Moradabad

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Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Map of Moradabad district
Moradabad

Moradabad (Hindi: मुरादाबाद, Urdu: مراداباد) is a city in Uttar Pradesh. Its ancient name was Chaupala (चौपाला).[1] Author visited Moradabad on 25.9.1980 and provised tournote here.

Variants

Origin of name

It was established in 1600 by prince Murad, the son of the Mughal Emperor Shah Jahan; as a result the city came to be known as Moradabad.

Location

Muradabad is situated at a distance of 167 km (104 miles) from the national capital, New Delhi, on the banks of the Ramganga River (a tributary of the Ganges). Moradabad is located at 28°50′N 78°00′E / 28.83°N 78.°E / 28.83; 78. It has an average elevation of 486 metres.

History

Prithviraja III's kaka (uncle) Kanhadadeva was a great warrior. He was known as Kaka Kanha and present Alwar district's northern part, Sambhal and Moradabad were in his Jagir. He constructed a Shiva temple at Saraneshwara. Kanha'd damad (daughter's husband) was killed in war with Kutubuddin and his daughter named Bela became a sati. There is a temple of Bela in Sambhal where a fair is organized every year.[2]

The city is famous for its huge export of brass handicrafts to North America Europe and all over the world, and is also thus called "Brass City" or Peetal Nagri (in the local language). The city has the distinction of being the biggest exporter of handicrafts in the country. It has close to one million citizens of various ethnicities and religions.

Jat History: Estate of Poonias

Moradabad Estate of Poonia Jats

H.H. Maharaja Sawai Brijendra Singh - Maharaja of Bharatpur, Kunwar Brijendra Singhji Poonia - Moradabad at the wedding of Kunwar Anupendra Singhji Poonia in May 1972.

Estate:- Moradabad , Dynasty:- Poonia

State:- Bharatpur , Dynasty:- Sinsinwar

Picture credit:- Kr. Nirpendra Singhji of Moradabad.

Source - Jat Kshatriya Culture

चौपाला

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...चौपाला (AS, p.346): मुरादाबाद उत्तर प्रदेश का पुराना नाम. पुरानी बस्ती चार भागों में बंटी हुई थी जिसके कारण इसे चौपाला कहते थे. मुगल सूबेदार रुस्तम खां ने [p.347]: शाहजहां के पुत्र मुरादबख्श के नाम पर चौपाला का नाम बदल कर मुरादाबाद कर दिया था.

मुरादाबाद

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...मुरादाबाद (AS, p.752): उत्तर प्रदेश में स्थित है. इसका पुराना नाम चौपाला है. पुरानी बस्ती चार भागों में बंटी हुई थी जिसके कारण इसे चौपाला कहते थे-1. भादुरिया, 2. दीनदारपुर, 3. मानपुर, 4. डिहरी. मुगल सूबेदार रुस्तम खां ने मुगल बादशाह शाहजहां के पुत्र मुरादबख्श के नाम पर चौपाला का नाम बदल कर मुरादाबाद कर दिया था. यहाँ की जामा मस्जिद इसी समय (1631 ई.) में बनी थी.

मुरादाबाद परिचय

मुरादाबाद उत्तर प्रदेश राज्य के मुरादाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। मुरादाबाद पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। रामगंगा नदी के तट पर स्थित मुरादाबाद पीतल पर की गई हस्तशिल्प के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसका निर्यात केवल भारत में ही नहीं अपितु अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और मध्य पूर्व एशिया आदि देशों में भी किया जाता है। अमरोहा, गजरौला और तिगरी आदि यहाँ के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से हैं। रामगंगा और गंगा यहाँ की दो प्रमुख नदियाँ हैं।

जाट इतिहास

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि ‘इतिहास’ लिखने के समय (1934) कुंवर सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। वह एम. एल. सी. भी थे। जाट महासभा के कोषाघ्यक्ष भी थे। ‘यू. पी. के जाट’ नामक पुस्तक में इस रियासत का वर्णन इस प्रकार है - “अमरोहा के रहने वाले नैनसुख जाट थे। उनके लड़के नरपतसिंह ने मुरादाबाद के शहर में एक बाजार बसाया। यह भगवान् थे। इनके लड़के गुरुसहाय कलक्टरी के नाजिर थे। नवाब रामपुर की मातहती में यह मुरादाबाद के दक्खिनी हिस्से के नायब नाजिर थे। इनको सरकार से राजा का खिताब मिला और 18 गांव से कुछ ज्यादा जिला बुलन्दशहर में इनको सरकार ने प्रदान किये। सन् 1874 में यह मर गये। उनकी विधवा रानी किशोरी मालिक हुई। 60,000 रुपये मालगुजारी की रियासत का इन्तजाम इस बुद्धिमान स्त्री ने 1907 ई. तक बड़ी खूबी के साथ किया। इसी सन् में यह मर गई।

रानी किशोरी के मरने के बाद रियासत के दो भाग हो गये। बुलन्दशहर की जायदाद रानी साहिबा के नाती करनसिंह को मिली और बाकी कुवर ललितसिंह को। गुरुसहाय के भाई ठाकुर पूरनसिंह के यह पोते थे और समस्त रियासत के मालिक भी।

इस समय जैसा कि हम लिख चुके हैं, श्री सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। रियासत की टुकड़े-बन्दी रानी किशोरी के बाद किस तरह से हुई इसका कुछ मौखिक वर्णन हमें प्राप्त हुआ है। किन्तु कुछ ऐसी भी बातें हैं जो कि राज्य के प्राप्त करने के लिए सर्वत्र हुआ करती हैं। इसलिए उनके लिखने की आवश्कता नहीं समझी।


1. यू.पी. के जाट नामक पुस्तक से

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-581


महाराजा श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी भरतपुर-नरेश की ज्येष्ठ भगिनीजी का विवाह ठाकुर करनसिंह जी के पौत्र कुंवर सुरेन्द्रसिंह जी के साथ हुआ था।

मुरादाबाद - रामपुर - बरेली भ्रमण

मुरादाबाद - रामपुर - बरेली भ्रमण लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है।

25.9.1980: देहरादून (8 बजे) – निजामाबाद (13 बजे) - मुरादाबाद - रामपुर (16 बजे)- बरेली (18 बजे) दूरी 310 किमी

डीलक्स बसों द्वारा हम सुबह 8 बजे देहरादून से रवाना हुए। रास्ते में कोई ख़ास देखने की जगह नहीं थी। दोपहर 1 बजे निजामाबाद पहुंचे। यहाँ सबने लंच किया। पैक लंच हम देहरादून से ही साथ लाये थे। एक घंटा आराम कर आगे की यात्रा पर रवाना हो गए। रास्ते में गर्मी कुछ ज्यादा ही थी।

मुरादाबाद
मुरादाबाद

मुरादाबाद: रास्ते में मुरादाबाद आया था जहाँ अभी कुछ ही दिन पहले हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था। उस दंगे में काफी लोगों की जान भी गयी थी। अभी भी वहाँ पूर्ण रूप से शांति स्थापित नहीं हुई थी। हम रामपुर में चाय पी रहे थे कि एक गरीब हालत में व्यक्ति आया और कहा मेरे पास पैसे नहीं हैं आप मेरे खाने की व्यवस्था करदो । हमने पूछा कहाँ से आये हो? उसने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ और पेंटिंग का काम करता था पर आज मेरे पास कोई काम भी नहीं है। हमें उस पर कुछ संदेह हुआ कि हो सकता है यह कोई जासूस हो सो उसे डांट कर भगा दिया। रास्ते में और कोई घटना नहीं घटी। मुरादाबाद का इतिहास जानना रुचिकर होगा।

मुरादाबाद परिचय: मुरादाबाद उत्तर प्रदेश राज्य के मुरादाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। मुरादाबाद पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। रामगंगा नदी के तट पर स्थित मुरादाबाद पीतल पर की गई हस्तशिल्प के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसका निर्यात केवल भारत में ही नहीं अपितु अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और मध्य पूर्व एशिया आदि देशों में भी किया जाता है। मुरादाबाद से पीतल के बर्तन दुनिया भर में निर्यात किए जाते हैं जिस कारण यह पीतल नगरी नाम से प्रसिद्ध है। अमरोहा, गजरौला और तिगरी आदि यहाँ के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से हैं। रामगंगा और गंगा यहाँ की दो प्रमुख नदियाँ हैं।

मुरादाबाद (AS, p.752): उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका पुराना नाम चौपाला है। पुरानी बस्ती चार भागों में बंटी हुई थी जिसके कारण इसे चौपाला कहते थे-1. भादुरिया, 2. दीनदारपुर, 3. मानपुर, 4. डिहरी. मुगल सूबेदार रुस्तम खां ने मुगल बादशाह शाहजहां के पुत्र मुरादबख्श के नाम पर चौपाला का नाम बदल कर मुरादाबाद कर दिया था। यहाँ की जामा मस्जिद इसी समय (1631 ई.) में बनी थी।

मुरादाबाद पूनिया गोत्रीय जाटों की रियासत थी। ठाकुर देशराज (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ.581) लिखते हैं कि ‘इतिहास’ लिखने के समय (1934) कुंवर सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। वह एम. एल. सी. भी थे। जाट महासभा के कोषाघ्यक्ष भी थे। ‘यू. पी. के जाट’ नामक पुस्तक में इस रियासत का वर्णन इस प्रकार है - “अमरोहा के रहने वाले नैनसुख जाट थे। उनके लड़के नरपतसिंह ने मुरादाबाद के शहर में एक बाजार बसाया। यह भगवान् थे। इनके लड़के गुरुसहाय कलक्टरी के नाजिर थे। नवाब रामपुर की मातहती में यह मुरादाबाद के दक्खिनी हिस्से के नायब नाजिर थे। इनको सरकार से राजा का खिताब मिला और 18 गांव से कुछ ज्यादा जिला बुलन्दशहर में इनको सरकार ने प्रदान किये। सन् 1874 में यह मर गये। उनकी विधवा रानी किशोरी मालिक हुई। 60,000 रुपये मालगुजारी की रियासत का इन्तजाम इस बुद्धिमान स्त्री ने 1907 ई. तक बड़ी खूबी के साथ किया। इसी सन् में यह मर गई। रानी किशोरी के मरने के बाद रियासत के दो भाग हो गये। बुलन्दशहर की जायदाद रानी साहिबा के नाती करनसिंह को मिली और बाकी कुवर ललितसिंह को। गुरुसहाय के भाई ठाकुर पूरनसिंह के यह पोते थे और समस्त रियासत के मालिक भी। इस समय जैसा कि हम लिख चुके हैं, श्री सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। रियासत की टुकड़े-बन्दी रानी किशोरी के बाद किस तरह से हुई इसका कुछ मौखिक वर्णन हमें प्राप्त हुआ है। किन्तु कुछ ऐसी भी बातें हैं जो कि राज्य के प्राप्त करने के लिए सर्वत्र हुआ करती हैं। इसलिए उनके लिखने की आवश्कता नहीं समझी। महाराजा श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी भरतपुर-नरेश की ज्येष्ठ भगिनीजी का विवाह ठाकुर करनसिंह जी के पौत्र कुंवर सुरेन्द्रसिंह जी के साथ हुआ था।

रामपुर
Imambara, Fort of Rampur, Uttar Pradesh, c.1911

रामपुर: शाम के चार बजे रामपुर पहुंचे जहाँ चाय पी। रामपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के रामपुर जिले में स्थित एक शहर है। यह मुरादाबाद एवं बरेली के बीच में पड़ता है। रामपुर नगर उपर्युक्त ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है तथा कोसी के बाएँ किनारे पर स्थित है। रामपुर नगर में उत्तरी रेलवे का स्टेशन भी है। रामपुर का चाकू उद्योग प्रसिद्ध है। चीनी, वस्त्र तथा चीनी मिट्टी के बरतन के उद्योग भी नगर में हैं। रामपुर नगर में अरबी भाषा का एक महाविद्यालय है। जामा मस्जिद (Jama Masjid), रामपुर क़िला (Rampur Fort), रामपुर रज़ा पुस्तकालय (Raza Library) और कोठी ख़ास बाग़ (Kothi Khas Bagh), गांधी समाधि (Gandhi Samadhi) आदि रामपुर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं।

रामपुर (AS, p.791): 1. रामपुर - उत्तर प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। रामपुर नगर उपर्युक्त ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है तथा कोसी के बाएँ किनारे पर स्थित है। यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान भी है, जिसका महात्मा बुद्ध से निकट सम्बन्ध रहा है। भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् उनके अस्थि अवशेषों के आठ भागों में से एक पर एक स्तूप बनाया गया था, जिसे रामभार स्तूप कहा जाता था। संभवतः इसी स्तूप के खंडहर इस स्थान पर मिले हैं। किंवदंती है कि इसी स्तूप से नागाओं ने बुद्ध का दांत चुरा लिया था, जो लंका में 'कांडी के मंदिर' में सुरक्षित है।

कुछ विद्वान् रामपुर को 'रामगाम' मानते हैं। रामपुर का उल्लेख 'बुद्धचरित' (28, 66) में है, जहाँ रामपुर के स्तूप का विश्वस्त नागों द्वारा रक्षित होना कहा गया है। कहा जाता है कि इसी कारण अशोक ने बुद्ध के शरीर की धातु अन्य सात स्तूपों की भांति, इस स्तूप से प्राप्त नहीं की थी।

2. भूतपूर्व रियासत, उत्तर प्रदेश, लगभग 200 वर्ष पुरानी, रुहेलखंड की एक रियासत का नाम भी रामपुर था, जो उत्तर प्रदेश में विलीन हो गयी थी। इसके संस्थापक रुहेले थे।

प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्वांग ने रामपुर के क्षेत्र का नाम गोविषाण लिखा है।

रामग्राम अथवा 'रामगाम' (AS, p.787): महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक स्थान है। बौद्ध साहित्य के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् अनेक शरीर की भस्म के एक भाग के ऊपर एक महास्तूप 'रामगाम' या 'रामपुर' ('बुद्धचरित', 28, 66) नामक स्थान पर बनवाया गया था। 'बुद्धचरित' के उल्लेख से ज्ञात होता है कि रामपुर में स्थित आठवां मूल स्तूप उस समय विश्वस्त नागों द्वारा [p.788]: रक्षित था। इसीलिए अशोक ने उस स्तूप की धातुएं अन्य सात स्तूपों की भांति ग्रहण नहीं की थीं।

रामग्राम कोलिय क्षत्रियों का प्रमुख नगर था। यह कपिलवस्तु से पूर्व की ओर स्थित था। कुणाल जातक के भूमिका-भाग से सूचित होता है कि 'रोहिणी' या राप्ती नदी कपिलवस्तु और रामग्राम जनपदों के बीच की सीमा रेखा बनाती थी। इस नदी पर एक ही बांध द्वारा दानों जनपदों को सिंचाई के लिए जल प्राप्त होता था। रामग्राम की ठीक-ठीक स्थिति का सूचक कोई स्थान शायद इस समय नहीं है, किंतु यह निश्चित है कि कपिलवस्तु (नेपाल की तराई, ज़िला बस्ती की उत्तरी सीमा के निकट) के पूर्व की और यह स्थान रहा होगा।

चीनी यात्री युवानच्वांग, जिसने भारत का पर्यटन 630-645 ई. में किया था, अपने यात्रा क्रम में रामगाम कभी आया था।

रामपुर से रवाना होकर शाम को 6 बजे बरेली पहुँच गए। यहाँ होटल बरेली में हमारी व्यवस्था थी।

बरेली

26.9.1980: बरेली

ईस्ट इण्डिया टूर पर बरेली में-IFS 1980 Batch

इंडियन टरपेंटाइन एंड रोजीन फ़ैक्ट्री (Indian Turpentine and Rosin Factory): बरेली में हमने तारपीन बनाने की फैक्ट्री देखी। इसके लिए 10 बजे निकले। वहाँ पर चीड़ की लकड़ी से तारपीन बनाने का तरीका समझाया गया। यह फैक्ट्री वर्ष 1923-24 में स्थापित की गई थी। यह अपने आप में सबसे बड़ी फैक्ट्री है। इसका वार्षिक टर्नओवर ₹5 करोड़ है। इसमें टरपेंटाइन और रोजिन उत्पाद बनाए जाते हैं। जिसके लिए कच्चे माल के रूप में रेजिन की आवश्यकता होती है और वह उत्तर प्रदेश वन विभाग द्वारा प्रदान किया जाता है। इसके लिए कच्चा माल रेजिन चीड़ वृक्ष की लकड़ी से मिलता है। इसके लिए प्रतिवर्ष 22,000 टन लकड़ी की आवश्यकता होती है परंतु केवल 10,000 टन रेजिन ही उपलब्ध हो पाता है। इसलिए फैक्ट्री शॉर्ट सप्लाई में है। रेजिन 5 डिपोज से संग्रहित किया जाता है जो ऋषिकेश, काठगोदाम, जनकपुर, रामपुर और कोटद्वार में स्थित हैं। डिपो से फैक्ट्री को ट्रकों द्वारा रेजिन भेजा जाता है। कच्चा माल रेजिन रुपए 480 प्रति क्विंटल की दर से प्राप्त किया जाता है। टरपेंटाइन और रोजिन को डिस्टिलेशन पद्धति से अलग किया जाता है। टरपेंटाइन वाष्पित होता है और उसे ठंडा कर एकत्रित कर लिया जाता है। रोजिन पीछे बचे उत्पाद के रूप में मिल जाता है।

यहाँ पर एक विशेष बात देखने को मिली कि जो मजदूर यहाँ काम कर रहे हैं उनका स्वास्थ्य बड़ा ख़राब था। एक तो यहाँ इतनी गर्मी और ऊपर से रेजिन की गंध नाकसे शरीर में जाती रहती है। सम्भवतः इसी कारण इन मजदूरों का स्वास्थ्य ख़राब है। यहाँ पर रेजिन से विभिन्न पदार्थ निकाले जाते हैं। यहाँ का अनुसन्धान और विकास विभाग भी हमने देखा। यहाँ के प्रबंध संचालक श्री बी. पी. सिंह आई. एफ. एस. हैं। उनके द्वारा हमारे लिए चाय का आयोजन किया गया था। उस समय तक एक बज गए सो हम लंच के लिए आ गए।

अप्रैल 1998 में इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन फैक्ट्री (आइटीआर) बंद हो गई।

वेस्टर्न इन्डियन मैच कंपनी (Western India Match Compony): शाम को हमने विमको (WIMCO) (वेस्टर्न इन्डियन मैच कंपनी) देखा। इसका कार्य हमें बहुत पसंद आया। यहाँ सेमल की लकड़ी से माचिस बनता है। स्वचालित मशीनों से लकड़ी कटती है। फिर माचिस की डिबिया बनती हैं। माचिस की तीलियां अलग मशीन द्वारा काटी जाती हैं। फिर उनमें रोगन लगता है। तिल्ली डिबिया में भरी जाती हैं और शील लगाई जाती है। यह सब काम आटोमेटिक मशीनों द्वारा होता है।

इस फर्म की स्थापना 1923-24 में मुंबई मुख्यालय में हुई थी। इससे पहले माचिस की तिलियां स्वीडन और जापान से आयात की जाती थी। 1924 से 1930 के बीच में 5 फैक्ट्रियां स्थापित की गई जो बरेली, कोलकाता, मद्रास, अंबरनाथ (मुंबई) और धुबरी (असम) में थी। वर्तमान में भारत माचिस के उत्पादन में आत्मनिर्भर है। भारत में माचिस के उत्पादन के लिए 30,000 क्यूबिक मीटर सॉफ्टवुड की प्रतिवर्ष आवश्यकता होती है। इस काम के लिए जो प्रजातियां काम आती हैं उसमें यह हैं- 1. Bombax cieba (सेमल), 2. Trivia nudiflora (तुमड़ी), 3. Ailanthus excelsa (महारूख/अरडू ), 4. Pinus roxburgui (चीड़), 5. Poplar (पॉप्लर), 6. Mangifera indica (आम) (in south). लकड़ी की कमी के कारण सेमल का आयात नेपाल से किया जाता है। लकड़ी की पर्याप्त पूर्ति के लिए उत्तर प्रदेश और अन्य कई प्रांतों में वृहद स्तर पर प्लांटेशन का काम लिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में इस कार्य के लिए पॉपलर का प्लांटेशन प्रति वर्ष 250 एकड़ में किया जा रहा है। विमको द्वारा लकड़ी की पूर्ति के लिए किसानों के साथ मिलकर कार्य किया जा रहा है। किसानों को पॉप्लर के पौधे उपलब्ध कराये जा रहे हैं जो वे अपने खेतों में लगाते हैं। शर्दी के मौसम में पॉप्लर की पत्तियां गिर जाती हैं इसलिये किसान 3-4 वर्ष तक शर्दी में गेहूँ की फसल ले सकते हैं। इस फैक्ट्री में 1,50,000 माचिस-केस प्रतिवर्ष तैयार होते हैं। प्रत्येक केस में 7200 मैच बॉक्स आते हैं। एक क्यूबिक मीटर लकड़ी से लगभग 5 केस तैयार हो सकते हैं।

ईस्ट इण्डिया टूर पर बरेली में-लक्ष्मण बुरड़क, बिधान चन्द्र और बिस्वास

कैम्फर एंड अलाइड प्रोडक्ट्स फैक्टरी (Camphor and Allied Products): उसके बाद हमने कैम्फर एंड अलाइड प्रोडक्ट्स फैक्टरी देखी। यहाँ पर टर्पेन्टाइन से कपूर तैयार किया जाता है। इसको केशव लाल बोदानी ने 1955 में स्थापित किया था। वर्तमान में यह ओरियंटल अरोमैटिक्स (Oriental Aromatics) नाम से जानी जाती है।

शाम को एक घंटे बरेली के बाजार में घूमने गए जो भारतीय फिल्मों में झुमका गिरने के लिए प्रसिद्ध है। बाजार बड़ा सकडा है और बड़ी भीड़ रहती है जिसमें से गुजरना आसान नहीं है। इस भीड़ में झुमका यदि गिर जाये तो मिलना मुश्किल ही है। शाम को यहाँ के डी. एफ. ओ. श्री के. पी. श्रीवास्तव से मुलाकात की।

27.9.1980: बरेली

रेलवे स्लीपर उपचार केंद्र (Railway Sleeper Creosating Plant): सुबह जल्दी ही रेलवे स्लीपर उपचार केंद्र (Railway Sleeper Creosating Plant) का निरिक्षण किया। यह रेलवे की फैक्ट्री है जो खासतौर पर चीड़ की लकड़ी से उपचारित स्लीपर बनाती है। स्लीपर मीटर गेज और ब्रॉड गेज दोनों के लिए बनाते हैं। लकड़ी के स्लीपर का प्रयोग रेलवे पटरी के नीचे किया जाता है जिससे जमीन समतल हो जाती है और रेल के तेज आवाज को ये स्लीपर शोख कर कम कर देते हैं। स्लीपर मुख्यत: चीड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं परंतु देवदार, साल, फर और स्प्रूस की लकड़ी से भी स्लीपर बनाए जा सकते हैं। स्लीपर यदि उपचारित नहीं हो तो केवल तीन चार-साल चलते हैं जबकि उपचारित स्लिपर कोई 18 से 20 साल तक चल सकते हैं।

इसके बाद यहाँ की नर्सरी देखने गए जहाँ पर एनर्जी प्लांटेशन का विशेषतौर से अध्ययन किया। तत्पश्चात कत्था फैक्ट्री-इंडियन वुड प्रोडक्ट्स (Indian Wood Products) का निरिक्षण किया।

इंडियन वुड प्रोडक्ट्स (Indian Wood Products): यह कत्था फैक्ट्री वर्ष 1919 में इजतनगर, बरेली में स्थापित की गई थी। इस कत्था फैक्ट्री में खैर के वृक्षों की लकड़ी से कत्था बनाया जाता है। खैर के वृक्षों की ऊपर की नरम लकड़ी और छाल को अलग कर दिया जाता है और हार्टवुड को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिया जाता है। इन छोटे टुकड़ों (chips) को पानी के साथ 100 डिग्री पर उबाला जाता है। पानी में घुले हुए कत्थे को अलग फ़िल्टर कर किया जाता है। बचे हुए लकड़ी के टुकड़ों को स्टीम इंजन में काम लिया जाता है जो फैक्ट्री की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करता है। कंसंट्रेटेड एक्सट्रैक्ट को कोल्ड चैंबर्स में भेजकर इसका क्रिस्टलाइजेशन किया जाता है। इससे ठोस कच्छ जो प्राप्त होता है उसको चमड़े के टैनिंग के लिए प्रयोग किया जाता है। कथा जो अलग किया जाता है उसको बाजार में पान बनाने के लिए और आयुर्वेदिक दवाओं के लिए बेच दिया जाता है। खैर की लकड़ी से 10 से 13% कछ प्राप्त होता है तथा 4% कत्था निकलता है। कत्था रुपए 70 प्रति किलो बेचा जाता है। फैक्ट्री में लगभग 6000 टन वार्षिक खैर की लकड़ी की खपत होती है जिससे 240 से 250 टन फिनिश्ड प्रोडक्ट प्राप्त होता है। कत्था फैक्ट्री की क्षमता 12000 टन है परंतु केवल 8000 टन ही काम लिया जाता है जिससे 325 टन का उत्पादन होता है। एक कत्था बनाने की प्रक्रिया में एक तीसरा उत्पाद भी इसमें मिलता है जिसको खैर-सार बोलते हैं।

शाम को कोई सरकारी प्रोग्राम नहीं था इसलिए 'सावन को आने दो' पिक्चर देखी।

झुमका चौक बरेली

बरेली परिचय: बरेली उत्तरी भारत में मध्य उत्तर प्रदेश राज्य में रामगंगा नदी तट पर स्थित है। यह नगर रुहेलों के अतीत गौरव का स्मारक है। 1537 में स्थापित इस शहर का निर्माण मुख्यत: मुग़ल प्रशासक 'मकरंद राय' ने करवाया था। 1774 में अवध के शासक ने अंग्रेज़ों की मदद से इस क्षेत्र को जीत लिया और 1801 में बरेली की ब्रिटिश क्षेत्रों में शामिल कर लिया गया। बरेली मुग़ल सम्राटों के समय में एक प्रसिद्ध फ़ौजी नगर हुआ करता था। अब यहाँ पर एक फ़ौजी छावनी है। यह 1857 में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ हुए भारतीय विद्रोह का प्रमुख केंद्र भी था।

बरेली को 'बाँसबरेली' भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ लकड़ी, बाँस आदि का कारोबार काफ़ी लम्बे समय से हो रहा है। एक कहावत 'उल्टे बाँस बरेली' भी इस स्थान पर बाँसों की प्रचुरता को सिद्ध करती है। लकड़ी के विभिन्न प्रकार के सामान और फर्नीचर आदि के लिए भी बरेली प्रसिद्ध है। यह शहर कृषि उत्पादों का व्यापारिक केंद्र है और यहाँ कई उद्योग, चीनी प्रसंस्करण, कपास ओटने और गांठ बनाने आदि भी हैं। लकड़ी का फ़र्नीचर बनाने के लिए यह नगर काफ़ी प्रसिद्ध है। इसके निकट दियासलाई, लकड़ी से तारपीन का तेल निकालने के कारख़ाने हैं। यहाँ पर सूती कपड़े की मिलें तथा गन्धा बिरोजा तैयार करने के कारख़ाने भी है।

बरेली का इतिहास: बरेली (उ.प्र.) (AS, p.611): पुरानी जनश्रुति के अनुसार बरेली को 'बरेल' क्षत्रियों ने बसाया था। प्राचीन काल में बरेली का क्षेत्र पंचाल जनपद का एक भाग था। महाभारत काल में पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी, जो ज़िला बरेली की तहसील आंवला के निकट स्थित थी।

बरेली तथा वर्तमान रुहेलखंड का अधिकांश प्रदेश 18वीं शती में रुहेलों के अधीन था। 1772 ई. में रुहेलों तथा अवध के नवाब के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें रुहेलों की पराजय हुई और उनकी सत्ता भी नष्ट हो गई। इस युद्ध से पहले रुहेलों का शासक हाफ़िज रहमत ख़ाँ था जो बड़ा न्यायप्रिय और दयालु था। रहमत ख़ाँ का मक़बरा बरेली में आज भी रुहेलों के अतीत गौरव का स्मारक है। बरेली को 'बाँसबरेली' भी कहते हैं, क्योंकि पहाड़ों की तराई के निकटवर्ती प्रदेश में इसकी स्थिति होने के कारण यहाँ लकड़ी, बाँस आदि का करोबार काफ़ी पुराना है। 'उल्टे बाँस बरेली' की कहावत भी, इस स्थान पर बाँसों की प्रचुर मात्रा होने के कारण बनी है। (दे. बाँसबरेली)

बांस बरेली (AS, p.617): उत्तर प्रदेश के बरेली का एक विशेषार्थक नाम है, जो यहाँ के तराई के जंगलों में बाँस के वृक्षों के बहुतायत से होने के कारण हुआ है। यह संभव है कि इस नगर को उत्तर प्रदेश के अन्य नगर रायबरेली (संक्षिप्त रूप बरेली) से भिन्न करने के लिए ही 'बाँस बरेली' कहा जाता है।

अहिच्छत्र का प्राचीन किला मंदिर, बरेली

प्राचीन इतिहास: वर्तमान बरेली क्षेत्र प्राचीन काल में पांचाल राज्य का हिस्सा था। महाभारत के अनुसार तत्कालीन राजा द्रुपद तथा द्रोणाचार्य के बीच हुए एक युद्ध में द्रुपद की हार हुयी, और फलस्वरूप पांचाल राज्य का दोनों के बीच विभाजन हुआ। इसके बाद यह क्षेत्र उत्तर पांचाल के अंतर्गत आया, जहाँ के राजा द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मनोनीत हुये। अश्वत्थामा ने संभवतः हस्तिनापुर के शासकों के अधीनस्थ राज्य पर शासन किया। उत्तर पांचाल की तत्कालीन राजधानी, अहिच्छत्र के अवशेष बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित रामनगर के समीप पाए गए हैं। यह जगह बरेली शहर से लगभग 40 किमी है। यहीं पर एक बहुत पुराना किला भी है। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध ने एक बार अहिच्छत्र का दौरा किया था। यह भी कहा जाता है कि जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में कैवल्य प्राप्त हुआ था।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में, बरेली अब भी पांचाल क्षेत्र का ही हिस्सा था, जो कि भारत के सोलह महाजनपदों में से एक था।[5] चौथी शताब्दी के मध्य में महापद्म नन्द के शासनकाल के दौरान पांचाल मगध साम्राज्य के अंतर्गत आया, तथा इस क्षेत्र पर नन्द तथा मौर्य राजवंश के राजाओं ने शासन किया।[6] क्षेत्र में मिले सिक्कों से मौर्यकाल के बाद के समय में यहाँ कुछ स्वतंत्र शासकों के अस्तित्व का भी पता चलता है।[7] क्षेत्र का अंतिम स्वतंत्र शासक शायद अच्युत था, जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, जिसके बाद पांचाल को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था।[8] छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुप्त राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर मौखरियों का प्रभुत्व रहा।

सम्राट हर्ष (606-647 ई.) के शासनकाल के समय यह क्षेत्र अहिच्छत्र भुक्ति का हिस्सा था। चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग ने भी लगभग 635 ई. में अहिच्छत्र का दौरा किया था। हर्ष की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में लम्बे समय तक अराजकता और भ्रम की स्थिति रही। आठवीं शताब्दी की दूसरी तिमाही में यह क्षेत्र कन्नौज के राजा यशोवर्मन (725- 752 ई.) के शासनाधीन आया, और फिर उसके बाद कई दशकों तक कन्नौज पर राज करने वाले अयोध राजाओं के अंतर्गत रहा। नौवीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति बढ़ने के साथ, बरेली भी उनके अधीन आ गया, और दसवीं शताब्दी के अंत तक उनके शासनाधीन रहा। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद क्षेत्र के प्रमुख शहर, अहिच्छत्र का एक समृद्ध सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रभुत्व समाप्प्त होने लगा। राष्ट्रकूट प्रमुख लखनपाल के शिलालेख से पता चलता है कि इस समय तक क्षेत्र की राजधानी को भी वोदामयूता) (वर्तमान बदायूं) में स्थानांतरित कर दिया गया था।

स्थापना तथा मुगल काल: लगभग 1500 ईस्वी में क्षेत्र के स्थानीय शासक राजा जगत सिंह कठेरिया ने जगतपुर नामक ग्राम को बसाया था,[9] जहाँ से वे शासन करते थे - यह क्षेत्र अब भी वर्तमान बरेली नगर में स्थित एक आवासीय क्षेत्र है। 1537 में उनके पुत्रों, बांस देव तथा बरल देव ने जगतपुर के समीप एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम उन दोनों के नाम पर बांस-बरेली पड़ गया। इस दुर्ग के चारों ओर धीरे धीरे एक छोटे से शहर ने आकार लेना शुरू किया। 1569 में बरेली मुगल साम्राज्य के अधीन आया,[10] और अकबर के शासनकाल के दौरान यहाँ मिर्जई मस्जिद तथा मिर्जई बाग़ का निर्माण हुआ। इस समय यह दिल्ली सूबे के अंतर्गत बदायूँ सरकार का हिस्सा था। 1596 में बरेली को स्थानीय परगने का मुख्यालय बनाया गया था।[11] इसके बाद विद्रोही कठेरिया क्षत्रियों को नियंत्रित करने के लिए मुगलों ने बरेली क्षेत्र में वफादार अफगानों की बस्तियों को बसाना शुरू किया।

शाहजहां के शासनकाल के दौरान बरेली के तत्कालीन प्रशासक, राजा मकरंद राय खत्री ने 1657 में पुराने दुर्ग के पश्चिम में लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक नए शहर की स्थापना की।[12] इस शहर में उन्होंने एक नए किले का निर्माण करवाया, और साथ ही शाहदाना के मकबरे, और शहर के उत्तर में जामा मस्जिद का भी निर्माण करवाया।[13] मकरंदपुर, आलमगिरिगंज, मलूकपुर, कुंवरपुर तथा बिहारीपुर क्षेत्रों की स्थापना का श्रेय भी उन्हें, या उनके भाइयों को दिया जाता है। 1658 में बरेली को बदायूँ प्रांत की राजधानी बनाया गया। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान और उसकी मृत्यु के बाद भी क्षेत्र में अफगान बस्तियों को प्रोत्साहित किया जाता रहा। इन अफ़गानों को रुहेला अफ़गानों के नाम से जाना जाता था, और इस कारण क्षेत्र को रुहेलखण्ड नाम मिला।

बरेली का जाट म्यूजियम: बरेली के जाट म्यूजियम में रखी एक-एक धरोहर गौरवमयी इतिहास समेटे है, जिन्हें देखकर सिर गर्व से तन जाता है और सीना चौड़ा। यहां रेजीमेंट की स्थापना से लेकर अब तक की अनेक बेशकीमती धरोहर सहेज कर रखी गई हैं, जिनमें दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर छीनी चीजें भी शामिल हैं। जापानियों से छीनी तोप, बीएमडब्ल्यू मशीन गन, तलवारें और राइफलें भी यहां जाट वीरों का गौरव बढ़ा रही हैं। तो पाकिस्तानी बंदूके शौर्य गाथा बयान कर रही हैं। दुश्मनों से छीने गए झंडे भी यहां पर सुरक्षित हैं। 1803 से लेकर के 1955 के बीच बदले गए रेजिमेंटल बैज और समय के साथ बदली गई यूनिफार्म भी अपने इतिहास से लोगों को जोड़ती है। साथ ही अशोक और महावीर चक्र के साथ तमाम मेडल रेजीमेंट के जवानों की शौर्य गाथाओं के गवाही देते हैं।

Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Source - 1. User:Lrburdak/My Tours/Tour of East India I

2. Facebook Post of Laxman Burdak, 1.8.2021

Tahsils in Moradabad district

Villages in Moradabad Tahsil

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Faindapur, Faleda Eshapur, Fatehpur Bisnoi, Fazlabad, Felra Patti, Firozpur, Gadai Khera, Gadhi, Gajgola Nanak Bari, Ganesh Ghat Ahatmali, Ganesh Ghat Mustahkam, Ganeshpur Devi Mustahkam, Gannor Deya Mafi, Gataura, Ghaunda Ahatmali, Ghaunda Mustahkam, Ghosipur, Ghosipura Babupura, Gilpura, Gindora, Godhi, Goharpur Sultanpur, Golapanday Urf Saindlipur, Gopalpur Natthanagla Urf Kukar, Got, Goverdhanpur Mustahkam, Govindpur Gyanpur, Govindpur Kalan, Govindpur Khurd, Guladia, Gunga Nagla, Guretha, Gyanpur , Hala Nagla, Hamirpur, Hari Noorpur, Harsenpur, Hasanganj, Hashampur Gopal, Hassu Nagala Urf Jassunagla, Hathat, Hiran Khera Ahatmali, Hiran Khera Mustahkam, Ilar Rasulabad, Islampur, Islampur Rampura, Jagatpur Ramrai Mustahkam, Jagrampura, Jahidpur Sikampur Mustahkam, Jaitia Sadullapur, Jaitpur, Jalpur, Jamalpur Madi Nagla, Jamania Khurd, Jamniya Azam, Jebara, Jewadi, Kachnal Ahatmali, Kachnal Mustakim, Kafiyabad, Kaji Khera, Kakarghata, Kala Jhanda, Kangani, Kankar Khera, Kanth (NP), 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Tigri, Malhupura Hardo Dandi, Malliwala, Malwara Urf Manpur, Mangawala, Mangupura, Mankara, Mannagar Urf Kond, Manoharpur, Manpur Mujjaffarpur, Manpur Patti Ahatmali, Manpur Patti Mustahkam, Mathana, Mati Urf Maini, Mawala Mohammadjamalpur, Mednipur, Mehandari Sikandarpur, Milak Malwara Sirsawan Harchan, Milak Sirswan Harchand, Misripur, Mohabaatpur Bhagwantpur Mustah, Mohamad Qulipur Urf Nagla, Mohammadpur, Mohammadpur Dhyansingh, Mohammadpur Maphy, Mohra, Mohri Hajratpur, Mora Mustahkam, Moradabad (M Corp.), Mugalpur Urf Aghwanpur Mustahk, Muhammadpur Bhagwandas, Mukhtyarpur Nawada, Munda Pande Chak Dafe Singh, Mundha Kheri, Mundha Pande, Mundia, Mundia Malukpur Ahatmali, Mundia Malukpur Mustahkam, Munimpur, Mustafabad Mustahkam, Muzaffarpur Tanda, Nagla Banbir, Nagla Jograj, Naimtullahnagar Urf Mithanpur, Najarpur, Nakatpuri Kalan, Naketpuri Khurd, Nakshandabad, Nar Khera, Narendrapur, Nasirpur, Navwa Nagla, Nazarpur, Nazrana, Nekpur, Niamatpur Ikrosia, Nidhi, Niwar Khas, Pachfera 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Jat Gotras

Dahiya, Dhaliwal, Dhanoa, Dharan, Sangwan, Tevatia, Khokhar, Kaliraman, Madra, Oda, Sodlan, Punia, Tomar, Nardey, Munder, Kalhir, Chahar, Dalal, Minerva, Rahan, Chahal, Chhillar, Bhuplaan,

Madra Khap

Madra Khap has 24 villages in tahsil Nakur of Saharanpur district in UP .

Its other main villages in Moradabad district in UP are: Madra Rampur (मद्र रम्पुर) , Dhanpur (धनपुर) , Makhyal (मख्याल) , Alampur (आलमपुर) , Kasampur (कासमपुर) , Mubarakpur (मुबारकपुर) , Jhalchipur (झलचिपुर) . [14]

Jat Monuments

Notable persons from Moradabad district

Gallery

External links

References

  1. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, pp.346
  2. K. Devi Singh Mandawa, Prithviraja, p. 106
  3. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, pp.346-347
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.752
  5. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.85
  6. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.206
  7. Lahiri, B. (1974). Indigenous States of Northern India (Circa 200 B.C. to 320 A.D.) , Calcutta: University of Calcutta, pp.170-88; Bhandare, S. (2006). Numismatics and History: The Maurya-Gupta Interlude in the Gangetic Plain in P. Olivelle ed. Between the Empires: Society in India 300 BCE to 400 CE, New York: Oxford University Press, ISBN 0-19-568935-6, pp.76,88
  8. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.473
  9. वसीम, अख्तर (4 जुलाई 2019). "मुहल्लानामा : पुराना शहर में जगतपुर से पड़ी बरेली की नींव". बरेली: दैनिक जागरण. मूल से 30 जुलाई 2019 को पुरालेखित
  10. वसीम, अख्तर (4 जुलाई 2019). "मुहल्लानामा : पुराना शहर में जगतपुर से पड़ी बरेली की नींव". बरेली: दैनिक जागरण. मूल से 30 जुलाई 2019 को पुरालेखित
  11. लाल 1987, पृ.6
  12. लाल 1987, पृ - 6
  13. लाल 1987, पृ.6
  14. Dr Ompal Singh Tugania: Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, Agra, 2004, p. 20

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