिये, तृतीय अध्याय में इन गोत्रों के प्रकरण में देखो)।

इनके अतिरिक्त “सीथिया और मध्य एशिया” में जिन जाट गोत्रों के निवास, शक्ति तथा शासन थे, वे बी० एस० दहिया द्वारा लिखित पुस्तक (जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज के आधार पर निम्नलिखित हैं -


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1. कुरु-कौरव 2. तोमर-तंवर 3. तुर 4. तातरान 5. मान 6. वेन 7. ओझलान 8. कश्यप 9. कसवां 10. कुशान 11. पहलवी 12. सांधराण 13. औधराण 14. हंस 15. डबास 16. चहल 17. सिकरवार 18. छीना 19. गिल 20. गूजर 21. जोहल 22. छिकारा 23. लाम्बा 24. घणगस 25. नोहवार 26. पुरु-पौरव 27. अहलावत 28. कटारिया 29. खटकर 30. राठी 31. सिन्धु 32. चालूक्य 33. गुलिया 34. कुंतल-खूँटेल 35. खासा 36. तांगल 37. उतार 38. स्यौराण-सौराण 39. मिर्धा-मिरदा 40. वाराइस-वराइच 41. शिशि 42. डागर

ऊपर लिखित इन सब जाट गोत्रों का वर्णन इसी प्रकरण में उचित स्थान पर किया जायेगा।

जिस तरह से भारतवर्ष में गंगा व यमुना नदियों के मैदानों से लेकर सिन्ध नदी तथा उसकी पांच सहायक नदियों के मध्य भूभाग तक पूरे उत्तरी भारत की विशाल एवं उपजाऊ भूमि पर जाटों की घनी संख्या तथा शासन, आदिसृष्टि से रहता आया है, ठीक इसी तरह से सीथियामध्य एशिया में भी डेन्यूब नदी तथा नीस्टर नदी के मध्य के उपजाऊ भूभाग से लेकर पूर्व में तारिम नदी की घाटी तक इस विशाल भूखण्ड पर जाटों की घनी आबादी तथा शासन आदिसृष्टि से रहता आया है।

प्राचीनकाल से आज काल तक ऐसा कोई समय नहीं है कि देश-विदेशों में विशेषकर उत्तरी भारत एवं सीथिया तथा मध्य एशियामध्य-पूर्व में जाटों का निवास, शक्ति तथा शासन न रहा हो। इसके विषय में तृतीय अध्याय, वैदिक, रामायण तथा महाभारतकाल के प्रकरण में और इसी अध्याय के पिछले पृष्ठों पर काफी प्रकाश डाला गया है।

अब महाभारतकाल के पश्चात् सीथिया तथा मध्य एशिया में जाटों के निवास तथा राज्य के विषय में कुछ उदाहरण लिखे जाते हैं।

‘रेसिज ऑफ मेनकाइण्ड’ पुस्तक, लेखक कलविन केफर्ट के अनुसार -

“आर्यशाखायें जिनको नॉरडिक कहा गया, ने 7700 ई० पू० में तिएनशान पर्वतमाला को पार करके उत्तरी क्षेत्र के देशों में अपना निवास स्थान बना लिया। बाद में ज्ञात हुआ कि ये लोग गेटी (जाट) हैं जो कि वहां हजारों वर्ष तक रहे। इनके देश की सीमा, पश्चिमी तुर्किस्तान के पर्वतीय क्षेत्र, काशगर तक, तिएनशान पर्वतमाला से बाल्खस झील तक, रूस के किर्गीज़ प्रान्त (जो कि पश्चिमी तुर्किस्तान के दक्षिणी भाग में है) जिसमें सात नदियां हैं, सिर दरिया का ऊपरी भाग, इस्सीक झील, चू नदी एवं इली नदी के बीच का क्षेत्र, ये सब शामिल थे। आर्य नस्ल की इस महान् नॉरडिक शाखा के पूर्वपुरुष जाट लोग ही थे (पृ० 228-229)।”
“लगभग 4300 ई० पू० में ये जाट लोग उत्तर की ओर बढ़कर पश्चिम में किर्गिज के मैदानों (रूस में , पश्चिमी तुर्किस्तान का उत्तर भाग) में और यूराल पर्वत तथा Caspian Sea|कैस्पियन सागर]] तक फैल गये। अन्त में ये लोग पांच भागों में अलग-अलग हो गये जिनके नाम ये हैं - 1. शिवि 2. घुमण 3. गेटा (जाट जिन्होंने अपना नाम जाट ही रहने दिया) 4. Massagetae (मस्सागेटे महान् जाट संघ) 5. शक।” ये सब जाट गोत्र हैं (पृ० 232)। आगे यही लेखक लिखता है कि शिवि लोग 2300 ई० पू० में अलग हो गये जबकि घुमण 1700 ई० पू० में और गेटे या जाट 1000 ई० पू० में अलग हुए। शक तथा महान् जाट संघ वहीं पर रहे, जब तक कि वे कुषाण,

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-342


तुखारी और श्वेत हूणों के नाम पर फैले।” ये सब जाट थे जैसा कि पिछले पृष्ठों में लिख दिया है।

कलविन केफर्ट ने आगे लिखा है कि “इन्हीं जाटों का एक संघ मांडा कहलाया (पृ० 209)। जाटों ने अपने राजा तानौसिस के नेतृत्व में लगभग 1323-1290 ईस्वी पूर्व मिश्रियों को पराजित किया और वहां से वापिस आकर पश्चिमी एशिया का बहुत सा क्षेत्र जीत लिया। इस क्षेत्र को अपने मित्र मांडा लोगों के राजा सोर्नुस के अधीन करके अपना सहायक बना लिया।” (पृ० 275)

2200 वर्ष ई० पू० में मौर्य-मौर जाटों ने लेस्सरज़ब क्षेत्र तथा अरारट पर्वत (तुर्की में) से मिश्र के राजवंश के ग्यारहवें राजा पर आक्रमण किया। इन मौर जाटों की भूमि, “ज्याती या जाटों की भूमि” कहलाती थी। मौर्य जाटों का राज्य तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों, खोतन प्रदेश तथा कश्मीर में भी था। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया, पृ० IX, 144, 160), Elliot and Downson. OP. cit. Vol. I)।

जब सेल्यूकस भारतवर्ष से अपने देश यूनान को वापिस गया तो अपने साथ पंजाब के जाटों को सेना में भर्ती करके ले गया। यूनान में इन जाट सैनिकों ने एक बस्ती बसाई जिसका नाम ‘मौर्या’ रखा और एक टापू का नाम ‘जटोती’ रखा। उस समय जटोती पर मौर्य जाट सेना ने शासन किया (देखो, तृतीय अध्याय, मौर्य-मोर प्रकरण)।

पी० साइकेस (P. Sykes) ने लिखा है कि 2600 ईस्वी पूर्व में जाटों का राज्य लेस्सरज़न के पूर्व में स्थापित था। इन लोगों ने सुमेर, असीरिया, बेबीलोनिया और इलम के राज्यों को अपने अधीन कर लिया था और इन सब राज्यों के राजाधिराज बन गये थे। 2500 ई० पू० में इन जाटों का सम्राट् त्रीकन था जिसका राज्य पश्चिमी एशिया पर था। (P. Sykes The History of Persia, Vol 1)

कुरुवंश - कुरु जाटों का राज्य उत्तरी कुरु (साइबेरिया में) देश पर था। कुर नदी काकेशस (कॉफ) पर्वत से निकलकर रूस के प्रान्त ऐज़रबैजान में से बहती हुई पूर्व की ओर कैस्पियन सागर में गिरती है। यह कुर नदी कुरु जाटों के नाम पर कहलाती है। इराक के उत्तर-पश्चिम में कुरुपीडियन या कुरु जाटों का देश कहलाता है जो कि ठीक ऐसा ही है जैसा कि हरयाणा में कुरुक्षेत्र कुरु जाटों की भूमि है।

मद्रवंश - इस वैदिककालीन चन्द्रवंशीय मद्र जाटवंश का राज्य उत्तर मद्र एवं दक्षिण मद्र पर था। दक्षिण मद्र पंजाब में तथा उत्तर मद्र कैस्पियन सागर तथा काला सागर के क्षेत्र में था। महाभारत युद्ध में इनकी सेना उत्तर मद्र से भी आई थी। इनका सम्राट् शल्य था जिसकी बहिन माद्री नकुल व सहदेव की माता थी। (देखो तृतीय अध्याय, मद्रवंश)। महाभारत युद्ध के पश्चात् भी इस वंश की शक्ति उत्तर मद्र में रही। इस मद्र राज्य के अन्तर्गत वाह्लीक राज्य था, जिसका स्वयं का अलग राज्य था।

वाह्लीक-वर्क-वरिक - यह चन्द्रवंशीय जाट राज्य प्राचीन काल से है। इस वंश के लोगों के नाम पर वाह्लीक देश की स्थापना हुई। इसको बाद में बल्ख, बैक्ट्रिया और बाख्त्री नाम से भी कहा जाता है। (देखो तृतीय अध्याय, वाह्लीक-वरिक प्रकरण)।

इन वरिक लोगों का राज्य 2600 ई० पू० में सुमेरिया में था। इनके नाम पर इनका यह देश वर्क देश कहलाता था। इनके साथ में गुटियम देश (जाटों का देश) था, जिनका राज्य


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-343


पश्चिमी एशिया पर था जैसा कि पिछले पृष्ठ पर लिखा गया है। इस देश के अन्तिम सम्राट् त्रीगन को 2200 ईस्वी पूर्व में वर्क देश के राजा उतु-खेगल विर्क ने पराजित किया था1। वोल्गा नदी, जो उत्तर की ओर से आकर कैस्पियन सागर में गिरती है, विर्क या वर्क जाटों के नाम से है। (Political and Social Movements in Ancient Punjab, by Buddha Prakash, P. 102)।

रॉलिनसन ने ‘हैरोडोट्स का इतिहास’ नामक पुस्तक में लिखा है कि “इन विर्क लोगों का मध्य एशिया में ‘वर्कानिक’ नामक देश (रूस के याकुट्स्क प्रान्त में) सन् 1300 ई० में भी था। ये लोग अपने नेता मेगापानुस के नेतृत्व में थ्रमौपिलाय (Thermopylae) (यूनान में) के युद्ध में लड़े थे। इस युद्ध के पश्चात् इस नेता को बैबिलोनिया का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया।” (जिल्द 4, पृष्ठ 163)।

विर्क लोगों का देश विरकानिया (यूनानी भाषा में हिरकानिया) कहलाता था जिसकी स्थिति पर्थिया के उत्तर तथा कैस्पियन सागर के पूर्व में थी। वहां पर इनके नाम पर हिरकानिया पर्वत भी था। जब इन लोगों की शक्ति कैस्पियन सागर क्षेत्र पर हुई तब वह सागर ‘हिरकानिया सागर’ कहलाया2

फारस के जाट सम्राट् डेरियस (Darius) ने लगभग 521 ई० पू० से 515 ई० पू० में विर्क, कांग तथा अन्य साम्राज्यों और सीथियन जाटों के कालासागर के क्षेत्र में राज्य पर आक्रमण किए। परन्तु सिन्ध से लेकर कालासागर तक के जाटों को अपने अधीन नहीं कर सका3। इसका वर्णन आगे पृष्ठों पर मांडा साम्राज्य के प्रकरण में किया जाएगा।

दहिया - चीनी इतिहासकारों के अनुसार 2600 ई० पू० में दहिया जाटों का शासन कैस्पियन सागर के क्षेत्र पर था। ये लोग वहां से अमू दरिया तथा ईरान के उत्तरी भाग तक फैल गये। इन लोगों का 331 ई० पू० में सिकन्दर से युद्ध अरबेला (अमू दरिया के उत्तर में) के स्थान पर हुआ। इन लोगों के नाम पर इनका देश दहिस्तान कहलाया। अट्रेक नदी के उत्तर में अखल की उपजाऊ भूमि में इनके नाम से एक ‘दहिस्तान’ जिला भी है (फारस का इतिहास, जिल्द 1, पृ० 307)। जब दहिया लोगों की शक्ति कैस्पियन सागर क्षेत्र पर हुई तब वह इनके नाम पर ‘दधि या दहाय सागर’ कहलाया (वायु पुराण 49-75)।

500 ई० पू० का एक नक्शा जो कि डी० पी० सिंहल ने अपनी लिखित पुस्तक ‘इण्डिया एण्ड वर्ल्ड सिविलाईज़ेशन’ के पृ० 417 पर दिया है। इसके अनुसार शक लोगों को सिकन्दरिया (बल्ख के उत्तर में) के ऊपर तथा सौग्डियाना के उत्तर में और अरल सागर एवं मस्सागेटाई के पूर्व में दिखलाया है। अरल सागर तथा कैस्पियन सागर के मध्य में दहिया लोगों को और सीथियन जाटों को काला सागर के पश्चिम में डेन्यूब नदी पर और उत्तर में डॉन नदी पर दिखलाया गया।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पुस्तक में लेखक बी० एस० दहिया ने 800 ई० पू० मध्य


1. राजा उतु-खेगल विर्क ने अपने देश में चन्द्रमा एवं सूर्य देवता के अनेक मन्दिर बनवाये थे।
2. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 90 लेखक बी० एस० दहिया।
3. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 157-158 लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-344


एशिया में जातियों व नगरों का एक नक्शा प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार शक लोग अरब सागर के उत्तर में, कांग अमू दरिया के पश्चिम में, दहिया अमू दरिया व कैस्पियन सागर के मध्य में, विर्क दहिया से दक्षिण तथा अमू दरिया से पूर्व में और कैस्पियन सागर के उत्तर में, मान कैस्पियन सागर के दक्षिण में और वेन लोगों को कैस्पियन सागर के पश्चिम तथा कुर नदी के दक्षिण व वेन झील (तुर्की में) के उत्तर व पूर्व क्षेत्र में दिखलाया है। बैंस लोग वेन के पूर्व में तथा नारा जाट वेन के दक्षिण में शासक थे।

सम्राट् साईरस ने 529 ई० पू० मस्सागेटाई राज्य की महाराणी तोमिरिस पर आक्रमण किया, उस युद्ध में महाराणी की सेना में दहिया वीर सैनिक भी थे। अन्त में साईरस मारा गया, उस समय वह दहिया जाटों से लड़ रहा था (P. Sykes, OP. cit, P. 153)।

कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है कि ईसा से हजारों वर्ष पहले दहिया महाजाति दल सिर दरिया के पूर्व में आबाद था। इनके निकट क्षेत्र में हेर, भुल्लर और सिहाग जाटवंश बसे हुए थे। इन लोगों का राज्य ईरान तथा अरमानिया में भी रहा (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय दहिया प्रकरण)। ईरान में दहिया लोगों का शासन 256 ई० पू० से सन् 224 A.D. तक 480 वर्ष रहा।

वेन वंश - 1000 ई० पू० वेन जाटों का राज्य वेन झील (तुर्की में) के क्षेत्र पर था। इस वेन वंश के सम्राटों की पदवी ‘राजाओं के राजा’ तथा ‘संसार के राजा’ की थी। इसके अतिरिक्त इनको ‘बैंस लोगों तथा नारा लोगों का राजा’ भी कहा गया है। इससे ज्ञात हो जाता है कि वेनसाम्राज्य में बैंस एवं नारा जाट भी शामिल थे। इन वेन लोगों ने मान तथा दहिया लोगों को भी अपने अधीन किया। ‘केम्ब्रीज एन्शन्ट हिस्ट्री’ के अनुसार मान जाटों की निवासभूमि का नाम मन्नाई था जिसकी स्थिति अर्मिया झील के दक्षिण में थी, वहां इनका शासन था।

इस वेन वंश का राजा चक्रवर्ती वेन/बेन (चकवा बेन) बहुत प्रसिद्ध था जिसका भारत में पंजाब से लेकर बंगाल तक शासन था। आर्मीनिया के वेन शासक सूर्यदेव के पुजारी थे। इसी तरह मान तथा मांडा जाट शासक भी सूर्य को पूजते थे। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० XI, 64, लेखक बी० एस० दहिया)।

मान वंश - मार्कण्डेय पुराण में मान वंश का देश उत्तर दिशा में लिखा है। 800 ई० पू० में इनका राज्य कैस्पियन सागर के दक्षिण में था जो मन्नाई राज्य कहलाता था जो कि आज अर्मेनिया (अरी-मान) नाम से है। देखो तृतीय अध्याय, मान प्रकरण)।

शक वंश - पिछले पृष्ठों पर लिखा गया है कि शक जाटों के नाम पर सीथिया देश नाम पड़ा। सीथिया विशाल देश की सीमा इसी अध्याय के आरम्भ में लिखी गई है।

महाभारत युद्ध के बाद इन लोगों का राज्य पिछले पृष्ठ पर दो नक्शों का हवाला देकर सीथिया तथा मध्य एशिया में लिखा गया है।

इतिहासकारों की यह समान राय है कि इण्डो-ईरानियन शक और यूरोपियन सीथियनज़ एक ही थे। उच्चकोटि के यूनानी इतिहासकारों ने शक लोगों को सकाई और सकाय लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-345


लेखक पटोलेमी ने इन लोगों को भारत में आने के बाद इण्डो-सीथियन लिखा है।

सीथिया एक प्राचीन देश था जो कि कैस्पियन सागर और अमू दरिया एवं सिर दरिया की घाटी से लेकर डेन्यूब व डॉन नदियों के मध्यवर्ती देशों तक फैला हुआ था। सीथियन मध्य एशिया और उत्तरी यूरोप की उन जातियों का नाम था जिन्होंने सदा अपनी पड़ौसी जातियों पर आक्रमण किए (हिस्टोरियनज़ हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड, वाल्यूम II, P. 400)

इन सीथियन (शक) लोगों ने यूनान पर आक्रमण किया और एथन्स पर अधिकार कर लिया। इन लोगों के विषय में इतिहासकार होमर और हेसीउड ने भी लिखा है कि वे लोग दूध पीने वाले थे तथा युद्ध इनका व्यवसाय था। यूनानी प्रसिद्ध इतिहासज्ञ थूसीडाईड्स ने इन सीथियन जाटों के विषय में लिखा है कि “एशिया अथवा यूरोप में कोई भी जाति (राष्ट्र) नहीं थी जो सीथियन जाटों के मुकाबले में खड़ी रह सके।” (अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 47 लेखक उजागरसिंह माहिल)

थूसीडाईड्स लिखता है कि “इनकी संख्या इतनी अधिक थी तथा वे बहुत ही भयानक थे कि यदि जब भी वे संयुक्त हो जाते थे तब उनको कोई भी नहीं रोक सका।” इसी प्रकार से यूनान के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ हैरोडोटस, जिसको इतिहास का पिता कहा गया है, तथा अन्य इतिहासकारों के कथन अनुसार “जाटों में जब भी एकता हुई तब संसार की कोई भी जाति बहादुरी में इनका मुकाबला नहीं कर सकी।” इतिहासज्ञ डीउडोरुस (Diodorus) लिखता है कि “मस्सागेटाई लोग सीथियनज़ के ही वंशज थे। सीथियन/शक लोग काला सागर के पश्चिम से लेकर अरल सागर के पूर्व तक फैले हुए थे। थ्रेश देश में जो कि सीथिया देश का एक प्रान्त था (आज का बुल्गारिया), वहां पर गेटे (जाटों) का शासन था।” हैरोडोटस लिखता है कि थ्रेस की जातियों में जाट लोग सबसे अधिक बहादुर तथा ईमानदार थे। वे गाने-बजाने के प्रेमी थे। वे अन्य जातियों में सबसे श्रेष्ठ एवं न्यायकारी थे1

बी० एस० अग्रवाल ने “इण्डिया अज़् नोन् टु पाणिनि पृ० 68-69” पुस्तक का हवाला देकर लिखा है कि “बहुत से शक कबीले (जातियां) आज भी जाटों में पाये जाते हैं। शक लोग पाणिनि ऋषि के समय से पहले भारतवर्ष में आये और इनकी दूसरी लहर दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में भारत में आई और इसके पश्चात् कुषाण लोग आये। मध्य एशिया के शक लोगों ने वापी या रहट (Stepped Well) तथा अरघट्टा (Persian wheel) का निर्माण किया। स्थानों या नगरों के नाम जिनके अन्त में कन्द लगता है वे सब शक लोगों ने आरम्भ किए जैसे - समरकन्द, ताशकन्द, यारकन्द आदि।” (H.W. Bailey, ASLCA, Transaction of Philological Society, 1945, PP 22, 33)

रूस निवासियों का भारतीय जाटों से सम्बन्ध

रूसी लोगों की अनेक जातियों के नाम भारतीय जाटों से मिलते हैं जैसे रूस के आंतस (Antas) भारतीय आंतल (Antals) तथा रूस के वैन (Ven), भारतीय बैनीवाल-वैन (Benhwal-Venwal) आदि। रूस की बड़ी आबादी के लोग स्लाव (Sláv) कहलाते हैं। यह स्लाव शब्द


1. जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज पृ० 2, 26, 27, 302 लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-346


सकलाव से निकला है जो कि भारतीय पुराणों में सकरवाक लिखा है और भारतीय जाटों का गोत्र सकरवार/सिकरवार है (मध्य एशिया का इतिहास, हिन्दी खण्ड 2, पृ० 563), लेखक राहुल सांकृत्यायन1सिकरवार, शक जाट थे जिनका मध्य एशिया में सोगदियाना प्रदेश पर शासन छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में था तथा जिनके राज्य में बुखारा, समरकन्द, ताशकन्द आदि नगर थे। (American Journal of Semetic Languages and Literature, 1940, P. 354)2

भारतीय, मध्यएशिया तथा यूरोप के जाटों की पहिचान एवं समानता के लिए क्रिमिया (Crimea) एवं पश्चिमी रूस के अन्य स्थानों से की गई खुदाइयों से प्राप्त वस्तुओं के प्रमाण -

सन् 1971 ई० में रूस के यूक्राइन (Ukraine) प्रान्त में टोवस्टा (Tovsta) नामक स्थान से खुदाई करते समय शक लोगों की बहुत सी वस्तुएं मिली हैं। इनमें से एक सोने का बना हुआ छाती का कवच है जिसका भार 2½ पौंड का है। इस कवच पर 44 गायों एवं घोड़ियों की मूर्तियां हैं। इसके मध्य में दो शक हैं जिनके सिर पर जटाजूट बाल तथा लम्बी दाढ़ी है। यूक्राइन में सोलोखा (Solokha) नामक स्थान पर 400 ई० पू० का एक स्वर्ण का पीने का बर्तन तथा दूसरा पीने का प्याला मिले हैं। इस पर एक शक शिकारी, घोड़े पर सवार, अपने भाले से शेर को मारते हुए की मूर्ति अंकित है। एक सोने का कंघा भी मिला है। एक सोने या चांदी का ठोस हँसला (कंठा या गुलिबंद) मिला है जिसको शक स्त्रियां बड़े चाव से पहनती थीं जिसका प्रयोग भारतवर्ष की जाट जाति में आज भी होता है। इस कारण से, दृढ़ विश्वास के साथ हम कह सकते हैं कि रूस निवासी स्लाव लोग, तथा उत्तरी यूरोपियन लोग जाट जाति से सम्बन्धित हैं3। यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि शक जाट हैं और उनके नाम पर सीथिया देश नाम पड़ा। शक-सीथियनज़, इण्डो-सीथियनज़, यूरोपियन-सीथियनज़ सब एक ही नाम हैं जो कि सब जाट हैं।

नोट - ड्यूक आलेग नॉरमन जाट ने आधुनिक रूस की नींव डाली। यह इसी अध्याय के अगले पृष्ठों पर लिखा जाएगा।

पश्चिमी रूस का एक बहुत बड़ा प्रान्त यूक्राइन है जहां पर स्लाव जाटों की बड़ी संख्या है। वहां पर स्त्री-पुरुषों की शक्ल-सूरत, कद, चाल-ढाल, रंग-रूप, पहनावा हरयाणा प्रान्त के जाट स्त्री-पुरुषों से मिलता-जुलता है। इन स्लाव जाटों का देश चेकोस्लोवाकिया है। यह देश सेरब + स्लाव (Serb + Slav) दो जातियों के मिलाप से चेको + स्लोवाकिया (Czecho+Slovakia) चेकोस्लोवाकिया कहलाया। इस देश के साथ लगने वाले पोलैण्ड, आस्ट्रिया, हंगरी, रूमानिया, युगोस्लाविया आदि देशों में भी स्लाव जाट बड़ी संख्या में बसे हुए हैं।

इतिहासकार एच० जी० वेल्ज ने अपनी पुस्तक “दी ऑउटलाइन ऑफ हिस्ट्री” के अध्याय 32, पृ० 635 पर लिखा है कि “जब हम दक्षिणी रूस क्षेत्रों की वर्तमान जनसंख्या के विषय में सोचते हैं तो हमें नॉरमन लोगों का बाल्टिक तथा काला सागर के बीच आवागमन भी याद रखना होगा। और यह भी याद रखना होगा कि वहां स्लावोनिक (Slavonik) जनसंख्या काफी थी जो कि सीथियन तथा सरमाटियन्ज (Sarmatians) के वंशज एवं उत्तराधिकारी थे तथा वे इन अशान्त, कानूनरहित किन्तु उपजाऊ क्षेत्रों में पहले ही आबाद हो गये थे। ये सब जातियां परस्पर घुलमिल


1, 2, 3. जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया पृ० क्रमशः 61, 372, 61, 62.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-347


गईं तथा एक-दूसरे के प्रभाव में आ गईं। स्लावोनिक भाषाओं की, सिवाय हंगरी में, सम्पूर्ण सफलता से प्रतीत होता है कि स्लाव (Slav) लोगों की ही जनसंख्या अत्यधिक थी।” डेन, विकिंग्ज़, नॉरमन, ऐंगल्स, सैक्सन्स और गोथ ये सब सीथियन जाटों में से ही थे तथा उन्हीं के वंशज थे1

नोट - इनके जाट होने के प्रमाण इसी चतुर्थ अध्याय में यूरोप तथा अफ्रीका में जाटों का शासन, प्रकरण में लिखे जायेंगे।

मध्यएशिया का इतिहास हिन्दी, खण्ड 2, पृ० 565 पर लेखक राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि “प्राचीन समय के शक, रूस के स्लाव लोगों के रूप में फिर से प्रकट हुए हैं, जो आज भी विद्यमान हैं। पश्चिमी शक लोग बहुत देशों में प्रवेश कर गये और भारतवर्ष में ब्राह्मण, गूजर, जाट, राजपूत आदि हिन्दू जाति में लीन हो गये। रूसी भाषा संस्कृत भाषा से मिलती जुलती है। इसका कारण यह है कि रूसवाले लोग, शक लोगों के वंशज हैं और शक लोग आर्य ही हैं जो प्राचीन समय से भारतवर्ष व ईरान में आबाद हैं। बहुत शताब्दियों के बीतने के पश्चात् काफी शक लोग फिर से अपने देश भारत में आये2। शक लोग क्षत्रिय आर्य जाट भी हैं तथा आज शक गोत्र के जाट बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, शक प्रकरण)।

“इण्डिया एण्ड रस्सिया, लिंगुइस्टिक एण्ड कल्चरल अफीनिटी” लेखक डब्ल्यू० आर० ऋषि के अनुसार भारतीयों एवं भारतीय जाटों के रूस निवासियों से सम्बन्ध निम्न प्रकार से हैं -

आर्यों और पूर्वी स्लाव लोगों की भाषा, धर्म तथा धार्मिक त्यौहारों की समानता में विचित्र सम्बन्ध रहे हैं। यह सम्बन्ध मात्र दैवयोग या संयोग से नहीं हो सकते। यह दृढ़ कथन या यथार्थता है कि किसी समय संस्कृत भाषा बोलने वाले और रूसी भाषी लोग अवश्य साथ रहे हैं। रूस के इतिहास के अनुसार रूस के प्रथम निवासी काला सागर के उत्तर में पोनटिक मैदानों (Pontic steppes) में थे जो कि समेरियन्स (Cimmerians) कहलाते थे। ये समेरियन्स, आर्य लोग ही थे जिसके ठोस प्रमाण हैं। ईस्वी पूर्व 11वीं - 8वीं शताब्दियों में इन समेरियन्स के स्थान पर सीथियन या शक लोग आ गए थे। इन शक लोगों ने वहां पर उच्चकोटि की एवं प्राचीन संस्कृति उत्पन्न की जिसका पूर्वी और मध्य यूरोप की जनता पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन सीथियन्स या शक लोगों का योगदान रूस के इतिहास पर इतना महान् एवं प्रभावशाली है कि यह सारा समय रूस के इतिहास में “सीथियन विशिष्ट युग” कहलाता है। यूनानी इतिहासकार हैरोडोटस ने सीथिया की सीमा डेन्यूब (Danube) नदी से डॉन (Don) नदी तक जिसमें क्राइमियन के मैदान (Crimean steppes) शामिल हैं, लिखी है। परन्तु प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् राहुल सांकृत्यायन ने रूसी वैज्ञानिकों द्वारा हाल में की गई खुदाइयों से प्राप्त प्राचीनकालीन रूसी वस्तुओं का अध्ययन करके लिखा है कि सीथियन या शक लोगों का निवास एवं अस्तित्व कार्पेथियन पर्वतमाला (Carpathian Mountains) से गोबी मरुस्थल (Gobi Desert) तक 2000 ई० पू० से सिकन्दर


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 70 ।
2. जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज पृ० 62 लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-348


महान् के समय तक (चौथी शताब्दी ई० पू०) था। यह देश शकद्वीप या शकटापू कहलाता था (पृ० 140-141)।

स्लाव और सरमाटियन्ज जातियों के अतिरिक्त पहली-तीसरी शताब्दियों में गोथ (जाट) नीपर नदी (Dnieper) के मैदानों में आबाद हो गये थे। आरम्भ में ये लोग स्केण्डेनेविया में रहे। ये लोग 3-2 शताब्दी ई० पू० में वॉल्टिक सागर के दक्षिणी तट तक फैल गए। ईसा की तीसरी शताब्दी तक गोथ जाति (जाटों) ने डेन्यूब नदी के निचले तथा नीपर नदी के बहुत बडे़ भाग पर अपना अधिकार कर लिया था। ये लोग पूर्व में डॉन नदी और दक्षिण में काला सागर तक पहुंच गए। (पृ० 115)

पूर्वी स्लाव लोगों को हूणों ने उत्तर-पूर्व की ओर धकेल दिया। इनमें से कुछ नीपर नदी के मैदानों में बस गए जो पोलियन कहलाए। (Poliane-Pole का अर्थ मैदान)। इनका दूसरा भाग जंगलों में आबाद होने के कारण द्रेवलियन कहलाया (Drevliane-derevo का अर्थ वृक्ष)। स्लाव लोगों का एक भाग इलमेन झील (ILMEN LAKE) के निकट आबाद हो गया और अपने स्लाव नाम से स्लोवेनज़ (Slovenes) कहलाते रहे। इन स्लाव (जाट) लोगों ने वहां पर नोवगोरॉड (Novgorod) नामक नगर का निर्माण किया। शेष स्लाव लोग जो उत्तर में बस गये वे सेवेरियन (Severiane) कहलाए। ये सब स्लाव लोग सीथियन्ज या शक लोगों के वंशज थे तथा एक-दूसरे की पहचान करना बहुत मुश्किल एवं असम्भव था। “सीथियन युग” में जंगलों से भरे हुए मैदानों में खेतीहर लोगों का पद (जिसमें स्लाव लोगों के पूर्वज भी शामिल थे) “सीथियन हलजोता” कहा गया। (पृ० 143) पूर्वी स्लाव लोगों का धर्म और आर्यों का धर्म समान थे। पूर्वी स्लावों ने अपना यह धर्म सन् 988 ईस्वी तक बराबर कायम रखा। तब उनके नेता स्लाव कनयजः वलाडीमीर स्वीटोस्लाविच (Slav knyaz Vladimir Sviatoslavich) ने ईसाई मत स्वीकार कर लिया। उसने अपने आश्रित प्रजा पर ईसाई पादरियों के उपदेश अनुसार स्लाव लोगों के देवताओं की तमाम मूर्तियां नष्ट कर दी गईं और उनके मन्दिरों के स्थान पर चर्च स्थापित कर दिए गए। इस तरह से पूर्वी स्लाव लोगों की ईश्वरपूजा रीति बदल गई और उनकी भाषा भी बदल गई।

रूस में और भारतवर्ष में रहने वाले सीथियनज़ या शकों का सन् 528 ई० तक घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है जब तक कि शक राजा मिहिरकुल को जाट सम्राट् यशोधर्मा वरिक ने हराया। रूस निवासियों एवं भारतीयों की भाषा संस्कृत थी तथा संस्कृति भी एक रही थी। भौगोलिक स्थिति के कारण रूस एवं भारतीयों की संस्कृति एवं संस्कृत भाषा बदल गई। परन्तु इन दोनों देशों के निवासियों की भाषा एवं संस्कृति का मूल सम्बन्ध आज भी जीवित है। (पृ० 144)

हमने द्वितीय अध्याय में प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया है कि जाट आर्य हैं तथा क्षत्रिय वर्ण के हैं और तृतीय अध्याय, शक प्रकरण में लिखा गया है कि शक या सीथियन जाट हैं। सारांश यह है कि रूस के स्लाव निवासी जो कि बड़ी संख्या में रूस के तथा यूरोप के अनेक प्रान्तों एवं देशों में आबाद हैं, वे सब जाट हैं। इनके अतिरिक्त इन महाद्वीपों में भिन्न-भिन्न जाट गोत्रों के लोगों की बड़ी संख्या है। यद्यपि वे कम ही जानते हैं कि हम जाट हैं। (लेखक)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-349


मध्य एशिया (रूस) में बोले जाने वाले जाटगोत्रों के कुछ नाम निम्न प्रकार से हैं1 -

रूसी नाम जाटगोत्र रूसी नाम जाटगोत्र
1. Avar Abara अबारा 13. Kirkin Kalkil कलकल
2. Allan Ailavat अहलावत 14. Kang Kang कांग
3. Anta Antal आंतल 15. Kula Kular कूलर
4. असि Asiag असियाग 16. Hiung-nu Henga हैंगा
5. Bogda Bogdavat बोगदावत 17. Noyan Nain नैन
6. Balgari Bal-Ballan बालान 18. Shor Shoran सौराण-श्यौराण
7. Balkar Balhara बल्हारा 19. Timir Tomar तोमर-तंवर
8. Ven Benival बैनीवाल-बैन 20. Wark Virk विर्क-वरिक
9. Chol Chahl चहल 21. Saraut Sahravat सहरावत
10. Chimir Cheema चीमा 22. Jubolo Johl जोहल
11. Daghe-Dahi Dahiya दहिया 23. Gilli Gill गिल
12. Dashvhar Daswal देशवाल 24. Dol Dhul ढुल-ढिल्लूं

मध्य एशिया (उज्बेक व आसपास) में वर्तमान में पाए जाने वाले कुछ जाटगोत्र निम्नलिखित हैं2 -

रूस में वर्तमान नाम जाटगोत्र
Karabura Bura बूरा
Tatar Tatran तातराण
Jani Janwar जनवार
Simarchim Sihmar शीहमार
Arbat Arab अरब
Gedoi-Gada Gathwal गठवाल
Bagurlu Bagarwa बागरवाल

शिवि वंश - आरम्भकाल में इन लोगों का राज्य उद्यान प्रदेश पर था। यह आजकल मस्सागेटाई नाम से प्रसिद्ध है जो कि कैस्पियन सागर के पश्चिमी किनारों पर वह प्रदेश है जिसको अरेकिसज एवं उसकी सहायक नदी कुर सींचती है। यह सीथिया देश का ही एक प्रान्त था। यहां पर जाटों की बड़ी शक्ति रहती आई है। शिवि लोगों का एक दल यूरोप की ओर बढ़ गया और स्केण्डेनेविया में पहुंच गया। दूसरा दल भारत से ईरान पहुंचा जहां इनका शासन शाकद्वीप (जो ईरान के उत्तर में है) पर था। इन लोगों ने एक शिवस्थान नामक नगर बसाया जो आज


1, 2. मध्य एशिया का इतिहास खण्ड 2, पृ० 514-517 लेखक राहुल सांकृत्यायन Soviet Union A Geographical Survey and Kushan Inscriptions.
1, 2. जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज, पृ० 319-330, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-350


सीस्तान कहलाता है1। सीस्तान ईरान के पूर्व प्रदेश में तथा अफगानिस्तान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

शिवि गोत्र के तोमऋषि नामक राजा अमू दरिया के दक्षिणी क्षेत्र पर राज्य करते थे। इनकी राजधानी उद्यान थी। छठी शताब्दी ई० पू० में इनका युद्ध फारस के प्रसिद्ध सम्राट साईरस से, खुरासान के पूर्वी क्षेत्र पर हुआ था जिसमें साईरस को मुंह की खानी पड़ी और वह वापिस लौट गया। (जाट इतिहास उत्पत्ति और गौरव खण्ड), (पृ० 162-163, ले० ठा० देशराज)। (देखो तृतीय अध्याय, शिवि वंश प्रकरण)।

कंग/कांग वंश - 700 ई० पू० में इन जाटों का राज्य बल्ख पर था। चीनी इतिहासकारों ने इनको किअंगनू लिखा है। राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि “कांग लोग मस्सागेटाई की शाखा हैं जिसका अर्थ है महान् जाट। मध्य एशिया में इन कांग लोगों ने 700 ई० पू० में नहरों का निर्माण किया। ये नहरें पांचवीं शताब्दी ईस्वी में रेत से भर गईं थीं। ये नहरें आज रूस के किजीलकुत प्रान्त की मरुभूमि में विद्यमान हैं।”

जाटों की बनवाई हुई ये नहरें अब रूस सरकार द्वारा खुदवाई जा रही हैं। कांग लोगों के अनेक नगर खोदे गए हैं जिनमें इनके राजाओं के सिक्के, मूर्तियां और कांग भाषा के शिलालेख मिले हैं। ये वस्तुएं तोपरक काला में मिली हैं। op. cit. p. 162 and Archaelogy in USSR).

वीर कांग जाटों को सम्राट साईरस अपने अधीन न कर सका। इससे इनकी वीरता का पता लग जाता है। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 75-76, 131, लेखक बी० एस० दहिया)। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, कांग-कंग प्रकरण)।

तोमर/तंवर और हंस वंश - ये दोनों जाटवंश मध्य एशिया में नलीनी नदी के तट पर राज्य व निवास करते थे। इन लोगों के साथ ही पौर, कुण्डमान और शिवि जाटों को भी लिखा है। (देखो तृतीय अध्याय, तोमर/तंवर वंश प्रकरण)।

पूनिया - यूनानी इतिहासकार हैरोडोटस का हवाला देकर बी० एस० दहिया ने पृ० 90, 267 पर लिखा है कि 600 ई० पू० में पूनिया जाटों की एक स्वतन्त्र रियासत लघु एशिया में कालासागर के निकट थी। इनको वहां से सम्राट् दारा ने अमू दरिया के निकट बैक्ट्रिया क्षेत्र में भेज दिया। पूनिया और तोखर गोत्र के जाट छठी शताब्दी ई० पू० यूरोप में थे। (देखो, तृतीय अध्याय पूनिया वंश प्रकरण)।

डागर - इतिहासकार प्लीनी ने लिखा है कि ये डागर जाट लोग मध्य एशिया में थे। वहां से 200 ई० पूर्व में यूची (जाटों) के झुण्ड के साथ पश्चिम की ओर चले गये।

पह्लव पार्थियन - पह्लव गोत्र के जाटों ने अपने राजा अर्सकस (Arsaces) के नेतृत्व में पार्थिया राज्य स्थापित किया। यह पार्थिया देश बैक्ट्रिया के पश्चिम और कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में था। इन लोगों ने अपना राज्य कैस्पियन सागर तक बढ़ाया। पह्लव लोगों ने 256 ई०


1. जाट इतिहास अंग्रेजी अनुवाद पृ० 36, 101 लेखक रामसरूप जून ने लिखा है कि 2000 ई० पू० शिवि गोत्र के जाटों ने ईरान में सीस्तान प्रान्त पर राज्य स्थापित किया। चीनी यात्री फाह्यान व ह्यूनत्सांग ने भी ईरान को शिवि देश कहा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-351


पू० से सन् 224 ईस्वी तक अर्थात् 480 वर्ष तक ईरान पर शासन किया। (जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० X, 77, लेखक बी० एस० दहिया)।

पह्लव लोगों के विषय में सत्यकेतु विद्यालंकार ने पृ० 57 पर लिखा है कि “प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में प्रार्थिया को ‘पह्लव’ कहा गया है, और पुराणों में शक और पह्लव साथ-साथ आते हैं। 25 ई० पू० में कुषाण वीर राजा कुजुलकफस कदफिसस ने पार्थियन लोगों के शासन का अन्त कर दिया।” यही लेखक पृ० 53 पर लिखते हैं कि “सैल्युकस द्वारा स्थापित सीरियन साम्राज्य जब दुर्बल हो गया तब वहां के निवासियों ने विद्रोह कर दिया और 248 ई० पू० स्वतन्त्र पार्थियन राज्य की स्थापना कर ली। पार्थियन विद्रोह के नेता अरसक और तिरिदात नाम के दो भाई थे। उन्होंने धीरे-धीरे पार्थियन राज्य की शक्ति को बहुत बढ़ा लिया और शीघ्र ही ईरान का सम्पूर्ण प्रदेश उनकी अधीनता में आ गया। 223 ई० पू० सीरिया के राजसिंहासन पर राजा एष्टियोकस तृतीय आरूढ़ हुआ। उसने पार्थिया पर आक्रमण कर दिया परन्तु असफल रहा और पार्थिया के राजा से सन्धि कर ली।” आगे पृ० 10 पर लिखते हैं कि “छठी शताब्दी ई० पू० में ईरान के हखामनी (जाट) सम्राटों ने सुग्ध देश को अपने अधीन कर लिया। बाद में ग्रीक, शक और पार्थियन (पह्लव) लोगों ने काम्बोज़, वाह्लीक और सुग्ध पर शासन किया।” (मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार)।

कश्यप वंश - इस वंश के जाटों का शासन प्राचीनकाल में कैस्पियन सागर पर था जिसका नाम इनके नाम पर कैस्पियन पड़ा।

दरद-दराळ - इनका राज्य मध्य एशिया में था। ये अफ़गानिस्तान के शासक रहे। इनके पड़ौसी चीन, चोल, तुषार तथा वाह्लीक लोग थे।

कालखण्डे-कालीधामन - इनका राज्य चीनी तुर्किस्तान (सिंगकियांग) में कालकूट (कालखण्डे) देश पर था जो कि इनके नाम पर पड़ा था।

कुन्दा-कुण्डू - इस वंश का राज्य तारिम (सीता) नदी के तट पर था। इनके नाम पर पामीर पठार पर कुण्डू नगर है। इनके निकट डांढा (ढांडा) जाट भी थे।

गिल वंश - इनके नाम पर गिलगित नगर व पर्वत है। इनकी शक्ति कैस्पियन सागर पर होने से उसका नाम गिलन सागर कहलाया।

कुन्तल-खूंटेल - इनका शासन मध्य एशिया में रहा।

नोट - ऊपर लिखित इन वंशो को देखो तृतीय अध्याय, इनके प्रकरण में)।

इनके अतिरिक्त यूरोप, अफ्रीका, मध्यपूर्व के प्रकरण में अन्य जाटवंश लिखे जायेंगे।

चहल - इस जाटवंश का राज्य दहिस्तान देश (कैस्पियन सागर) के क्षेत्र पर था। इनको सन् 440 ई० में यज़देगिर्द तृतीय (Yazdegird III) ने युद्ध करके इसी क्षेत्र में हराया। जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 36, लेखक बी० एस० दहिया)।

चहल गोत्र के जाटों की आबादी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और हरयाणा के कई जिलों में है। पंजाब में ये लोग सिक्खधर्मी हैं। विदेशों में भी मुसलमान व ईसाई तथा अन्य धर्मी चहल जाट पाए जाते हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-352


जाट महारानी तोमरिस का सम्राट् साईरस से युद्ध

फ़ारस एवं मांडा देश के सम्राट् साईरस ने बल्ख तथा कैस्पियन सागर पर शासक जाटों से युद्ध किये, परन्तु वह दोनों जगह असफल रहा। बल्ख पर कांग जाटों का शासन था और मस्सागेटाई पर दहिया जाटों का शासन था। ये दोनों स्वतन्त्र राज्य रहे।

मस्सागेटाई जाटों का एक छोटा तथा शक्तिशाली राज्य था जो कि सीथिया देश का ही एक प्रान्त था। इसका प्राचीन नाम उद्यान था। इस प्रान्त का शासक अरमोघ था जिसकी महारानी तोमरिस थी। राजा अरमोघ की मृत्यु हो जाने पर शासन की बागडोर महारानी तोमरिस ने सम्भाली। अब साईरस ने उचित अवसर समझकर अपने दूत द्वारा तोमरिस को उसके साथ विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। महारानी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए उत्तर दिया कि “मैं जाट क्षत्रियाणी हूं, अपना धर्म नहीं छोड़ सकती तथा अपने देश को तुम्हारे अधीन नहीं करूंगी।” यह उत्तर मिलने पर साईरस ने 529 ई० पू० में भारी सेना के साथ तोमरिस के राज्य पर आक्रमण कर दिया। उसकी सेनायें अरेक्सिज (Araxes) नदी पर पहुंच गईं जहां उन्होंने नावों का पुल बांधा। यह सूचना मिलने पर तोमिरस ने साईरस को निम्नलिखित संदेश भेजा -

“फारस एवं मांडा देश के प्रधान, इस युद्ध का परिणाम अनिश्चित है। हम आप को आपका वर्तमान इरादा छोड़ने की सलाह देते हैं। आप अपने ही साम्राज्य में सन्तुष्ट रहिए और हमें हमारा शासन करने दीजिए। लेकिन आप इस कल्याणकारी शान्तिप्रिय सलाह को नहीं मानेंगे। अतः आप फिर भी मस्सागेटाई से युद्ध करने के लिये व्याकुल ही हो तो पुल बनाने का कार्य छोड़ दो। हम अपने राज्य में तीन दिन चलकर पीछे हट जाते हैं और आप आराम से नदी पार करके हमारे देश में आगे बढ़ जाइये या यदि आप अपने ही क्षेत्र में हमारे से भिड़ना चाहते हो तो आप पीछे हट जाइये, हम आगे बढ़ आयेंगे।” (P. Syke. OP. Cit)।

साईरस ने अपने सभासद क्रेसस की सलाह से मस्सागेटाई राज्य में आगे बढ़ना स्वीकार किया और यह सूचना तोमरिस को भेज दी गई। महारानी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की तथा वह पीछे हट गई। परन्तु साईरस ने युद्ध विद्या का प्रयोग इस तरह से किया - साईरस ने शराब तथा अच्छा स्वादिष्ट भोजन एक कैम्प में रखवा दिया और वहां पर सेना की एक दुर्बल टुकड़ी छोड़ दी। और शेष शक्तिशाली सेना को नदी की ओर पीछे हटा दिया।

साईरस का लक्ष्य यह था कि मेरी इस दुर्बल सेना टुकड़ी को जाट सैनिक हरा देंगे और शराब व भोजन पर टूट पड़ेंगे। तब उन पर मेरी शक्तिशाली सेना आक्रमण कर देगी। साईरस का यह उपाय सफल रहा। तोमरिस की जाट सेना ने आक्रमण करके उस दुर्बल सैनिक टुकड़ी को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने वहां पर रखी शराब व भोजन का सेवन किया और शराब में धुत होकर वे सब सो गये। उस अवस्था में पर्शियन सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया। मस्सागेटाई सैनिक कुछ तो मारे गये और शेष को कैदी बना लिया। इनमें तोमरिस का पुत्र स्परगेपिसिज (Spargpises) भी पकड़ा गया, जो कि शराब के नशे में चूर था। जब वह होश में आया तो उसने आत्महत्या कर ली।

ज्योंही तोमरिस को अपनी पराजय की सूचना मिली, उसने साईरस को दूसरा ऐतिहासिक


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-353


संदेश भेजा जो कि निम्नलिखित है -

“साईरस, तुम खून बहाने के लिये इच्छुक हो किन्तु अपनी वर्तमान सफलता पर अधिक गर्व न करो। जब तुम स्वयं शराब के नशे में चूर होते हो तो क्या-क्या मूर्खतायें तुम नहीं करते हो? तुम्हारे शरीर में यह प्रवेश करके तुम्हारी भाषा को भी अधिक अपमानजनक बना देती है। इस विष के कारण तुमने मेरे पुत्र को जीत लिया है, अपनी चतुराई अथवा वीरता से नहीं। मैं दोबारा तुम्हें यह सुझाव देने का साहस रखती हूं। शायद, इसे मानने में तुम अवश्य ही रुचि लोगे। मेरे पुत्र को स्वतन्त्र कर दो तथा मस्सागेटाई के तीसरे भाग को कब्जा कर तुमने हमको अपमानित किया है। इससे ही सन्तुष्ट रहिये तथा इन क्षेत्रों से बिना चोट खाये दूर जाईये। यदि तुम इस से दूर नहीं हटोगे तो मैं मस्सागेटाइयों के महान् देवता सूर्य की सौगन्ध खाती हूं कि जैसे तुम खून के लालची हो, मैं तुमको तुम्हारा ही खून पिला दूंगी।”

महारानी के इस संदेश का साईरस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। निराश होकर महारानी ने अपनी सारी सेनायें एकत्रित कर लीं। फिर जो युद्ध हुआ वह बहुत भयंकर था। दोनों ओर वीर जाट थे जो अन्तिम समय तक लड़े। हैरोडोटस लिखता है कि “प्राचीन काल से लड़ी गई सभी लड़ाइयों से यह युद्ध अधिक खूनखराबे वाला था।” तोमरिस की मस्सागेटाई सेना ने 529 ई० पूर्व इस युद्ध में विजय प्राप्त की। इस युद्ध में साईरस मारा गया। तोमरिस महारानी ने युद्ध के मैदान से साईरस के मृत शरीर की खोज करवा कर प्राप्त कर लिया और महारानी ने उसका सिर काटकर उस को एक खून के भरे बर्तन में डालकर कहा - “मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम अपना ही खून पीओ।”

महारानी तोमरिस इस युद्ध में स्वयं आगे की सेना के साथ होकर लड़ी थी। महान् जाटों (मस्सागेटाई) के हाथों अजेय महान् सम्राट् साईरस की यह प्रथम तथा करारी हार और उसकी समाप्ति हुई। सोग्डियाना के जाटों ने भी ऐसी ही करारी हार विश्वविजेता सम्राट् सिकन्दर को भी दी थी, जिसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

परिणामस्वरूप मांडा एवं फारस साम्राज्य की उत्तरी सीमा अरेक्सिज नदी तक निश्चित हो गई और जाट महारानी अपने ही राज्य की सीमाओं के भीतर ही पूर्णतः सन्तुष्ट रही। जाट महारानी का महत्त्व बहुत बढ़ गया था, क्योंकि उसने एक महान् विजय प्राप्त की तथा उसने भागते हुए शत्रु का पीछा अपने राज्य क्षेत्र में भी नहीं किया और शत्रु के क्षेत्र को अपने अधीन नहीं किया1

नोट - साईरस की सेना प्रधान रूप से जाट सेना ही थी जिसके सेनापति भी जाट थे। इसका वर्णन मध्यपूर्व के प्रकरण में किया जायेगा।

तोमरिस जाट महारानी की धार्मिकता, सहनशीलता, देशभक्ति और वीरता अद्वितीय थी। ऐसे उदाहरण संसार के स्त्री इतिहास में बिरले ही मिलते हैं।

(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 136, 137 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि बेरोस्सुज


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 37-41, लेखक उजागरसिंह माहिल, जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज, पृ० 131-133 लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-354


के अनुसार जब साईरस की मृत्यु हुई तब वह दहिया जाटों के साथ युद्ध कर रहा था। कुछ अन्य इतिहासकार लिखते हैं कि वह डेबीसज या डबास जाटों के साथ लड़ रहा था। गान्धार देश के भारतीय सैनिक दहिया डबास की ओर होकर लड़ रहे थे। भारतीय सैनिक के तीर से साईरस की मृत्यु हुई।

जाट सेना का मिश्र पर आक्रमण

साईरस की मृत्यु होने पर उसका पुत्र कैम्बाईसिज़ फारस की राजगद्दी पर बैठा। उसने अपनी जाटसेना के साथ 525 ई० पू० में मिश्र पर आक्रमण कर दिया। डेल्टा (नील नदी) में जाटसेना का मिश्र की सेना से रक्तपातपूर्ण युद्ध हुआ। हैरोडोटस ने लिखा है कि “मैंने इस युद्ध के 50-60 वर्ष पश्चात् इस रणक्षेत्र में काम आये सैनिकों की हड्डियां तथा खोपड़ियां स्वयं देखी थीं। इस युद्ध के बाद कैम्बाईसिज़ की सेना ने मेमफिस तथा अधिकतम मिश्र को अपने अधिकार में ले लिया।” सूसा की ओर लौटते समय कैम्बाईसिज़ की मृत्यु एक दुर्घटना के कारण हुये घाव से सीरिया में हो गई।

साईरस के मुख्य सलाहकार हरपेगस जाट का पुत्र डेरियस ( Darius) 521 ई० पू० में कम्बाईसिज का उत्तराधिकारी बना।1

डेरियस का सीथिया तथा थ्रेश राज्य के शासक जाटों से युद्ध -

डेरियस जाट सम्राट् ने अपनी जाटसेना के बल से अपने मांडा राज्य को दूर-दूर तक एशिया के अनेक देशों को जीतकर विस्तृत किया। अब उसने यूरोप की ओर चढ़ाई की।

वह अपनी सेना को थ्रेश (बुल्गारिया) देश की ओर ले गया। फिर उसने डेन्यूब नदी को पार करके सीथियन जाटों पर आक्रमण कर दिया जो कि इससे भी अधिक वीर एवं युद्धविद्या में निपुण थे। सीथियन जाटसेना डेरियस को फुसलाने हेतु पीछे को हट गई। डेरियस ने सीथिया के राजा को यह सन्देश भेजा - “सीथिया देश के राजा, आप मेरे से दूर क्यों भाग रहे हो? यदि आप मेरे तुल्य हो तो ठहरो और युद्ध करो। यदि नहीं हो तो भागने की आवश्यकता नहीं, आप मुझे अपनी भूमि एवं जल सौंप दो और आत्मसमर्पण कर दो, जिसकी शर्तें सन्धि द्वारा तय की जा सकती हैं।” इस सन्देश का उत्तर सीथियन राजा ने डेरियस को भेजा, जो कि आदर्शभूत जाट उत्तर है। सन्देश में कहा गया कि “फारस के सम्राट्, मैं सूर्य भगवान् के अलावा अन्य किसी से नहीं डरता। मैं भागता नहीं हूं तथा भूमि और पानी आपको नहीं दूंगा। यद्यपि मैं आपको बड़े योग्य उपहार भेजता हूं।” उसने अपने दूत द्वारा एक पक्षी, एक चूहा, एक मेंढक और पांच तीर उपहार के तौर पर भेज दिये। डेरियस ने अनुमान लगाया कि चूहा भूमि को सूचित करता है तथा मेंढक पानी को। तदनुसार सीथियन ने हम को भूमि एवं पानी देना स्वीकार कर लिया है और आत्मसमर्पण कर रहे हैं। परन्तु डेरियस का ससुर जो कि एक चतुर सेनापति था, ने उसको इस उपहार का सत्य अर्थ इस तरह से बताया - “सिवाय इसके कि तुम पक्षी बनकर आकाश में उड़ जाओ या चूहे बनकर भूमि के भीतर चले जाओ या मेंढक बनकर पानी में चले जाओ, तुम में से एक भी जीवित वापिस नहीं जा सकता, हमारे तीर तुम्हारे हृदयों को छेद देंगे।” डेरियस यह समझकर कि मेरी सेना सीथियन सेना के फन्दे में फंसने वाली है, जान बचाकर डेन्यूब नदी को पार कर गया। अन्त में


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 41, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-355


वह सूसा को चला गया और एक सेना अपने वीर जनरल मेगाबाज़स (Megabazus) के नेतृत्व में देश में छोड़ गया। थ्रेस के जाटों ने इस जनरल को अपने अधीन कर लिया। इस तरह से थ्रेस के जाट तथा डैन्यूब नदी के प्रदेशों के शासक सीथियन जाट और अमू दरिया के उत्तर में शासक कांग जाट स्वतन्त्र रहे1

सीथियन तथा मध्य एशिया के जाटों की विशेषतायें

इतिहास के अनुसार वीरता में जाट अद्वितीय हैं। एशिया में केवल यही जाति थी जिसने सिकन्दर महान् को हराया था। प्राचीनकाल में एक जाट योद्धा जिसने कभी अपने शत्रु की हत्या न की हो, उसे चिह्न के तौर पर अपने गले में एक रस्सी बांधनी पड़ती थी। प्राचीन यूनानी इतिहासज्ञ थूसीडाईड्स ने सीथियन जाटों की वीरता के विषय में लिखा है कि - “यदि जाटों में एकता हो जाए तो संसार में कोई भी राष्ट्र (जाति) उनके विरुद्ध खड़ा नहीं रह सकता।” इतिहास साक्षी है कि जब भी जाटों में एकता हुई उन्होंने तभी चमत्कार कर दिखाये।

हैरोडोटस के अनुसार “थ्रेश देश की जातियों में जाट सबसे वीर एवं न्यायप्रिय थे। वे संगीत के प्रेमी थे। वे तम्बू लगाने में निपुण थे। थ्रेश के जाट इतने शक्तिशाली थे कि सिकन्दर ने एशिया पर आक्रमण करने से पहले इनसे युद्ध करना पड़ा। परिणामस्वरूप जाटों ने यूनान पर आक्रमण किया तथा एथेन्स पर अधिकार कर लिया।” आगे यही लेखक लिखते हैं कि “प्रत्येक जाट लड़ाका एवं अच्छा धनुर्धर था। वे शत्रु के आक्रमण की पहुंच से दूर निवास करते थे। काला सागर के चारों ओर रहने वाली जातियों में केवल सीथियन जाट ही बुद्धिमान् थे तथा अन्य सब मूर्ख थे।”

प्राचीन इतिहासज्ञ पोम्पोनियस मेला ने सीथियन जाटों के विषय में लिखा है कि -

“ये ऊंची भूमि पर रहते हैं, कठोर जीवन व्यतीत करते हैं और इनके देश में खेती-बाड़ी कम होती है। ये युद्ध तथा मारकाट से प्यार करते हैं। जो कोई सबसे अधिक शत्रुओं को मारता है उसको सबसे अधिक प्रसन्न व्यक्ति माना जाता है। परन्तु जिसने कोई भी शत्रु न मारा हो उसको सबसे अधिक धिक्कारा जाता है। जिस दिन वे मारकाट नहीं करते हैं तो स्वयं घाव बनाकर अपने खून को एक बर्तन में डाल लेते हैं और इस खून को इसलिए पीते हैं कि वे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध हैं। इनकी दावत के समय मुख्य बात यह सूचना लेने की होती है कि किसने कितने शत्रु मारे। सबसे अधिक संहार करने वाले को पीने के लिए दो प्याले दिये जाते हैं जो कि सबसे बड़ा सम्मान है। वे अपने शत्रुओं की खोपड़ियों के प्याले बनाते हैं।”

नोट - महाभारत भीष्मपर्व के लेख अनुसार “भीमसेन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार युद्धक्षेत्र में दुःशासन को पछाड़कर उसका वह हाथ धड़ से अलग कर दिया जिससे उसने द्रौपदी के केश पकड़कर भरी सभा में अपमानित किया था तथा उसके खून को भी पी लिया।”

शत्रु के प्रति जाटों की यह धारणा परम्परागत है।


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 42, लेखक उजागरसिंह माहिल, एवं जाट्स दी ऐनशन्ट् रूलर्ज, पृ० 134, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-356


होजीअड के लेख अनुसार, “थ्रेश देश के जाट दूध पीने वाले, घोड़ियों को दुहने वाले तथा चौपहिया गाड़ियों में रहने वाले थे। जिस किसी ने शत्रु नहीं मारा हो उसको वार्षिक दावत से वंचित रखा जाता था।”

इतिहासज्ञ थूसीडाईड्स ने थ्रेश देश के जाटों के विषय में लिखा है कि - “वे इतने अधिकसंख्यक तथा भयंकर थे कि यदि वे संगठित हो जाते थे तो कोई भी अन्य जाति उनके सामने खड़ी नहीं रह सकती थी, वे किसी से भी रुकने वाले नहीं थे। बुद्धिमत्ता के हिसाब से वे दूसरी जातियों से भिन्न थे।”

इतिहासज्ञ जस्टिन ने सीथियन जाटों के विषय में लिखा है कि “वे सोना और चांदी से घृणा करते थे तथा इनको प्राप्त करने हेतु उन्होंने अपने पड़ौसियों पर आक्रमण नहीं किए। उन्होंने पर्थिया तथा बैक्ट्रिया साम्राज्यों की नींव रखी। निरन्तर युद्धों तथा कठोर परिश्रम से वे भयंकर तथा बहुत शक्तिशाली बने1।”

सीथियन जाटों का मिश्रसेना से युद्ध

जस्टिन के लेख अनुसार – मिश्र का राजा वेक्सोरिस प्रथम राजा था जिसने सीथियन जाटों से युद्ध किया। उसने पहले तो अपने राजदूत को सीथियनों के पास इसलिए भेजा कि वे किस शर्त पर हथियार डालने को तैयार हैं। इस सन्देश का सीथियन्ज ने दूत को निम्नलिखित उत्तर दिया -

“तुम्हारा स्वामी जो कि बहुत धनवान् लोगों का अध्यक्ष है, निःसन्देह गरीब लोगों पर छापा मारने के लिए गुमराह किया गया है। उसको अपने घर ही रहना उचित है। युद्ध में संकट बहुत हैं। विजय का महत्त्व तुम्हारे लिए बिल्कुल नहीं है किन्तु हानि अटल है। इसलिए हम उस समय तक ठहरेंगे जब तक कि राजा हमारे पास पहुंच जाये। क्योंकि राजा के पास हमारे लूटने के लिए पर्याप्त धन है, इसलिए उस धन को अपने लाभ के लिए छीनने की शीघ्रता करेंगे।”

जब मिश्र के राजा को अपने संदेशवाहक से यह सूचना मिली कि सीथियन जाट उसकी ओर तीव्र गति से बढ़ रहे हैं तो उसने अपनी सेना तथा सभी भण्डार छोड़ दिये और अपने देश को भाग गया। जाटों ने प्रत्येक वस्तु पर अपना अधिकार कर लिया किन्तु अनुल्लंघनीय दलदल के कारण वे मिश्र में प्रवेश न कर सके। लौटने पर उन्होंने एशिया पर विजय पाई और कर लगाये जो 1500 वर्ष तक जारी रहे। केवल असीरिया के राजा ‘नीनस’ ने यह कर देना बन्द किया था।

कुप्पाडोसिया के युद्ध में जब सारे सीथियन पुरुष मारे गये तब इनकी स्त्रियों ने हथियार उठाए थे और युद्ध किया था। घटनाक्रम से उन औरतों को ‘एमेजन’ कहा जाता था। ऐण्टीओपे तथा ओरिथिया नामक दो एमेजन रानियां थीं। अन्तिम एमेजन रानी का नाम मिनिथिया था2

मकदूनिया (Macedonia) देश के शासकों से जाटों का युद्ध

5वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व में जाटों ने मकदूनिया के राजा परडीकास द्वितीय पर आक्रमण


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 15-18, लेखक उजागरसिंह माहिल।
2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 18-19, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-357


करनेवाले आडराईसो के राजा सीतलक्स की सहायता के लिए एक घुड़सवार सैनिक दस्ता भेजा था। इन दोनों देशों में संघर्ष तब तक जारी रहा जब तक कि मकदूनिया के राजा फिलिप द्वितीय ने 342 ई० पू० में आडराईसो को विजय करके उनसे कर लेना आरम्भ किया। अब जाटों ने फिलिप से मेल कर लिया। जाटों के राजा गोथलस ने फिलिप को सिपाही भेजने आरम्भ कर दिए और अपनी पुत्री का विवाह फिलिप से कर दिया। थ्रेस (बुलगारिया) की सीमा के साथ दक्षिण में मकदूनिया है जो कि यूनान का उत्तरी भाग है। गोथलस, ईपीरस (यूनान का पश्चिमी भाग) का जाट राजा था। फिलिप की सेना में भी बहुत जाट सैनिक थे और उनके पुत्र सिकन्दर की विशाल सेना में इन जाटों की बड़ी संख्या थी। यूनानी विद्वान् फर्ग्यूसन का कहना है कि “मकदूनिया वाले यूनानियों तथा थ्रेस के जाटों की सन्तान हैं। सिकन्दर महान् ने भी स्वीकार किया था कि मेरी रगों में जाट खून बह रहा है। वह कहता था कि सिकन्दर महान् की माता ओलाइम्पीअस (Olympias) ईपीरस (Epirus) देश के जाट राजा की पुत्री थी जो कि वहां की जाट रानियों की औलाद थी। ओलाइम्पीअस का स्वभाव एवं आदतें बिल्कुल थ्रेश की जाट स्त्रियों जैसी थीं।”

मकदूनिया के साथ जाटों के युद्धों का काफी वर्णन मिलता है।

326 ई० पू० में जोपाईरिअन ने जाटों के देश पर आक्रमण किया जिसमें उसको करारी हार मिली। 292 ई० पू० में लाईसिमेशस ने जाटों पर आक्रमण किया और बस्सारबिया के युद्ध के मैदान तक बढ़ आया। जाटों ने उसके वापिस लौटने के रास्ते को घेर लिया। उसने लाचार होकर हथियार डालने पड़े। जाट सेना ने उस राजा को फांसी देने की मांग की किन्तु जाट राजा ड्रोमीचेइटस ने उसे बिना कोई चोट के उदारता से छोड़ दिया। एक बार फिलिप ने डैन्यूब नदी के सीथियन जाटों पर आक्रमण करके उनके काफी घोड़े तथा अन्य पशु छीन लिए। फिलिप के लौटते समय जाटों ने उस पर जवाबी हमला कर दिया और उससे लूटा हुआ माल छुड़वा लिया। फिलिप को गहरी चोट लगी और बड़ी मुश्किल से अपनी सेना को हेइमस दर्रे से अपने देश में वापिस ले गया1

सम्राट् सिकन्दर और जाट

फिलिप की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सिकन्दर मकदूनिया का सम्राट् बना। इसकी सेना में जाटों की काफी संख्या थी क्योंकि फलांक्स (Phalanx) जो कि उसे अपने पिता से उत्तराधिकार में मिला था, में अधिकांश जाट लोग थे।

335 ई० पू० में सिकन्दर ने जाटों के देश थ्रेश तथा ट्रीबालियनों पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि वह सफल तो हो गया किन्तु उसने बड़ी कठिनता से अपनी जान बचाई। उस समय के जाटों की वीरता के कारनामे सिलसिलेवार तो नहीं मिलते किन्तु जाटों की वीरता की कुछ झलकें मिलती हैं जिनमें से एक निम्नलिखित है।

324 ई० पू० में ओपिस (Opis) के स्थान पर सम्राट् सिकन्दर ने अपने विद्रोही मकदूनियन सैनिकों को जो भाषण दिया था, उसका सम्बन्धित भाग इस प्रकार से है -

“तुम निर्धन थे तथा चमड़ा पहनते थे। तुम भेड़ चराते थे तथा थ्रेस के जाटों से स्वयं को नहीं बचा सकते थे। ऐसी अवस्था में मेरे पिता ने तुमको अपनी छत्रछाया में लिया, सैनिकों की

1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 45-46, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-358


वर्दियां पहनाईं तथा युद्धकला में थ्रेस जाटों के समान तुम्हें बना दिया1।”

330 ई० पू० में सिकन्दर ने मिरधा जाटों को परसेपोलिस और फारस की खाड़ी के मध्य क्षेत्र में हराया था (Rawlinson, op. cit, vol. 1, P. 338)।

सिकन्दर का सोग्डियाना के जाटों से युद्ध -

सम्राट् सिकन्दर ने अपने एशिया विजय अभियान में सोग्डियाना पर 328-227 ई० पू० में आक्रमण कर दिया। वह सोग्डियाना, अमू दरिया तथा सिर दरिया के मध्य में था जिसकी राजधानी समरकन्द थी। यह सीथिया देश का ही एक प्रान्त था। अमू दरिया के उत्तर में सेनापति स्पितम (Spitama) के नेतृत्व में दहिया, कांग तथा अन्य गोत्र के जाटों ने समरकन्द के स्थान पर सिकन्दर की सेना से भयंकर युद्ध किया जिसमें जाटों ने उसका एक पूरा डिविजन मौत के घाट उतार दिया। जब सिकन्दर वहां पहुंचा तो उसे अपने सब यूनानी सैनिक मृत पाये। यह देखकर उसने पीछे हटकर अपना सैनिक कैम्प ज़रीयस्प के स्थान पर लगा लिया। विश्वविजयी सम्राट् सिकन्दर को जाट वीरों ने यह पहली करारी हार दी जिसकी उसको बिल्कुल भी आशा न थी। इस हर से सिकन्दर को ऐसा धक्का लगा कि वह दस्त लगकर बीमार पड़ गया। कुछ समय के लिए उसका जीवन खतरे में पड़ गया। पूरे एक वर्ष तक सोग्डियाना के जाटों ने सिकन्दर की सेना को चैन से नहीं बैठने दिया2

शूरवीर जाटों ने सेनापति स्पितम के नेतृत्व में सिकन्दर के मुख्य सैनिक कैम्प पर भी आक्रमण कर दिया। जब सिकन्दर जाटों को पराजित न कर सका तब उसने वहां की आम जनता व स्त्रियों पर अत्याचार करने आरम्भ कर दिये। इस बड़े अन्याय व अत्याचार को देखकर जाटों ने निराश होकर अपने नेता स्पितम, जिसने सिकन्दर के आगे झुकना अस्वीकार कर दिया था, का सिर काटकर उसे सिकन्दर के सामने हाजिर कर दिया। यह देखकर सिकन्दर ने जनता पर अपने नीच व भयंकर अत्याचार करने बन्द कर दिए3

सोग्डियाना के जाटों की वीरता से प्रभावित होकर सिकन्दर ने स्वस्थ होने के बाद 327 ई० पू० 30,000 जाटों को भर्ती कर लिया।

इनके अतिरिक्त सिकन्दर की सेना में सीथियन तथा बैक्ट्रिया देश के जाट भी थे। जब सिकन्दर ने अपने विजय अभियान में 326 ई० पू० में भारतवर्ष पर आक्रमण किया तो उसकी सेना में बड़ी संख्या में जाट सैनिक थे। पंजाब में पोरस की जाट सेना का सिकन्दर की सेना से घोर युद्ध हुआ। दोनों ओर के जाट सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। अन्त में पोरस की जाट सेना ने सिकन्दर की सेना के दांत खट्टे कर दिये। सिकन्दर ने पोरस को अपने कैम्प में बुलाकर उससे सन्धि कर ली। (देखो तृतीय अध्याय, पुरु-पौरव गोत्र प्रकरण)।


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 46, लेखक उजागरसिंह माहिल, (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 80 लेखक बी० एस० दहिया।
2,3. Historians' History of World Vol 3-4, Page 348-351-361; एवं अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 47-48, लेखक उजागरसिंह माहिल और जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 251 लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-359


जब मकदूनियन सेना ने व्यास नदी से आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया था तब सिकन्दर ने उनको धमकी दी थी कि मैं केवल सीथिया तथा बैक्ट्रिया के जाट सैनिकों को साथ लेकर आगे बढ़ जाऊँगा1

सिकन्दर पहला सम्राट् था जिसने पूरे संसार को विजय करने का इरादा किया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मकदूनिया से चलकर अनेक देशों को विजय करता हुआ भारतवर्ष में व्यास नदी तक पहुंचा और यहां से लौटकर वापिस अपने देश को जाते समय बैबीलोन के स्थान पर मर गया। उसके इस विजय अभियान में प्रत्येक देश या प्रान्त में जाटों ने उससे युद्ध किया। इसका संक्षेप ब्यौरा लिखा जाता है।

सिकन्दर ने यूनान, मिश्र, मध्य एशिया के अनेक देश, लघु एशिया, सीरिया और मध्यपूर्व के देशों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। उसने फारस (ईरान) पर आक्रमण कर दिया।

सिकन्दर और दारा -

327 ई० पू० में सम्राट् सिकन्दर ने ईरान के सम्राट् डेरियस द्वितीय (दारा) पर आक्रमण कर दिया। ईरान के सम्राट् ने सिन्धु देश के जाट राजा सिन्धुसेन (जिसका गोत्र सिन्धु था) से सहायता मांगी। राजा सिन्धुसेन ने अपने तीरकमान और बर्छे धारण करने वाले सैनिकों को दारा की सहायता के लिये भेजा। अर्बेला के स्थान पर दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ।

सिकन्दर का साथी यूनानी इतिहासज्ञ एरियन लिखता है कि “सिकन्दर की सेना के दहिया आदि जाटों तथा दारा की सेना के सिन्धु जाटों का आपस में क्रूर युद्ध हुआ।” हैरोडोटस लिखता है कि “सिकन्दर की सेना किए जिस भाग पर जाट लोग झुक जाते थे वही भाग कमजोर पड़ जाता था। सिंधु योद्धा रथों में बैठकर लड़ते थे। वे अपनी कमान को पैर के अंगूठे से दबाकर कान के बराबर तानकर तीर छोड़ते थे। सिकन्दर को स्वयं इनके मुकाबले के लिए सामने आना पड़ता था।” इस सेना में 25 हाथी और 200 रथ भी थे। प्रत्येक जाट ने वह पराक्रम दिखलाया कि मानो वह जीत की पक्की अभिलाषा रखता है किन्तु अर्बेला के इस युद्ध में दारा मारा गया तथा सिकन्दर की जीत हुई। सिकन्दर ने कोप कर ईरान की राजधानी परसीपोलिस को तहस-नहस कर दिया2

ईरान को जीतकर सिकन्दर ने भारत की ओर प्रस्थान किया। 326 ई० पू० में वह काबुल घाटी में पहुंचा और यहीं से उसने भारत विजय की योजना बनाई।

उस समय सिन्ध नदी के पश्चिम में तथा पंजाबसिन्ध प्रान्तों में जाटों के छोटे-छोटे अनेक प्रजातन्त्र राज्य थे जिनमें अधिक शक्तिशाली सम्राट पोरस था। इन सब राज्यों का आपस में कोई संगठन न था तथा आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे। उस समय बलोचिस्तान प्रान्त का शासक जाट राजा चित्रवर्मा था जिसकी राजधानी क़लात थी। हिन्दूकुश से सिन्ध नदी तक


1. Historians' History of the World Vol. 3-4, Page 348-351-361; एवं अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 47-48, लेखक उजागरसिंह माहिल और जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 251 लेखक बी० एस० दहिया।
2,3. जाट इतिहास पृ० 181, 695, लेखक ठा० देशराज। जाट इतिहास पृ० 48-49, लेखक ले० रामसरूप जून। भारत का इतिहास पृ० 45-46, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-360


पहुंचने में सिकन्दर को 10 महीने लगे थे, किन्तु सिन्ध से व्यास नदी तक उसको 19 महीने लग गये। (मौर्य साम्राज्य का इतिहास, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।

इसका कारण साफ है कि सिकन्दर को पग-पग पर भिन्न-भिन्न जाटवंशों तथा अन्य भारतीय जातियों से लोहा लेना पड़ा। सिकन्दर के साथी इतिहासज्ञ एरियन ने लिखा है कि “सिकन्दर को यह निश्चय हो गया था कि इस समय जाट जाति के लोग सबसे बढ़कर शूरवीर योद्धा हैं।” अफगानिस्तान में गान्धार प्रान्त जिसकी राजधानी पुष्कलावती थी, के जाटों से तथा शक (जिसे यूनानियों ने अस्सकनोई लिखा है) जाटों से सिकन्दर का युद्ध हुआ। इसी तरह कई अन्य स्वतन्त्र कबीलों से उसे भिड़ना पड़ा। इनमें से एक संघा जाटवंशज गण था।

  1. इस संघा जाट गण को मैगस्थनीज़ ने सिंघाई लिखा है। इस गण का प्रजातन्त्र राज्य था जिसमें कोई राजा नहीं होता था। इनका निवास व अधिकार भारतवर्ष की उत्तर पश्चिम सीमा पर पहाड़ी क्षेत्रों पर था। इन्होंने सिकन्दर से टक्कर ली थी। (S. Mukerji, P. 45)
  2. भंगु जाटों का सीस्तान पर प्रजातन्त्र शासन था। इन्होंने सिकन्दर से टक्कर ली थी। पाणिनी ने इनका नाम भगाला लिखा है तथा यूनानियों ने फेगेला लिखा है। (Mc Crindle, op Cit, P. 121 के हवाले से, जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 279 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है)।

असि-असिआक वीर जाटों ने सिकन्दर से भयंकर युद्ध किया था। इसका वर्णन The age of Nandas and Mauryas नामक पुस्तक में किया गया है। जाटों ने सिकन्दर को घायल किया। Op. Cit, P. 51 के हवाले से बी० एस० दहिया ने अपनी पुस्तक ‘जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज’ के पृ० 164 पर लिखा है।

राजा आम्भी -

यह गांधार गोत्र का जाट था जिसका राज्य पूर्वी गांधार पर था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। यह राज्य सिन्धु नदी तथा जेहलम नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र पर था। राजा आम्भी की अपने पड़ौसी राजा पुरु (पोरस) से शत्रुता थी। जब सिकन्दर 326 ई० पू० में सिन्ध नदी तक पहुंचा तो आम्भी ने डरकर उससे मित्रता कर ली। दूसरा कारण यह भी बताया जाता है कि राजा पोरस से शत्रुता के कारण वह सिकन्दर से मिल गया। राजा आम्भी ने सिन्ध नदी पर अटकनगर से कुछ ऊपर ओहिन्द नामक स्थान पर नौकाओं का पुल बनवाकर सिकन्दर की सेना को नदी पार करने की सहायता दी थी। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 384, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

सिकन्दर ने कुछ दिन आम्भी के राज्य में आराम करके आगे को कूच किया। इससे आगे राजा पुरु-पोरस का शक्तिशाली राज्य था।

राजा पुरु-पोरस -

राजा पोरस जाट जाति का था जिसका गोत्र पुरु-पौरव था। इसका राज्य जेहलम तथा चिनाब नदियों के बीच के क्षेत्र पर था। यह उस समय के पंजाब और सिन्ध नदी पार के सब राजाओं से अधिक शक्तिशाली था। सिकन्दर ने राजा पोरस को अपनी प्रभुता स्वीकार कराने हेतु संदेश भेजा जिसको पोरस ने बड़ी निडरता से अस्वीकार कर दिया और युद्ध के लिए तैयार


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हो गया। सिकन्दर की सेना ने रात्रि में जेहलम नदी पार कर ली। पोरस की जाट वीर सेना ने उसका सामना किया। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ओर से जाट सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। यह पिछले पृष्ठों पर लिखा गया है कि सिकन्दर के साथ यूनानी सैनिक तथा सीथिया व सोग्डियाना देश के दहिया आदि कई हजार जाट सैनिक आये थे।

पोरस की जाट सेना ने सिकन्दर की सेना के दांत खट्टे कर दिये। इस युद्ध में पूरी विजय किसी की नहीं हुई। सिकन्दर ने यह सोचकर कि पोरस हमको आगे बढ़ने में बड़ी रुकावट बन गया है, उसे अपने कैम्प में बुलाकर सन्धि कर ली। इस सन्धि के अनुसार सिकन्दर ने पोरस से मित्रता कर ली और उसे अपने जीते हुए भिम्बर व राजौरी (कश्मीर में) दे दिये। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, पुरु-पौरव प्रकरण)। जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ 170 पर, बी० एस० दहिया ने लिखा है कि सम्राट् पोरस ने सम्राट् सिकन्दर से युद्ध किया और उससे हार नहीं मानी, अन्त में सिकन्दर ने इससे आदरणीय सन्धि की।

“लम्बा उज्जवल शरीर, योद्धा तथा शूरवीर, शत्रु पर तीव्र गति से भाला मारने वाले और युद्धक्षेत्र में भय पैदा करने वाले इस सम्राट् पुरु (पोरस) के 326 ई० पू० जेहलम के युद्ध में वीरता के अद्भुत कार्य, तांबे की प्लेटों पर नक्काशी करके तक्षशिला के मन्दिर की दीवारों पर लटकाए गए थे।” R.C. Majumdar Classical Accounts of India, P. 388; quoted SIH & C, P.69.)

छोटा पुरु तथा गलासाई जाति - सिकन्दर चनाब नदी पार करके छोटे पुरु के राज्य में प्रवेश कर गया। यह पुरु भी जाट राजा था जो कि बड़े पुरु का रिश्तेदार था। इसका राज्य चनाब और रावी नदियों के मध्य में था। सिकन्दर ने इसको जीत लिया और इसका राज्य भी बड़े पुरु को दे दिया। आगे बढ़ने पर उसका युद्ध एक लड़ाका अगलासाई* जाति जो कि रावी नदी के साथ थी, से हुआ। सिकन्दर ने उन पर भी विजय प्राप्त कर ली।

कठ या कठारिया - कठ-कठारिया-कटारिया जाट लोगों का राज्य रावी तथा व्यास नदियों के मध्यवर्ती क्षेत्र पर था। इनकी राजधानी का नाम सांकल-सांगल था। सिकन्दर ने रावी नदी पार करके कठ लोगों पर आक्रमण कर दिया। इन लोगों ने सिकन्दर की सेना का बड़ी वीरता से मुकाबला किया। सिकन्दर को इनको जीतने के लिए बड़े पोरस से 5000 जाट सेना मंगानी पड़ी जिनके युद्ध में शामिल होने पर उसकी विजय हुई। इस युद्ध में 17,000 कठारिया जाट सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए तथा 70,000 के लगभग कैदी बना लिये गये। इन लोगों ने सिकन्दर से इतना अडिग लोहा लिया जिससे वह बड़ी कठिनाई से जीत प्राप्त कर सका। इसी कारण उसने क्रोधित होकर इनके सांकल के किले की नींव उखड़वा दी और सांकल नगर को सब प्रकार से उजड़वा दिया। कठ-कठारिया लोग हार तो गये किन्तु उनकी वीरता की गहरी छाप यूनानियों पर पड़ी। यूनानी लेखकों ने इनके विषय में लिखा है कि “इनमें स्वयंवर प्रथा से विवाह होते थे और सती प्रथा का भी चलन था। अदम्य साहसिकता और प्रचण्ड वीरता इनमें कूट-कूट कर भरी थी।” (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 382-383, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 161)।


  • . जाट इतिहास पृ० 162 पर ठा० देशराज ने इस यूनानी शब्द अगलस्सोई को ओझलान जाटगोत्र लिखा है।


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सिकन्दर की वापिसी

व्यास नदी के तट पर पहुंचने पर सिकन्दर के सैनिकों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इसका कारण यह था कि व्यास से आगे शक्तिशाली यौधेय गोत्र के जाटों के गणराज्य थे। ये लोग एक विशाल प्रदेश के स्वामी थे। पूर्व में सहारनपुर से लेकर पश्चिम में बहावलपुर तक और उत्तर-पश्चिम में लुधियाना से लेकर दक्षिण-पूर्व में दिल्ली, मथुरा, आगरा तक इनका राज्य फैला हुआ था। इनका प्रजातन्त्र गणराज्य था जिस पर कोई सम्राट् नहीं होता था। समय के अनुकूल ये लोग अपना सेनापति योग्यता के आधार पर नियुक्त करते थे। ये लोग अत्यन्त वीर और युद्धप्रिय थे। ये लोग अजेय थे तथा रणक्षेत्र से पीछे हटने वाले नहीं थे। इनकी महान् वीरता तथा शक्ति के विषय में सुनकर यूनानियों का साहस टूट गया और उन्होंने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इनके राज्य के पूर्व में नन्द वंश1 (नांदल जाटवंश) के सम्राट् महापद्म नन्द का मगध पर शासन था जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। यह बड़ा शक्तिशाली सम्राट् था। यूनानी लेखकों के अनुसार इसकी सेना में 20,000 घोड़े, 4000 हाथी, 2000 रथ और 2,00,000 पैदल सैनिक थे। सिकन्दर को ऐसी परिस्थिति में व्यास नदी से ही वापिस लौटना पड़ा। (भारत का इतिहास, पृ० 47, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 161-162)।

सिकन्दर की सेना जेहलम नदी तक उसी रास्ते से वापिस गई जिससे वह आयी थी। फिर जेहलम नदी से सिन्ध प्रान्त और बलोचिस्तान के रास्ते से उसके सैनिक गये। परन्तु वापिसी का मार्ग सरल नहीं था। सिकन्दर की सेना से पग-पग पर जाटों ने डटकर युद्ध किए। उस समय दक्षिणी पंजाब में मालव (मल्लोई), शिवि, मद्र और क्षुद्रक गोत्र के जाटों ने सिकन्दर की सेनाओं से सख्त युद्ध किया तथा सिकन्दर को घायल कर दिया। कई स्थानों पर तो जाटों ने अपने बच्चों को आग में फेंककर यूनानियों से पूरी शक्ति लगाकर भयंकर युद्ध किया।

मालव-मल्ल जाटों के साथ युद्ध में सिकन्दर को पता चला कि भारतवर्ष को जीतना कोई सरल खेल नहीं है। मालव जाटों के विषय में यूनानी लेखकों ने लिखा है कि “वे असंख्यक थे और अन्य सब भारतीय जातियों से अधिक शूरवीर थे2।”

सिन्ध प्रान्त में उस समय जाट राजा मूसकसेन का शासन था जिसकी राजधानी अलोर थी। जब सिकन्दर इसके राज्य में से गुजरने लगा तो इसने यूनानी सेना से जमकर युद्ध किया। इससे आगे एक और जाटराज्य था। वहां के जाटों ने भी यूनानियों से लोहा लिया3

सिकन्दर की सेना जब सिंध प्रान्त से सिंधु नदी पर पहुंची थी तो इसी राजा मूसकसेन (मुशिकन) ने अपने समुद्री जहाजों द्वारा उसे नदी पार कराई थी4

जब सिकन्दर अपनी सेना सहित बलोचिस्तान पहुंचा तो वहां के जाट राजा चित्रवर्मा ने जिसकी राजधानी कलात (कुलूत) थी, सिकन्दर से युद्ध किया5


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 256 पर लिखा है कि यह कहना उचित है कि नन्द जाट आज नांदल/नांदेर कहे जाते हैं।
2. हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 162 भारत का इतिहास पृ० 47 हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी।
3, 4, 5. जाट इतिहास क्रमशः पृ० 695, 192, 695 लेखक ठा० देशराज।


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अलग-अलग स्थानों पर हुए युद्ध में जाटों ने सिकन्दर को कई बार घायल किया। वह बलोचिस्तान से अपने देश को जा रहा था परन्तु घावों के कारण रास्ते में ही [[Babylon}बैबीलोन]] (इराक़ में दजला नदी पर है) के स्थान पर 323 ई० पू० में उसका देहान्त हो गया1। उस समय उसकी आयु 33 वर्ष की थी।

भारत से लौटते समय सिकन्दर ने अपने जीते हुए राज्य पोरस और आम्भी में बांट दिये थे और सिन्ध प्रान्त का राज्यपाल फिलिप्स को बनाया। परन्तु 6 वर्ष में ही, ई० पू० 317 में भारत से यूनानियों के राज्य को समाप्त कर दिया गया और मौर्य-मौर जाटों का शासन शुरु हुआ। इसका वर्णन अध्याय पांच में किया जायेगा।

खोतन का जाटराज्य

खोतन की स्थितितारिम नदी, तकलामकान मरुस्थल, जो कि मध्य एशिया के सिंगकियांग प्रान्त में है, के उत्तर में बहती हुई लोपनोर झील में गिरती है। इस नदी के दक्षिण में यारकन्द, खोतन आदि हैं। बुद्ध के निर्वाण से ठीक 234 वर्ष बाद अर्थात् 250 ई० पू० खोतन राज्य की स्थापना हुई। उस समय सम्राट् अशोक भी जीवित थे।

खोतन की स्थापना के विषय में रॉकहिल ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘लाइफ ऑफ बुद्ध’ में तिब्बती अनुश्रुति का संग्रह किया, जो इस प्रकार है -

“बुद्ध कश्यप के समय कुछ ऋषि खोतन देश में गये, पर वहां के निवासियों ने उनके प्रति बहुत बुरा बर्ताव किया। इस कारण वे वहां से चले गये। इससे दुःखी होकर नागों ने खोतन को एक झील के रूप में परिवर्तित कर दिया। जब बुद्ध शाक्य मुनि खोतन गये तो उन्होंने खोतन की इस झील को वैज्ञानिक विधि से शुष्क कर दिया और वह देश के मनुष्यों के निवास योग्य हो गया।”

सम्राट् अशोक (273 ई० पू० से 232 ई० पू०) की महारानी के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी को सत्य मानकर अशोक ने उस बालक का परित्याग कर दिया। भूमि माता द्वारा उस बालक का पालन होता रहा। इसीलिए उसका नाम कुस्तन (कु = भूमि एवं स्तन = चूंची, जिसकी भूमि स्तन है) पड़ गया।

उस समय चीन के एक प्रदेश में राजा बोधिसत्व का शासन था। उसके 999 पुत्र थे। राजा बोधिसत्व ने वैश्रवण से प्रार्थना की, कि उसके एक पुत्र और हो जाय ताकि संख्या पूरी 1000 हो जाए। वैश्रवण बालक कुस्तन को चीन ले गया और बोधिसत्व के पुत्रों में शामिल कर दिया। कुछ दिन बाद राजा के पुत्रों का कुस्तन के साथ मतभेद हो गया। इस कारण वह अपने दस हजार साथियों को लेकर वहां से खोतन के मेस्कर नामक स्थान पर जा पहुंचा। उस समय उसकी आयु 12 वर्ष की थी।

सम्राट् अशोक के क्रोध के कारण उसका एक योग्य एवं विद्वान् यश नामक मन्त्री अपने 7000 साथियों के साथ भारत छोड़कर खोतन में उथेन नदी के तट पर जा पहुंचा। वहां पर उसका मिलाप


1. भारत का इतिहास पृ० 47, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 162।


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कुस्तन से हो गया। इन दोनों ने अपने साथियों के सहयोग से खोतन देश को आबाद किय और वहां पर राज्य स्थापित किया, जिसका कुमार कुस्तन राजा बना और यश उसका मंत्री बना। उस समय कुस्तन की आयु 16 वर्ष की थी तथा सम्राट् अशोक जीवित था। भगवान् बुद्ध के निर्वाण (स्वर्गवास 484 ई० पू०) के ठीक 234 वर्ष यानि 250 ई० पू० में खोतन राज्य की स्थापना हुई जहां का धर्म बौद्ध था1

नोट - (1) सम्राट् अशोक मौर्य/मौर गोत्र का जाट था (देखो अध्याय तृतीय, मौर्य-मौर प्रकरण)। उसका पुत्र कुस्तन भी मौर्य या मौर गोत्र का जाट था। यश मन्त्री तथा उसके 7000 साथी जाट थे। (2) इस खोतन को नाग लोगों ने एक झील बना दिया। इससे ज्ञात होता है कि उस देश में नागवंश के लोग आबाद थे जो कि नागवंशीय जाट थे (देखो तृतीय अध्याय नागवंश)।

तिब्बती जनश्रुति के अनुसार - राजा कुस्तन के बाद उसका पुत्र ये-उ-ल (येउल) खोतन का राजा बना। येउल के बाद उसका पुत्र विजितसम्भव खोतन का शासक बना। उसका उत्तराधिकारी विजितकीर्ति हुआ जो कि कुषाणवंशी सम्राट् कनिष्क का समकालीन था। विजितसम्भव के बाद जो राजा खोतन की राजगद्दी पर बैठे, उनके नाम तिब्बती जनश्रुति में विद्यमान हैं जो उपलब्ध नहीं हैं। इन सब राजाओं के नाम ‘विजित’ शब्द से प्रारम्भ होते हैं, इसीलिए इनके वंश को विजितवंश कहा जा सकता है।

विजितसम्भव के वंशज प्रतापी राजा विजितधर्म (विजितसिंह) ने लगभग 60 ईस्वी में तकला मकान की मरुभूमि के दक्षिण में विद्यमान 13 भारतीय उपनिवेशों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। उस समय कुषाण राजा विम क्थफिस (जाट राजा) भारत में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था। 76 ईस्वी में चीन के सम्राट् होती के सेनापति पान-छाओ ने खोतन के इस राजा विजितसिंह से मैत्री स्थापित कर ली तथा इसकी सहायता से मध्य एशिया के अनेक राज्यों से चीन का आधिपत्य स्वीकार करा लिया। पान-छाओ पश्चिम में कैस्पियन सागर तक चीन का प्रभुत्व स्थापित कर सका।

कुषाणवंशी (जाट) सम्राट् कनिष्क की विजयों के कारण मध्यएशिया कुषाण साम्राज्य के अन्तर्गत हो गया था और खोतन के राजा ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। पर कुषाण वासुदेव के शासनकाल (152-186 ई०) में कुषाण साम्राज्य में जब शिथिलता आने लगी, तो खोतन स्वतन्त्र हो गया। (सम्राट् कनिष्क की विजय, पिछले पृष्टों पर चीन में जाटराज्य के प्रकरण में देखो)

चीनी साहित्य द्वारा भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि खोतन के राजा विजितसम्भव के पश्चात् ग्यारहवीं पीढ़ी में विजितधर्म (विजितसिंह) राजा हुआ था और वह बौद्धधर्म का कट्टर अनुयायी था। उसने काशगर राज्य पर आक्रमण करके अपने अधीन कर लिया था।


1. तिब्बती जनश्रुति के आधार पर रॉकहिल के प्रसिद्ध ग्रंथ “लाइफ ऑफ बुद्ध” के हवाले से सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक “मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति” के पृष्ठ 89-90 पर लिखा है। जाट इतिहास पृ० 193-194, ले० ठा० देशराज जिसने पुस्तक “मौर्य साम्राज्य का इतिहास” पृ० 539 का हवाला दिया है।


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पांचवीं सदी के प्रारम्भ में श्वेत हूणों (जाटों ने उसे आक्रान्त किया और छठी सदी में तुर्कों ने। सातवीं सदी के शुरु में खोतन के पुराने राजाओं (मौर्य-मौर) के वंशज विजितसंग्राम नामक राजा ने खोतन को तुर्कों की अधीनता से स्वतन्त्र कराया।

राजा विजितसंग्राम ने 632 ई० में एक दूतमण्डल मैत्री हेतु चीन के सम्राट् के पास भेजा और तीन वर्ष बाद अपने पुत्र को भी चीन के दरबार में भेज दिया। 648 ई० में खोतन का राजा जो विजितसंग्राम का उत्तराधिकारी था, स्वयं चीन के दरबार में उपस्थित हुआ था। इस काल में चीन में तांगवंश के राजाओं का शासन था, जो अत्यन्त शक्तिशाली तथा महत्त्वाकांक्षी थे। ये तांग जाटवंश के राजा थे। (देखो चीन में तांगवंश के जाट राजाओं का शासन, प्रकरण)।

सातवीं सदी में खोतन का अन्तिम राजा विजितवाहम था, जिसे तिब्बत के राजा ने हराकर खोतन राज्य को अपने अधीन कर लिया था। चीन के तांगवंशज जाट राजाओं ने अपनी शक्ति फिर से बढ़ाई और आठवीं सदी के अन्त से पूर्व ही उन्होंने मध्यएशिया के विविध प्रदेशों पर से तिब्बती शासन का अन्त कर दिया1

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 144 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि मौर्यों का शासन खोतन, मध्य एशिया के अन्य क्षेत्रों और कश्मीर पर रहा (Elliot and Dawson, op. cit, Vol.1)।

कुषाणवंश जाटराज्य (सन् 40 ई० से 220 ई० तक)

पिछले पृष्ठों पर कुषाणवंश के प्रकरण में उदाहरण देकर प्रमाणित किया है कि कुषाण लोग जाट थे। इनके राज्य की स्थापना तथा राज्य-विस्तार के विषय में लिखा जाता है।

चीनी इतिहासज्ञ शीकीचेंगा के अनुसार यू-ची (जाट) लोग चीन के प्रान्त कांसू में रहते थे। हिंगनू (जाटवंश) जो बाद में हूण कहलाये, उनके पड़ौसी थे। आरम्भ में जाट बड़े शक्तिशाली थे और हिंगनू लोगों को दुर्बल समझते थे। किन्तु आने वाले समय में जब तोयुमान का पुत्र माऊदून इन हिंगनू (हूणों) लोगों का एक शक्तिशाली शासक बना तब उसने जाटों पर आक्रमण करके हरा दिया। उसने अपनी इस विजय की सूचना एक पत्र द्वारा 176 ई० पू० में चीन के सम्राट् को दी।

हिंगनू (हूणों) के दबाव से जाट लोग दक्षिण और पश्चिम की ओर चले गये। इनके दो बड़े विभाग थे जिनमें से एक का नाम चीनी भाषा में “ता-यूची” तथा यूनानी एवं यूरोपियन भाषा में “मस्सा-गेटाई” था। दोनों का अर्थ शक्तिशाली जाटसंघ है। दूसरे विभाग का नाम चीनी भाषा में “सीऊ-यूची” और यूनानी एवं यूरोपियन भाषा में थीस्सा-गेटाई था। दोनों का अर्थ छोटा जाटसंघ है। थीस्सागेटाई तिब्बत की ओर चले गये और मस्सागेटाई पश्चिम की ओर गये।

मस्सागेटाई लोगों ने बैक्ट्रिया (बल्ख) तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों में पहली सदी ई० पू० में अपने पांच राज्य स्थापित किये। इन राज्यों में एक राज्य कुषाणवंश के जाटों का था। 40 ई० में इस कुषाण राज्य का शासक “कुजुल कफस कदफिसस” नामक वीर पुरुष हुआ। उसने धीरे-धीरे अन्य चार जाटों के राज्यों को जीत लिया और अपने प्रभाव से सब पांचों शाखाओं को एक कर


1. मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 92, 93, 94 लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-366


दिया। तभी से वे सब जाट शाखायें कुषाण कहलाने लगीं। उसने हिन्दुकुश पर्वतमाला को पार करके काबुल, कन्धार पर आक्रमण किए और वहां से पार्थियन (पल्लव जाट) लोगों के शासन का अन्त कर दिया। इस तरह से इसका राज्य बैक्ट्रिया और फारस की सीमा से अफगानिस्तान तक फैल गया1

कुजुल कफस कट्फिसस (सन् 40 से 78 ईस्वी तक) -

इस सम्राट् ने भारतवर्ष से बाहिर मध्यएशिया में सन् 40 ई० में कुषाण साम्राज्य की नींव रखी और इसका विस्तार किया। उस समय में कुषाणवंश अन्य सब जातियों से प्रसिद्ध हो गया। इस सम्राट् के अधीन बैक्ट्रिया आ गया जहां पर राजधानी बनाकर आक्रमण आरम्भ कर किए। इसने बोखारा, बलोचिस्तान, सिंध नदी और ईरान की सीमा के बीच के सब प्रदेश जीत लिये और पार्थियन (पल्लव जाट) राज्य को समाप्त कर दिया। इसने सूर्य, शिवि, नन्दी सहित देवता, बुद्ध मूर्ति और खड़े होकर आहुति देने के अपने चित्र सहित तांबे और कांशी के सिक्के प्रचलित किए। कई सिक्के जो काबुल, गाजीपुर (यू० पी०), कच्छ काठियावाड़ आदि से प्राप्त हुए उनमें खरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ मिला है - “कुजुल कफ्सस सचध्रमदिसस”, “कुषनम युवस कुजुल कफसस सचध्रमदिसस।” एक सिक्के पर उसके नाम के साथ ‘महरजस’, ‘रय रयस’ और ‘देवपुत्रस’ विशेषण भी दिए गए हैं, जो कि संकेत करता है कि उसने बौद्धधर्म को अपना लिया था। इस नरेश का 80 वर्ष की आयु में सन् 78 ईस्वी में स्वर्गवास हो गया।

विम कदफिसस द्वितीय (सन् 78 से 110 ईस्वी तक) -

कुजुल कफस कदफिसस की मृत्यु होने पर उसका पुत्र विम कदफिसस द्वितीय राजगद्दी पर बैठा। इसने पंजाब में कई यूनानी और शक (जाट) राजाओं को जीत लिया। इसने उत्तरी भारत में बनारस तथा दक्षिण में नर्मदा नदी तक अपने कुषाण साम्राज्य को बढ़ाया।

इस नरेश ने चीनी सम्राट् की राजकुमारी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। परन्तु चीनियों ने इसके दूतों को अपमानित किया। इसी कारण इस सम्राट् ने अपने 70 सहस्र सैनिक भेजकर चीनी सम्राट् की राजकुमारी छीनने के लिए चढ़ाई कर दी। चीन की सेना के शूरवीर सेनापति पान-छाओ ने कुषाण सेना को असफल कर दिया। इसके बाद चीन-भारत के आपसी सम्बन्ध बिगड़ गए।

इस नरेश ने अन्य देशों तथा रोम साम्राज्य के साथ भारतीय व्यापार स्थापित करके भारत की माली हालत को उन्नत किया। इसने सोने एवं चांदी के सिक्के प्रचलित किए। इसके सिक्कों पर लेख इस प्रकार के हैं - “महरशस रजयिरस सब लोग ईश्वरस महिश्वरस विम कथफिशस भरतस”। मथुरा में इस राजा की एक मूर्ति मिली है जिस पर लिखा है “महाराजो राजाधिराजो देवपुत्रो कुषाण पुत्रो वेम”। इसके कुछ सिक्कों पर शिव तथा नन्दी की प्रतिमाएं तथा त्रिशूल अंकित हैं। इस सम्राट् की सन् 110 ई० में मृत्यु हो गई।


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 25, 26, 27 लेखक बी० एस० दहिया, जाट इतिहास पृ० 199, लेखक ठा० देशराज, जाटों का उत्कर्ष, पृ० 345, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 256-257, मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति, पृ० 57, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


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सम्राट् कनिष्क (सन् 120 से सन् 162 ईस्वी तक) -

विम कदफिसस द्वितीय की मृत्यु के 10 वर्ष बाद सम्राट् कनिष्क इस कुषाण साम्राज्य का शासक बना। इस 10 वर्ष के शासन के विषय में भिन्न-भिन्न राय हैं।

  • (1) कनिष्क, कुषाणों की दूसरी शाखा के राजा बाझेष्क के पुत्र थे। (जाट इतिहास, पृ० 200, ठा० देशराज)।
  • (2) कनिष्क से पहले देवपुत्र तुरुष्क का शासन 10 वर्ष तक रहा जिसका उत्तराधिकारी कनिष्क हुआ (जाटों का उत्कर्ष पृ० 346, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।
  • (3) कुछ इतिहसकारों का मत है कि कनिष्क सन् 78 ई० में राजगद्दी पर बैठा। किन्तु इतिहासज्ञ डा० वेन्सन्ट स्मिथ, सर जॉन मार्शिल, प्रो० कोनोव आदि का मत है कि वह सन् 120 ई० में राजा बना। यह ठीक तौर से ज्ञात नहीं है कि उसके हाथ शासन की बागडोर कैसे आई। इस सम्राट् ने सन् 120 से सन् 162 तक 42 वर्ष शासन किया जिसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी।

सम्राट् कनिष्क सिकन्दर महान् की तरह महत्त्वाकांक्षी एवं विजेता था। उसकी प्रसिद्धि सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के समान मानी जाती है। वास्तव में वह कुषाण साम्राज्य का सबसे महान्, प्रसिद्ध और जनताप्रेमी सम्राट् था।

सम्राट् कनिष्क की विजयें - यह बड़ा शूरवीर और युद्धप्रिय सम्राट् था। इसने कश्मीर को जीतकर वहां कनिष्कपुर नगर बसाया। उत्तरी भारत तथा दक्षिणी मालवा उज्जैन से शक क्षत्रपों (राज्यपालों या गवर्नरों) को जीत लिया और वहां अपना शासन स्थिर किया। इसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया और मगध राज्य का कुछ भाग जीत लिया।

इसने चीनी तुर्किस्तान (सिंगकियांग) के काशगर, यारकन्द, खोतन और तारिम नदी की घाटी में आबाद अनेक प्रान्तों को चीन के कब्जे से छुड़ा लिया और अपने साम्राज्य में मिला लिया। (देखो इसी अध्याय में चीन के साथ सम्राट् कनिष्क का युद्ध प्रकरण)।

पाटलिपुत्र से मध्य एशिया तक इस विशाल कुषाण साम्राज्य का केन्द्रबिन्दु गान्धार देश था जहां पर सम्राट् कनिष्क ने पुरुषपुर (पेशावर) में अपनी राजधानी बनाई। इसने अपने साम्राज्य को कई प्रान्तों में बांट रखा था जिसमें बैक्ट्रिया (बल्ख), यारकन्द, खोतन, काशगर, अफगानिस्तान, पंजाब, सिन्ध, कश्मीर और मथुरा प्रसिद्ध व महत्त्वपूर्ण प्रान्त थे। इन प्रान्तों पर क्षत्रप (राज्यपाल) शासक नियुक्त किये गये थे।

डा० राय चौधरी के शब्दों में “कनिष्क की प्रसिद्धि एक विजेता के तौर पर इतनी नहीं है जितनी कि धर्म के फैलाने व कलापूर्ण भवनों का निर्माण कराने में है। कनिष्क ने बौद्ध-धर्म को भारत के अतिरिक्त चीन, जापान, तिब्बत और मध्यएशिया में फैलाया।”

इसने कश्मीर में चौथी बौद्धसभा का आयोजन किया (देखो लल्ल गठवाला मलिक प्रकरण तृतीय अध्याय)। यह सभा कश्मीर में ‘कुंडलवन’ के स्थान पर हुई थी।


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इस सभा में देश-विदेशों से 500 बौद्ध साधु तथा अन्य धर्म के 500 पण्डित आये थे। इस सम्मेलन के सभापति विश्वमित्र तथा उपसभपति अश्वघोष बनाये गये। इन विद्वानों ने समस्त बौद्ध ग्रन्थों का सार संस्कृत भाषा के एक लक्ष श्लोकों में ‘सूत्र पिटक’, ‘विनय पिटकि’ और ‘अभिधर्म पिटक’ नामक तीन महाभाष्यों में रचा। वे सब ताम्रपत्र नकल करके एक स्तूप में दबाये गये जो कि कनिष्क ने इसीलिए बनवाया था। यदि खुदाई करके इनको खोज लिया जाए तो संसार के इतिहास का नक्शा ही बदल जाय।

कनिष्क बौद्ध होकर भी यज्ञप्रथा का समर्थक और स्वयं कट्टर याज्ञिक था। शिव के प्रति आस्था का भी परिचय इसके सिक्कों से प्राप्त हुआ है। यह सभी धर्मों का आदर करता था। इसके दरबार में बड़े-बड़े विद्वान्, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वैद्य आदि थे जिनमें अश्वघोष, विश्वमित्र, नागार्जुन और आचार्य चरक प्रसिद्ध हैं।

कनिष्क ने पेशावर में विशाल बौद्धस्तूप, कश्मीर, तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ आदि में अनेक कलापूर्ण भवनों का निर्माण कराया। इसने शक संवत् की स्थापना की।

कनिष्क ने “राजात् राजस्य देवपुत्र शाही” की उपाधि धारण की जिसे उसके पुत्रों ने भी प्रचलित रखा। इन राजाओं के शिलालेखों पर इनके नामों के साथ “देव पुत्रस्य राजात् राजस्य शाहे” लिखा मिलता है। इलाहाबाद के स्तम्भ पर भी “देवपुत्र शाही-शाहनशाही” लिखा हुआ है। इस स्तम्भ पर समुद्रगुप्त के साथ शाही वंश के राजा की सन्धि का उल्लेख है।

सम्राट् कनिष्क ने भारतवर्ष के व्यापार को बड़ा उन्नत किया। इसने रोम, आंध्र, चीन और पार्थियन आदि बड़े-बड़े साम्राज्यों के साथ समुद्री तथा हवाई मार्गों से व्यापार करके भारत की आर्थिक दशा को बढ़ाकर इसे धनाढ्य बना दिया। इस सम्राट् ने पेशावर में लकड़ी का एक 400 फुट ऊंचा स्तूप बनवाया जो अपनी सुन्दरता में अद्वितीय था। कनिष्क ने 78 A.D. में शक संवत् प्रचलित किया।

सम्राट् कनिष्क एक ऊंचा विशालकाय योद्धा था जिसने 42 वर्ष तक शासन किया और जिसे 105 वर्ष की आयु में उसके सेनापतियों ने 162 ई० में धोखे से मार दिया। इस सम्राट् के दो पुत्र वासिष्क व हुविष्क थे।

वासिष्क - कनिष्क के मरने के बाद उसका पुत्र वासिष्क शासक बना। यह पिता की अनुपस्थिति में भी राज्य कार्य सम्भालता था। कुछ इतिहासज्ञों का कहना है कि इसका राज्य-काल कनिष्क के राज्य-काल के अन्तर्गत था। मथुरा के पास ईसापुर में इसका एक लेख पत्थर के यज्ञ-स्तम्भ पर लिखा मिला है जोकि अब मथुरा के अजायबघर में है। उस पर इसे “महाराज राजाधि राज देवपुत्र शाही वासिष्क” लिखा हुआ है।

हुविष्क - वासिष्क के बाद कनिष्क का राज्य उसके छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसका शासन सन् 162 ई० से 182 ई० तक रहा। इसने अपने विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इसने कश्मीर में अपने नाम पर हुष्कपुर नामक नगर बसाया। जब ह्वानचांग कश्मीर गया तब इसी नगर के विहार में ठहरा था। इसके सोने, चांदी के सिक्के मिलते हैं जिन पर यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इन सिक्कों पर ‘हूएरकस’ लिखा मिलता है।

वासुदेव - हुविष्क की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वासुदेव राजगद्दी पर बैठा। इसका शासन


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सन् 182 से 220 ईस्वी तक रहा। इसके जो लेख मिलते हैं उनमें इसकी उपाधि “महाराजा राजाधिराज देवपुत्र शाही वासुदेव” मिलती है। इसके सिक्के सोने, चांदी, तांबे के मिलते हैं जिन पर एक ओर इसकी मूर्ति और दूसरी ओर शिव मूर्ति बनी हुई होती है। इसके समय में कुषाण साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था1

कुषाण साम्राज्य का अन्त -

वासुदेव के उत्तराधिकारी बड़े दुर्बल थे जो कि इस विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असफल रहे। भारत में गंगा-यमुना एवं मध्य प्रदेश के क्षेत्रों से भारशिव-नागवंश (जाटवंश) के राजाओं ने कुषाणों के शासन का अन्त कर दिया और सातवाहनों (शातकर्णी जाटवंश) ने दक्षिण पथ से कुषाणों को उखाड़ दिया। राजस्थान में मालव गण (जाटवंश) तथा पंजाब, हरयाणा में यौधेय (जाटवंश) तथा कुणिन्द गणों ने स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली जिसके कारण वहां से भी कुषाणों के प्रभुत्व का अन्त हो गया। पर अफगानिस्तान तथा उत्तर पश्चिमी भारत इस समय भी कुषाणों की अधीनता में रहे और उनके “देवपुत्र शाहिशाहानुशाही” राजाओं का शासन वहां कायम रहा। सम्राट् समुद्रगुप्त (335 ई० से 375 ई० धारण गोत्र के जाट) ने अपनी दिग्विजय द्वारा इन कुषाण राजाओं को जीतकर, कर (टैक्स) लगाया। समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380 से 413 ई०) ने गांधार, कम्बोज (अफगानिस्तान तथा उसके परे का प्रदेश) तथा वाह्लीक (बल्ख) के प्रदेशों को कुषाणों से जीतकर अपने राज्य की सीमा को अमू दरिया तक विस्तृत किया। परन्तु गुप्तवंश के शासक इन प्रदेशों को देर तक अपने अधीन नहीं रख सके, हूणों ने इनको जीत लिया।

इसी समय ईरान में सासानी वंश के राजाओं ने अपने शक्ति बढ़ा ली और मध्य एशिया के कई कुषाण प्रदेशों को विजय कर लिया। मध्य एशिया के प्रदेशों से कुषाणों के शासन का अन्त करने में प्रधान कर्तृत्व ज्वान-ज्वान या जू-जुन लोगों का था। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 45 पर बी० एस० दहिया ने जन्जौ-जनजौन जाटवंश लिखा है)।

कुषाणों की निर्बलता से लाभ उठाकर उन्होंने मध्यएशिया में दूर-दूर तक आक्रमण किए, और सुग्ध देश को विजय कर बल्ख में भी प्रवेश किया। यह देश उस समय (चौथी सदी में) ईरान के सासानी सम्राट् के अधीन था। जू-जुन लोगों से उसके अनेक युद्ध हुये। अन्त में जू-जुन लोगों का शासन वहां पर हो गया। इस प्रकार मध्य एशिया से कुषाणों का शासन पूर्ण रूप से उठ गया। पर अफगानिस्तान और पश्चिमी गांधार बाद में भी उनके हाथों में रहे। पांचवीं सदी में हूणों ने ये जीत लिये2

नोट - जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 14 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि कुषाण जाटों


1. कुषाण जाट राज्य के आधार लेख - (1) ठा० देशराज लिखित जाट इतिहास पृ० 199 से 203; (2) जाटों का उत्कर्ष पृ० 345-46, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 256, 275; (3) भारत का इतिहास पृ० 67-69, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; (4) मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति, पृ० 12, 57-59, 80-82, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकर।
2. मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति पृ० 81, ले० सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-370


के राज्य से व्यापारी चीनी व शीशे की वस्तुएं लेकर पांचवीं सदी में चीन के सम्राट् ताईवी (425-451 ई०) के दरबार में पहुंचे और उसको सूचना दी कि महान् जाटों ने अपने नेता किदार के नेतृत्व में पेशावर व गांधार पर अधिकार कर लिया है। (Paul Peliot Op, cit, PP. 42-43)।

श्वेत हूण या हेफताल जाट राज्य -

पिछले पृष्ठों पर इसी अध्याय के श्वेत हूण या हेफताल प्रकरण में प्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि ये लोग जाट थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये लोग शक (जाटवंश) जाति के थे, पर हूणों के सम्पर्क में रहने से उनके रहन-सहन तथा संस्कृति पर हूणों का बहुत प्रभाव हो गया था।

कुषाणों का शासन अन्त करने में जू-जुन (जन्जौ जाट) लोगों का बड़ा योगदान था। इन लोगों ने कुषाणों को हराकर मध्यएशिया के कई प्रदेशों पर अपना शासन स्थापित कर लिया। मध्यएशिया के अन्य देशों पर कई अन्य जातियों का राज्य था।

पांचवीं सदी के प्रारम्भ काल में इन शक्तिशाली श्वेत हूणों ने मध्यएशिया के प्रायः सभी प्रदेशों पर आक्रमण शुरु कर दिये। ये लोग तिएनशान पर्वतमाला के उत्तर से होते हुए पश्चिमी मध्यएशिया पहुंच गए, और फिर ताशकन्द से दक्षिण की ओर मुड़कर सिर नदी को पार करके सुग्ध (या सोग्डियान) तथा बल्ख पर अधिकार कर लिया। इस समय बल्ख ईरान के सासानी सम्राटों की अधीनता स्वीकार करता था। अतः इन सम्राटों ने श्वेत हूणों की बाढ़ को रोकने के लिए उनके विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा जो कि लगभग एक सदी तक चलता रहा। श्वेत हूणों से युद्ध करते हुए दो सासानी सम्राट् होरमुज़्द 454 ईस्वी में और फिरोज 484 ईस्वी में मारे गये। अब श्वेत हूण मध्यएशिया की प्रधान राजनैतिक शक्ति बन गये थे। सासानियों को परास्त कर उन्होंने अफ़गानिस्तान पर आक्रमण किया और वहां से पंजाब होते हुए वे भारत के मध्यदेश तक चले आये। स्कन्दगुप्त (धारण गोत्र का जाट सन् 455-467 ई०) ने हूणों का सामना करने में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित किया और उनसे अपने साम्राज्य की रक्षा की। पर इस समय मध्यएशिया पर श्वेत हूणों का प्रभुत्व भलीभांति स्थापित हो गया था जिनकी राजधानी बोखारा के समीप थी। श्वेत हूणों के केवल दो राजाओं के नाम तोरमान और मिहिरकुल भारत में उपलब्ध हुए हैं। इनका वर्णन भारतवर्ष में जाट राज्य के प्रकरण में लिखा जाएगा1। भारत और ईरान की उन्नत सभ्यताओं के सम्पर्क में आकर श्वेत हूण भी अच्छे सभ्य व सुसंस्कृत हो गये थे और घुमन्तु जीवन का परित्याग कर नगरों में रहने लग गये थे। पर अपने पूर्ववर्ती ऋषिक-तुषार, शक आदि जाटों के समान वे भी देर तक मध्यएशिया में शान्तिपूर्वक निवास न कर सके। तुर्क लोगों ने इनकी शक्ति का अन्त कर दिया।

तुर्कों का राज्य -

पिछले पृष्ठों पर तुर्किस्तान एवं तुर्क की परिभाषा की गई है जिसका सारांश यह है - चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु के शासित देश का नाम तुर्किस्तान-तुर्की पड़ा तथा तुर्वसु


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति पृ० 82, ले० सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-371


के नाम पर तंवर-तोमर जाटवंश प्रचलित हुआ। इस देश में बसे चन्द्रवंशी आर्यों का नाम उनके सौन्दर्य के कारण ‘तुर्वसु’ तथा भाषाभेद से बाद में तुर्की पड़ा। अतः तुर्क लोग जाट हैं*

(जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 4 पर लिखा है कि “तुरवंश (तंवर) की प्रधानता के कारण इस विशाल भूमिखण्ड का नाम तुर्किस्तान पड़ा। जब यहां तातराण (जाटवंश) वंश की प्रधानता हुई तब यह देश तातारी कहलाया।” इसी लेखक ने पृ० 29 पर लिखा है कि “तुर्क शब्द छठी-सातवीं शताब्दियों में प्रचलित हुआ। कुषाणों के शासन काल में यह शब्द प्रचलित नहीं था। मंगोलिया में अल्ताई पर्वत के क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों को सन् 551 ई० में चीनियों ने तुकियू तथा दूसरों ने तुर्क कहा। 551 ई० में पहले इस तुर्क शब्द का प्रयोग नहीं था।”

सत्यकेतु विद्यालंकार की लिखित पुस्तक “मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति” के आधार पर –

“चीन के उत्तर पश्चिम में निवास करनेवाली हूण जाति का एक कबीला तुर्क था, जिसका पुराना नाम अस्सेना था। इस कबीले के लोग नुकीली टोपी पहना करते थे, जिसके कारण वे दुर-पो कहलाने लगे। दुर-पो ही आगे बिगड़कर तिर्क या तुर्क हो गया। इस तुर्क कबीले में एक वीर पुरुष बूमिन नामक हुआ। मध्य एशिया से कुषाणों की शक्ति का अन्त करने का प्रधान कर्तृत्व ज्वान-ज्वान (जन्जौ जाट) लोगों का था। समयान्तर में जब इनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी, तो तुर्कों ने बूमिन के नेतृत्व में ज्वान-ज्वान लोगों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। उसे परास्त कर बूमिन ने अपने को खागान, कगान या खान घोषित कर दिया। तुर्क लोग राजा के लिए इसी शब्द का प्रयोग करते थे। (पृ० 82-83)।”

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 67 पर लिखा है कि “खान मुस्लिम पदवी नहीं है। यह मुसलमानों से पहले मध्यएशिया में बौद्ध-धर्मी राजाओं ने अपनाई थी। यह खाकन/कागन/खान शब्द से खान पदवी बनी। भारतवर्ष में यह खान पदवी 14वीं सदी में प्रयोग में लाई गई।”

522 ई० में जब बूमिन की मृत्यु हुई, तब तुर्क कबीला बहुत शक्तिशाली हो चुका था। तुर्कों ने अब शकों, युइशियों तथा श्वेत हूणों (तीनों जाटवंश) के मार्ग का अनुसरण कर पश्चिम की ओर अपनी शक्ति का विस्तार प्रारम्भ किया और कुछ ही समय में तकला मकान मरुभूमि के उत्तर तथा पश्चिम के मध्यएशिया के सब प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इनके साम्राज्य की पश्चिमी सीमा कालासागर तक पहुंच गई।

मध्यएशिया के तुर्क राजाओं (खानों) में तोबा खान का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है। उसका शासनकाल सन् 569 ई० 580 ई० तक था। उसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि उसने बौद्ध-धर्म को स्वीकारा और तुर्कों में बौद्ध-धर्म के प्रचार के लिए बहुत कार्य किए।

स्यान-पी हूणों की एक शाखा का वंश था, जिसके नेतृत्व में यह जाति इसिककुल झील के


  • - जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 119 पर लेखक बी० एस० दहिया ने लिखा है कि तुर या तातरान को मध्य एशिया में तुर्क तातार कहा गया जो कि जाट गोत्र है, जिनका छठी सदी एवं बाद में भी अमू दरिया घाटी में शक्तिशाली शासन रहा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-372


समीपवर्ती प्रदेशों से होती हुई अरल सागर, काला सागर तथा डेन्यूब नदी तक जा पहुंची थी।

तोबा-खान की बौद्ध-धर्म में इतनी रुचि हो गई थी कि उसने अनेक स्तूपों का भी निर्माण करवाया और बौद्ध-धर्म को फैलाया। मध्यएशिया के सुविस्तृत प्रदेशों पर शासन करनेवाले ये तुर्क कबीले उसी प्रकार भारतीय धर्म तथा संस्कृति के प्रभाव में आ गये जैसे कि उससे पहले की यूइशि, शक आदि (जाट) जातियां आई थीं।

तोबा खान के पश्चात् मध्यएशिया का विशाल साम्राज्य दो भागों में विभक्त हो गया। तोबा खान के पुत्र शेतू शेबोलियो (582-587 ई०) ने साम्राज्य के पूर्वी प्रदेशों पर अपना शासन स्थापित किया और भतीजे दालोब्यान ने पश्चिमी प्रदेशों में। इसी के वंशज तुन-शेखू खान के शासनकाल में चीनी यात्री ह्यु-एन-त्सांग पश्चिमी तुर्क साम्राज्य में भी गया था और वहां उसने इस तुर्क राजा से भेंट की थी। ह्यु-एन-त्सांग लिखता है कि तुन-शेखू खान अग्निपूजक था। पर पूर्वी तुर्कों ने बौद्ध-धर्म अपना लिया था। मध्यएशिया के पश्चिमी प्रदेशों का सम्पर्क ईरानियों और यूरोपियन लोगों के साथ भी था। उन दिनों ईरान में पारसी (जरदुस्थी) धर्म का प्रचार था और यूरोप में इसाई धर्म का। पश्चिमी तुर्क इन धर्मों के सम्पर्क में भी आये। इसीलिए मध्यएशिया के पश्चिमी प्रदेशों में बौद्ध-धर्म के साथ साथ पारसी तथा ईसाई धर्म भी पनपने लग गये थे (पृ० 83-84)।

इस्लाम धर्म एवं साम्राज्य

सन् 570 ई० में अरब में एक महापुरुष का जन्म हुआ, जिसका नाम मुहम्मद था। उसके द्वारा एक नये धर्म का प्रारम्भ किया गया जिसे इस्लाम कहते हैं। हजरत मुहम्मद केवल धर्मप्रवर्तक ही नहीं थे बल्कि उन्होंने छोटे-छोटे अनेक राज्यों का अन्त करके एक शक्तिशाली अरब राष्ट्र का भी निर्माण किया था। उनके उत्तराधिकारियों ने अरब की इस शक्ति का उपयोग साम्राज्य के विस्तार के लिये किया और मुस्लिम खलीफाओं ने चारों दिशाओं में आक्रमण शुरु कर दिये। कुछ ही समय में सीरिया, मिश्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन और ईरान अरबों के अधीन हो गये। 712 ई० में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरब सेना ने सिन्ध प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया। वे ईरान से उत्तर-पूर्व की ओर मध्यएशिया के क्षेत्र में भी अग्रसर हुए। वहां का बड़ा भाग उन दिनों तुर्कों के शासन में था जो कि बौद्ध-धर्मी थे। तकलामकान मरुस्थल के दक्षिण तथा उत्तर दोनों ओर उस समय ऐसे नगरों तथा बस्तियों की सत्ता थी जिनमें भारतीय भी बड़ी संख्या में निवास करते थे।

मुस्लिम अरब लोगों में अपने धर्म के लिए अनुपम उत्साह था और वे मुहम्मद के धर्म का सर्वत्र प्रसार करने के लिये कटिबद्ध थे। इसी का परिणाम हुआ कि उन्होंने मध्यएशिया को न केवल युद्ध के क्षेत्र में ही परास्त किया अपितु वहां के धर्म तथा संस्कृति को पराभूत कर वहां के निवासियों को मुसलमान बनाने में भी सफलता प्राप्त की। मध्यएशिया के तत्कालीन तुर्क शासक वीरता में अरबों से किसी प्रकार कम नहीं थे, पर उनमें एकता व संगठन न था। यही कारण था कि तुर्क लोग अरबों के सम्मुख नहीं टिक सके।

सातवीं सदी के उत्तरार्ध में अरबों ने ईरान के उत्तर-पूर्व में आगे बढ़कर हिरात और बल्ख को जीत लिया था। फिर अमू दरिया को पार करके बोखारा और बैकन्द पर आक्रमण किया। उन


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-373


दिनों बैकन्द व्यापार का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था तथा वहां अपार सम्पत्ति थी।

अरब सेनापति कुतैब ने इस नगरी को बुरी तरह लूटा। इसके पश्चात् कुतैब सिर दरिया की ओर बढा और सुग्ध देश को जीतकर अरब साम्राज्य में मिला लिया। मध्यएशिया के तुर्क शासक अरबों से परास्त होकर न केवल उनकी अधीनता अपितु उनके धर्म को भी स्वीकृत करने को विवश हो गये। अरब लोग विविध नगरों को आक्रान्त करते हुए न वहां के धर्ममन्दिरों की परवाह करते थे और न स्त्रियों तथा बच्चों की।

बौद्ध विहारों, चैत्यों तथा अन्य धर्मस्थानों को लूटने तथा उनका ध्वंस करने में उन्होंने जरा भी संकोच नहीं किया। स्त्रियों और बच्चों को उन्होंने गुलाम बनाया, और विधर्मी श्रमणों तथा पुरोहितों को मौत के घाट उतारा। उनके आक्रमणों द्वारा मध्यएशिया में न केवल वहां के तुर्क शासक अपितु अन्य जातियों के लोग भी इस्लाम को स्वीकार करने के लिए विवश किए गये।

मुसलमान बन जाने पर अनेक तुर्क सरदारों ने अरबों द्वारा सेना तथा शासन में उच्च पद प्राप्त कर लिये थे और मध्यएशिया के जो प्रदेश अरब खलीफाओं के साम्राज्य में थे, उनके शासन में इन मुस्लिक तुर्कों को महत्तवपूर्ण स्थिति प्राप्त थी। बाद में जब अरब साम्राज्य में शिथिलता आने लगी, तो मध्यएशिया के तुर्क सरदार या खान स्वतन्त्र हो गये। पामीर और कराकुरम पर्वतमालाओं के पूर्वी देशों में जिन तुर्कों ने अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ था, दसवीं सदी तक उन्होंने भी इस्लाम की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। मध्य एशिया में इस्लाम के प्रवेश एवं प्रसार का यह परिणाम हुआ कि वहां से भारतीय धर्म तथा संस्कृति का लोप हो गया।

मध्यएशिया में भारतीयों द्वारा जिन धार्मिक तथा दार्शनिक मन्तव्यों का विकास किया गया था, इस्लाम भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। सूफी सम्प्रदाय का प्रारम्भ मध्यएशिया में ही हुआ था और इस सम्प्रदाय पर आज भी भारत के प्राचीन दार्शनिक विचारों का प्रभाव स्पष्ट रूप में विद्यमान है।

दसवीं और ग्यारहवीं सदियों में मध्यएशिया के क्षेत्र में इस्लाम के अनुयायी तुर्क खान विधर्मी खानों से निरन्तर संघर्ष करते रहे। अन्त में वे विजयी हुए और मुस्लिम तुर्कों ने अरबों के मुकाबले में भी अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली। तुर्कों की एक शाखा ने एशिया माइनर तक अपने प्रभुत्व को स्थापित कर लिया और 15वीं सदी में पूर्वी रोमन साम्राज्य का अन्त करके बाइजेण्टियम को अपना केन्द्र बनाया। मुस्लिम तुर्कों द्वारा ही खोतन प्रदेश के समृद्ध एवं शक्तिशाली राज्य का अन्त किया गया, जिसके कारण ग्यारहवीं सदी में मध्यएशिया से बौध-धर्म तथा भारतीय संस्कृति का ह्रास प्रारम्भ हो गया।

अरब आक्रमणों से बल्ख नगरी का विनाश हो गया था। तुखार देश (तुषार-ऋषिक जाटों का देश) की इस प्रसिद्ध बल्ख नगरी का अन्तिम रूप से विनाश चौदहवीं सदी में चंगेजखां की मंगोल सेनाओं ने किया था1

चंगेजखां का आक्रमण -

चंगेजखां बोगदावत गोत्र का जाट था जिसका जन्म मंगोलिया देश में उमन नदी के निकट


1. मध्य एशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति पृ० 84-86, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-374


दिलूम वोल्दक नामक स्थान पर हुआ था। 13 वर्ष की अवस्था में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसने बड़ी कठिनाईयों का सामना करके सन् 1203 ई० में खान का पद प्राप्त किया।

यह बड़ा वीर, निर्भय और साहसी योद्धा था। इसकी सेना में 30,000 जाट सैनिक तथा 20,000 भारतीय मूल के सैनिक थे जिनका सेनापति बेला नैन (गोत्र नैन) जाट था। चंगेजखां के विषय में कहावत प्रसिद्ध है कि वह युद्धकला में सर्वश्रेष्ठ था। उसने मंगोलिया को विजय कर लिया और अपनी विशाल व शक्तिशाली सेना के साथ आक्रमण करके चीन को रौंद डाला तथा मध्यएशिया के मुस्लिम प्रदेशों को लूट लिया और उजाड़ दिया। बल्ख, बोखारा, समरकन्द तथा अनेक सुन्दर नगरों को नष्ट कर दिया। जब चंगेजखां ने ख्वारिज्म के अन्तिम शाह जलालुद्दीन पर आक्रमण किया तो वह भारत की ओर भाग गया। उसने सिन्ध नदी पर पड़ाव डाला और मंगोलों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुआ। उसने दिल्ली सल्तनत के बादशाह अल्तमश (सन् 1211-1236 ई०) से सहायता मांगी परन्तु उसने इन्कार कर दिया। अन्त में सन् 1221 ई० में जलालुद्दीन को चंगेजखां की सेना ने हरा दिया। कुछ सैनिकों को साथ लेकर उसने भागकर जान बचाई। खोखरों (जाटवंश) से मिलकर उसने नासिरूद्दीन कुबैचा पर आक्रमण किया और उसे मुलतान के दुर्ग में से भगा दिया। कुछ समय बाद वह फारस पहुंचा। वहां समाचार मिला कि इराक की सेना उसकी सहायता के लिए प्रस्तुत है। परन्तु एक क्रोधित व्यक्ति ने उसको मार डाला, जिसके भाई का पहले उसने वध करा दिया था।

चंगेजखां ने अफगानिस्तान को उजाड़ दिया और हिरातपैशावर पर अधिकार कर लिया। उसने भारतवर्ष पर आक्रमण करके लूटमार का इरादा किया परन्तु मंगोलों से भारत की गर्मी सहन न हुई और वे सिन्ध नदी के पश्चिम की ओर से ही लौट गये। इस प्रकार भारत एक बड़ी विपत्ति व तबाही से बच गया, और अब अल्तमश देश के अन्य शत्रुओं से युद्ध करने की ओर दत्तचित्त हुआ1

चंगेजखां के आक्रमण के समय अब्बासी वंश के खलीफा का शासन अरब देशों पर था जिसकी राजधानी बगदाद थी। अब्दुल अब्बास के नाम पर इस अब्बासी वंश के लोगों ने सन् 749 ई० में उमैया वंश के मुसलमान बादशाहों (खलीफा) की राजधानी दमिष्क पर आक्रमण करके उन्हें हरा दिया और दमिष्क शहर को फूंक दिया और इस खानदान के 14 बादशाहों की कब्रों से हड्डियां निकालकर जला दीं तथा इस वंश के सब बाल बच्चों को कत्ल कर डाला। इस अब्बासी वंश के खलीफाओं ने बगदाद को अपनी राजधानी बनाकर सन् 749 से 1256 ई० तक अरब देशों पर शासन किया।

चंगेजखां के आक्रमण के बाद सन् 1256 ई० में उसके पौत्र हलागू (हलाकूखां) ने आक्रमण करके अब्बासी वंश के अन्तिम खलीफा अलमुस्तासिम को युद्ध में परास्त कर दिया और बगदाद पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार खलीफा के पद का अन्त हो गया और उसके उत्तराधिकारी मिश्र


1. सहायक पुस्तक - (1) मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 80-81, लेखक ईश्वरीप्रसाद। (2) हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 74-75. (3) जाट्स दी ऐनशनट् रूलर्ज पृ० 60 लेखक बी० एस० दहिया।


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में चले गये1

चंगेजखां के आक्रमण से डरकर बग़दाद के खलीफा ने उसके आने से पहले बग़दाद से धार्मिक एवं ऐतिहासिक साहित्य, शिल्पकला तथा वैद्यक से सम्बन्धित सामग्री मिश्र की राजधानी काहिरा पहुंचा दी थी जो आज भी वहां के विशाल विश्वविद्यालय में विद्यमान है। 1959 में हमारी नं० 2 ग्रेनेडियरज़ पलटन गाज़ा पट्टी (मिश्र) में थी। वहां से मैं कुछ सैनिकों सहित काहिरा गया था। वहां मैं इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में गया और वहां के तत्कालीन उपकुलपति प्रोफेसर मुस्तफाखां ने मुझे यह सब बातें बताईं तथा सब सामग्री भी दिखलाई (लेखक)।

तैमूर लंग और जाट

तैमूर का जन्म सन् 1336 ई० में मावराउन्नहर में केश नामक स्थान पर हुआ था जो समरकन्द से 50 मील दूर है। इसका पिता अमीर तुरगे (तराग़ी) तुर्कों के उच्चवंश गुरकन शाखा का प्रधान था। 33 वर्ष की आयु में वह चगताई तुर्कों का प्रधान बन गया। उसने समरकन्द को अपनी राजधानी बनाया। बाल अवस्था में ही उसकी एक टांग लंगड़ी हो गई थी इसलिए उसे तमर लंग या तैमूर लंग कहते हैं। (नोट - यह चगताई जाटवंश है जो कि चट्ठा जाटवंश का अपभ्रंश है। इसके लिये देखो अध्याय 3, चगता जाटवंश प्रकरण)।

उस समय में मध्यएशिया में जाटों की बड़ी शक्ति थी जिनसे तैमूर को युद्ध करना पड़ा। फारस के इतिहास के अनुसार -

“उस समय मंगोलिया या जाटेह का राज्यपाल तुग़लक़ खां था जो औधलान गोत्र का जाट था और बौद्ध-धर्म का अनुयायी था। उसको ज्ञात हुआ कि समरकन्द पर बलवा (अशासन) से अधिकार कर लिया है तो उसने इसे लेने का विचार किया। इस उद्देश्य से उसने सन् 1360 ई० में केश स्थान पर प्रस्थान किया। वहां पर तैमूर का चाचा हाज़ी बरलास था जो आक्रमण से डरकर फारस में खुरासान को भाग गया जो बाद में वहां मारा गया। तुग़लक खां ने समरकन्द पर अधिकार कर लिया। कुछ समय पश्चात् तैमूर ने तुग़लक़ खां से उसका सेवक रहने की प्रार्थना की। उसने अपने पुत्र खोजा (औधलान) को समरकन्द का राज्यपाल तथा तैमूर को उसक मन्त्री नियुक्त कर दिया।” (OP. cit, Vol. II, P. 119 के हवाले से (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 67 पर लेखक बी० एस० दहिया)।

तैमूर ने गुप्त ढंग से अपनी सैनिक शक्ति को बढ़ाया और समरकन्द राज्य पर अधिकार कर लिया। वह एक वीर योद्धा, साहसी तथा युद्धकला में निपुण था। उसने अपनी सैनिक शक्ति के बल पर पड़ौसी राज्यों पर आक्रमण शुरु कर दिए। जाटों ने उसको एक युद्ध में करारी हार दी, जिस का उद्धरण “तैमूर लंग की विजयें” नामक पुस्तक में इस प्रकार से है -

मध्यएशिया में जाट सेनापति बीकीजुक के नेतृत्व में जाटों ने तैमूर व उसकी तुर्क सेना को बुरी तरह से परास्त कर दिया, जिससे जान बचाने के लिये वे भाग गये। समरकन्द का प्रधान मुल्ला (मौलवी) जैनुद्दीन तैमूर को कहता है कि ‘मैं जान बचाने के लिये यहां छुपा हुआ हूं, जहां

1. सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड शोरम जि० मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत के घर पर।


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पर तुमने मुझे तलाश कर लिया। हमारे बहुत बुरे दिन आये। बोखारा, खोजन्द तथा करशी आदि स्थानों पर यही दशा है। हमारा नेतृत्व करने के लिए एक भी तातार राजकुमार नहीं है। केवल तुम ही एक साहसी राजकुमार हो। जाटों की शक्ति का मुकाबला करो।’ तैमूर जैनुद्दीन मुल्ला को कहता है कि ‘मैंने अल्लाह के नाम पर एक बार जाटों से युद्ध कर लिया, यह आपत्ति दोबारा मोल लेना नहीं चाहता। आप जाटों पर आपत्ति लाने के लिए खुदा से प्रार्थना करो।’ आगे तैमूर कहता है कि - उनके घोड़ों पर आपत्ति लाने के लिए प्रार्थना करो। घोड़ों के बिना जाट शक्तिहीन हो जायेंगे।” (Autobiography of Timur, English translation by Major Stewart (1830) from Persian Malfuzat-i-Timur by Abu Talib Husaini)।

किसी कारणवश जाटों के घोड़ों में भयंकर रोग फैल गया जिससे वे काफी संख्या में मर गये। इस कारण से जाटों को अपनी युद्ध सामग्री अपने सिरों पर उठाकर पैदल चलकर युद्ध करना पड़ा। अन्त में तैमूर की विजय हुई। मध्यएशिया में जाटों पर विजय प्राप्त करके ही तैमूर भारतवर्ष तक आ सका और दिल्ली को लूटा1

जाटों के देश तुरष्क (तुर्किस्तान) में चंगेज खां की चढ़ाई के समय तक बड़े-बड़े नगर विद्यमान थे। उस समय मध्यएशिया (तुर्किस्तान) में जाटों की सभ्यता सर्वश्रेष्ठ थी। कर्नल टॉड इन जाटों के सम्बन्ध में लिखता है कि “साईरस के समय में ईसा से 600 वर्ष पहले इस बड़ी गेटिक (जाट) जाति के राजकीय प्रभाव की यदि हम परीक्षा करें तो यह बात हमारी समझ में आ जायेगी कि तैमूर की उन्नत दशा में इन जाटों का पराक्रम ह्रास (कम) नहीं हुआ था।” यद्यपि 20वीं शताब्दी का समय व्यतीत हो चुका था2

जाटों को परास्त करके तैमूर ने अपनी राजधानी समरकन्द में स्थापित की। उसने अपनी विशाल सेना से तुर्किस्तान, फारस, अफगानिस्तान आदि देशों को जीतकर भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया जो उस समय बड़ी अव्यवस्थित दशा में था। दिल्ली सल्तनत पर तुगलक वंश का अन्तिम बादशाह महमूद तुगलक था जो कि एक निर्बल शासक था। भारत में फैली हुई अराजकता को दबाने में वह असफल था। इस दशा से लाभ उठाते हुए तैमूर ने भारत पर आक्रमण कर दिया। तैमूर ने सबसे पहले अपने पौत्र पीर मुहम्मद को सेना के अग्रभाग का सेनापति बनाकर भेजा। उसने सिन्ध को पार कर कच्छ को जीत लिया। उसने आगे बढ़कर मुलतान, दिपालपुर और पाकपटन को जीत लिया। इसके बाद वह सतलुज नदी तक पहुंच गया जहां वह अपने दादा के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तैमूर ने 92000 घुड़सवारों के साथ 24 सितम्बर 1398 ई० में हिन्दुकुश मे मार्ग से आकर सिन्ध को पार किया। वह पेशावर से मुलतान पहुंचा। वहां से आगे बढ़ने पर खोखर जाटों से इसकी सख्त टक्कर हुई जिनको परास्त करके वह सतलुज नदी पर अपने पौत्र से जा मिला। मुलतान युद्ध में तथा आगे मार्ग में जाटों ने तैमूर का बड़ी वीरता से मुकाबला किया था। अब उसने भटनेर पर आक्रमण कर दिया जहां से उस पर जाटों का आक्रमण होने का डर


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 61, लेखक बी० एस० दहिया।
2. जाट इतिहास पृ० 182, लेखक ठा० देशराज


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था। भटनेर की स्थिति भटिण्डा से बीकानेर जाने वाले मार्ग पर थी1

वाक़ए-राजपूताना, जिल्द 3 में लेखक मुंशी ज्वालासहाय ने लिखा है कि “भटनेर जो अब रियासत बीकानेर का भाग है, पुराने जमाने में जाटों के दूसरे समूह की राजधानी थी। ये जाट ऐसे प्रबल थे कि उत्थान के समय में बादशाहों का मुक़ाबला किया और जब आपत्ति आई, हाथ संभाले। भाटी जाटों की आबादी की वजह से इस इलाके का नाम भटनेर हुआ है। जो लोग मध्यएशिया से भारत पर आक्रमण करते थे, उनके मार्ग में स्थित होने से भटनेर ने इतिहास में प्रसिद्धि प्राप्त की है। तैमूर के आक्रमण का भी मुकाबिला किया।”

तैमूर ने भटनेर को जीत लिया और यहां पर अपने हाकिम चिगात खां को नियुक्त करके आगे को बढ़ा। इस हमले के थोड़े दिन बाद जाटों ने अपने राज्य को वापिस लेने हेतु अपने सरदार वीरसिंह या वैरीसाल के नेतृत्व में मारोट और फूलरा से निकलकर भटनेर पर आक्रमण कर दिया। विजय प्राप्त करके फिर से भटनेर को अपने अधिकार में ले लिया। (जाट इतिहास पृ० 596-597, लेखक ठा० देशराज)।

तैमूर के साथ जाटों ने बड़ी वीरता से युद्ध किए। इसीलिए तो उसने कहा था कि “जाट एक अत्यन्त मज़बूत जाति है। देखने में वे दैत्य जैसे, चींटी और टिड्डियों की तरह बहुत संख्या वाले और शत्रुओं के लिए सच्ची महामारी हैं।”

शाह तैमूर दस हजार चुनींदा सवारों के साथ जंगलों से भरे मार्गों से होकर टोहाना गांव में पहुंचा वह अपने विजय संस्मरणों में लिखता है कि “टोहाना पहुंचने पर मुझे पता लगा कि यहां के निवासी वज्र देहधारी जाति के हैं और ये जाट कहलाते हैं। ये केवल नाम से मुसलमान हैं, लेकिन डकैती और राहज़नी में इनके मुकाबिले की अन्य कोई जाति नहीं है। ये जाट कबीले सड़कों पर आने-जाने वाले कारवां को लूटते हैं और इन लोगों ने मुसलमान अथवा यात्रियों के हृदय में भय उत्पन्न कर दिया है।” प्रथम अभियान में तैमूर जाटों को शान्त नहीं कर सका और उसे आगे बढ़कर अधिक सैनिक शक्ति का प्रयोग करना पड़ा। आगे वह लिखता है कि “वास्तव में हिन्दुस्तान विजय का मेरा उद्देश्य मूर्तिपूजक हिन्दुओं के विरुद्ध धर्मयुद्ध संचालन करने तथा मुहम्मद के आदेश अनुसार इस्लाम धर्म कबूल करवाने का रहा है। अतः यह आवश्यक था कि मैं इन जाटों की हस्ती मिटा दूं।” तैमूर ने 2000 दैत्याकार जाटों का वध किया। उनकी पत्नी तथा बच्चों को बन्दी बनाया। पशु और धन सम्पत्ति लूटी। उनको दबाकर सन्तोष की श्वास ली। (ई० तथा डा० तुजुके तैमूरी भाग 3, पृ० 429 और शरफद्दीन अली यज्दी कृत जफ़रनामा, भाग 3, पृ० 492-493)।

भटनेर से तैमूर सरस्वती की ओर बढ़ा और समाना होता हुआ कैथल पहुंचा जहां से दिल्ली पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा। यहां से जब वह पानीपत पहुंचा तब तक महमूद तुग़लक अपने मन्त्री मल्लू इक़बाल को सारे अधिकार सौंपकर गुजरात को भाग गया था।


1. सहायक पुस्तक - मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास पृ० 161-163 लेखक ईश्वरीप्रसाद; हिन्दुस्तान का इतिहास उर्दू पृ० 186-189; जाटों का उत्कर्ष पृ० 115 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 596-598, लेखक ठा० देशराज।


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तैमूर लूटमार और अत्याचार करता हुआ जहां पनाह पहुंचा। यह रमणीक स्थान फिरोजशाह तुगलक ने दिल्ली से 6 मील दूर बनवाया था। उसने समीपस्थ क्षेत्र को रौंद डाला। जब वह दिल्ली के निकट पहुंचा तो उसने एक लाख हिन्दू कैदी जो उसके डेरे में थे, मौत के घाट उतरवा दिये। अब मल्लू इक़बाल एक सेना के साथ, जिसमें 40 सहस्र पैदल, 10 सहस्र अच्छे घुड़सवार और 125 तोपें थीं, मुकाबिले के लिए आगे बढ़ा। दिल्ली से बाहर दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हुई। हिन्दुस्तानी सैनिक जी तोड़कर लड़े, परन्तु हार गये। सेनापति मल्लू इक़बाल युद्धक्षेत्र से भाग गया। दिल्ली के दुर्ग पर तैमूर ने अपना झण्डा फहराया।

तैमूर ने क्रोधित होकर दिल्ली में भयंकर कत्ल-ए-आम एवं लूटमार का आदेश दे दिया। तुर्क़ सेना ने दिल्ली के लाखों नर-नारियों को तलवार के घाट उतार दिया। नरहत्या, लूट, सतीत्वहरण की दुष्क्रिया 5 दिन तक निरन्तर चली। जब असंख्य लाशों की दुर्गन्ध से देहली में रहना ही असम्भव हो गया, तब तैमूर ने मेरठ के मार्ग से लौटने की आज्ञा दी1</suo>।

तैमूर ने मेरठ के राज्यपाल अलयास अफगान को युद्ध में परास्त किया। वहां के 50 हजार नागरिकों का वध कराया तथा नगर के सब मकान गिरवा दिये। उन्हीं दिनों हरद्वार का प्रसिद्ध स्नान था। तैमूर ने हरद्वार पहुंचकर हजारों हिन्दुओं का वध कराया जिनके खून से एक बार गंगाजल भी लाल हो उठा था। वहां से काफी लूट का धन लेकर तैमूर शिवालिक की पहाड़ियों पर से होता हुआ जम्मू पहुंचा। वहां के राजा को हराकर मुसलमान होने के लिए बाध्य किया। तैमूर के भय से कश्मीर का राजा भी मुसलमान बन गया। अब तैमूर ने अपने देश को लौट चलने का इरादा किया। जाने से पहले उसने लाहौर, मुलतान और दीपालपुर की जागीरों का शासक खिज्रखां को नियुक्त कर दिया। भारत से चलकर तैमूर समरकन्द पहुंच गया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 163-164, ईश्वरीप्रसाद; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 189-190, जाटों का उत्कर्ष पृ० 115, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

परन्तु हरयाणा सर्वखाप पंचायत के ऐतिहासिक रिकार्ड, दस्तावेज-43 तथा सर्वखाप पंचायत के तत्कालीन चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) के लिखित लेखों (पोथी) के अनुसार (जो कि मेरे पास विद्यमान हैं, जिनको मैं सत्य मानता हूं - लेखक) तैमूर के साथ सर्वखाप पंचायत की सेना के युद्धों का वर्णन निम्नलिखित है -

तैमूर लंग ने मार्च सन् 1398 ई० में भारत पर 92000 घुड़सवारों की सेना से तूफानी आक्रमण कर दिया। तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा (जिसका जन्म निरपड़ा गांव जि० मेरठ में एक जाट घराने में हुआ था) की अध्यक्षता में हरयाणा सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगट और दाहा के मध्य जंगलों में हुआ।


1. सहायक पुस्तक - मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास पृ० 161-163 लेखक ईश्वरीप्रसाद; हिन्दुस्तान का इतिहास उर्दू पृ० 186-189; जाटों का उत्कर्ष पृ० 115, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 596-598, लेखक ठा० देशराज।


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सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये - (1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें।

पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में धर्मपालदेव जाट योद्धा जिसकी आयु 95 वर्ष की थी, ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उसने तथा उसके भाई करणपाल ने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया।

प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति

सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। यह खूबड़ परमार वंश का योद्धा था जो हरद्वार के पास एक गाँव कुंजा सुन्हटी का निवासी था। बाद में यह गाँव मुगलों ने उजाड़ दिया था। वीर जोगराजसिंह के वंशज उस गांव से भागकर लंढोरा (जिला सहारनपुर) में आकर आबाद हो गये जिन्होंने लंढोरा गुर्जर राज्य की स्थापना की। जोगराजसिंह बालब्रह्मचारी एवं विख्यात पहलवान था। उसका कद 7 फुट 9 इंच और वजन 8 मन था। उसकी दैनिक खुराक चार सेर अन्न, 5 सेर सब्जी-फल, एक सेर गऊ का घी और 20 सेर गऊ का दूध।

महिलाएं वीरांगनाओं की सेनापति चुनी गईं उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) रामप्यारी गुर्जर युवति (2) हरदेई जाट युवति (3) देवीकौर राजपूत युवति (4) चन्द्रो ब्राह्मण युवति (5) रामदेई त्यागी युवति। इन सब ने देशरक्षा के लिए शत्रु से लड़कर प्राण देने की प्रतिज्ञा की।

उपप्रधान सेनापति - (1) धूला भंगी (बालमीकी) (2) हरबीर गुलिया जाट चुने गये। धूला भंगी जि० हिसार के हांसी गांव (हिसार के निकट) का निवासी था। यह महाबलवान्, निर्भय योद्धा, गोरीला (छापामार) युद्ध का महान् विजयी धाड़ी (बड़ा महान् डाकू) था जिसका वजन 53 धड़ी था। उपप्रधान सेनापति चुना जाने पर इसने भाषण दिया कि - “मैंने अपनी सारी आयु में अनेक धाड़े मारे हैं। आपके सम्मान देने से मेरा खूब उबल उठा है। मैं वीरों के सम्मुख प्रण करता हूं कि देश की रक्षा के लिए अपना खून बहा दूंगा तथा सर्वखाप के पवित्र झण्डे को नीचे नहीं होने दूंगा। मैंने अनेक युद्धों में भाग लिया है तथा इस युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दे दूंगा।” यह कहकर उसने अपनी जांघ से खून निकालकर प्रधान सेनापति के चरणों में उसने खून के छींटे दिये। उसने म्यान से बाहर अपनी तलवार निकालकर कहा “यह शत्रु का खून पीयेगी और म्यान में नहीं जायेगी।” इस वीर योद्धा धूला के भाषण से


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-380


पंचायती सेना दल में जोश एवं साहस की लहर दौड़ गई और सबने जोर-जोर से मातृभूमि के नारे लगाये।

दूसरा उपप्रधान सेनापति हरबीरसिंह जाट था जिसका गोत्र गुलिया था। यह हरयाणा के जि० रोहतक गांव बादली का रहने वाला था। इसकी आयु 22 वर्ष की थी और इसका वजन 56 धड़ी (7 मन) था। यह निडर एवं शक्तिशाली वीर योद्धा था।

सेनापतियों का निर्वाचन - उनके नाम इस प्रकार हैं - (1) गजेसिंह जाट गठवाला (2) तुहीराम राजपूत (3) मेदा रवा (4) सरजू ब्राह्मण (5) उमरा तगा (त्यागी) (6) दुर्जनपाल अहीर।

जो उपसेनापति चुने गये - (1) कुन्दन जाट (2) धारी गडरिया जो धाड़ी था (3) भौन्दू सैनी (4) हुल्ला नाई (5) भाना जुलाहा (हरिजन) (6) अमनसिंह पुंडीर राजपुत्र (7) नत्थू पार्डर राजपुत्र (8) दुल्ला (धाड़ी) जाट जो हिसार, दादरी से मुलतान तक धाड़े मारता था। (9) मामचन्द गुर्जर (10) फलवा कहार।

सहायक सेनापति - भिन्न-भिन्न जातियों के 20 सहायक सेनापति चुने गये।

वीर कवि - प्रचण्ड विद्वान् चन्द्रदत्त भट्ट (भाट) को वीर कवि नियुक्त किया गया जिसने तैमूर के साथ युद्धों की घटनाओं का आंखों देखा इतिहास लिखा था।

प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर के ओजस्वी भाषण के कुछ अंश -

“वीरो! भगवान् कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जो उपदेश दिया था उस पर अमल करो। हमारे लिए स्वर्ग (मोक्ष) का द्वार खुला है। ऋषि मुनि योग साधना से जो मोक्ष पद प्राप्त करते हैं, उसी पद को वीर योद्धा रणभूमि में बलिदान देकर प्राप्त कर लेता है। भारत माता की रक्षा हेतु तैयार हो जाओ। देश को बचाओ अथवा बलिदान हो जाओ, संसार तुम्हारा यशोगान करेगा। आपने मुझे नेता चुना है, प्राण रहते-रहते पग पीछे नहीं हटाऊंगा। पंचायत को प्रणाम करता हूँ तथा प्रतिज्ञा करता हूँ कि अन्तिम श्वास तक भारत भूमि की रक्षा करूंगा। हमारा देश तैमूर के आक्रमणों तथा अत्याचारों से तिलमिला उठा है। वीरो! उठो, अब देर मत करो। शत्रु सेना से युद्ध करके देश से बाहर निकाल दो।”

यह भाषण सुनकर वीरता की लहर दौड़ गई। 80,000 वीरों तथा 40,000 वीरांगनाओं ने अपनी तलवारों को चूमकर प्रण किया कि हे सेनापति! हम प्राण रहते-रहते आपकी आज्ञाओं का पालन करके देश रक्षा हेतु बलिदान हो जायेंगे।

सैनिक दलबन्दी - पंचायती सेनाओं के योद्धा दिल्ली से मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर तथा हरद्वार तक फैल-फैल कर यथास्थान पहुंचकर इस सारे क्षेत्र में तैमूर की सेनाओं से भिड़ गये थे तथा उनसे छापामार युद्ध करके उन्हें ठहरने नहीं दिया था। शत्रुसेना को पहाड़ी मार्ग से भागने पर मजबूर कर दिया था और अम्बाला जिले तक उनका पीछा करके हरयाणा भूमि से बाहर धकेल दिया था।

दिल्ली युद्ध - जिस समय तैमूर दिल्ली को लूट रहा था तथा जनता को तलवारों के घाट


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-381


उतार रहा था तब पंचायती सेना के 20,000 वीरों ने रात्रि समय 3 बजे दिल्ली की 52,000 तैमूरी सेना पर भीषण आक्रमण कर दिया और तैमूर के 9000 सैनिकों को काटकर यमुना नदी में बहा दिया। प्रातःकाल होते ही यह पंचायती वीर सैनिक नगर की दीवारों से बाहर हो गये। इस प्रकार 3 दिन युद्ध होता रहा। तैमूर तंग आकर दिल्ली छोड़कर मेरठ की ओर बढ़ा।

मेरठ युद्ध - तैमूर ने अपनी बड़ी संख्यक एवं शक्तिशाली सेना, जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे, के साथ दिल्ली से मेरठ की ओर कूच किया। इस क्षेत्र में तैमूरी सेना को पंचायती सेना ने दम नहीं लेने दिया। दिन भर युद्ध होते रहते थे। रात्रि को जहां तैमूरी सेना ठहरती थी वहीं पर पंचायती सेना धावा बोलकर उनको उखाड़ देती थी। वीर देवियां अपने सैनिकों को खाद्य सामग्री एवं युद्ध सामग्री बड़े उत्साह से स्थान-स्थान पर पहुंचाती थीं। शत्रु की रसद को ये वीरांगनाएं छापा मारकर लूटतीं थीं। आपसी मिलाप रखवाने तथा सूचना पहुंचाने के लिए 500 घुड़सवार अपने कर्त्तव्य का पालन करते थे। रसद न पहुंचने से तैमूरी सेना भूखी मरने लगी। उसके मार्ग में जो गांव आता उसी को नष्ट करती जाती थी। तंग आकर तैमूर हरद्वार की ओर बढ़ा।

हरद्वार युद्ध - मेरठ से आगे मुजफ्फरनगर तथा सहारनपुर तक पंचायती सेनाओं ने तैमूरी सेना से भयंकर युद्ध किए तथा इस क्षेत्र में तैमूरी सेना के पांव न जमने दिये। प्रधान एवं उपप्रधान और प्रत्येक सेनापति अपनी सेना का सुचारू रूप से संचालन करते रहे। हरद्वार से 5 कोस दक्षिण में तुगलुकपुर-पथरीगढ़ में तैमूरी सेना पहुंच गई। इस क्षेत्र में पंचायती सेना ने तैमूरी सेना के साथ तीन घमासान युद्ध किए।

उप-प्रधानसेनापति हरबीरसिंह गुलिया ने अपने पंचायती सेना के 25,000 वीर योद्धा सैनिकों के साथ तैमूर के घुड़सवारों के बड़े दल पर भयंकर धावा बोल दिया जहां पर तीरों* तथा भालों से घमासान युद्ध हुआ। इसी घुड़सवार सेना में तैमूर भी था। हरबीरसिंह गुलिया ने आगे बढ़कर शेर की तरह दहाड़ कर तैमूर की छाती में भाला मारा जिससे वह घोड़े से नीचे गिरने ही वाला था कि उसके एक सरदार खिज़र ने उसे सम्भालकर घोड़े से अलग कर लिया। (तैमूर इसी भाले के घाव से ही अपने देश समरकन्द में पहुंचकर मर गया)। वीर योद्धा हरबीरसिंह गुलिया पर शत्रु के 60 भाले तथा तलवारें एकदम टूट पड़ीं जिनकी मार से यह योद्धा अचेत होकर भूमि पर गिर पड़ा।

  • (1) उसी समय प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर ने अपने 22000 मल्ल योद्धाओं के साथ शत्रु की सेना पर धावा बोलकर उनके 5000 घुड़सवारों को काट डाला। जोगराजसिंह ने स्वयं अपने हाथों से अचेत हरबीरसिंह को उठाकर यथास्थान पहुंचाया। परन्तु कुछ घण्टे बाद यह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया। जोगराजसिंह को इस योद्धा की वीरगति से बड़ा धक्का लगा।
  • (2) हरद्वार के जंगलों में तैमूरी सेना के 2805 सैनिकों के रक्षादल पर भंगी कुल के उपप्रधान सेनापति धूला धाड़ी वीर योद्धा ने अपने 190 सैनिकों के साथ धावा बोल दिया। शत्रु के काफी सैनिकों को मारकर ये सभी 190 सैनिक एवं धूला धाड़ी अपने देश की रक्षा हेतु वीरगति

  • . वहां पर 2000 से ऊपर पहाड़ी तीरन्दाज पंचायती सेना में मिल गये थे। एक तीर तैमूर के हाथ में लगा था।


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को प्राप्त हो गये।

  • (3) तीसरे युद्ध में प्रधान सेनापति जोगराजसिंह ने अपने वीर योद्धाओं के साथ तैमूरी सेना पर भयंकर धावा करके उसे अम्बाला की ओर भागने पर मजबूर कर दिया। इस युद्ध में वीर योद्धा जोगराजसिंह को 45 घाव आये परन्तु वह वीर होश में रहा। पंचायती सेना के वीर सैनिकों ने तैमूर एवं उसके सैनिकों को हरद्वार के पवित्र गंगा घाट (हर की पौड़ी) तक नहीं जाने दिया। तैमूर हरद्वार से पहाड़ी क्षेत्र के रास्ते अम्बाला की ओर भागा। उस भागती हुई तैमूरी सेना का पंचायती वीर सैनिकों ने अम्बाला तक पीछा करके उसे अपने देश हरयाणा से बाहर खदेड़ दिया।

वीर सेनापति दुर्जनपाल अहीर मेरठ युद्ध में अपने 200 वीर सैनिकों के साथ दिल्ली दरवाज़े के निकट स्वर्ग लोक को प्राप्त हुये।

इन युद्धों में बीच-बीच में घायल होने एवं मरने वाले सेनापति बदलते रहे थे। कच्छवाहे गोत्र के एक वीर राजपूत ने उपप्रधान सेनापति का पद सम्भाला था। तंवर गोत्र के एक जाट योद्धा ने प्रधान सेनापति के पद को सम्भाला था। एक रवा तथा सैनी वीर ने सेनापति पद सम्भाले थे। इस युद्ध में केवल 5 सेनापति बचे थे तथा अन्य सब देशरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुये।

इन युद्धों में तैमूर के ढ़ाई लाख सैनिकों में से हमारे वीर योद्धाओं ने 1,60,000 को मौत के घाट उतार दिया था और तैमूर की आशाओं पर पानी फेर दिया।

हमारी पंचायती सेना के वीर एवं वीरांगनाएं 35,000, देश के लिये वीरगति को प्राप्त हुए थे।

प्रधान सेनापति की वीरगति - वीर योद्धा प्रधान सेनापति जोगराजसिंह गुर्जर युद्ध के पश्चात् ऋषिकेश के जंगल में स्वर्गवासी हुये थे।

पाठक समझ गये होंगे कि हमारी वीरता के सत्य कारनामों को आज भी प्रकाशित नहीं किया जा रहा है।

नोट - जाट सम्राट् हर्षवर्धन (सन् 606 से 647 ई०) के बाद से लेकर भारतवर्ष की स्वतन्त्रता प्राप्ति तक की हरयाणा सर्वखाप पंचायती सेना की ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख अगले अध्यायों में उचित स्थान पर किया जायेगा। ये सर्वखाप पंचायती रिकार्ड मेरे पास काफी मात्रा में विद्यमान हैं जो कि मैंने हरयाणा सर्वखाप पंचायत के मन्त्री चौ० कबूलसिंह गांव शोरम जि० मुजफ्फरनगर के घर पर जाकर लिखकर ला रखे हैं। वहां उनके घर अब तक ये ऐतिहासिक रेकार्ड बड़ी मात्रा में सुरक्षित रखे हैं (लेखक)।

मध्यएशिया एवं सीथिया के शक, कुषाण, श्वेत हूण, मंगोल, तुर्क-तातार, मुग़ल और अरबों द्वारा भारतवर्ष पर किये गये आक्रमणों एवं राज्य के विषय में अगले अध्यायों में वर्णन किया जायेगा।

III. यूरोप तथा अफ्रीका

यूरोप तथा अफ्रीका में जिन जाटगोत्रों के निवास, शक्ति तथा शासन रहे उनमें से कुछ का ब्यौरा निम्नलिखित है -


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यूरोप में जाटों का प्रवेश -

पिछले पृष्ठों पर यह लिख दिया गया है कि भारतवर्ष से बाहर कहीं जाटों का अस्तित्व मिलता है तो उसकी जड़ भारत ही है। (मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण, पुस्तक)।

सीथिया देश के वर्णन में लिख दिया है इसकी पश्चिमी सीमा डैन्यूब नदी तक फैली हुई थे और शक जाटों के नाम से इस विशाल देश का नाम शकावस्ता पड़ा और बाद में अपभ्रंश सीथिया पड़ गया। इस देश के निवासी तथा शासक शक जाटों को सीथिया जाट कहा गया। शक एवं सीथियन जाट एक ही हैं।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 26-27 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “सीथियन लोगों को नक्शे पर काला सागर के पश्चिम की ओर डेन्यूब एवं डॉन नदियों पर दिखलाया है। शक और सीथियन एक ही थे। हिस्टोरियन्ज़ हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड के अनुसार मध्यएशिया तथा उत्तरी यूरोप के सीथियन्ज़ ने सदा अपनी पड़ौसी जातियों पर आक्रमण किये।” आगे यही लेखक पृ० 154 पर लिखते हैं कि “जाट मध्यएशिया से भिन्न-भिन्न दिशाओं में फैल गये, जिनमें से बहुत से यूरोप में प्रवेश कर गये जहां उनको गोथ-गोट-जूट नाम से पुकारा गया। शिवि जाट स्केण्डेनेविया और स्पेन में गये। ”

अनटिक्विटी ऑफ दी जाट रेस, पृ० 7 पर उजागरसिंह माहिल ने लिखा है कि “सीथिया देश से जाटों की विजयें सब दिशाओं में सारे संसार में फैल गईं।”

जाट्स दी एन्शन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 268 पर लिखा है कि “पूनिया तथा तोखर जाट 600 ई० पू० यूरोप में थे।”

तृतीय अध्याय, शिवि-शैव्य जाटवंश के प्रकरण में लिखा गया है कि इन जाटों का एक समूह भारतवर्ष से ईरान और फिर वहां से जाटों के अन्य दलों के साथ यूरोप में बढ़ गया। इन लोगों का निवास स्केण्डेनेविया में भी हुआ। प्रसिद्ध लेखक टसीटस, टालेमी व पिंकर्टन तीनों का ही कहना है कि “जटलैण्ड में जट (जाट) लोगों की छः जातियां (वंश) थी जिनमें सुएवी ( शिवि), किम्ब्री (कृमि), हेमेन्द्री और कट्टी भी शामिल थीं जो एल्व नदी (उत्तर जर्मनी में) और वेजर नदी के मुहाने तक फैल गईं थीं। वहां पर इन्होंने युद्ध के देवता के नाम पर इमर्नश्यूल नाम का स्तूप खड़ा किया था।”

जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज ने पृ० 178-179 पर लिखा है कि “जाट लोगों ने स्केण्डेनेविया में ईसा से 500 वर्ष पहले प्रवेश किया था। उनके नेता (देवता) का नाम ओडिन था। वहां के प्रसिद्ध इतिहासकार मि० जन्सटर्न स्वयं अपने को ओडियन की सन्तान मानते हैं।” हैरोडोटस कहता है कि “शक द्वीप के निवासी जब मरते थे तो उनके प्यारे घोड़े उनके साथ जलाये जाते थे और जब स्कन्धनाभ (स्केण्डेनेविया) के जित (जाट) मरते थे तो उनके घोड़े गाड़ दिए जाते थे। स्कन्धनाभ वाले और अमू दरिया के किनारे रहने वाले जित (जाट) लोग सजातीय मृतक पुरुष


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की भस्मी पर ऊंची वेदिका बनाया करते थे। जिस समय जिट (जाट) लोगों की बलाग्नि से सारा यूरोप संताप पा रहा था, उस काल में शस्त्रपूजा की प्रथा विशेष उन्नति पर पहुंच गई थी। कहते हैं कि प्रचण्ड जिट वीरों ने आटेला और एथन्ज नगर में महा धूमधाम के साथ अपने अस्त्र-शस्त्रादि की पूजा की थी।” (हिन्दी टॉड राजस्थान अध्याय 5)

स्कन्धनाभ में बस जाने के बाद जाटों का नाम असि भी पड़ गया था। यह नाम उस समय पड़ा जबकि इन्होंने जटलैण्डगोथलैण्ड (गॉड लैंड) बसाये। एड्डा में लिखा है कि “स्कन्धनाभ में प्रवेश करने वाले जेटी अथवा जट लोग असि नाम से विख्यात थे, उनकी पूर्व बस्ती असिगाई थी।” असिगाईअसिगढ़ नीमाड़ (भारत) में है।

नोट

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 47 बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “स्केण्डेनेविया की धर्मपुस्तक एड्डा में लिखा है कि स्केण्डेनेविया के प्राचीन निवासी जट्टास (जाट) थे जो कि आर्य कहलाते थे। आज भी ये लोग अपने को जाट कहते हैं चाहे ये भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान या मध्यएशिया, डेनमार्क या जर्मनी आदि में रहते हैं।” आगे यही लेखक पृ० 26 पर लिखते हैं कि “स्केण्डेनेविया के प्राचीन निवासी जाट लोग थे, इसका एक यह भी प्रमाण है कि वहां पर आज भी भाईचारा के आधार पर खेती-बाड़ी की जाती है जबकि यह प्रथा केवल भारत के जाटों में ही प्रचलित है तथा संसार की किसी अन्य जाति में नहीं है।”

यूरोप में जाट के भिन्न-भिन्न नाम तथा उनकी परिभाषा

यूरोप में जाट को गेटा-गेटे, गोथ तथा जूट आदि नामों से पुकारा जाता है। ये नाम जाट से वहां की भाषा में “गरिमज़ के परिवर्तन के सिद्धान्त” के अनुसार बनते हैं। (देखो, द्वितीय अध्याय)।

1. गेटाई/ गेटे नाम - थ्रेस, लेटिन, मध्यएशिया तथा यूनान में बोला जाता है। थ्रेस प्रदेश सीथिया देश का एक प्रान्त है जो कि आज बुल्गारिया कहा जाता है। यह बल-बालान के नाम पर रहा है।

2. गोथ/ गाट नाम - स्वीडन, यूरोप के अनेक देशों में बोला जाता है।

3. जूट/ जुट नाम - डेन्मार्क एवं उसके प्रान्त जटलैण्ड में बोला जाता है।

3. डेन (Danes), विकिंग्ज (Vikings) या नॉरमन (Normans), एंजिल्स (Angels) और सेक्सन्स (Saxons) -

गोथ - जार्डेन ने गोथों का इतिहास लिखा है जिसका वर्णन कासीओडोरस के इतिहास पर आधारित है। उसने स्पष्टरूप से गोथों का सम्बन्ध थ्रेश के गेटाई (गेटे) के साथ किया है। स्वीडन


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में जाटों को गोथ नाम से कहा जाता है। स्वीडन में गोथों (गाट-जाट) के नाम पर एक द्वीप गॉटलैंड नामक है। हैविट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “दी रूलिंग रेसिज़ ऑफ दी प्रीहिस्टोरिक टाईम्ज” के पृष्ठ 481 पर लिखा है कि गोथलैंड के गोथ लोग जाट हैं1

जूट्स - प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार ग्रीन लिखता है कि “जूट्स यूरोपियन कबीले के थे, जिनका नाम उनके प्रदेश जटलैण्ड (डेनमार्क में) आज भी विद्यमान है।” गार्डीनर भी कहता है कि “जटलैण्ड जूट्स (जाटों) का घर है।” जूट्स, सीथियन जाट थे।

डेन्ज - जूट्स लोग जो कि गोथलैण्ड के गोथों के पड़ौसी थे, यही बाद में डेन्ज नाम से कहे गये2

विकिंग्ज या नॉरमन - इंग्लैण्ड का इतिहास, पृ० 40 पर लेखक विशनदास ने लिखा है कि “जो आक्रमणकारी स्केण्डेनेविया से आये उन्हें नार्थमेन, नार्समेन, विकिंग्ज और डेन आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। वे बड़े बलवान् और उग्र थे। उनका आकार बहुत बड़ा और शरीर बड़े दृढ़ थे। वे बड़े साहसी और बहादुर नाविक थे और उन्होंने अनेक देशों की यात्राएं कीं। वे अपने जहाजों में ग्रीनलैण्ड पहुंचे और अमेरिका भी गये। वे रूम सागर में घुस गये थे और उन्होंने सिसिली तथा दक्षिण इटली में भी एक राज्य स्थापित किया था। उनका एक दल रूस गया और वहां उन्होंने एक राज्य स्थापित किया। एक दूसरे दल ने फ्रांस का कुछ भाग विजय कर लिया और फिर वे फ्रांस के राजा की नाममात्र की प्रजा बन गये। इन लोगों का नाम नॉरमन प्रसिद्ध हुआ और इनका प्रदेश नॉरमण्डी कहलाया।”

अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 13 पर उजागरसिंह माहिल ने लिखा है कि “जूट्स डेन्ज और नॉरमन्ज या विकिग्ज सब सीथियन जाटों के ही भिन्न-भिन्न नाम हैं। विकिंग्ज नार्थमेन कहलाते थे क्योंकि वे नार्थ (उत्तर) में रहते थे जबकि ऐंग्ल्स (Angels) और सैक्सन्स (Saxons) दक्षिण में रहते थे। अन्त में नार्थमेन को संक्षेप में नॉरमन पुकारा जाने लगा। सन् 912 ई० में इन नॉरमन लोगों ने ‘रोल्फ दी गेंजर’ के नेतृत्व में फ्रांस के समुद्री तट के क्षेत्र में अपनी एक बस्ती स्थापित की जो नॉरमण्डी (नार्थमण्डी) कही जाती है। डेन्ज तथा नॉरमन ने इंग्लैंड पर नई-नई विजय प्राप्त की थी। ‘ड्यूक ऑफ नॉरमण्डी’ इंग्लैंड का राजा बन गया था।”

तात्पर्य यह है कि जहां कहीं पर गेटाई-गेटे, गोथ, जूट, डेन्ज, विकिंग्ज या नॉरमन नाम आते हैं तो उनको जाट समझो।

ट्यूटानिक वंश - इस वंश के इतिहास के विषय में इतिहासकारों के मत -

  • 1. ‘इंग्लैण्ड का इतिहास’, पृ० 118-119 पर प्रो० विशनदास ने लिखा है कि “नॉरमन लोग डेनों के चचेरे भाई थे और डेन लोग एंग्लो-सैक्सन लोगों के चचेरे भाई थे। एंग्लो-सैक्सन डेन और नॉरमन ट्यूटानिक वंश में से थे। ट्यूटानिक शब्द जूट्स, सैक्सन्स और ऐंग्लस पर सामूहिक रूप से लागू किया जाता है। जब उन्होंने इंग्लैंड पर आक्रमण किया तो ये वहीं बस गये, परन्तु यहां स्थान की कमी के कारण उनमें से कुछ लोग उत्तरी यूरोप में

1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 10, लेखक उजागरसिंह माहिल।
2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 12, लेखक उजागरसिंह माहिल।


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चले गये और उन्होंने स्केण्डेनेविया को अपना घर बना लिया। कुछ समय के बाद इन्हीं स्केण्डेनेविया में बसने वाले लोगों ने डेन्स अथवा नॉरमन के रूप में फिर इंग्लैंड पर आक्रमण किए। इन्हीं डेनों में से कुछ लोग नॉरमन के रूप में फिर इंग्लैंड पर आक्रमण किए। इन्हीं डेनों में से कुछ लोग नॉरमण्डी में बस गये। फिर उन्होंने 1066 ई० में विजयी विलियम के नेतृत्व में इंग्लैंड पर विजय प्राप्त की। इस प्रकार डेन ट्यूटानों के मूल वंश में से ही थे, अर्थात् जूट्स, सैक्सन्स और ऐंगल्स में से ही थे।”
इसी लेखक ने पृ० 117 पर लिखा है कि “ब्रिटेनों ने पिक्ट्स और स्काट्स नामक दो प्रचण्ड कबीलों के ब्रिटेन पर आक्रमण के विरुद्ध महान् आर्य जाति के जूट्स, ऐंगेल्स और सैक्सन्स से सहायता के लिए अपील की थी।”
  • 2. “ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन” पृ० 5-7 पर लेखक रामकुमार लूथरा ने लिखा है कि “जूट्स, सैक्सन्स और ऐंगल्स ये तीनों कबीले ट्यूटान कहलाते थे। डेन्स लोग जर्मनी के ट्यूटानिक जातियों के चचेरे भाई थे। नॉरमन डेन्स के चचेरे भाई थे तथा डेन्स जूट्स, सैक्सन्स और ऐंग्ल्स के चचेरे भाई थे।”
  • 3. हिस्ट्री ऑफ जाट्स पृ० 2 पर डा० कालिकारंजन कानूनगो ने लिखा है कि “जाट के लक्षण प्राचीन एंग्लो-सैक्सन और प्राचीन रोमन के तुल्य (अनुरूप) हैं और वास्तव में इनमें केल्ट जाति की अपेक्षा ट्यूटानिक वंश के अधिक विशिष्ट गुण हैं।”
  • 4. जाट इतिहास पृ० 186-187 पर ठा० देशराज ने लिखा है “यूरोप में जाटों (गाथों) को ट्यूटानिक जाति (दल) में गिना गया है। हमारी समझ में प्रजातंत्री अथवा शक्तिसम्पन्न होने के कारण उन्हें यह नाम दिया गया है। तांत्रिक शब्द से भी ट्यूटानिक बन सकता है। इन ट्यूटानिक लोगों में गाथ, फ्रेंक, डेन, ऐंग्लस तथा सैक्सन्स आदि हैं। यह ट्यूटानिक जातियां स्कंधनाभ और राइन नदी के प्रदेश में बसी हुई बताई हैं। यहां से उठकर काला सागर और डेन्यूब क्षेत्र में बसने वाले लोगों को गाथ (जाट) कहा गया है।”
ऊपरलिखित लेखकों ने जूट, डेन, नॉरमन, ऐंगल्स और सैक्सन्स लोगों को एक ही रक्त के भाई बताया है, जिसका परिणाम यह हुआ कि ये सब जाट थे जो भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते थे।
  • 6. उजागरसिंह माहिल ने अपनी पुस्तक “अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस” के पृ० 12-13 पर लिखा है कि “जूट लोग सीथियन जाट थे। डेन्स, विकिंगज़ या नॉरमन ये सब जूट्स थे। ये सब सीथियन जाटों के ही भिन्न-भिन्न नाम थे।”

स्केण्डेनेविया देश (नॉरवे, स्वीडन, डेन्मार्क)

पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि जाटों ने स्केण्डेनेविया में कब प्रवेश किया। इस देश के प्राचीन निवासी जाट थे। वहां पर इनको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा गया। इन लोगों की कई


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शाखायें थीं जिन्होंने वहां पर उपनिवेश स्थापित किए तथा शासन किया। जूट कहलाने वाले जाटों ने डेन्मार्क देश में अपना निवास एवं राज्य स्थापित किया। उनके नाम पर वहां एक बड़े क्षेत्र का नाम ‘जाटलैंड’ पड़ा जो कि आज भी विद्यमान है। गोथ-गाट कहलाने वाले जाटों ने स्वीडन के एक द्वीप पर निवास तथा शासन किया जो कि उनके नाम पर गॉटलैण्ड कहलाया जो आज भी विद्यमान है। स्केण्डेनेविया में प्रवेश करने वाले जाट असि नाम से भी विख्यात हुये।

जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 42-43 पर लेफ्टिनेंट रामसरूप जून लिखते हैं कि स्केण्डेनेविया में सबसे महान् शिवि गोत्र के जाट थे। इन लोगों के पूजा-पाठ के ढंग भारतीय रीति के अनुसार थे। इनमें सती एवं जौहर-प्रथा भी थी। इनके बलदेर नामक एक जाट नेता की मृत्यु हो जाने पर उसकी बड़ी पत्नी नन्ना को सती होने दिया था किन्तु उसकी छोटी पत्नी उदन को इस सम्मान प्राप्ति की आज्ञा नहीं दी गई थी। इन जाटों की राजधानी का नाम असिगढ़ था। प्राचीनकाल में हांसी (हरयाणा) का नाम असिगढ़ था। (बहवाला टॉड)।

हैरोडोटस तथा स्ट्रेबो इस बात से सहमत हैं कि जटलैण्ड में जाट लगभग 2000 ई० पू० रहते थे। वहां पर उन्होंने एक मन्दिर बनाया जिसे अहिल्या देवी को समर्पित किया। उसका निवास एक बाग में था और उसके रथ को एक गाय खेंचती थी। उसने ‘उपसला’ में भी एक मन्दिर बनाया। उनका देवता ओवन था जिसका अर्थ बुध है जिसका पिता चन्द्र था जिसके नाम पर चन्द्रवंश प्रचलित हुआ। तात्पर्य है वे जाट बुध को अपना देवता तथा उसकी महारानी इला जो मनु की पुत्री थी, को देवी मानते थे। यह अहिल्या अपभ्रंश इला का है। (देखो प्रथम अध्याय, चन्द्रवंश की वंशावली)।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 79 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “स्केण्डेनेविया में सबसे प्रभावशाली शिवि गोत्र के जाट थे जिन्होंने उपसला (स्वीडन) में प्रसिद्ध मन्दिर बनवाये जिनमें बोडेन (या ओडिन), थोर और फ्रीयम नामक देवताओं की मूर्तियां स्थापित कीं। ये स्केण्डेनेविया के असि (जाट) लोगों के तीन देवता थे - जैसे भारत की त्रिमूर्ति।” (Annals of Rajasthan, Vol. I, P. 56)।

आगे बी० एस० दहिया ने पृ० 56-57 पर लिखा है कि “मालवा (भारत) में एक बीका जाट ने [Asirgarh|असिगढ़]] नगर स्थापित किया था। उसी के तुल्य असिगढ़ नगर स्केण्डेनेविया में है। इसी तरह जैसलमेर (राजस्थान) के तुल्य जैसलमेर नगर नेदरलैंड्ज में (होलैण्ड के उत्तर में) है। ये नगर जाटों ने स्थापित किये थे।”

स्केण्डेनिविया से जाटों ने चारों ओर अनेक देशों पर आक्रमण किये तथा युद्ध करके राज्य स्थापित किये। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं -

“नए आक्रमणकारी विकिंग्स या नॉरमन तथा डेन्ज लोग नॉरवे और डेन्मार्क से आये। विकिंग्स (नॉरमन) के काल (789 ई० से 913 ई० तक) में उन्होंने आक्रमण करके सारे पश्चिमी यूरोप, रूस, अमेरिका तथा अफ्रीका को लूटा। इन भयंकर एवं वीर योद्धाओं ने इंगलैंड के तट पर पहले लूटमार हेतु आक्रमण किये और फिर वहां आबाद होने के उद्देश्य से धावे किये, क्योंकि उनकी अपनी भूमि पथरीली एवं कम उपजाऊ थी1। ”


1. ए हिस्ट्री आफ ब्रिटेन (इंगलिश) पृ० 32H लेखक रामकुमार लूथरा।


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“जो आक्रमणकारी स्केण्डेनेविया से आये उन्हें विकिंज, नॉरमन तथा डेन आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता था। वे बड़े बलवान् और प्रचण्ड थे। उन्होंने अनेक देशों की यात्राएं कीं। वे अपने जहाजों द्वारा ग्रीनलैण्ड और अमेरिका में भी गये। उन्होंने सिसिली और दक्षिणी इटली में भी एक राज्य स्थापित किया था। उनके एक दल ने रूस में एक राज्य बनाया। एक दूसरे दल ने फ्रांस का कुछ भाग विजय कर लिया। उनका प्रदेश नॉरमण्डी कहलाया1।”

बाल्टिक सागर के चारों ओर तट पर रहनेवाले गोथ (जाट) अपनी इस मातृभूमि से दक्षिण की ओर कब बढ़े, इसका हमारे पास सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। यह जानकारी है कि तीसरी ईस्वी शताब्दी में वे लोग स्वीडन से रूस के ठीक पार काला सागर तथा कैस्पियन सागर तक बढ़ गये तथा रोम के अधिकार से छुड़ाकर इन पूर्वी समुद्रों पर अपना अधिकार जमा लिया2। यहां से इनका यूरोप के रोम आदि देशों पर आक्रमण तथा राज्य का वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

रोमन साम्राज्य

शुरू में रूम नगर ही एक छोटा राज्य था। किन्तु ईसा से लगभग दो शताब्दी पूर्व रोमन लोगों ने रूमसागर के चारों ओर के देश विजय कर लिए तथा अनेक छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक शक्तिशाली रोमन साम्राज्य की स्थापना कर ली। इन देशों में रोमन लोगों ने अपने सिद्धान्त एवं सभ्यता आरम्भ कर दी। उस समय में रोम की सभ्यता सबसे श्रेष्ठ थी। ये लोग बहादुर, साहसी तथा योग्य शासक थे। उनके राज्य का रूप गणतन्त्रीय था।

रोमन लोगों ने गॉल (फ्रांस) तथा ब्रिटेन पर भी शासन किया। इन लोगों ने ब्रिटेन पर लगभग 300 वर्ष तक शासन किया। अन्त में 410 ई० में इन्होंने ब्रिटेन को सदा के लिए छोड़ दिया। इसका कारण रोमन साम्राज्य में घरेलू लड़ाई-झगड़े तथा उन पर गाथों (जाटों) के आक्रमण थे। ब्रिटेन से रोमनों के चले आने के बाद वहां पर डेनों एवं नॉरमन (जाटों) ने अपने राज्य स्थापित किए। इन घटनाओं का वर्णन करने से पहले रोम पर पूर्व की ओर से जाटों के आक्रमणों का उल्लेख किया जाता है।

ईसा पूर्व पहली शताब्दी में महान् सेनापति क्रेसस अपनी रोमनविजयी सेना सहित लघु एशिया को पार करके फ्रात नदी तक पहुंच गया। यहां पर सीथियन जाटों का शासन था। 53 ई० पू० में कार्रहाई के स्थान पर जाटों तथा रोमन सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ जो कि दो दिन तक चला। जाट सेना ने रोमन सेना के 20,000 सैनिक मौत के घाट उतारे तथा 10,000 को बन्दी बनाकर गुलाम के तौर पर ईरान भेज दिया। इस प्रकार जाटों ने रोमन साम्राज्य को मैसोपोटैमिया (इराक़) के पार बढ़ने से रोक दिया3

रूस के दक्षिण में नीपर नदी के पूर्व में रहने वाले गोथों (जाटों) को ओस्ट्रो गोथ (पूर्वी गोथ)


1. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 40, लेखक प्रो० विशनदास।
2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 54, लेखक उजागरसिंह माहिल।
3. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० क्रमशः 51 से 55, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-389


तथा पश्चिम में रहने वालों को वीसी गोथ (पश्चिमी गोथ) के नाम से पुकारा जाता था। 247 ई० में उन्होंने डेन्यूब नदी को पार कर लिया तथा सेरबिया देश (योगोस्लाविया में) में रोमन सम्राट् डेसिअस को हरा दिया और मार दिया। इस प्रकार रोमन साम्राज्य के डेसिया प्रान्त पर जाटों का अधिकार हो गया। सन् 270 ई० में सम्राट् कलाऊडियस ने इन्हें सेरबिया में निश के युद्ध में हरा दिया। 276 ई० में उन्होंने पोंटस पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय तक जाटों तथा रोमन सम्राटों के बीच लड़ाई का उतार चढ़ाव चलता रहा। रोम नगर को जाटों से खतरा पैदा हो गया था। रोम शहर की किलाबन्दी सन् 270 से 275 ई० तक सम्राट् औरेलियन को करनी पड़ी थी।

321 ई० में जाटों ने डेन्यूब क्षेत्र के सरबिया तथा बुल्गारिया देशों को लूट लिया। घटनास्वरूप जाटों तथा रोमन सम्राट् के मध्य सन्धि हो गई जिसके अनुसार जाट सेना नाममात्र से रोमन सेना बन गई। किन्तु उन्होंने अपने ही सेनापति रखे जिनमें सबसे प्रसिद्ध अलारिक1 था।

सन् 374 ई० में मध्य यूरोप पर एशिया से आए हुए बर्बर हूणों ने आक्रमण किया। जाटों ने उनसे सख्त टक्कर ली और नीस्टर नदी क्षेत्र में उनको हरा दिया। रोमन सम्राट् बैलैंस की सहमति से उन्होंने बलकान (बुलगारिया) में डेन्यूब नदी के किनारे अपना जनपद स्थापित किया और भारी संख्या में वहां बस गये। चार वर्ष के बाद सम्राट् वैलेन्स ने उन्हें निकालना चाहा। इस कारण से दोनों में तनाव बढ़ गया। 378 ई० में सम्राट् वैलेन्स ने बड़ी रोमन सेना के साथ गाथों (जाटों) पर आक्रमण कर दिया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। किन्तु एड्रियानोपल नगर के पास जाटों के एक घुड़सवार दल ने रोमन लोगों को बड़ी करारी हार दी। रोमन भाग खड़े हुए। सम्राट् सख्त घायल हुआ और युद्धभूमि में ही मारा गया। गाथों का नेता भी इसी युद्ध में शहीद हो गया2

अद्भुत जाटविजेता अलारिक (Alarik)

अलारिक जाट जाति का एक वीर योद्धा, साहसी तथा अद्भुत व्यक्ति था। रोम नगर को विजय करने वाला यह पहला व्यक्ति था। इसका जन्म 370 ई० में पीयूष नामक एक द्वीप में हुआ था जो कि डेन्यूब नदी के मुहाने पर है। सम्राट् वैलेन्स के उत्तराधिकारी सम्राट् थियोडोसियस के अधीन अव्यवस्थित सैनिकों के सेनापति के रूप में अलारिक ने युद्ध करके अपहरणकर्त्ता इयूजीनियस को परास्त कर दिया। यह युद्ध जूलियन एल्पस (इटली) पर्वत के दर्रों के पास फ्रीजीडस में हुआ था। इस युद्ध में अलारिक को इटली के उत्तर-पूर्व सीमा पर प्राकृतिक रक्षा की कमजोरी की जानकारी हुई3

सम्राट् थियोडोसियस ने भी जाटों पर चढ़ाई की किन्तु अन्त में उसे जाटों से सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार थ्रेश और लघु एशिया में बहुत सी भूमि उसे जाटों को देनी पड़ी4

सम्राट् थियोडोसियस के मरने के बाद अलारिक के देशवासी जाटों ने उसे अपना राजा घोषित कर दिया। इस सम्राट् की मृत्यु सन् 395 ई० में हुई थी जिसके दो पुत्र थे। इतिहासकार जोरडेन्ज लिखता है कि “इन दोनों ने निर्णय किया कि वे अपनी वीरता से नया राज्य स्थापित करेंगे तथा दूसरों के अधीन नहीं रहेंगे।” इस तरह से रोमन साम्राज्य पूर्वी एवं पश्चिमी साम्राज्यों में बंट


1, 2, 3, 4. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 51 से 55, लेखक उजागरसिंह
2, 3. जाट इतिहास, पृ० 185, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 41-42 लेखक ले० रामसरूप जून


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-390


गया। बड़ा पुत्र आर्केडियस पूर्वी भाग का शासक बना जिसकी राजधानी कांस्टेंटीपल थी और दूसरा पुत्र होनोरियस पश्चिम भाग का मालिक हुआ जिसकी राजधानी मिलान थी।

अलारिक ने पहले तो पूर्वी रोमन साम्राज्य पर धावा बोल दिया और वह कांस्टेंटीपल तक पहुंच गया किन्तु उसकी सुदृढ़ दीवारों को न तोड़ सका। वह पश्चिम की ओर मुड़ा और फिर दक्षिण की ओर मुड़कर थोसालाई तथा थर्मोप्लाई (यूनान में) के दर्रे से होता हुआ यूनान पहुंचा। यूनान पर अलारिक का आक्रमण दो वर्ष 395 ई० से सन् 396 ई० तक जारी रहा। उसने अट्टीका पर विजय पाई, जिस पर एथेंज ने तुरन्त अलारिक को आत्मसमर्पित कर दिया तथा स्वयं को महाविनाश से बचा लिया। फिर वह पेलोपोनेसस में प्रवेश कर गया और प्रसिद्ध नगरों कोरिन्थ, आरगोस तथा स्पार्टा पर अधिकार कर लिया। इसी दौरान जाट दल को रोकने के लिए सम्राट् आर्केडियस ने स्टीलीचो के नेतृत्व में एक बड़ी रोमन सेना भेजी, अलारिक ने तुरन्त कोरिन्थियन खाड़ी को पार किया तथा यूनान को लूटते हुए उत्तर को एपिरस की ओर बढ़ गया। रोमन सेनाओं द्वारा उसका पीछा करना असम्भव था। अन्त में पूर्वी तथा पश्चिमी रोमन साम्राज्यों में विरोध बढ़ गया। सम्राट् आर्केडियस ने अलारिक की वीरता को देखते हुए उसको इल्लीरीकम रियासत के महत्त्वपूर्ण प्रशासक का पद दे दिया। यह रियासत दोनों रोमन साम्राज्यों के बीच में थी। सम्राट् का उद्देश्य यह था कि अलारिक जो योग्य एवं शक्तिशाली है, के मित्र बनाने से उसका राज्य सर्वशक्तिमान् बन जाएगा। इस प्रकार डेन्यूब नदी के प्रान्तों पर शासक के साथ-साथ अलारिक दोनों साम्राज्यों का बिचोला बन गया।

चतुर जाट अलारिक को दोनों साम्राज्यों को एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काने का अच्छा अवसर मिल गया। उसने हथियार बनाने का एक बड़ा शस्त्रागार बनाया, जिससे कि अगली लड़ाई के लिए अपने जाट सैनिकों को हथियार दे सके।

400 ई० के लगभग अलारिक ने इटली पर अपना पहला आक्रमण किया तथा उत्तरी इटली में सर्वनाश तथा रोमवासियों को भयभीत करता हुआ पोल्लेन्सिया के स्थान पर पहुंचा। वहां पर उसकी टक्कर स्टीलीचो के नेतृत्व में रोमन सेनाओं से हुई। 6 अप्रैल 402 ई० को अलारिक इस युद्ध में हार गया। एक और हार के कारण अलारिक ने 403 ई० में इटली को छोड़ दिया।

जाट सेना का इटली पर पहला आक्रमण असफल रहा परन्तु इसके महत्त्वपूर्ण परिणाम निकले। इसके कारण शाही निवासस्थान मिलान से उठकर रवेन्ना में आ गये। ब्रिटेन से रोमन सेनाएं वापिस लानी पड़ीं तथा गॉल (फ्रांस) और स्पेन रोमन से निकल गये।

साहसिक अलारिक ने जूलियन अल्पस को पार किया और सितम्बर 408 ई० में रोम शहर का घेरा डाल दिया। राज्यसभा ने शान्ति स्थापित करने के लिए अलारिक के पास अपने राजदूत भेजे। उन्होंने अलारिक को यह कहकर डराना चाहा कि “रोमन जनता का विशाल समुदाय तथा उसका प्रबल क्रोध तुम्हारे विरुद्ध है।” अलारिक ने उसका जाट आदर्श उत्तर दिया कि “Thicker the hay, the easier mowed” अलारिक ने रोमन विशाल समुदाय को सूखी घास की उपमा देकर कहा कि “सूखी घास जितनी अधिक गहरी होगी, उतना ही उसे काटना हमारे लिये आसान होगा।” (अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 56, लेखक उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी एन्शन्ट रूलर्ज, पृ० XVII, लेखक बी० एस० दहिया)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-391


अन्त में रोमनों ने अलारिक को भेंट के तौर पर 25,000 स्टरलिंग, बहुमूल्य रेशमी कपड़े और 3000 पौंड वजन की काली मिर्च दीं। जाट सेनाओं से इस पराजय के बाद रोमन राजनीति में बहुत उतार-चढ़ाव आए। कई वर्ष प्रतीक्षा के पश्चात् अलारिक ने रोमनों पर तीसरी बार आक्रमण कर दिया जो जाट इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। 24 अगस्त, 410 ई० को अलारिक और उसकी जाट सेनाओं ने रोमनगर के उत्तर-पूर्वी सलारियन द्वार को तोड़कर रोम पर अधिकार कर लिया। जाटों ने स्वयं को निर्दयी व कठोर विजेता प्रदर्शित नहीं किया और अलारिक तथा उसकी सेनाओं ने नगर के भवनों की तबाही भी नहीं की। तत्कालीन पादरियों ने भी उनकी दयालुता के बहुत से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।

“ईसाई गिरजाघरों का विनाश नहीं किया गया, बहुसंख्यकों की रक्षा की गई जिन्होंने वहां शरण ले रखी थी। व्यक्तिगत घरों में पाए गए सोने तथा चांदी के बर्तनों को उन्होंने नहीं लिया क्योंकि वे सेंट पीटर से सम्बन्धित थे। एक घटना यह भी थी कि एक सुन्दर विवाहित रोमन स्त्री ने, जिसके साथ जाट सैनिकों ने अच्छा व्यवहार किया था, उनकी सफलता के लिए प्रार्थना की थी।”

विजेता अलारिक रोम नगर के दक्षिण में कलेबरिया की ओर बढ़ा। उसने अफ्रीका पर आक्रमण करना चाहा जो कि अनाज की फसलों के लिए प्रसिद्ध था। एक भयंकर तूफान के कारण उसके जहाज टुकड़े-टुकड़े हो गये तथा बहुत सैनिक मर गये। इसके कुछ समय बाद अलारिक की बुखार से मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका बहनोई अतौलफुस जाट सेना का सेनापति बना।

अलारिक के चरित्र व कारनामों के प्रमाण लिखने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार निम्नलिखित हैं।

  • (1) ओरोसियस तथा कवि क्लाऊडियन दोनों ठीक समकालीन थे।
  • (2) जोरडेंज एक जाट था जिसने सन् 551 ई० में अपने देश (इटली) का इतिहास लिखा, जिसका आधार केसीओडोरस के प्राचीन इतिहास पर था जो कि 520 ई० में लिखा गया था1

रोमस्पेन के जाट शासक

अलारिक रोम की गद्दी पर बैठने वाला पहला जाट राजा था परन्तु वह पूरे रोमन साम्राज्य का सम्राट् नहीं बन सका। उसकी प्रमुख सफलता रोमन साम्राज्य को नष्ट करने की थी। इसके आक्रमणों के कारण से रोमन सेनाओं को ब्रिटेन व गॉल* को छोड़ देना पड़ा। अनेक साहसी योद्धाओं ने जिनमें गोथ (जाट) भी शामिल थे, गॉल पर अनेक आक्रमण किये जिससे ऐतिहासिक जानकारी मिलने में गड़बड़ी है।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 80, पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “जाट राजा इयूरिक सन् 466 से 484 ई० तक स्पेनपुर्तगाल का शासक रहा। उसके शासनकाल में शिवि गोत्री जाटों को इन्हीं के भाई जाटों ने स्पेन से निकलकर रूम सागर पार करके अफ्रीका में चले जाने को विवश किया। शिवि जाट अफ्रीका में पहुंच गये।” (जाटों का मिश्र सेनाओं से युद्ध प्रकरण इसी अध्याय में देखो)।


  • . गॉल - फ्रांस का पहले नाम गॉल था।
1. आधार लेख अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 54 से 62, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-392


पुर्तगाल, स्पेन में राजा इयूरिक का पुत्र अलारिक द्वितीय जाटों का आठवां राजा था जो कि 24 दिसम्बर 484 ई० में अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। उसकी मुख्य स्मरणीय सफलता यह थी कि उसने रोमन कानूनों की एक सूची तैयार करवाई तथा रोमन लोगों के लिये सरकारी कानून बनाये जिनसे अपने अधीन रोमनों के लिये कानूनी अधिकार मिल गये। यह “अलारिक के स्तोत्र संग्रह” के नाम से प्रसिद्ध है।

अन्य जाट राजाओं ने दूसरे साधारण राजाओं की तरह अपना समय व्यतीत किया। जाटों ने रोमन गद्दी पर अधिकार कर लिया था। सन् 493 ई० में थयोडोरिक गोथ (जाट) रोम का राजा बना। रोम के जाट राजा तोतिला (Totila) ने यूनानियों से नेपल्स वापिस छीन लिया। नेपल्स पर अधिकार करते समय जाटों ने वहां की स्त्रियों का अपमान नहीं होने दिया तथा कैदी सैनिकों के साथ मानवता से व्यवहार किया1

विजेता जाट अत्तीला (Attila) -

अत्तीला सीथियन जाट नेता बालामीर का वंशज था जिसने कैस्पियन सागर के उत्तर से बढ़कर डैन्यूब नदी तथा उससे भी पार तक कई देशों पर विजय प्राप्त की थी। अत्तीला जाटों की उसी शाखा से सम्बन्धित था जिससे इण्डोसीथियन थे। इसके पिता का नाम मुञ्जक था। यूरोप में विजयी अत्तीला का चरित्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है।

उसका राज्य डैन्यूब नदी के पूर्व में मैदानी क्षेत्र पर था। उसने यूरोप तथा एशिया दोनों में अपने राज्य का बहुत विस्तार किया। उसने चीनी सम्राट् के साथ समान शर्तों पर समझौता किया। उसने रेवेन्ना तथा कांस्टेंटीपल को 10 वर्ष तक भयभीत रखा।

पूर्वी रोमन सम्राट् थियोडोसियस द्वितीय की पोती हांनारिया को, दरबार के एक कर्मचारी पर मोहित होने के कारण बन्दी बनाया गया था। उस लड़की ने निराश होकर अपनी अंगूठी अत्तीला को भेजी तथा अपने को मुक्त कराने और पति बनने की प्रार्थना की। अत्तीला तुरन्त दक्षिण की ओर बढ़ा और कांस्टेंटीपल के निकट पहुंच गया। इतिहासज्ञ गिब्बन के अनुसार उसने अपनी सफलता में 70 नगर नष्ट कर दिए। रोमन सम्राट् ने उससे बहुमूल्य शान्ति-सन्धि करनी पड़ी। अत्तीला हांनारिया को अपनी दुल्हन समझता रहा। उसने अगले आक्रमण के लिये बहाने के रूप में उस सम्बन्ध को कायम रखा। सम्राट् को एक और सन्धि करने के लिये विवश कर दिया गया। अतः सम्राट् थियोडोसियस ने अपनी पौती हांनारिया का डोला अत्तीला को दे दिया।

सम्राट् ने अत्तीला के कैम्प में अपना एक राजदूत भेजा जिसके साथ एक साहित्यकार प्रिस्कस भी गया। उसने अत्तीला के कैम्प में जो कुछ देखा उसका एक विस्तृत विवरण लिखा। वह लिखता है कि “अत्तीला शराब के स्थान पर मधुपानीय, अनाज के प्रति बाजरा तथा शुद्ध पानी या जौ के पानी का सेवन करता था। (यह अत्यन्त रोचक है कि हरयाणाराजस्थान के जाटों का प्रिय भोजन बाजरा है)। उसकी राजधानी एक बहुत विस्तृत कैम्प के रूप में थी। उसमें रोमन नमूने का एक स्नानघर तथा पत्थर की बनी हुई एक कोठी थी। अधिकतर लोग


1. आधार लेख अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 54 से 62, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-393


झोंपड़ियों तथा तम्बुओं में रहते थे। अत्तीला तथा उसके प्रमुख नेता अपनी पत्नियों एवं मन्त्रियों के साथ लकड़ी के महलों में रहते थे। लूटी हुई वस्तुओं का बहुत बड़ा दिखावा था। किन्तु अत्तीला एक जाट की तरह ही बहुत साधारण जीवन व्यतीत करता था। वह लकड़ी के प्यालों तथा थालों में भोजन करता था। वह बड़ा परिश्रमी था। अपने महल के द्वार पर दरबार लगाता था तथा साधारण गद्दी पर बैठता था।”

451 ई० में अत्तीला ने पश्चिमी साम्राज्य पर धावा बोल दिया। उसने गॉल (फ्रांस) पर आक्रमण करके वहां के बहुत से नगरों तथा सुदूर दक्षिण में आर्लिअंज (Orleans) तक लूटमार की। फ्रैंक्स उसे हराने के लिये बहुत कमजोर थे किन्तु वीसी गोथ (पश्चिमी गोथ) कहलाने वाले जाटों की एक और शाखा फ्रैंक्स लोगों से मिल गई। 451 ई० में चालोञ्ज़ के स्थान पर एक भयंकर युद्ध हुआ जिसमें दोनों ओर से 1,50,000 आदमी मारे गये। यूरोप में अत्तीला को यह पहली पराजय मिली क्योंकि उसके विरुद्ध प्राचीन जाट विजेताओं की एक शाखा शत्रु की ओर मिलकर लड़ रही थी। इस हार से वह निराश नहीं हुआ। उसने अपना ध्यान दक्षिण की ओर दिया और उत्तरी इटली पर आक्रमण कर दिया। अक्वीला एवं पाडुआ को जला दिया तथा मिलान को उसने लूट लिया। यहां पोपलियो ने उसे अग्रिम आक्रमणों से रोका। चमत्कारिक अत्तीला ने ईसाइयों के मुख्य पादरी की प्रार्थना पर शान्ति स्थापित कर ली। उस साहसी वीर योद्धा की सन् 453 ई० में मृत्यु हो गई। उसका साम्राज्य कैस्पियन सागर से राइन नदी (पश्चिमी जर्मनी में) तक फैला हुआ था1

जाट इतिहास पृ० 186 पर ठा० देशराज ने लिखा है कि “रोमन सम्राट् थियोडोसियस जाटों से बहुत भयभीत था, अतः उसने लड़की हांनारिया की शादी अत्तीला से कर दी। इस तरह से जाट और रोमन लोगों का रक्त सम्बन्ध स्थापित हो गया। इस लड़की की सलाह के अनुसार जाटों ने इटली से बाहर स्पेन और गॉल के बीच में अपना साम्राज्य स्थापित किया जो 300 वर्ष तक कायम रहा। सन् 446 ई० में हूण लोग रोम का ध्वंस करते हुए गॉल में प्रवेश कर गए। वहां पर रोमनों व गाथों (जाटों) ने मिलकर हूणों को हरा दिया।”

अत्तीला के मरने के बाद उसके साम्राज्य को उसके तीन पुत्रों अल्लाक, हरनाम तथा देंघिसक में बराबर-बराबर बांट दिया। इस बंटवारे के समय अन्य दो निकट सम्बन्धी उजीन्दर व एमनेद्ज़र ने अपने अधिकार की मांग की। इसलिये अन्त में उस साम्राज्य को पांच भागों में बांटा गया। पिता की सम्पत्ति या साम्राज्य को उसके पुत्रों में विभाजन का यह तरीका प्राचीन आर्य रीति के अनुसार है जो कि जाट समाज में आज भी प्रचलित है।

इसी प्रकार बलवंशियों का राजा कुबरत जिसने 630 ई० में रोमन सम्राट् हरकलीन्ज से सन्धि की थी, के मरने पर उसका राज्य उसके पांच पुत्रों में बराबर-बराबर बांट दिया गया था2

अत्तीला के मरने के बाद कुल्लर और उदर गोत्र के जाटों ने मिलकर रोमन साम्राज्य पर आक्रमण किया तथा (485 ई० से 557 ई०) 72 वर्ष तक लड़े। इनका शासन चलता रहा। बाद में


1. आधार लेख अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 54 से 62, लेखक उजागरसिंह माहिल।
2. जाट्स दी ऐन्शेन्ट रूलर्ज पृ० क्रमशः 88, 84, 85, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-394


बलवंशीय जाटों का शासन हुआ जिनके नाम पर बुल्गारिया नाम पड़ा। (J.J. Modi in JBRRAS, 1914, P. 548)1

ये तीनों कुल्लर, उदर, बल वंश के लोग मध्यएशिया से यूरोप को बड़े संघों के रूप में गये। इनके नेता बालामीर (376 ई०), उलदस (400 ई०), रौलस (425 ई०), रूगुल (433 ई०) और अत्तीला (जो कि 453 ई० में मर गया) थे2

सन् 489 ई० में पूर्वी गाथों के सरदार थियोडेरिक (देवदारुक) ने इटली पर आक्रमण किया। 4 वर्ष की निरन्तर लड़ाई के बाद इटली के तत्कालीन सम्राट् ओडोवर ने इटली का आधा राज्य देकर गोथों से सन्धि कर ली। थोड़े ही दिन बाद देवदारुक ने सम्राट् ओडोवर को मरवाकर सारी इटली पर गाथों का अधिकार जमा दिया। इस जाट सम्राट् ने इटली पर 493 ई० से 526 ई० तक 33 वर्ष शासन किया। उसने रोमानों को बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त किया। नगर, बाग-बगीचे, सड़कें और नहरों की मरम्मत कराई। कृषि और उद्योग-धन्धों की उन्नति कराई। रोमन लोगों के साथ न्याय व अच्छा व्यवहार किया जिससे वे कहने लग गये कि खेद है “जाट इससे पूर्व ही हमारे यहां क्यों न आये।” उन्होंने जाट राज्य को राम राज्य की संज्ञा दी।

थियोडोरिक जाट सम्राट् की सन् 526 ई० में मृत्यु हो गई जिससे जाटों तथा रोमनों को बड़ा दुख हुआ। उसके बाद सन् 553 ई० तक उसके वंशजों का इटली पर शासन रहा। इसी वर्ष उनके हाथ से रोमन सम्राट् जस्टिनियन ने इटली का राज्य छीन लिया।

यूरोप में एक नया धर्म खड़ा हुआ था जिसका नाम महात्मा यीशु के नाम पर ईसाई धर्म था। इसके सिद्धान्त भी बौद्ध-धर्म से मिलते-जुलते थे तथा एक ईश्वर को ही मानने के थे। इसलिए यूरोप के जाटों पर भी ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ने लगा। वे 12वीं सदी तक सबके सब ईसाई हो गये।

सन् 711 ई० में तरीक की अध्यक्षता में मुसलमानों ने स्पेन में जाट लोगों पर चढ़ाई की। उस समय जाटों का नेता रोडरिक (रुद्र) था। वह युद्ध में हार गया और बर्बर अरबों का स्पेन और गॉल (फ्रांस) पर अधिकार हो गया। (जाट इतिहास पृ० 188-189, में ठा० देशराज)

इसके बाद फिर स्पेन पर जाटों का राज्य रहा। इसका प्रमाण यह है। दसवीं शताब्दी में स्पेन के अन्तिम जाट सम्राट् का पौत्र अलवारो था। एक साहित्यिक लेख में उसको स्पष्ट रूप से बहुत ऊँचे स्तर की पुरानी गेटी (जाट) जाति का वंशज बताया गया है। (Journal of Royal Asiatic society, 1954, P. 138)। अलवारो कहता है कि मैं उस जाट जाति का हूं जिसके लिये (1) सिकन्दर महान् ने घोषणा की थी कि जाटों से बचो, (2) जिनसे पाइरस डरा (3) जूलियस सीज़र कांप गया (4) और हमारे अपने स्पेन के सम्राट् जेरोम ने जाटों के विषय में कहा था कि इनके आगे सींग हैं, सो बचकर दूर रहो। (Episola XX, Nigne, Vol 121, Col, 514) बी० एस० दहिया, पृ० 58-59)।

जर्मनी

यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि विजेता जाट अत्तीला का साम्राज्य कैस्पियन


1,2. जाट्स दी ऐन्शेन्ट रूलर्ज पृ० क्रमशः 88, 84, 85, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-395


सागर से लेकर राइन नदी (पश्चिमी जर्मनी में) तक फैला हुआ था। तात्पर्य है कि जाटों का निवास व शासन जर्मनी में भी रहा है। ये लोग ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व जर्मनी में पहुंचे। यूरोप के अन्य देशों इटली, गॉल, स्पेन, पुर्तगाल, इंगलैण्ड और यूनान आदि पर जो जाटों ने आक्रमण किये उनका वर्णन यूरोपीय इतिहास में यही मिलता है कि उसमें अधिकांश जाट लोग जर्मनी और स्कन्धनाभ (स्केण्डेनेविया) के निवासी थे।

श्री मैक्समूलर ने भी जर्मनी में आर्य रक्त स्वीकार किया है। टसीटस ने लिखा है कि “जर्मन लोगों के रहन-सहन, आकृति, रस्म व रिवाज तथा नित्य कार्यों का जो वृत्तान्त पाया जाता है उससे विदित होता है कि कदाचित् ये लोग और शाक द्वीप (ईरान) के जिट, कठी, किम्बरी (कृमि) और शिवि (चारों जाट) एक ही वंश के हैं।” आगे यही लिखते हैं कि “जर्मन लोग घोड़े की आकृति बनी हुई देखकर ही सिक्के का व्यवहार करते थे, अन्यथा नहीं। यूरोप के असि जेटी लोग और भारत के अट्टी तक्षक जटी, बुध को अपना पूर्वज मानकर पूजते थे। प्रत्येक जर्मन का बिस्तर पर से उठकर स्नान करने का स्वभाव जर्मनी के शीतप्रधान देश का नहीं हो सकता, किन्तु यह पूर्वी देश का है।”

कर्नल टॉड ने लिखा है कि “घोड़े की पूजा जर्मनी में सू, कट्टी, सुजोम्बी और जेटी (जाट) नाम की जातियों ने फैलाई है, जिस भांति कि स्कन्धनाभ में असि जाटों ने फैलाई।” कर्नल टॉड ने भारत के जाट और राजपूत तथा जर्मन लोगों की समानता के लिए लिखा है कि “चढ़ाई करने वालों और इन सब हिन्दू सैनिकों का धर्म बौद्ध-धर्म था। इसी से स्केण्डेनेविया वालों और जर्मन जातियों और राजपूतों के आचार, विचार और देवता सम्बन्धी कथाओं की सदृश्यता और उनके वीररसात्मक काव्यों का मिलान करने से यह बात अधिकतर प्रमाणित हो जाती है।”

प्रसिद्ध इतिहासज्ञ टसीटस ने लिखा है कि “जर्मनी और स्कन्धनाभ के असि लोग जाटवीर ही थे1। जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 36 पर लेफ्टिनेन्ट रामस्वरूप ने लिखा है कि “प्राचीनकाल में जर्मनी पर शिवि गोत्र के जाटों का राज्य व निवास था।”

आर्य जाट लोग अपनी गृह-लक्ष्मियों के साथ जैसा श्रेष्ठ व्यवहार करते हैं, प्राचीन जर्मन लोग तथा स्कन्धनाभ वाले अपनी नारियों के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करते थे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाट किसी भी देश में गये वहां पर उन्होंने उस देश की सभ्यता को नष्ट नहीं किया; किन्तु उनकी अच्छी बातें ग्रहण कर लीं। ये अपनी सीमा स्थापित करने और अपना स्वतन्त्र राज्य बनाने के इच्छुक अवश्य रहे। युद्ध के समय वे सैनिक और शान्ति के समय सुयोग्य शासक एवं कृषक साबित होते थे। उन्होंने जितना भी हो सका, अपनी सभ्यता का यूरोप में भी प्रचार किया। उन्होंने शस्त्र पूजा, नेता के निर्वाचन की प्रथायें तथा मुर्दों को आग में जलाने का रिवाज आदि प्रचलित किये। शैलम नदी (जर्मनी) के किनारे जो स्तूप उन्होंने खड़ा किया था वह इनकी कीर्ति के साथ-साथ यह भी बताता है कि वे अपनी सभ्यता के प्रचारक व प्रेमी थे। यूरोप के युद्धों के वर्णन में ऐसा कहीं नहीं मिलता कि जाटों ने पराजित देश के स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों को दास बनाया हो अथवा उन्हें कत्ल किया हो। जाटों ने उस देश की स्त्रियों


1. आधार लेख - जाट इतिहास पृ० 183 से 185, लेखक ठा० देशराज।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-396


का सम्मान किया तथा शरणागतों की रक्षा की जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिखा भी है।

जर्मनी के जाटों ने देश-काल की परिस्थिति के अनुसार अपने प्राचीन वैदिक व बौद्ध-धर्म को ईस्वी चौथी-पांचवीं शताब्दी में छोड़कर ईसाई धर्म को अपनाया। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने भारत के सिर को इस बात के लिए ऊंचा कर दिया कि उन्होंने जर्मनी जैसे प्रबल राष्ट्र पर अपना बसन्ती झण्डा फहराया और आज भी जर्मन नागरिकों के रूप में अपने देश का सिर ऊंचा कर रहे हैं1

जर्मनी के जाटों ने इंगलैण्ड पर भी आक्रमण किए जिनका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जाएगा।

ब्रिटेन या इंगलैण्ड द्वीप समूह

इंगलैण्ड जाटों का निवास एवं राज्य लिखने से पहले इस द्वीप के विषय में ऐतिहासिक जानकारी की आवश्यकता है जो कि संक्षिप्त में निम्नलिखित है -

ब्रिटेन के मूल निवासी असभ्य लोग थे जिन्हें प्राचीन पत्थर युग के लोग कहा जाता है। वे खेती बाड़ी करना नहीं जानते थे बल्कि जंगली जानवरों का शिकार करके निर्वाह करते थे। कुछ काल पश्चात् ब्रिटेन पर एक दूसरी जाति ने आक्रमण किया जिन्हें नवीन पत्थर-युग के लोग अथवा आईबेरियन कहा जाता था। उनका कद छोटा तथा रंग काला था। वे मूल रूप से पश्चिमी तथा दक्षिणी यूरोप के रहने वाले थे। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड के अधिकतर निवासी उन्हीं के वंशज हैं। आईबेरियन ने खेती-बाड़ी तथा पशु-पालन शुरु किये। उनका युग 3000 ई० पू० से 2000 ई० पू० का माना गया है। जबकि प्राचीन पत्थरयुग के लोग 3000 ई० पू० में ब्रिटेन में आबाद थे।

आईबेरियन लोगों के बाद एक अधिक सभ्य जाति आई, जिसे केल्ट (Celt) कहते हैं। इन्होंने लगभग 600 ई० पू० में ब्रिटेन पर आक्रमण किया और वहां पर आबाद हो गये।

केल्ट जाति के लोग आर्यवंशज थे। वे लम्बे और गोरे थे तथा उनके बाल पीले और माथे चौड़े थे। ये लोग आर्यन भाषा बोलते थे। ये लोग वीर योद्धा थे तथा लोहे के हथियारों का प्रयोग करने में निपुण थे। ये शिल्पकला में भी बड़े चतुर थे। खेती-बाड़ी इनका व्यवसाय था। इन लोगों ने दो दलों में आक्रमण किये। पहले दल के लोग गोइडल्स या गेल्स (Goidels or Gaels) कहलाते थे जो कि आज भी आयरलैण्ड और स्कॉटलैंड में पाये जाते हैं। लगभग 600 ई० पू० में दूसरे दल के लोग ब्रिथोन्स या ब्रिटोन्स (Brythons or Britons) कहलाते थे जिनके नाम पर इस टापू का नाम ब्रिटेनिया (ब्रिटेन) पड़ा।

पाठक समझ गये होंगे कि इस टापू का ‘ब्रिटेन’ नाम आर्य वंश के लोगों के नाम पर प्रचलित हुआ। याद रहे कि जाट भी आर्यवंशज हैं।

55 ई० पू० में रोमन आक्रमण से कुछ समय पहले बेल्ज और गाल (Belge and Gauls) लोग यहां आकर दक्षिणी ब्रिटेन में आबाद हो गये। लगभग 330 ई० पू० में केल्ट लोगों की शक्ति


1. आधार लेख - जाट इतिहास पृ० 183-185, लेखक ठा० देशराज।


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एवं शासन पूरे ब्रिटेन और आयरलैण्ड पर हो गया था। इनके बाद रोमनों का शासन रहा1

ट्यूटानिक वंश के प्रकरण में पिछले पृष्ठों पर लिखकर यह सिद्ध किया गया है कि जूट्स, ऐंगल्स, सैक्सन्स, डेन, नॉरमन ये सब जाट जाति के लोग थे जो कि आपस में एक ही रक्त के भाई थे। इन सब को ट्यूटानिक नाम से भी पुकारा जाता है। अतः जहां पर ये नाम आयें तो इनको जाट समझो।

ब्रिटेन पर केल्ट्स लोगों के बाद रोमनों के आक्रमण एवं शासन रहा। इनका ब्रिटेन पर राज्य 43 ई० से सन् 410 ई० तक 300 वर्ष रहा। रोमनों के चले जाने के पश्चात् वहां जूट्स, ऐंगल्स और सैक्सन्स आए और शासन किया। इनके आक्रमण तथा शासन का काल 410 ई० से 825 ई० तक था। इन लोगों को स्केण्डेवियन या डेन लोगों ने पराजित किया जिनके आक्रमण तथा राज्य का काल 787 ई० से 1070 ई० तक था। डेन लोगों के बाद नॉरमन लोगों का ब्रिटेन पर सन् 1066 ई० से 1154 ई० तक शासन रहा2

ब्रिटेन पर रोमनों का शासन (43 ई० से 410 ई०)

यह पिछले पृष्ठों पर रोमन साम्राज्य के विषय में लिखा गया है कि इनका शासन रूम सागर के चारों ओर तथा लगभग पूरे यूरोप के देशों पर था। रोमनों का सबसे शक्तिशाली सेनापति जूलियस सीजर था। उसने 58 ई० पू० में गॉल (फ्रांस) को जीतने के लिए उस पर आक्रमण किया। गॉल में केल्ट जाति के लोग रहते थे। ब्रिटेन में रहने वाले केल्ट (ब्रिटोन्स) लोगों ने अपने सम्बन्धियों की गॉल में रोमनों के विरुद्ध मदद की। इससे क्रोधित होकर जूलियस सीजर ने 55 ई० पू० में ब्रिटेन पर आक्रमण किया जो कि ब्रिटोन्स लोगों ने असफल कर दिया। अगले वर्ष 54 ई० पू० में 25000 सैनिकों के साथ उसने फिर ब्रिटेन पर आक्रमण कर दिया। इस बार उसे अधिक सफलता मिली। ब्रिटेन से गॉल निवासियों को सहायता न देने का वचन लेकर उसने सन्धि कर ली और वापस गॉल लौट आया। फ्रांस से जूलियस सीजर रोम चला गया जहां पर उसके शत्रुओं ने उसकी हत्या कर दी।

सन् 43 ई० में रोमन सम्राट् क्लाडियस ने अपने सेनापति प्लाटियस के नेतृत्व में 1,50,000 सैनिक ब्रिटेन को विजय करने के लिए भेजे। उन्होंने पांच वर्ष ब्रिटोन्स से युद्ध करके 47 ई० में ब्रिटेन की दक्षिण और मध्य की भूमि को जीत लिया। 61 ई० में ब्रिटेन की रानी बोडिका के नेतृत्व में दक्षिण में रोमनों के विरुद्ध एक जोरदार विद्रोह हुआ किन्तु इसको दबा दिया गया। अब इंगलैंड का दक्षिणी भाग रोमन प्रान्त बन गया।

रोमन सम्राट् बेस्पसियन ने अपने प्रसिद्ध सेनापति जूलियस एग्रीकोला को 77 ई० में ब्रिटेन भेजा। उसने वेल्स तथा स्काटलैण्ड का अधिकतर भाग जीत लिया जिस पर 78 ई० से 85 ई० तक रोमनों का अधिकार रहा। उसने देश की विजय को पूरा किया और ब्रिटेन के विकास में अपना सारा ध्यान लगाया।


1, 2. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 4-6 तथा 116-118, लेखक प्रो० विशनदास एम० ए० और ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 3-7, लेखक रामकुमार एम० ए० ।


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ब्रिटेन पर रोमनों ने करीब 300 वर्ष तक शासन किया। जब सन् 400 ई० में रोम नगर पर बीसीगोथ (पश्चिमी जाट) अलारिक* ने आक्रमण किया तो रोमन लोग ब्रिटेन को छोड़कर अपने देश में लौट आये। इसके अतिरिक्त, वहां अनेक घरेलू झगड़े तथा लड़ाइयां भी होती रहती थीं। इन कारणों से मजबूर होकर रोमनों को सदा के लिए ब्रिटेन छोड़ना पड़ा।

ब्रिटेन पर रोमनों का 300 वर्ष शासन रहा। परन्तु वे ब्रिटेन को उस तरह से रोमन सभ्यता का अनुयायी नहीं बना सके जिस तरह उन्होंने फ्रांस को बनाया। उन्होंने ब्रिटेन पर कुछ प्रभाव अवश्य डाला, परन्तु वह अस्थायी था। ब्रिटेन में क्रिश्चियन धर्म का प्रारम्भ रोमन शासन की भारी जीत थी। यह धर्म कुछ समय के लिए कमजोर अवश्य हो गया था, किन्तु यह फिर सारे ब्रिटिश द्वीपसमूह में फैल गया1

ब्रिटेन पर जूट्स, सेक्सन्स एंगल्स की विजय (410 ई० से 825 ई०)

जूट्स, सेक्सन्स और एंगल्स लोग जर्मनी की एल्ब नदी के मुहाने और डेन्मार्क के तट पर रहते थे। ये लोग बड़े बहादुर थे। ये क्रिश्चियन धर्म के विरोधी थे।

ब्रिटेन से रोमनों के चले जाने के बाद ब्रिटेन के लोग बहुत कमजोर और असहाय थे। इन लोगों पर स्काटलैंड के केल्टिक कबीलों, पिक्ट्स और स्काट्स ने हमला कर दिया। ब्रिटेन निवासियों की इसमें भारी हानि हुई। इनमें इतनी शक्ति न थी कि वे इन हमलों करने वालों को रोक सकें। इसलिए मदद के लिए इन्होंने जूट लोगों को बुलाया। जूट्स ने उसी समय ब्रिटिश सरदार वरटिगर्न (King Vortigern) के निमन्त्रण को स्वीकार कर लिया। जटलैण्ड से जाटों की एक विशाल सेना अपने जाट नेता हेंगिस्ट और होरसा के नेतृत्व में सन् 449 ई० में केण्ट (Kent) में उतर गई। इन्होंने पिक्ट्स और स्कॉट्स को हराया और वहां से बाहर निकाल दिया। उन्हें भगाने के बाद जाट ब्रिटेन के लोगों के विरुद्ध हो गये और उन्हें पूरी तरह से अपने वश में कर लिया और 472 ई० तक पूरे केण्ट पर अधिकार कर लिया। यहां पर आबाद हो गये। इसके अतिरिक्त जाटों ने अपना निवास व्हिट (Wight) द्वीप में किया2

जटलैण्ड के जाटों की विजय सुनकर उनके दक्षिणवासी सेक्सन्स तथा एंगल्स भी ललचाये। सर्वप्रथम सेक्सन्स ब्रिटेन में पहुंचे और उन्होंने ऐस्सेक्स, मिडिलसेक्स और वेस्सेक्स नाम से तीन राज्य स्थापित किये। वहां पर इन्होंने कुछ बस्तियां आबाद कर दीं। ब्रिटेन की जनता ने बड़ी वीरता से सेक्सन्स का मुकाबला किया और 520 ई० में मोण्डबेडन ने उन्हें करारी हार दी। इस तरह से


  • . अधिक जानकारी के लिए इसी अध्याय में अद्भुत जाट विजेता अलारिक प्रकरण देखो।
1. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 7-9, लेखक प्रो० विशनदास; हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 8-13, लेखक रामकुमार लूथरा।
2. आधार लेख - इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 16-17, लेखक प्रो० विशनदास; हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 21-22, लेखक रामकुमार लूथरा, अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 63-66, लेखक उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 86 लेखक बी० एस० दहिया तथा जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 43, लेखक ले० रामसरूप जून।


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सेक्सन्स का बढ़ना कुछ समय के लिए रुक गया। परन्तु 577 ई० में डियोरहम की लड़ाई में सेक्सन्स ने केब्लिन के नेतृत्व में ब्रिटेन लोगों पर पूरी विजय प्राप्त कर ली तथा उनको अपना दास बनाए रखा। यह कामयाबी जूट्स (जाटों) की सहायता से हुई थी जिसके लिए सेक्सन्स ने उनसे मांग की थी1

अब प्रश्न पैदा होता है कि उन जूट्स (जाटों) का क्या हुआ जिन्होंने हेंगिस्ट और होरसा के नेतृत्व में ब्रिटेन के एक बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था और सेक्सन्स को सहायता देकर उनका ब्रिटेन पर अधिकार करवाया। इसका उत्तर यही हो सकता है कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने इनके इतिहास को लिखने में पक्षपात किया है।

सेक्सन्स के बाद एंग्ल्स पहुंचे जो जूट्स और सेक्सन्स की तरह ही लड़ाके थे। सन् 613 ई० में नार्थम्ब्रिया के एंग्ल राजा ने ब्रिटेन पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की। इसके बाद इन्हीं एगल्स के नाम पर ब्रिटेन का नाम इंग्लैंड हो गया। ये एंगल्स लोग भी जाट थे जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिखा गया है। इंग्लैंड में रहने वालों को अंग्रेज कहा गया।

एंगल्स लोग संख्या में दूसरों से अधिक थे इसी कारण से ब्रिटेन को एंगल्स की भूमि एवं इंग्लैंड कहा गया। इस तरह से ब्रिटेन पर जूट्स, सेक्सन्स और एंगल्स का अधिकार हो गया। इसी को ब्रिटेन पर अंग्रेजों की जीत कहा जाता है। इन तीनों कबीलों ने अपने अलग-अलग राज्य स्थापित किए। जूट्स ने केण्ट (Kent); सैक्सन्स ने सस्सेक्स (Sussex), एस्सेक्स (Essex), वेसेक्स (Wessex) और एंगल्स ने ईस्ट एंगलिया (East Anglia), मर्शिया (Mercia) और नार्थम्ब्रिया (Northumbria) के राज्य स्थापित किये। ये सातों राज्य सामूहिक रूप से हेपटार्की कहलाते थे। परन्तु ये राज्य स्वतन्त्र नहीं थे। इन सातों में जो शक्तिशाली होता था वह दूसरों का शासक बन जाता था।

ऊपर कहे हुए तीनों कबीले संगठित नहीं थे। नॉरमनों ने जब तक इस देश को नहीं जीता, इंग्लैंड में शक्तिशाली केन्द्रीय राज्य की स्थापना नहीं हो सकी। इन कबीलों ने देश से क्रिश्चियन धर्म और रोमन सभ्यता को मिटा दिया। आधुनिक इंग्लैंड एंग्लो-सैक्सन्स का बनाया हुआ है। आधुनिक अंग्रेज किसी न किसी रूप में इंग्लो-सैक्सन्स के ही वंशज हैं।

अंग्रेज जाति की उत्पत्ति और बनावट के सम्बन्ध में दो प्रतिद्वन्द्वी सिद्धान्त हैं।

  1. पलग्रोव, पियरसन और सेछम आदि प्रवीण मनुष्य रोमन केल्टिक सिद्धान्त को मानते हैं। उनका यह विचार है कि आधुनिक इंग्लैंड में रोमन-केल्टिक रक्त और संस्थाएं मौजूद हैं।
  2. ग्रीन और स्टब्स जैसे दूसरे प्रवीन मनुष्य ट्यूटानिक सिद्धान्त को मानते हैं। उनका यह विचार है कि ट्यूटानिक अर्थात् जूट, एंगल, सैक्सन और डेन लोगों का रक्त और संस्थाएं बहुत कुछ आधुनिक इंग्लैंड में पाई जाती हैं। इन दोनों में से ट्यूटानिक सिद्धान्त अधिक माना जाता

1. आधार लेख - इंग्लैण्ड का इतिहास पृ० 16-17, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 21-22, लेखक रामकुमार लूथरा; अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 63-66, लेखक उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 86 लेखक बी० एस० दहिया तथा जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 43, लेखक ले० रामसरूप जून।


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है और आमतौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रिटिश जाति मिले-जुले लोगों की जाति है। जिनमें ट्यूटानिक तत्त्व प्रधान है, जबकि केल्टिक तत्त्व भी पश्चिम में और आयरलैंड में बहुत कुछ बचा हुआ है1। इसका सार यह है कि इंगलैंड द्वीपसमूह के मनुष्यों की रगों में आज भी अधिकतर जाट रक्त बह रहा है। क्योंकि केल्टिक आर्य लोग तथा जूट, एंगल, सैक्सन और डेन लोग जाटवंशज थे। आज भी वहां पर अनेक जाटगोत्रों के मनुष्य विद्यमान हैं जो कि धर्म से ईसाई हैं।

इंगलैंड पर डेनों के आक्रमण तथा राज्य (787 ई० से 1070 ई०)

जो आक्रमणकारी स्केण्डेनेविया से आये उन्हें नॉरमन या विकिंग्ज और डेन आदि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा गया। वे बड़े वीर योद्धा थे। डेन लोग डेन्मार्क, नॉरवे, स्वीडन, उत्तरी जर्मनी और उत्तरी समुद्रतटों से इंगलैंड में आये। इन लोगों ने इंग्लिश चैनल तटों पर दो शताब्दियों तक उपद्रव किए। एंग्लो-सैक्सनों के देश को जीत कर तथा यहां बस जाने के बाद इन्होंने इंगलैंड पर आक्रमण आरम्भ किये। सन् 787 ई० से 1070 ई० तक डेनों के आक्रमण और राज्य का काल है। धीरे-धीरे ये लोग इंगलैंड में बस गये और अंग्रेजों के साथ घुल-मिलकर एक जाति बन गये। डेन लोग जाट थे तथा इंगलैंड के निवासी भी इनके भाई थे इसीलिए वे बहुत आसानी से आपस में मिलकर एक हो गये। डेनों ने अंग्रेजों की भाषा अपना ली और ईसाई मत ग्रहण कर लिया2

महान् एल्फ्रेड से पहले डेनों का संघर्ष - डेन लोग पहले-पहल 794 ई० में इंगलैंड में आये और उन्होंने जेरो के मठ को लूट लिया। सम्राट् एम्बर्ट (802 ई० से 839 ई०) की मृत्यु के पश्चात् जब उसका पुत्र एथलवुल्फ राजा बना तब डेनों ने और ज्यादा दुःख देना आरम्भ कर दिया। 866 ई० में एक डेन सेना ने ईस्ट एंगलिया पर आक्रमण किया और यार्क पर अधिकार कर लिया तथा दक्षिण नार्थम्ब्रिया को भयभीत किया। वे मर्शिया में नॉटिंघम तक घुस गए और थेटफोर्ड में ईस्ट एंगलिया के राजा एड्मण्ड का वध कर दिया। 871 ई० में डेन सेना ने वेस्सेक्स पर आक्रमण किया। यहां उन्होंने एथलरेड को युद्ध में हराया3

महान् एल्फ्रेड के साथ डेनों का संघर्ष - एल्फ्रेड ने डेनों से कई बार युद्ध किए और कई बार धन देकर उन्हें लौटा दिया। अन्त में 878 ई० में उन्होंने चिप्पेहम के स्थान पर एल्फ्रेड को पूरी तरह पराजित कर दिया और उसे एक सूअर पालने वाले के घर में शरण लेनी पड़ी। इस सम्राट् ने फिर एक शक्तिशाली सेना संगठित की और डेनों को एडिंग्टन के युद्ध में पूरी तरह से हराया तथा उनके नेता गुर्थ्रम को 878 ई० में बेडमोर की सन्धि करने के लिए मजबूर किया। इस समय से एल्फ्रेड ने स्वदेश में शान्ति स्थापित कर ली और अंग्रेज तथा डेन सानन्द इकट्ठे रहने लगे4

एल्फ्रेड के पश्चात् डेनों का संघर्ष - एल्फ्रेड सन् 901 ई० में मर गया। उसके बड़े पुत्र ‘बड़े एडवर्ड’ ने शासन की बागडोर


1, 2, 3, 4. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 17-18, 113-114, 40 से 43, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 5-6, 21-22, 32-H से 32-O लेखक रामकुमार लूथरा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-401


सम्भाली। उसने डेनों से मर्शिया अजुर ईस्ट एंगलिया छीन लिया। सन् 924 ई० में उसकी मृत्यु होने के बाद उसका पोता एड्गर प्रसिद्ध सम्राट् हुआ। वह बड़ी शान्ति के साथ राज्य करता रहा, इसलिए उसे शान्तिप्रिय एड्गर कहा गया है। उसने सन् 959 से 975 ई० तक शासन किया। उसके पुत्र अनुद्यत एथलरेड के समय में डेन्मार्क से डेनों ने आक्रमण कर दिया। एथलरेड डेनों का सामना नहीं कर सका, इसलिए उसने डेनों को धन देकर लौटा दिया। जितना अधिक धन वह उन्हें देता था उतनी ही अधिक बार डेन आते थे। इससे तंग आकर उसने इंगलैंड में रहने वाले सब डेनों को मारने का आदेश जारी कर दिया। उसके वध का बदला लेने के लिए डेन्मार्क के राजा स्वेन ने इंगलैंड पर आक्रमण किया और उसे विजय कर लिया। अब डेन (जाट) स्वेन (Sweyn) इंगलैंड की गद्दी पर बैठा। उसकी सन् 1014 ई० में मृत्यु हो गई। उसके मरने पर एथलरेड फिर से इंगलैंड का राजा बना। स्वेन के पुत्र कैन्यूट ने एथलरेड से एक ही वर्ष में छः युद्ध किए और उसे मारकर कैन्यूट इंगलैंड का शासक बन गया1

डेन राजा कैन्यूट (सन् 1016-1035 ई०)

कैन्यूट इंगलैंड का प्रथम डेन सम्राट् था जिसने फिर से इंगलैंड में शान्ति और समृद्धि स्थापित की। यद्यपि यह एक विदेशी विजेता था, तो भी वह एक अच्छा राजा था। उसने एक इंगलैंड निवासी के समान शासन करना आरम्भ किया और ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। एथलरेड की विधवा से विवाह करके उसने नॉरमण्डी से भी मैत्री-सम्बन्ध जोड़ लिए। उसने 1028 ई० में नार्वे और डेन्मार्क को अपने अधीन कर लिया तथा स्काटलैंड के राजा ने भी उसे अपना अधिपति स्वीकार कर लिया। उसकी विदेशनीति प्रमुख रूप से सफल रही और उसने महाद्वीप की दृष्टि से इंगलैंड की स्थिति को ऊंचा किया।

उसने अंग्रेजों और डेनों को समान रूप से सरकारी नौकरियां दीं। वह एक योग्य शासक सिद्ध हुआ। उसने इंगलैंड को चार प्रान्तों में बांटकर प्रत्येक को एक नवाब (Earl) के अधीन रखा। वह इंगलैंड पर एक देशभक्त की तरह राज्य करता रहा। उसकी मृत्यु 1035 ई० में हो गई।

कैन्यूट के दो पुत्रों ने आपस में लड़ झगड़कर सन् 1042 ई० में अपना राज्य खो दिया। डेन लोग अंग्रेज जाति में लीन हो गये। नॉरमण्डी से आकर साधु एडवर्ड ने इंगलैंड का राज्य सम्भाला2

साधु एडवर्ड (1042 ई० से 1066 ई०)

वह अनुद्यत एथलरेड और एम्मा का पुत्र था। धार्मिक प्रवृत्तियों तथा चरित्र की साधुता के कारण उसे साधु एडवर्ड कहा जाता था। वह इंगलैंड का राजा बनने की अपेक्षा एक नार्मन भिक्षु बनने के अधिक योग्य था। नार्मनों के प्रति उसकी अनुचित कृपाओं के कारण अंग्रेज उससे घृणा करने लगे, इस कारण इंगलैंड में दो दल खड़े हो गये - (1) राजा का दल अर्थात् नॉरमन और उसके अनुयायी (2) राष्ट्रीय अथवा सेक्सन दल, जिसका नेता गाडविन जो राजा का विरोधी था। उसके राज्यकाल में वेस्सेक्स का नवाब गाडविन और उसका पुत्र हेरोल्ड इंगलैंड के वास्तविक


1, 2. आधार लेख - इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 40 से 43, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 32-H से 32-O लेखक रामकुमार लूथरा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-401


शासक थे। हेरोल्ड ने राजा को नॉरमनों को देश से निकालने के लिए विवश कर दिया। उनके चले जाने के बाद एडवर्ड हेरोल्ड की सलाह से राज्य करता रहा। 1066 ई० में उसकी मृत्यु होने पर उसका बहनोई हेरोल्ड राजा बना1

इंगलैंड पर नॉरमन विजय (सन् 1066-1154)

स्केण्डेनेविया में रहने वाले जाटों को नार्थमेन-नॉरमन, विकिंग्स और डेन आदि नामों से पुकारा गया। वे बड़े बलवान् और उग्र थे। वे अपने जहाजों में ग्रीनलैण्ड व अमेरिका में भी पहुंचे। उन्होंने रूम सागर पर प्रभुता प्राप्त करके सिसिली और दक्षिणी इटली में भी एक राज्य स्थापित किया था। उनका एक दल रूस गया जहां पर एक राज्य स्थापित किया। इन लोगों का एक दल सन् 913 ई० में फ्रांस गया और वहां पर कुछ क्षेत्र विजय करके वहां के निवासी हो गये। इन लोगों के नाम पर वह क्षेत्र नॉरमण्डी कहलाया।

1066 ई० में साधु एडवर्ड की मृत्यु होने पर हेरोल्ड इंगलैण्ड का राजा बना। नॉरमण्डी के नॉरमन ड्यूक विलियम ने 1066 ई० में इंगलैण्ड पर आक्रमण कर दिया। राजा हैरोल्ड ने अपनी अंग्रेजी सेना के साथ नॉरमन सेना का मुकाबला किया। अन्त में 24 अक्तूबर, 1066 ई० में हेस्टिंग्स अथवा सेनलेक के स्थान पर नॉरमन सेना ने अंग्रेजी सेना को परास्त किया। हेरोल्ड बड़ी वीरता से लड़ा परन्तु उसकी आंख में तीर लगा जिससे वह रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ। नॉरमण्डी के ड्यूक विलियम का वैस्टमिन्स्टर में इंगलैण्ड के राजा के रूप में राज्याभिषेक किया गया2

उजागरसिंह माहिल ने इन नॉरमनों के विषय में लिखा है कि “नॉरमन और कोई नहीं थे बल्कि ये जटलैण्ड के जूट या जाट थे जिन्होंने फ्रांस के उत्तरी समुद्री तट पर अधिकार कर लिया था। वे ह्रोल्फ दी गेंजर (Hrolf the Ganger) के नेतृत्व में उत्तरी फ्रांस पर उसी प्रकार टूट पड़े थे जिस प्रकार उनके पूर्वज हेंगेस्ट एवं होरसा बर्तानिया पर टूट पड़े थे। ह्रोल्फ ने सेन (Seine) नदी के डेल्टा के दोनों ओर के क्षेत्र को फ्राँस के राजा चार्ल्स-दी-सिम्पल से छीन लिया। फ्राँस के राजा ने नॉरमन नेता ह्रोल्फ से एक सन्धि 912 ई० में कर ली जिसके अनुसार इस समुद्री तट को राजा ने नॉरमनों को सौंप दिया और अपनी पुत्री का विवाह ह्रोल्फ से कर दिया। इस तरह से ह्रोल्फ पहला ड्यूक ऑफ नॉरमण्डी बन गया। इनका नाम नॉरमन पड़ने का कारण यह है कि ये लोग नॉरवे और जूटलैण्ड के उत्तरी भाग में रहते थे। विजेता विलियम इस ह्रोल्फ से सातवीं पीढ़ी में था।”


1, 2. आधार लेख - इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 40 से 43, 40, 49, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 32-H से 32-O, 32-S से 32-T लेखक रामकुमार लूथरा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-403



ड्यूक ऑफ नॉरमण्डी शासकों की वंशावली निम्न प्रकार से है -

1. ह्रोल्फ (912-927 ई०)

2. विलियम लोंग्वर्ड (927-943 ई०)

3. रिचर्ड प्रथम - निडर (943-996 ई०)

4. रिचर्ड द्वितीय - योग्य (996-1026 ई०)

5. रिचर्ड तृतीय (1026-1028 ई०)

6. राबर्ट (1028-1035 ई०)

7. विलियम प्रथम विजेता, (b.1035-r.1066-1087.

विलियम विजेता द्वारा इंगलैण्ड की विजय तथा उसके वंशज राजाओं का शासन, इंगलैंड के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। उत्तर में जटलैंड में रहने वाले पूर्वजों का वंशज विलियम विजेता एक जाट था। उस बात को सिद्ध करने के लिए मैं इतिहासकार एच० जी० वेल्ज का वर्णन लिखता हूं जिसने अपनी पुस्तक “दी आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री” के अध्याय 32, विभाग 8 में डेन, नॉरमन तथा विलियम विजेता के विषय में निम्न प्रकार से लिखा है -

सर्वव्यापक इतिहास के दृष्टिकोण से ये सब लोग पूर्णतः एक ही नॉरडिक परिवार के लोग थे। इनके समूह न केवल पश्चिम की ओर बढ़ते गये बल्कि पूर्व में भी चले गये। हम बाल्टिक सागर से काला सागर तक गोथ कहे जाने वाले इन लोगों के आन्दोलनों का बहुत ही रोचक वर्णन कर चुके हैं। इन गोथ लोगों के दो भाग आस्ट्रोगाथ (पूर्वी जाट) और वीसीगोथ (पश्चिमी जाट) लोगों की उत्साहपूर्ण यात्रायें खोज करके लिख दी हैं जो कि स्पेन में वीसीगोथ राज्य तथा इटली में आस्ट्रोगोथ साम्राज्य थे जो समाप्त हो गये।

नौवीं शताब्दी में एक दूसरा आंदोलन इन नॉरमन लोगों का रूस के पार चल रहा था और उसी समय इंगलैण्ड में उनकी बस्तियां तथा नॉरमण्डी में ड्यूक का पद मिलकर उनकी रियासत नॉरमण्डी स्थापित हो रही थी। दक्षिणी स्कॉटलैण्ड, इंगलैंड, पूर्वी आयरलैंड, फलैंडर्ज़ (बेल्जियम में पश्चिमी प्रान्त), नॉरमण्डी तथा रूस के लोगों में इतने अधिक सामान्य तत्त्व विद्यमान हैं कि हम उनकी पहचान करने में उनको अलग-अलग नहीं कर सकते। मूलतः ये सभी लोग गोथिक या नॉरडिक हैं। इनके नाप-तौल के पैमाने इंच व फुट एक ही थे।

रूसी नॉरसमेन (नॉरमन) गर्मियों में नदियों के रास्ते यात्रा करते थे। ये लोग रूस में बड़ी संख्या में थे। वे अपने जहाजों को उत्तर की ओर से दक्षिण की ओर बहनेवाली नदियों से ले जाते थे। वे लोग कैस्पियन तथा काला सागर पर समुद्री डाकुओं, छापामारों तथा व्यापारियों की तरह प्रतीत होते थे। अरब इतिहासकारों ने इन लोगों को कैस्पियन सागर पर देखा तथा यह भी ज्ञात हुआ कि इनको रूसी कहा जाता था। इन लोगों ने सन् 865, 904, 943 तथा 1073 ई० में छोटे समुद्री जहाजों के एक बड़े बेड़े के साथ पर्शिया (ईरान) पर छापा मारा और कांस्टेण्टीपल (पूर्वी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-404


रोमन साम्राज्य की राजधानी) को भयभीत किया। इन नॉर्थमेन (नॉरमन) लोगों में एक रूरिक था जो कि लगभग सन् 850 ई० में नोवरगोरॉड (Novgorod) (पश्चिमी रूस में, लेनिनग्राड के दक्षिण में इलमेन (Ilmen) झील का क्षेत्र) का शासक बना और उसके उत्तराधिकारी ड्यूक आलेग ने कीफ (Kief) पर अधिकार कर लिया तथा आधुनिक रूस की नींव डाल दी। रूसी विकिंग्ज (नॉरमन) के कांस्टेण्टीपल के स्थान पर उनके युद्धकला के गुणों की बहुत प्रशंसा की गई। यूनानी उन्हें वरान्जियन्ज (Varangians) कहते थे तथा इन्होंने एक वरान्जियन्ज अङ्गरक्षक दल की स्थापना भी की।

1066 ई० में नॉरमनों द्वारा इंगलैण्ड को जीत लेने के पश्चात् बहुत से डेन तथा अंग्रेज लोगों को देश से बाहर निकाल दिया गया था और वे रूसी वरान्जियन्ज में सम्मिलित हो गये थे। उसी समय नॉरमण्डी के नॉरमन पश्चिम से रूमसागर में प्रवेश करने के लिए अपने पथ पर अग्रसर थे। पहले वे धन के लालच में आये किन्तु बाद में स्वतन्त्र छापामार बन गये। वे मुख्यतः समुद्र से नहीं बल्कि बिखरे हुए समूहों में थल से भी आए। वे लोग राइनलैण्ड (Rhineland, पश्चिमी जर्मनी में) तथा इटली से होकर आए थे। उनका उद्देश्य लड़ाई सम्बन्धी कार्यों, लूटपाट करने और तीर्थयात्रा करने का था। नौवीं और दसवीं शताब्दियों में उनकी ये तीर्थयात्राएं बहुत उन्नति पर थीं। जैसे ही इन नॉरमनों की शक्ति बढ़ी, वे लुटेरे एवं भयंकर डाकू के रूप में प्रकट हुये। सन् 1053 ई० में इन्होंने पूर्वी सम्राट् तथा पोप पर इतना दबाव डाला कि वे इनके विरुद्ध दुर्बल तथा विफल बन गये। बाद में ये हार गये और पकड़े गये तथा पोप द्वारा माफ कर दिए गए।

सन् 1060-1090 ई० में ये लोग केलेबरिया तथा दक्षिणी इटली में आबाद हो गये। सारासेन्ज (Saracens) से सिसिली पर विजय पाई। इन नॉरमन लोगों ने अपने नेता राबर्ट गुइस्कार्ड (Robert Guiscard), जो कि साहसी योद्धा था, और एक तीर्थयात्री के रूप में इटली में प्रवेश कर गया था और जिसने केलेबरिया (Calabria - इटली का एक दक्षिणी प्रान्त) में एक डाकू के रूप में अपना कार्य शुरु किया था, के नेतृत्व में सन् 1081 ई० बाईजन्टाईन (Byzantine) साम्राज्य को भयभीत कर दिया था।

उसकी सेना ने, जिसमें एक सिसिली के मुसलमानों का सेना दल था, ब्रिण्डिसी (Brindisi - इटली के पूर्वी तट पर) से समुद्र पार करके एपिरस (Epirus - यूनान का पश्चिमी प्रान्त) में प्रवेश किया था। परन्तु उनका यह मार्ग पाइर्रहस (Pyrrhus) के उस मार्ग से विपरीत था जिससे उसने 275 ई० पू० में रोमन साम्राज्य पर आक्रमण किया था।

इस राबर्ट ने बाईजन्टाईन साम्राज्य के शक्तिशाली दुर्ग दुराज्जो (Durazzo - अलबानिया में) पर घेरा डाला और उस पर सन् 1082 में अधिकार कर लिया। किन्तु इटली में घटनाओं के कारण उसे वहां से इटली लौटना पड़ा। अन्त में बाईजण्टाईन साम्राज्य पर नॉरमनों के इस पहले आक्रमण को समाप्त किया। इस प्रकार अधिक शक्तिशाली कमनेनियन (Comnenian) वंश के शासन के लिए रास्ता खोल दिया, जिसने सन् 1082 से 1204 ई० तक वहां शासन किया।

रोबर्ट गुइस्कार्ड ने सन् 1084 में रोम का घेरा लगाया तथा उसे जीत लिया। इसके लिये


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-405


इतिहासकार गिब्बन ने बड़े सन्तोष से यह स्वीकार किया है कि इन लुटेरों में सिसिली के मुसलमान सैनिक भी शामिल थे।

12वीं शताब्दी के इटली के पूर्वी साम्राज्य पर नॉरमन लोगों ने तीन और आक्रमण किए। उनमें से एक रोबर्ट गुइस्कार्ड के पुत्र ने किया तथा दूसरे दो आक्रमण सिसिली से सीधे समुद्री मार्ग से किए गए थे।

आगे यही लेखक एच० जी० वेल्ज इसी अध्याय 32, के पृष्ठ 635 पर लिखते हैं कि “जब हम इन दक्षिणी रूसी क्षेत्रों की वर्तमान जनसंख्या के विषय में सोचते हैं तो हमें नॉरमन लोगों का बाल्टिक तथा काला सागर के बीच आवागमन भी याद रखना होगा और यह भी याद रखना होगा कि वहां स्लावोनिक (Slavonic) जनसंख्या काफी थी जो कि सीथियन तथा सरमाटियन्ज (Sarmatians) के वंशज एवं उत्तराधिकारी थे। तथा वे इन अशान्त, कानूनरहित किन्तु उपजाऊ क्षेत्रों में पहले ही आबाद हो गये थे। ये सब जातियां परस्पर घुलमिल गईं तथा एक-दूसरे के प्रभाव में आ गईं। स्लावोनिक भाषाओं की, सिवाय हंगरी में, सम्पूर्ण सफलता से प्रतीत होता है कि स्लाव (Slav) लोगों की ही जनसंख्या अत्यधिक थी।”

मैंने यह विस्तृत उदाहरण इस बात को स्पष्ट करने के लिए दिए हैं कि डेन, विकिंग्ज, नॉरमन और गोथ - ये सब सीथियन जाटों में से ही थे तथा उन्हीं के वंशज थे1

इंगलैंड पर नॉरमन राज्य (1066-1154 ई०)

विलियम प्रथम (विजयी) (1066-1087 ई०) -

14 अक्तूबर 1066 ई० को सेनलेक अथवा हेस्टिंग्स की विजय से विलियम प्रथम को इंगलैंड का सिंहासन प्राप्त हो गया। इस विजय के पश्चात् वह लन्दन की ओर बढ़ा और बुद्धिमानों की सभा (Witar) ने उसका स्वागत किया और अपनी इच्छा से उसे राजा के रूप में चुन लिया। इस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से उसके अधिकार का आधार चुनाव हो गया।

सेनलेक की विजय से विलियम इंगलैंड के केवल एक भाग का ही स्वामी बना था। देश के दूसरे भागों में अभी तक स्वतन्त्रता के युद्ध का कार्य चल रहा था तथा इंगलैंड के कई भागों में विद्रोह हुए और उन सबको दबाकर अपनी विजय को पूर्ण करने के लिए विलियम को पांच वर्ष तक घोर युद्ध करना पड़ा।

विलियम की नीति यह थी कि राजा की स्थिति को दृढ़ बनाया जाय और सारे इंगलैंड में एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन स्थापित किया जाय। वह सारी शक्ति अपने आप में केन्द्रित करके देश का वास्तविक शासक बनना चाहता था।

अंग्रेजों को अपने अधीन करने के लिए उनसे उनकी भूमियां जब्त कर लीं और वह नॉरमनों को दे दीं। इससे अमीर अंग्रेजों की शक्ति भंग हो गई तथा उनकी ओर से विरोध या विद्रोह का भय


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 66 से 70, लेखक उजागरसिंह माहिल।


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न रहा। उसने देशभर में किले बनवा दिये जिनमें नॉरमन सैनिक रखे ताकि वे अंग्रेजों के किसी भी विद्रोह को दबा सकें।

नॉरमनों को अपने अधीन रखने के लिये उसने नवाबी प्रथा का लोप कर दिया। उसने नॉरमन सरदारों को एक स्थान पर भूमि न देकर भिन्न-भिन्न भागों में बिखेरकर भूमियां दीं ताकि उनकी शक्ति का संगठन न हो सके। उसने अंग्रेजों की मिलिशिया सेना संगठित की, जो नॉरमनों के विद्रोह को दबाने के लिए हर समय तैयार रहती थी। उसने मुख्य काश्तकारों और उप-काश्तकारों को सालिसबरी में इकट्ठा करके उनसे राजा के प्रति भक्त रहने की शपथ दिलवाई।

उसने अंग्रेजी चर्च को रोम की बजाय अपने अधीन कर लिया। उसने पादरियों को मजबूर किया कि वे उसकी अधीनता स्वीकार करें तथा उसी से पद प्राप्त करें। उसने पादरियों की सभा (Synod) को आज्ञा दी कि वह राजा की स्वीकृति के बिना कोई कानून न बनाये। इससे चर्च की शक्ति राज के हाथों में आ गई।

विलियम द्वारा पादरियों को ब्रह्मचारी रहने की आज्ञा दी गई। पुराने सैक्सन पादरियों के स्थान पर नए नॉरमन पादरी रखे गए और चर्च का रोम के साथ सम्बन्ध कम कर दिया।

विलियम एक चतुर और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था। उसने इंगलैंड की सम्पत्ति और आय के स्रोतों की जाँच करवाई। यह जाँच इतनी पूर्ण थी कि कोई भूमि, सड़क तथा पशु आदि ऐसा न था जिसे पुस्तक में दर्ज न किया गया हो। यह जाँच सन् 1086 ई० में सम्पूर्ण हो गई और इसे ‘डूम्स्डे’ नामक पुस्तक में दर्ज किया गया। इसी को “डूम्सडे पुस्तक” (Doomsday Book) कहते हैं। यह प्रत्येक भूपति के नाम और उसकी जायदाद का वर्णन करती है तथा 11वीं शताब्दी के इंगलैंड के हालात का बहुमूल्य अभिलेख (Record) है। इससे सरकार की आय भी निश्चित हो गई और सरदारों की शक्ति का भी ज्ञान हो गया। यह पुस्तक उस समय के इंगलैंड का सच्चा चित्र है।

विलियम ने स्काटलैंड पर आक्रमण किया और उससे अपना परमाधिकार मनवाया। उसने फ्रांस के राजा को, विलियम के विद्रोही भाई की सहायता करने पर, दंड देने के लिए फ्रांस पर आक्रमण किया। उस प्रकार उसने इंगलैंड की प्रतिष्ठा बढ़ाई।

विलियम की इंगलैंड के प्रति सबसे बड़ी सेवा यह थी कि उसने देश में एक दृढ़ और निश्चित राष्ट्रीय राजतन्त्र स्थापित किया। वह एक योग्य प्रशासक और सफल राजनीतिज्ञ था। वह विदेशी था, परन्तु उसने इंगलैंड पर बुद्धिमत्ता के साथ शासन किया और अपनी प्रजा का उपकार किया। वह एक कठोर और कड़ा शासक था। उसने देश में शान्ति स्थापित की। राज्यभर में कोई आदमी अपनी छाती पर सोना रखकर जा सकता था। यह कहना उचित ही है कि “नॉरमन विजय इंगलैंड के इतिहास में एक निर्णायक स्थिति अथवा स्थल चिह्न है और यह विजय एक गुप्त आशीर्वाद थी।”

सम्राट् विलियम की सितम्बर 9, 1087 ई० को अपने घोड़े पर से गिरकर मृत्यु हो गई1


1. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 6-74, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 32-R - 32-X, लेखक रामकुमार लूथरा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-407


विलियम द्वितीय (1087-1100 ई०) -

विलियम विजयी ने अपने सबसे बड़े पुत्र राबर्ट को वसीयत द्वारा नॉरमण्डी का राज्य दिया और अपने अधिक पुरुषार्थी पुत्र विलियम को इंगलैंड का राज्य दिया। अपने तीसरे पुत्र हेनरी को केवल धन ही दिया। विलियम द्वितीय का अभिषेक 26 सितम्बर, 1087 ई० को वेस्टमिनिस्टर के बड़े गिरजा में हुआ।

वह एक अविश्वासी, अधार्मिक, सिद्धान्तहीन और क्रूर राजा था। उसमें अपने पिता के कोई गुण नहीं थे। उसने अपनी अनुचित आज्ञाओं को लोगों पर लागू करने के लिए वेतनभोगियों को अपने इर्दगिर्द इकट्ठा कर लिया। वह सरदारों से धन निचोड़ने के लिए अत्याचारपूर्ण तरीके प्रयोग में लाता था। इस कारण सामन्तगण इसको पसन्द नहीं करते थे तथा युद्ध आदि में कभी भी इसकी सहायता करने को तैयार नहीं होते थे।

प्रथम धर्मयुद्ध (First Crusade) 1095-1099 ई०

तुर्की ने जेरुसलेम को विजय कर लिया और वे जेरुसलेम की यात्रा करनेवाले ईसाई यात्रियों को बहुत कष्ट देते थे। सन् 1095 ई० में पोप ने ईसाई योद्धाओं को तुर्कों के विरुद्ध पवित्र युद्ध में शामिल होने के लिए आह्वान किया। प्रथम धर्म-युद्ध (1095-99) अपने उद्देश्य में सफल रहा और जेरुसलेम पर ईसाइयों का अधिकार हो गया।

विलियम द्वितीय की मृत्यु सन् 1100 ई० में घातक चोट लगने से हो गई।

हेनरी प्रथम (1100-1135 ई०) -

विजयी विलियम का सबसे छोटा पुत्र हेनरी प्रथम नये वन में शिकार खेल रहा था जबकि विलियम द्वितीय को घातक चोट लगी तथा उसकी मृत्यु हो गई। क्योंकि राबर्ट पूर्व में जेरुसलेम में धर्म-युद्ध लड़ रहा था, इसलिए हेनरी प्रथम को सरदारों ने राजा चुन लिया। उसका राज्याभिषेक 5 अगस्त 1100 ई० में हुआ। उसने स्वतन्त्राओं का चार्टर (शासन-पत्र) जारी करके अपनी प्रजा को सुशासन का विश्वास दिलाया। इस चार्टर की धारायें निम्नलिखित थीं –

  1. चार्टर में यह बताया गया कि राजा हेनरी को सारे इंगलैंड के लोगों ने राजा चुना है।
  2. उसने जनता के धन को निचोड़नेवाले सब कठोर, अत्याचारपूर्ण तरीके उड़ा दिए जो कि उसके भाई विलियम द्वितीय के राज्यकाल में प्रचलित थे।
  3. चर्च को भी अनुचित रूप से धन निचोड़ने के तरीकों से मुक्त कर दिया गया। सरदारों को विश्वास दिलाया गया कि उनसे अनुचित तरीकों से रुपया नहीं निचोड़ा जायेगा।
  4. सरदारों को भी चेतावनी दी गई कि वे अनुचित तरीकों से अपने काश्तकारों से धन न निचोड़ें।
  5. साधु एडवर्ड के कानूनों को फिर से लागू किया गया।
  6. यह प्रतिज्ञा की गई कि शुद्ध सिक्के जारी किये जायेंगे।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-408


हैनरी ने प्रशासनिक सुधार किए -

  1. उसने प्राचीन शत सभाओं (Hunded Moots) और शायर सभाओं (Shire Moots) को पुनर्जीवित किया।
  2. नॉरमन विजय से पहले के समय की बुद्धिमानों की सभा (Witanage moot) के स्थान पर महान् परिषद (Great Council) बनाई गई। इसमें बुद्धिमान् व्यक्ति न्याय के आधार पर झगड़ों का निर्णय करते थे।
  3. दो न्यायालय बनाये गये (1) एक्सचेकर (Exchequer) - जिसका काम राजस्व को इकट्ठा करना और उसका नियन्त्रण करना था। इसके प्रधान को 'जसतिशिया' कहा जाता था। (2) क्यूरिया रीजिस (Curia Regis) अथवा राजकीय न्यायालय, महत्त्वपूर्ण न्यायिक कार्य करता था। यह बड़े-बड़े काश्तकारों के मुकद्दमों और शायर सभाओं के फैसलों के विरुद्ध अपीलें करता था।
  4. घूमने-फिरने वाले न्यायाधीश (Lutinerant Justices) नियुक्त किये गये जो कि देश में घूमकर यह देखते थे कि छोटे न्यायालय लोगों को ठीक न्याय देते हैं या नहीं। इससे निर्धन से निर्धन व्यक्ति को भी उचित न्याय प्राप्त होने लगा।

न्यायिक कार्यों में रुचि रखने और उसके द्वारा किए गए अनेक न्यायिक सुधारों के कारण हेनरी सत्यपरायणता का शेर कहा जाता है।

हेनरी बड़ा बुद्धिमान् प्रशासक था। पादरियों और अंग्रेज जाति ने उसके कार्यों का समर्थन किया, क्योंकि उसने देश में शान्ति और न्याय की व्यवस्था की।

2 दिसम्बर, 1135 ई० को सम्राट् हेनरी की मृत्यु हो गई।

स्टीफन (1135-1154 ई०) -

स्टीफन विजयी विलियम प्रथम की पुत्री एडेला का पुत्र था। हेनरी प्रथम के मरने पर उसकी एकमात्र पुत्री माटिल्डा (Matilda) थी। हेनरी ने अपने सरदारों से, जिनमें स्टीफन भी शामिल था, यह शपथ ले ली थी कि वे उसके मरने पर उसकी पुत्री माटिल्डा को इंग्लैण्ड की रानी बनायेंगे। उन्होंने दबाव में आकर यह शपथ ली थी, परन्तु वास्तव में वे अशान्त समय में एक स्त्री को अपनी रानी बनाने से डरते थे। इसलिए उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ विजयी विलियम की पुत्री एडेला (Adela) के पुत्र स्टीफन को अपना राजा बना लिया। इस पर गृह-युद्ध शुरु हो गया, जो कई वर्षों तक चलता रहा। शुरु-शुरु में माटिल्डा को कुछ सफलता मिली। स्टीफन पकड़ा गया और माटिल्डा का लन्दन में अभिषेक किया गया। परन्तु उसने अपने घमण्डी व्यवहार से सरदारों को नाराज कर दिया और वे स्टीफन के झण्डे तले इकट्ठे हो गये।

माटिल्डा का मामा डेविड जो स्कॉटलैण्ड का राजा था, ने माटिल्डा के पक्ष को अपनाकर इंग्लैंड पर आक्रमण कर दिया, परन्तु वह सन् 1138 ई० में स्टैण्डर्ड की लड़ाई में पराजित हुआ। इसके बाद एक समझौता किया गया जिसके अनुसार डेविड के पुत्र हेनरी को नार्थम्बरलैंड में एक जागीर दी थी। अब माटिल्डा का कोई शक्तिशाली समर्थक न रहा। जब उसका भाई राबर्ट पकड़ा गया तो वह भागने पर मजबूर हो गई। राबर्ट और स्टीफन के समर्थकों में युद्ध फिर शुरु हो गया। परन्तु इससे थोड़े समय पश्चात् माटिल्डा को सिंहासन प्राप्ति की कोई आशा न रही और वह भागकर फ्रांस को चली गई।

अन्त में 1153 ई० में वालिंगफोर्ड (Wallingford) की सन्धि द्वारा युद्ध समाप्त हो गया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-409


जिसके अनुसार स्टीफन मरने तक राजा रहेगा तथा उसका उत्तराधिकारी माटिल्डा का पुत्र हेनरी द्वितीय होगा। स्टीफन की मृत्यु सन् 1154 ई० में हो गई और हेनरी द्वितीय इंग्लैंड के सिंहासन पर बैठा। इस तरह से इंग्लैंड पर से नॉरमन राज्य सन् 1066 से 1154 ई० तक 88 वर्ष रहकर समाप्त हो गया।

स्टीफन एक कमजोर राजा था। उसके राज्यकाल में अव्यवस्था और अराजकता मची रही। इस कारण उसके राज्यकाल को 19 लम्बी सर्दियां कहा जाता है।

नॉरमन विजय से इंगलैंड को लाभ - नॉरमन शासक इंगलैंड के लिए एक आशीर्वाद थे और उन्होंने देश के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन के स्तर को उन्नत किया। नॉरमन राजा बड़े शक्तिशाली थे और उन्होंने कठोरतापूर्वक देश से अव्यवस्था दूर करके अन्दरूनी शान्ति स्थापित कर दी और इंगलैंड पर एक स्थिर शासन स्थापित किया।

नॉरमनों ने देश को अपनी नई कला, वास्तुविद्या (Architecture), ज्ञान, व्यवहार, संस्थायें और संस्कृति प्रदान की। इन कारणों से नॉरमन विजय को इंगलैंड के इतिहास में निर्णयात्मक स्थिति माना जाता है।

समय बीतने पर नॉरमन लोग अंग्रेजों में विलीन होकर एक जाति बन गये1

इंग्लैंड के नॉरमन शासक (1066-1154 ई०)

विलियम प्रथम (विजयी) 1066-1087 ई०

1. राबर्ट - नॉरमण्डी का ड्यूक (निःसन्तान मर गया) 2. विलियम द्वितीय (रूफस) 1087-1100 3. हेनरी 1100-1135 4. एडला का पुत्र स्टीफन 1135-1154

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हेनरी 1100-1135

1. विलियम (1120 में डूबकर मरा) 2. माटिल्डा (पुत्री)

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नोट 
सन् 1154 ई० में स्टीफन के मरने पर इंगलैंड पर से नॉरमन जाटों का शासन समाप्त हो गया। उसके बाद अंजौवंश अथवा प्लांटेजिनेट्स का शासन इंगलैंड पर शुरु हो गया जिसका प्रथम सम्राट् हेनरी द्वितीय (1154-1189) था)।

IV. मध्य पूर्व (Middle East)

मध्य-पूर्व के वह देश जिनमें जाटों का निवास एवं राज्य रहा, निम्नलिखित हैं -


1. इंगलैण्ड का इतिहास पृ० 51-61, लेखक प्रो० विशनदास; ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटेन पृ० 32Za - 35, लेखक रामकुमार लूथरा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-410


1. लघु एशिया (एशिया माइनर) - इसमें तुर्की, आर्मानिया, ऐजरबैजान और इनके अतिरिक्त सीरिया, इराक़ और ईरान के थोड़े-थोड़े उत्तरी भाग शामिल हैं।

लघु एशिया के काला सागर से लगने वाले उत्तरी भाग को लीडिया (Lydia) तथा दक्षिणी भाग को बेबीलोनिया (Babylonia) कहा गया है।

2. सीरिया 3. लेबनान 4. इस्रायल 5. जोर्डन 6. सऊदी अरब आदि, 7. इराक़ (मैसोपोटामिया) 8. ईरान (फारस 9. अफगानिस्तान 10. बलोचिस्तान आदि।

शकस्थान (सीस्तान) - ईरान के पूर्व प्रदेश में तथा अफगानिस्तान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।

मकरान - यह प्रदेश बिलोचिस्तान के दक्षिण-पश्चिम तथा ईरान के दक्षिण-पूर्व में स्थित है।

तुखारिस्तान - (तुखारिस्तान या तुषार वंशज जाटों का देश) - यह देश भारतवर्ष और ईरान के बीच स्थित था जिसकी राजधानी तेरमिज थी।

असीरिया (Assyria - आज का कुर्दिस्तान प्रदेश है जिसकी राजधानी नाईन्वेह (Ninevah) थी। यह ईरान व इराक़ के बीच में स्थित है।

एकबाताना (Ecbatana) - यह मांडा साम्राज्य (मांडा वंशज जाटों) की राजधानी थी जो अब ईरान में हमादान नाम से है।

हमने इसी अध्याय के ‘सीथिया तथा मध्यएशिया’ प्रकरण में पण्डित कालीचरण शर्मा की पुस्तक के आधार पर विदेशों में जाटराज्य सम्बन्धित कुछ बातें लिखी हैं। पाठकों को केवल मध्यपूर्व में कुछ बातों का ध्यान दिलाया जाता है।

  • 1. लघु एशिया व तुर्की को “सल्तनत ओटोमेन एम्पायर” कहते हैं। तात्पर्य है यदुवंशियों से। लघुएशिया के सब देश यदुवंशज श्रीकृष्णवंशज या जाटवंशज हैं।
  • 2. क्रौंचवन - पूर्वकाल में राजपूताना से लेकर मराको तक और उसकी शाखाओं में जितने देश विस्तृत हैं, वे सब वीरान थे तथा कौंचवन के नाम से प्रसिद्ध थे। सम्राट् ययाति ने अपने पुत्र यदु को क्रौंचवन दिया। राजपूताना, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, ईरान, अरब, मिश्र, लिबिया, अल्जीरिया और मराको आदि देशों को यदु एवं उसके वंशज यदुओं ने आबाद किया तथा राज्य किया। यदु और उसके वंशज जाट हैं।
  • 3. सीरिया- इस देश को श्याम भी कहते हैं, तात्पर्य सेनीटोरियम श्री कृष्णजी से है। एशिया माईनर (लघुएशिया), सीरिया या शाम, अरब और तुर्की साम्राज्य ‘ओटोमेन ऐम्पायर’ कहलाता है जो अपभ्रंश है ‘यदुमनु’ का। तात्पर्य है यदुवंशियों का साम्राज्य। सीरिया की राजधानी बेबीलोन थी जो श्रीकृष्णजी के उत्तराधिकारी महाराज बाहुबल के नाम पर है।
  • 4. आर्मीनिया (Armenia) - यह रूस का प्रान्त है जो कि कैस्पियन सागर के पश्चिम तथा तुर्की से लगता हुआ है। यह असुरों के महान् बल का अड्डा था। अरमेनियां अपभ्रंश है अरि-महान् का। अरि = शत्रु, महान् = बलवान्। तात्पर्य है अदिति के वीरपुत्र दैत्यों से जिन्होंने इस देश को आबाद किया।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-411


  • '5. ऐजरबान - यह प्रान्त अरमेनिया के दक्षिण में स्थित है। ऐज़रबान अपभ्रंश है असुरभंजन
  • 6. जियोर्जिया (Georgia) - अरमेनिया में जहां पर देवताओं अर्थात् आर्यों को पूर्ण विजय हुई थी, जियोर्जिया कहलाता है जो कि अपभ्रंश है ‘जब आर्य’ का।
  • 7. इराक़ - ऐजरबान के दक्षिण में जहां पर श्री नारायण जी का हिरण्याक्ष से युद्ध हुआ था, इराक़ कहलाता है जो कि अपभ्रंश है ‘हिरण्याक्ष’ का।
  • 8. ईरान - तात्पर्य है आर्यों के रहने का देश यानी आर्यावर्त का पश्चिमी भाग। ईरान को फारस भी कहते हैं। फारस अपभ्रंश एवं लघुरूप है भारतवर्ष का। फारस के रहने वाले फारसी तथा पारसी कहलाते हैं। पारसी आर्य लोग ही हैं। ईरानियों के दो खानदान प्रसिद्ध हैं (1) खानदान पेशदादां (2) खानदान सासानियां।
पेशदादां यौगिक शब्द है पेश+दाद का। पेश = आगे, दाद = इन्साफ। अर्थात् न्यायप्रणाली (मानव धर्मशास्त्र) को सबसे पहले चलानेवाला खानदान, तात्पर्य है सूर्यवंशियों से।
सासानियां अपभ्रंश है शशिनियां का। शशिनियां गुणवाचक है शशि का शशि = चन्द्रमा। तात्पर्य है चन्द्रवंशियों से।
  • 9. अफगानिस्तान - यह गन्धर्व देश कहलाता था जिसका अर्थ है गानविद्या को धारण करने वालों का देश। अब कन्धार कहे जानेवाला अपभ्रंश है ‘गान्धार’ का। यह वही देश है जिसके राजा की राजकन्या श्रीमती महाराणी गान्धारी महाराज धृतराष्ट्र से ब्याही थी।
  • 10. हिन्दुकुश - महाभारतकाल में इसका नाम ‘तुषारगिरि’ था जो कि इस क्षेत्र पर तुषार गोत्र के जाटों का शासन होने से उनके नाम पर ‘तुषारगिरि’ कहलाया। बाद में मुसलमानों के समय में इस पर्वत का नाम हिन्दुकुश पड़ गया। हिन्दुकुश अपभ्रंश है इन्दुकुश का। इन्दु = चन्द्रमा, और कुश = मारना, अर्थात् जहां पर चन्द्रवंशीय श्रीकृष्णजी के वंशज महाराज सुबाहु, रिझ, शालिवाहन और बलन्द आदि ने मुसलमानों से भीषण युद्ध किए थे। इसीलिये उस देश के पहाड़ों की पंक्ति को इन्दुकुश या हिन्दुकुश कहते हैं।

सारांश यह है कि सिन्ध नदी से लेकर अफ़गानिस्तान, बलोचिस्तान, ईरान, ईराक़ आदि मध्यपूर्व के सब देश जिसमें लघु एशिया भी शामिल है और मध्यएशिया के देश सब आर्यावर्त के प्रान्त मात्र थे। आदिसृष्टि से मुस्लिम समय तक इन देशों में जाटों की शक्ति एवं शासन तथा निवास रहता आया है। महाभारतकाल में मध्यपूर्व में अनेक जाटवंशों के राज्य थे जो कि तृतीय अध्याय के “महाभारतकाल में जाट राज्य” प्रकरण में लिख दिये गए हैं। अब महाभारत युद्ध के बाद मध्यपूर्व में जाटों का निवास, शक्ति तथा राज्य लिखा जायेगा।

पाणिनि ऋषि जो कि गांधार देश में आज से लगभग 4500 वर्ष पूर्व पैदा हुये, ने अपने व्याकरण ‘धातुपाठ’ में जट झट संघाते लिखा है। अर्थात् जट से जाट शब्द बनता है जो समूह के लिए प्रयुक्त होता है। जो कि क्षत्रिय आर्यों तथा उनके राजवंशों के सम्मिलन से बना संघ (गण) है। इसकी पुष्टि में पाणिनि ने 3/5/14 से 117 तक वाह्लीक देश के संघों के सम्बन्ध में दद्धित के


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नियम दिये हैं। इन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य जाति तथा राजवंशों के सम्मिलन से संघ स्थापित होते थे। उस समय भारतवर्ष, मध्यपूर्व एवं मध्यएशिया में जाटवंशों के इस बड़े क्षेत्र पर अनेक प्रजातन्त्र गणराज्य थे (यह द्वितीय अध्याय में “जाटवीरों की उत्पत्ति” प्रकरण में लिख दिया गया है)। इन जाट गणराज्यों की सूची निम्नलिखित है।

इन जाट गोत्रों में से अधिकतर का वर्णन पिछले तृतीय अध्याय में लिख दिया गया है तथा मध्यपूर्व के प्रकरण में इनका वर्णन उचित स्थान पर किया जायेगा।

1. जाट साम्राज्य (Kingdom of Guti जाट) - 2600 वर्ष ई० पू० में लेस्सर जब (Lesser Zab) की पूर्व में जाटों का साम्राज्य था जिन्होंने बेबीलोनिया के उत्तरी एवं दक्षिणी भाग और एलम (Elam) के शासकों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। उनके सम्राट् का नाम तीरीकन था और 2500 वर्ष ई० पू० में इनका राज्य पश्चिमी एशिया पर था। विर्क जाटों का राज्य भी उसी समय स्थापित हो गया था। (P. Sykes, The History of Persia, Vol. I P. 69)।

प्रजापति दक्ष की 13 कन्याएं जो महर्षि कश्यप की पत्नियां थीं उनमें से एक का नाम दिति था जिसका वंश दैत्य (असुर) नाम से प्रसिद्ध हुआ। अदिति के 12 पुत्र आदित्य (देव) और दनु के 34 पुत्र दानव कहलाए। इस प्रकार देव, दानव तथा असुर सब ब्रह्मा की सन्तान हैं। ये सब कश्यपगोत्री हैं। (महाभारत आदिपर्व अध्याय 66वां)।

कश्यपगोत्री जाटों की बड़ी संख्या है। ये असुर भी कश्यपगोत्री जाट हैं। इनका शासन बेबीलोनिया (लघु एशिया) पर रहा है। लगभग 4000 वर्ष पुरानी देवी नेना/ नीना /नैना/ नेननई, आरम्भ में बेबीलोनिया की देवी थी। 2287 ई० पू० में उसकी बनी हुई मूर्ति उरुक (उरुगदेश) के मन्दिर में


1. आधार लेख - जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया; जाट इतिहास लेखक ले० रामसरूप जून; जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, वोल्गा से गंगा लेखक राहुल सांकृत्यायन


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स्थापित की गई थी। बेबीलोनिया को हराकर इस देवी की मूर्ति को सूसा (ईरान के दक्षिण-पश्चिम में) ले जाया गया। 1635 वर्ष बाद यानी 652 ई० पू० में असुर बेनीपाल (जाट सम्राट्) ने लूसा को लूट लिया तथा इस देवी की मूर्ति को वापिस उरुक ले आया और उसी के मन्दिर में स्थापित कर दिया।

जब जाट लोग वहां से अपने देश भारत में आये तब उस देवी की मूर्ति को अपने साथ यहां ले आए और वह अब हिमाचल प्रदेश के जिला विलासपुर के एक मन्दिर में नैना देवी के ही नाम से स्थापित है। (Majumdar & Pusalkar, The age of Imperial Unity, P. 168.)।

सम्राट् कनिष्क कुषाण जाट के छोटे पुत्र हुविष्क का शासन सन् 162 ई० से 182 ई० तक रहा। उसके एक सिक्के पर शेर पर सवार इस नैना देवी की मूर्ति है। (op cit. plates 1-6, p. 31)। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज)।

2. मांडा जाटवंश - डी मोरगन के लेख अनुसार मांडा जाटों ने 2000 वर्ष ई० पू० में पश्चिमी ईरान की ऊंची भूमि पर अधिकार कर लिया था तथा बैक्ट्रिया पर 25000 वर्ष ई० पू० अधिकार हो चुका था। (De Morgan, Et Unde P. 314)1। (जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 13, लेखक ले० रामसरूप जून)।

3. मांडा जाटों का शासन - महाभारतकाल में दुर्योधन के समय सिन्धु नदी के क्षेत्रों पर था (देखो द्वितीय अध्याय जाट वीरों की उत्पत्ति प्रकरण)। इन मांडा जाटों का राज्य 700 वर्ष ई० पू० में ईरान (फारस) में स्थापित हुआ जिसकी राजधानी एकबाताना थी। यह मध्यपूर्व में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था जिसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

4. मौर जाटों का राज्य - लेस्सरज़ब और अरारट (तुर्की में) के पहाड़ी क्षेत्रों पर था। यहां से इन्होंने 2200 वर्ष ई० पू० मिश्र पर आक्रमण किया था।

5. वेन जाट साम्राज्य - 10वीं शताब्दी ई० पू० में वेन जाटों का साम्राज्य आर्मानिया में वेन झील के क्षेत्र पर था जो कि इनके नाम पर वेन झील कहलाती है।

6. कुरु जाटवंश - इनके नाम पर कुर नदी है जो कि कैस्पियन सागर के पश्चिम में है। इराक देश के पश्चिम में इनका देश कुरुपथ (कुरुओं की भूमि) कहलाता था।

7. मान जाट - मान जाटों का राज्य उरुमीया (Urumiya) झील के दक्षिणी क्षेत्र पर था। केम्ब्रिज एन्शन्ट हिस्ट्री के अनुसार मान जाटों की भूमि मन्नाई कहलाती थी।

8. दहियावंश - दहिया जाटों का ईरान पर 480 वर्ष राज्य (256 ई० पू० से 224 ई तक) रहा। इनका शासित देश दहिस्तान कहलाता था2

9. अहलावत - इनके नाम पर अलेन्स (अलान्स) था जो कि लघु एशिया में है। यहां पर इनका राज्य था। अहलावत और बाना जाट शत्रु से पहली टक्कर लेनेवाले द्वारपाल थे जो सम्भवतः खैबर घाटी पर थे3


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 15, लेखक बी० एस० दहिया।
2. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० vii, ix, x, लेखक बी० एस० दहिया।
3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 54, 224, लेखक बी० एस० दहिया।


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10. शिवि जाटों ने शिवस्थान देश आबाद किया जो आज सीस्तान कहलाता है। ई० पू० 2000 वर्ष1

11. बाना जाटों ने ईरान से जाकर अपनी बस्ती आबाद की जहां पर एक नदी का नाम बान नदी पड़ा। ये लोग भारतवर्ष से बानगंगा के किनारे से उठकर गये थे जहां ब्याना आबाद है2

12. गांधार - सम्राट् ययाति के वंशज गन्धार नामक राजा ने गांधार नगर की स्थापना की जो आज कन्धार (कन्दहार) कहलाता है। दुर्योधन की माता गान्धारी इसी नगर की थी3

13. सिन्धु - टॉड के अनुसार, प्राचीनकाल में सिन्धु जाटों के साम्राज्य में बलुचिस्तान, मकरान, बलोमरी और नमक के पहाड़ भी शामिल थे4

14. अफगानिस्तान में गातई एक स्थान है जो आज भी इसी नाम से प्रसिद्ध है। यहां पर गात्रवान जो कि श्रीकृष्ण जी की लक्ष्मणा नामक रानी से पैदा हुआ था, ने अपने राज्य की नींव डाली थी। गोताला और गटवाल इसी गातवान के वंशज जाट गोत्र हैं जो गातई से लौटकर भारत आये।

15. वाह्लीक - वरिक जाटों ने प्राचीनकाल में बल्ख को अपनी राजधानी बनाया था। इस वंश के जाटों का एक बलिक नामक कबीला (जत्था) ईरान में आज भी विद्यमान है जो सिदव प्रान्त में रहते हैं। ये मुसलमानधर्मी हैं। काश्यपगोत्री जाटों का एक जत्था इन्हीं बलिकों के पड़ौस में रहता है जो आजकल कास्पी कहलाते हैं। ईरान के सोलहुज जिले में कारापाया एक कबीला है। यह कारपश्व जाटों में से है। यह कारपश्व जाट मथुरा जिले से उठकर ईरान में गये थे जहां पर इनकी राजधानी आजकल के कारब में थी। आजकल भी ये लोग इस सोलहुज जिले के अधिकारी हैं और धर्म से मुसलमान हैं5

16. सौराण-स्यौराण-शिवराण - ईरान में रोअन्दिज एक प्रान्त है जहां पर सौराण जाटों का शासन था। उस प्रान्त में सौहराण कबीला आज भी रहता है। यहां भारतवर्ष में हरयाणा प्रान्त के जिला भिवानी में लोहारू क्षेत्र में स्यौराण जाटों के 52 गांव आबाद हैं।

17. असीरिया - जो आज कुर्दिस्तान प्रदेश कहलाता है। यह ईरान और इराक़ के बीच में है। इसको मालवा के असिगढ़ के असि-असियाग जाटों ने जाकर बसाया था। यहां पर एक लाहियान जिला भी है। भारत के लोहियान जाट इसी जिले से लौटे हुए हैं। आज भी इस प्रान्त में जाटों की संख्या अधिक है। इन लोगों की शक्ल-व-सूरत, चाल-ढाल तथा वस्त्र आदि भारतीय जाटों से मिलते जुलते हैं, केवल ये लोग मुसलमानधर्मी हैं।

18. आंजणा जाट - इनकी आबादी जयपुर प्रान्त में है जो किसी समय अराजणा


1. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 150 लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 36 लेखक रामसरूप जून
2. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 150; लेखक ठा० देशराज।
3, 5. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 150-151; लेखक ठा० देशराज।
4. जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 38 लेखक रामसरूप जून।


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(अराजक) रहे हैं। इनका एक समूह बहुत समय तक ईरान में अजरी नदी के किनारे रहा है1

19. जाटाली प्रान्त - यह ईरान में एक प्रान्त है जिसको 2000 ई० पू० में जाटों ने बसाया तथा वहां अपना शासन स्थापित किया। जाटों के नाम पर इस प्रान्त का नाम जाटाली पड़ा।

जनरल कनिंघम के लेख अनुसार ईरान के जट्टाली (जाटाली) प्रान्त की जटि (जाट) जाति ययातिवंशी है जो शिवि गोत्र के हैं2</sup।

20. ईरान में जगात् नदी के पास हिसार नामक एक प्रसिद्ध नगर रह चुका है जो अब उजाड़ पड़ा है। अफगानिस्तान में भी दो हिसार हैं। एक का नाम बाला हिसार जो बालायन जाटों के नाम पर है और दूसरा मूंदा हिसार जो मून्द जाटों के नाम पर है। हरयाणा प्रान्त में जिला हिसार जाटों का गढ़ है। यहां से गये जाट लोगों के नाम पर ईरान व अफगानिस्तान में भी हिसार नाम पड़ा। अफगानिस्तान में शिवि और कुर्रम दो जिले हैं जो शिवि और कृमि जाटों के नाम पर प्रसिद्ध हुए3

21. प्राचीन भारत की भूगोल पुस्तक में सुखदियालसिंह शौक का लेख है कि प्राचीनकाल में दहिया, हेर, भूल्लर आदि जाट ईरान में बसते थे। ईरान देश के बुशहर प्रान्त में वर्तमान में भी हरयाणा की जाट स्त्रियों जैसे उनकी स्त्रियों के वस्त्र घाघरी, ओढ़ना और पैरों में आभूषण हैं। सन् ईस्वी 1919 में मेरी रेजीमेंट 15 लान्सर के जाट जवान उन स्त्रियों के पहनावे पर चकित हो गये थे कि यहां हमारी स्त्रियां कैसे आ गई हैं। ले० रामसरूप जून)

जिला गुजरात में चिनाब नदी के साथ का देश जटात और हिरात भी कहलाता है। इसलिए कि वे जाट लोग कभी हिरात देश (अफगानिस्तान) में भी रहे थे, इस देश को भी हिरात कहने लगे। तैमूरनामा और हिस्ट्री टाड उर्दू पृ० 1165 पर लेख है कि 600 ई० पू० में इस हिरात देश के जाट राज्य में कुछ दुर्बलता आ गई थी किन्तु तैमूर के समय में फिर उन्नति हो गई थी4

22. शाकद्वीप - ईरान को कहते हैं। यहां के निवासी शक जाट थे जो कि भारत से वहां गये थे।

बोधेन - यह उद्धववंशी जाट थे। इनके नेतृत्व में 500 ई० पू० में जाटों ने ईरान के असीरिया से उठकर स्केण्डेनेविया में प्रवेश किया था। वहां के धर्मग्रन्थ ‘एड्डा’ में इनका नाम ओडिन लिखा है।

23. सम्राट् सिकन्दर के भारतवर्ष पर आक्रमण के समय मध्यपूर्व में उससे जाटों का युद्ध -

जब सिकन्दर का ईरान के सम्राट् दारा से अर्बेला के क्षेत्र में युद्ध हुआ, तब दारा की ओर होकर सिन्धु देश के जाट राजा सिन्धुसेन की भेजी हुई सिन्धु गोत्र की जाट सेना, सिकन्दर के विरुद्ध लड़ी थी। अफगानिस्तान के गान्धार प्रान्त के जाटों ने सिकन्दर से टक्कर ली थी। भारतवर्ष की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर कई अन्य प्रजातन्त्र जाट कबीलों से सिकन्दर का युद्ध हुआ था। उनमें से एक सांघा जाटगण था। दूसरा भंगु जाटगण था जिसका सीस्तान पर प्रजातन्त्र शासन था। असि-असिआक


1, 3. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 152-153 लेखक ठा० देशराज
2. जाट इतिहास पृ० 11 लेखक ले० रामसरूप जून
4. जाट इतिहास पृ० 26, लेखक ले० रामसरूप जून।
5. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 154-162; लेखक ठा० देशराज।


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जाटों ने सिकन्दर से भयंकर युद्ध करके उसे घायल किया था। भारत से वापसी के समय सिकन्दर का बलोचिस्तान के शासक जाट राजा चित्रवर्मा की जाट सेना से युद्ध हुआ था। जाटों से युद्ध में लगे घावों के कारण सिकन्दर की मृत्यु बैबीलोन में हो गई (अधिक जानकारी के लिए देखो चतुर्थ अध्याय, सम्राट् सिकन्दर और जाट प्रकरण)।

24. तुखारिस्तान - यह देश तुखार या तुषार वंशज जाट के नाम पर प्रसिद्ध था। इसकी स्थिति भारतवर्ष और ईरान के बीच में थी। सुग्ध, कम्बोज और बल्ख प्रदेश इसके अन्तर्गत थे। इस तुखारिस्तान देश की राजधानी तेरमिज थी। यह तुषारों का देश गिलगित तक था। इनके नाम पर तुषारगिरि पर्वत था जो मुस्लिमकाल में हिन्दुकुश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन लोगों ने अपनी तुखारी भाषा भी प्रचलित की थी। (देखो तृतीय अध्याय, ऋषिक-तुषार-मलिक प्रकरण)।

25. जबुलिस्तान - जोहिल या जौहल जाटों के नाम पर इस देश का नाम जबुलिस्तान पड़ा। यह देश हिन्दुकुश पर्वत के दक्षिण में था जिसमें अफगानिस्तान-काबुल-गजनी तथा निकट के क्षेत्र शामिल थे। जैसलमेर के भट्टी जाट अपना वहां से आना बताते हैं।

इन जौहल जाटों के नाम पर जौहला किला पेशावर के निकट आज भी विद्यमान है। यह जौहला नामक किला, देहली के लालकिले के तुल्य है।

इन जौहल-जोहिल जाटों ने कई शताब्दियों तक खैबरघाटी से अरब आक्रमणकारियों को भारत में आने से रोके रखा। जबकि किकन-केकन जाटों ने बोलान घाटी से आने वाले अरब आक्रमणकारियों को वापिस धकेल दिया था1। (R.C. Mazumdar, History and Culture of Indian People, Vol. III, P. 174)।

26. देशवाल वंश - सन् 41 ई० में खरोष्ठी भाषा में लिखा हुआ अरा शिलालेख है जो कि अटक के निकट है। उस पर लिखा है कि देशवहर ने अपने माता-पिता के सम्मान में एक कुंआ खुदवाया था। यह देशवाल जाटवंशज था। यह जाटवंशज भी पहले भी अफगानिस्तान में आबाद था।

27. गुलिया वंश - सन् 51 ई० का वरदक (Wardak) में शिलालेख है जो काबुल नगर के निकट है। उस पर लेख है कि भगवान् बुद्ध का स्मारक चिह्न एक स्तूप में वगरामरेगा द्वारा स्थापित किया गया जिसका वंश गुलिया था। गुलिया जाटवंश है।

इन गुलिया जाटों का निवास तथा शासन काबुल में था2

28. बुधवार वंश - बेबीलोनिया शिलालेखों पर इनको बुदी लिखा है। हैरोडोटस ने भी इनका नाम बुदी लिखा है। इन बुधवार जाटों की शक्ति बेबीलोनिया में थी। 7वीं शताब्दी में ये बलोचिस्तानसिन्ध में थे3

29. गिल जाट - गिल जाटों के नाम पर गिलगित नगर व गिलगित पर्वत हैं जहां इनका


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 49, 51, 117 लेखक बी० एस० दहिया।
2. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 40, 41 लेखक बी० एस० दहिया।
3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 248 लेखक बी० एस० दहिया।


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शासन रहा था। इनकी शक्ति कैस्पियन सागर पर होने से वह गिलन सागर कहलाया1

30. लाम्बा जाट - लाम्बा जाटों का शासन हिन्दूकुश के दक्षिण में रहा2

31. उद्याना जाट - उद्याना जाटों का राज्य कश्मीर के उत्तर-पश्चिम में उद्यान पर था3

32. कादियान-कादू जाट - बलोचिस्तान में इन जाटों के नाम पर कोदिन एक स्थान है। कादा के नाम के प्राचीनकाल के सिक्के ब्राह्मी लिपि में लिखे मिले हैं4

33. हाला जाट - हाला जाटों के नाम पर हाला पर्वत है जो आजकल सोमगिरि कहलाता है। यह बलोचिस्तान में है5

सत्यवान हाला जाटवंश के थे और सावित्री मद्र जाटवंश की राजकुमारी थी। चन्द्रवंश में ययाति के पुत्र अनु के वंश में शिवि के पुत्र मद्र से मद्र जाटवंश प्रचलित हुआ6

संक्षिप्त महाभारत प्रथम खण्ड, पृ० 392-400, के अनुसार सत्यवान व सावित्री का संक्षिप्त वर्णन - महाराज ‘अश्वपति’ मद्रदेश के सम्राट् थे जिनकी महारानी का नाम ‘मालवी’ था जिनसे ‘सावित्री’ कन्या का जन्म हुआ। महाराज ‘द्युमत्सेन’ शाल्व देश के राजा थे। उनकी महारानी का नाम ‘शैष्या’ था जिनसे राजकुमार सत्यवान का जन्म हुआ। महाराजा द्युमत्सेन अंधे हो गये थे तथा उनके पूर्व शत्रु एक पड़ौसी राजा ने उसका राज्य छीन लिया। वे अपने बालक पुत्र सत्यवान व अपनी रानी सहित वन में चले गये। वहां पर पतिव्रता सावित्री ने सत्यवान को स्वयं अपना पति मान लिया। राजा अश्वपति अपनी पुत्री सावित्री, ब्राह्मण तथा पुरोहित सहित, वैवाहिक सामग्री लेकर उस पवित्र वन में राजा द्युमत्सेन के आश्रम पर पहुंचे जहां पर वह नेत्रहीन राजा सालवृक्ष के नीचे एक कुश के आसन पर बैठा था। राजा अश्वपति ने अपना परिचय दिया और सब बातें बताईं। दोनों राजाओं ने सत्यवान व सावित्री दोनों का विधिवत् विवाह संस्कार कराया। एक वर्ष बाद सावित्री ने यमराज से चार वर मांगे जिनके अनुसार राजा द्युमत्सेन को दिखाई देने लगा तथा उनका राज्य वापिस मिल गया। सत्यवान को युवराज बनाया गया जो 400 वर्ष तक जीवित रहा और उसने सावित्री से 100 पुत्र उत्पन्न किये। मालवी रानी के गर्भ से भी सावित्री के 100 भाई पैदा हुए थे। मद्रदेश = अफगानिस्तान व पंजाब।

34. लिच्छवि जाटों का शासन पेशावर पर रहा7

35. दर्द जाट इन जाटों का राज्य काबुल पर था8

36. भाटी, गढवाल, कुहाड़, मान, दलाल आदि जाटों के कई खानदान गढ़ गजनी से लौटकर आये हुए हैं जहां पर इनका शासन था9


1, 2, 3, 4. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज क्रमशः पृ० 5, 261, 341, 169 लेखक बी० एस० दहिया।
5. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 153; लेखक ठा० देशराज
6. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 256 लेखक बी० एस० दहिया।
7, 8. जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 36, लेखक ले० रामसरूप जून
9. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 150; लेखक ठा० देशराज।


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37. गजनी राजा गज ने बसाई - श्रीकृष्ण जी के वंशज राजा गज ने गजनी की स्थापना की थी तथा वहां एक गढ़ (किला) का निर्माण किया। जैसलमेर के भट्टी अपना निकास जबुलिस्तान/ अफगानिस्तान में गजनी क्षेत्र से बताते हैं जहां पर जाटों का राज्य था। मथुरा के ब्राह्मण सुखधर्म जी ने भागवत पुराण के आधार पर भट्टी लोगों को यदुवंशी लिखा है।

गजनी राजधानी पर जाटों का राज्य -

आधार पुस्तक “आर्यों का प्राचीन गौरव”, लेखक श्री पण्डित कालीचरण शर्मा, पृ० 39-42 -

अफगानिस्तान की प्राचीन राजधानी ग़जनी है जो कि अपभ्रंश है गजनी का। यह वही नगर है जिसको श्री कृष्णचन्द्र जी के उत्तराधिकारी श्रीमान् महाराज गज ने तामीर (निर्माण) कराया था। (देखो टॉड राजस्थान)

जबकि असुरों की सेना अपना बल बढा रही थी, उस समय वहां पर कोई बढिया किला नहीं था और असंख्य शत्रुओं के मुकाबले पर मैदान में डटे रहना भी असम्भव था। इसलिए राजा गज ने अपने मन्त्रियों की सलाह से, उत्तरी पहाड़ों के मध्य एक किले का निर्माण कराया जिसका नाम गजनी रखा गया। संवत् धर्मराज युधिष्ठिर 3008, रोहिणी नक्षत्र, वसन्त ऋतु, बैसाख बदी तीज, रविवार को राजा गज गजनी के राजसिंहासन पर आसीन हुआ और यदुवंशियों के नाम को कायम (प्रसिद्ध) रखा। (टॉड पृ० 1059)

नोट
आज युधिष्ठिरी संवत् 5088वां है जो कि ई० सन् से 3100 वर्ष पहले प्रचलित हुआ था तथा राजा गज गजनी के सिंहासन पर ईस्वी सन् से 1020 वर्ष पहले आसीन हुआ था। राजा गज एवं उसके वीर सैनिक जाट थे।

हिन्दुकुश अपभ्रंश है इन्दुकुश का। इन्दु = चन्द्रमा, कुश = मारना, अर्थात् जहां पर चन्द्रवंशी श्रीकृष्ण जी के उत्तराधिकारी श्रीमान् महाराज महाराज सुबाहु, रिझ, गज, शालिवाहन और बलन्द ने मुसलमानों से भीषण युद्ध किये थे, इसीलिए उस देश के पहाड़ों की श्रेणी को इन्दुकुश कहते हैं (देखो टॉड राजस्थान, पृ०)।

राजा रिझ को सूचना मिली कि समुद्र की ओर से म्लेच्छ जिन्होंने पहले राजा सुबाहु के ऊपर आक्रमण किया था, वे खुरासान के शाह फरीद को चार लाख घोड़ों का अधिपति बनाकर फिर बढ़ रहे हैं। तब राजा रिझ ने अपने सैनिकों सहित ‘हरीओ’ स्थान की ओर कूच कर दिया। शत्रु ने कुंज शहर से दो कोस की दूरी पर अपना कैम्प लगा दिया था। युद्ध आरम्भ हुआ जिसमें म्लेच्छों की हार हुई। इस युद्ध में शत्रु के तीस हजार सैनिक हताहत हुए और चार हजार हिन्दुओं के। (टॉड पृ० 1056-1057)

जब गजनी का किला तैयार हो चुका था तब राजा गज को सूचना मिली कि रूम और खुरासानपति बहुत निकट आ गये हैं। राजा गज अपनी सेना सहित आठ कोस चलकर 'दूलापुर' पहुंच गया और वहां अपना कैम्प लगा लिया। यहां से शत्रुदल चार कोस पर था। राजा गज और उसके सैनिक युद्ध के लिये आगे बढ़े, इधर यदुवंशी थे उधर खान और अमीर थे। भयंकर युद्ध हुआ, शाह की सेना भाग निकली। वह 25000 सैनिकों को मौत के मुंह में पड़ा हुआ छोड़ गया और अपने हाथी, घोड़ों और तख्त को भी छोड़ गया। सात हजार आर्य वीर युद्ध क्षेत्र में काम आए


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और यदुपति विजयी होकर अपनी राजधानी को वापस आए (पृ० 1057-1058)।

अपने पुत्र बलन्द के वापिस आने पर महाराज शालिवाहन ने ग़जनी शत्रु से वापिस लेने का और अपने पिता के खून का बदला लेने का इरादा किया। वह 20,000 सैनिकों सहित शत्रु से भिड़ गया तथा विजयी होकर गजनी में पुनः दाखिल हुआ। वहां पर बलन्द को छोड़ दिया और खुद पंजाब में राजधानी को वापिस चला आया। (पृ० 1060)

मरुस्थली राजा नाबा के पुत्र पृथबाहु ने श्रीकृष्ण जी के राजचिन्ह विश्वकर्मा के बनाए हुए शाही क्षत्र के सहित धारण किए। (देखो भूगोल; पं० कालीचरण शर्मा का ऊपरलिखित इतिहास पृ० 43)

नोट
मरुस्थली = राजपूताना से लेकर अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, ईरान, अरब, मिश्र, ट्रिपोली और मराको तक के सब देशों को मरुस्थली कहते हैं। (वही लेखक पृ० 43)

शालिवाहन के वंश का वर्णन - आधार लेख पुस्तक जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया – राजा गज जिसने गजनी का निर्माण किया, का पुत्र शालिवाहन था, जिसने गजनी से आकर पंजाब में शालिवाहन (शालपुर) नगर की स्थापना करके उसे अपनी राजधानी बनाया। शालिवाहन के 15 पुत्र थे जिनमें बलन्द, रसालू, नैम, लेख, नीपक, सुन्दर, बचा, रूपा आदि थे। बलन्द अपने पिता का उत्तराधिकारी बना जिसके 7 पुत्र थे जिनके नाम भट्टी, भूपति, कल्लार, जीन्ज, सरमोर, भीन्सरच और मंगरू थे।

कल्लार के 8 पुत्र थे जिनकी सन्तान ‘कल्लार’ कहलाई जो लगभग सारे मुसलमान बने। जीन्ज के 7 पुत्र थे जिनकी सन्तान जन्जौ जाट हैं। भट्टी अपने पिता बलन्द का उत्तराधिकारी बना जिसके दो पुत्र थे। भट्टी के नाम पर भट्टी गोत्र प्रचलित हुआ जो जाट गोत्र है किन्तु बाद में उनमें से कुछ भट्टी जाट लोग राजपूत संघ में शामिल हुए जो आज भी भट्टी राजपूत कहलाते हैं। बलन्द के तीन पुत्रों भट्टी, जीन्ज और कुल्लार के नाम पर भट्टी, जन्जौ और कुल्लर जाट गोत्र प्रचलित हुये।

भट्टी के दो पुत्र मसूरराव और मंगलराव नामक थे। मसूरराव के दो पुत्र अभेराव और सारनराव थे। अभेराव के पुत्र अभोरिया तथा सारनराव के वंशज सारन कहलाये। ये दोनों जाट गोत्र हैं। मंगलराव जो कि भट्टी का दूसरा पुत्र था, के 6 पुत्र थे। वह अपने राज्य से भाग गया तथा अपने इन 6 बालक पुत्रों को छुपे तौर पर एक साहूकार के पास छोड़ गया। इनका विवाह जाट परिवार में हो गया। मंगलराव के तीन पुत्रों के नाम पर कलावाररिया, मूण्ड और स्यौराण* जाट गोत्र प्रचलित हुए। (पृ० 117-118)

इसके लेख्यप्रमाण हैं कि शालपुर (शालपुरा) के शासक जाट थे। टॉड ने अपने राजस्थान इतिहास में एक शिलालेख का हवाला दिया है जिस पर शुरु में लिखा है कि जाट हमारे रक्षक हों, तथा एक जाट राजा का नाम राजा जिट (जाट) शिलन्दर लिखा है। आगे लिखा है कि


  • . स्यौराण जाटों का राज्य महाभारतकाल में था। इनका वर्णन एकादश अध्याय में देखो। अतः मंगलराव के पुत्र से स्यौराण गोत्र प्रचलित हुआ, यह लेख असत्य है।


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शालपुरा के पराक्रमी जाट राजा से शालपुरा की भूमि सुरक्षित है। शक्तिशाली योद्धा जाट शिलन्दर एक सुन्दर पुरुष है और भुजाबल में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सारा संसार इस जिट (जाट) राजकुमार की प्रशंसा करता है जिसने अपनी जाति का मान बढ़ाया और जो महान् योद्धाओं में कमल की तरह खिला हुआ है एवं मनुष्यों कें चन्द्रमा की तरह चमकता है।” (OP Cit) (बी० एस० दहिया, पृ० 125)

शलन्दर के पुत्र का नाम देवंगली लिखा है जिसके पुत्र का नाम सुम्बूक तथा इसके पुत्र का नाम देगाली लिखा है जिसने यदुवंशज दो कन्याओं से विवाह किया था। देगाली के पुत्र का नाम वीर नरेन्द्र था। यह शिलालेख संवत् 597 में लिखा गया था जिसका स्थान मालवा क्षेत्र में तवेली (Taveli) नदी के किनारे पर है। यह राजकुमार शालपुर और तखया (तख/ताक/तक्षक जाटों का नगर) पर शासन कर रहा था। इस राजकुमार का वंश सरया लिखा है। टॉड के अनुसार सर्वाया है जो कि एक जाट गोत्र है। इस शिलालेख से सिद्ध होता है कि शालपुरा के शासक जाट थे। भट्टी लोग राजपूत होने पर इस शालपुरा से ही दूसरे क्षेत्रों में फैले थे। (बी० एस० दहिया, पृ० 125-126)।

अब पाठकों का ध्यान फिर से गजनी की ओर दिलाया जाता है।

बलन्द के पुत्र भूपति का पुत्र चकीटो था। महाराज बलन्द, जो कि शालिवाहनपुर में रहा करते थे, ने गजनी देश का राज्य अपने पौत्र चकीटो के अधीन छोड़ दिया। चकीटो ने म्लेच्छ कौम के लोगों को अपनी सेना में भरती कर लिया तथा उनको सेना के बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त कर दिया। उन्होंने चकीटो को तजवीज पेश की कि अगर आप अपने पुरुषाओं के धर्म को त्याग देवें तो आपको बल्ख-बुखारा का मालिक बना दिया जायेगा, जहां पर उषबेक जाति आबाद है, जिस के बादशाह के पास एक लड़की के सिवाय और कोई औलाद नहीं है। चकीटो ने यह सुझाव मानकर बादशाह की उस लड़की के साथ विवाह कर लिया और बल्ख-बुखारे का बादशाह बन गया तथा 28,000 घोड़ों का सरदार हो गया। बल्ख और बुखारे के बीच एक बड़ा दरया बहता है। चकीटो बलिखशान के फाटक से लेकर हिन्दुस्तान के मुंहड़े तक सबका बादशाह हो गया। उसी चकीटो सम्राट् से चकीटो मुगल फिर्के (जाति) की उत्पत्ति हुई। (ऐनन्स आफ जैसलमेर अध्याय 1, पृ० 1061, op. cit, P. 248, के हवाले से, बी० एस० दहिया, पृ० 118)। आगे पृ० 119 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि तुर्क और तातार, ये तुर और तातरान जाट वंशज थे जिन्होंने छठी सदी ईस्वी तक तथा इससे भी बाद में अमू दरिया (मध्यएशिया) घाटी में राज्य किया।

नोट
कुषाणवंशज जाट सम्राट् कनिष्क (सन् 120 से 162 ई०) के विशाल साम्राज्य में गजनी भी शामिल थी। कनिष्क ने दूसरी सदी ईस्वी के आरम्भ में लल्ल गठवाला मलिक वंश के जाटों को गजनी का राज्य दे दिया। जिनका वहां 700 वर्ष राज्य रहा जो कि नवमी सदी के आरम्भ में अब्बासी मुसलमानों ने जीत लिया। (देखो तृतीय अध्याय लल्ल गठवाला मलिक प्रकरण)।)

2000 ई० पू० में पुरु, कुरु, गांधार, मद्र, मल्ल, शिवि आदि लोग स्वात, पंजकोरा तथा अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में रहते थे। ये लोग अपने घोड़े, कम्बल तथा दूसरी वस्तुओं को लेकर बेचने के लिए


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पुष्कलावती (चारसद्दा) आया करते थे। ये सब जाटवंशज हैं। गान्धार पर गान्धारों का राज्य था। गन्धार से आगे की भूमि पर मद्रों का अधिकार था। उससे आगे मल्लों ने अपना जनपद बनाया था। इसी तरह कुरु, पांचाल, शिवि आदि लोगों ने बड़े-बड़े प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था। (वोल्गा से गंगा पृ० 84, 96 लेखक राहुल सांकृत्यायन)। ये सब क्षेत्र अफगानिस्तान, ईरान आदि देशों में हैं।

मि० गिलडोन तथा मि० नील लिखते हैं कि लोमरी बलोचों के पूर्वज जाट थे। अबुलफजल लिखता है कि ये लोग युद्ध में 300 घुड़सवार और 700 पैदल सैनिक शरीक करते थे। बलोचिस्तान के जुग़राफिया में भी लोमरी बलोचों को जाटवंशज लिखा है। मि० पिलनी ने लिखा है कि जब खानकेस प्रान्त में तुर्की तथा बिबेलोनिया के मध्य में युद्ध हुआ तब उसमें सिन्धु सेना शामिल हुई थी। उनकी वर्दी सूती थी। वे सैनिक खानकेस से लौटकर सीरिया देश में आबाद हो गये जो बड़ा उपजाऊ था। उन दिनों इटली की रोम राजधानी पर जाट शासन था। सीरिया में बसने वाले जाट सिन्ध के मांडा जाट थे जो राजा हस्ती की सन्तान थे। सीरिया या शाम देश को कृष्णवंशियों ने बसाया था1

बलोचिस्तान में आज भी काकड़जई बड़ा संघ है जिसका सम्बन्ध कक्कर और खोखर जाट गोत्रों से है। जनगणना के अनुसार मकरान प्रान्त में 20,000 संख्या जाटवंशी बलोचों की पाई गई थी2

गिल जाट जो मुसलमान बन गये, वे गिल पठान अपने को गिलजई कहते हैं और चट्ठा या चुगता पठान अपने को चुगता कहते हैं। इनके बड़े-बड़े जिरग़े (संघ) पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा अफगानिस्तान में हैं।

भाटी, गढवाल, कुहाड़, मान, दलाल आदि जाटों के कई वंश गढ़ गजनी से लौटकर भारत में आये हुए हैं3

अब फिर लघुएशिया, अरब देश तथा ईरान आदि का वर्णन किया जाता है।

38. वरिक-वाहिक-वाह्लीक - मि० रावलिंसन (Rawlinson) ने अपनी “हिस्ट्री ऑफ हेरोडोटस” नामक इतिहास पुस्तक (Vol. IV, P. 163) में लिखा है कि “वरिक एवं हिरकानिया एक ही हैं, जिनके नाम पर एक समय कैस्पियन सागर, वरिकान या हिरकानिया कहलाया। सन् 1300 में भी इन वरिक जाटों का देश पूर्वी रूस के याकुट्स्क प्रान्त में था जो ‘वरकानिक’ देश कहलाता था।” हैरोडोटस के अनुसार ये जाट वरिक अपने सरदार मेगापानुस के नेतृत्व में थ्रमोपिलाय (यूनान में) के युद्ध में लड़े थे। इस युद्ध के पश्चात् इनका शासन बेबिलोनिया पर हुआ। इनका यह नेता वहां का मण्डलेश्वर (सूबेदार) बनाया गया।

इन वरिक जाटों का राज्य 2600 ई० पू० में सुमेरिया में था। इनके नाम पर यह देश ‘वर्क देश’ कहलाया। इनके साथ में गुटियन देश (जाटों का देश) था जिनका राज्य पश्चिमी एशिया पर था। इस देश के अन्तिम सम्राट् त्रीगन को 2200 ई० पू० में वर्क देश के राजा उतु खेगल विर्क ने पराजित किया था। वोल्गा नदी विर्क जाटों के नाम पर है। (Political and Social Movements in Punjab, by Buddha Prakash, P 1074


1, 2. जाट इतिहास पृ० क्रमशः 11-12 एवं 27-28, लेखक ले० रामसरूप जून
3. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 150, लेखक ठा० देशराज
4. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 277, 278 लेखक बी० एस० दहिया।


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फारस के जाट सम्राट् डेरियस (Darius) ने 521 ई० पू० में विर्क, कांग तथा अन्य जाट साम्राज्यों पर आक्रमण किए। जिनका वर्णन अगले पृष्ठों पर इसी अध्याय में किया जायेगा।

39. मिरधा जाट - इन जाटों का शासन तथा निवास फारस (ईरान) के क्षेत्र पर था। 330 ई० पू० में सम्राट् सिकन्दर से इन जाटों ने फारस की खाड़ी और परसीपोलिस (ईरान की राजधानी) के मध्य क्षेत्र में युद्ध किया किन्तु हार गये1

40. नासिर जाट - इन जाटों का शासन असीरिया (कुर्दिस्तान) पर था। इनके नाम पर वहां एक निसिर पर्वत भी है। ये लोग वीर थे इसलिए वहां की सेना के अगले भाग में चलते थे2। (A Sanskrit-English Dictionary by M. Monier Williams (Oxford, 1960).

संयुक्त अरब गणराज्य के राष्ट्रपति कर्नल गमल अब्दुल नासिर भी इसी नासिर वंश के जाट थे। इन अरब देशों में आज भी नासिर जाटों की बड़ी संख्या है जो इस्लामधर्मी हैं।

41. पहलवी जाट - भारतीय भाषा में पल्लव कहे जानेवाले जाटवंश को ईरानी भाषा में पहलवी बोला जाता है जो कि एक जाटवंश है।

पल्लव जाटवंश प्राचीनकालीन वंश है (देखो तृतीय अध्याय, पल्लव जाटवंश)। पल्लव जाट लोग भारतवर्ष से बाहर विदेशों में भी गये और वहां अपने निवास स्थान बनाये। इस वंश के लोग ईरान में अब भी बड़ी संख्या में आबाद हैं जिनको वहां की भाषा में पहलवी कहा जाता है। ईरान का बादशाह, मुहम्मद शाहरजा पहलवी इसी वंश का जाट था3

42. अबरा-अबारा जाटमैसोपोटामिया (इराक) के प्राचीन इतिहास में अबरा और गुस्सर लोगों को जाट वंशज लिखा है जिनके अलग-अलग साम्राज्य थे।

अबरा जाटों का देश अबारनियम कहलाता था जो कि सुमेर और बेबीलोनिया में स्थापित था। इनके साथ-साथ दूसरा गुटियन (जाटों का) साम्राज्य भी था4

43. मान और मांडा जाट - 800 ई० पू० में अरमेनिया झील के दक्षिण में ऐजरबैजान का देश है, जहां पर सदा की तरह अनेक जाटवंश आबाद थे। इनमें से दो प्रसिद्ध जाटवंश मन्नाई (मान) और मांडा थे। 720 ई० पू० में असीरिया के राजा सरगोन द्वितीय ने इन लोगों पर आक्रमण किया।

देवका मांडा जाट ने 700 ई० में फारस (ईरान) में एक शक्तिशाली मांडा साम्राज्य की स्थापना की जिसका आरम्भ से अन्त तक का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है5


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 287 लेखक बी० एस दहिया।
2, 3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 288, लेखक बी० एस दहिया।
4. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज]] पृ० 125, 278 लेखक बी० एस दहिया।
5. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज]] पृ० 127-128 लेखक बी० एस दहिया।


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शक्तिशाली मांडा जाट साम्राज्य (700 ई० पू० से 465 ई० पू० तक)

इस साम्राज्य के कुछ विशेष मनुष्यों के नाम -

  1. डियोसिज/देवका (Dieoces/Devaka) - इसने 700 ई० पू० में मांडा जाट साम्राज्य की स्थापना की। इसके पिता का नाम फ्राउटस (Phraotes) था।
  2. फ्रावती (Frawarti) - यह देवका का पुत्र था जो 655 ई० पू० में मांडा साम्राज्य की गद्दी पर बैठा।
  3. साईक्षेयरज़/हुवाक्षत्र (Cyaxares/Huvakshatra) - यह फ्रावती का पुत्र था जो कि 625 ई० पू० में अपने पिता का उत्तराधिकारी बना।
  4. ईस्तुवेगु/अस्त्येजस (Ishtuvegu/Astyages) - यह साईक्षेयरज़ का पुत्र था जो 584 ई० पू० में अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ। लीडिया के राजा अलेयेत्तस (Allyattes) की पुत्री आर्यानी/आर्यनिस (Aryenis) ईस्तुवेगु की रानी थी। इस रानी का भाई क्रोईसस (Croesus) था जो कि अपने पिता अलेयेत्तस के मरने पर लीडिया (Lydia) का सम्राट् बना।
  5. हरपेगस (Harpagus) - यह ईश्तुवेगु के शासनकाल में मांडा जाट साम्राज्य की जाट सेना का प्रसिद्ध वीर योद्धा एवं योग्य सेनापति था। इसकी कल्पना तथा सहायता से साईरस (Cyrus) मांडा साम्राज्य तथा फारस का महान् सम्राट् बना।
  6. महान् साईरस (Cyrus) - इसकी माता का नाम मन्दानी (Mandani) था जो कि मांडा साम्राज्य के अन्तिम सम्राट् ईश्तुवेगु की एकमात्र जाट राजकुमारी थी।
  7. कैम्बिसिज़ (Cambyses) - यह फारस के एलम (Elam) प्रान्त का राजकुमार था जिसके साथ मन्दानी का विवाह हुआ था। यह महान् साईरस का पिता था।

सम्राट् नेबोनीदस (King Nabonidus) - यह बेबीलोनियन राज्य का शासक था।

  1. कैम्बाईसिज़ (Cambyses) - यह साईरस का पुत्र था जो उसका उत्तराधिकारी हुआ।
  2. डेरियस (Darius) - यह जाट योद्धा सेनापति हरपेगस का पुत्र था जो कि कैम्बाईसिज़ का उत्तराधिकारी बना।
  3. मेगाबाज़स (Megabazus) - यह सम्राट् डेरियस का एक वीर जनरल था।
  4. क्षेरक्षेज (Xerxes) - यह सम्राट् डेरियस का पुत्र था जो उसका उत्तराधिकारी हुआ। इसको 465 ई० पू० में कत्ल कर दिया गया।

सबसे पहले यह प्रमाणित लेख लिखने की आवश्यकता है कि भाषाशास्त्रीय गलती से मांडा साम्राज्य (Manda Kingdom) को मेडियन साम्राज्य (Median Empire) लिखा गया। यह गलती कब और कैसे दूर हुई इसके प्रमाण निम्नलिखित हैं -

हैरोडोटस यूनान का एक अपूर्व बुद्धिवाला प्रसिद्ध इतिहासकार था जिसका जन्म 484 ई० पू० में एशिया माईनर के यूनानी नगर हालीकारनासस में हुआ था जो कि मांडा साम्राज्य के


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अधीन था। इसको इतिहास का पिता कहा जाता है। इस जाटवीर जाति का सौभाग्य था कि यह लोग उन्नतिशील यूनानियों के पड़ौसी रहे, जो इस संसार में प्राचीन समय का विश्वसनीय, सच्चा और विस्तार से इतिहास लिखने में पहले हैं। यदि हैरोडोटस नहीं होता तो जाटों का प्राचीन इतिहास लुप्त हो जाता। इसके लेखों की सच्चाई बेबीलोन और नाईनवेह के हाल के खण्डहरों की खुदाइयों में मिले हुए स्मारकचिह्नों से प्रमाणित होती है।

प्राचीन बेबीलोन, नाईनवेह तथा असीरिया के अन्य स्थानों के खण्डहरों से जाट इतिहास के विषय में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं। उस समय के अभिलेख मिट्टी की बनाई गई नकाशी शकल में रखे गए जो कि एक लिपि के रूप थे। यह लिपि सुमेरियन जाति ने ईजाद की थी। ये लोग मैसोपोटामियां पर राज्य करते थे। इसी लिपि को बेबीलोन और असीरिया के साम्राज्य के उत्तराधिकारी सैमेटिकों ने अपनाया था। उस समय अभिलेख मिट्टी के बर्तनों पर नकाशी (खोदकर) करके आग में पकाए जाते थे। ऊपर वर्णित नगरों के खण्डहरों से ही अब यही बर्तन खोदकर निकाले जा रहे हैं। इस लिपि में नकाशी किये गये लेखों को संसार भर में कोई नहीं पढ़ सकता था क्योंकि इसके स्पष्टीकरण के लिए कोई कुञ्जी नहीं थी।

बहुत समय के पश्चात् अन्त में इसका पता लगा। इस बात का भेद निकालने वाला पर्शिया में नियुक्त दूतकार्य में चतुर एक अंग्रेज जनरल सर हेनरी ऍलीनसन है। वह मैसोपोटामिया की प्राचीनता में गहरी रुचि रखने वाला एक प्राचीन पदार्थों का संग्रहकर्ता था। उसको पश्चिमी ईरान में एक बहुत बड़ा शिलालेख मिला था, जो कि डेरियस महान् का एक व्यक्तिगत विधान था और बहिस्तून (Behistun) गांव की ऊँची चूने की चट्टान पर खुदा हुआ था। डेरियस ने 515 ई० पू० में अपने इतिहास को तीन विभिन्न भाषाओं में अंकित कराया था। उनमें से एक प्राचीन पर्शियन भाषा थी जिसने दूसरी अन्य मृतप्राय भाषाओं के जानने की कुञ्जी प्रदान की थी, जिनमें से एक भाषा मिट्टी के नकाशी आकृति में लिखी गई थी। सन् 1835 ई० में हेनरी ऍलीनसन ने इन नकाशियों को नकल करके लिखने का आधा कार्य समाप्त किया तथा फिर 13 वर्ष बाद लौटकर सन् 1848 ई० में पूरा कार्य समाप्त कर लिया। इस प्रकार मैसोपोटामियां के खण्डहरों में मिट्टी की नकाशी के लेखों के अर्थ जानने की चाबी (कुञ्जी) मिल गई तथा प्राचीनता के समस्त अभिलेखों का अर्थ निकाल लिया गया। डेरियस के साथ युद्ध करने वाले बन्दी बनाए गए दस राजकुमारों की मूर्तियां जो कि उस चट्टान के ऊपरी भाग में अंकित कराई गईं थीं, उनको नकल करके लिखने का कार्य शेष रह गया था। इसके अब हाल में ही, मिशिगन विश्वविद्यालय के डा० जार्ज कैमरोन तथा ओरियण्टल रिसर्च के अमेरिकन सम्प्रदाय ने टैलीस्कॉपिल लैंस द्वारा चित्र लिए हैं।

आजकल सूसा नगर जो कि फारस (ईरान) के दक्षिण-पश्चिम में है, में जाकर फ्रांस के पुरातत्त्व समुदाय के मुख्य अध्यक्ष डा० गिर्शमान ने पूर्वकाल के ऐतिहासिक सूसा नामक शहर के खण्डहरों की खुदाई कराई है। उसने चार ऐसे शहरों की पहचान की है जो एक शहर के ऊपर दूसरा शहर आबाद हुआ था। उसने उन शहरों के आबाद होने के समय की वास्तविकता का भी बखान किया है। इन आविष्कारों से जाटों की प्राचीनता का ज्ञान हो जाता है। क्योंकि संसार के उस भाग में उस प्राचीनकाल में जाट जाति ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्राचीन खण्डहरों


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के इन आविष्कारों तथा सभी स्मारकों से मांडा जाट साम्राज्य का हैरोडोटस द्वारा लिखित इतिहास स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो जाता है1

भाषाशास्त्रीय गलती से मांडा शब्द को मेड (Mede) तथा मांडा साम्राज्य (Manda Kingdom) को मेडियन साम्राज्य (Median Kingdom) लिखा गया है। इस गलती को ठीक करने के विषय में निम्नलिखित प्रमाण हैं - 19वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान् साईसे (Sayce) ने अपनी पुस्तक “ऐन्शयन्ट एम्पायरज़ ऑफ दी ईस्ट” में लिखा है कि “साईरस तथा नबोनीदस के स्मारकों की खोज से यह सच्चाई प्रकाश में आ गई और यह ज्ञात हुआ कि जिस इतिहास पर हमने इतने लम्बे समय तक विश्वास किया है, वह भाषाविज्ञान की गलती पर आधारित था।” प्रो० साईसे के लेख का तात्पर्य है कि मेड शब्द गलत है जबकि उसकी बजाय मांडा शब्द ठीक है।

“हिस्टोरियन्ज हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड”, जिल्द 2 के पृष्ठ 573 पर लिखा है कि “असीरियन तथा पर्शियन स्मारकों पर लिखित भाषा का अर्थ स्पष्टीकरण निकालने से प्राप्त ज्ञान बड़ा चौंकाने वाला तथा क्रांतिकारी है। इस तरह से प्रतीत हुआ ऐतिहासिक पहलू समस्तरूप से इतना भिन्न है कि इतिहासज्ञों की वाक्य-रचना से मीडियन साम्राज्य शब्द प्रायः लोप हो गया है। वास्तव में प्रो० साईसे ने अपने अन्तिम लेखों में इस शब्द को हटा दिया है।”

मांडा साम्राज्य का उत्तर-पश्चिमी पड़ोसी मीडिया देश था जिसे अन्त में मांडा साम्राज्य में मिला लिया गया था। यह मीडिया शब्द गलती का कारण हो सकता है। मेडों का कभी कोई साम्राज्य नहीं था। वे लोग छोटे-छोटे प्रदेशों में रहने वाले यूनानी व्यापारी तथा रुपया कर्ज पर देने वाले थे। ऐसे लोग कभी किसी साम्राज्य अथवा इतिहास का स्वप्न भी नहीं ले सकते थे। पहले उनको असीरियनों ने लूटा और अन्त में असीरिया का राजा शालमानेसर उनसे कर (शुल्क) लेता था। तत्पश्चात् उनके पड़ौसी जाटों ने उन पर धावा कर दिया और उनके देश को अपने मांडा साम्राज्य में मिला लिया। वीर मांडा लोगों के साथ दुर्बल मेड लोगों को मिलाना, इतिहास में एक अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। अतः मेरा मत है कि जहां कहीं भी प्राचीन या आधुनिक साहित्य में शब्द मेद (Mede) आता है तो इसका अर्थ मांडा जाट (Manda|Manda Jat) समझना चाहिए2

मांडा जाटसम्राट् डियोसिज देवका (700 ई० पू० से 655 ई० पू० तक) -

प्राचीनकालीन मांडा गोत्र के जाट आज भी भारतवर्ष में विद्यमान हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने ईरान के पश्चिमी समस्थल भूमि पर एक ऐतिहासिक प्रसिद्ध जाट साम्राज्य की स्थापना की। विष्णु पुराण में इनको मांडाका लिखा है। अग्नि पुराण में इनके देश का नाम मांडाव्या लिखा है (Indian Historical Quarterly, IX, P. 476)। वराह मिहिर ने अपनी पुस्तक ‘वृहत् संहिता’ में इन मांडा जाटों का निवासस्थान भारतवर्ष के उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में लिखा है। फारसवालों ने इनको मादेया लिखा है3


1. [[अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 1-6, लेखक उजागरसिंह माहिल।
2, 3. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 127-129, लेखक बी० एस दहिया।


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मांडा जाट साम्राज्य प्राचीन समय के राज्यों में सबसे बड़ा एवं शक्तिशाली था। हिस्टोरियन्ज हिस्ट्री ऑफ दी वर्ल्ड, खण्ड द्वितीय, पृ० 588 पर लिखित अनुसार “केवल मांडा जाट साम्राज्य ही भौगोलिक विस्तार में इतना बड़ा था कि संसार ने शायद ही कभी देखा हो। यह मिश्र, असीरियन तथा किसी भी अन्य साम्राज्य से इतना अधिक बड़ा था कि आधुनिक कालों तक भी इसका अस्तित्व रहा।” यह अवश्य याद रखना चाहिए कि पर्शियन साम्राज्य इसी जाट साम्राज्य की ही शाखा थी और पर्शियन के सम्राटों की नसों में जाट रक्त बह रहा था।

लगभग 27 शताब्दियों पहले जाटों के देश सीथिया में उनकी जनसंख्या बहुत बढ़ गई तथा वहां से फैलकर ऐल्लिपी के प्राचीन साम्राज्य में आबाद हो गये। उन्होंने उस साम्राज्य का सर्वनाश कर दिया तथा उनकी राजधानी एकबताना (Ecbatana) आधुनिक हमादान (Hamadan) पर अपना अधिकार कर लिया। उन्होंने शीघ्र ही एक राज्य का संगठन किया जो कि असीरिया के लिए एक खतरा बन गया था। यही मांडा साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हैरोडोटस के अनुसार मांडा साम्राज्य के जाट कई राज्यों में बंटे हुए थे। उन राज्यों में से एक का नेता देवका 700 ई० पू० में था जो कि अपनी बुद्धिमत्ता के कारण बड़ा प्रसिद्ध था। इसके पिता का नाम फ्राउटस था1

डियोसिस सदा झगड़ों का निपटारा न्याय से करता था। यद्यपि उसका साम्राज्य अधिक कमजोर था फिर भी पड़ौसी साम्राज्यों से सभी जाट न्यायप्राप्ति के लिए उसके पास आते थे तथा वह इर्द-गिर्द के सभी साम्राज्यों के लिए न्यायाधीश बन गया।

पड़ौसी राज्यों के लोग अपने ही अधिकारियों के अत्याचार के विरुद्ध न्याय के लिए डियोसिस के पास आते थे तथा अन्य किसी अधिकारी के पास कभी नहीं जाते थे। इस कारण डियोसिस के लिए अपने क्षेत्र के कार्यों की अपेक्षा दूसरे क्षेत्रों के कार्यों को वश में करना असम्भव हो गया था और अन्य राज्यों के अधिकारी डियोसिस के ईर्ष्यालु बन गये, यद्यपि सब साधारण जनता उसका आदर करती थी। परिणाम यह हुआ कि गड़बड़ी और बेचैनी पैदा हो गई। हैरोडोटस का यह लेख बड़ा रोचक है कि दूरवर्ती प्राचीन समय के जाटों ने उस समय प्रचलित हुई बेचैनी को कैसे दूर किया।

इस बेचैनी को दूर करने के विचार हेतु एक जनसभा बुलाई गई। उस सभा में यह निर्णय लिया गया कि वर्तमान स्थिति असहनीय है इसलिए एक राजा चुना जाना चाहिए ताकि एक नियमित सरकार स्थापित हो सके। उस समय तक डियोसिज अपने न्याय के लिए इतना लोकप्रिय हो गया था कि सारी जनता ने एकमत से उसे अपना राजा चुन लिया। चुनाव के बाद राजा डियोसिज ने एक शक्तिशाली सेना बनाई। जब उसके देश में सुरक्षा-प्रबन्ध पूरे हो गये तब उसने एक राजधानी एवं उसमें एक शाही महल बनवाने का विचार किया। इसके लिए इमारती पत्थर का प्रबल अलवनडा (Alvanda) नामक पहाड़ जिसकी ऊंचाई 6000 फुट थी, चुन लिया गया। उस पर एकबताना नामक शहर बनाया गया। उस शहर के खण्डरात आधुनिक हमादान (ईरान) नगर के पूर्वी भाग में आज भी देखे जा सकते हैं। हैरोडोटस के अनुसार एकबताना शहर की 7 दीवारें गोल घेरों में बनाई गईं थीं जिनका केन्द्र एक ही था तथा एक दीवार से दूसरी दीवार


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 21, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-427


कुछ दूरी एवं ऊंचाई पर स्थापित की गई, इसी क्रम से सातों दीवारें बनाई गईं थीं। इस तरह से भीतरी दीवारें बाहरी दीवारों की अपेक्षा अधिक ऊंची थीं। राजा का कोष तथा महल सबसे भीतरी दीवार के अन्दर स्थित थे जो कि सोने तथा चांदी की चादरों से ढके हुए थे। अन्य 6 दीवारें विभिन्न रंगों की थीं। यह कार्य पूरा होने के बाद डियोसिज. ने अपने साम्राज्य को बढ़ाना आरम्भ कर दिया। उसने अपने बुद्धिमत्तापूर्ण नियमों द्वारा जाटों को एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में संगठित कर दिया। उसने समीपवाले क्षेत्रों को अपने मांडा साम्राज्य में मिला लिया। उसने 45 वर्ष तक राज्य किया तथा उसकी मृत्यु होने पर 655 ई० पू० में इसका पुत्र फ्रावर्ती मांडा साम्राज्य की गद्दी पर बैठा1

जाटसम्राट् फ्रावर्ती (655 ई० पू० से 625 ई० पू० तक) -

डियोसिज़ का पुत्र फ्रावर्ती 655 ई० पू० में अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। लम्बे समय तक शान्ति और चतुर शासन से जाट राष्ट्र सौभाग्यशाली बन गया था। वे लोग अपनी वीरता दिखाने के इच्छुक थे। अतः उन्होंने सम्राट् फ्रावर्ती के नेतृत्व में फारस तथा एलम पर आक्रमण कर दिया। इनको आसानी से विजय कर लिया तथा उन देशों को अपने मांडा साम्राज्य में मिला लिया गया। इसके पश्चात लघुएशिया को जीत लिया। फ्रावर्ती ने फिर शीघ्र ही असीरिया पर आक्रमण कर दिया किन्तु वह इस युद्ध में मारा गया2

जाटसम्राट् साईक्षयरज़/ हूवाक्षत्र (625 ई० पू० से 584 ई० पू० तक) -

फ्रावर्ती का पुत्र साईक्षयरज 625 ई० पू० में अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। साईक्षयरज़ ने असीरिया पर आक्रमण जारी रखे। वीरता में वह अपने पूर्वजों की अपेक्षा महान् था। उसने अपनी सेना को युद्धकला सिखलाई जिसमें तम्बू लगाना और धनुर्विद्या भी शामिल थे। उसने घुड़सवार सेना भी तैयार की। वह अन्धविश्वासी भी था। इस दोष के कारण वह लीडिया को न जीत सका। जब वह लीडिया में युद्ध कर रहा था तब सूर्य का पूर्ण ग्रहण हो गया जिससे दिन का समय रात्रि की भांति अन्धकारपूर्ण हो गया। उसने इसको बदशकुन मानकर युद्ध बन्द कर दिया और हेलिज़ (Halys) नदी के पार के राज्यों के साथ सन्धि करके मित्रता स्थापित कर ली। यह सूर्य ग्रहण 28 मई, 585 ई० पू० में हुआ था। इससे पहले 610 ई० पू० में साईक्षयरज़ ने असीरिया की राजधानी नाइन्वे पर आक्रमण किया था। असीरिया के राजा सिन्शेरिशकेन ने बेबीलोनिया के नेबोपोलासर पर आक्रमण किया था। बेबीलोनिया के राजा ने आक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए वीर मांडा जाटों से सहायता मांगी। साईक्षयरज़ को अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का यह सुनहरी अवसर मिल गया तथा उसने नाईन्वे पर आक्रमण कर दिया जिसको 607 ई० पू० में अपने अधिकार में ले लिया। उसने प्राचीन असीरियन साम्राज्य को बेबीलोनिया की सीमा तक सारे को विजय करके अपने अधिकार में ले लिया। प्राचीन प्रसिध नगर 'कालाह' को जला दिया गया। जाट इतिहास में कालाह नगर की विजय अद्वितीय थी कि वे इसे कभी नहीं भूले।


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 22-31, उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 128-131, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-428


कालाह नामक दो गांव आज भी आधुनिक पंजाब में हैं। एक कपूरथला जिला में ‘कालाह सांघा’ है तथा दूसरा जिला जालन्धर में आदमपुर के पास ‘कालाह बाकरा’ है। साईक्षयरज की इस विजय ने असीरियन साम्राज्य का नाम इतिहास से मिटा दिया।

इस महान् विजय के बाद साईक्षयरज़ के नेतृत्व में जाटों ने दूर मिश्र की सीमा तक अपना अधिकार कर लिया। मिश्र के राजा पासन्थिक ने जाटों की शूरवीरता से भयभीत होकर इनको कर के रूप में भारी राशि प्रदान कर दी और इससे जाट वापिस लौट आये।

बेबीलोनिया के सम्राट् नेबू-चद-नेज्ज़र (Nebu-Chad-Nezzar) के साथ साईक्षयरज़ ने अपनी पुत्री का विवाह करके मित्रता स्थापित कर ली। आर्मानिया तथा कप्पाडोसिया को जीतकर मांडा साम्राज्य में मिला लिया। लीडिया के सम्राट् ने अपनी पुत्री का विवाह मांडा साम्राज्य के युवराज से करके मित्रता कर ली।

इस तरह से सम्राट् साईक्षयरज़ ने मांडा जाट साम्राज्य को उस समय का सबसे शक्तिशाली एवं प्रसिद्ध साम्राज्य बना दिया। इतिहास के प्रसिद्ध तथा वीरयोद्धा सम्राट् साईक्षयरज़ की 584 ई० पू० में मृत्यु हो गई जिसका उत्तराधिकारी ईस्तुवेगु बना1

जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 303 पर बी० एस० दहिया लिखता है कि “मांडा जाट सम्राट् साईक्षयरज़ ने अपनी राजकुमारी अमिथिया (Amithia) का विवाह बेबीलोनिया के सम्राट् नेबू-चद-नेज्ज़र के साथ करके मित्रता स्थापित कर ली थी। बेबीलोनिया के इस सम्राट् नेबू-चद-नेज्ज़र ने अपनी महारानी अमिथिया की यादगार में एक बेबीलोनिया का झूलता हुआ बाग (Hanging Garden of Babylonia) का निर्माण करवाया जो कि संसार की 7 आश्चर्यजनक वस्तुओं में से एक है। हीर-रांझा, जिन के प्रेम के गाने गाये जाते हैं, वे भी जाट थे।”

जाटसम्राट् ईश्तुवेगु (584 ई० पू० से 550 ई० पू० तक) -

साईक्षयरज़ का उत्तराधिकारी उसका पुत्र ईश्तुवेगु 584 ई० पू० में बना। उसका विवाह लीडिया के युद्ध के बाद सन्धि के समय लीडिया के राजा अलेयेत्तस की पुत्री आर्यनिस (संस्कृत आर्यानी) से हुआ। वह एक योग्य पिता का अयोग्य पुत्र था। वह आनन्दभोगी, जड़बुद्धि तथा मिथ्याविश्वासधर्मी था। उसके मानसिक दोष इतने गम्भीर थे कि वे जाटों के साम्राज्य के पतन का कारण बने। फिर भी उसके शासन के आरम्भ में जाटों ने साईक्षयरज़ की वीरता तथा बुद्धिमत्ता के कारनामों के प्रभाव के कारण उत्तर-पश्चिम की ओर हेलिज़ नदी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

ईश्तुवेगु के कोई पुत्र नहीं था, केवल एक पुत्री मन्दानी (मांडा वंश के नाम पर) थी। ईश्तुवेगु को स्वप्न आया कि मन्दानी के पेट से एक अंगूर की बेल निकली जो कि समस्त एशिया में फैल गई। सम्राट् ने मागी (मांडा साम्राज्य के पुरोहित) लोगों से अपने इस स्वप्न के विषय में पूछा। दरबारी मागी ने इसकी भविष्यवाणी की कि मन्दानी की सन्तान साम्राज्य को हड़प लेगी तथा समस्त एशिया को जीत लेगी। इससे डरकर ईश्तुवेगु ने शाही परिवार के स्तर के बराबर किसी भी जाट


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 22-31, लेखक उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 128-131, लेखक बी० एस० दहिया।


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से मन्दानी का विवाह नहीं किया तथा एक पर्शियन कैम्बसिज़ के साथ कर दिया जोकि एलम प्रान्त का राजकुमार था, जो जाट उच्च-अधिकारियों से स्तर में तुच्छ था। जब मन्दानी गर्भवती हो गई तब सम्राट् ईश्तुवेगु की आज्ञा अनुसार उसको एलम से शाही महलों में लाया गया। यहां पर मन्दानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम साईरस था। मांडा जाट सेना का मुख्य सेनापति जाट हरपेगस था जोकि जाट इतिहास में अत्यन्त प्रसिद्ध व्यक्ति था। वह न केवल सबसे वीर था अपितु मांडा साम्राज्य में सबसे बुद्धिमान् व्यक्ति था। वह बहुत ही विश्वसनीय था तथा सारे शासन का कार्य भलीभांति चलाता था। अपने पिता की तरह ईश्तुवेगु भी उस पर पूर्ण विश्वास रखता था। ईश्तुवेगु ने उसे मन्दानी के पुत्र को मारने तथा इसे किसी को भी न बताने का आदेश दे दिया। हरपेगस उस साईरस नामी बालक को अपने घर ले गया तथा गम्भीरता से विचार किया कि इस्तुवेगु का कोई पुत्र नहीं है जो उसका उत्तराधिकारी बने तथा बालक साईरस ही केवल नर उत्तराधिकारी है जो उसकी गद्दी पर बैठ सकता है।

हरपेगस ने उस बालक को मिथरीडेटस नामक गडरिये को इस उपदेश के साथ दे दिया कि वह इस बालक को किसी उजाड़ वन में फेंक दे। घटना यह घटी कि उस गडरिये की पत्नी ने पहले दिन एक मृत बच्चे को जन्म दिया था। उन दोनों ने सुन्दर बालक साईरस को अपने घर रख लिया तथा अपने मृत बच्चे को जंगल में फेंक दिया। इसकी सूचना हरपेगस को दे दी गई जिसने वहां जाकर उस मृत बालक को भूमि में दबा दिया, जिसकी शक्ल जंगली जानवरों के खाने से पहचानी नहीं जा सकती थी। किसी अन्य नाम से गडरिये की पत्नी ने बड़ी सावधानी से सुन्दर साईरस का पालन-पोषण किया।

जब साईरस 10 वर्ष का हुआ तो एक दिन राजा को अचानक वह लड़का तथा उसका सौतेला बाप रास्ते में मिले। पूछने पर मिथरीडेटस ने सब भेद खोल दिया। ईश्तुवेगु ने अपने सेनापति हरपेगस से इसका बदला लेना चाहा। उसने हरपेगस को आदेश दिया कि वह अपने पुत्र को बालक साईरस के पास राजमहल में भेज दे तथा स्वयं शाही दावत का आनन्द लेने के लिए महल में आ जाए। हरपेगस इस बात से बहुत प्रसन्न हुआ परन्तु उसको आगे होनेवाली भयंकर घटना का विचार तक भी न था। उसने अपने 13 वर्षीय इकलौते पुत्र को सम्राट् के महल में भेज दिया तथा समय पर वह भी दावत में शरीक हो गया। नष्टधर्मी ईश्तुवेगु ने हरपेगस के पुत्र को कत्ल करवा दिया तथा उसका पका हुआ मांस हरपेगस को खिला दिया जबकि अन्य अतिथियों को बकरियों का मांस परोसा गया। ईस्तुवेगु ने हरपेगस के पुत्र के कटे हुए अंग तथा सिर मंगवाए तथा हरपेगस को वह भी खाने को कहा। हरपेगस अत्यन्त वीरों तथा बुद्धिमानों में एक ऐसा जनरल था जो शायद ही कभी संसार में ऐसा जनरल हुआ हो। वह न केवल सबसे बड़ी सेना को वश में कर सकता था बल्कि अपनी प्रबल इच्छाओं तथा लालसाओं को भी काबू कर सकता था। उसने उस समय कोई ऐसी असाधारण अवस्था प्रकट नहीं की। वह अपने पुत्र के बचे हुए शव को घर ले गया तथा दाह संस्कार कर दिया।

हरपेगस ने समझ लिया कि इस महान् तथा होनहार साम्राज्य पर राक्षस ईश्तुवेगु शासन करने योग्य नहीं है। उसने पुत्र के कत्ल करने का बदला लेने की ठानी। उसने विचार किया कि साईरस ही ईश्तुवेगु को गद्दी से उतारने के लिए योग्य है और वह ईश्तुवेगु का वास्तविक


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-430


उत्तराधिकारी भी है। साईरस पर्शिया में अत्यन्त शक्तिशाली एवं सुन्दर राजा बन चुका था। हरपेगस ने साईरस को गुप्त पत्र भेजकर उसको ईश्तुवेगु के विरुद्ध विद्रोह करके उसको राजगद्दी से हटाकर स्वयं सम्राट् बनने को उकसाया तथा इसके लिये अपनी पूरी सहायता का आश्वासन भी दिया।

यह पत्र पढ़कर साईरस ने एक योजना बनाई जिसके अनुसार एक शाही पत्र लिखा गया जिससे प्रतीत होता था कि ईश्तुवेगु ने उसे पर्शिया का जनरल नियुक्त किया है। उसने पर्शिया के लोगों की एक सभा में पत्र पढ़कर सुनाया। उसने एक बड़ी सेना तैयार करके ईश्तवेगु के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यह सूचना मिलने पर ईस्तुवेगु ने एक बड़ी सेना एकत्रित की जिसका सेनापति हरपेगस को बनाया गया तथा पर्शिया पर आक्रमण कर दिया। जो जाट सैनिक इस जालसाजी में शामिल नहीं थे वे बड़ी वीरता से लड़े परन्तु अन्य जाट सैनिक पर्शियन सेना से मिल गये। सेना का एक बड़ा भाग अपनी इच्छानुसार युद्ध से पीछे हट गया। इस तरह से ईश्तुवेगु की पूर्ण पराजय हुई। परन्तु ईश्तुवेगु ने अपनी प्रजा को हथियार देकर संगठित किया जिसमें बच्चे, बूढ़े भी शामिल थे और पर्शिया पर दोबारा आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में साईरस ने 550 ई० पू० में ईस्तुवेगु को बुरी तरह पराजित किया तथा उसे कैद कर लिया गया। साईरस फारस तथा मांडा साम्राज्य का सम्राट् बन गया। परिणामस्वरूप खालिस जाटों के शासन के अन्त होने का असली कारण ईश्तुवेगु का कठोर स्वभाव था1

सम्राट् साईरस (550 ई० पू० से 529 ई० पू० तक) -

इसके पिता का नाम कैम्बिसिज़ था जो कि फारस के एलम प्रान्त का राजकुमार था जिसके साथ मांडा साम्राज्य के अन्तिम सम्राट् ईश्तुवेगु की पुत्री जाट राजकुमारी मन्दानी का विवाह हुआ था, जिसके गर्भ से साईरस पैदा हुआ। मांडा साम्राज्य के मुख्य जाट सेनापति हरपेगस की सहायता से साईरस मांडा एवं फारस साम्राज्य का सम्राट् 550 ई० पू० बन गया था।

साईरस की नाड़ियों में जाट रक्त बह रहा था क्योंकि इसकी माता मन्दानी एक जाट राजकुमारी थी। साईरस के अधीन साम्राज्य का सारा संगठन वही रहा जो कि मांडा जाट सम्राटों के अधीन था। सभी उच्च प्रबन्धक अधिकारी जाट थे। सेना जाटों की थी तथा उसका सेनापति वीर एवं बुद्धिमान् जाट हरपेगस था जिसने साईरस के शासनकाल में बहुत-सी विजयें प्राप्त कीं। हरपेगस के नेतृत्व में जाटों द्वारा प्राप्त की गई विजयें आश्चर्यजनक थीं।

एक्सनोफोन (Xenophon) लिखता है कि “साईरस ने इतने अधिक राष्ट्रों को विजय कर लिया था जिसकी गणना करना कठिन है।” एच० जी० वैल्ज लिखता है कि “जब साईरस राजगद्दी पर बैठा तो वह इतने बड़े साम्राज्य का शासक बना जिसकी सीमाएं लीडिया से फारस तक और सम्भव है कि भारतवर्ष तक फैली हुईं थीं। दूसरा बेबीलोनियन साम्राज्य एक शताब्दी के 2/3 भाग (लगभग 65-70 वर्ष) तक भेड़ के बच्चे की तरह मांडा शेर के अन्तर्गत रहा।” (देखो ऑउट-लाईन ऑफ हिस्ट्री, अध्याय 21, विभाग 5)।


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस, पृ० 22-31, लेखक उजागरसिंह माहिल; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 128-131, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-431


जाटों की तलवार से पहला विजय होने वाला लीडिया का सम्राट् क्रोईसिस था। इसके पिता का नाम अलेयेत्तस था जिसकी पुत्री आर्यानी का विवाह सम्राट् ईश्तुवेगु से हुआ था। ईश्तुवेगु इस तरह से क्रोईसिस का बहनोई था। जब साईरस ने ईश्तुवेगु का राज्य छीनकर उसे कैद में डाल दिया तो इससे क्रोईसिस को बड़ा दुःख हुआ और उसी समय उसका पुत्र भी एक दुर्घटना में मारा गया था। अतः क्रोईसिस ने लेस्डेमोनियन्ज (Lacedemonians) तथा मिश्रवालों के साथ एक रक्षात्मक सन्धि कर ली। प्टेरिया (Pteria) के स्थान पर क्रोईसिस और साईरस का घमासान युद्ध हुआ, वहां से क्रोईसिस लौट गया। साईरस ने उसका पीछा किया और उसके साथ उसकी राजधानी सरदिस (Sardis) के बाहर युद्ध किया।

लीडियन्ज़ की मुख्य सैनिक शक्ति उनकी श्रेष्ठ घुड़सवार सेना थी जो लम्बे भालों से युद्ध करते थे। साईरस ने जब लीडियन सेना की व्यूहरचना जो युद्ध के लिए की गई थी, को देखा तो वह उनके घुड़सवारों से भयभीत हो गया। हैरोडोटस का कहना है कि साईरस ने अपने मांडा जाट सेनापति हरपेगस की बताई हुई सैनिक युद्धविद्या के अनुसार कार्य किया जो निम्न प्रकार से था –

“उसने अपनी सेना की भारबरदारी ले जाने वाले ऊंटों को इकट्ठा किया और उन पर लदे हुए सब साज व सामान को उतरवा दिया। अब उन ऊंटों पर घुड़सवार सैनिकों को उनके शस्त्रों सहित बैठा दिया गया। अब उनको अपनी सेना के आगे-आगे चलने तथा क्रोईसिस के घुड़सवारों की तरफ जाने का आदेश दिया। ऊंटों के इस काफिले के पीछे उसने अपनी पैदल सेना लगाई तथा पैदल सेना के पीछे अपनी घुड़सवार सेना रखी। जब ऊंट काफिला क्रोईसिस की घुड़सवार सेना के निकट पहुंचा तो उसके घोड़ों को ऊंटों की गन्ध आई तथा उनकी आकृति से डर गये। वे तुरन्त उलटे भाग गये जिससे क्रोईसिस की घुड़सवार सैनिक शक्ति बेकार हो गई। साईरस की सेना ने पूरी शक्ति से शत्रु पर धावा बोल दिया और उसके बहुत सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इस तरह से 14 दिन में राजधानी सरदिस पर साईरस का अधिकार हो गया तथा क्रोईसस को कैदी बना लिया गया। साईरस ने उसे लकड़ियों की चिता में जलाकर मारने का दण्ड दिया परन्तु बाद में उसे बचा लिया गया।”

लीडिया की इस विजय तथा क्रोईसस की हार से, हरपेगस के नेतृत्व में जाटसेना की वीरता तथा साईरस की व्यूहरचना स्पष्ट सिद्ध हो जाती है।

क्रोईसस एशिया माइनर का सबसे धनवान् राजा था। वह लोकप्रसिद्ध धनी व्यक्ति था। युद्ध में लूट का यह सब धन जाटों के हाथ लगा। 545 ई० पू० में सेनापति हरपेगस ने रूम सागर के तट तक सब भूमि को जीत लिया। इस तरह से पश्चिमी तट तक सारे लघुएशिया पर साईरस का अधिकार हो गया। फिर 539 ई० पू० में सेनापति हरपेगस के नेतृत्व में जाट सेना ने दक्षिण की ओर बचे हुए बेबीलोनिया राज्य पर आक्रमण कर दिया। वहां पर राजा नेबोनीदस (Nobonidus) का शासन था। जाटसेना ने वहां के सेनापति बेल्शाजार (Belshazzar) के अधीन बेबीलोनिया सेना को परास्त कर दिया तथा उस साम्राज्य को भी अपने अधिकार में ले लिया। बेबीलोनिया का प्रसिद्ध सम्राट् नेबोनीदस भाग गया। इस प्रकार प्राचीन महान् बेबीलोनियन साम्राज्य जो कि इतिहास के अनुसार शायद संसार में सबसे पहला था, अन्तिमरूप से जाटों के अधिकार में आ गया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-432


सीरिया* तथा फोनिशिया ने भी हथियार डाल दिए। इतने देशों को जीतकर भी मांडा जाट चुपचाप नहीं बैठे। उन्होंने सोग्डियाना में समरकन्द तथा बुखारा को भी जीत लिया। फिर खीवा को भी विजय कर लिया। अफगानिस्तान के एक बड़े क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। एच० जी० वैल्ज (आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री, अध्याय 28, भाग 1) के लेख अनुसार - “साईरस का साम्राज्य हेलेस्पोंट** (Hellespont) से सिन्ध तक फैल गया था तथा सभ्यता अपने ऊंचे स्तर तक पहुंच चुकी थी। इसका साम्राज्य अविजित रहा तथा 200 वर्ष तक धन-धान्य से पूर्ण रहा1।”

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 131, लेखक बी० एस० दहिया ने लिखा है कि साईरस ने स्वयं बल्ख (बैक्ट्रिया) और कैस्पियन सागर पर अधिकारी जाटों से युद्ध किया परन्तु वह दोनों स्थानों पर असफल रहा। बल्ख पर कांग तथा मस्सागेटाई पर दहिया जाटों का शासन था। ये दोनों जाटों के स्वतन्त्र राज्य रहे। (देखो चतुर्थ अध्याय, कांगवंश प्रकरण)।

सम्राट् साईरस का जाट महारानी तोमरिस से युद्ध (529 ई० पू० में) -

इतनी अधिक विजयों से साईरस अभिमानी हो गया तथा अब उसने मैस्सागेटाई देश की ओर ध्यान दिया जो कि जाटों का एक और प्राचीन साम्राज्य था। उस समय तोमरिस नामक एक जाट रानी मैस्सागेटाई के सिंहासन पर विराजमान थी। उस रानी ने अपने पति राजा अरमोघ की मृत्यु हो जाने पर शासन की बागडोर स्वयं सम्भाली थी। अब साईरस ने उचित अवसर समझ कर अपने दूत द्वारा रानी तोमरिस को अपने साथ विवाह करने का प्रस्ताव भेजा। महारानी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए उत्तर दिया कि “मैं जाट क्षत्रियाणी हूं, अपना धर्म नहीं छोड़ सकती तथा अपने देश को तुम्हारे अधीन नहीं करूंगी।” यह उत्तर मिलने पर साईरस ने 529 ई० पू० में भारी सेना के साथ तोमरिस के राज्य पर आक्रमण कर दिया।

अरेक्सिज नदी पार दोनों ओर की सेनाओं का बहुत भयंकर युद्ध हुआ। महारानी तोमरिस इस युद्ध में स्वयं आगे की सेना के साथ होकर लड़ी। दोनों ओर वीर जाट सैनिक थे जो अन्तिम समय तक लड़े। हैरोडोटस लिखता है कि “प्राचीन काल से लड़ी गई सभी लड़ाइयों से यह युद्ध अधिक खूनखराबे वाला था।”

इस युद्ध में साईरस मारा गया। तोमरिस की मस्सागेटाई जाट सेना ने 529 ई० पू० में इस युद्ध में विजय प्राप्त की। तोमरिस महारानी ने युध के मैदान से साईरस के मृत शरीर को खोज करवाकर प्राप्त कर लिया और महारानी ने उसका सिर काटकर उसको एक खून के भरे बर्तन में डालकर कहा “मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम अपना ही खून पीओ।”

मस्सागेटाई के वीर जाटों के हाथों अजेय महान् सम्राट् साईरस की यह प्रथम तथा करारी


  • जाट इतिहास, पृ० 7 पर सम्पादक निरंजनसिंह चौधरी ने लिखा है कि “बाईबिल मुकद्दस के अहदनामें में जाट क्षत्रियों और सीरिया देश की आदिम निवासी वनी इसराईल के युद्धों का उल्लेख है। उसमें जाट नामक एक शहर का उल्लेख है, जो जाटों की राजधानी थी। जुलीत नामक एक जाट पहलवान का भी उल्लेख है। बाईबिल के अनुसार उपर्युक्त घटनायें अब से तीन या चार हजार वर्ष पूर्व की हैं।
    • हेलेस्पोंट (Hellespont) जो अब डार्डनल्ज (Dardanelles) नाम से तुर्की के पश्चिमी तट पर स्थित है।
1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 31-37, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-433


हार और उसकी समाप्ति हुई1। (अधिक जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, जाट महारानी तोमरिस का सम्राट् साईरस से युद्ध-प्रकरण)।

कैम्बाईसिज (Combyses) (529 ई० पू० से 521 ई० पू० तक) -

साईरस के मरने पर उसका पुत्र कैम्बाईसिज़ 529 ई० पू० में गद्दी पर बैठा। उसने जाट सेना के साथ 525 ई० पू० में मिश्र पर आक्रमण कर दिया। नील नदी के डेल्टा में जाट सेना का मिश्र की सेना से रक्तपातपूर्ण युद्ध हुआ। हैरोडोटस लिखता है कि “मैंने इस युद्ध के 50-60 वर्ष पश्चात् इस रणक्षेत्र में काम आये सैनिकों की हड्डियां तथा खोपड़ियां स्वयं देखी थीं। इस युद्ध के बाद कैम्बाईसिज़ की सेना ने मेमफिस तथा अधिकतम मिश्र को अपने अधिकार में ले लिया।” सूसा की ओर लौटते समय कैम्बाईसिज़ की मृत्यु एक दुर्घटना के कारण हुये घाव से सीरिया में हो गई। साईरस का मुख्य सलाहकार हरपेगस जाट का पुत्र डेरियस (Darius) 521 ई० पू० में कम्बाईसिज का उत्तराधिकारी बना।2

जाटसम्राट् डेरियस (Darius) (522 ई० पू० से 485 ई० पू० तक) -

डेरियस के पिता का नाम हरपेगस था जो कि सम्राट् ईश्तुवेगु का सेनापति तथा सम्राट् साईरस का मुख्य सलाहकार था। कैम्बाईसिज़ का कोई पुत्र न था इसलिए उसकी मृत्यु के पश्चात् डेरियस 521 ई० पू० में राजगद्दी पर बैठा। डेरियस के साम्राज्य का फैलाव आश्चर्यजनक था। उसने 515 ई० पू० में सीथिया देश पर आक्रमण किया तथा थ्रेस के कई नगरों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने मैकदूनिया के राजा से भी कर लिया। उसने सिन्ध नदी तक के देशों को विजय कर लिया और काबुल के उत्तर के सब राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने उस क्षेत्र का एक मण्डलेश्वर (सूबेदार) नियुक्त कर दिया। उसने यूनान में भी युद्ध किए। उसने साईरस के स्वप्न के अनुसार अपना एक पांव एशिया पर तथा दूसरा यूरोप में फैला लिया। संक्षेप में बात यह है कि इतिहास के अनुसार उस समय से पहले होनेवाले सब साम्राज्यों में प्रत्येक से डेरियस का साम्राज्य अधिक विस्तृत था। इसके साम्राज्य में लघुएशिया तथा सीरिया (प्राचीन लीडियन हिट्टाइट, असीरियन, बेबीलोनियन तथा लीडिन साम्राज्य), मिश्र, काकेशस व कैस्पियन क्षेत्र, मीडिया और फारस शामिल थे तथा यह साम्राज्य सिन्ध नदी तक फैला हुआ था।

इस् महान् साम्राज्य की शासन-व्यवस्था पूर्वकालीन शासकों से अधिक अच्छी थी। बड़ी-बड़ी सड़कें एक प्रान्त को दूसरे प्रान्त से जोड़ती थीं तथा उनके द्वारा शाही डाक का वितरण किया जाता था। एशिया के बड़े क्षेत्र में यूनानियों के अधीन नगर भी उसको कर देते थे।

एशिया के इतने बड़े भाग पर अधिकार करने के बाद अब डेरियस ने अपना ध्यान यूरोप की ओर किया। वह अपनी विशाल सेना को जिसमें अधिकतर जाट सैनिक थे, थ्रेस देश की


1. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 37-41, लेखक उजागरसिंह माहिल, जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 131-133, लेखक बी० एस० दहिया।
2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 41-42, लेखक उजागरसिंह माहिल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-434


ओर ले गया। फिर उसने दक्षिणी रूस के जाटसाम्राज्य पर आक्रमण हेतु डैन्यूब नदी को पार किया। वहां पर उसका सामना उससे भी अधिक वीर एवं युद्ध-विद्या में निपुण जाटों ने किया। ये सीथियन जाट थे जिनका शासन सीथिया देश (दक्षिणी रूस) पर था। उनसे डरकर डेरियस अपनी जान बचाकर डैन्यूब नदी को पार करके वापिस लौट आया1

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ०134 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि जब डेरियस ने इन सीथियन जाटों के राज्य पर आक्रमण किया तब वे डेरियस को फुसलाने हेतु पीछे को हट गए। वास्तव में उनकी शत्रु को फंसाने की यह युद्धविद्या थी।

डेरियस ने सीथिया के राजा को यह संदेश भेजा - “सीथिया देश के राजा, मेरे से दूर क्यों भाग रहे हो? यदि आप मेरे तुल्य हो तो ठहरो और युद्ध करो। यदि नहीं हो तो भागने की आवश्यकता नहीं, आप मुझे अपनी भूमि एवं जल सौंप दे और आत्मसमर्पण कर दो, जिसकी शर्तें सन्धि द्वारा तय की जा सकती हैं।”

इसका उत्तर सीथियन राजा ने डेरियस को भेजा, जो कि एक आदर्शभूत जाट उत्तर है। सन्देश में कहा गया कि “फारस के सम्राट्, मैं सूर्य भगवान् के अलावा अन्य किसी से नहीं डरता। मैं भागता नहीं हूं तथा भूमि और पानी आपको नहीं दूंगा। यद्यपि मैं आपको बड़े योग्य उपहार भेजता हूं।” उसने अपने दूत द्वारा एक पक्षी, एक चूहा, एक मेंढक और पांच तीर उपहार के तौर पर भेज दिये। डेरियस ने अनुमान लगाया कि चूहा भूमि को सूचित करता है तथा मेंढक पानी को। तदनुसार सीथियन ने हम को भूमि एवं पानी देना स्वीकार कर लिया है और आत्मसमर्पण कर रहे हैं। परन्तु डेरियस का ससुर जो कि एक चतुर सेनापति था, ने उसको इस उपहार का सत्य अर्थ इस तरह से बताया - “फारसवालो! सिवाय इसके कि तुम पक्षी बनकर आकाश में उड़ जाओ या चूहे बनकर भूमि के भीतर चले जाओ या मेंढक बनकर पानी में चले जाओ, तुम में से एक भी जीवित वापिस नहीं जा सकता, हमारे तीर तुम्हारे हृदयों को छेद देंगे।”

“डेरियस यह समझकर कि मेरी सेना सीथियन जाटसेना के फन्दे में फंसने वाली है, अपनी जान बचाकर डेन्यूब नदी को पार करके फारस लौट आया।”

अन्त में डेरियस सूसा को चला गया तथा एक सेना अपने वीर जनरल मेगाबाज़स (Megabazus) के नेतृत्व में थ्रेस देश में छोड़ गया। थ्रेस के जाटों ने इस जनरल को अपने अधीन कर लिया। इस तरह से थ्रेस के जाट तथा डैन्यूब नदी के प्रदेशों के शासक सीथियन जाट और अमू दरिया के उत्तर में शासक कांग जाट स्वतन्त्र रहे।

डेरियस ने मैकदूनिया (Macedonia) साम्राज्य को भी अपने अधिकार में कर लिया। कुछ टापुओं पर कब्जा करने के बाद उसने 490 ई० पू० में यूनान देश पर आक्रमण कर दिया। यह यूनान के एथन्ज नगर पर समुद्री आक्रमण किया गया था जो कि निष्फल हो गया।

485 ई० पू० में डेरियस की मृत्यु हो गई। इसके बाद इसका पुत्र क्षेरक्षेज गद्दी पर बैठा2

नोट - जिन जाटों ने साईरस तथा डेरियस की स्वामिभक्ति अस्वीकार कर दी वे मध्यएशिया तथा


1, 2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 41-42, लेखक उजागरसिंह माहिल।


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मांडा साम्राज्य से भारतवर्ष लौट आये। जिनमें से मुख्य जाट गोत्र निम्न प्रकार से हैं -

मांडा, वरिक, मौर, शिवि, अत्रि, खत्री, कांग, पोरव (पुरु) आदि। इन सबका निवास आज भी भारत में पाया जाता है। जॉन पर्ज़ीलुस्की (Jean Przyluski) उनको वाह्लीक कहता है तथा जो ईरान व मध्यएशिया से आए (Journal Ariatique 1926, P 11-13)। पाणिनि ऋषि ने इन जाटों को आयुधजीवी (वीरयोद्धा) लिखा है। पाणिनि ने इन आयुधजीवी संघों (गणों) को जाटसंघ लिखा है। इन लोगों ने अपने नाम से उत्तरपथ (उत्तरी पंजाब) में अनेक नगर स्थापित किए। (V.S. Agarwal op. cit, P. 68-69).

सम्राट् क्षेरक्षेज (Xerxes) (485 ई० पू० से 465 ई० पू० तक) -

क्षेरक्षेज 485 ई० पू० में अपने पिता डेरियस की मृत्यु होने के बाद फारस साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। उसने हेलेसपोंट (Hellespont) जो अब डार्डनल्ज (Dardanelles) नाम से तुर्की के पश्चिमी तट पर स्थित है, से समुद्री बेड़े द्वारा रूम सागर पार करके यूनान पर दूसरा आक्रमण कर दिया। कुछ संघर्ष के बाद फारस की सेना ने एथन्ज पर अधिकार कर लिया और 480 ई० पू० में उसे फूंक दिया। फिर भी यूनानी जहाजी बेड़े ने पर्शियन बेड़े को हरा दिया तथा बुरी तरह तोड़-फोड़ करके डुबो दिया। क्षेरक्षेज हेलेसपोंट के स्थान पर बने नावों के पुल ध्वंस होने के कारण डर गया तथा वह अपनी यूरोपियन लड़ाइयों से घृणित होकर अपने देश में लौट आया। 465 ई० पू० में उसको उसके महल में ही कत्ल कर दिया गया। इसके पश्चात् बहुत से पर्शियन सम्राटों ने शासन किया जिनकी यूनान में बुरी हार हुई। इन सम्राटों का नाम अज्ञात है जो कि एक खोज का विषय है।

लगातार युद्धों के बन्द होने पर पर्शियन्ज ने हत्याएं, विद्रोह, दण्ड, कपटी सन्धि तथा विश्वासघात जैसे घृणित कार्य करने आरम्भ कर दिये। यही कार्य उनके तबाही का कारण बना। अन्त में सिकन्दर महान् ने इनको करारी हार दी तथा अस्थायी यूनानी साम्राज्य स्थापित हो गया1

331 ई० पू० में सम्राट् सिकन्दर ने ईरान के सम्राट् डेरियस द्वितीय (दारा) पर आक्रमण कर दिया। दारा ने सिन्धु देश के जाट राजा सिन्धुसेन (सिन्धु गोत्र) से सहायता मांगी। उसने दारा की सहायता के लिए अपने सिन्धु गोत्र की जाट सेना को भेजा। अर्बेला के स्थान पर दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में दारा मारा गया तथा सिकन्दर की जीत हुई। सिकन्दर ने कोप पर ईरान की राजधानी परसीपोलिस को तहस नहस कर दिया। (अधिक जानकारी के लिए देखो चतुर्थ अध्याय, सिकन्दर और दारा प्रकरण)।

साईरस और हरपेगस के पुत्र डेरियस के शासनकाल में मांडा साम्राज्य तथा मध्यएशिया के कई स्थानों से कुछ जाट भारतवर्ष में आ गये और यहां आबाद हो गये। माग लोग भी जो कि मांडा सम्राटों के पुरोहित थे, इन जाटों के साथ भारत आ गये। भारत में इनको ‘माग’ कहा गय। यमुना नदी के किनारे बसे हुए ‘तगा’ ब्राह्मण इनके ही वंशज हैं।


1, 2. अनटिक्विटी ऑफ जाट रेस पृ० 42-43, लेखक उजागरसिंह माहिल।


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इतिहासकार मसूदी ने इनका नाम ‘तगाज़गेज़’ लिखा है। (Srivastava - Indian History Congress, Bhagalpur session, 1968, P. 86)

छठी/सातवीं ईस्वी शताब्दियों में भी मांडा गोत्र के जाटों का निवास पंजाब और सिन्ध में पाया जाता है। इवन हौकल लिखता है कि “नास्तिक जो कि सिन्ध में बसे हुये थे, वे बुद्ध तथा मांड कहलाते थे।” मांडों (मांड जाट) का निवासस्थान सिन्ध नदी के किनारों पर था और मुलतान से लेकर समुद्र तक इनकी बड़ी जनसंख्या थी। (Elliot & Dowson, OP. Cit, Vol. I, P. 38; see also Cambridge Ancient History Vol. IV)

सम्राट् सिकन्दर महान् का मकदूनिया से चलकर व्यास नदी तक पहुंचने तथा वहां से वापिस लौटकर बैबीलोन मे स्थान पर उसकी मृत्यु होने तक वीर जाटों के गणों ने कदम-कदम पर मध्यएशिया, मध्यपूर्व तथा पंजाब में उससे सख्त मुकाबला किया। (देखो चतुर्थ अध्याय, सम्राट् सिकन्दर और जाट प्रकरण)

मौर्य या मौर जाटवंशज सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (322-298 ई० पू० तक) में उसके साम्राज्य में अफ़गानिस्तान (जिनमें हिन्दूकुश पर्वतमालायें, काबुल, हिरात, कन्धार शामिल थे) और बलोचिस्तान सम्मिलित थे। उसके पौत्र अशोक महान् के शासनकाल (273-232 ई० पू० तक) में भी यह देश उसके साम्राज्य में शामिल थे।

कुषाण वंशज जाटराज्य (सन् 40 ई० से 220 ई० तक) के शासन में उनके साम्राज्य में शामिल देश -

कुजुल कफस कदफिसस (सन् 40 ई० से 78 ई० तक) ने बोखारा, बलोचिस्तान, सिन्ध नदी और ईरान की सीमा के बीच में सब प्रदेश जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिये थे। इस सम्राट् ने सबसे पहले बैक्ट्रिया (बल्ख) को जीतकर उसको अपनी राजधानी बनाया। इसके पुत्र विमकदफिसस द्वितीय (78 से 110 ईस्वी तक) के साम्राज्य में भी मध्यपूर्व के ये प्रदेश शामिल रहे।

महान् सम्राट् कनिष्क (सन् 120 ई० से 162 ई० तक) -

इस कुषाण सम्राट् की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी।

इस सम्राट् के साम्राज्य में गांधार (अफगानिस्तान), यारकन्द, बैक्ट्रिया (बल्ख), खोतन, काशगर, तारिम नदी की घाटी में आबाद अनेक प्रान्त, कश्मीर, पंजाब, सिन्ध, मगध राज्य का कुछ भाग, मथुरा और मालवा व उज्जैन आदि शामिल थे।

कनिष्क के पुत्र हुविष्क (सन् 162 से 182 ई० तक) ने अपने पिता के विशाल साम्राज्य को सुरक्षित रखा। इस सम्राट् की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र वासुदेव राजगद्दी पर बैठा जिसका शासनकाल सन् 182 से 220 ई० तक रहा। इसके समय में कुषाण साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था। इसके उत्तराधिकारी बड़े दुर्बल थे जो कि इस विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असफल रहे तथा इनके हाथ से इनका भारतवर्ष में तथा मध्यएशिया के प्रदेशों में राज्य निकल गये। परन्तु अफगानिस्तान तथा उत्तर-पश्चिमी भारत पर कुषाणों का शासन इस समय भी रहा। इसकी


1. जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 133, 134, 136, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-437


पुष्टि में जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 14 पर बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “कुषाण जाटों के राज्य से व्यापारी चीनी व शीशे की वस्तुएं लेकर पांचवीं सदी में चीन के सम्राट् ताई-वी (सन् 425-451 ई०) के दरबार में पहुंचे और वहां सूचना दी कि महान् जाटों ने अपने नेता किदार के नेतृत्व में पेशावर व गांधार (अफगानिस्तान) पर अधिकार कर लिया है।” (Paul Peliot op. cit, PP. 42-43)

पांचवीं सदी में कुषाणों के इन प्रदेशों को हूणों ने जीत लिया।

धारण गोत्र के जाट सम्राट् समुद्रगुप्त (335 से 375 ई०) ने अपनी दिग्विजय द्वारा इन कुषाण राजाओं को जीतकर उन पर कर (टैक्स) लगाया। समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (सन् 380 से 413 ई०) ने गान्धार, कम्बोज (अफगानिस्तान तथा उसके परे का प्रदेश) तथा वाह्लीक (बल्ख) के प्रदेशों को कुषाणों से जीतकर अपने साम्राज्य की सीमा को अमू दरिया तक विस्तृत किया। परन्तु इसके उत्तराधिकारियों से इन प्रदेशों को हूणों ने जीत लिया। इसी समय फारस (ईरान) में सासानीवंश के राजाओं ने अपनी शक्ति बढ़ा ली। (देखो चतुर्थ अध्याय, कुषाणवंशज जाटराज्य प्रकरण)

इस्लाम धर्म और जाट

इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद साहब थे जिनका जन्म सन् 570 ई० में मक्का में हुआ था। आपके पिता का नाम अब्दुल्ला था जो कि कुरैश कबीले के थे और आपकी माता भी इसी कुरैश कबीले के जुहरा गोत्र की एक सुन्दर स्त्री थी।

आपके जन्म से थोड़ा पहले ही आपके पिता की मृत्यु हो गई तथा छः वर्ष की आयु होने पर आपकी माता की भी मृत्यु हो गई। आपके चाचा अबुतालिब ने आपका पालन-पोषण किया।

मुहम्मद साहब जब 25 वर्ष के हुए तो 40 वर्ष की खदीजा नामक एक धनी स्त्री से आपका विवाह हो गया जिससे 7 बच्चे पैदा हुए। इन्हीं में से एक फातिमा नामक कन्या थी जिसका विवाह मुहम्मद साहब के चचेरे भाई ‘अली’ (अबूतालिब के पुत्र) के साथ हुआ। हजरत ‘अली’ कालान्तर में इस्लाम के चौथे खलीफा हुए थे। इनके दो पुत्र हुए - हसन और हुसैन जिनकी मृत्यु इस्लाम के इतिहास में बड़ी दुःखद घटना है।

मुहम्मद साहब की दूसरी पत्नी का नाम आयशा था।

मुहम्मद साहब ने लोगों को मूर्तिपूजा छोड़ देने के लिए कहा और उन्हें समझाया कि केवल एक अल्लाह (ईश्वर) ही पूजा के योग्य है। अनेक लोग इनके अनुयायी बन गए।

पैगम्बर मुहम्मद साहब की मृत्यु के पश्चात् आपके श्वसुर अबूबक्र को ‘खलीफा’ अर्थात् पैगम्बर साहब का प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया। उनके खलीफा पद के समय में मैसोपोटोमिया तथा सीरिया में मुसलमानों की विजयपताका फहराने लगी। इनके बाद उमर दूसरे खलीफा हुए। उमर भी अपने श्वसुर पैगम्बर साहब के परिवार में सबसे बड़े थे। उन्होंने अपनी सफलताओं से ‘खलीफा’ शासन को बड़ा शक्तिशाली बना दिया। उन्होंने सुदूर देशों को जीतकर इस्लामी साम्राज्य की सीमा पूर्व में अफ़गानिस्तान और पश्चिम में त्रिपोली तक पहुंचा दी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-438


एक दिन नमाज पढ़ते समय उनको एक हत्यारे ने छुरा मारा जिससे बाद में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बाद हजरत उसमान तीसरे खलीफा हुए। अंसार कबीले के लोगों ने उनके विरुद्ध षड्यन्त्र किया, जिसमें वे मार दिए गए।

हजरत उसमान के बाद पैगम्बर साहब के दामाद और चचेरे भाई अली को ‘खलीफा’ बनाया गया। वे चौथे खलीफा थे। गृहयुद्ध में मुआविया (सीरिया का शासक) की विजय हुई और हजरत अली मार डाले गये। उनके स्थान पर उनके पुत्र हुसैन की नियुक्ति हुई। वे पांचवें खलीफा थे। परन्तु वे दुर्बल थे तथा उन्होंने मुआविया के लिए अपने अधिकारों को छोड़ दिया। मुआविया छठे खलीफा थे। खलीफा की राजधानी अब मदीना से दमिष्क (सीरिया में) बदल गई। मुआविया वंश उमैया था। मुआविया ने सर्वप्रथम प्रत्यक्ष रूप से यह कहा कि मैं इस्लाम का राजा हूँ। अतः उनके पश्चात् खलीफा पद वंशानुगत हो गया और निर्वाचन बन्द हो गया। इसका अनुसरण अब्बासिया काल तक चलता रहा।

उमैयावंश के लोगों ने साम्राज्य का निर्माण कर लिया। इनके शासनकाल में अफ्रीका के बर्बरों के विरोध का दमन कर दिया गया और मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध प्रदेश पर आक्रमण किया।

पश्चिम और पूर्व में इस्लाम अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया। स्पेन को विजय कर लिया गया। अमू दरिया और सिर दरिया के बीच के प्रदेश इनके अधिकार में आ गए। उमैयावंश के अन्तिम खलीफा को एक खुरासानी नेता अबू मुस्लिम ने हरा दिया और बगदाद में बनी अब्बास का प्रभुत्व स्थापित करा दिया। अब बगदाद ही अब्बासिया वंश के साम्राज्य की राजधानी हो गई। अब्बासियों ने सन् 749 ई० से 1226 ई० तक राज्य किया। इनमें खलीफा हारुन उल रशीद (786-809 ई०) सबसे प्रसिद्ध थे। कालान्तर में धीरे-धीरे इस वंश के साम्राज्य में केवल बग़दाद का सूबा रह गया।

सन् 1256 ई० में चंगेज खां के पौत्र हलागू ने बगदाद पर आक्रमण किया और तत्कालीन खलीफा अलमुस्तासिम को मार डाला। अलमुस्तासिम के वंश के बचे हुए लोगों ने मिश्र के सुल्तान मामलूक के दरबार में शरण ली1

इस्लाम शासनकाल में मध्यपूर्व में जाटों की शक्ति का संक्षिप्त ब्यौरा

हजरत मुहम्मद साहब के साथ भी जाट रहते थे। ऐसा एक हदीस के लेख में वर्णन है। अब्दुल्लाह बिन मसऊद, सहाबी ने हजरत मुहम्मद के साथ रहते जाटों को देखा था। ‘तिरमजी अबावुल इम्साल’ अरबी ग्रन्थ के आधार पर मौलाना सैयद सुलेमान नदवी साहब ने भी ‘अरब और भारत के सम्बन्ध’ पर व्याख्यान देते हुए इस बात का भी जिक्र किया है।

मुहम्मद साहब ने अपनी रक्षा के लिए जाटों से मदद ली थी, क्योंकि आरम्भ में अरब लोग उनके बड़े विरुद्ध हो गये थे2। परिस्थितियों के भयावह हो जाने पर मुहम्मद साहब मक्का छोड़कर मदीना चले गये। उस अवसर पर जाटों ने आपकी रक्षा की थी।


1. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास पृ० 1-9 लेखक ईश्वरीप्रसाद।
2. जाट इतिहास पृ० 190-191, लेखक ठा० देशराज।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-439


सुलेमान नदवी ने लिखा है कि एक बहुत ही प्रमाणित साधन से जाटों के विद्यासम्बन्धी कार्यों का भी पता चलता है। हमाम बुखारी ने अपनी ‘किताबुल अदबुल मुफरद’ नामक पुस्तक में मुहम्मद साहब के समकालीन के समय की एक घटना लिखी है, जिसमें यह वर्णन है कि एक बार मुहम्मद साहब की दूसरी पत्नी श्रीमती आयशा बीमार हो गई। जब किसी भी हकीम से उसका इलाज न हो सका तब मुहम्मद साहब के भतीजों ने एक जाट चिकित्सक को बुलाया जिसने आयशा का इलाज किया1

खलीफा उमर ने रूम के शासक रोमन लोगों से अपने देश अरब की रक्षा के लिए वीर जाटों का सहारा लिया तथा उनको इस उद्देश्य हेतु सीरिया देश के समुद्र तट के नगरों में बसाया ताकि वे रोमन लोगों का सामना करते रहें2

हजरत अली ने, जो कि इस्लाम में एक वीर योद्धा समझे जाते हैं, जमल वाले युद्ध के समय, बसरा के अपने खजाने के रक्षा के लिए जाटवीरों को ही नियुक्त किया था (तारीखे तबरी)3

वलीद बिन अब्दुलमालिक ने भी अरब देश को शत्रुओं से बचाने के लिए जाट वीरों को सीमा पर अन्ताकिया में आबाद किया (बिलाजुरी-असावरी का वर्णन)।

सुलेमान नदवी लिखता है कि “ये बहादुर जाट लोग हवा का रुख देखकर कुछ शर्तों के साथ मुसलमानों की सेनाओं में मिल जाते थे। मुसलमान सेनापति इनकी बड़ी प्रतिष्ठा करते थे4।”

जौहला जाटों का देश जुबलिस्तान कहलाता था जो कि हिन्दुकुश पर्वत के दक्षिण में था, जिसमें काबुल, गज़नी एवं उनके साथ वाले क्षेत्र सम्मिलित थे। इन जाटों ने पेशावर के निकट अपने गोत्र के नाम पर जौहला किला बनवाया था जो कि दिल्ली के लाल किले के समान है। यह किला आज भी इसी नाम से विद्यमान है। जौहला जाट खैबर घाटी पर भारत देश के रक्षक थे, जिन्होंने काबुल की ओर से आने वाले अरब आक्रमणकारियों को कई शताब्दियों तक रोके रखा।

इस तरह किकन (किलात-बलोचिस्तान में) प्रदेश पर जाटों का प्रजातन्त्र राज्य था (Elliot, i, 383)। ये लोग बोलान घाटी पर रक्षक रहे (R.C. Mazumdar History and Culture of Indian people, Vol. iii, p. 174)। 682 ईस्वी में किलात के शासक इन जाटों ने खलीफा-ए-मेहदी (786-809 ईस्वी) की सेना से बोलान घाटी पर कड़ा मुकाबला किया था (वही, vol iv, p. 127)5

खलीफा अल मुतासिम बिल्लाह के शासनकाल (सन् 833-81 ई०) में अरब सेनापति अमरान-बिन-मूसा ने इन जाटों का यह किलात प्रदेश जीत लिया (Elliot, i, 448)।


1. जाट इतिहास पृ० 191, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 40 लेखक ले० रामसरूप जून; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 66 लेखक बी० एस० दहिया।
2, 3. जाट इतिहास पृ० 191, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 40 लेखक ले० रामसरूप जून; जाटों का नवीन इतिहास पृ० 42-43 लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा।
4. जाट इतिहास पृ० 191, लेखक ठा० देशराज।
5. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 49, लेखक बी० एस० दहिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-440


इसी खलीफा के शासनकाल में उसने उन जाटों के विरुद्ध सेना भेजी थी जिन्होंने हजारा वाले मार्ग पर लक्कड़ गाड़कर कब्जा किया हुआ था और मरुभूमि की ओर सब दिशाओं में चौकियां स्थापित करके सब मार्गों पर भय उत्पन्न कर रखा था। अपनी सेना की तरतीब बदलने एवं उनको सचेत करने के लिए ये लोग तुरही (बिगुल) बजाकर संकेत देते थे। 25 दिन के भयंकर युद्ध के बाद इनको खलीफा की सेना ने जीत लिया तथा 27,000 को कैदी बनाया गया1। (Elliot, i, 247)

हिरात नदी के क्षेत्र पर (अफगानिस्तान में) जाटों का शासन था। उमर बिन मूसा ने इन पर धावा करके इनके देश पर अधिकार कर लिया और 3000 जाटों को कैदी बना लिया2। (कर्नल टॉड)। सुलेमान नदवी लिखता है कि “उमर बिन मूसा के जाट सेनापति ने इस आक्रमण में भाग लेने से इन्कार कर दिया था3।”

खलीफा वलीद प्रथम (Walid I) के आदेश से, आठवीं शताब्दी के शुरु में बड़ी संख्या में जाटों को उनकी भैंसों समेत, सिन्ध नदी के निचले क्षेत्र में दजला नदी (इराक़ में) के दलदली क्षेत्र में ले जाकर आबाद किया गया था। जब वे वहां दृढता से आबाद हो गये तब उन्होंने लूट तथा मारकाट शुरु कर दी। उन्होंने बसरा-बगदाद सड़क बन्द कर दी जिससे राजधानी बगदाद में खाद्य पदार्थों का मूल्य बहुत बढ़ गया। इस तरह से उत्तराधिकारी खलीफाओं को उनको विजय करने के लिये सेना भेजने के लिए विवश कर दिया।

जाटों से भयभीत हुए बगदाद के शासक आगे जाकर उनसे लोहा लेने का साहस छोड़ गये। मार्रूम सम्राट् के सेनापति इन कष्ट देनेवाले जाटों से टक्कर लेने में नाकामयाब थे। पहली बार मोतासिम (Motasim) ने अपना एक भरोसेवाला ओजीफ (Ojayf) नामक अरब जनरल इन विरुद्ध लोगों को जीतने के लिये भेजा। अन्त में सन् 834 ई० में ओजीफ उनके सन्देश साधनों को असफल करने में कामयाब हो गया, जिससे जाटों ने लाचार होकर आत्मसमर्पण कर दिया। वे अपने राष्ट्रीय वस्त्र पहने हुए तथा सुरीले बाजे बजाते हुए प्रदर्शनी के लिए नाव में बैठाकर बग़दाद में लाये गये। वहां से उन जाटों को देशनिकाला देकर तुर्की की सीमा खानीकिन तथा सीरिया की सीमा पर भेज दिया गया। वहां से वे अपनी भैंसों के साथ आगे बढ़ गये। इन लाभदायक पशुओं के साथ वे निकट पूर्व एवं यूरोप में प्रवेश कर गये। (History of Persia, Vol. II)।

हिस्ट्री ऑफ पर्शिया का प्रमाण है कि मध्यएशिया में 14वीं शताब्दी में जाटों का साम्राज्य था। इतिहासज्ञों के अनुसार सन् 1289 में जाट राजा अरघुन सुपुत्र अबाग ने खुरासान क्षेत्र के ईसाइयों को एक प्रस्ताव दिया था कि अमू दरिया घाटी में मुसलमानों की नई बढ़ती हुई शक्ति के विरुद्ध एक संयुक्त आक्रमण किया जाए। उस राजा अरघुन का उत्तराधिकारी घजन खान सन् 1295 ई० में राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने को मुसलमान बनने की घोषणा कर दी। यह पहला राजा था जो मुसलमान बना। इसके पश्चात् मध्यएशिया में मुसलमान बनने का सिलसिला शुरु हो गया4


1. हिस्ट्री आफ दी जाट्स पृ० 15-16, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; कामिल उत-तवारीख (ई० तथा डा० भाग 2, पृ० 247).
2. जाट इतिहास पृ० 27, लेखक ले० रामसरूप जून
3. जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 39, लेखक ले० रामसरूप जून।
4. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 67-68, लेखक बी० एस० दहिया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-441


इराक़ के बादशाह अमीर महोया ने भारतवर्ष से 20,000 जाटों को लाकर इराक़ में बसाया था। टॉड के अनुसार ये लोग अपने साथ भारत से भिण्डी व तोरी वहां पर ले गये थे जो कि वहां के नागरिक आज भी इनको इसी नाम से बोलते हैं1

भंगु जाटों का राज्य ईरान में रहा है। इन लोगों का स्वराज्य शिष्ट मनुष्यों द्वारा न्याय व धर्मनीति से चलाया जाता था। (Mc Crindle, op. cit, P. 121)। जब अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया तब काका सुपुत्र कोतल तथा पौत्र भन्दरगू भंगु, सीविस्तान (सीस्तान ईरान के पूर्व में) पर शासन कर रहा था। (Elliot and Dowson, vol. I)2

आदि अरब भूगोलविद्या एवं इतिहासकारों के अनुसार जाटों का निवास व अधिकार मंसूरा और किरमान के बीचवाले प्रदेश तथा फारस (ईरान) की सीमा तक के प्रदेशों पर था। (Elliot's History of India i, 14, 449, ii 247)।

जाट ही पहले हिन्दू लोग थे जिनसे अरब लोगों का सम्पर्क हुआ। अरब लोग सब हिन्दुओं को जाट नाम से जानते थे3

जाट इतिहास पृ० 190, पर लेखक ठा० देशराज ने भी यही लिखा है कि “अरब वाले जाटों के विषय में जानते थे कि जाट भारतीय हैं। यही नहीं, किन्तु जाटों से सम्बन्ध होने के कारण वे सारे हिन्दुओं को जाट नाम से पुकारते थे।” (‘भारत में देशी राज्य’ और ‘मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण’ पुस्तक देखो)।

मुसलमानों के प्रबल आक्रमण से पहले, जब दूर तक फैले हुए हिन्दू उपनिवेशों से वे लोग सिन्ध नदी के पूर्व में लौटकर आने शुरु हो गये तब उन सबसे पीछे लौटकर आने वाले जाट लोग थे। जाटों के समूह को अपने देश में इस तरह लौट आने को कुछ अज्ञानियों ने जाटों को भारतवर्ष में आने वाले असभ्य आक्रमणकारी कहा।

जाट सदा सैनिक सेवा पसंद करते थे क्योंकि वे वीर एवं साहसी थे। इसके लिए वे सिन्ध नदी के पार जाकर फारस और मौर्य सम्राटों की सेना में वेतन पर सैनिक हो गये4

अरब देश में भारत से जाट जहाज और नौकाओं द्वारा भी जाते रहते थे। बौद्ध जातकों में इन जहाजों की बनावट, प्रकार तथा चाल का भी वर्णन है। अभिधान जातक में जाटों के सम्बन्ध में वर्णन है कि सिंध की देवल बन्दरगाह पर अरब और ईरान की खाड़ी के जहाज उतरा करते थे। बाना और हिरात नदियों के समीप के जाट अपने धर्म की रक्षा के लिए ईरान खाड़ी से जहाजों द्वारा ही अपने देश भारत में आये थे। सिन्ध देश से कपास, मिर्च, ऊन आदि वस्तुएं जाट लोग अरब तथा उसके परवर्ती देशों में पहुंचाया करते थे।

इस्लाम धर्म के अब्बासी खानदान का मध्यपूर्व में शासन सन् 749 ई० से 1256 ई० तक रहा। इस अब्बासी वंश का खलीफा हारून उल रशीद सब से प्रसिद्ध था जिसकी राजधानी बगदाद


1. जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 40, लेखक ले० रामसरूप जून
2. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज पृ० 279, लेखक बी० एस० दहिया
3, 4. हिस्ट्री आफ दी जाट्स पृ० 12-13, लेखक कालिकारंजन कानूनगो


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-442


थी। उसका बेटा मामूरशीद सन् 796 ई० से 828 ई० तक बग़दाद का शासक रहा। उसके शासन काल में मध्यपूर्व से जाटों के शासन तथा शक्ति का अन्त हो गया।

इसका एक उदाहरण गजनी राजधानी पर से लल्ल गठवाला मलिक जाट वंश के शासन को समाप्त कर देने का है। यहां पर इस जाटवंश का शासन दूसरी सदी के आरम्भ से नवमी सदी के प्रारम्भ काल तक लगभग 700 वर्ष रहा था (देखो तृतीय अध्याय, लल्ल गठवाला मलिक प्रकरण)।

इस वंश के अधिकतर जाट गजनी पर मुसलमानों का अधिकार होने से अपने पैतृक देश भारतवर्ष लौट आये परन्तु वहां रहने वालों ने मुसलमान धर्म अपना लिया।

इसी तरह इस्लामी शासनकाल में मध्यपूर्व तथा मध्यएशिया में जाट मुसलमान धर्म के अनुयायी भी बन गए और बहुत संख्या में समय-समय पर अपने देश भारतवर्ष में भी लौट आये।

विदेशों में जाटों ने मुसलमान धर्म को समय अनुसार कई तरह से स्वीकार किया। किन्तु सब से बड़ा कारण पैगम्बर मुहम्मद साहब के सम्पर्क में रहना तथा उनके सिद्धान्तों का प्रभाव है।

इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद साहब ने लोगों से मूर्तिपूजा छोड़ देने को कहा और उनको आदेश दिया कि “केवल एक ही ईश्वर (अल्लाह) पूजा के योग्य है1।”

जाट तो आदि सृष्टि से ही एक ईश्वर की ही पूजा करने के सिद्धान्त को मानते आये हैं। यही कारण है कि इस्लाम के “केवल एक ही ईश्वर की पूजा करने के सिद्धान्त” को जाटों ने समूह रूप से समय-समय पर स्वीकारा।

बृहत्तर भारत का क्षेत्र - दक्षिण पूर्वी एशिया

यह तो प्रथम अध्याय में लिख दिया गया है कि आर्यावर्त के आदिनिवासी आर्यों ने यहां से जाकर संसार के सब देशों को बसाया तथा वहां राज्य स्थापित किए। इन देशों में दक्षिण पूर्वी एशिया के देश भी सम्मिलित हैं।

‘मध्यएशिया तथा चीन में भारतीय संस्कृति’ पृ० 16-18 पर लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के विषय में लिखा है कि “मौर्य (मौर जाट) सम्राट् अशोक द्वारा बौद्ध-धर्म को सिंहल (श्रीलंका), बर्मा, थाईलैण्ड, लाओस, वियतनाम, कम्बोडिया (कंपूचिया), चीन, मलाया, सियाम, इण्डोनेसिया और जापान में फैलाया।” (यह चतुर्थ अध्याय में लिख दिया गया है कि सारे एशिया में बौद्ध-धर्म के फैलाने में सबसे बड़ा योगदान जाटों का रहा है)।

मौर्योत्तर युग में ये देश भारतीय बस्तियों से परिपूर्ण हो गये थे। गुप्त (धारण गोत्र के जाट) साम्राज्य के समय में इसका चरम विकास हो गया था। इन सब देशों में भारतीयों ने अपने विविध उपनिवेशों की स्थापना की थी। इनके राजा भारतीय थे, और इनकी भाषा, संस्कृति तथा धर्म भी भारतीय थे। बंगवंशज जाटों ने बंगदेश से जाकर सुमात्रा द्वीप के दक्षिण-पूर्वी सिरे पर नये बंगदेश की स्थापना की, जो अब बंका कहलाता है।

यवद्वीप (जावा) में बसकर भारतीयों ने वहां के सब से बड़ी नदी को सरयू नाम दिया और


1. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास पृ० 3, लेखक ईश्वरीप्रसाद।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-443


अधिक पूर्व में जाकर नई चम्पा नगरी की स्थापना की। अंगवंश (जाट वंश) के जनपद की राजधानी का नाम चम्पा था। उसी के नाम पर वहां से गये भारतीयों ने इस नये उपनिवेश का नाम चम्पा रखा। धीरे-धीरे चम्पा की शक्ति बहुत बढ़ गई । बहुत से समीपवर्ती प्रदेशों को जीतकर चम्पा ने एक साम्राज्य का विकास किया, जिसके विविध प्रान्तों के नाम कौठार, पाण्डुरंग, अमरावती, विजय आदि थे। चम्पा के साम्राज्य की राजधानी इन्द्रपुर थी। चम्पा के पश्चिम में एक अन्य उपनिवेश था, जिसमें वर्तमान समय के कम्बोडिया और सियाम प्रदेश सम्मिलित थे। यह एक शक्तिशाली भारतीय उपनिवेश था, जिसे चीनी लोग फूनान कहते थे। पूर्वी एशिया के इन सब प्रदेशों में हिन्दू मन्दिरों, विहार और स्तूपों के अवशेष बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि भारतीय भाषाओं के शिलालेख भी इन प्रदेशों में बड़ी मात्रा में उपलब्ध हुए हैं।

धर्मप्रचार के लिए इन देशों में जाने का सूत्रपात बौद्धप्रचारकों द्वारा किया गया था, पर उनका अनुकरण कर बहुत से शैव तथा वैष्णव प्रचारक भी इन देशों में गये, और वहां के निवासियों को उन्होंने अपने धर्म में दीक्षित किया। यही कारण है जो शैव और वैष्णव मन्दिर भी इन देशों में अच्छी बड़ी संख्या में निर्मित हुए, जिनके अवशेष इस समय भी विद्यमान हैं। भारतीय संस्कृति का प्रभाव इन देशों से अब तक भी नष्ट नहीं हुआ है। सियाम, बर्मा, कम्बोडिया आदि अनेक देशों के निवासी इस समय भी बौद्धधर्म के अनुयायी हैं, और भारत को अपनी धर्मभूमि मानते हैं। मलायीसिया और इण्डनोसिया के लोग अब धर्म से मुसलमान हैं, पर उनकी भाषा, प्रथा, संस्कृति आदि पर भारत की छाप विद्यमान है। वस्तुतः दक्षिण-पूर्वी एशिया के इन विविध देशों का विकास भारत के उपनिवेशों के रूप में ही हुआ था, और एक सहस्र वर्ष से भी अधिक समय तक ये उसी ढंग से बृहत्तर भारत के अंग रहे, जैसे कि गांधार, कपिश और कम्बोज थे।

वियतनाम और चीन के पूर्व में प्रशान्त महासागर के फिलिप्पीन और सेलेबीज द्वीपों में भी ऐसी मूर्तियां मिली हैं जो इन सुदूरवर्ती प्रदेशों तक में भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रचार के प्रमाण उपस्थित करती हैं। इनके कारण भारत के सांस्कृतिक साम्राज्य का क्षेत्र और भी अधिक विस्तृत हो जाता है।

ऊपर लिखित इस प्रमाण से यह प्रमाणित हो गया है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के इन देशों व द्वीपों में जाटों ने अपने उपनिवेशों की स्थापना की, राज्य स्थापित किए और भारतीय धर्म एवं संस्कृति फैलाई। आज भी वहां अनेक देशों में जाटवंशज लोग आबाद हैं जो कि भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी हैं।

जाटवीरों की वीरता पर चौ० ईश्वरसिंह गहलोत का एक श्रेष्ठ भजन

टेक - दुनिया पुकारी, हैं बेशक जाट देवता।

ईसा से पहले हुए चार सौ अस्सी वर्ष,
यूनान में जाट लड़े कहते हैरोडोटस।1
मेरी जानकारी.....हैं बेशक जाट देवता॥1॥

1. हैरोडोटस - यह यूनान का एक प्रसिद्ध इतिहासकार था जिसका जन्म 484 ई० पू० में हुआ था। इसको इतिहास का पिता कहा गया है। इसने जाटों के सम्बन्ध में काफी लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-444


स्ट्रेबो2 कहे रूम में सन् 250 में बसते जाट,
कैस्पियन3 के यौद्धेय जाट रखते बड़ा भारी ठाठ।
बड़े योद्धा भारी.....हैं बेशक जाट देवता॥2॥
थियोडोसियस शाह रूम जाटों से लड, गया हार,
जाट राजा अत्तीला4 को निज लड़की का डोला त्यार।
कहे कर रिश्तेदारी.....हैं बेशक जाट देवता॥3॥
इटली में राज करें थियोडेरिक5 तीस साल,
कब्जा में जाटों के रहे स्पेन और पुर्तगाल।
जर्मनी हमारी.....हैं बेशक जाट देवता॥4॥
अपने हैं जटलैण्ड7, स्काटलैण्ड, स्कन्धनाभ6
यूनान, मिश्र, सीरिया, तुर्की में अपना रौबदाब।
पेशा फौजदारी.....हैं बेशक जाट देवता॥5॥
रशिया पर्शिया अपने, अपना अफ़गानिस्तान,
क्रुक कनिंघम, ग्राउस कहते हैं चीन तिब्बत, तुर्किस्तान।
जाटों की सरदारी.....हैं बेशक जाट देवता॥6॥
जाटाली8 इलाका गजनी बस्ती ईरान में,
बुशहर9 के धोरे दीखें जाटनी पहरान में।
चुंदड़ी लंहगा साड़ी.....हैं बेशक जाट देवता॥7॥

2. स्ट्रैबो - यह भी यूनानी इतिहासकार था। रूम के आक्रमणों के बाद से इसका परिचय जाटों से हुआ था। इसने जाटों का काफी वर्णन किया है।
3. कैस्पियन - यह एक सागर है जो ईरान के उत्तर में तथा काकेशस पर्वत के पूर्व में है।
4. अत्तीला - यह एक बड़ा शक्तिशाली जाट सम्राट् था। इसने रोमन सम्राट् थियोडोसिस को युद्ध में हराया। थियोडोसिस ने सन्धि करके अपनी पोती हांनारिया का डोला सम्राट् अत्तीला को दिया। इसने लगभग 50 वर्ष राज्य किया। इस साहसी वीर योद्धा की सन् 453 ई० में मृत्यु हो गई। (पूरी जानकारी के लिए देखो चतुर्थ अध्याय, विजेता जाट अत्तीला प्रकरण)
5. थियोडेरिक - इस जाट सम्राट् ने इटली पर सन् 493 ई० से 526 ई० तक शासन किया। जाट सम्राट् इयूरिक ने सन् 466 ई० से 484 ई० तक स्पेन व पुर्तगाल पर शासन किया। फिर उसका पुत्र अलारिक द्वितीय जाटों का आठवां राजा था जो कि 24 दिसम्बर 484 ई० में अपने पिता का उत्तराधिकारी बना था।
जर्मनी - विजेता जाट अत्तीला का साम्राज्य कैस्पियन सागर से लेकर राइन नदी (पश्चिमी जर्मनी में) तक फैला हुआ था। तात्पर्य है कि जाटों का निवास व शासन जर्मनी में भी रहा है। ये जाट लोग ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व जर्मनी में पहुंचे। यूरोप के अन्य देशों इटली, गॉल, स्पेन, पुर्तगाल, इंगलैंड और यूनान आदि पर जो जाटों ने आक्रमण किये उनका वर्णन यूरोपीय इतिहास में यही मिलता है कि उनमें अधिकांश जाट लोग जर्मनी और स्कन्धनाभ (स्केण्डेनेविया) के निवासी थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, यूरोप तथा अफ्रीका प्रकरण)
6. स्कन्धनाभ (स्केण्डेनेविया) - नॉरवे, स्वीडन, डेनमार्क।
7. जटलैंड - डेनमार्क का प्रान्त।
8. जाटालि - यह ईरान में एक प्रान्त है जिसको 2000 ई० पू० में जाटों ने बसाया था तथा वहां पर अपना शासन स्थापित किया। जाटों के नाम पर इस प्रान्त का नाम जाटाली पड़ा।
9. ईरान में बुशहर तथा कुर्दिस्तान और रूस के प्रान्त यूक्रेन में जाटों की बड़ी आबादी है। वहां पर उन लोगों की आकृति, रंग-रूप, चाल ढाल तथा पहनावा अब भी बिल्कुल हरयाणा के जाटों के समान है। वहां की स्त्रियां अब भी चुन्दड़ी, लंहगा, साड़ी तथा जेवर का प्रयोग करती हैं। (देखो चतुर्थ अध्याय, वर्तमान काल में विदेशों में जाटों का निवास प्रकरण)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-445


ईरान के खण्डहर खोदे, मिलते निशान हैं,
सिक्के पर सीता जी, रामचन्द्र, हनुमान हैं10
भाषा हरफ नगारी.....हैं बेशक जाट देवता॥8॥
अरब में पचास हजार बसते जत नाम हैं,
औरतें फ्रीश फंसा अपने हुश्न दाम में।
करती खातरदारी.....हैं बेशक जाट देवता॥9॥
अली के खज़ाने की रक्षा जाट लोग करते,
पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब जाटों का दम भरते।
बिगड़ी संवारी11.....हैं बेशक जाट देवता॥10॥
रण के लड़ाके बांके वैद्यराज जाट थे,
श्रीमती आयशा का दुःख रोग काटते।
खो दी बीमारी12.....हैं बेशक जाट देवता॥11॥
ईसा से हजारों वर्ष पहले लिखते डाक्टर सेस,
धनवान् बलवान् विद्वान् जाट थे विशेष।
जल बवान असवारी13.....हैं बेशक जाट देवता॥12॥
एशिया, मलाया, चीन, यूरोप के शासक लिखते टॉड राजस्थान,
खेती करके पेट पालें आज उनकी संतान।
करते जमींदारी.....हैं बेशक जाट देवता॥13॥
खेती करके पेट पालें अपना और जहान का,
अमीर, गरीब, जीव गुण गाते किसान का।
कहते हैं सब भिखारी.....हैं बेशक जाट देवता॥14॥

10. प्रथम महायुद्ध (सन् 1914-1918) में गये रिसलदार रिसालसिंह, रिसाला नं० 15, ग्राम बहुअकबरपुर अपने साथ ईरान से इसी प्रकार के दो सिक्के लाये थे।
11, 12. पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब जब मक्का छोड़कर मदीना गये तब जाटों ने उनकी रक्षा की थी। इसके अतिरिक्त उनकी रक्षा के लिए जाट उनके साथ रहते थे। एक बार मुहम्मद साहब की दूसरी पत्नी श्रीमती आयशा बीमार हो गई। जब किसी भी डाक्टर से उसका इलाज न हो सका तब एक जाट डाक्टर ने आकर उसका इलाज किया था। (देखो चतुर्थ अध्याय, इस्लाम शासनकाल में मध्यपूर्व जाटों की शक्ति प्रकरण)
13. जाटों की विद्या, समुद्री जहाज एवं हवाई जहाज के विषय में थोड़ा संकेत -
(i) आदि सृष्टि से आर्यों एवं जाटों ने इन जहाजों द्वारा भारतवर्ष से जाकर दूसरे देशों को बसाया तथा राज्य स्थापित किए। (पूरी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय में विद्या का इतिहास, वैदिककाल, महाभारतकाल प्रकरण)।
(ii) चतुर्थ अध्याय, जाटसेना का मिश्र पर जलपोतों द्वारा आक्रमण, जाटों ने 2000 ई० पू० स्केण्डेनेविया में निवास करके राज्य स्थापित किए। अपने नाम से जटलैंड तथा गाटलैंड देश बसाये और वहां शासन किया। ये लोग यहां जहाजों से पहुंचे और यहां से जहाजों द्वारा जाकर ग्रीनलैंड, अमेरिका, सिसिली, इटली, यूनान, बाल्टिक सागर, कैस्पियन सागर तक पहुंचे तथा राज्य स्थापित किए और अपने नाम पर फ्रांस के उत्तर में नॉरमण्डी बसाई तथा वहाँ राज्य किया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-446


कितनी फसल पकी, रॉली* पूछे देकर तार,
भारत से कब अन्न आवे, भूखे कहें कर इन्तजार।
अंग्रेज व्यापारी.....हैं बेशक जाट देवता॥15॥
राजा प्रजा खैर मानें इसलिए जाट देवता,
देते हैं लगान अन्न खाने इसलिए जाट देवता।
कहें नौकर सरकारी.....हैं बेशक जाट देवता॥16॥
छः और 10, चौदह, 29 जंग में ललकारते,
हर हिटलर आर्य सब जर्मन पुकारते
सबसे बलकारी.....हैं बेशक जाट देवता॥17॥
विश्वनाथ मन्दिर14 पर जो चांदी का हुआ काम है,
लाख रुपए लाकर किया रणजीतसिंह ने नाम है।
कहे काशी ललकारी.....हैं बेशक जाट देवता॥18॥
युधिष्ठिर का हीरा15 उलटा अफगानिस्तान से ले रणजीत,
कीमत दुनिया सारी एक वक्त भोजन कर नचीत।
माया के भंडारी.....हैं बेशक जाट देवता॥19॥
आकोदा का कूंआं देखो देवताओं का काम है,
बनाने वाले का नाम चौधरी हर्षराम16 है।
कहती पंहारी.....हैं बेशक जाट देवता॥20॥
दस हाथ का भीतर, चार हाथ चौड़े पत्थर ढोल,
सोला ढोल17 ऊपर नीचे पानी तक रखे अनतोल।
जाट होशियारी.....हैं बेशक जाट देवता॥21॥

नोट - * = उस समय इंगलैंड में ‘रॉली’ सबसे धनवान व्यापारी था।
14. काशी में विश्वनाथ महादेव जी के मन्दिर के ऊपर चांदी का काम हो रहा है। वहां के पंडे बतलाते हैं कि इसे लाहौर के महाराजा रणजीतसिंह जी (शशि गोत्र का जाट) ने एक लाख रुपया खर्च करके बनवाया था। (जाट इतिहास परिशिष्ट (2), पृ० 737-738, लेखक ठा० देशराज)
15. कहा जाता है कि सबसे पहले यह कोहनूर हीरा गोदावरी के किनारे कर्ण को मिला था। फिर यह महाराज युधिष्ठिर के पास रहा। क्योंकि उस पर यु.....र घिसे हुए अक्षर पाए गए थे। उनके वंशजों के हाथ से भारत के कई नरेशों के पास रहकर यह अफगानों के हाथ पहुंच गया और अफगानों से महाराज रणजीतसिंह जी (शशि जाट) ने प्राप्त किया। उनके पुत्र दिलीपसिंह से अंग्रेजों ने ले लिया। कोहनूर की कीमत इतनी कूती जाती है कि उससे एक समय सारा संसार भोजन कर सकता है। (जाट इतिहास परिशिष्ट (2) पृ० 743, ले० ठा० देशराज)
16,17. संवत् 1000 (सन् 943 ई०) के आरम्भ में हर्षराम जी फगोड़चा गोत्र के जाटभूमिपति ने जिला जोधपुर में आकोदा गांव बसाया और वहां पर यह कुंआ बनवाया। 84 गांव का यह प्रान्त जो चौरासी कहलाता है, इन्हीं के शासन में था। इस आकोदा गांव के उत्तर की तरफ हर्षराम जी ने 525 बीघे बीड़ के नाम से गोचर भूमि छोड़ी थी जिसमें दो तालाब हैं। यह बीड़ अभी तक मौजूद है जो फगोड़चा का बीड़ कहलाता है। आकोदा के कूऐं की बनावट - चार-चार हाथ लम्बाई में, दस-दस हाथ भीतर पोल की गोलाई में ढोलों की नाल का रद्दा एक हाथ चौड़ा है। आकार में समझ लीजिए पोले बांस की नाल या चाम से बिना मंढ़ा हुआ पोला ढोल दोनों तरफ खुला हुआ मुंह का, इस तरह से पत्थर के 16 ढोल बनाकर पानी के पैंदे से लेकर ऊपर तक कच्चे कुंए के बीच बैठा दिए हैं। जैसे चूड़ी पर चूड़ी रखने से चूड़ा बन जाता है, वैसे ही ऊपर-ऊपर 16 ढोलों को रखने से 64 हाथ लम्बी कुंए की नाल बन गई है। इन ढोलों का रंग लाल है। ये पत्थर अकोदा से बारह कोस दूर खाटू पहाड़ से लाये गये थे। अचम्भे की बात यह है कि यदि खाटू से पत्थर लाकर आकोदा में ढोल बनाये गये हों तो एक-एक पत्थर का एक-एक हजार मन भार होगा। इतने भारी पत्थर कैसे लाए गए और यदि खाटू में ही पत्थरों को भीतर खुदवाकर बने बनाए ढोल मंगवाये हों तो भी एक-एक ढोल में चार सौ मन से कम वजन न होगा। ये भी कैसे लाए गए और इतने भारी धोल कुंए में ऊपर से नीचे कैसे जचाए गए।
चौ० हर्षरामवंशज चौ० गंगाराम जी ने बताया कि “हमारे यहां लगभग 100 वर्ष पहले की लिखी हुई पोथी मौजूद है जिसमें लिखा है कि चौधरी हर्षराम ने इस कुंए को बनवाया था और इसका पूरा-पूरा विवरण कुंए के भीतर के ढोल में शिलालेख है, उसको देख लें।” भाट की पुस्तक को सब पंचों ने सही मान कर महापुरुष हर्षराम जी के पुरुषार्थ को याद करके सभी लोग आश्चर्य में पड़ गये। (जाट इतिहास, परिशिष्ट (2), पृ० 740, लेखक ठा० देशराज)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-447



भगत पूरण, धन्ना, तेजा, हरिदास, निश्चलदास,
सुलतान, बखतावर भरें धर्म-बहनों के भात खास।
फैली जग उजियारी.....हैं बेशक जाट देवता॥22॥
यशोधर्मा, कनिष्क, सूरजमल, जवाहर, महीपाल,
गोकला, शाहबेग, तारु, नलवा से शहीद लाल।
जिन्दगानी वारी.....हैं बेशक जाट देवता॥23॥
राजाबाई करे सफाई डाकुओं की, हरनामकौर,
चांदकौर, किशोरी सी जाटनी शहजोर।
दुश्मन की करें खवारी.....हैं बेशक जाट देवता॥24॥
जाट जननी बिछाराम जिनमें भाई बलदेव,
नाम रखें कौम का हैं देवता पर करें सेव।
स्कूल फुलवारी.....हैं बेशक जाट देवता॥25॥
सबसे बड़े मोटे राजा, सबसे छोटे हैं वजीर,
जाट हैं वजीर होते हुए, कहते कर तकरीर।
खुशामद ना प्यारी18.....हैं बेशक जाट देवता॥26॥
जो खाते इनका अन्न दाना उनके जाट देवता,
जिनका जग में नहीं ठिकाना, उनके जाट देवता।
कहती विधवा नारी.....हैं बेशक जाट देवता॥27॥
सच्चे आर्यों का नाम दूसरा बस जाट है,
तीन सौ बको पर सच्ची ईश्वरसिंह की डाट है।
सच्चे व्रतधारी.....हैं बेशक जाट देवता॥28॥

महाभारत युद्ध के बाद विदेशों में जाटराज्य का यह चतुर्थ अध्याय यहां पर सम्पूर्ण हुआ। इसके आगे महाभारत युद्ध के बाद भारतवर्ष में जाट राज्यों का वर्णन किया जायेगा।


18. विरोधी कहते थे कि छोटूराम अंग्रेजों से डरता है। परन्तु 2 फरवरी सन् 1938 ई० को जमींदार पार्टी के जलसे में चौधरी छोटूराम ने कहा था कि “मैं न कभी अंग्रेजों का खुशामदी था और न कभी हूंगा। शेर पिजरे में भी शेर ही रहता है, गीदड़ नहीं बन सकता।”
नोट - कविसम्राट् चौ० ईश्वरसिंह जी गहलोत गांव व डा० ककरोला (प्रदेश देहली) का बनाया हुआ यह भजन है जो उन्होंने सन् 1935 ई० में गाया था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-448



चतुर्थ अध्याय समाप्त




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