Jat History Thakur Deshraj/Chapter III

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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तृतीय अध्याय : भारत की अन्य क्षत्रिय जातियां और जाट

भारत की क्षत्रिय जातियों के पारस्परिक सम्बन्ध

इस समय भारत में जाटों के सिवाय जो अन्य प्रसिद्ध क्षत्रिय जातियां हैं उनमें राजपूत, गूजर, अहीर और मराठा उल्लेखनीय हैं। अब हमें इस अध्याय में यह विचार करना है कि इन सब का पारस्परिक सम्बन्ध क्या है? ये सभी अपने लिए क्षत्रिय कहते हैं और सभी अपने आदि पुरुष के रूप में राम-कृष्ण को बतलाते हैं। इनके अनेक गोत्र और प्रवर भी एक ही हैं। अनेक बातों में एक होते हुए फिर भी अनेक क्यों हैं? उनमें से समझदार लोग यह भी मानते हैं कि हम सब एक हैं। फिर भी उनमें विवाह-सम्बन्ध तथा खान-पान की विभिन्नता क्यों है? इन्ही प्रश्नों का उत्तर अनेक इतिहासकारों ने अपनी मति के अनुसार देने की चेष्टा की है । हम भी इस विषय पर यथाशक्ति सन्तोषजनक प्रकाश डालना चाहते हैं ।

जाट, मराठा, गूजर

पंजाब कास्ट्स में सर इबट्सन लिखते हैं - गूजर पंजाब की सबसे बड़ी आठ जातियों में से एक है। ऊंची जातियों में केवल जाट, राजपूत, पठान, आर्य एवं ब्राह्मण तथा नीचियों में चमार और चूहड़े उनसे संख्या में अधिक हैं। यह डील-डौल और शारीरिक बनावट में जाटों से मिलते-जुलते हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों में जाटों के समान हैं, किन्तु जाटों से कुछ उन्नीस हैं। दोनों जातियां बिना किसी परहेज के परस्पर खान-पान करती हैं। (पृ. 184)

"The Gujars are among he eight largest castes in the Punjab, only the Jats, Rajpus, Pathans, Aryans and Brahmans among the higher and Chamars and Chuhras among the lower exceeding them. They are fine stalwart fellows of precisely the same type as the Jats. He is of the same social standing as the Jat, perhaps slightly inferior and the two eat and drink in common without any scruple."

हिस्ट्री ऑफ हिन्दू मीडिवल इण्डिया भाग 1 में चिन्तामणि विनायक वैद्य ने लिखा है -


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"गूजर भी सूरत शक्ल में आर्य हैं चाहे उनके चेहरे काले हैं। मराठा भी सूरत शक्ल में आर्य हैं चाहे उनकी नाकें आर्यों की अपेक्षा कुछ कम हैं क्योंकि उनका द्रविडियन जाति में मिश्रण हो गया है। दुर्भाग्य से इन तीन जातियों को देशी-विदेशी विद्वान् इतिहासकारों द्वारा हानि उठानी पड़ी है। पौराणिक समय के भारतीय शास्त्रियों ने, जो कि पशु-पालन और पुर्नविवाह की रस्म के विरूद्ध थे जिसका कि चलन तीनों जातियों में है, उनकी शूद्रों में गणना की है । और यूरोपियन अन्वेषकों ने उन्हें सीथियन जाति से बतलाया है, क्योंकि उन पर इस अजीब धारणा का प्रभाव पड़ा है कि पिछले समय में इन जातियों ने जो कार्य किए थे, वे ऐसे थे कि उनको भारत में पहले के बसने वाले लोग नहीं कर कसते थे और उनको कुषाण या हूण लोगों की तरह नये आने वाले लोग ही, जो कि सीथियन कहलाते थे, कर सकते थे। लेकिन यह निर्विवाद सिद्ध है कि जाट पूर्ण रूप से और गूजर, मराठा थोड़े अंश में निश्चय आर्य वंश हैं। भारतीय शास्त्रीयों को उन्हें शूद्र गिनना और यूरोपियन अन्वेषकों का उन्हें सीथियन गिनना ऐतिहासिक दृष्टि से तथा मानव-तत्व अनुसंन्धान की दृष्टि से गलत है। यह स्वीकार करना पड़ेगा चाहे ये नाम इस समय में प्रसिद्ध हुए और प्रयोग में आए। अतः यह दलील नहीं हो सकती कि वे इस समय में या इससे पहले भारत में आने वाली नई जातियां थी। कई कारणों से नये नाम पैदा हो जाते हैं। (पृ. 73-74)


इनके सिवाय जाट, गूजर और मराठों में और भी अनेक समानताएं हैं। इनके कई गोत्र आपस में मिलते हैं। पवार, सोलंकी, तंवर या तवार आदि गोत्र जाट, गूजर, मराठा तीनों जातियों में मिलते हैं।

जाट और मराठे - सुर्वे और राणा मराठों के भी गोत हैं और ये गोत जाटों के भी हैं। जिस तरह से मराठों का एक बड़ा समूह अपनी उत्पत्ति कश्यप से मानता है, उसी तरह जाटों में भी एक ऐसा दल है, जो कि अपने को कश्यप का वंशज कहता है। मराठों में गणपति की पूजा का जिस भांति प्रचार है, जाट शिवजी को उससे अधिक श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। सामाजिक रहन-सहन और खान-पान में मराठे उतने ही स्वतन्त्र हैं, जितने की जाट। शारीरिक गठन और लम्बाई-चौड़ाई में मराठे जाटों से कुछ हलके अवश्य हैं, किन्तु रणकुशलता में मराठों और जाटों में कोई अन्तर नहीं। जाट और मराठे दोनों की मानसिक प्रवृत्तियां, स्वभाव, साहसिकता बिल्कुल समान हैं। उनके युद्ध के तरीकों में इतिहास अधिक भेद नहीं बतलाता । शत्रु के सामने न झुकने तथा लोभ और प्राण-रक्षा के लिए आन को न खोने की उनकी आदत ने काफी प्रसिद्धि दी है। दोनों ही जातियों का अराजकतावाद और एकतन्त्रवाद से सम्बन्ध रहा है और यह भी सही है कि अराजकतावादियों और गणतन्त्रवादियों के अधिकांश समूह इन दोनों जातियों में सन्निहित हैं। नाग लोगों की कई शाखाएं जाट और मराठों में शामिल हैं। अन्तर इतना है कि मराठे दक्षिण-पश्चिम में रहते हैं और जाट उत्तर-पश्चिम में।


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यदि यह सौभाग्य प्राप्त हुआ होता कि इन दोनों जातियों की बस्तियां एक ही जगह होतीं, तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाट और मराठों के एक जाति बन जाने का सूत्रपात अब तक हो जाता। मुस्लिम-काल के राजनैतिक संघर्ष में जाट और मराठे देश के हित के लिए जितने अधिक शीघ्र एक दूसरे के मित्र हो गए थे, उससे यह सिद्ध होता है कि राष्ट्र तथा समय की पुकार का उन्हें शीघ्र ही अनुभव हो जाता है और अनुभवशील जातियां शीघ्र ही संगठित हो जाती हैं और जबकि वह एक ही वंश और स्टाक के हों तो कोई कठिनाई नहीं रहती ।


जाट और गूजर - जाट और गूजरों में सिर्फ पारस्परिक शादियों का रिवाज नहीं है, बाकी खान-पान, रहन-सहन, हुक्का-पानी सबमें एक हैं। जाट यदि कृषि-विद्या में निपुण हैं तो वे पशु-पालन में। भाषा, भेष, धार्मिक और सामाजिस विश्वास कोई भी ऐसी चीज नहीं जिनसे जाट और गूजर दो जातियां मानी जाएं। उनकी जातीय उपाधियां (खिताब) चौधरी, पटेल, मुकद्दम, फौजदार और ठाकुर आदि एक ही होते हैं।

जाट, अहीर

अहीर भारत की प्राचीन क्षत्रिय जाति है और अराजकता के लिए काफी प्रसिद्ध रही है। जाटों का इससे रक्त सम्बन्धी तथा सामाजिक सम्बन्ध मराठों और गूजरों जैसा निकटतम है। श्रीकृष्ण को जाट और गूजर दोनों ही पूर्व-पुरूष मानते हैं। यद्यपि इस समय अहीरों में परस्पर भी कुछ ऐसी दुर्भावनाएं उत्पन्न हो गई हैं कि वे स्वयं एक शाख वाले, दूसरी शाख वालों को, अपने से हीन समझते हैं। लेकिन जाटों का सभी अहीरों के साथ चाहे वे अपने लिए यादव, गोप, नंद, आभीर कहें, एक सा व्यवहार है। जैसे खान-पान में जाट और गूजरों में कोई भेद नहीं, वैसे ही अहीर और जाटों में भी कोई भेद नहीं। इतिहासों में इनके रहने का भी स्थान निकट-निकट बतलाया गया है। भारत से बाहर भी जहां कहीं जाटों का अस्तित्व पाया जाता है, वहीं अहीरों की बस्तियां भी मिलती हैं। चीन में जहां जाट को यूची नाम से याद किया गया है, वहां अहीरों को शू नाम से पुकारा गया है। ईरान में जाटाली प्रदेश के निकट ही अहीरों की बस्तियां भी पाई जाती हैं। हमारा अपना तो यह ख्याल है कि भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय जातियों में अहीर सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाट, राजपूत, गूजर और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, अहीरों का अभ्युदय हो चुका था था। पौराणिक लोगों ने अहीरों को गिराने के लिए काफी जहर उगला है। ऐसा मालूम होता है हैहय, ताल, जंघ अथवा कार्तवीर्य अर्जुन जैसे स्वतंत्र विचार के और ब्राह्मणों के दासत्व का विरोध करने वाले क्षत्रिय राजे, इसी जाति में पैदा हुए थे, जो कि अब अहीर कहलाती है। दूसरी बात यह है कि मध्यकाल में जिसे रामायण और बौद्ध-काल के बीच का समय कहना चाहिए अहीर लोग या तो अराजकतावादी थे या गणतंत्रवादी।


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बृज में इनकी एक शाख गोपों का कृष्ण-काल में जो राष्ट्र था वह प्रजातंत्र प्रणाली द्वारा शासित गोपराष्ट्र के नाम से जाना जाता था। नंद, जिसके कि यहां श्रीकृष्ण का पालन-पोषण हुआ था या तो अहीर थे या जाट। अरबी यात्री अलबरूनी ने नन्द को जाट ही लिखा है। कुछ भी बात हो, लेकिन इससे यह सिद्ध होता है कि जाट और अहीरों के पुरखे किसी एक ही भंडार के हैं। इम्पीरियल गजिटियर के कथनानुसार कुछ अहीर आगे चल करके राजपूत हो गए। शायद दक्षिण भारत में ऐसा हुआ हो। पूर्व की ओर के कुछ अहीर ऐसे पेशे करने लग गए हैं, जिनके कारण वहां के उच्च हिन्दू उन्हें नीची निगाह से देखते हैं । पेशे के कारण जातियां गिराने के रिवाज ने भारत की अनेक योद्धा जातियों को पतित बना दिया। किन्तु प्राचीन गौरव अहीरों का क्षत्रियोचित था और वे क्षत्रिय ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। अहर नाम की जाति भी अहीरों की ही शाखा है। जाटों का उनके साथ भी समानता का व्यवहार है। उत्तर-भारत में अहीर और जाटों की सम्मिलित बस्तियां हैं और उनमें रस्म-रिवाज में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। गूजरों के समान ही अहीर और जाटों की कुछ एक उपाधियां भी एक ही हैं।

जाट, राजपूत

राजपूत जिनके कि कुछ समय पहले भारतवर्ष में जाटों से भी अधिक रजवाड़े थे, अपने को जाट-गूजरों की भांति राम और कृष्ण के वंशज होने का दावा पेश करते हैं। उनके राजपूत शब्द की उत्पत्ति के उपर देशी-विदेशी इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग उन्हें शक और हूणों के उत्तराधिकारी बताते हैं और कुछ जाट, गूजर, भर और ब्राह्मणों में से राजशक्ति प्राप्त करने वाले समूह को ही राजपूत कहते हैं। ऐसे ही विचार वालों का एक हवाला इम्पीरियल गजेटियर से यहां हिन्दी रूपान्तर में उद्धृत करते हैं -

Then between the seventh and tenth, centuries A. D. the old racial divisions passed away and a new division came in founded upon status and function. But of the older divisions too remained at least in theory the Brahmans and Kshatriyas. The Aryan Kshatriyas had long ceased to be a warrior, he was often a distinguished meta physician; and according to a popular legend the whole race was exterminated for disputing with the Brahmans. But the theory still held good that to rule was the business of a Kshatriya and Kshatriya kings were common down to the seventh century A. D. although many of them were probably Sudra-Kshatriyas or like the Turkey kings of Ohind ; not Hindus at all. The place of those Kshatriyas was


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taken in the middle ages by the clans of Rajputs or sons of kings whom the people called Thakurs or Lords. The rise of Rajputs determined the whole political history of the time. Every tribe which exercised sovereign power or local rule for a considerable period joined itself to them. They recognized no little deeds except their swords, and were constantly seeking for new settlements. They are found every where, from Indus to Bihar, but their original homes were two, Rajputana and the South of Oudh. They made their first appearance in the eighth-ninth centuries; most of the greatest clans took possession of their future seats between A.D. 800 and 850. From Rajputana they entered the Punjab and made their way to Kashmir in the tenth century. About the same time they spread North and East from southern Oudh and during the twelfth and thirteenth centuries they made themselves masters of the central Himaliyas Their origin is a subject of much dispute. None of the Rajput clans are indigenous to the Doab. Now the kingdom of Kanauj was the most potent of all kingdom of Hindustan, and the Doab was the centre of all Aryan population and culture throughout the middle ages. The Rajputs can not therefore be pure Aryans and if we examine the actual origins of the most ancient clans we shall find that they are very mixed. In the Punjab we have reigning Brahman families which became Rajputs. In Oudh Brahmans, Bhars, and Ahirs have all contributed to the Rajput clans, but the majority appear to have been Aryanised Sudras, Of the clans of Rajputana some-like the Chauhans, Solankis and Gahlots-have a foreign origin, others are allied to the Indo-Scythic Jats and Gujars : others again represent ancient ruling families with more or less probability. But whatsoever might be their origin; all these clans acquired a certain homogeneity by constant intermarriage and adoption of common customs. They all refused to perform the manual work of an agriculturists. It is this code of hononr, these, common customs, which made them homo- geneous and unique. (Imperial Gazetteer of India. Volume II Historical, pp.307 to 308).

अर्थात सातवीं और दशवीं शताब्दी के बीच में प्राचीन वर्ण-भेद जाता रहा और स्थिति तथा कार्य के अनुसार एक नवीन वर्ण प्रचलित हो गया। प्राचीन वर्णो में से केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दो वर्ण नाममात्र को रह गए।


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आर्य क्षत्रियों ने बहुत दिनों से लड़ाई का काम छोड़ दिया था। उनमें बड़े-बड़े तात्विक संघर्ष होने लगे थे। कहते हैं उनकी सम्पूर्ण जाति ब्राह्मणों से विवाद करने के कारण निकाल दी गई। चाहे जो हुआ हो परन्तु यह बात अब तक चली आती थी कि राज्य करना क्षत्रिय का काम है। सातवीं सदी तक क्षत्रिय राजा रहे। हां, यह जरूर है कि उन में बहुत से शूद्र क्षत्रिय थे। बल्कि ओहिन्द के तुर्की बादशाहों के समान बहुत से हिन्दू भी नहीं थे। बीच के जमाने में इनका स्थान राजपूतों ने ले लिया, जिनको लोग ठाकुर कहते हैं। राजपूतों ने अपनी बढ़ती के समय के सम्पूर्ण राजनैतिक इतिहास पर अधिकार कर लिया है। प्रत्येक जाति जिसने कुछ दिनों भी राज्य किया उनमें मिल गई। वे हक (स्वत्व) और दस्तावेज वगैरह को बिल्कुल न देखते थे, किन्तु तलवार के जोर से जमीन तो लेते थे और सदा नई जगहों की खोज में रहा करते थे। यद्यपि वे सिन्धु से लेकर बिहार तक पाये जाते हैं परन्तु उनके असली स्थान - राजपूताना, दक्षिणी अवध ही थे। उन्होंने आठवीं-नवीं शताब्दी में पहले पहल अपने को प्रकट किया। अनेक बड़ी जातियों ने उनकी भावी जगहों को 800 और 850 के बीच में लिया। राजपूताने से वे पंजाब गए और फिर दसवीं शताब्दी में काश्मीर चले गए। इसी समय वे दक्षिण अवध से उत्तर-पूर्व में फैल गए और बारहवी-तेरहवीं शताब्दी में मध्य हिमालय को उन्होंने अपने अधिकार में कर लिया।

राजपूतों की उत्पत्ति

उनकी उत्पत्ति के विषय में बड़ा मतभेद है। राजपूत जाति द्वाबे (दुआबे) की नहीं है। उस समय कन्नौज का राज्य हिन्दुस्तान के सब राज्यों में बढ़ा-चढ़ा था। और द्वाबे का देश बीच के समय में आर्य-जाति और आर्य सभ्यता का केन्द्र रहा था। इस कारण राजपूत लोग कदापि शुद्ध आर्य नहीं हो सकते। जब हम अत्यन्त प्राचीन जातियों की असली उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो मालूम होता है कि वे मिश्रित हैं। पंजाब में ऐसी राज्यधिकारी ब्राह्मण जातियां हैं जो राजपूत हो गईं। अवध में ब्राह्मण, भर और अहीरों में से राजपूत बन गये। परन्तु अधिकतर राजपूत शूद्रता से आर्यत्व को प्राप्त हुए। राजपूताने की जातियों में से चौहान, सोलंकी, गहलौत आदि कुछ की उत्पत्ति विदेशीय है। कुछ इन्डो सीथियन-जाट और गूजरों में से हैं। कुछ सभ्य प्राचीन राजवंशों में से हैं। अस्तु, चाहे जो उनकी उत्पत्ति हो, ये सब जातियां आपस में शादी व्यवहार करने तथा अन्य रीति-रिवाजों के कारण मिलकर कुछ-कुछ एक सी हो गई हैं। यद्यपि ये सब अपने को एक ही कुल और वंश से बतलाते थे, परन्तु जातीय प्रेम और स्वामी की आज्ञा-पालन में बड़े प्रसिद्ध थे। ये ऊंची जातियों में अपनी लड़कियां दिया करते थे। और नीची जाति से लड़कियां लिया करते थे। शील-रक्षा के विषय में उनके समान भाव थे! और जौहर एवं सती के भी समान रिवाज थे।


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कोई भी काम खेती और मजूरी का नहीं करता था। इन्हीं समान रिवाजों के कारण वे सब एक हो गए। पश्चात् उनके बन्दीगणों ने उनके विषय में अनेक कथायें बनाकर उनको भी राम और कृष्ण की संतान और उनके कुल की मनमानी प्रशंसा कर डाली।

इम्पीरियल गजेटियर की दी हुई सम्मति से हम पूर्णतया सहमत नहीं हैं। राजपूतों में अनेक विशुद्ध आर्य राजवंशी भी हैं और न वे सब विदेशी हैं। उनमें से बहुत से ऐसे राजवंश हैं जिनका सीधा सम्बन्ध यादव क्षत्रियों से तथा सूर्यवंशियों से है जैसे - करोली के यादव और संयुक्त प्रदेश के रघुवंशीअग्निवंशी राजपूतों के सम्बन्ध में यह हो सकता है जैसा कि भाई परमानन्दजी ने ‘तारीख पंजाब’ में लिखा है कि - ‘वह भारत की पिछड़ी हुई और जंगली जातियों से क्षत्रिय श्रेणी में लाए गए।’ चिन्तामणि वैद्य के ‘हिन्दू भारत का उत्कर्ष’ में लिखा हुआ यह कथन भी सही माना जा सकता है कि - ‘परिहार और बड़गूजर गूजरों से राजपूत बनाए गये।’ राजपूतों के जाटू गोत्रों का निकास जाटों से हुआ है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं ।

मि.आर.जी. लेथम के ‘एथनोलोजी ऑफ इण्डिया’ पृष्ट के एक नोट से जाट-राजपूत के सम्बन्ध में इस तरह प्रकाश पड़ता है -

"The Jat in blood is neither more nor less than a converted Rajput and vice versa, a Rajput may be a Jat of the ancient faith."

अर्थात् - रक्त में जाट परिवर्तन किए हुए राजपूत से न तो अधिक ही है और न कम ही है। इसमें अदल-बदल भी है। एक राजपूत प्राचीन धर्म का पालन करने वाला एक जाट हो सकता है।

वास्तव में बात तो यही है, किन्तु छठी-सातवीं सदी के पश्चात् जाटों की प्रजातन्त्री शक्ति नष्ट होती गई और राजपूतों की साम्राज्यशक्ति बढ़ती गई। यद्यपि इस बात को वे स्वयं जानते हैं कि जाटों के और हमारे बीच में रक्त-सम्बन्धी कोई अन्तर नहीं है, किन्तु फिर भी वे अपने को जाटों से उच्च मानकर उनके साथ में राज्य-शक्ति के बल पर कटुतापूर्ण व्यवहार करने लगे। संयुक्त प्रदेश और पंजाब में जाट और राजपूतों के अन्दर राजपूताने जैसा भेद नहीं है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रीतियों से दोनों जातियों में वैवाहिक-सम्बन्ध भी होते रहे हैं। कर्नल टाड के कथनानुसार राजा शालेन्द्रजित ने किसी यादव राजपूत की लड़की से शादी की थी लेकिन उसकी सन्तान दोगली कहलाई। इससे ऐसा मालूम पड़ता है कि शालेन्द्र के जाति भाई जाटों ने राजपूतों के साथ विवाह-सम्बध करने में अपनी हेटी समझी थी। पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह की अनेक रानियों में से दो राजपूत बालायें थीं। हमें इस बात पर अधिक प्रकाश डालने की कोई अधिक आवश्यकता


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नहीं जान पड़ती कि कितने जाट कुमार-कुमारियों के सम्बन्ध राजपूतों से हुए।

जाटों में ऐसे अनेक गोत्र हैं जो राजपूत-गोत्रों से बिल्कुल मिलते हैं जैसे बड़गूजर, भट्टी, दाहिमा, दहिया, दीक्षित, गेहरवार, गहलोत, इन्दोलिया, कछवाह, मोरी, पवार, परिहार, रैकवार, राठौर, राठी, रावत, सिकरवार, सोलंकी, तोमर आदि आदि।

इन गोत्रों से दोनों जातियों के पीछे की कई पीढ़ियों में जाकर एकत्व सिद्ध होता है। एक ही नाम के राजवंश दो अथवा अधिक दलों में (जाट, राजपूत, गूजर) कब और क्योंकर विभक्त हो गए इस प्रश्न का सही उत्तर यह है कि कुछ राजनैतिक मतभेदों के कारण (साम्राज्यवादी और ज्ञातिवादी अर्थात् प्रजातन्त्री होने) कुछ धार्मिक-विरोध के कारण (जैन, हिन्दू, बौद्ध आदि के संघर्ष) तब विभिन्न हो गए और तब बौद्ध-काल के बाद पौराणिक धर्म के उत्कर्ष का समय आ गया था।

इनके विभिन्न होने का समय एक तो महाभारत के बाद का है जो कि साम्राज्यवादी और गणतंत्रियों की भिड़न्त का जमाना कहा जाता है। दूसरा बौद्ध-काल के पश्चात् का है, जबकि पौराणिक धर्म का उदय हुआ था। राजनैतिक और धार्मिक मतभेद ने एक-एक राजवंश और कुल को विभिन्न दलों या जातियों में बांट दिया। इस प्रश्न का हल वंशावली रखने वाले भाटों व व्यासों ने एक विचित्र और बेढंगे तरीके से किया है। उनका कहना है कि जो-जो राजपूत सरदार किसी जाटनी से शादी करते गये, जाट हो गये। एक तो यह उत्तर अथवा धारणा यों ही गलत है कि उनके यहां एक भी जाट गोत ऐसा न मिलेगा जिसके लिये उन्होंने यह न लिखा हो कि वह अमुक राजपूत के जाटनी से शादी कर लेने के कारण जाट हो गये। जब सभी जाट इस प्रकार राजपूत के जाटनी से सम्बन्ध कर लेने के कारण हुए हैं तो आखिर वे जाटनी कहां से आईं जिनसे कि वे सम्बन्ध कर लेते थे। दूसरे, हमें हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में ऐसे प्रमाण तो मिलते हैं कि स्त्री चाहे किसी भी गोत व जाति की हो, पति के गोत व कुल में आने पर उसके ही कुल की हो जाती है, और उसकी संतान बाप के वंश के नाम से पुकारी जाती है । किन्तु यह कहीं भी लिखा हुआ नहीं मिलता कि पुरूष शादी की हुई स्त्री के कुल का हो जाये और उसकी संतान स्त्री के कुल की कही जाए। ‘मनु’ तो कहता है कि - ‘स्त्री’ किसी भी कुल की हो और रत्न कहीं भी प्राप्त हो ग्रहण कर लेना चाहिए। व्यासों या भाटों का कथन सही माना जाये तो सिद्ध होता है कि राजपूत वास्तव में हिन्दू नियमों को मानने वाले न थे, और शायद ऐसे ही कारणों से यूरोपियन इतिहासकारों ने उन्हें विदेशी मान लिया हो। किन्तु बात ऐसी नहीं है। या तो व्यास लोग राजनीति और धार्मिक मतभेद की बात को छिपाना चाहते थे, जिससे उन्होंने ऐसी बातें गढ़ी हैं या वे जाटों के साथ धार्मिक द्वेष रखने के कारण उन्हें दूसरों की निगाह में वर्णसंकर सिद्ध करने के लिए ऐसी बातें फैलाते थे। धार्मिक विद्वेष में


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इससे भी झूठी और घृणित बातें पहले से ही फैलाई जाती रही हैं। विष्णु-पुराण में बुद्ध को राक्षसों (बौद्धमतावलंबियों) के बहकाने के लिए और उन्हें माया जाल में फंसाने के लिए प्रकट हुआ अवतार कहा है। जैन ग्रन्थकारों ने तो धार्मिक द्वेष में इतनी नीचता की (जैन हरिवंश पुराण में लिखा है) कि भगवान श्रीकृष्ण को नाभि नाम नर्क में पहुंचा दिया। खेद तो हमें इस बात का है कि कुछ मुसलमान और अन्य इतिहास लेखक भी व्यासों के इस कथन पर विश्वास करने को तैयार हो गए। यह हम मानते हैं कि करोली के महाराज और भरतपुर के नरेश दोनों ही यादववंशी हैं तथा जैसलमेर और पटियाला के नरेश भट्टी कुल की शाखायें हैं। किन्तु यह मानना बिल्कुल बुद्धि-विरूद्ध होगा कि पटियाला के महाराज दोगला हैं। धार्मिक मतभेद तथा सामाजिक रस्म-रिवाजों की भिन्नता ने उन्हें दो दलों में बांट दिया, एक राजपूत कहलाते हैं, दूसरे जाट। कुछ लोगों का कहना है कि पुनर्विवाह को मानने के कारण एक समुदाय के कुछ लोग जाट और पुनर्विवाह को बुरा समझने के कारण दूसरे राजपूत हो गए। यह सही है कि पौराणिक धर्म ने पुनर्विवाह निषेध किया है और इस समय पर्दे की प्रथा का भी चलन हो रहा था। जिन लोगों ने पुनर्विवाह की बन्दी के प्रस्ताव को मान लिया और पर्दे का प्रचलन कर दिया राजपूत कहलाने लग गये हैं और जो लोग पुनर्विवाह को अपने पुरखाओं की मर्यादा मानकर उसे न छोड़ सके, वे जाट हो गए। ये बातें पूर्णांश में नहीं, तो कुछ अंश तक सही हो सकती हैं। किन्तु सारे जाट इसी भांति जाट हुए और सारे राजपूत इसी भांति राजपूत हुए हों ऐसी बात नहीं है। ऐसी घटनाएं 8वीं सदी के इधर की हो सकती हैं। उधर के भेदों का कारण तो बौद्ध-हिन्दू-धर्म के संघर्ष तथा उससे पहले राजनैतिक मतभेद हैं। केवल क, ख, ग, का ज्ञान रखने वाले व्यास या जागा, जो कि अपने प्रभु-राजपूतों को जाटों से श्रेष्ठ बताना चाहते थे, इसके सिवाय कह ही क्या सकते थे कि वे (जाट) राजपूतों से निकले हैं। किन्तु अपने होने वाले अपमान का राजपूतों ने भी कभी ख्याल नहीं किया कि उनमें विशेषता क्या रही जब जाटनी से सम्बन्ध रखने के कारण जाट हो गये?

राजपूत कुलों की उत्पत्ति का विचित्र ढंग से विवरण

हम तो इतिहास में देखते हैं कि चित्तौड़ का सिसौदिया वंश मंडोर के परिहारों का खानदान भी मिश्रण से हुआ था जैसा कि इन उद्धरणों से प्रकट होता है।

राणा कुम्भा के बने एक लिंग महात्म्य में लिखा है -

"आनन्दपुर विनिर्गत विप्रकुलांदनो महीदेव जयति श्री गुहदत्त: प्रभवः श्रीगुहलवंशस्य" ।

अर्थात् आनंदपुर से आदि हुए ब्राह्मण वंश को गुहदत्त गुहल वंश का संस्थापक हुआ। वाप्पा रावल के सम्बन्ध में विक्रमी सं. 1331 (1274 ई.) के चित्तौड़गढ़ के एक लेख में लिखा है -


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जीयादानंद पूर्वं तदेह पुरमिलाखंड सौन्दर्य शोभिः ।

क्षोणिपृष्ठस्थमेव त्रदसपुरमध्यकुर्व्वदुच्चैः समृद्धयाः ॥

यस्मादागत्य विप्रस्य तुरदघिमहिवेदि निक्षिप्त यूपो ॥

वप्पाख्यो वीतारागस्य रणयुगमुपासीत् दारीतराशेः ॥

अर्थात् वाप्पा नामक ब्राह्मण ने दारीत की सेवा की। (यह याद रहे इस वाप्पा की शादी सोलंकी वंश की राजकुमारी से हुई थी)।

प्रायः अनेक राजपूत कुलों की उत्पत्ति का विवरण विचित्र ढंग से लिखा हुआ मिलता है।

राठौरों के सम्बंध में राठौर महाकाव्य नामक ग्रन्थ में लिखा है -

पुरा कदाचित्ततये समेतान्देवाननुज्ञाय गृहाय सद्यः।

कात्यायनीमर्द्धमृगांक मौलिः कैलाशशैले रमयाम्बभूव ॥12॥

अन्योन्य भूषायण बन्घरम्यं तत्रान्तरे द्यूतमदीव्यतां तौ ॥14॥

कात्यायनी पाणि सरोजकोश विलोलिताक्ष क्षयिताद येन्दोः।

गर्भान्वितैकादश वार्षिकोऽभूद भूतपूर्वः प्रथम कुमारः ॥20॥

तस्मै वरं साम्बशिवो दयालुः श्रीकान्यकुब्जैश्वरतामरासीत् ॥23॥

अत्रान्तरे कांचल लातनाख्या समेत्य देवीगिरिजाहराभ्याम्।

विलीनभूमिपति कान्यकुब्जराज्याधिपत्याय शिशुम् ययाचे ॥24॥

नारायणो नाम तु यः सुतार्थी यत्रेश्वरं ध्यायति सूर्यवंशः

सा रूद्रदत्तेन सामुनिसहामुनासिन्न वातृश्यांचन मैं खलेन ॥28॥

अलक्ष्यदेहा तमवोचदेषा राजन्नसवस्तु तवैकसूनुः।

अनेन राष्ट्रं च कुलतवोढ़ं राष्ट्रौढ़नामा तदिह प्रतीतिः ॥29॥

अर्थात् एक समय कैलाश पर्वत पर महादेव और पार्वतीजी चौसर खेल रहे थे। पार्वती के हाथ से पासा उछलकर महादेवजी के मस्तक के चन्द्रमा पर जा लगा। उसी दिन चन्द्रमा में से एकादशवर्षीय बालक उत्पन्न हुआ और शिव-पार्वती की स्तुति करने लगा। उन्होंने प्रसन्न होकर उसे कान्यकुब्ज का राजा होने का वर दिया। उसी दिन वहां पर लीला नाम की देवी आई और उसने उस कुमार को कन्नौज की राजगद्दी पर बिठाने के लिये महादेव से मांग लिया। इसके बाद उसे ले जाकर पुत्र के लिये तपस्या करते हुए सूर्यवंशी नारायण नाम के राजा को दे दिया। सूर्यवंशी राजा नारायण के राज्य के वंश के भार को सम्हालने के कारण ही उसका नाम राष्ट्रोढ रखा। राठोरों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कैसी बढ़िया


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फिलासफी है ! इसने तो महादेव की जटाओं से जाटों के पैदा होने वाली फिलासफी को भी मात कर दिया।

क्रमशः:

चौहान, सोलंकी, पवार, परिहार आदि राजवंशों की उत्पत्ति का वर्णन भी कुछ ऐसे ही ढंग का है। सोलंकियों को कहीं अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ और कहीं ब्रह्माजी की चुल्लू से उत्पन्न हुआ लिखा है। परिहारों को जहां एक ओर -

विप्रः श्री हरिश्चन्द्राख्यः पत्नी भद्रा च क्षत्रिया ।
ताभ्यान्तु (ये सुता) जाता (प्रतिहा) रांश्च तान् विदुः ॥5॥1

ब्राह्मण हरिश्चन्द्र और रानी भद्रा (क्षत्रिया) की सन्तान लिखा है, वहां दूसरी और उन्हें आबू के हवनकुण्ड से पैदा हुआ बताया गया है। चौहानों को कहीं चन्द्रवंशी और कहीं राजवंशी और कहीं अग्निवंशियों में गिना गया है।2 पवारों को वनसाहसांकचरित् में वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से और पिंगलसूत्रवृति में ब्राह्मक्षत्र से पैदा हुआ बतलाया गया है।

उत्पति सम्बन्धी ये विवरण ऐसे ही बेढ़ंगे और निराधार हैं जैसे कि भाट अथवा व्यास लोगों ने अनेक जाट गोत्रों के सम्बन्ध में बना रखे हैं। भाटों की यह गढ़न्त इसलिए भी गलत साबित हो जाती है कि जाट शब्द राजपूत शब्द से कई शताब्दियों पहले का है क्योंकि राजपूत शब्द को कोई भी इतिहासकार छठी शताब्दी से पहले का नहीं बतलाता। लेकिन जाट शब्द जो कि पाणिनि के धातुपाठ व चन्द्र के व्याकरण में क्रमशः ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व और ईसा से 400 वर्ष पीछे का लिखा हुआ मिलता है इस बात का प्रमाण है कि वह राजपूत शब्द से प्राचीन है। ऐसी दशा में संभव यही हुआ करता है कि पुरानी चीज में से नई चीज बना करती है।

मिस्टर इबट्सन जाट और राजपूतों के सम्बन्ध में एक और दिलचस्प बात लिखते हैं -

But whether Jats and Rajputs were or were not originally distinct and whatever aboriginal elements may have been affiliated to their society, I think that the two now form a common stock, the distinction between Jat and Rajput being social rather than ethnic. I believe that those families of that common

1. प्रतिहार वंश का 940 का लेख
2. आबू पर्वत अचलेश्वर के मन्दिर के विक्रमी सं. 1370 का प्राप्त लेख। हम्मीर महाकाव्य। - पृथ्वीराज रासो।


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stock whom the tide of fortune has raised to political importance, have become Rajputs almost by mere virtue of their rise, and that their descendants have retained the title and its privileges on the condition, strictly enforced of observing the rules by which the higher are distinguished from the lower in the Hindu scale of precedence, of preserving their purity of blood by refusing to marry with the families of lower social rank of rigidly abstaining from degrading occupation. Those who transgressed these rules have fallen from their higher position and ceased to be Rajputs, while such families as attaining a dominant position in their history began to affect social exclusiveness and to observe the rules, have become not only Rajas, but Rajputs or sons of Rajas.


अर्थात् - किन्तु चाहे जाट और राजपूत पहले भिन्न थे या नहीं, और चाहे कुछ भी प्राचीन रस्म-रिवाज उनकी सोसाइटी में बर्ती जाने लगी हों, मेरे विचार से अब ये दोनों जातियां एक उभयनिष्ठ स्टाक बनाती हैं जिसमें जाट और राजपूतों की भिन्नता केवल रस्म-रिवाजों की है न कि जातीयता की। मैं विश्वास करता हूं कि इस मिश्रित स्टाक के वे खानदान जिनको भाग्य ने राजनैतिक उन्नति में अग्रसर कर दिया वे अपनी उन्नतावस्था के प्राप्त होने से ही राजपूत कहलाने लगे और यह कि उनके वंशजों ने इस उपाधि एवं उससे जुड़े विशेषाधिकारों को उन शर्तो को पक्के तौर से लागू करके बनाए रखा है - वरीयता निर्धारक हिन्दु मापदण्ड़ों में ऊंची जाति की छोटी जाति से भिन्नता दर्शाने वाले नियमों का पालन करना, सामाजिक स्तर पर अपने से छोटी जाति में विवाह से मना करके अपने रक्त की शुद्धता बनाए रखना, हीन पेशों से कट्टर परहेज रखना । जिन लोगों ने इन नियमों को नहीं माना वे गिर गए और राजपूत कहे जाने से वंचित रहे। ऐसे कुटुम्ब जिन्हें कि अपने इतिहास में ऊंचे दर्जे मिल गए, उन्होंने उन सारे नियमों का पालन शुरू कर दिया। वे राजा ही नहीं, राजपुत्र यानी राजा के बेटे बन गये।

मि. इबट्सन के इस कथन का सांराश यह है कि राजपूतों ने स्वयं अपने को उस स्टाक से अलग कर लिया, जिसमें कि वे राज्य-शक्ति प्राप्त होने के पहले शामिल थे और अपने स्टाक वालों से ऊंचा बनने के लिए पौराणिक धर्म की पुनर्विवाह न करने, खेती आदि के धन्धे को हीन समझने की बातों को स्वीकार कर लिया। हालांकि उन्हें इन सिद्धान्तों के ग्रहण कर लेने से कन्या-वध और सती-प्रथा तथा दास रख्ने की कुप्रथाओं को भी ग्रहण करने के लिए बाध्य कर दिया।

एक गलत धारणा राजपूतों तथा अन्य हिन्दुओं की ओर से हुई। वह यह हई कि राजपूत जो कि क्षत्रिय-जाति की शाखा थे, उनके सम्बन्ध में यह मान लिया


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गया कि केवल राजपूत ही क्षत्रिय हैं। राजपूत का अर्थ, क्षत्रिय का पर्यायवाची मान लिया गया अर्थात् शाख को ही वृक्ष मान लिया और वृक्ष को भूल गए। यह सही है कि रूपया मुद्रा है, किन्तु यह मान लेना मुद्रा के महत्व को कम कर देना है कि मुद्रा रूपये का ही नाम है। यही बात क्षत्रिय शब्द के लिए भी हुई और इस अर्थ के मान लेने से यह अनर्थ हुआ कि राजपूत तथा उनके ही जैसे विचार के अन्य लोग (राजपूत) जाट, गूजर, और अहीर तथा मराठों को क्षत्रिय से इतर समझने लगे।

मिस्टर इबट्सन राजपूत शब्द का अर्थ इस तरह से करते हैं -

"Though to my mind the term Rajput is an occupational rather than ethnological expression."
अर्थात् - मेरे मस्तिष्क में यह बात आती है कि राजपूत शब्द एक जातीयता का बोधक होने के बनिस्वत पेशे का बोधक है।

और यह सही भी जान पड़ता है कि कोई भी शासक समूह अथवा राजकुमार चाहे वह किसी जाति का हो अपने लिए राजपूत्र या राजपूत कह सकता है।

क्षत्रिय वर्तमान के लेखक अजीजसिंह प्रह्लादसिंह परिहार राजपूतों के सम्बन्ध में लिखते हैं - ": राजपूत यौद्धाओं के लगभग एक सहस्त्र राजवंश हैं। असली संस्कार संपन्न क्षत्रिय बहुत ही थोड़े हैं। चन्द्र, सूर्य, यदु और अग्नि कुल की वंश परम्परा चली आती है। परन्तु आचरणों में कई भेद हो गए हैं। प्राचीन काल में राजकुमार राजन्य, क्षत्र और क्षत्रिय शब्द इस जाति के लिए था जो बाद में क्षत्रिय, ठाकुर और राजपूत नामों में बदल गया है। (पृ. 271)

राजपूत राजवंशों की सूची - ग्यारहवीं शताब्दी में राजपूत राजवंशों की एक सूची तैयार हुई थी, उस समय जितने राजवंशों का नाम राजपूत श्रेणी में लिखा गया था, तब से अब तक अनेक लोगों को राजपूत करार दे दिया गया है। कपूरथला, पड़रोना और पटियाला इस कथन के प्रमाण हैं। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि राजपूत शासक समूह को अपनी श्रेणी में क्रमशः शामिल करते रहे हैं और उन्हीं के शेष भाइयों को उसी हालात में छोड़ते रहे हैं। मि. इबट्सन ने यह ठीक ही कहा है कि वह खानदान जिन्हें भाग्य ने राजनैतिक उन्नति में अग्रसर कर दिया वे अपनी उन्नतावस्था के प्राप्त होने से ही राजपूत कहलाने लगे। अनेक उन गोत्रों का जो कि राजपूतों में भी पाये जाते हैं जाट, गूजर, अहीर, कुर्मी, कलाल में भी निशान मिलता है यह कारण नहीं कि वे राजपूतों के जाट, गूजर, कुर्मी कलाल आदि जाति की स्त्रियों के साथ शादी करने के कारण हुए हैं। बल्कि उनमें से या तो राजनैतिक सत्ता अथवा ऊंचे बनने की धुन से अपनी जातियों की रिवाजों को छोड़कर राजपूत बन बैठे और धीरे-धीरे पहले के बने हुए राजपूतों में शामिल होते गए। राजपूतों में एक यह रिवाज है कि कुछ गोतों की लड़कियां ले तो लेते हैं, किन्तु उनको देते नहीं और अधिकांश राजपूतों की यह अभिलाषा रहती है कि अपनी लड़कियां


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अपने से उच्च वंश (गोत्र) वालों में पहुंचें। यह बात भी ऊपर के कथन को पुष्ट करती है कि अनेक जातियों से राजपूतों का संगठन हुआ। लेकिन ये संगठन इतने सख्त नियमों के साथ में हुआ कि समस्त राजपूत समुदायों ने अभी तक पारस्परिक समानता प्राप्त नहीं की। हां, इतना अवश्य हो गया कि आरम्भ का उपाधिवाची राजपूत शब्द अब जातिवाची हो गया है।

मि. पी .जे. फागन कहते है -

"The opinion of Indian best authorities seems to be gradually turning to the belief that the connection between the Jats and Rajputs is more intimate than was formerly supposed.
"भारत सम्बन्धी सबसे श्रेष्ठ विद्वानों का मत शनैः-शनैः इस विश्वास की ओर बढ़ रहा है कि जाट और राजपूतों का सम्बन्ध जैसा कि पहले अनुमान किया जाता था उससे अधिक घनिष्ठता का है।"

इसी सम्बन्ध में क्रुक की राय है कि -

"It would probably require a life time of careful study and comparison before we could reach any satisfactory decision in the question whether Jats and Rajputs are identical, similar or distinct races."
अर्थात् इस प्रश्न के सन्तोषजनक निर्णय पर पहुंचने से पहले कि जाट और राजपूत एक ही हैं, सम-समान हैं या पृथक्-पृथक् जातियां हैं, कदाचित् गहन अनुसंधान एवं तुलना करने में एक जीवन भर का समय लग जाए ।

उपर्युक्त विवचेन से स्पष्ट हो जाता है कि जाट, राजपूत, गूजर आदि में रक्त सम्बन्धी कोई भी अन्तर नहीं और न भाटों की यह बात विश्वसनीय है कि जाट व गूजर आचरण-भ्रष्ट राजपूतों की सन्तान हैं, जिन्होंने कुल-मर्यादा को छोड़कर चलती-फिरती गूजरनियों एवं जाटनियों से सम्बन्ध कर लिये थे। क्योंकि कोई भी जाट, गूजर इस बात में अपमान समझता है कि अपनी लड़की की शादी अपनी जाति से बाहर करने को उससे कहे, हालांकि वे दूसरी जाति की स्त्रियों को अपने घर में डाल लेने में कोई बुराई नहीं समझते ।

भारत की समस्त जातियों में और राजपूतों में भी अब विधवा-विवाह के प्रचलन, पर्दे के बहिष्कार, खान-पान की उदारता, अन्तर्जातीय विवाहों के आरंभ के लिये आन्दोलन हो रहा है। कुछ समय के बाद ये बातें क्रियात्मक रूप में भी आ जाएंगी। तब किन आधारों पर राजपूतों का यह अभिमान टिक सकेगा कि हम अन्य क्षत्रिय समुदायों से ऊंचे हैं जिनमें कि उपरोक्त सुधार पहले से प्रचलित हैं? मुगल, पठान और अंग्रेजों के समय में अपने बांके योद्धापन के कौशलों से जाटों ने यह साबित कर दिया है वह लड़ने-भिड़ने अथवा रणचातुरी में भारत की किसी


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भी सैनिक कौम से श्रेष्ठ हैं। पिछले 1300 वर्ष का इतिहास बतलाता है कि काबुल के पठानों अथवा दिल्ली के मुस्लिम शासकों ने भारतीय राजाओं पर चढ़ाइयां कीं तथा उन्हें कठिनाइयों में डाला। लेकिन हमें इतिहास यह बतलाता है कि भारत में एक ऐसी भी कौम है जिसने काबुल और दिल्ली पर आक्रमण करके वहां के शासकों को नाकों चने चबवा दिये और वह बहादुर जाति जाट है।

यद्यपि जाट-जाति स्वभावतः प्रजातंत्रवादी है और अपने इस स्वभाव को अधिकांश में निभाया है। फिर भी उसके भारत में राजपूतों को छोड़कर अन्य सभी क्षत्रियों से अधिक रजवाड़े थे। यदि कुछ सदियों पहले जाटों के अन्दर पटियाला, नाभा अथवा भरतपुर वाले सरदारों की भांति एकतंत्र शासन के भाव उदय हो जाते, तो इनमें तनिक भी सन्देह नहीं कि भारतवर्ष में सबसे अधिक भूमि उनके अधिकार में होती। अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए उन्होंने इतने बड़े भूभाग को जिसे सिक्ख साम्राज्य के नाम से पुकारा जाता है, अंग्रेजों के संघर्ष में खो दिया है, जिसके बराबर किसी भी एक जाति के राज्य मिलकर नहीं हो सकते। चौदहवीं सदी के अंत तक जाट-जाति के अनेक प्रजातंत्र पाए जाते थे। भटनेर, हिसार, बीकानेर, जोधपुर, टोंक राज्यों की भूमि पर के प्रजातंत्रों का वर्णन आगे के अध्यायों में लिखा गया है।

कोई भी क्षत्रियोचित गुण व विशेषताएं ऐसी नहीं जिनमें जाट राजपूतों अथवा भारत की अन्य किसी योद्धा जाति से कम रहे हों। पौराणिक धर्म के प्रभाव में न आकर यदि राजपूत जाटों के सहयोग को न खो देते, तो यह संभव नहीं था कि अकबर या औरंगजेब का सितारा इतना चमक जाता।

सामाजिक रिवाजों में कुछ ही अन्तर होने के कारण एक ही स्टाक की दो जातियां एक स्थान पर रहती हुई भी इतनी अलग हो गई कि उन्हें एक मान लेने के लिये प्रमाण देने की आवश्यकता पड़ती है और मि. पी. जे. फागन को यह लिख देना पड़ता है कि राजपूत और जाट एक हैं अथवा अनेक है, इस बात को निश्चित करने के लिये सारी उम्र खोज करने में बिता देनी पड़ेगी।


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तृतीय अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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