Narhar

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Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.), Jaipur
Location of Narhar in Jhunjhunu district

Narhar or Narhad (नरहड़) is an ancient town situated in Chirawa tehsil in Jhunjhunu district in Rajasthan, India. Its ancient name was Narabhata (नरभट). [1]

Founders

Nehra Jats

Jat clans

Location

It is Located at a distance of 25 km from Jhunjhunu in northeast direction from Jhunjhunu and south of Pilani.

Population

As per 2011 census, Narhar has a population of 8777.

It is a place of pilgrimage for Muslims as well as Hindus. There is an old Durgah after the name of Sufi saint Sakharbar Shah. The devotees smear the dust of the place to seek the blessing of the saint. The people pour forth from all over the country on the famous Fair of the Janama Ashthami. It is an emblem of National integrity.

History

Jaina sources claim that this place was connected with Jainism, even in post Gupta priod, as two icons of Neminatha and Shantinatha dated V.S. 650 (593 AD), were recently unearthed from this place (See Indian Archaeology Review, p.83). The KB (p.66) refers to the fact that main icon of Parshvanatha shrine of this place were installed by the Kharatara Acharya Jinadatta, apparently in 12th century. This place has also been referred to by Vinayaprabha Suri (14th century) in his Tirthayatrastavana. A temple of Adinatha of Narahara is mentioned in a manuscript dated V.S. 1365. [2]

Pandit Jhabar Mal Sharma writes about the nawabs of Narhar that about the same time as that of the nawabis of Fatehpur and Jhunjhunu, Nagar pathans established nawabi at Narhar. In 1446 (samvat 1503) a group of pathans under the leadership of nawab Ismail Khan Daler Jang came from Afghanistan. Bahlol Lodi made him his general and subedar of Bihar. He had attacked Narhar and occupied it after defeating Jod Chauhans. His son Dilawar Khan constructed dargah of hajarat Hajid Shakargah in 1455 (samvat 1512). [3]

Thakur Deshraj writes that Narhar was ruled by Nehra Jats. Nehra jats ruled in Rajasthan over an area of 200 square miles. The Nehra hills of Rajasthan were their territory. To the west of Jhunjhunu town is a Hill 1684 feet above see-level and visible from miles around. [1]. This hill near Jhunjhunu town is still known as Nehra Hill in their memory. [4]Another hill was known as Maura which was famous in memory of Mauryas. Nehra in Jaipur was the first capital in olden times. In the fifteenth century Nehras ruled at Narhar, where they had a fort. At Naharpur, 16 miles down below the Nehra Hill, there another group ruled. [5] The present Shekhawati at that time was known as Nehrawati. [6]

At the end of 16th century and beginning of 17th century there was a war between Nehras and Muslim rulers. When Nehras were defeated by nawabs, they used to offer gifts to the Nawabs on special occasions, due to this they were also called Shahi Bhentwal. [7]

After nawab Kasim Khan Husain Khan became nawab of Bagar. His some descendants lived at Bagar and Nunia Gothra. Husain Khan’s younger brother Sikandar Khan lived at Khudana. Another younger brother of nawab, Bahlol Khan founded Islampur in 1622. Bahlol Khan’s son Jalal Khan constructed a well in Islampur, which is known as “Jalal Khan ka kuan”.

The pathans of Narhar unitedly opposed the Jagir given to Shardul Singh Shekhawat. [8] Jujhar Singh Nehra (1664 – 1730) played an important role in fighting with the Nawabs. His father was a faujdar of Nawabs. Shardul Singh sought the help of Jujhar Singh Nehra. The Jats through Jujhar Singh and Rajputs through Sardul Singh agreed upon a proposal to fight united against Muslim rulers and if the Nawab were defeated Jujhar Singh would be appointed the Chieftain. [9]

Jujhar Singh Nehra, one day found the right opportunity and attacked Nawabs at Jhunjhunu and Narhar. He defeated the army of Nawab Sadulla Khan on Saturday, aghan sudi 8 samvat 1787 (1730 AD). The Nehra chieftain Jhunjha or Jujhar Singh won the war and captured Jhunjhunu town. [10] This is clear from the following poetry in Rajasthani Language -

Satrahso Satashiye, Agahan Mass Udaar,

Sadu linhe jhunjhunu, Sudi Athen Sanivaar.

The Muslim Nawab 'Sadulla Khan', in charge of Jhunjhunu, was defeated jointly by Shardul Singh and Jujhar Singh Nehra. But, as per Kunwar Panne Singh's book 'Rankeshari Jujhar Singh', Later at the time of victory ceremony Jujhar Singh was deceived and killed by Shekhawats after he was appointed the chieftain. [11] It is clear from the poetry in Rajasthani Language -

Sade, linho Jhunjhunu, Lino amar patai,

Bete pote padaute pidhi sat latai.

Jhunjhunu town in Rajasthan was established in the memory of Jujhar Singh Nehra the above Jat chieftain. [12]

नरहड़

नरहड़ एक प्राचीन स्थान है, जो झुंझुनू ज़िला, राजस्थान में स्थित है। यह स्थान केवल शेखावाटी और राजस्थान का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत का गौरवशाली स्थल है। यहाँ हर वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर शक्कर पीर बाबा का मेला लगता है। इस तरह की मिसाल अन्यत्र और कहीं देखने को नहीं मिलती है। नरहड़ में शक्कर पीर बाबा की ऐतिहासिक दरगाह है, जहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही श्रद्धा के साथ आते हैं। एक विशाल एवं भव्य बुलंद दरवाज़े से होकर दरगाह शरीफ़ तक पहुँचा जाता है। दरगाह में एक आयताकार चौक में मानसिक विकृति वाले लोगों के शरीर पर पवित्र मिट्टी रगड़ी जाती है। माना जाता है कि ऐसा करने पर उन्हें विक्षिप्तावस्था से मुक्ति मिल जाती है। नरहड़ गाँव चिडावा पंचायत समिति का ग्राम पंचायत मुख्यालय है और यहाँ यात्रियों के आवास के लिए धर्मशालाएँ और तिबारे बने हुए हैं।[13]

इतिहास

ठाकुर देशराज[14] ने लिखा है .... कुंवर पन्ने सिंह जी - [पृ.374]: शेखावाटी में कुहाड़ जाटों का मशहूर खत्ता है। कहा जाता है कि ब्रिज के यदुवंशियों में से जो लोग गजनी होते हुए जैसलमेर लौटे थे उनमें एक सरदार भुनजी भी थे। उनके खानदान में नयपाल, विनय पाल, राजवीर, रिडमल और मानिकपाल नाम के सरदार हुए। भटनेर के एक हिस्से पर


[पृ.375]: राज्य करते रहे। कई पीढ़ी बाद इसी वंश में जगदीश जी नाम के सरदार के कुहाड़ नाम का पुत्र हुआ। उसने मारवाड़ में कुहाड़सर नामक गांव बसाया। इस वंश के तीसरी चौथी पीढ़ी में पैदा होने वाले कान्हड़ ने सागवा को आबाद किया। उसके पुत्र उदलसिंह ने संवत 1821 (1764 ई.) में कुहाड़वास को आबाद किया। कुहाड़वास के भनूराम कुहाड़ ने संवत 1890 (1833 ई.) नरहड़ में आबाद की। भनूराम का दलसुख हुआ। दलसुख के गणेशराम और जालूराम दो पुत्र हुए। जालूराम बचपन में ही अपने भाई के साथ देवरोड़ में आ गए। कुंवर पन्नेसिंह इन्हीं जालूराम के तृतीय पुत्र थे। कुँवर पन्नेसिंह जी का जन्म संवत 1959 विक्रमी (1902 ई.) के चेत्र में कृष्णा एकादशी को हुआ था।

प्रजामण्डल का असहयोग आन्दोलन

नरोत्तमलाल जोशी[15] ने लिखा है ....तत्कालीन जयपुर राज्य में सन 1938 में सेठ जमनालाल जी बजाज के नेतृत्व में प्रजामण्डल ने भाषण करने एवं लिखने की नागरिक अधिकारों के लिए एक असहयोग आन्दोलन किया था। उस आन्दोलन में शेखावाटी कृषकों ने विशेषत : जाट किसानों ने बड़ी संख्या में भाग लिया और जेल गए। उसके परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने जयपुर में सीमित मताधिकार के आधार पर रिप्रेजेंटेटिव एसेम्बली और लेजिस्लेटिव कोन्सिल के निर्माण की घोषणा को और उनके चुनाव 15 मई, 1945 को निश्चित हुए। जागीरदारों और मुसलमानों की सीटें सयुंक्त चुनाव में सुरक्षित कर दी गई। उक्त चुनाव के प्रचार के सिलसिले में अपनी उम्मीदवारी के लिए मतदाताओं से वोट की अपील करने के लिए 14 मई, 1945 को मैं गुढा और उदयपुर गया था।

गुढा की सभा में मेरे को तथा मेरे साथी श्री सूरजमल जी गोठड़ा तथा मेरे परम स्नेहभाजन व रिश्तेदार (अब बड़े सर्जन जो उस समय मेडिकल के विद्यार्थी थे) श्री केदारनाथ जी शर्मा को गुढा के बाजार में दिन 3 बजे मीटिंग करते हुए बुरी तरह पीटा और हारमोनियम बाजा, दरी, टेबल व अन्य सामान तोड़कर उठा ले गए। बाद में उदयपुर जाने पर तो वहां इन भौमियों के 15-20 आदमियों ने ऐसा आक्रमण किया कि मैं देव योग से ही बच पाया वरना मुझे जान से मार


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-II, पृष्ठांत-40

दिया जाता। इस सारी घटना का विस्तृत विवरण उस समय के जयपुर के साप्ताहिक लोकवाणी के 30 मई के अंक में प्रकाशित हुआ है।

तत्कालीन जयपुर राज्य का शासन तंत्र भी इन अत्याचारों के खिलाफ कुछ नहीं कर पाया। इन ही दिनों सन 1945 के वर्षो की फसल के समय कार्यकर्ताओं की मण्डली देहातों में प्रचार करने जाती और काश्तकारों को प्रजामण्डल के उद्देश्यों को बतलाती और सदस्य बनाती फिरती थी। नरहड़ के श्री खेतराम जी, तोगड़ा के श्री भैरोसिंह, महेंद्रसिंह, रामदेव जी गीला, श्री ख्यालीरामजी, श्री बूंटी रामजी किशोरपुरा---डूंगरसिंह और कूमास डूमरा के कार्यकर्ता आदि थे। ये लोग उदयपुरवाटी क्षेत्र को छोड़कर सभी जगह जाते।

श्यायी (सेही) से ही एक फौज के रिटायर्ड व्यक्ति थे जिन्होंने अपना नाम स्वामी मिश्रानन्द रख लिया था बड़े उत्साह से गाँवों में घूम घूम कर काश्तकारों में राजनैतिक चेतना का संदेश दिया करते थे। श्री रामदेव जी उन्हें अपने साथ उदयपुरवाटी में प्रचार के लिए ले गए थे। उदयपुरवाटी के क्षेत्र के काश्तकारों ने उनका बड़ा आतिथ्य सत्कार किया। कार्यकर्ताओं को काश्तकार उन दिनों भौमियों के अत्याचारों से रक्षा करने वाला मुक्ति दूत समझते थे।

उक्त स्वामी जी दूध, दही, खीर आदि खाते पीते और स्वागत सत्कार स्वीकार करते हुए एक दिन दुड़िया ग्राम में विश्राम कर रहे थे कि 10-15 लठैत एवं शस्त्रधारी भौमिये वहां आ पहुंचे और स्वामीजी और उनके साथियों को खूब मारा पीटा और स्वामी जी को तुरन्त वह क्षेत्र छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया और कभी न आने का वचन लेकर जाने दिया। बाद में स्वामी जी ने बतलाया कि उन्हें लाठियों की चोटों,घूसों और बंदूक के कुंदे से इस तरह पीटा कि सारा असिथपंजर हिल उठा और भयंकर पीड़ा होती रही। कहीं भी शरीर पर खून का या अन्य कोई चोट फूट नहीं निकली। इसकी पीड़ा कई मास तक रही और बराबर याद रही।

इस घटना से प्रायः कार्यकर्ता उदयपुरवाटी क्षेत्र में जाने से कतराते। भूस्वामियों का प्रभाव या आतंक इतना था कि उसके भयानक परिणामों की आशंका


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-II, पृष्ठांत-41

से कोई भी आहत व्यक्ति प्रथम तो पुलिस में रिपोर्ट ही नहीं करता और यदि साहस करके पुलिस थाने में आता तो हतोत्साहित करते --- यदि फिर भी रिपोर्ट होती तो कोई साक्षी उक्त घटना का प्रमाण देने के लिए प्रस्तुत नहीं होता।

यह आतंक का वातावरण काल्पनिक नहीं था वास्तविक था, क्योंकि भौमियां लोग अपने उदयपुरवाटी क्षेत्र में किसी भी ऐसे व्यक्ति या समूह का प्रवेश नहीं करने देते जो काश्तकारों में किसी प्रकार की चेतना या जागृति पैदा करके उनके शोषण को समाप्त कर दे। इस प्रकार की मारपीट करते समय वे साफ तौर से आहत व्यक्ति या समूह को स्पष्ट रूप से बतला देते कि उदयपुरवाटी उनका एकाधिकार का क्षेत्र है, हमारे काश्तकारों को बहकाने या प्रचार करने को जो भी आएगा उसे हम निकाल देंगे या समाप्त कर देंगे।

इस ही प्रकार की एक घटना सन 1946-47 के आस पास हुई। गुढ़ा के पास हुकमपुरा के एक काश्तकार "हरलाल जाट" पर उन्हें यह सन्देह हो गया कि उसकी गतिविधियां विरोधी है और वह प्रजामण्डल या किसान कार्यकर्ताओं से सम्पर्क रखता है। बस एक दिन भौमियों के एक गिरोह ने उक्त हरलाल को जबरदस्ती उड़ा लिया और उसे गायब कर दिया।

हम लोगों ने स्थानीय पुलिस व तत्कालीन जयपुर राज्य के गृहमन्त्री तक इसकी शिकायत की और उसे खोज कराने की मांग की परन्तु पुलिस ने बराबर यही कहा कि ऐसी न तो हमारे थाने में रिपोर्ट की न ऐसी कोई घटना हुई। यहां तक कि पत्नी को तथा उसके सन्तान को पुलिस के सामने प्रस्तुत किया तो भी कोई सफलता नहीं मिली---इस घटना के लगभग 15-20 वर्ष बाद जब परिस्थितयों ने पलटा खाया तो उन भौमियों ने मेरे को उक्त हरलाल के अपहरण व हत्या का सारा विवरण बतलाया और कहा कि वे लोग पुलिस द्धारा पकड़े जाने और कार्यवाही के भय से उसकी लाश के टुकड़े टुकड़े करके उदयपुरवाटी के पहाड़ों की तली में तांबा व अन्य धातु खनिज के लिए खोदे गए कुँओं में डाल दिए थे।

सबसे बड़ी घटना फरवरी 1946 में हमारे चनाणा में किए गए किसान सम्मेलन में हुई। उक्त सम्मेलन का सभापति मैं मनोनीत किया गया था।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-II, पृष्ठांत-42

उद्धघाटन करने के लिए जयपुर राज्य प्रजामण्डल के तत्कालीन सभापति श्री टीकाराम जी पालीवाल जयपुर से आए थे जो मुख्य अतिथि होकर उक्त सम्मेलन का उद्धघाटन करने वाले थे। लगभग इस क्षेत्र के सारे कार्यकर्ता उस सम्मेलन में उपस्थित थे।

जाट किसान पंचायत शेखावाटी को प्रजामण्डल में विलीन कर दिए जाने के कारण एक पक्ष हम लोगों का विरोधी था जो इस समारोह का विरोधी प्रचारक के रूप में गाँवों में प्रचार कार्य कर रहा था। सभा की कार्यवाही पुरानावास चनाणा पर हुई जो लगभग 2-3 फलांग के फासले पर गाँव से पड़ता था। ज्योहीं सभा शुरू कि चनाण के ठाकुर व उनके आश्रित लोग 20-25 ऊँटो पर तथा 3- 4 घोड़ों पर सवार व 30-40 पैदल चलने वाले बाजा बजाते हुए आए। सब लोग तलवार, बंदूक व लाठियों से सुसज्जित थे। नि:शस्त्र और शान्त जनता पर लाठी, फरसी का बार करना शुरू कर दिया और सभा के मण्डप को तथा हारमोनियम व साजबाज को तोड़ डाला और बंदूक के फायर किए जिससे सीथल गाँव का किसान घटना स्थल पर ही मारा गया और 15-20 किसान बंदूक के छर्रो से घायल हो गए।

सभा में भगदड़ मच गई और भौमियां दरी शामियाना व सारा सामान ऊँटों पर लादकर ले गए। इस सारे दृश्य को पुलिस का थानेदार अपने 5-7 सिपाहियों के साथ मौके पर खड़ा-खड़ा देखता रहा और कोई भी कार्यवाही नहीं की। इस सारी घटना का भी जागीरदारों पर कत्ल का मुकदमा तो पुलिस को बनता ही पड़ा परन्तु पुलिस बंदूक के छर्रों से घायल व आहत किसानों और हम कार्यकर्ताओं पर भी साथ ही में मुकदमा करने में नहीं चुकी।

इन सारी घटनाओं से भौमियों का हौसला बढ़ता जाता था, परन्तु जनता का उत्साह कम नहीं हुआ। भारतवर्ष को अंग्रेजी शासन से 1947 में मुक्ति मिली और देशी राज्यों के विलीनीकरण के बाद में 1949 में वर्तमान राजस्थान का निर्माण हुआ और 1950 में कल्याणकारी राज्य का संविधान लागू होकर 1952 में प्रथम आम चुनावों का समय आने तक राजस्थान में सन 1951 के अप्रैल में श्री जयनारायण व्यास के नेतृत्व में प्रथम लोकप्रिय मन्त्री मण्डल स्थापित हो चुका


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, भाग-II, पृष्ठांत-43

था और उसने जागीरदारी अबोलिशन एक्ट सन 51 में ही पास कर दिया था।

Narhar Inscription of Vigraharaja IV of year 1159 AD

We have an Inscription of Vigraharaja of s.v. 1215 (1159 AD) which tells us the authority of Chauhan ruler Vigraharaja III. This inscription writes him as Mahabhattaraka Maharajadhiraja Parameshwar Vigraharajadeva.[16]. Shekhawati had been the centre of struggle between Chauhans and Tomars during those days. Harsh Inscription of 961 AD tells us that Chauhan ruler Chandana killed Tomar ruler Rudrena and Chauhan ruler Sinharaja killed Salavana Tomar. Even after this Tomars were rulers up to 1150 AD in Torawati and parts of present Haryana. Regular attacks of Vigraharaja III on Tanwars of Haryana had weakened them. [17]

विग्रहराज का नरहड़ शिलालेख वि.सं.१२१५

१. ॐ संवत् १२१५ मार्गा बदि १५
२. शनौ नेगमान्वय कायस्थ ठकुर
३. श्री चंद्रसुत विल्हणपुत्र
४. तल्हण:स्वर्ग लोके गत:।
५.परम भट्टारक महाराजाधिराव प
६. रमेश्वर श्रीमद् विग्रहराज देवराज्ये
७. श्री सोम देवेन निजस्य भातृ पुत्रार्थे
८. देहा कारापिता-

स्त्रोत: रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.302

जिनदत्त सूरि का चित्रित काष्ठ फलक सं. 1175

त्रिभुवन गिरि वर्तमान राजस्थान के करौली नगर से 24 मील की दूरी पर स्थित है। 12 वीं शताब्दी में राजा कुमारपाल वहाँ का शासक था। करौली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र मध्य काल में ब्रजमंडल के अंतर्गत था, और वहाँ के राजा शूरसेन जनपद (प्राचीन मथुरा राज्य) के उन यादवों के वंशज थे, जिनके नेता श्रीकृष्ण थे। त्रिभुवन गिरि के राजा कुमारपाल ने जैन मुनि जिनदत्त सूरि जी से प्रतिबोध प्राप्त किया था, और उन्हें एक चित्रित काष्ठ फलक भेंट किया था। श्री जिनदत्त सूरि ने सं. 1169 में आचार्य पद प्राप्त किया था; अतएव उक्त काष्ठ फलक का निर्माण काल सं. 1175 के लगभग माना जा सकता है। उसका परिचय देते हुए श्री भँवरलाल नाहटा ने लिखा है,- इस फलक के मध्य में हाथी पर इन्द्र व दोनों ओर नीचे चामरधारी नवफण पार्श्वनाथ भगवान का जिनालय है, जिसकी सपरिकर प्रतिमा में उभय पक्ष अवस्थित हैं। दाहिनी ओर दो शंखधारी पुरुष खड़े हैं। भगवान के बायें कक्ष में पुष्प-चंगेरी लिये हुए एक भक्त खड़ा है, जिसके पीछे दो व्यक्ति नृत्यरत हैं। वे दोनों वाद्य यंत्र लिये हुए हैं। जिनालय के दाहिनी ओर श्री जिनदत्त सूरि जी की व्याख्यान सभा है। आचार्य श्री के पीछे दो भक्त श्रावक एवं सामने एक शिष्य व महाराजा कुमारपाल बैठे हुए हैं। महाराजा के साथ रानी तथा दो परिचारक भी विद्यमान हैं। जिनालय के वायीं तरफ श्री गुणसमुद्राचार्य: विराजमान हैं, जिनके सामने स्थापनाचार्य जी व चतुर्विध संघ हैं। साधु का नाम पंडित ब्रह्माचंद्र है। पृष्ठ भाग में दो राजा हैं, जिनके नाम चित्र के उपरि भाग में सहणअनंग लिखे हैं। साध्वी जी के सामने भी स्थापनाचार्य हैं, और उनके समक्ष दो श्राविकाएँ हाथ जोड़े खड़ी हैं। इस काष्ठ फलक में जिस नवफण पार्श्वनाथ जिनालय का चित्र है, सूरि महाराज की जीवनी के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह जिनालय नरहड़-नरभट में उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठापित किया था। पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा को नवफणमंडित बनवाने की प्रथा गणधर सार्ध-शतक वृत्यनुसार श्री जिनदत्त सूरि जी महाराज से ही प्रचलित हुई थी। यह काष्ठ ब्रजमंडल की मध्यकालीन जैन चित्रकला का एक दुर्लभ उदाहरण है। इस समय यह जैसलमेर (राजस्थान) के ग्रंथ-भंडार में संख्या 241 के 'चंद्रपन्नति सूत्र' नामक ग्रंथ के साथ संलग्न है। नाहटा जी का कथन हैं, यह काष्ठ फलक पहिले उस ग्रंथ के साथ था, जिसे राजा कुमारपाल ने लिखवाया था। वह ग्रंथ इस समय उपलब्ध नहीं है, और यह काष्ठ फलक अन्य ग्रंथ चंद्रपन्नति सूत्र के साथ लगा दिया गया है। [18]

राजस्थान की जाट जागृति में योगदान

ठाकुर देशराज[19] ने लिखा है ....उत्तर और मध्य भारत की रियासतों में जो भी जागृति दिखाई देती है और जाट कौम पर से जितने भी संकट के बादल हट गए हैं, इसका श्रेय समूहिक रूप से अखिल भारतीय जाट महासभा और व्यक्तिगत रूप से मास्टर भजन लाल अजमेर, ठाकुर देशराज और कुँवर रत्न सिंह भरतपुर को जाता है।


[पृ.4]: अगस्त का महिना था। झूंझुनू में एक मीटिंग जलसे की तारीख तय करने के लिए बुलाई थी। रात के 11 बजे मीटिंग चल रही थी तब पुलिसवाले आ गए। और मीटिंग भंग करना चाहा। देखते ही देखते लोग इधर-उधर हो गए। कुछ ने बहाना बनाया – ईंधन लेकर आए थे, रात को यहीं रुक गए। ठाकुर देशराज को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होने कहा – जनाब यह मीटिंग है। हम 2-4 महीने में जाट महासभा का जलसा करने वाले हैं। उसके लिए विचार-विमर्श हेतु यह बैठक बुलाई गई है। आपको हमारी कार्यवाही लिखनी हो तो लिखलो, हमें पकड़ना है तो पकड़लो, मीटिंग नहीं होने देना चाहते तो ऐसा लिख कर देदो। पुलिसवाले चले गए और मीटिंग हो गई।

इसके दो महीने बाद बगड़ में मीटिंग बुलाई गई। बगड़ में कुछ जाटों ने पुलिस के बहकावे में आकार कुछ गड़बड़ करने की कोशिश की। किन्तु ठाकुर देशराज ने बड़ी बुद्धिमानी और हिम्मत से इसे पूरा किया। इसी मीटिंग में जलसे के लिए धनसंग्रह करने वाली कमिटियाँ बनाई।

जलसे के लिए एक अच्छी जागृति उस डेपुटेशन के दौरे से हुई जो शेखावाटी के विभिन्न भागों में घूमा। इस डेपुटेशन में राय साहब चौधरी हरीराम सिंह रईस कुरमाली जिला मुजफ्फरनगर, ठाकुर झुममन सिंह मंत्री महासभा अलीगढ़, ठाकुर देशराज, हुक्म सिंह जी थे। देवरोड़ से आरंभ करके यह डेपुटेशन नरहड़, ककड़ेऊ, बख्तावरपुरा, झुंझुनू, हनुमानपुरा, सांगासी, कूदन, गोठड़ा


[पृ.5]: आदि पचासों गांवों में प्रचार करता गया। इससे लोगों में बड़ा जीवन पैदा हुआ। धनसंग्रह करने वाली कमिटियों ने तत्परता से कार्य किया और 11,12, 13 फरवरी 1932 को झुंझुनू में जाट महासभा का इतना शानदार जलसा हुआ जैसा सिवाय पुष्कर के कहीं भी नहीं हुआ। इस जलसे में लगभग 60000 जाटों ने हिस्सा लिया। इसे सफल बनाने के लिए ठाकुर देशराज ने 15 दिन पहले ही झुंझुनू में डेरा डाल दिया था। भारत के हर हिस्से के लोग इस जलसे में शामिल हुये। दिल्ली पहाड़ी धीरज के स्वनामधन्य रावसाहिब चौधरी रिशाल सिंह रईस आजम इसके प्रधान हुये। जिंका स्टेशन से ही ऊंटों की लंबी कतार के साथ हाथी पर जुलूस निकाला गया।

कहना नहीं होगा कि यह जलसा जयपुर दरबार की स्वीकृति लेकर किया गया था और जो डेपुटेशन स्वीकृति लेने गया था उससे उस समय के आईजी एफ़.एस. यंग ने यह वादा करा लिया था कि ठाकुर देशराज की स्पीच पर पाबंदी रहेगी। वे कुछ भी नहीं बोल सकेंगे।

यह जलसा शेखावाटी की जागृति का प्रथम सुनहरा प्रभात था। इस जलसे ने ठिकानेदारों की आँखों के सामने चकाचौंध पैदा कर दिया और उन ब्राह्मण बनियों के अंदर कशिश पैदा करदी जो अबतक जाटों को अवहेलना की दृष्टि से देखा करते थे। शेखावाटी में सबसे अधिक परिश्रम और ज़िम्मेदारी का बौझ कुँवर पन्ने सिंह ने उठाया। इस दिन से शेखावाटी के लोगों ने मन ही मन अपना नेता मान लिया। हरलाल सिंह अबतक उनके लेफ्टिनेंट समझे जाते थे। चौधरी घासी राम, कुँवर नेतराम भी


[पृ.6]: उस समय तक इतने प्रसिद्ध नहीं थे। जनता की निगाह उनकी तरफ थी। इस जलसे की समाप्ती पर सीकर के जाटों का एक डेपुटेशन कुँवर पृथ्वी सिंह के नेतृत्व में ठाकुर देशराज से मिला और उनसे ऐसा ही चमत्कार सीकर में करने की प्रार्थना की।

Notable persons

External links

Further reading

For a description of the site read Dasharatha Sharma's paper on 'Narhad' in the Marubharati, VI. part 3, pp. 2-15

References

  1. Dasharatha Sharma: Early Chauhan Dynasties, Towns and Villages of Chauhan Dominions S.No.22.
  2. Encyclopaedia of Jainism, Volume-1 By Indo-European Jain Research Foundation p.5532
  3. Jhabar Mal Sharma: Shekhawati ke nawabi rajya aur unka avasan, marubharati 1/3, page 12
  4. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  5. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  6. Dr Mahendra Singh Arya etc.:Adhunik Jat Itihas, Agra 1998
  7. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  8. Sahiram: Ek adhūrī krānti, Shekhawati kā kisān āndolan (1922-1952), p.8
  9. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  10. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  11. Kunwar Panne Singh: Rankeshari Jujhar Singh
  12. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp. 614-615.
  13. भारतकोश-नरहड़
  14. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.374-378
  15. Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Ek Mahan Balidan,pp.40-43
  16. Annual Report, Rajputana Museum, 1932-33 No. 3, p. 2
  17. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.30
  18. Braj Discovery
  19. ठाकुर देशराज:Jat Jan Sewak, p.1, 4-6
  20. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.410-411

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