Chhoturam/चौ. छोटूराम का हत्यारा कौन? - उत्तरार्ध - पृष्ठ 89 - 176

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चौ. छोटूराम का हत्यारा कौन?


लेखक


हवासिंह सांगवान जाट


उत्तरार्ध - पृष्ठ 89 - 176



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जाट कौम की दशा और दिशा

जाट कौम की वर्तमान दशा और दिशा का आंकलन करना बहुत ही सरल है क्योंकि जाट कौम एक खुली पुस्तक है जो भी इसे पढ़ना चाहे पढ़ सकता है । लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने के लिए ग्रामीण चश्मा लगाना होगा क्योंकि यह ग्रामीण कौम है । यदि हम शहरी चश्मा लगाकर पढ़ेंगे तो पूरी तस्वीर नकारात्मक नजर आएगी । इसलिए हम पहले ग्रामीण चश्मा लगाते हैं और इसके बाद कौम की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक तथा धार्मिक स्थिति की दशा और दिशा का अलग-अलग संक्षेप में आंकलन करते हैं ।


1. भौगोलिक दशा और दिशा - हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि जाट कौम राष्ट्र में एक राष्ट्र है । कोई भी राष्ट्र आसमान में नहीं बनता, वह केवल भूमिमण्डल पर बनता है और वह जब बनता है जब लोगों की भूमण्डल पर अपनी जमीन हो । जिस प्रकार सम्पूर्ण भारतवर्ष राष्ट्र की अपनी जमीन है इसी प्रकार भारत की जमीन पर उत्तर भारत में जाट कौम की अपनी जमीन है । जमीन किसी भी राष्ट्र के निर्माण की पहली आवश्यकता है । इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार उपेन्द्रनाथ शर्मा ने लिखा है - जाट जाति करोड़ों की संख्या में प्रगतिशील उत्पादक और राष्ट्र रक्षक सैनिक के रूप में विशाल भूखण्ड पर बसी हुई है । इनकी उत्पादक भूमि स्वयं एक विशाल राष्ट्र की प्रतीक है । अर्थात् जाटों के पास विशाल भूखण्ड है जो उत्पादन के योग्य है जिसकी रक्षा करने में यह कौम सक्षम है । इसी प्रकार विख्यात इतिहासकार कालिका रंजन कानूनगो लिखते हैं - जाट एक ऐसी जाति है जो इतनी अधिक व्यापक और संख्या की दृष्टि से इतनी अधिक है कि उसे एक राष्ट्र की सुरक्षा प्रदान की जा सकती है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी भी राष्ट्र को बनाने में जमीन, जनता, जमीन की उत्पादकता तथा उसकी सुरक्षा महत्त्वपूर्ण कड़ियां हैं जो जाट कौम के पास भी है । इसलिए जाट कौम


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एक राष्ट्र है जिसकी सार्वभौमिकता इण्डियन सरकार के पास है । उत्तर भारत की 70 प्रतिशत जमीन जाट कौम के पांव तले है इसी कारण केन्द्रीय अनाज भण्डार में जाटों का 80 प्रतिशत योगदान है । लेकिन बड़े अफसोस से लिखना पड़ रहा है कि 1947 के बाद इस जाट राष्ट्र की जमीन बड़ी तेजी से घट रही है जो कोड़ियों के भाव बिक रही है जाट कौम अपनी धरती माता को बेचकर अपना दिवालिया निकालने जा रही है । भारत में जाट जम्मू क्षेत्र के राजौरी पूंछ अर्थात् पाकिस्तानी सीमा से लेकर मध्य प्रदेश के ग्वालियर क्षेत्र तक तथा राजस्थान के बाडमेर के साथ पाकिस्तानी सीमा से लेकर उत्तरांचल के तराई क्षेत्र तक जाटों की बहुतायत है इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश के आठ जिलों, गुजरात के महसाना व आणंद क्षेत्र, महाराष्ट्र के नासिक जिले की आंध्रा के नलगूंडा जिले में तथा मध्य प्रदेश के रतलाम, उज्जैन, खंडवा, नीमच व धार आदि जिलों में कम या अधिक संख्या में जाट इधर-उधर बिखरे पड़े हैं । दिल्ली के चारों ओर लगभग 250 किलोमीटर तक जाटों का गढ़ है जिसे जटलैण्ड, जाट राष्ट्र या जाटिस्थान कहना तर्कसंगत होगा । दिल्ली के पश्चिम में तो 400-450 किलोमीटर तक सघन संख्या में जाट हैं । इस जटलैण्ड में जाट लोग लगभग 35 हजार गांव और कस्बों में फैले हैं । पूरे भारत में जाटों के लगभग 4800 गोत्र हैं तथा 600 खाप पंचायते हैं । भारत में जातिवार जनगणना 1931 के बाद नहीं हुई लेकिन फिर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में कम से कम 5 करोड़ जाट होंगे जो आबादी पूरे संसार में लगभग 170 देशों से अधिक है और जटलैण्ड का क्षेत्र 100 से अधिक देशों से बड़ा है । जाट कौम का आज भी 90 प्रतिशत भाग गांवों में रहकर खेती पर निर्भर है । सन् 1941 से जातिवार जनगणना इसलिए नहीं हुई कि उस समय से ब्रिटिश सरकार पर कांग्रेस प्रभाव बढ़ गया था । दूसरा विश्वयुद्ध था और उसके बाद कांग्रेस स्वयं भी सत्ता में आई और वह जानबूझकर सत्ताधारियों की जनसंख्या जो 12 प्रतिशत से भी कम है, को छिपाकर रखना चाहती


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थी अर्थात् कांग्रेस ने कभी नहीं चाहा कि भारतवर्ष के लोगों को यह सच्चाई मालूम हो कि 12 प्रतिशत लोग 88 प्रतिशत लोगों पर राज करते आ रहे हैं । जब कांग्रेस में गैर-सवर्ण जातियों की संख्या बढ़ी और विपक्षी पार्टियों ने इसकी मांग उठाई तो इसे मानने की संभावना बढ़ी जिसका हम तहेदिल से स्वागत करते हैं ।


याद रहे चौ० छाजूराम नहीं होते तो चौ० छोटूराम नहीं होते, यदि चौ० छोटूराम नहीं होते तो इस राष्ट्र में जाट राष्ट्र नहीं होता, क्योंकि जमीन हमारी नहीं होती ।


2. आर्थिक दशा और दिशा - यह स्पष्ट है कि आज जो लोग खेती पर निर्भर हैं वे गरीबी में जीते हैं जिसके कारण भी बड़े स्पष्ट हैं कि किसान की लागत बढ़ती चली गई लेकिन उसके अनुपात में अनाज के भाव न के बराबर बढ़े । सिंचाई के लिए पानी तथा जमीन की उर्वरता तेजी से घटती चली गई और जोत की जमीन परिवार बढ़ने से घटती चली गई । वर्तमान में 80 प्रतिशत जोत 5 एकड़ से भी कम रह गई है । जो जाट आज केवल खेती पर निर्भर हैं और परिवार में कोई रोजगार नहीं उनका जीना दूभर है इसलिए 90 प्रतिशत जाट का भविष्य अंधकारमय है ।


सन् 1947 तक लगभग पूरा जाट समाज गांव में रहकर खेती पर निर्भर था जिसमें गिनती के ही सूदखोर थे । उसके बाद आज तक लगभग 10 प्रतिशत जाट, शहरों और कस्बों में आए जिनमें कुछ जाटों के बड़े गांव कस्बों में भी तब्दील हो गए । इन 10 प्रतिशत जाटों को सेमी-अर्बन जाट कहा जा सकता है जिनमें से 4 प्रतिशत करोड़पति या अरबपति हैं । शेष में से 4 प्रतिशत जाट शहरों में साधन सम्पन्न हैं । देखने में इनके पास कोठी व कार आदि हैं और धनाढ्य लगते हैं लेकिन वास्तव में हैं नहीं । शेष 2 प्रतिशत जाट ‘हैंड टू माऊथ’ हैं अर्थात् जो कमाते हैं वो खा लेते हैं । 8 प्रतिशत इन सेमी अर्बन जाटों ने ही जाटों की छवि बनाई है तो बिगाड़ी भी है । बनाई इसलिए कि कोई भी कह सकता है कि आज जाट किसी से कम नहीं लेकिन


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बिगाड़ी इसलिए कि कह दिया जाता है कि आज जाट कौम के पास क्या कमी है ? जबकि वास्तव में 90 प्रतिशत जाट पूर्णतया कमी के शिकार हैं और गांवों में रहने वाले हैं । 90 प्रतिशत जाटों में से 40 प्रतिशत जाटों की आर्थिक हालत गांवों के दलित परिवारों से भी बदतर है जहां न खाने पहनने यहां तक कि घरों में ढंग के बर्तन और बिस्तर भी नहीं हैं । बस वे इस बात पर जिंदा है कि वे स्वयं के मजदूर हैं दूसरों के नहीं जबकि स्थिति इससे भी बदतर है । पश्चिमी राजस्थान के कुछ जाट दूसरों की मजदूरी पर निर्भर हैं तो मध्यप्रदेश, बिहार व आन्ध्र प्रदेश के जाट तो मजदूर बनकर रह गए हैं लेकिन संतोष यह है कि इनकी सामाजिक व्यवस्था और इनमें जाट जज्बा अभी तक कायम है । गांवों में रहने वाले लगभग 80 प्रतिशत जाट कर्जवान हैं । निजीकरण के कारण सभी सुविधाएं महंगी होती जा रही हैं जो धीरे-धीरे गांवों के जाट की पहुंच से दूर होती जा रही हैं । शहरीकरण के कारण सभी सुविधाएं शहरों में सिमट गई तो भी जाट अपने संतोषी स्वभाव के कारण कह देता है कि आजकल गांवों में सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है । जो जाट गांव छोड़कर शहरों में चले गए उन का 80 प्रतिशत विकास हुआ और जो गांवों में पहले आर्थिक सुदृढ़ थे उनका विनाश हुआ । लेकिन शहरों में जो 10 प्रतिशत गए उनमें से 2 प्रतिशत का सामाजिक पतन हुआ क्योंकि इनके बच्चों ने जाटों की सामाजिक व्यवस्था को बिल्कुल भी न जानने के कारण जब चाहा किसी से विवाह सम्बन्ध बनाये क्योंकि इन जाटों ने अपने जाट संस्कार अपनी संतानों को नहीं दिए । इस कारण सेमी अर्बन जाटों में कौमी जज्बा बड़ी तेजी से घट रहा है ।


हरयाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व जम्मू क्षेत्र के जाटों के पास गाड़ियों व ट्रैक्टरों की भरमार है । (जम्मू क्षेत्र के जाटों के पास ट्रैक्टर बहुत कम हैं) लेकिन अधिकतर लोन पर हैं जो इनकी अदायगी के लिए जूझते रहते हैं । गांव के खाने का स्तर गिर रहा है । फल-फ्रूट इनके यहां प्रायः ही इस्तेमाल होता है लेकिन शराब पीने


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का स्तर बढ़ता जा रहा है । लेकिन फिर भी गांव के 5 प्रतिशत लोग आज भी शराब पीना नहीं जानते । अभागा अध्याय यह है कि जिस जाट की जितनी कम आमदनी है उसी अनुपात में शराब की खपत उतनी ही अधिक है । खुशी का कोई भी अवसर हो शराब के बगैर पूरा नहीं होता । जाट कौम हर साल कई खरबों रुपये का खाद्य उत्पादन करती है लेकिन उसे उसकी कमाई का एक तिहाई हिस्सा भी नहीं मिल पाता । जाट उत्पादक और उपभोक्ता के बीच दलाल और बिचौलियों आदि के द्वारा लाभ का दो भाग खा लिया जाता है । इसलिए जाट किसान की आर्थिक हालत सुधरने के कोई आसार नजर नहीं आते । दूसरा, बेरोजगारी भी जाट कौम के पीछे पड़ी है ।


इस समस्या का एक हल था और वह आज भी है लेकिन वह धीरे-धीरे जाट के हाथ से निकलता जा रहा है क्योंकि शहरी भूमि व मकान की कीमत आसमान छूने लगी है । वह हल था कि सन् 47 के बाद आज तक कम से कम जाटों का आधा हिस्सा शहरों में आ जाना चाहिए था जिसके कम से कम दो मुख्य फायदे थे । जिसमें पहला है कि गांव में दूसरे रोजगार बहुत कम हैं और यदि हैं तो भी जाट सामाजिक दबाव के कारण उन्हें खुलकर अपना नहीं पाता जबकि शहरों में आदमी कोई भी काम ढूंढ सकता है । इसलिए अंग्रेजी में कहा जाता है Survival of the Fittest. दूसरा, साथ-साथ शहरों में संचित सुविधाओं का भी लाभ उठाता है । तीसरा मुख्य फायदा है कि शहरों में देश की सत्ता रहती है इसलिए जाटों का नगरपालिकाओं पर कब्जा होना निश्चित था और इसी के साथ-साथ एक सेमी-अर्बन जाट समाज की स्थापना हो जाती क्योंकि वर्तमान में शहरों में 10 प्रतिशत जाट होने के कारण उनकी सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न है । ये दूसरों के बहकावे में आते हैं क्योंकि दूसरे उन्हें अच्छा जाट कहकर उनके सामने गांव के जाट को गंवार कहते हैं जिसे सुनकर यह लोग खुश होते हैं ।


जाटों का अधिक हिस्सा शहरों में नहीं आने का कारण पूरा


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दबाव गांव की जमीन पर आ गया । जाट कौम समानता के सिद्धान्त पर आधारित रही है लेकिन जब कुछ परिवारों ने शिक्षा व आर्थिक तरक्की की तो उनकी आपसी समानता टूटने लगी जिससे जाट कौम में जलन का प्रकोप बढ़ा और जाट आपस में भी बेईमानी करने लगे तो गांवों में आपसी भाईचारा भी ढहने लगा और आपसी मारामारी शुरू हो गई । इसी के साथ-साथ जाट कौम का वर्गीकरण होने लगा तो जाट समाज में आपसी द्वेषभाव बढ़ने लगा । लेकिन फिर भी जाटों के गांवों में आपसी खूनी लगाव तथा गांव का खुला वातावरण जाटों को शहरों में जाने से रोकता रहा, वहीं दूसरी ओर शहरों का खर्चीला जीवन जाटों को डराता रहा इसलिए वे गांव समाज से बंधे रहे और Exposure में बुरी तरह से पिछड़ गए ।


आज किसी भी देश व समाज की दशा और दिशा निर्धारित करने में आर्थिक पहलू सबसे महत्त्वपूर्ण है इसलिए जाट समाज की आर्थिक दशा और दिशा को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता बल्कि सच कहा जाये तो गांव के जाटों की दशा दयनीय तथा दिशाहीन है।


3. सामाजिक दशा और दिशा - जाट कौम सदियों से अपनी सामाजिक व्यवस्था पर गर्व करती आई है क्योंकि जाटों की सामाजिक व्यवस्था भारत ही नहीं संसार की सबसे सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था रही है जिसका आधार गांव, जमीन, गौत्र व खाप व्यवस्था पर आधारित थी जो एक बहुत संगठित सुरक्षाचक्र भी प्रदान करती थी । इनका भाईचारा बड़ा सुदृढ़ रहा, इनकी एकता और रक्तसम्बन्धीय बन्धनों से बनी एकता के जज्बे से बाहरी आक्रमणकारी भी खौफ खाते रहे और पूरे भारत में मुख्य रूप से केवल जाट कौम ही ऐसी थी जिन्होंने बाहरी आक्रमणकारियों के साथ मुकाबला किया । जाट राजाओं की प्राचीन धरोहर संघ प्रणाली और सर्वखाप व्यवस्था से ही आधुनिक प्रजातन्त्र का जन्म हुआ । यही सर्वखाप आगे खापों, पालों, तपों, कनियों, गांवों, मोहल्लों, ठोल्लों तथा खानदानों तक संगठित थी । जाटों की इस व्यवस्था के कारण साथी दूसरी अन्य जातियां भी


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इन खापों से बंधी रही । देश आजाद होने के बाद जब जातियां अपनी-अपनी जाति के संगठन और सत्ता की रस्साकस्सी में उलझ गई तो लगने लगा कि सर्वखाप और खाप केवल जाट कौम की ही है । दूसरा कारण इन खाप क्षेत्रों में जाटों की बहुतायत है, इन्हीं कारणों से दूसरे लोग यह जानने लगे कि खाप व्यवस्था जाटों की अपनी व्यवस्था है । यह खाप व्यवस्था गौत्र और गुहांड़ पर आधारित थी । इस बात को पण्डित नेहरू भी अच्छी तरह जानते थे इसलिए उन्होंने सन् 1955 में कुछ कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बावजूद हिन्दू विवाह कानून को संसद में पास करवाया जिसमें गौत्र की कोई व्यवस्था न करके समगौत्र विवाह की अनुमति दी गई । क्योंकि गौत्र प्रथा और खाप प्रथा एक दूसरे की पूरक हैं इसलिए यह विवाह कानून जाटों की प्रथा एवं व्यवस्थाओं को समाप्त करने का एक षड्यन्त्र है ।


अभी ऑनर किलिंग के नाम पर मीडिया व अन्य लोगों ने जाटों की इस व्यवस्था पर बड़ा सुनियोजित तरीके से हमला बोला जबकि सभी जानते हैं कि जाट कौम भारत में ही नहीं संसार में सबसे बड़ी शाकाहारी कौम है जो जीव हत्या में बिल्कुल विश्वास नहीं रखती और केवल अपने दुश्मन की हत्या में विश्वास रखती है । तो फिर किन कारणों से जाटों ने इन प्रथाओं को न मानने वाले अपने लड़के-लड़कियों की हत्या करनी शुरू की जिन्हें वे अपना दुश्मन मानने लगे, इस पर आज तक किसी मीडिया या दूसरे लोगों ने जानने का प्रयत्न नहीं किया । जाट कौम को बदनाम करने के लिए इसके साथ-साथ जाटों की छवि को धूमिल करने के लिए “न आना इस देश लाडो” जैसे टी.वी. सीरियल बनाने शुरू कर दिये जिसमें चरित्र के नाम से जाटों के गौत्र सांगवान को चुना गया । यदि ऐसा नहीं था तो फिर इसमें दूसरे चरित्र गांधी, नेहरू, मिश्रा, साहनी या मल्होत्रा आदि को क्यों नहीं चुना गया ? इस सीरियल की निर्माता एकता कपूर ने अपने कपूर खानदान का नाम क्यों नहीं चुना ? लेकिन फिर भी जाट कौम अपने संतोषी स्वभाव के कारण आज तक यह सब कुछ


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सहन करती आई है।


इसके साथ-साथ पंजाबी, आर्यसमाजी या कुछ जाट कामरेड भी अपनी प्रसिद्धि के लिए इनके साथ हो लिए । पंजाबी आर्यसमाजी तो जाटों के भगौड़े लड़के-लड़कियों की अपने आर्य समाज मन्दिरों में इसी षड्यन्त्र के तहत शादियां करवाते हैं लेकिन इससे जाट कामरेड भाइयों को क्या मिलने वाला है? आज के टी.वी. चैनलों जाटों की इस व्यवस्था को तोड़ने के लिए बड़ी भूमिका निभा रहे हैं, आधुनिकता के नाम पर इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के प्रयास जोरों पर हैं । लेकिन कुछ समझदार जाट कौम के लोग इस षड्यन्त्र को समझने लगे हैं और इसे पटकनी देने के लिए अपना संघर्ष शुरू कर दिया है और आशा है कि जाट कौम अपने इस प्रयास में सफल होगी ।


कुछ गलत फैसले हम जाटों से हुए हैं लेकिन गलत फैसले तो न्यायालयों के न्यायधीश भी कर रहे हैं । जब एक न्यायधीश किसी को फांसी की सजा देता है तो दूसरा न्यायाधीश उसी केस की अपील पर उसे उम्र कैद में बदल देता है या बरी कर देता है अर्थात् इनमें से कोई एक गलत फैसला देता है । इस बात को मानना होगा । जाटों की सबसे बड़ी भूल यही है कि जाटों ने अपनी परम्पराओं को अपनी अगली पीढ़ी तक अच्छे तरीके से नहीं पहुंचाया जिसके लिए समय आ गया है कि जाट आचार संहिता बनाई जाए तथा जाट खापों के नियमों में भी समयानुसार कुछ परिवर्तन हो । निम्नलिखित जाट आचार संहिता का सुझाव दिया जाता है -


  • 1. किसी भी कीमत पर अपने गौत्र में विवाह की अनुमति नहीं होगी ।


  • 2. विवाह के रिश्ते के लिए कम से कम दो गौत्र (अपना और अपनी मां का गौत्र) अवश्य छोड़ा जाएगा ।


  • 3. अपने गांवों में तथा लगती सीमाओं के गांव में रिश्ता नहीं किया जाएगा ।


  • 4. अपनी खाप के गांव में रिश्ता नहीं होगा ।

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4. राजनैतिक दिशा और दशा - जाट कौम में जगमगाता हुआ एक राजनीतिक सितारा चौ० छोटूराम था जिनकी विचारधारा को न तो हम पूर्णतया समझ पाए और न ही उसे बचा पाए। चौ० चरणसिंह, सरदार प्रतापसिंह कैरों, चौ० बलदेवराम मिर्धा और चौ० देवीलाल आदि सभी पहले काफी समय तक कांग्रेसी विचारधारा से बंधे हुए थे । चौ० चरणसिंह तो बार-बार गांधीवादी विचारधारा का उल्लेख करते रहते थे । लेकिन चौ० चरणसिंह और चौ० देवीलाल के कारण जाट कौम में फिर से एक सत्ता की इच्छाशक्ति अवश्य पैदा हुई । लेकिन वे न तो स्वयं की कोई विचारधारा पैदा कर पाए और न ही चौ० छोटूराम की विचारधारा को अपना पाए । चौ० चरणसिंह ने अपना पूरा जीवन इस बात को सिद्ध करने में बिता दिया कि वे जाति-पांति के विरोधी हैं और गांधी दर्शन में विश्वास रखते हैं । उसके बाद जो भी जाट मुख्यमन्त्री होते हुए सत्ता के गलियारे में आए वे एक मैनेजर बन कर रह गए या ‘दिल्ली गद्दी’ की मेहरबानी पर जीवित रहे । इनको मैनेजर इसलिए कहा गया कि ये दूसरी जातियों के वोटों को मैनेज करने तक रह गए और इन्होंने आज तक जाटों की ताकत को जानने का प्रयास नहीं किया इसलिए इनका मैनेजमेंट बोट और नोट तक सीमित रहा । इसके बाद यह जाट नेता अपने-अपने खानदानों को राजनीतिक तौर पर जीवित रखने तथा उन्हें आगे बढ़ाने के तौर तरीके ढूंढते रहे । कहने का अर्थ है कि अपने खानदान परस्ती हो गए । इनको कौम की चिन्ता न रहकर दूसरे लोगों के वोट की चिन्ता और अपने खानदान की राजनीति की चिन्ता ही रहने लगी । वरना इनका कर्त्तव्य था कि बहुत पहले ही हिन्दू विवाह कानून में संशोधन और जाट कौम के लिए आरक्षण के संघर्ष की कमान संभालते । यह जाट कौम का बड़ा दुर्भाग्य है । राजनीति की जागरूकता प्रजातन्त्र में आवश्यक है लेकिन यह जागरूकता पागलपन तक नहीं होनी चाहिए । विशेषकर हरयाणा में जाटों में तो यही हो रहा है । वे मरने मारने को तैयार रहते हैं । युवा बेकार के पदों के लिए उतावले


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रहते हैं ।


इन वर्षों में यह अवश्य हुआ कि हरयाणा और पंजाब के जाट में इतनी जागृति अवश्य आई है कि वे सोचने लगे कि इन राज्यों के मुख्यमन्त्री जाट ही होने चाहिएं । राजस्थान में एक करोड़ से भी अधिक जाट तथा हर बार लगभग 40 विधायक जाट होते हुए भी इनमें सत्ता की इच्छा शक्ति का अभाव रहा और आपसी स्वार्थों में ही उलझकर रह जाते हैं जबकि सुखाडिया व शिवचरण माथुर जैसे अपनी जाति से एक या दो विधायक होकर भी बार-बार मुख्यमन्त्री बनते रहे । अशोक गहलोत की अपनी माली जाति के केवल तीन विधायक होने पर भी वे दूसरी बार मुख्यमन्त्री बन गए । एक बार अवश्य वसुन्धरा राजे सिंधिया जिसने धौलपुर के जाट राजकुमार से शादी की, राजस्थान की मुख्यमन्त्री बनी ।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्वयं में एक जटलैण्ड है लेकिन यहां के लगभग 75 लाख जाट उत्तर प्रदेश की लगभग 17 करोड़ जनता के बीच फंसे हुए हैं और अपना मुख्यमन्त्री बनाने के लिए लाचार हैं जिनके लिए भविष्य में एक ही रास्ता है कि वे उत्तर प्रदेश में पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हरित प्रदेश का निर्माण करें इसी प्रकार राजस्थान के जाटों को भी सत्ता के लिए सरल रास्ता ढूंढने के लिए राजस्थान के 12 जिलों को मिलाकर ‘मरूप्रदेश’ राज्य का निर्माण का रास्ता ढूंढना होगा ।


दिल्ली का 14-15 लाख जाट हर दिन इस देश में भारत की राजधानी दिल्ली में एक अलग से ‘मिनी इण्डिया’ का सामना करता रहता है और जूझता रहता है जहां दिल्ली की राज्य सरकार में एक मंत्री भी बनाना भारी पड़ रहा है । इन जाटों को अधिक संगठित होकर सत्ता में हिस्सेदारी के रास्ते तलाशने होंगे । मध्यप्रदेश, जम्मू-कश्मीर व गुजरात में लगभग हर बार राज्य सरकार में एक न एक जाट मंत्री बनता रहा है लेकिन फिर भी यहां के जाट अपनी स्पष्ट छाप छोड़ने में अभी तक पीछे है ।


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हिमाचल का जाट दो विधायक तक बनाने के वोट रखता है लेकिन वे सभी वोट लगभग 8 जिलों में बिखरे पड़े हैं । इसलिए हिमाचल बनने से आज तक केवल एक बार चौ० मंजीत सिंह डोगरा को ही विधायक बना पाए । जम्मू क्षेत्र व हिमालच प्रदेश के जाटों का सबसे बड़ा बड़प्पन यह है कि यहां पर हिन्दू और सिख जाट एकता कायम है और आपस में खुले मन से रिश्ते करते हैं इसलिए हर बार जम्मू क्षेत्र से कभी हिन्दू जाट तो कभी सिख जाट सरकार में मंत्री अवश्य रहता है । जैसे कि पिछली बार चौ० गारूराम मंत्री थे तो वर्तमान में विजयनगर से विधायक मंजीत सिंह बाजवा मंत्री हैं ।


बिहार में जाट एक ही क्षेत्र में होते तो वे दो विधायक तक बना सकते थे । लेकिन ये लगभग 10 जिलों में बिखरे पड़े हैं इसलिए हमेशा सत्ता विहीन रहते हैं । इनको राजनीतिक पार्टियों से सौदाबाजी करके कम से कम एक विधायक बनाना चाहिए । आंध्र प्रदेश तथा महाराष्ट्र का जाट कोई विधायक बनाने की स्थिति में नहीं है । लेकिन संगठित होकर किसी भी स्तर पर सत्ता में अपनी भागीदारी करनी चाहिए । प्रजातन्त्र में Pressure Group ही सबसे बड़ा हथियार होता है और जाट कौम को इस हथियार का इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए ।


जाट कौम का सबसे बड़ा कमजोर पक्ष अपनी कौम की ताकत को नहीं जानना है । उत्तरी भारत में 65 जाट बाहुल्य संसदीय क्षेत्र हैं लेकिन वर्तमान में कुल 23 जाट सांसद हैं । अर्थात् अपनी ताकत का लगभग एक-तिहाई । जिस दिन 60 भी सांसद हो गए चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, तो दिल्ली की गद्दी जाटों से दूर नहीं होगी ।


यह सब अपनी ताकत न जानने के कारण हो रहा है जिसके पीछे जाटों का संतोषी स्वभाव दोषी है । इसके लिए मैं एक उदाहरण हरयाणा का दे रहा हूं । हरयाणा में 90 विधायक क्षेत्र हैं जिनमें से 56 जाट बाहुल्य हैं लेकिन वर्तमान में कुल 27 जाट विधायक हैं । जाटों ने 15 जाट बाहुल्य विधायक क्षेत्र दूसरी जातियों को दे रखे हैं


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तो 14 जाट बहुल क्षेत्र 17 आरक्षित क्षेत्रों में फंसे हैं । लेकिन जाट इन 14 क्षेत्रों के लिए भी दलित जातियों से कोई राजनैतिक सौदाबाजी नहीं करते और 15 क्षेत्र दूसरी जातियों को किस खैरात में दे रखे हैं, यह समझ से बाहर है । इसी प्रकार करनाल संसदीय क्षेत्र शुरू से ही ब्राह्मण जाति के लिए आरक्षित समझ रखा है जबकि वहां पर जाटों की वोट ब्राह्मणों से अधिक है । लेकिन पता नहीं जाटों ने इसे दान या खैरात के तौर पर समझ रखा है । इसलिए समय आ गया है कि जाट कौम अपनी जागरूकता बढ़ाए और संतोषी भाव त्याग दे । यही चौ० छोटूराम की विचारधारा थी । उसके बाद जाटों की राजनैतिक दशा और दिशा पटरी पर आयेगी।


5. शिक्षण दशा और दिशा- सन् 1947 से पहले जाट कौम में गिने-चुने शिक्षित थे जिनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती थी । देश में शहरी उच्च जातियां ही पढ़ी लिखी होती थी जिसमें ब्राह्मण और कायस्थ की हौड़ थी और आजादी के बाद ब्राह्मण कायस्थ से आगे निकल गया (नेहरू के कारण) । पश्चिमी पंजाब के जाटों ने लाहौर एक विश्वविद्यालय तथा शिक्षा केन्द्र होने के कारण उन्नति की । शेष संयुक्त पंजाब या इसके इर्द-गिर्द जाट क्षेत्र में चौ० छोटूराम की विचारधारा ने अपना रंग दिखाया जिसकी वजह से जाटों में शिक्षा के प्रति रुझान हुआ लेकिन उनका अधिक प्रभाव रोहतक क्षेत्र तक ही सीमित रहा जिसमें सोनीपत तहसील सर्वोपरि थी। राजस्थान के जाटों में शिक्षा का रूझान होने में चौ० बलदेवराव मिर्धा तथा बाद में स्वामी केशवानन्द का बड़ा योगदान रहा लेकिन फिर भी सन् 47 के बाद सम्पूर्ण जाट क्षेत्र में शिक्षा का प्रचार बढ़ा और गांव में पढ़े जाटों के बच्चे ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुंचे जिस कारण आज हर क्षेत्र में जाट कौम की उपस्थिति देख रहे हैं । पंजाब का मांझा और दोआबा क्षेत्र अग्रणी रहा लेकिन राजस्थान का दूर दराज का जाट क्षेत्र बहुत पिछड़ा रह गया । उत्तर प्रदेश के जाट की शिक्षा का स्तर संतोषजनक रहा लेकिन हरयाणा का उत्तर पश्चिम क्षेत्र और पंजाब


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का मालवा क्षेत्र अधिक जमीन और सिंचाई का पानी होने के कारण शिक्षा में बहुत पिछड़ गया । लेकिन इन सभी के बावजूद आज आपको हर जगह विश्वविद्यालयों में कुलपति व दूसरी संस्थाओं के मुखिया जाट नजर आ जाएंगे लेकिन यह स्थिति जाटों की जनसंख्या के अनुपात से संतोषजनक नहीं है । सिविल सर्विसज के आंकड़े कह रहे हैं कि सन् 1990 में जाटों की भागीदारी एकदम पिछड़ी हुई थी । उस समय केवल 13 डायरेक्ट आई.ए.एस. हिन्दू जाट तथा 31 सिख जाट थे । मुसलमान जाट नगण्य था जबकि ब्राह्मण 675, कायस्थ 353, बणिया 228, अरोड़ा खत्री पंजाबी 204 थे । इसलिए जाटों की इस स्थिति को किसी प्रकार से संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है क्योंकि यही अधिकारी सत्ता की धुरी होते हैं ।


इसमें कोई दूसरी राय नहीं कि गांव में पढ़ने वाले जाट भी ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुंचे हैं और भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा लेकिन भविष्य में यह केवल अपवाद होगा । यह भी याद रहे कि गांवों में पढ़ने वालों को भी 8वीं या 10वीं पास करने के बाद आगे की शिक्षा के लिए शहरों में ही जाना पड़ा जिस कारण उनको अधिक संघर्ष करना पड़ा था और भविष्य में भी ऐसा होता रहेगा । लेकिन 1991 के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण हुआ जिस कारण सरकारी स्कूलों का पतन होने लगा और प्राईवेट स्कूलों की बाढ़ आ गई और इस प्रकार शिक्षा और स्वास्थ्य व्यापार बनने लगे और व्यापार में जीत हमेशा पैसे वालों की होती हैं जो बाजार में महंगी से महंगी वस्तुएं खरीद सकता है । लेकिन गांव में रहने वाला 90 प्रतिशत जाट इस महंगी शिक्षा को खरीदने में पिछड़ने लगा और समय यह आ गया है कि गांव के जाटों के बच्चे प्रतिस्पर्धा में शहरी बच्चों से पिछड़ने लगे जो कि स्वाभाविक हैं हालांकि ग्रामीण क्षेत्रा में भी प्राईवेट स्कूलों की बाढ़ आई चाहे उनमें पाठ्यक्रम शहरी संस्थाओं जैसा हो लेकिन ग्रामीण शिक्षा स्तर शहरी स्तर के पास कही भी नहीं ठहर पाया है । इसलिए ग्रामीण शिक्षाओं से पढ़े-लिखे बच्चों को भी


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दिल्ली आदि और बड़े शहरों में जाना पड़ रहा है । वैसे कहने को हमेशा 2+2 = 4 ही होते हैं लेकिन शहरी संस्थाओं में बच्चों को जो एक्सपोजर मिलता है और बच्चों के व्यक्तिगत का जो विकास होता है ग्रामीण क्षेत्र में उसकी कल्पना करना भी संभव नहीं । आज तकनीकी शिक्षा सर्वोपरि है जिसमें ग्रामीण बच्चों की भागीदारी नगण्य है। पंजाब राज्य के सन् 2009 के सरकारी आंकड़े कह रहे हैं कि तकनीकी शिक्षा में गांव के बच्चों की भागीदारी मात्रा 2.4 प्रतिशत है । जबकि पंजाब एक सम्पन्न राज्य माना जाता हैं और इन गांवों में जैसे कि ऊपर लिखा है, कि केवल 10 प्रतिशत ही जाट शहरों में पहुंच पाए हैं और उन्हीं के बच्चे अधिकतर तकनीकी शिक्षा में हिस्सेदारी कर पाए । बाकी जाटों के नहीं । इस सभी का जायजा गुड़गांवा, फरीदाबाद, दिल्ली व नोएड़ा में स्थापित प्राईवेट कम्पनियों में देखकर बड़ा आसानी से लगाया जा सकता है जहां पर ब्राह्मण, बणिया, कायस्थ, अरोड़ा, खत्री और सिंधी बच्चे अधिक हैं इसके अलावा बिहार, बंगाल, उड़ीसा और केरल के बच्चे ही आपको नजर आएंगे, जाटों का कोई भी औसत नहीं है ।


शिक्षा आज किसी भी समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है जिसमें गांव का जाट बहुत बुरी तरह पिछड़ रहा है । जाटों को शिक्षा में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी है तो अपनी वाहियात का खर्चा समाप्त करके अपनी पूरी ताकत शिक्षा पर लगानी होगी, विशेष तौर पर तकनीकी शिक्षा पर । इसके अतिरिक्त आर्मी में अफसरी के इच्छुक जाट बच्चों को एन.एस.सी. पर ध्यान देना होगा । इसके अतिरिक्त खेल क्षेत्र में जाटों के बच्चों की अपार संभावनाएं हैं ।


जाटों के संगठनों ने तथा जो शिक्षित भाई विभिन्न सेवाओं से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, उनको गांवों में जाकर प्रचार करने का बीड़ा उठाना होगा ताकि जाटों की शिक्षा की दिशा और दशा पटरी पर आ सके ।


6. धार्मिक दशा और दिशा - इक्कीसवीं सदी में भी भारत


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में हिन्दू धर्म उद्योग सबसे बड़ा उद्योग है । इस उद्योग के कारखाने विशाल धाम आश्रम और मन्दिर हैं जिनकी गिनती इस समय भारत में 25 लाख है जिनमें एक या इससे अधिक पुजारी हैं जिनके परिवारों की कुल संख्या औसतन एक करोड़ तीन लाख है । इन मन्दिरों की औसतन कमाई प्रतिदिन 15 करोड़ रुपये है जिसका मुख्य हिस्सा इन्हीं पुजारियों की जेबों में जाकर इनके परिवारों को फलने-फूलने का मौका दे रहा है । इसके अतिरिक्त लगभग 80 लाख भगवा बाबे तथा नागे बाबे आदि जो इसी उद्योग के कारण इस देश पर बोझ बने हुए हैं और इन्हीं के कारण भांग और गांझे का एक बहुत बड़ा धंधा कायम है । इसके अतिरिक्त आज तक भी हजारों देवदासियां पल रही हैं जो सब मिलकर इस देश को थोथा कर रही हैं और यही देशवासी इनके पैर छूने को मजबूर हैं । इससे भी आश्चर्यजनक बात है कि इस सभी तामझाम की सुरक्षा में इस देश की कमाई का अरबों रुपया खर्च हो रहा है ।


जाट कौम प्रकृति की पूजा और बौद्ध धर्म को मानने वाली रही है लेकिन जाट लोग कब और कैसे अपने को हिन्दू कहने लग गए यह एक अलग विषय है । इन धर्म के ठेकेदारों ने हमेशा आज तक जाटों के साथ जितनी भी गद्दारियां हुई, वे करने वाले इसी धर्म के अनुयायी थे लेकिन फिर भी जाट कौम अनसमझी में इनके प्रभाव में आकर अन्धविश्वास में लिपटे हैं । उसी के परिणामस्वरूप आज जाट कौम के प्रति वर्ष 8-9 लाख जाट कांवड़ ढोने में जुटे है और इनकी संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है । जिसमें प्रति कांवड़िया चार से पांच हजार तक का खर्च आता है । गंगा में मृतकों का पिंडदान करने वाले जाटों की प्रतिदिन 2 से 3 हजार की उपस्थिति रहती है जिसमें प्रति मृतक पर लगभग 2000 का औसतन खर्च होता है। इसके अतिरिक्त मृत्यु भोज, भंडारे, सवामणि, हवनों पर ब्राह्मणों की दक्षिणा और जागरणों आदि पर जाटों का प्रतिवर्ष अरबों रुपया खर्च हो रहा है । पैसे से निठल्ला बेईमान और पाखंडी वर्ग फल फूल रहा है । इसके


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साथ-साथ गांवों में पानावार मन्दिर बनाने की होड़ लगी हुई है । एक अनुमान के अनुसार केवल हरियाणा क्षेत्र में 20 सालों में जाटों ने 12 हजार मन्दिर बनवा दिए अर्थात् दूसरों को रोजगारी का जाट बन्दोबस्त करते हैं जबकि खुद के बच्चे सड़क पर हैं । दूसरी ओर भ्रूण हत्या और बेरोजगारी के कारण काफी जाट दुल्हनों की तलाश में रहते हैं जिसके लिए दूर-दराज राज्यों से दुल्हन खरीद कर लानी पड़ रही है । एक अनुमान के अनुसार अभी तक केवल हरियाणा में ही 30 हजार खरीदी हुई दुल्हनें आ चुकी हैं जिनमें कुछ बंगलादेशी भी हैं । एक दुल्हन पर औसतन 50 हजार खर्च आता है अर्थात् जाट कौम का 15 करोड़ रुपया प्रतिवर्ष केवल हरियाणा में इस खरीददारी में खर्च हो रहा है ।


कुछ जाट सस्ते भाव के कारण लंगड़ी, लूली दुल्हनें भी ला रहे हैं जिसका प्रभाव आने वाले समय में जाटों की नस्ल पर बहुत बुरी तरह से पड़ने जा रहा है जिसके लिए जरूरी है कि जाट कौम भ्रूण हत्या बंद करे और अपने रोजगार के लिए आरक्षण की लड़ाई लड़े । इस प्रकार हम देखते हैं कि जाटों का अंधविश्वास और बिना किसी सोच के कारण प्रतिवर्ष कई अरबों रुपया तबाह हो रहा है । एक अनुमान के अनुसार जाट कौम इस पैसे से भारतवर्ष की सभी अर्धसैनिक बलों को वेतन, राशन, पानी और हथियार प्रदान करवा सकती है । यदि जाट को सद्‍बुद्धि आ जाए तो इसी पैसे से उनके बच्चों के शिक्षा के सुधार में आमूलचूल परिवर्तन आ सकता है और जाट शिक्षा को चार चांद लग जाए ।


जाट कौम स्वभाव से कर्मयोगी है इसलिए उसे कोई ना कोई काम चाहिए । पाखंडी लोगों ने सम्पूर्ण कौम को धर्म के नाम पर एक काम और दे दिया जिन्होंने पहले दान में गाय ली फिर दूध पीकर सड़क पर छोड़ दिया और फिर उसी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी जाटों को दे दी । इसलिए बेचारा जाट गऊशाला बनाने में जुटा है या फिर इसके लिए तूड़ा ढोने में या फिर ट्रकों में लदी गायों का पीछा


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करते-करते अपनी जान दे रहा है । जबकि यह कार्य गाय दान लेने वाले का है या धार्मिक संगठनों को करना चाहिए, जाटों को नहीं । जिन्होंने हमेशा मांगने के लिए हाथ फैलाया उन्हें कभी देने वाला भी तो बनना चाहिए ।


आज जाट कौम का धर्म के नाम से शोषण हो रहा है और वह भी उस धर्म के लिए जो जाट का कभी धर्म था ही नहीं । हमारे पूर्वजों ने हमेशा गरुड़ पुराण व स्कन्द पुराण आदि पोंगा पंथी ग्रन्थों का विरोध किया । इसी कारण इन लोगों ने इन्हीं ग्रंथों के आधार पर सन् 1932 में जाट कौम को लाहौर हाईकोर्ट से शूद्र घोषित करवाया तथा हम बावले जाट फिर भी उन्हीं पाखण्डी एवं धूर्त लोगों की जी-हजूरी कर रहे हैं तथा ‘दादा पां लागां’ कहते हैं ।


याद रहे, चाहे इतिहास ने औरंगजेब को कितना ही बदनाम किया हो लेकिन जाट कभी भी किसी दबाव में मुसलमान नहीं बना । यदि ऐसा होता तो बनिया और कायस्थ सबसे पहले मुसलमान बनते तथा दिल्ली के सभी जाट आज मुसलमान होते । इसका कारण तो केवल ब्राह्मणवाद और पाखण्डवाद था जिसका स्पष्ट उदाहरण सिंध का है । इसलिए जाट कौम को धर्म के नाम पर इस पाखण्डवाद को समझने की आवश्यकता है ।


हिन्दुओं के संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् व बजरंग दल वालों से जाट कौम का कोई लेना-देना नहीं है और न ही होना चाहिए । इसलिए हम जाटों को यह भली-भांति समझना होगा कि धर्म के मामले में हमारी कौम (केवल हिन्दू कहलाए जाने वाले जाट) पूर्णतया दिशाहीन है ।


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जाट बनाम मीडिया (36)

मीडिया प्रचार का सशक्त माध्यम रहा है चाहे कोई भी समय या काल हो । समय के साथ-साथ इसका स्वरूप भी बदल रहा है । प्राचीन में चारण, भाट और जोगी आदि मीडिया के तीन सशक्त स्तम्भ थे । इसके अतिरिक्त स्थानीय जागे होते थे जो अपनी पोथियों में अपनी शैली अनुसार विभिन्न जातियों व गौत्रों की वंशावलियां दर्ज करते थे । भाटों की पोथियों का तो अभी तक उल्लेख किया जाता है । इनका लिखने और दर्ज करने का तरीका अपनी मर्जी और मनमानी हुआ करता था और ये लोग उसी की प्रशंसा किया करते थे जो इन्हें बदले में भेंट देता था । इसी कारण यह कहावत प्रचलित हुई कि जिसकी खावै बाकली उसके गावै गीत अर्थात् जैसा जो इन्हें देता था उसके लिए वैसा ही ये लिखते थे और गाते थे । इनके द्वारा दर्ज की गई ऐतिहासिक घटनाएं गद्य और पद्य दोनों में ही होती थी जिसे चारण और जोगी गाया करते थे । लेकिन जोगियों का एक ही वाद्य सारंगी होता था जिस पर ये घटनाओं को पद्य में गाते थे जिसका उद्देश्य केवल लोगों का मनोरंजन करना होता था । इनकी संस्कृति किसी काले को सफेद व किसी सफेद को काला करना नहीं थी अर्थात् जोगी पक्षपात रहित थे । जब सातवीं सदी के अंत में माऊंट आबू पर्वत पर ‘बृहत् यज्ञ’ में अग्निकुण्ड से राजपूत जाति की उत्पत्ति की घोषणा की तो ब्राह्मणवाद ने इसे क्षत्रिय जाति स्थापित करने के लिए इसका धुआंधार प्रचार किया और इसकी जिम्मेवारी ब्राह्मणी मीडिया ने ली । इसी को इस मीडिया ने अपनी लेखनी का साधन बनाया जिसे चारण और भाटों ने घूम-घूमकर गाया । जबकि यही मीडिया पहले प्रचार करता रहा कि परशुराम ने क्षत्रियों का सर्वनाश कर दिया था और इसी गुणगान के साथ ब्राह्मणवादी लोग राजपूत राजाओं के पुरोहित बन गए जबकि इस जाति का उल्लेख किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं है । इन लोगों ने राजपूत राजाओं के पुरोहित होकर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इन्हें आपस में इतना लड़ाया कि वे कभी भी मुगलों के विरोध


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में कोई भी बड़ी लड़ाई नहीं जीत पाए और न ही अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ पाए लेकिन फिर भी इन्होंने हल्दी घाटी जैसी छोटी लड़ाई को भी, जिसमें केवल महाराणा प्रताप के 59 सैनिक मारे गए थे तथा यह लड़ाई केवल ढाई घण्टे चली थी, जो भी हो इन्होंने राजपूत जाति की वीरता का धुआंधार प्रचार किया क्योंकि राजपूत राजा इन्हें एक दूसरे से बढ़कर दान दक्षिणा दिया करते थे जबकि जाटों में इस प्रकार के इतिहास लिखवाने की कोई भावना नहीं थी । इसी का उदाहरण है कि महाराजा सूरजमल तथा महाराजा रणजीत सिंह ने मुगलों को पीट-पीटकर अपनी रियासतों की स्थापना की जो अधिकतर राजपूत रियासतों से बड़ी रियासतें थी और इन्होंने अपने जीवन में कभी कोई लड़ाई नहीं हारी । इसी कारण इन महान राजाओं का नाम भारतीय इतिहास से गायब है । इसका मुख्य कारण जाटों का स्वभाव था कि वे खिला-पिलाकर इतिहास लिखवाने में विश्वास नहीं रखता था क्योंकि उनका विश्वास था कि वे इतिहास बनाते हैं, लिखवाते नहीं ।


जब आधुनिक युग आया तो राजपूतों की अधिकतर रियासतें कमजोर पड़ चुकी थी या समाप्त हो चुकी थी जिस कारण ये पुरोहितवाद और ब्राह्मणवाद ढीला पड़ने लगे तो इन्होंने इस युग में समाचार पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लिया जो मीडिया के स्तम्भ बने । जो जातियां पहले से ही शिक्षित थी जैसे कि कायस्थ, अरोड़ा खत्री आदि उनको भी इन्होंने अपने साथ लगा लिया और समय आते-आते यह इनका पेशा बन गया । जब एक पेशा हो गया तो आपस में भाईचारा भी होना था । इस प्रकार इन जातियों ने इस मीडिया पर अपना पूर्ण प्रभुत्व कर लिया और राजपूत जाति को पीछे छोड़कर भुला दिया ।


जाटों का अपना पुराना अंग्रेजी अखबार दी ट्रिब्यून है जो पंजाब के गांव मजीठा के रहने वाले जाट सिख सरदार दयालसिंह मजीठिया ने इसकी स्थापना सन् 1881 में की । जब बाद में उसके वंशज इसे नहीं संभाल पाए तो एक ट्रस्ट बना दिया गया जिस पर धीरे-धीरे हिन्दू खत्री पंजाबियों ने कब्जा कर लिया और आज इसके


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अधिकतर डायरेक्टर हिन्दू खत्री पंजाबी हैं और इसमें वही छपता है जो वे चाहते हैं । इसके अतिरिक्त ‘हरिभूमि’ भी सिन्धु गोत्री हिन्दू जाटों का है जिसका अधिक प्रसारण गैर-जाट क्षेत्र मध्य प्रदेश में है । वैसे इसका प्रसारण रोहतक से भी है लेकिन जाटों ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया ।


इसके बाद सन् 1980 के बाद टी.वी. मीडिया अर्थात् इलैक्ट्रोनिक भी जुड़ गया जो समाचार पत्र पत्रिकाओं से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ । इसके स्वामी भी लगभग उसी वर्ग से हैं जो समाचार पत्र-पत्रिकाओं से हैं । इनकी आय का सबसे बड़ा साधन सरकारी विज्ञापन और निजी कम्पनियों के विज्ञापन हैं । वर्तमान में समाचार पत्रों अर्थात् मीडिया का पूर्णतया व्यवसायीकरण हो चुका है । ये लोग वही माल परोसते हैं जिसमें इनको पैसा मिलता है । इन्हें भारतीय संस्कृति या समाज के उत्थान से कोई लेना-देना नहीं है । जो पार्टी सत्ता में होती है उसकी जी भरकर जी-हजूरी करते हैं और ज्यों ही पार्टी सत्ता से दूर होती है तो उसकी बुराई और निकम्मापन प्रमाणित करने लगते हैं ।


जैसा रवैया ब्राह्मणवाद ने जाटों के विरोध में अपनाया था वही विरोध समाचार पत्र पत्रिकाओं में भी जारी रहा और उसी परम्परा को इलैक्ट्रोनिक मीडिया ने भी आगे बढ़ाया है । अभी कुछ हाल के वर्षों में जाटों व दलित व अन्य जातियों के लोग भी निचले स्तर पर इस मीडिया में आए हैं और वे सभी पूरी मेहनत करके निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर रहे हैं । लेकिन ऊपरी स्तर पर उन्हीं पुरानी जातियों के मालिक और संपादक हैं जो अपनी मर्जी अनुसार इन समाचार पत्र-पत्रिकाओं व टी.वी. चैनलों पर प्रसारण करवाते हैं जो लगभग जाट विरोधी है । इसके लिए अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । जब कोई भी खबर जाट विरोधी मिलती है तो उसे मुख्य पन्नों पर छपवा कर दबकर प्रचार किया जाता है लेकिन फिर भी मीडिया ने एक सहमति से जाटों को दबंग स्वीकार कर लिया है । इसीलिए जाट न लिखकर दबंग


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लोग लिखा जाता है ।


चौ० छोटूराम तथा मीडिया के बारे में आगे का लेख चौ० छोटूराम का हत्यारा कौन? में प्रमुखता से लिखा गया है । जब चौ० चरणसिंह देश के प्रधानमन्त्री बने तो इस मीडिया ने लिखा और कहा कि पहली बार भारत के प्रधानमन्त्री पिछड़ी जाति से बने हैं । लेकिन जब जाटों की पिछड़ी जाति में आरक्षण की बात आई तो किसी ने आरक्षण के लिए जाटों का समर्थन नहीं किया । इनका लिखने का उद्देश्य केवल उस समय चौ० चरणसिंह को छोटा दिखाना था लेकिन जाट कौम को फायदा करने का नहीं । इसके बाद सन् 1980 में मीडिया चौ० चरणसिंह के पीछे इतना पड़ गया कि उन्हें महत्त्वाकांक्षी कहने लगा और जब एक पत्रकार ने चौ० चरणसिंह से यहां तक प्रश्न किया कि वे प्रधानमन्त्री क्यों बनना चाहते हैं तो चौ० साहब ने इसके उत्तर में कहा, “जिस प्रकार आप पत्राकार से सम्पादक बनना चाहते हैं ।” इसी मीडिया के दुष्प्रचार के कारण तंग आकर चौ० साहब ने मजबूरन कहना पड़ा, काश ! मैं ब्राह्मण होता । यह कटु सत्य है कि इसी ब्राह्मणवादी मीडिया ने नेहरू और गांधी को इतिहास ने बना दिया जबकि उन्होंने कभी कोई इतिहास नहीं बनाया । पं० नरसिंहराव के प्रधानमन्त्री काल में एक पार्टी में एक पत्रकार वार्ता में पं० अटल बिहारी वाजपेयी रो पड़े थे । जब पत्रकार ने उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा था कि उनके सपने चकनाचूर हो गए और यह सपना उनका उस समय प्रधानमन्त्री बनने का था जो उस समय धूमिल हो गया था । लेकिन किसी पत्रकार या मीडिया ने पं० अटलबिहारी वाजपेयी को कभी महत्त्वाकांक्षी नहीं कहा और इसी मीडिया ने उनकी छवि को कितना सुन्दर बना दिया कि उन पर कई संगीन आरोप लगने पर तथा बार-बार बयान बदली करने की आदत के बावजूद भी उनको सर्वमान्य नेता बना दिया । जिस कारण वे आराम से अपना प्रधानमन्त्री काल पूर्णतया व्यतीत कर गए ।


आजादी के बाद जाटों के विरोध में एक सिलसिलेवार प्रचार


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चलता रहा जिसके परिणामस्वरूप आज दिल्ली और कुछ शहरों में जाटों को मकान किराए पर दिए जाने पर भी इनकार कर दिया जाता है और इल्जाम लगाया जाता है कि वे इस पर कब्जा कर लेंगे जबकि दिल्ली या इसके आसपास बनी सभी कालोनियां और अपार्टमैंट के फ्लैट्स आदि जाटों की जमीन पर ही बने हैं । यदि जाट ऐसे ही होते तो वे इस जमीन का कब्जा ही क्यों छोड़ते ? इसी प्रचार का प्रभाव है कि जाटों को सरेआम निजी संस्थाओं में नौकरियां नहीं दी जाती या फिर खदेड़ दिया जाता है । यह सब इसी मीडिया का ही प्रभाव है । वहीं दूसरी ओर न्यायाधीश अप्राकृतिक और गैर परम्पराओं के हक में अपने फैसले दे रहे हैं । उदाहरण के लिए दिल्ली के दो हिन्दू पंजाबी जजों ने भारतीय लड़कियों को होटलों व बारों में शराब परोसने को उचित ठहराया है तो दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिग सम्बन्धों को न्यायिक करार दिया लेकिन मीडिया ने इस पर कोई भी हो-हल्ला नहीं किया कि समलैंगिक रिश्तों से कौन-सा समाज बनता है और क्या उत्पत्ति होती है । इसी प्रकार अभिनेत्री खुशबू की इस घृणित दलील को कोर्ट ने मंजूरी दे दी कि विवाह के बगैर भी कोई लड़का-लड़की आपस में सम्बन्ध रख सकते हैं तो फिर विवाह और समाज का अर्थ क्या रह जाएगा? ये सभी पाश्विक सभ्यता को भारतीय सभ्यता पर थोपा जा रहा है । लेकिन जब उन्हें जाटों का ‘ऑनर कीलिंग’ का मामला हाथ लगा तो मीडिया ने तूफान खड़ा कर दिया जैसे कि हजारों लड़के-लड़कियां मारे गए यहां तक कि खाप पंचायतों पर सरेआम झूठा दोषारोपण किया गया कि वे ‘ऑनर कीलिंग’ करवा रहे हैं जबकि असलियत यह है कि आज तक किसी खाप व सर्वखाप ने किसी को मृत्युदण्ड तो क्या, एक डंडा मारने तक का भी फैसला नहीं सुनाया है । जबकि ‘ऑनर कीलिंग’ के लिए सीधे तौर पर ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’, राजनैतिक नेता और मीडिया जिम्मेदार है क्योंकि हिन्दू कानून समगोत्री भाई बहनों को विवाह की इजाजत देता है तो सभी जानते हुए भी राजनेता इसके संशोधन पर


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विचार नहीं कर रहे और मीडिया एकदम झूठा प्रचार कर रहा है क्योंकि यह समझना होगा कि हिन्दू जाट कौम भारत ही नहीं पूरे संसार में सबसे बड़ी शाकाहारी कौम है जिस कारण वह जीव हत्या विरोधी है । लेकिन जाट कौम अपने शत्रु की हत्या से प्यार करती है । फिर ऐसे कौन-से कारण थे कि आज मां-बाप ने अपनी प्यारी और दुलारी संतानों को दुश्मन मान लिया है । इसका कारण केवल और केवल सामाजिक व्यवस्था के दबाव का परिवारों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव है जिसके जिम्मेदार ऊपर लिखित तीनों ही हैं । कौन नहीं जानता कि सूरपनखां की नाक क्यों कटी ? राम ने सीता को आग में क्यों झोंका ? पं० परशुराम ने अपनी मां की हत्या क्यों करा दी थी? इसका कारण केवल ‘ऑनर’ था अर्थात् ये ऑनर कब नहीं था? मीडिया आज अपने प्रचार से जाट कौम को एक विद्रोह की तरफ धकेल रहा है और जाट कौम को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं है । वर्तमान में मीडिया बनाम जाट का यह शीतयुद्ध चल रहा है और इसमें जाटों की जीत निश्चित है क्योंकि उनका पक्ष सच्चा है ।


कुछ जाट भाइयों को आमतौर पर कहते सुना जाता है कि हमें मीडिया से बनाकर रखनी चाहिए । पहली बात तो जाटों ने मीडिया से कब बिगाड़ी है? जाटों ने कब मीडिया के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा या विरोध किया? या उनके अखबार जलाए या उनके कार्यालय फूंके? सब कुछ होने के बाद भी जाटों ने ऐसा कभी कुछ नहीं किया और आज तक सभी सहन करते आ रहे हैं । जो भाई मीडिया के साथ बनाने की कहते हैं उनको किसने बनाकर रखने से रोका है? वही मीडिया हमारे बच्चों को जो हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बहिन भाई हैं, उनको प्रेमी युगल लिखकर जाट समाज को सरेआम गाली दे रहा है । अब यह देखना है कि जाट कौम कब तक गाली खाती रहेगी । यही मीडिया जो तालीबानी नाम से डरता रहा वही आज जाटों को तालीबानी लिख रहा है अर्थात् जाटों को तालिबानी


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बनने पर मजबूर कर रहा है । जब हजारों किलोमीटर दूर बैठे तालिबानी इस मीडिया और देश व संसार के लोगों के लिए खौफ हैं तो जब घर में ही तालिबानी बन जाएंगे तो फिर क्या होगा? यह सभी जानते हैं कि तालिबानी लड़ाकों ने संसार के सबसे ताकतवर देश और कई देशों की सेनाओं को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर रखा है । यदि जाट कौम वास्तव में तालिबानी बन गई तो कितने लोग इस देश में हैं जो इनकी तरफ आंख उठाकर देख पाएंगे ? इसलिए इस हकीकत पर जरा गौर किया जाएगा । मीडिया का जाटों के विरुद्ध प्रचार का आशय है कि जहां तक हो सके इनको बदनाम करो ताकि ये अधिकारों के बारे में सोच न पायें । उदाहरण के लिए आरक्षण व अपने उत्पादन की कीमत आदि ।


यह भी हकीकत है कि न्यायालय के फैसले सच्चे और झूठे गवाहों पर होते हैं और फैसले के बाद परिवारों की आपसी दुश्मनी कभी समाप्त नहीं होती जबकि खाप पंचायतों के फैसले न्याय पर आधारित होते हैं और खुले मैदानों में पारदर्शिता के आधार पर होते हैं जिससे उन परिवारों में सम्बन्ध भाईचारे के बन जाते हैं । इसलिए जाट कौम सरकारी न्यायालयों की बजाए अपने न्यायालयों पर अधिक विश्वास करती है । ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिसमें हत्याओं के मामलों में न्यायप्रिय फैसले किए हैं और वे समाज को मान्य हैं ।


इसलिए याद रहे समाज सरकार बनाता है और सरकार कानून बनाती है और कानून समाज की मान्यताओं की रक्षा करता है । लेकिन गलती से कोई समाज विरोधी कानून बन गया तो सरकार की जिम्मेदारी है कि उनमें तुरन्त संशोधन करे जिस प्रकार से संविधान में सैकड़ों संशोधन होते रहे हैं । आज तक का इतिहास बता रहा है कि मीडिया जाट विरोधी रहा है इसलिए हमने इस लेख के शीर्षक के सामने 36 का आंकड़ा लिख दिया है । यही इसका सार है।


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जाटवाद बनाम ब्राह्मणवाद

आज से 2500 ई.पू. जाटों ने सिंधु घाटी की सभ्यता का निर्माण चार्वाक दर्शन (भौतिकवादी दर्शन) के आधार पर किया था । उस समय जाट जाति नाग जाति कहलाती थी । सम्राट तक्षक इस जाति के सबसे बड़े चौधरी थे और नांगलोई (दिल्ली), तक्षशिला (पाकिस्तान) तथा नागौर (राजस्थान) नाग जाति के केन्द्रीय स्थान थे । नागों ने ही नागरी लिपि को विकसित किया था जो आगे चलकर देवनागरी कहलाई ।


इस सिंधु घाटी की सभ्यता के खिलाफ ब्राह्मणों ने षड्यन्त्र रचे तथा सम्राट तक्षक की हत्या करके एवं चार्वाक दर्शन को धीरे-धीरे खत्म करके, इस महान् सभ्यता का पतन कर दिया ।


नोट करें तक्षक और सिंधु गोत्र आज भी जाटों के ही गोत्र हैं ।


सिंधु घाटी की सभ्यता के पतन के बाद ब्राह्मणों ने वैदिक युग (1500 ई.पू. से 600 ई.पू.) की शुरुआत की । इस वैदिक युग में वेदों की रचना हुई, पाखंडों को बढ़ावा मिला तथा जन्म आधारित जाति व्यवस्था की शुरुआत हुई । नाग (जाट) इस वैदिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते रहे । आगे चलकर इस संघर्ष में से महात्मा बुद्ध की ब्राह्मणविरोधी मूवमेंट खड़ी हुई । शाक्य वंशीय नागमुनि महात्मा बुद्ध ने सर्वाधिक क्रान्तिकारी नागों को नये नाम ‘जाट’ के नाम से सम्बोधित किया । जाट शब्द का अर्थ है “ब्राह्मणवाद के खिलाफ जुटे हुए सैनिक ।”


इस काल में बुद्ध के हीनयान-महायान की भान्ति जाटों के गोत्र प्रचलित हुए । जाटयान, राजयान, कादयान, ओहल्याण, बालयान, दहियान (दहिया), गुलियान (गुलिया), नवयान (नयन), लोहयान (लोहान), दूहयान (दूहन), सिद्धू (सिद्धार्थ गौतम), महायान (मान) इत्यादि ।


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जाटों की भाषा ही पाली भाषा है । इसमें सभी शब्द बौद्ध आधारित हैं । जैसे - अष्टा काम (अष्टांग मार्ग, बूढ़ा-ठेरा (बौद्ध थेरा), भोला-भन्तर (भोला-भन्ते), बातों के तूत (स्तूप) बांधना, मठ (बौद्ध मठ) मरना, कसूत काम (स्तूप कार्य), थारा (थेर) इत्यादि । बुद्ध के नेतृत्व में जाटों ने सारे एशिया से ब्राह्मणवाद को खत्म कर दिया था । इसी बात की खुन्दक में ब्राह्मण कहता है कि परशुराम ने 21 बार धरती को क्षत्रियों से शून्य कर दिया था ।


अस्तु ‘ब्राह्मण’बौद्ध धर्म के खिलाफ षड्यन्त्र करने लगा तथा उसे असली सफलता तब मिली जब सम्राट अशोक (जाट) के पोते बृहद्रथ की उसी के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से हत्या कर दी तथा प्रतिक्रान्ति का दौर शुरू कर दिया । इस दौर में बुद्ध का बुद्धू बना दिया गया, भन्ते का भौन्दू/भूण्डा हो गया, बर्हियात (बौद्ध सम्प्रदाय) का वाहियात बना दिया गया, मोर का चोर हो गया, थेर का ढेढ़ हो गया, त्रिशरण-पंचशील की चर्चा करना तीन-पांच करना हो गयी । इस दौर में बौद्ध धर्म ‘बोदा’ हो गया ।


इसी दौर में बौद्ध जाट गुरुओं ने भागकर जंगलों की शरण ली । जंगल में ये गंजे ना रहकर बड़े बाल रखकर रहने लगे क्योंकि गंजा सिर बौद्ध का प्रतीक था और ऐसे हर सिर पर एक सौ स्वर्ण मुद्रा का ईनाम था । इसी प्रतिक्रान्ति के दौर में जाटों ने बुद्ध को ‘शिव’ कहना शुरू कर दिया और कालान्तर में इन्हीं बाल बढ़ाए हुए प्रच्छन्न बौद्ध संन्यासियों की परम्परा से शिवभक्त नाथ सम्प्रदाय की स्थापना हुई । नाथ शब्द ‘नाग’ से बना था और सिद्ध शब्द ‘सिद्धार्थ सिद्धार्थ’ गौतम बुद्ध से बना था । इस नाथ सम्प्रदाय से अनेकानेक सिद्ध पुरुष पैदा हुए जिन्होंने ब्राह्मण-विरोधी मठों को स्थापित किया । रोहतक स्थित ‘बोहर मठ’ एक ऐसा ही मठ था । इस बोहर गांव में किसी समय में 51 ब्राह्मण परिवारों को जिन्दा जला दिया गया था, जो कि इतिहास है ।


सिद्ध गुरुओं की इस परम्परा को आदिशंकराचार्य ने 7वीं शताब्दी


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में हाईजैक करने की कोशिश की । ब्राह्मणों ने इस धूर्त ब्राह्मण को शिव का अवतार प्रचारित किया । इसी ने क्षत्रियों (जाटों) का विभाजन करके राजपूत जाति को जन्म दिया । इन परिस्थितियों में क्षात्र धर्म कमजोर हुआ तथा इससे भारत में मुस्लिम आक्रमण की शुरुआत हुई । परन्तु ब्राह्मणों ने मुस्लिम शासकों से तुरन्त ही गठजोड़ कर लिया और यही लोग मुस्लिम राज के बीरबल, टोडरमल बनने लगे ।


नोट करें ब्राह्मण इस्लाम के खिलाफ था, परन्तु मुस्लिम राजसत्ता के साथ था, जबकि जाट ‘इस्लाम’ के पक्ष में था परन्तु ‘मुगल सत्ता’ को खत्म करना चाहता था ।


इस ‘मुगल ब्राह्मण सत्ता’ के खिलाफ जाटों ने नाथ सम्प्रदाय के ही अगले संस्करण सिख धर्म का साथ दिया और मुगल सत्ता का पतन किया । जाटों ने महाराजा रणजीत सिंह की अगुवाई में सरकार खालसा की स्थापना की । ब्राह्मण इस सरकार खालसा के खिलाफ भी षड्यन्त्र रचने लगा । सरकार खालसा का पतन करवाने के लिए यह अंग्रेजों को पंजाब की धरती पर बुला लाया । अंग्रेजों से पंजाब के शूरमाओं ने टक्कर ली परन्तु अन्ततोगत्वा पंजाब भी अंग्रेजों के अधीन आ गया ।


पंजाब के अंग्रेजों के अधीन आने से और सिख सरकार के पतन होने से सिख धर्म भी जबरदस्त संकट में आ गया था, क्योंकि जो शहरी पंजाबी केवल ‘सरकार खालसा’ में फायदा उठाने के लिए ही सिख बने थे वे अब पुनः हिन्दू बनने लगे । ऐसे संकट के समय में एक और घटना घट गई । सन् 1857 में जाटों ने अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त बगावत कर दी । सर्वखाप हरयाणा ने अंग्रेजों की दिल्ली में जड़ें हिलाकर रख दी परन्तु फिर भी जाट इस लड़ाई में हार गए और इस हार के बाद अंग्रेजों ने सर्वखाप हरयाणा को तोड़ दिया । इसका कुछ हिस्सा पंजाब में मिला दिया और कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश (पश्चिमी उ.प्र.) में मिला दिया । हरयाणा के पंजाब में मिलने से एक


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अच्छी बात यह हुई कि अब हरयाणा का जाट भी सिख धर्म के सम्पर्क में आ गया था । इससे मृतप्रायः सिख धर्म में फिर से ताकत आने लगी । अम्बाला, करनाल, कुरुक्षेत्र का जाट सिख बन गया ।


सिख धर्म की बढ़ती ताकत को देखकर ब्राह्मण घबरा गया क्योंकि सिख धर्म उसके लिए बौद्ध धर्म जितना ही खतरनाक साबित होता । अतः सिख धर्म को जाटों में जाने से रोकने के लिए ब्राह्मणों ने आर्यसमाज रूपी षड्यन्त्र रचा। इसके संस्थापक महर्षि दयानन्द (ब्राह्मण) ने जाटों को क्षत्रिय कहकर चढ़ाया और इन्हें आर्यसमाज में दीक्षित करके सिख बनने से रोक दिया । आर्यसमाज ने थोड़ी बहुत ब्राह्मणों की आलोचना इसलिए की क्योंकि इसके बिना जाट आर्यसमाज की ओर आकर्षित नहीं होते ।


अतः आर्यसमाज ने पंजाब-हरयाणा में सिख धर्म की मूवमेंट को रोक दिया । अब यह आर्यसमाज पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम दंगें करवाने की भी योजना तैयार करने लगा । इस पंजाब आर्यसमाज के सभी लीडर तो अरोड़ा-खत्री-ब्राह्मण-बनिये थे परन्तु टाट बिछाने वाले और कुर्बानी देने वाले सभी जाट थे ।


पंजाब में इस आर्यसमाजी षड्यन्त्र को सबसे पहले सर छोटूराम ने समझा । इन्होंने सन् 1923 में लाहौर के मुसलमान सर फजले हुसैन के साथ मिलकर यूनियनिस्ट पार्टी गठित की । सर छोटूराम ने पंजाब में शहरी ब्राह्मण बनियों के खिलाफ जबरदस्त मुहिम शुरू की और पूरे देश का जाट यूनियनिस्ट पार्टी के झण्डे तले आ गया । जाटों की इस धर्मविहीन एकता को देखकर ब्राह्मण बनिया फिर घबरा गया और अब इनके देवताओं लाला गांधी, लाला जिन्ना, पण्डित नेहरू, लाला तारा सिंह ने मिलकर सन् 1947 में अंग्रेजों के साथ मिलकर पंजाब का विभाजन करवा दिया । ऐसा करके इन्होंने संयुक्त पंजाब की जाटों की एकता को तोड़ दिया ।


इस आजाद भारत में ब्राह्मण सत्ता ने जाटों को गुलाम बनाने के लिए षड्यन्त्र रचे ।


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  • सन् 1966 में पंजाब का विभाजन किया गया, जिसमें हरयाणा और हिमाचल प्रदेश दो नये राज्य अस्तित्व में आए। हरयाणा-पंजाब की लड़ाई करवाने के लिए ‘चण्डीगढ़’ का मसला, एस.वाई.एल. का मसला जानबूझकर केन्द्र सरकारों ने उलझाया है ।
  • सन् 1971 के भारत पाक युद्ध में ब्राह्मणी इन्दिरा गांधी ने [[Pakistan|पाकिस्तान}} से पूर्वी पाकिस्तान अलग करके बंगलादेश का निर्माण करवाया । इससे पहले जहां पाकिस्तान की मिसाइलों के निशाने पर पूर्वी पाकिस्तान वाया ‘काशी, इलाहाबाद, बंगाल, बिहार’ थे, वहीं अब पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) के अलग हो जाने से पाकिस्तानी जाटों की मजबूरी हो गई कि अब वे लाहौर में मिसाइलें तैनात करते । इससे हरयाणा, पंजाब, दिल्ली (जाट क्षेत्र)पाकिस्तानी मिसाइलों के निशाने पर आ गया । इस तरह बंगलादेश का विभाजन भी ‘जाटों’ के खिलाफ षड्यन्त्र था कि इससे अब ‘लाहौर’ और ‘अमृतसर’ आमने-सामने आ गए थे । अन्यथा इससे पहले पाकिस्तानी मुस्लिम जाटों में यह समझ विकसित हो गई थी कि अगर भारत पर आक्रमण करना पड़ा तो वो पूर्वी पाकिस्तान से करेंगे क्योंकि पूर्वी मोर्चे पर काशी, इलाहाबाद, बंगाल (ब्राह्मणवादी क्षेत्र) हैं, परन्तु इन्दिरा गांधी ने पूर्वी मोर्चे को ध्वस्त करके बंगलादेश बना दिया जिससे अब पश्चिमी मोर्चे पर केवल जाट ही आमने-सामने हैं, चाहे वह हरयाणा-पंजाब का हिन्दू-सिख जाट हो या फिर पाकिस्तान पंजाब का मुस्लिम जाट ।
  • सन् 1984 में आप्रेशन ‘ब्लू स्टार’ चलाकर इन्दिरा गांधी ने सिख जाटों की कमर तोड़ दी ।
  • आज एस.ई.जैड. के नाम पर जाटों की जमीन को कौड़ियों के भाव खरीदकर बनियों को दिया जा रहा है ।
  • खाप पंचायतों को गाली बना दिया गया है ।

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  • जाटों की आरक्षण की मांग को नकारा जा रहा है ।
  • हरयाणा में क्षेत्रावाद की राजनीति को हवा दी जा रही है जिससे जाटों की एकता कमजोर हो ।


अतः सवाल है कि इन विषम परिस्थितियों में जाट क्या करे । इसमें मेरा सुझाव है कि-


  • देशभक्ति का सारा भार केवल जाट ही ना उठाएं । इस भार को थोड़ा बहुत ब्राह्मण-बनिया, अरोड़ा, खत्री और कायस्थ जातियों के सिर पर भी टेक दें । देशभक्ति के मामलों में जाट को चाहिए कि वह देशभक्ति में थोड़ा बहुत रिजरवेशन (आरक्षण) ब्राह्मण-बनियों का भी कर दे क्योंकि अभी तक तो देशभक्ति में 100 प्रतिशत जाटों का ही आरक्षण रहा है ।


  • अतः जाट को चाहिए कि वह देशभक्ति के कोटे में थोड़ा बहुत रिजर्वेशन ब्राह्मण-बनियों का करें और खुद नौकरियों में ओबीसी कोटे के तहत आरक्षण की मांग को जोर-शोर से उठाएं ।


  • जाट का नारा होना चाहिए - देशभक्ति में आरक्षण देंगे । ओ.बी.सी. में आरक्षण लेंगे ।


एक बार आरक्षण ले लें, आगे की रणनीति आगे तय की जाएगी।

लेखक - मनोज दूहन

सम्पर्क - 9254200253


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आरक्षण जाटों का संवैधानिक अधिकार है, खैरात नहीं

सबसे पहले मजदूर या दलित जातियों को संविधान बनते ही आरक्षण का लाभ दिया गया जो 10 सालों के बाद रिव्यू होना था जो आज तक राजनीतिक स्वार्थों के कारण नहीं हो पाया और न ही भविष्य में होने की कोई आशा है ।


पहला पिछड़ापन आयोग सन् 1953 में पं० काका केलकर की अध्यक्षता में बनाया गया जिसने आरक्षण का आधार आर्थिक बनाने का प्रयास किया जिस कारण इस आयोग की रिपोर्ट गैर संवैधानिक समझी गई क्योंकि संविधान की धारा 340 के तहत आरक्षण के लिए केवल निम्नलिखित दो ही शर्तें हैं - (1) शैक्षणिक पिछड़ापन (Educational Backwardness), (2) सामाजिक पिछड़ापन (Social Backwardness).


दूसरा पिछड़ा आयोग सन् 1978 बी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में बैठा गया जिसने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर 1980 को दी । यह रिपोर्ट लगभग 10 वर्ष तक धूल चाटने के बाद 13 अगस्त 1990 को राजनैतिक कारणों से ही लागू हुई न कि समाज के उत्थान के लिए लागू की गई । इस रिपोर्ट में जाटों को बार-बार पिछड़ा लिखा गया, यहां तक कि इस रिपोर्ट के चैप्टर नं० 8 के पहरा नं० 8.40 तथा 8.41 में जाट जाति को तथा चौ० चरणसिंह को पिछड़ी जाति से बतलाया गया लेकिन जब आयोग ने राज्यवार पिछड़ी जातियों की अपनी रिपोर्ट तैयार की तो पंजाब और हरियाणा की सूचियों में ‘गुटका जाट’ और ‘चिल्लन जाट’ दर्शाया गया । जबकि समस्त भारत में न तो ऐसी कोई जाति है और न ही जाटों का गोत्र । इसके अतिरिक्त किसी भी राज्य के जाट के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया । जबकि समस्त भारत का जाट मंडल कमीशन की रिपोर्ट तथा


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संविधान की शर्तों के अनुसार पिछड़ी जाति में गिना जाना चाहिए था । क्योंकि संविधान की पहली शर्त शैक्षणिक पिछड़ापन के बारे में स्वयं मण्डल कमीशन की रिपोर्ट के पेज नं. 28 पर यह प्रमाणित किया गया है कि गांव में रहने वाली सभी जातियां शैक्षणिक तौर पर पिछड़ी हैं । यह सर्वविदित है कि आज भी जाट समुदाय का 90 प्रतिशत हिस्सा गांव में रहता है और यह समुदाय पूरे उत्तर भारत में गांव में रहने वाला सबसे बड़ा समुदाय है ।


सामाजिक पिछड़ेपन को मापने के लिए केवल एक ही मापदण्ड है जिसे हम सामाजिक तौर पर हुक्का-पानी कहते हैं । जो जातियां आपस में एक दूसरे का हुक्का-पानी बगैर किसी हिचक और भेदभाव के पीते हैं उनका आपसी सामाजिक स्तर बराबर का माना जाता है । जाट समाज को हुक्के-पानी की समानता और सम्बन्ध केवल उन जातियों के साथ है जिनको मण्डल कमीशन ने पिछड़ी जाति मानकर आरक्षण दिया हुआ है । उदाहरण के लिए अहीर, गूजर, सैनी, कुम्हार, लुहार, खाती, कम्बोज, नाई आदि यहां तक कि सुनार जाति जो अपना सामाजिक स्तर जाटों से ऊंचा मानती आई, उसको भी आरक्षण दिया हुआ है । भारतवर्ष की ऊंच जातियां ब्राह्मण, बनिया, खत्री, अरोड़ा, सिन्धी, कायस्थ, राजपूत और सुनार अपना सामाजिक स्तर जाटों से ऊंचा मानती आई इसी कारण इन्होंने लाहौर हाईकोर्ट से सन् 1932 में जाट जाति को शूद्र घोषित करवाया ।


मण्डल आयोग ने सभी किसान जातियों को पूरे भारत में समान रूप से आरक्षण दिया, जबकि जाट कौम के साथ यह अन्याय हुआ, तो अलग-अलग राज्य के जाटों ने आरक्षण के लिए अपना संघर्ष आरम्भ किया जिसमें राजस्थान के जाट को भरतपुर और धौलपुर जिलों को छोड़कर सन् 1999 में केन्द्र व राज्य स्तर पर दोनों जगह आरक्षण दिया गया जबकि उन्हें 1990 में मिलना चाहिए था । इनके 9 साल के नुकसान का कोई आंकलन नहीं है । इसके अतिरिक्त मध्य


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प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बिहार और आन्ध्र प्रदेश के जाटों को अलग-अलग समय में राज्य स्तर पर आरक्षण दिया गया लेकिन इनको केन्द्र स्तर पर आरक्षण नहीं है । पंजाब के जाट को आरक्षण की कभी बात नहीं की गई लेकिन हरयाणा के जाट को भारत में सबसे पहले गुरनाम सिंह आयोग की रिपोर्ट के तहत 7 फरवरी 1991 को आरक्षण लागू किया । इस रिपोर्ट की पेज नं० 28 पर बड़ा साफ-साफ लिखा है कि जाट समुदाय की आर्थिक स्थिति अहीर और सैनी समुदाय से काफी बदतर है । आयोग ने यह भी लिखा है कि जाट समुदाय को किसी धर्म या पंथ के नाम से नहीं बांटा जा सकता है ।


हरयाणा के जाट को हरयाणा सरकार के नोटिफिकेशन क्रमांक डब्ल्यू एम.सी.बी.सी., डी-एच आर 299-एस डब्ल्यू(1) 91 दिनांक 07-02-1991 के तहत पूरे भारतवर्ष में जाटों को सबसे पहले आरक्षण दिया गया लेकिन मई 1991 में भजनलाल सरकार आने पर एक षड्यन्त्र के तहत करनाल ब्राह्मण सभा की तरफ से राजकुमार गौतम तथा भारत भूषण शर्मा ने जाटों का आरक्षण समाप्त कराने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक नहीं 3 याचिकाएं 326/91, 360/91, 51/92 लगाईं । जब सर्वोच्च न्यायालय ने हरयाणा सरकार को नोटिस दिया तो इसी के उत्तर में हरयाणा सरकार ने हल्फनामा दायर किया जिसमें लिखा कि उसने आयोग की रिपोर्ट को स्थगित कर दिया है और इसे भविष्य में लागू नहीं करेगी । इसी आधार पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 07-02-1994 को इस आयोग की रिपोर्ट को हमेशा के लिए दफन कर दिया और जाट जाति के साथ-साथ पांच अन्य जातियों को भी उनके संवैधानिक अधिकार से वंचित कर दिया। करनाल ब्राह्मण सभा ने इस पुरानी कहावत को फिर दोबारा से प्रमाणित कर दिया कि बुरा ब्राह्मण से हो। वरना जाटों के आरक्षण से ब्राह्मण जाति को किसी प्रकार का


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कोई नुकसान नहीं था ।


इसके अतिरिक्त आज तक यह दुष्प्रचार होता रहा है कि हरयाणा सरकार में जाट समाज के अधिकारी अधिक हैं जबकि आयोग की रिपोर्ट के पेज नं० 71 में जातिवार अधिकारियों की संख्या में (राजपत्रित प्रथम व द्वितीय) साफ लिखा है कि जाट मात्र 11.9 प्रतिशत अधिकारी हैं जबकि ब्राह्मण हरयाणा में 7 प्रतिशत जनसंख्या होते हुए भी 12.21 प्रतिशत अधिकारी हैं । अरोड़ा खत्रियों की जनसंख्या हरियाणा में 8 प्रतिशत है जबकि अधिकारी 36.94 प्रतिशत हैं और इसी प्रकार अग्रवाल बनियों की जनसंख्या मात्रा 5 प्रतिशत है जबकि उनके अधिकारी 15.33 प्रतिशत हैं । यह झूठा प्रचार भी हरियाणा में मनुवादियों ने चला रखा है ताकि जाट समुदाय भ्रमित रहे ।


कुछ राजनैतिक नेता लोगों को भ्रमित करते रहते हैं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए । उनको ज्ञात होना चाहिए कि आर्थिक आधार गैर संवैधानिक है इसलिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने क्रिमिलेयर का प्रावधान शुरू किया जिसमें पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ वही उठा सकता है जिसकी सालाना आय साढ़े लाख से कम हो । बड़ी हैरानी की बात है कि हरियाणा के बड़े राजनेता (जाट समाज केद) तो यह भी नहीं जानते कि आरक्षित जातियों के सदस्य मैरिट में आने पर सामान्य वर्ग में गिने जाते हैं ।


जाट कौम 3 साल से इस अधिकार की मांग गांधीवादी तरीके से कर रही है । अभी परीक्षा की घड़ी आ गई है कि भारत सरकार यदि अहिंसा में विश्वास करती है तो जाटों को यह संवैधानिक अधिकार तुरन्त दे दिया जाए वरना जाट कॉमनवेल्थ खेलों में अड़चने डालेंगे । सरकार कॉमनवेल्थ खेलों को देश की प्रतिष्ठा का सवाल कह रही है कि जबकि सच्चाई यह है कि यह सभी वे देश हैं जो कभी अंग्रेजों के गुलाम थे । इसलिए कॉमनवेल्थ खेल गुलामी के प्रतीक हैं न कि


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प्रतिष्ठा के । जब जाटों ने अंग्रेजों के समय महारानी की सत्ता को स्वीकार नहीं किया तो अब कैसे करेंगे?


जब देखा गया कि सम्पूर्ण भारत के जाटों के साथ सरासर अन्याय और सरकारी षड्यन्त्र हो रहा है जिसमें जाट कौम को आरक्षण के अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रखकर जाटों को तरह-तरह से मीडिया के द्वारा बदनाम किया जा रहा है तो इसलिए चौ० यशपाल मलिक के नेतृत्व में अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति का गठन किया गया और यह समिति जब तक भारत के सम्पूर्ण जाट समाज चाहे वे किसी धर्म या पंथ को मानने वाले हों, उनको संवैधानिक अधिकार नहीं मिल जाता है अपना संघर्ष जारी रखेगी ।क्योंकि आरक्षण जाटों का संवैधानिक अधिकार है कोई खैरात नहीं ।


जय जाट!



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जाट कौम अपनी ताकत को पहचाने और अधिकारों को जाने

सवर्ण जातियों के संगठन आजादी के सैकड़ों वर्षों पहले से कार्य कर रहे थे लेकिन जाट कौम ने अपना अलग से संगठन का पहली बार सन् 1907 में ख्याल आया और जाट सभा बनाई । लेकिन फिर भी जाट कौम ने सर्व जातीय खापों में विश्वास रखा क्योंकि जाट कौम का स्वभाव सभी को साथ लेकर चलने का रहा जिसका मूल कारण था कि उत्तर भारत का जाट (किसान) अपने क्षेत्र में अपनी जातियों के लिए रोजगार का एकमात्र साधन था । इसलिए उसने अपने संगठन और अपनी ताकत की ओर कभी ध्यान नहीं दिया । जाटों के संगठन और उनके अधिकारों की मांग पहली बार दीनबन्धु सर चौधरी छोटूराम ने उठाई । उनकी राजनीति का आधार आर्थिक होते हुए भी जातीय संगठन पर आधारित था । चौ० छोटूराम ने नारा दिया कि राज करेगा जाट । कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन के विरोध में सन् 1920 में उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ा और सन् 1927 में साईमन कमीशन का स्वागत किया तथा स्वागत कमेटी के वे अध्यक्ष थे । उन्होंने बार-बार कहा कि काले अंग्रेज गोरे अंग्रेजों से बुरे साबित होंगे । चौ० सर छोटूराम की इन सभी नीतियों को जानने के लिए हमें गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार उन्होंने अपनी कौम के लिए अंग्रेजी हुकूमत और कांग्रेस का तेल निकाला ? (पुस्तक - पंजाब पोलटिक्स रॉल ऑफ सर छोटूराम)


आजादी से पहले सवर्ण जातियों में ब्राह्मण और कायस्थों के संगठन अधिक सक्रिय थे और इन्हीं जातियों का अंग्रेजी सरकार के प्रशासन में अधिक दखल और भागेदारी थी क्योंकि यही लोग पढ़े-लिखे थे । लेकिन शासन में अधिक हिस्सा पाने के लिए इनमें जबरदस्त होड़ थी । सन् 1857 के संग्राम में जाट और इसकी सहयोगी जातियां देश की आजादी के लिए खून बहा रही थी तो पं० नेहरू के


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दादा पं० गंगाधर कौल तथा कायस्थ नेता जीवन लाल में आपसी होड़ थी कि कौन कितना अपने को अंग्रेजों का वफादार साबित करता है । इसी हौड़ में उन्होंने क्रान्तिकारियों से गद्दारी व अंग्रेजों की वफादारी करके अपने तथा अपनी जाति के लोगों के लिए बड़े-बड़े पद हासिल किए । (पुस्तक - राजा नाहरसिंह का बलिदान तथा ट्रेटर्स ऑफ 1857)


जब 15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र हुआ तो भारत के 15 राज्यों में से 12 राज्यों की कांग्रेस कमेटियों ने प्रथम प्रधानमन्त्री के लिए सरदार पटेल के नाम का अनुमोदन किया लेकिन ब्राह्मण कायस्थ और बणिया जातियों के संगठन ने अंग्रेजों के आशीर्वाद से पं० नेहरू को प्रधानमन्त्री नियुक्त किया जो गैर लोकतान्त्रिक था । इसलिए भारत में रहे एक अंग्रेज उच्च अधिकारी मिस्टर क्रिप्स ने सन् 1948 में इंग्लैण्ड में बयान दिया अंग्रेज भारत में व्यापार के लिए गए थे और उन्होंने 200 साल तक ये कार्य किया, जब इसमें विघ्न पड़ने लगे तो अपने व्यापार के हित में भारत की बागड़ोर अपने एजेंटंटों को दे आये । (पुस्तक किसान विद्रोह और संघर्ष तथा पार्टिसियन ऑफ इण्डिया)


यहां विशेष ध्यान देने की बात है कि जब तक पहला चुनाव सन् 1952 में नहीं करवाया गया, पं० नेहरू ने सभी राज्यों में अपनी ब्राह्मण जाति से मुख्यमन्त्री मनोनीत किये । इससे पहले देश की सत्ता के बंटवारे में प्रधानमन्त्री का पद ब्राह्मण जाति को गया और राष्ट्रपति का पद डॉ० राजेन्द्र प्रसाद कायस्थ के हिस्से में आया तथा बाद में राष्ट्रपिता का पद बणिया जाति को गया । सन् 1947 के बाद कायस्थ जाति ब्राह्मण जाति से पीछे चली गई जिसमें सबसे बड़ा हाथ पं० नेहरू का था जो उस समय के प्रशासनिक आंकड़े स्वयं ही बोल रहे हैं । दुर्भाग्यवश दीनबन्धु चौ० छोटूराम का 09 जनवरी 1945 को अकस्मात निधन होने पर जाटों का हर दावा दफन हो गया वर्ना इसी संयुक्त पंजाब के बारे में नेहरू कहा करते थे कि संयुक्त पंजाब उनकी पहुंच से बाहर है और उनका सबसे बड़ा सिरदर्द है ।


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डॉ० अम्बेडकर को भारतीय संविधान का निर्माता कहा जाता है और उन्होंने कहा था - जब तक जातीयता का अहसास न हो राष्ट्रीयता हो ही नहीं सकती । यह कटु सत्य है इसीलिए तो अंग्रेजों ने जाति पर आधारित जाट और राजपूत रेजीमेंट बनाई थी । (बाकी रेजीमेंट क्षेत्रीय आधार पर हैं) । आजादी के बाद जब गैर सवर्ण जातियों ने अपने संगठन मजबूत करने शुरू कर दिए और प्रशासन में अपने हिस्से की मांग करने लगे तो शिखर पर बैठे सवर्ण जातियों के लोगों की कुर्सियां हिलने लगी । इस पर सवर्ण जातियों के इन लोगों ने सरकारी तौर पर प्रचार करना शुरू कर दिया कि कोई जात-पात नहीं होनी चाहिए इससे देश कमजोर होता है । जबकि वास्तविकता यह है कि जब जातियां मजबूत होंगी तो देश भी मजबूत होगा क्योंकि यही जातियां इस देश के स्तम्भ हैं । ये लोग यही बतलाने में पूर्णतः असमर्थ हैं कि जाति विहीन समाज की व्यवस्था कैसे होगी? इस पर ये लोग यूरोपीय देशों के उदाहरण देने लग जाते हैं जबकि वहां की संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था भारत में पूर्णतः भिन्न है । लेकिन दुःख की बात है कि हमारी कौम अधिक भावुक होने के कारण इस दुष्प्रचार की चपेट में आ रही है जबकि दुष्प्रचार करने वाले सवर्ण जातियों के लोग अपने नामों के साथ जातीय पहचान के सरनेम व गौत्र का खुलकर इस्तेमाल करते हैं । इसके लिए उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है (जाट कौम न तो सवर्ण जाति है न ही दलित यह ब्राह्मणिक वर्ण व्यवस्था से अलग हैद्) । लेकिन बड़े दुःख की बात है कि हमारी नई पीढ़ी इस दुष्प्रचार से बुरी तरह प्रभावित है। (पुस्तक-अम्बेडकर विचारावली तथा राष्ट्र में अनेक राष्ट्र)


उत्तर भारत में बाडमेर-बीकानेर से बिजनौर तथा कठुवा से ग्वालियर तक का क्षेत्र जाट बाहुल्य क्षेत्र है जिसमें 5 करोड़ जाट लगभग 35 हजार गांवों व कस्बों में 4800 गौत्रों के साथ रहते हैं जिनके बीच अहीर, गुर्जर और मीणा जातियों के छोटे-छोटे पैकेट हैं । इसके अतिरिक्त जाटों के गांवों में उनकी सहजातियां भी रहती हैं।


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उत्तर भारत के 65 लोकसभा क्षेत्रों में जाट वोट निर्णायक स्थिति में हैं तथा 32 क्षेत्र जाट बाहुल्य हैं । जाट कौम का देश के लिए हर क्षेत्र में भारत की किसी भी एक जाति से अधिक योगदान है । जाट कौम का देश के लिए तीन क्षेत्र में भारत की किसी भी एक जाति से अधिक योगदान है (मंडी चोर और पाखंडी छोड़कर) चाहे व लड़ाई का मैदान हो या खेती का मैदान या फिर खेल का मैदान हो । केन्द्रीय अनाज भंडार में जाटों का 80 प्रतिशत योगदान है । लगभग आधा दर्जन रियासतों को जब्त करने पर भी 15 अगस्त 1947 को जाटों की छोटी-बड़ी 26 रियासतें थी अर्थात् राज करना जाटों का स्वाभाविक गुण और अधिकार रहा है । दिल्ली का राष्ट्रपति भवन, संसद भवन और इंडिया गेट जाटों के रायसीना गांव की जमीन पर हैं । आज भी दिल्ली में जाटों के 245 गांव हैं । कहने का अर्थ है कि दिल्ली भी जाटों की रही और दिल्ली के चारों ओर घेरा भी जाटों का रहा । फिर दिल्ली जाटों से दूर क्यों ? सोची समझ चाल के तहत सन् 1947 में दिल्ली से एक लाख मुस्लिम जाने पर उनकी जगह 4 लाख 80 हजार पाक शरणार्थी अपने चहेतों के नाम कालोनियां बनाकर बसाये गए और सन् 1959 में हजारों तिब्बती बसाये । और उसके बाद उत्तरांचलियों के साथ-साथ विदेशियों (बांग्लादेशी) तक को दिल्ली में बसाकर गांवों के साथ-साथ जे.जे. कालोनियां खड़ी कर दी जिसका एकमात्रा उद्देश्य जाटों को अल्पमत में लाकर उनकी पहचान और संस्कृति को मिटाना था । वरना 12 लाख नागाओं का नागालैण्ड, 3 लाख बोड़ों का बोडोलैण्ड ओर 2 लाख गोरखों का गोरखालैण्ड इसी देश में है तो फिर देश में 5 करोड़ जाटों का जटलैंड क्यों नहीं?


क्योंकि आजादी मिलने पर जाटों ने सोचा कि उन्होंने सब कुछ पा लिया वरना यह कैसे हो सकता था कि जो राज कर रहे थे वो राज से दूर रहे और जिनके पूर्वज अंग्रेजों के पिट्ठू व मुंशी थे वे ही सन् 1947 के बाद राज करने लगे । इसका मूल कारण जाटों की इच्छाशक्ति और महत्त्वाकांक्षा का पतन होना । जबकि पाकिस्तान से


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शरणार्थी बनकर आये श्री मनमोहन सिंह कोहली और श्री लालकृष्ण आडवाणी (सिंधी) दोनों ही प्रधानमन्त्री पद के दावेदार बने और सुषमा स्वराज तथा अरूण जेटली लोकसभा व राज्यसभा में विपक्ष के उपनेता बने । यह सभी इच्छाशक्ति और महत्त्वाकांक्षा का ही करिश्मा है वरना इन्हीं के पूर्वजों ने कभी दीनबन्धु सर छोटूराम को काले झण्डे दिखाये थे । जाट कोई जाति नहीं, जाट एक कौम है। वास्तव में जाट कौम ही नहीं एक राष्ट्र है । यह बात विद्वान् इतिहासकार कालीरंजन कानूनगो तथा उपेन्द्रनाथ शर्मा ने अपने इतिहासों में लिखी है । लेकिन यहां तो जाट हरयाणा और पंजाब की कुर्सियों तक ही सीमित रह गये।


जाट दिल्ली की राजसत्ता से पीछे रहने के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि इसी जाति का एक पढ़ा-लिखा वर्ग जात-पात का विरोध करने लगा है । लेकिन हैरत की बात है कि यही लोग अपने बच्चों के रिश्तों के लिए जाटों को ही ढूंढते हैं । दूसरा यही लोग दुष्प्रचार करते हैं कि जाट कौम कभी इकट्ठा नहीं हो सकती । जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी परिवार, गांव, समाज और जाति किसी मुद्दे पर इकट्ठा हुआ करती है । जब कौम के पास 65 साल से (चौ० छोटूराम के देहान्त के बाद) कोई कौमी मुद्दा ही नहीं तो फिर किस बात के लिए इकट्ठा हो? इसलिए आज कौम को अपने हक के आधार पर मुद्दे बनाने की आवश्यकता है ।


उदाहरण के लिए पूरे भारत में जाटों का समान रूप से आरक्षण हो । यह पहला ज्वलंत मुद्दा हो, दूसरा मुद्दा जाटों की दिल्ली देश की राजधानी में जाटों की एक चौपाल हो जिसे जाट हाऊस के नाम से जाना जाये । साथ-साथ तीसरा मुद्दा हो दिल्ली की कुर्सी । जब एक नेता 10-12 सांसद लेकर दिल्ली की कुर्सी का दावा करता है तो उनसे दुगुने जाट सांसद होने पर भी जाट क्यों नहीं ? इसलिए जाट कौम को अपनी ताकत को जानना और अधिकारों को पहचानना होगा ।



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क्या जाट कौम वास्तव में आजाद है?

इसका उत्तर विस्तार में ही दिया जा सकता है लेकिन फिर भी मैं इस लेख के द्वारा देने का प्रयास कर रहा हूं । कहने को देश हजारों साल की गुलामी झेलने के बाद 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ लेकिन वास्तव में यह सत्ता हस्तांतरण था जिसका प्रमाण है कि लार्ड माऊंट बेटन के कहने अनुसार आजादी का दिन 15 अगस्त 1947 को इसलिए निर्धारित किया कि इसी दिन 2 वर्ष पूर्व उसने फ्रंटियर का सुप्रीम कमांडर होते हुए 15 अगस्त 1945 को दूसरे विश्व युद्ध में जापान में एटम बम डलवाकर जापान और आई.एन.ए. को हथियार डालने के लिए मजबूर कर दिया था । इसलिए 15 अगस्त का दिन अंग्रेजों के लिए एक ‘विजय दिवस’ था । जब 15 अगस्त 1947 को सत्ता का हस्तांतरण हुआ जो अंग्रेजों की विजय की दूसरी सालगिरह थी और सत्ता सीधे तौर पर ब्राह्मण, बणिया और कायस्थ जातियों के हाथ आई । कुछ समय बाद पाकिस्तान से आने वाली अरोड़ा, खत्री और सिंधी जातियों ने अपनी दिमागी कसरत (साम, दाम, दण्ड, भेद) से इस सत्ता में अपनी भागीदारी बढ़ाई । प्रमाणस्वरूप यशपाल कपूर नेहरू के टाइपिस्ट थे तो आर.के. धवन इन्दिरा गांधी के टाईपिस्ट थे जो इसी नीति के कारण सांसद और केन्द्र में मंत्री तक बने जबकि इनका समाज सेवा व राजनीति से लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं था । इसके बाद कुछ जातियों ने अपनी जागरूकता के कारण समय आने पर सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई । लेकिन उत्तर भारत की सबसे बड़ी ‘जाट कौम’ की इस सत्ता में कहीं कोई भागीदारी नहीं थी ।


किसान और जाट एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिसकी पहचान उसकी अपनी किसानी, जमीन, गांव, जवान और सामाजिक व्यवस्था से ही रही है । जाट कौम का उस समय लगभग शत-प्रतिशत हिस्सा गांव में रहता था और आज 63 वर्षों बाद भी 90 प्रतिशत हिस्सा गांव में रहता है जबकि ऊपरलिखित छह सत्ता भोगी जातियों


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का 90 प्रतिशत हिस्सा शहरों में रहता है । कहने का अर्थ एकदम विपरीत आंकड़े हैं जबकि इन छः जातियों की जनसंख्या पूरे भारत में मात्र 12 प्रतिशत है अर्थात् 12 प्रतिशत लोगों के पास इस देश की वास्तविक सत्ता है जो देश की बाकी 88 प्रतिशत जनसंख्या पर अपना राज करते हैं । हालांकि सन् 1950 में 10 देशों के संविधानों की नकल करके देश का संविधान बनाया गया लेकिन इस संविधान में कृषि प्रधान देश होते हुए भी गांव और कृषि के बारे में एक शब्द तक नहीं लिखा गया जबकि उस समय 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग गांव में रहकर कृषि पर आधारित थे । अंग्रेजों की नीति और कानून जो उन्होंने अपने हित में बनाए थे, को हूबहू समूचे देशवासियों पर लाद दिये गए जो सारे के सारे ‘किसान’ अर्थात् ‘जाट’ विरोधी थे और उसके बाद भी जो सुधार के नाम से परिवर्तन हुआ वह उससे भी अधिक जाट विरोधी रहा उदाहरण के लिए -


1. अंग्रेजों की शहरीकरण नीति को जारी रखा ताकि सभी सुविधाएं शहरों तक सीमित रहें और पूरे विकास की धुरी इन्हीं शहरों तक सीमित रहे जिस कारण ऊपरलिखित छः शहरी जातियों ने ही इसका लाभ उठाया और पूरे देश में यह संदेश गया कि जिन्होंने इनका लाभ उठाना है वे अपनी जन्मभूमि और अपना पुश्तैनी पेशा सभी छोड़कर अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बनकर शहरों में अपना बसेरा करे । इसी नीति के कारण आज तक 10 प्रतिशत जाटों को अपने घर-गांवों से बेघर होना पड़ा और पड़ रहा है अर्थात् परोक्ष रूप से उनको मजबूर किया गया जिसे किसी प्रकार से आजादी नहीं कहा जा सकता ।


2. अंग्रेजों ने सन् 1894 में जमीन अधिकृत करने का कानून बनाया जो गुलाम देशवासियों के लिए बनाया गया था जिसमें सरकार को अपनी मर्जी से उसकी कीमत निर्धारित करके सरकार अपने आधीन करती है और वह जब चाहे अपनी मर्जी अनुसार मुआवजा देकर किसान को अपने पुश्तैनी पेशे से बेघर कर सकती है जिसमें


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किसान के बच्चों के पेशे की सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं । इसी कानून को सरकारों ने सन् 1947 के बाद भी उसी रूप में जारी रखा और सरकार ने उनके भावी पेशों की कोई जिम्मेदारी नहीं ली अर्थात् जाटों को उनकी जमीन के चंद पैसे देकर उनके पुश्तैनी पेशों से बेदखल करके सड़कों पर छोड़ दिया । वहीं अंग्रेजों का 1894 का कानून रहने के कारण देश का राज गौरे अंग्रेजों के हाथ से काले अंग्रेजों के हाथ आ गया । इसलिए चौ० छोटूराम ने कहा था - काले अंग्रेज गौरे अंग्रेजों से बुरे साबित होंगे । ओर यह हो रहा है । इस कानून के तहत जाटों को न तो अपनी जमीन की आजादी है और न ही उसकी कीमत की इसलिए जाट किसान को आजाद नहीं कहा जा सकता है । जाट भाइयों इस अंग्रेजों के कानून के तहत जो भी हमारी जमीन किसी भी सरकार ने किसी भी कीमत पर अधिग्रहित की है उसे वापिस लेना जाट कौम का धर्म और कर्म है । इसलिए आने वाले समय में अपने इस अधिकार के लिए तैयार हो जाओ । जैसे कि मेधा पाटेकर (ब्राह्मणी) अन्य लोगों के लिए जिनकी जमीन चली गई है, सत्याग्रह, आन्दोलन और मरणाव्रत तक रखती है लेकिन जाट किसानों के लिए उसने आज तक कोई बात नहीं कही । यही तो जाट कौम के खिलाफ इन तथाकथित समाज-सेवकों का दोगलापन है ।


3. देश आजाद होते ही जमीन सरप्लस होने का कानून बनाया गया जिसमें 30 एकड़ से अधिक जमीन को सरप्लस माना गया जो एक सोचा और समझा षड्यन्त्र था क्योंकि इस सच्चाई को बिल्कुल नजर अंदाज कर दिया गया कि जाट किसान के चार या पांच पीढ़ी के बाद इनके बच्चों के पास कितनी जमीन शेष रह पाएगी । इसी के परिणामस्वरूप ऐसे जाटों के बच्चों को आज रोजी रोटी के लिए मोहताज होना पड़ रहा है जबकि दूसरी ओर आज तक किसी व्यापारी का कोई एक कारखाना या दुकान सरप्लस नहीं हो पाई । इस प्रकार देश के अलग-अलग वर्गों के लिए अलग-अलग कानून बनते रहे


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और ऐसे कानून जाट विरोधी हैं जिसे किसी प्रकार से जाट किसान की आजादी नहीं कहा जा सकता है ।


4. अंग्रेजों की दलाली और बिचौलिया नीति को अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए बनाया जिसे सन् 1947 के बाद और भी सुदृढ़ कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप अन्न व अन्य खाद्य उत्पादन करने वाले किसान व जाट किसान जो छः महीने तक तपती धूप और कड़कती ठंड में सिकुड़ते हुए संघर्ष करता रहा वह दरिद्रता की तरफ बढ़ता चला गया जबकि उसी उत्पादन की दलाली करने वाला मालामाल होता चला गया अर्थात् देश का सबसे बड़ा उत्पादक किसान अपनी छः महीने की कमाई की कभी भी कीमत वसूल नहीं कर पाया । उसी के परिणामस्वरूप हरित क्रान्ति की पूरी कमाई बिचौलिया और दलाल गटक गए और जाट किसान के हाथ में सरकारी कर्जा और आत्महत्या रह गए । इसी कारण आज भी जाट किसान दलालों/ बिचौलियों व सरकार की रहमोकरम पर जिंदा है । इस प्रकार दूसरों के रहमोकरम पर जिंदा रहने वालों को आजाद किस प्रकार कहा जा सकता है ।


5. जाट कौम सदियों से अपनी सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था के कारण अपने अस्तित्व को कायम रखती आई जिसमें गौत्रा प्रथा महत्त्वपूर्ण थी। गोत्रा की व्यवस्था तथा खाप co-related है । और इसी व्यवस्था के कारण अपने को सुरक्षित महसूस करती रही लेकिन फिर एक षड्यन्त्र के तहत सन् 1955 में ‘हिन्दू विवाह कानून के तहत समगोत्र विवाह की अनुमति देकर इस व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास हुआ जिसकी सुरक्षा के लिए जाटों ने अपने बच्चों का बलिदान तक देना पड़ रहा है जिसके विरोध में भारतवर्ष का समूचा मीडिया जाटों को तालिबानी स्थापित करने के लिए प्रयासरत है तथा साथ-साथ जाटों की छवि को धूमिल करने के लिए ‘ना आना इस देश लाडो’ जैसे टी.वी. सीरियल दिखाए जा रहे हैं । जाटों को लुटेरा लिखा गया जबकि ‘असली लूटेरों’ की कोई बात तक नहीं करता । यह सब नीति


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किसी गुलाम कौम के विपरीत ही बनाई जा सकती है इसलिए जाट कौम को किसी भी रूप में आजाद नहीं कहा जा सकता है ।


6. आज तक देश में जितने भी कानून बने हैं उन्हें किसी प्रकार से भी जाट हितैषी नहीं कहा जा सकता चाहे कोई बड़ा कानून हो या छोटा । जाटों का द्वितीय विश्वयुद्ध से राज राईफल्स, ग्रनेडियर्ज और आर्मड सेना में 40 प्रतिशत का आरक्षण था जो सन् 1998 में घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया अर्थात् जहां पांच हजार जाटों को रोजगार मिलता था, अभी आधा रह गया । जाट कौम आरक्षण के लिए संविधान की धारा 340 के अनुसार आरक्षण की दोनों शर्तों को पूरा करती है लेकिन फिर भी जाट कौम को आरक्षण से बाहर रखा और उसके बाद जो भी दिया वह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरीके से दिया गया तथा कुछ राज्यों में जाटों को बिल्कुल ही छोड़ दिया गया । इस प्रकार आरक्षण के मामले में सरकारों ने जाट कौम के साथ भेदभाव किया जो किसी गुलाम कौम के साथ किया जाता है । इसलिए जाटों को आजाद नहीं कहा जा सकता ।


7. देश को तथाकथित तौर पर आजाद होने के बाद वर्दी वाली सभी केन्द्र की सेवाओं में शारीरिक परीक्षण के अलग से अंक निर्धारित रहे जो किसी उम्मीदवार की मैरिट बनाने में बहुत बड़े सहायक थे । जाट कौम एक कृषक और ग्रामीण होने के नाते सम्पूर्ण भारत में शारीरिक परीक्षण में सर्वोपरि रही है इसलिए उनके बच्चे शारीरिक परीक्षणों में उत्कृष्ट अंकों से सफल होते थे जो जान बूझकर सरकार ने ऐसे कानून बनाए जिसमें शारीरिक परीक्षणों के नम्बर हटा दिये गए जिससे कौम के रोजगार पर एक बहुत बड़ा धक्का लगा । इसी प्रकार केन्द्र ने अर्धसैनिक बलों आदि में जाट कौम उत्तर भारत की बलशाली कौम होने के कारण अच्छी खासी नफरी रहती थी लेकिन केन्द्र की सरकार की नीति के तहत इन नौकरियों में राज्यवार आरक्षण देकर उत्तर भारत की संख्या को घटाया गया जिसका सीधा असर जाट कौम के रोजगार पर पड़ा । इस कारण ऐसे नियम और


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कानूनों को जाट विरोधी कहा जाएगा जो एक गुलाम के विपरीत लागू किए जाते हैं ।


8. इस प्रकार से अनेक सरकार की नीतियां और कानून हैं जो समस्त जाट विरोधी हैं । उदाहरण के लिए सन् 1991 से जाट किसानों को खाद आदि पर दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म करके मिल-मालिकों के तहत दिए जाने का कानून बनाया जिसका लाभ मील मालिक गटक गए और किसान की लागत बढ़ती चली गई और इस बढ़ती लागत के अनुपात में किसान के उत्पादन की कीमतें आधी भी नहीं बढ़ पाई परिणामस्वरूप जाट किसान गरीब से और गरीब होता चला गया । अर्थात् सरकार ने अन्य उत्पादकों को मालामाल कर दिया और किसान जाट को गुलाम बना दिया गया । इसलिए जाट किसी भी दृष्टि से आजाद नहीं हैं ।


9. इसी प्रकार स्कूल के पाठ्यक्रमों में इतिहास विषय में राजपूत, मराठा आदि का इतिहास पढ़ाया जाता है लेकिन महाराजा सूरजमलमहाराजा रणजीत सिंह आदि का नाम तक नहीं है । अर्थात् पाठ्यक्रमों से जाट इतिहास नदारद है । इतिहास में केवल इतना ही लिखा कि जाट लूटेरे थे । इस प्रकार की नीति एक गुलाम समाज के प्रति ही अपनाई जा सकती है इसलिए जाट समाज को किसी भी प्रकार से आजाद नहीं कहा जा सकता ।


सन् 1947 के बाद जाटों ने अपनी 26 रियासतों का भारत संघ में विलय इस विश्वास के साथ किया था कि भारत सरकार उनकी संस्कृति, पहचान, अधिकारों व इतिहास की सुरक्षा करेगी । लेकिन कहां है वह सुरक्षा? हमें इसका उत्तर चाहिए ।


आज हमारे खाने-पीने व मनोरंजन तक पर मनुवादियों ने पूरा कब्जा कर लिया है यहां तक कि धार्मिक कार्य भी इन्हीं अनुसार करते हैं । हमारी प्रत्येक गतिविधि इनके नियन्त्रण में है । यह अघोषित गुलामी है । इस सच्चाई को हमें स्वीकार करना होगा । हमारे जाट नेता वोट के लिए भीख के कटोरे लेकर दूसरी जातियों के सम्मेलनों में


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जाते हैं और हमारे वोटों को बंधक और गुलाम समझते हैं । इसी का उदाहरण है कि कल्पना चावला के नाम से मेडिकल कॉलेज बन रहा है जो विदेशी नागरिक थी और विदेश में ही मरी । जबकि कारगिल में देश के लिए मरने वालों के नाम शहीद मेडिकल कॉलेज नहीं रखा, यही तो इस गुलामी का दिवालियापन है ।


अब प्रश्न पैदा होता है कि वर्तमान हालात में जहां पर लोकतन्त्र के नाम पर निजी स्वतन्त्रता के बहाने शहरों में रहने वाले किसी भी व्यापारी को मनमाने ढंग से लूट की जो पूरी आजादी प्राप्त है, उस अघोषित गुलामी से जाट कौम जो आज भी 90 प्रतिशत गांव में रहती है, वे संवैधानिक ढांचे में रहते हुए आजादी कैसे मिले ? हमें जानना होगा कि चौ० छोटूराम की दोहरी मौत क्यों हुई ? पहले उनका स्थूल शरीर गया जो प्राकृतिक देन थी लेकिन उनकी विचारधारा को भी मारा गया और इसके हत्यारे कौन हैं? इसकी जानकारी के लिए अगला अंक पढ़ें चौ० छोटूराम का हत्यारा कौन? भाग-2.


हमें समझना होगा कि गुलामी क्या होती है? जो कौम आजाद नहीं उसे ही गुलाम कहा जाता है और गुलामी की परिभाषा विद्वानों ने अंग्रेजी में इस प्रकार है - "Slavery does not merely mean a legalized form of subjection. It means a state of society in which some men are forced to accept from other the purpose which control their conduct." अर्थात् 'दासता का मतलब केवल राज्य का वैधता प्राप्त रूप ही नहीं है, इसका अर्थ समाज की वह स्थिति है जिसमें कुछ लोगों को दूसरे से ऐसे उद्देश्य लेकर अपनाने के लिए विवश कर दिया जाता है जो उनका व्यवहार नियंत्रित करते हैं ।


आज हमारे साथ भी यही हो रहा है कि हमें कानूनी तौर पर दूसरों की जीवन शैली अपनाने पर मजबूर किया जा रहा है । फिर हम आजाद कहां हैं ?



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बोलना ले सीख और दुश्मन को ले पहचान

हे मेरे जाट भाई, मेरी दो बात मान ले - पहली, बोलना ले सीख - दूजी, दुश्मन को ले पहचान । यह बात दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम ने अपने जीवन में बार-बार दोहराई । ‘बोलना ले सीख’ उनका अभिप्राय था कि जाट कौम अपने अधिकार के लिए बोलना शुरू करे, गूंगा बनकर रहने से उसकी किसी समस्या का हल नहीं है । यदि हम अपने अधिकारों की मांग नहीं करते हैं तो आने वाली हमारी पीढ़ियां हमें कायर कहेंगी । विकास की दौड़ में गूंगी कोम हमेशा पिछड़ जाती हैं और दूसरे लोग उनके अधिकारों का जमकर अतिक्रमण करते हैं । इसलिए उनका कहना था कि हमें जहां भी मंच मिले अपनी आवाज को बुलन्द करके अपने अधिकारों के लिए हुंकार भरी होगी, गर्जना करके सत्ता और शोषक को बतला दें कि हम अपने अधिकारों के लिए जागरूक हैं । यदि हमारे अधिकारों का अतिक्रमण हुआ तो हम चुप रहने वाले नहीं हैं और हम अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाना जानते हैं । संतोषी बने रहना विकास की दौड़ में सबसे बड़ी अड़चन है । इसलिए उन्होंने जाट कोम को संतोषी भाव को त्यागने का आह्वान किया था । उन्होंने अपनी इस नीति को बार-बार जाट गजट में दोहराया था ।


दूसरी बात “अपने दुश्मन को ले पहचान” जब हम बोलना सीख गये तो साथ-साथ अपने दुश्मन की पहचान भी करनी होगी जो हमारे हितों और अधिकारों का हनन कर रहा है । हमें जानना होगा कि कौन वर्ग और जाति हमारा शोषण कर रही है । उनका यह भी कहना था कि दुश्मनों को भी जानना पड़ेगा जो धर्म के नाम पर हमारा आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण करके हमारी कौम में फूट डालना चाहते हैं । इसलिए उनका कहना था कि दुश्मन की पहचान करके ही उनसे निपटा जा सकेगा । ये दुश्मन हमारे चारों तरफ


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नजदीक रहकर हमारे हितों पर प्रहार करते रहते हैं, लेकिन हम बेखबर बने रहते हैं । इसलिए हमें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हमें बोलना सीखकर दुश्मन की पहचान करनी होगी । चौधरी छोटूराम अपने हर भाषण से पहले यह शेर अवश्य कहा करते थे - खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले खुदा बन्दे से खुद पूछे कि बता तेरी रजा क्या है ।


चौधरी छोटूराम हमारे नेता ही नहीं थे बल्कि वे स्वयं एक विषय और संस्था थे । और इस विषय के बारे में हम जितना भी अध्ययन करते जायेंगे हम उतना ही इस विषय के उजियारे छोर की तरफ बढ़ते चले जायेंगे जो हमें अंधकार से मुक्त करता है । चौधरी छोटूराम रोहतक जिले की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे । जब सन् 1920 में कर्मचन्द गांधी ने अंग्रेजों के विरोध में अपना पहला आंदोलन असहयोग की घोषणा की तो उन्होंने तुरन्त कांग्रेस छोड़ दी । क्योंकि उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से यह भांप लिया था कि जिस जाट किसान को वे कई सालों से दुश्मन की चुंगल से निकालने की योजना बना रहे हैं इस आन्दोलन के कारण वे सदा-सदा के लिए उनके चंगुल में फंस जायेंगे । क्योंकि वे जानते थे कि जब जाट किसान जमीन की मालगुजारी देना बन्द कर देगा तो ब्रिटिश सरकार उनकी जमीन को नीलाम कर देगी और उसे व्यापारी वर्ग खरीद लेगा । इसका उदाहरण उनके सामने 1857 के आन्दोलन का था जिसमें अंग्रेजों ने सैकड़ों जाटों गांवों को जमीन को नीलाम कर दिया था जो कभी वापिस नहीं मिली । देश के आजाद होने के बाद आज भी ऐसे उदाहरण हैं जिसमें सभी प्रयासों के बाद न तो जाटों को जमीन मिली और ना ही मुआवजा । जिसमें हरियाणा का रोहणात और दिल्ली का बाकरगढ़ आदि गांवों के उदाहरण दिये जा सकते हैं ।


दूसरा, चौधरी साहब यह अच्छी तरह समझ चुके थे कि गांधी के आन्दोलन में केवल शोषण जातियां उदाहरण के लिए ब्राह्मण, बनिया


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और कायस्थ इकट्ठे हो गये थे जो जाट कौम के पुराने शोषक थे । इसलिए चौधरी छोटूराम ने अपने और अपनी कौम को इस आन्दोलन से दूर रखकर इसके विरोध में संयुक्त पंजाब में जमींदारा पार्टी का गठन किया और सही समय पर कौम के दुश्मन की पहचान की । चौ० छोटूराम ने अपने पूरे जीवन में अपनी कौम के फायदे का कभी कोई एक अवसर भी नहीं गंवाया । जब सन् 1928 में साईमन कमीशन भारत आया तो उसकी स्वागत कमेटी के अध्यक्ष बने जबकि कांग्रेस उनका विरोध कर रही थी । वे भली-भांति जानते थे साइमन कमीशन की रिपोर्ट से जाट कौम को दीर्घकालीन फायदे होने हैं और उनकी प्रगति में कोई बाधा नहीं आयेगी । इसी बात पर दुश्मनों के समाचार पत्रों ने चौ० छोटूराम को अंग्रेजों का पिट्ठू लिखना शुरू किया । लेकिन ये दुश्मन कैसे भूल गये थे कि इंग्लैण्ड का राजा जार्ज पंचम सन् 1911 में भारत आया तो उसकी स्वागत कमेटी के संयोजक पण्डित नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ही थे । और जार्ज पंचम के स्वागत में आज का राष्ट्रीय गान जन-मन-गण रचा गया और गाया गया और इसके साथ-साथ मोतीलाल ने नारा लगाया लॉन्ग लिव अनार्की जिसका अर्थ था कि ब्रिटिश साम्राज्य हमेशा कायम रहे । याद रहे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बहनोई इंग्लैण्ड में रहते थे । उन्होंने ही जार्ज के स्वागत में एक गान लिखने के लिए टैगोर को कहा था और बाद में रविन्द्रनाथ टैगोर को गीतान्जलि के लिए नोबल पुरस्कार मिला । उसका कारण परोक्ष रूप से यही गाना था । इसी गान को राष्ट्रीय गान बनाने के विरोध में संविधान सभा के 319 सदस्यों ने कड़ा विरोध किया लेकिन पण्डित नेहरू ने उनकी एक नहीं सुनी तो फिर पण्डित मोतीलाल और पण्डित जवाहर लाल नेहरू को अंग्रेजों का पिट्ठू क्यों नहीं बतलाया गया ? बाद में पण्डित टैगोर ने लाला कर्मचन्द गांधी को महात्मा की उपाधि दे दी तो लाला गांधी ने पण्डित जी को बदले में गुरुदेव की उपाधि देकर अपनी गुरु दक्षिणा


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चुकाई । इसी प्रकार जब गांधी ने नेहरू को देश का प्रधानमन्त्री बनाया तो नेहरू ने गांधी को पूरे राष्ट्र का ही पिता बना दिया ।


वैसे इंग्लैण्ड के रक्षामन्त्री मि० क्रिप्स ने सन् 1948 में इंग्लैण्ड में ब्यान दिया हमने अपने व्यापार की सुरक्षा के लिए भारत पर 200 वर्ष तक राज किया और उसी व्यापार की सुरक्षा के हित में हम भारत की सत्ता अपने एजेंटों को दे आये । इससे स्पष्ट है कि अंग्रेजों के पिट्ठू और एजेन्ट कौन थे ।


जब सन् 1947 में दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ तो चौ० छोटूराम ने जाटों को आह्वान किया कि वे सेना में भर्ती हो जाएं और इसी आह्वान पर लाखों जाट सेना में भर्ती हुये और जाटों ने रणक्षेत्र में अपनी बहादुरी को सिद्ध किया और वास्तविक क्षत्रिय कहलाये । चौ० छोटूराम का उद्देश्य था कि जाट सेना में जायेंगे तो अपने ग्रामीण माहौल से निकालकर दुनिया को देखेंगे जिससे उनको बहुत बड़ा अक्सपोजर मिलेगा और साथ-साथ जाटों की आर्थिक हालत में भी सुधार आयेगा । उनकी यह सोच सच साबित हुई जब जाट रणबांकुरों ने अपनी वीरता के बल पर भारतीयों को मिले 40 विक्टोरिया क्रास में से 10 विक्टोरिया क्रास जाटों के नाम थे । (एक गैर जाट रांघड़ जाति का चौथी जाट बटालियन से था ।) इन्हीं जाट सैनिकों के बच्चे बाद में जनरल और अन्य ऊंचे-ऊंचे पदों पर पहुंचे और यह प्रक्रिया आज तक जारी है ।


याद रहे अहिंसा के पुजारी कर्मचन्द गांधी ने बाद में इसी युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया । जबकि सभी जानते हैं कि युद्ध में हमेशा हिंसा होती है और युद्ध हिंसा के लिए ही लड़े जाते हैं । लेकिन फिर भी कर्मचन्द गांधी को अंग्रेजों का पिट्ठू न लिखकर अहिंसा का पुजारी कहा जाता है ।


चौ० छोटूराम दुश्मन को पहचानने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते थे । इसलिए वे कहा करते थे - गोरे अंग्रेजों से काले अंग्रेज बुरे


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साबित होंगे । और इसके लिए आज कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है । धर्म के नाम पर हमारे दुश्मनों ने हमारे विरोध में जो प्रचार किया उसका मुंहतोड़ जवाब चौ० छोटूराम ने संयुक्त पंजाब के सन् 1936 के चुनावों में दिया जब जमींदारा पार्टी के 120 विधायक विजयी रहे कांग्रेस पार्टी मात्र 16 तथा जिन्ना मुस्लिम लीग के मात्र 2 विधायक ही जीत पाये । उनमें से भी एक जमींदारा पार्टी में चला गया और उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कर्मचन्द गांधी का असहयोग आन्दोलन केवल उच्च जातियों तथा शहरों तक ही सीमित था ।


पंजाब में हमारे दुश्मनों के अखबार चौ० छोटूराम को हिटलर लिखते थे इसके उत्तर में चौ० साहब कहते थे वहां हिटलर तो होगा ही जहां यहूदी रहेंगे । यहूदी कौम संसार की एक बड़ी व्यापारी और शोषक कौम रही है । इसी कारण हिटलर ने उनकी तबाही की थी । साम्यवादी सिद्धान्त का जन्मदाता कार्लमार्क्स स्वयं एक यहूदी था जिनका उद्देश्य जमींदारों को उनकी जमीन से बेदखल करने तक ही सीमित था और कुछ नहीं । इसलिए हमें यह जानने का अधिकार है कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही जाट कौम के दुश्मन हैं और अनैतिक हैं । इसी कारण चौ० चरणसिंह ने सन् 1952 में नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में पण्डित नेहरू के सहकारी खेती प्रस्ताव का विरोध किया था और उसे पास नहीं होने दिया था । इसलिए जाट कौम का हित केवल छोटूरामवादी समाजवाद में है और यह सच्चा समाजवाद चौ० छोटूराम का था जिसे हमें अपनाना होगा ।


वर्तमान में जाट कौम बोलना तो सीख रही है लेकिन मुद्दों से हटकर । क्योंकि जाट कौम चौ० छोटूराम के बाद कोमी मुद्दे बनाने में पूर्णतया असफल रही है । इसी कारण जाट कौम के अनेक दुश्मन भी पैदा हो गये जिनमें प्रमुख हैं - जिन्होंने अपने पाखण्डी ग्रन्थों में जाट कौम को शूद्र लिखा और फिर सन् 1932 में जाट कौम को लाहौर हाईकोर्ट से एक शूद्र जाति घोषित करवाया और साथ-साथ जाट कौम


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के इतिहास का अतिक्रमण जारी रखा और आज जाट कौम के आरक्षण का विरोध कर रहे हैं । दूसरा दुश्मन वो है जिनके पूर्वजों ने चौ० छोटूराम को काले झण्डे दिखाये और जाट कौम की एक बड़े भाग की नौकरियों पर कब्जा कर लिया और जाट कौम की संस्कृति का अतिक्रमण कर रहे हैं । तीसरा दुश्मन जो अनुसूचित जाति के कानून के तहत जाटों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं ।


यदि हमने अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त करना है तो दीनबन्धु चौ० छोटूराम को पुनः जीवित करना होगा, जिस प्रकार केवल 30 वर्षों में दलित जातियों ने डॉ० अम्बेडकर को जीवित कर दिया । जाट भाइयो, आओ और कौम को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाओ ।



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चौ० छोटूराम का हत्यारा कौन? (1)

यह प्राकृतिक सिद्धान्त है कि जो पैदा होगा वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होगा । कहते हैं कि चौ० साहब को देहान्त से कुछ दिन पहले से ही उनके पेट में अचानक दर्द रहने लगा था । कुछ ही दिन में मलेरिया और पेचिस ने भी घेर लिया । उनके निजी डॉक्टर नंदलाल दवा दारू करते रहे लेकिन 9 जनवरी 1945 को प्रातः 10 बजे उनके हृदय में पीड़ा हुई और दम घुटने लगा । उस समय संयुक्त पंजाब के प्रधानमन्त्री (उस समय राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमन्त्री कहा जाता था) सर खिजय हयात खां तिवाणा को बुलाया गया । चौ० साहब हयात खां से गले से लिपट गए और धीरे से कहा - हम तो चलते हैं भगवान सबकी मदद करे । ये उनके अंतिम शब्द थे। यह कहकर चारपाई पर फिर से लेट गये और सदा के लिए भगवान के पास चले गए । यह देखकर हयात साहब और परिवार के उपस्थित अन्य लोग सभी रोने लगे । यहां इन्सानियत रो रही थी। हिन्दू मुस्लिम जाट भाईचारा रो रहा था, जाट कौम के अरमान रो रहे थे और सबसे बढ़कर जाट कौम का भविष्य रो रहा था । यह देहान्त चौ० साहब के स्थूल शरीर का था जिसकी हमें उस समय परम आवश्यकता थी । इससे एक दिन ही पहले 8 जनवरी 1945 को चौ० साहब ने पंजाब के राजस्व मन्त्री होते हुए भाखड़ा बांध का पूर्ण सर्वे करवाकर और इसका निरीक्षण करने के बाद इस योजना पर अपने हस्ताक्षर किए थे जो उनके अन्तिम हस्ताक्षर साबित हुए ।


इसके अतिरिक्त पंजाब से 80 वर्षीय सरदार राजेन्द्र सिंह निज्जर जो वर्तमान में इंग्लैण्ड में रहते हैं, ने चौ० साहब की मृत्यु का कारण बतलाते हुए मनोज दूहन को ई-मेल किया जो इस प्रकार है:-


Manoj, My father did say that, that Lalas used to welcome Chhotu Ram Ohlayan with BLACK JHANDIS. He did say that he was given poison in the food and he had stomach problems overnight. But our


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Haryanavi Jats should know better. There is no doubt that he was poisoned. Now, most people are frightened of the Khatris as they are Rulers of the Kalyug. So, better do research with close relatives. All people of his age have died, both in India & Pakistan. Pakistan Jatts were more faithful than our Panjabi Jatts. There is Jatt Sabha in Pakistan. If you go on Apna Panjab website, www.apna.org.com, you might find more information too. I will keep you informed .

- Uncle-Ch.Rajender Singh Nijjar Jatt. England


अर्थात् - मनोज, मेरे पिता जी ने बतलाया था कि चौ० छोटूराम ओहलान को लाला लोग (हिन्दू पंजाबी अरोड़ा व खत्री) काली झण्डियां दिखाया करते थे । उन्होंने बतलाया था कि उनको खाने में जहर दिया गया था, जिसकी वजह से रात से ही उनके पेट में तकलीफ पैदा हो गई थी । लेकिन हमारे हरयाणवी जाटों को इस बारे में अधिक ज्ञात होना चाहिए । इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि उनको जहर दिया गया था । आजकल अधिकतर लोग खत्री समुदाय से डरे हुए हैं, क्योंकि यह समुदाय इस कलयुग का शासक है । इसलिए उनके नजदीकी सम्बन्धियों से इस बारे में और अधिक शोध करना बेहतर होगा । उस समय के सभी बुजुर्ग भारत व पाकिस्तान में मर चुके हैं । पाकिस्तान के जाट पंजाबी जाटों से अधिक वफादार थे । पाकिस्तान में जाट सभा है । यदि आप ‘अपना पंजाब’ बैवसाईट www.apna.org.com में जाएंगे तो अधिक जानकारियां मिलेंगी - चाचा - राजेन्द्रसिंह निज्जर जट्ट, इंग्लैंड ।


लेकिन मेरा आज का विषय उनके स्थूल शरीर त्यागने की जांच का नहीं बल्कि उनकी सूक्ष्म विचारधारा को जानने तथा उस विचारधारा के हत्यारों के बारे में जानने का हैं क्योंकि उनकी विचारधारा की हत्या उनके स्थूल शरीर की मौत से जाट कौम के लिए कहीं अधिक घातक सिद्ध हुई । क्योंकि कोई भी क्रान्ति, व्यवस्था में बदलाव व सुधार किसी भी विचारधारा के तहत होता है । चौ० साहब की विचारधारा धीरे-धीरे लेकिन बड़े सशक्त तरीके से संयुक्त पंजाब में


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ही नहीं पूरे उत्तर भारत (जाट बाहुल्य क्षेत्र) में अपना रंग ला रही थी । इसकी शुरुआत इन्होंने सन् 1911 में ही आगरा में अपनी वकालत की पढ़ाई पूर्ण करते ही शुरू कर दी थी और उन्होंने आगरा में जाटों के बच्चों के लिए होस्टल बनवाया । उसके बाद 1911 में जार्ज पंचम के आगमन पर सोनीपत तहसील को दिल्ली जिले से निकालकर रोहतक के साथ मिलाने पर वे सन् 1912 में रोहतक आकर वकालत करने लगे । उन्होंने सन् 1913 में रोहतक जाट हाई स्कूल की स्थापना करवाई । कहने का अर्थ यह है कि उनकी विचारधारा का प्रथम बिन्दु शिक्षा था । चौ० साहब यह भली भांति जानते थे कि उनकी जाट कौम गांव में रहती है और शिक्षा में पिछड़ी हुई है । जब 6 नवम्बर 1920 को उन्होंने रोहतक जिले के कांग्रेस अध्यक्ष पद को इसलिए त्याग दिया क्योंकि वे कर्मचन्द गांधी के असहयोग आन्दोलन के कट्टर विरोधी थे । इसके कारण, बोलना ले सीख और दुश्मन को पहचान ले लेख में पहले ही विस्तार से लिख दिया है । चौ० साहब जानते थे कि शिक्षा और आर्थिक स्तर एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए उन्होंने शिक्षा के साथ-साथ अपनी विचारधारा को पूरी तरह आर्थिक पर केन्द्रित कर लिया था । कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने सर फजले हुसैन से मिलकर पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदारा पार्टी) का गठन किया जिसके द्वारा अपनी विचारधारा को अमलीजामा पहनाया जा सके । वैसे सन् 1916 से ही संयुक्त पंजाब में गैर राजनीतिक जमींदारा एसोसिएशन बनी हुई थी जो सिख जाटों ने बनाई थी जिसमें कुछ हिन्दू भी सम्मिलित हो गए थे । लेकिन जमींदारा पार्टी में सभी जाट इकट्ठे हो गए थे । उन्होंने अपनी विचारधारा को जाट जन तक पहुंचाने के लिए सन् 1916 में उर्दू साप्ताहिक जाट गजट निकालना शुरू किया जो उनकी विचारधारा का आईना था । क्योंकि दूसरे हिन्दू अखबार जाट विरोधी थे (आज भी हैं), स्वयं हिन्दू महासभा भी कांग्रेस समर्थक थी । वे जाट गजट में ‘ठगी के बाजार की सैर’,


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‘बेचारा जमींदार’, तथा ‘जाट नौजवानों के लिए नुस्खे’, आदि नामों से लेखमाला निकालते रहे । उनके संदेश धीरे-धीरे गांवों के जाटों तक पहुंचने में लगे थे । हालांकि गांव के अनपढ़ जाटों तक पहुंचने के लिए बड़ी परेशानी थी क्योंकि हिन्दू अखबार चौ० साहब के विरोध में धड़ाधड़ लिख रहे थे और गांवों में रहने वाली गांधीवादी जातियां इनका धुआंधार प्रचार करती थी । यहां एक बनाम अनेक की लड़ाई थी । इसी कारण चौ० साहब को पहला चुनाव सन् बादली से 22 मतों से हारना पड़ा था लेकिन दूसरी बार सन् 1923 में कई हजार मतों से जीते । हिन्दू पंजाबी अखबार चौ० साहब द्वारा कांग्रेस छोड़ने के कारण अंग्रेजों के दास, पिट्ठू, टोडी, देशद्रोही, गद्दार व विश्वासघाती आदि पदवियों से सुशोभित करते थे । चौ० साहब इन सबका उत्तर यह कहकर देते थे - ‘जाट भाइयों जब तक ये अखबार मेरी बुराई करते हैं तब तक समझते रहना कि मैं तुम्हारे हित में लगा हूं । जिस दिन ये मेरी प्रशंसा करने लगे तो समझना कि मैंने तुम्हारा साथ छोड़ दिया है और मैं बिक चुका हूँ ।’ लेकिन इस दुष्प्रचार से हमारे जाट भाई भी अछूते नहीं रह पाए और इसी कारण आज भी हमें कुछ ऐसे जाट मिल जाएंगे जो चौ० साहब के लिए ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करते हैं । ये जाट भाई अज्ञानी और मूर्ख हैं या स्वयं किसी के पिट्ठू हैं । रोहतक से एक चौधरी रामसिंह जाखड़ जो स्वयं ‘हरियाणा तिलक’ पत्र के संपादक नेकीराम शर्मा के पिट्ठू थे, ने तो चौ० साहब के विरोध में एक पूरी पुस्तक ही लिख डाली । यह पुस्तक आज भी जिला पुस्तकालयों में उपलब्ध है क्योंकि इसका वितरण 1991 में सरकारी पैसे से कराया गया था । जिसके विरोध में रोहतक के जाटों ने फैसला लिया कि जिसे भी रामसिंह जाखड़ मिले उसके मुंह पर थूका जाए । लेकिन अभागा रामसिंह दो साल के भीतर ही चल बसा लेकिन नेकीराम शर्मा के किसी पिट्ठू ने उसकी मौत पर एक आंसू तक नहीं बहाया । इसलिए यह सच्चाई है कि जिसे अपनी कौम धिक्कार देगी


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उसे कोई दूसरा कभी गले नहीं लगायेगा ।


सन् 1923 में रोहतक जिले की एक सभा में चौ० साहब ने नारा दिया - ‘राज करेगा जाट’ । इसी तर्ज पर बाद में चौ० साहब ने पेशावर की एक सभा में साफ-साफ कह दिया था - ‘पंजाब में अरोड़ा खत्री रहेंगे या जाट और गक्खड़ ।’ यह सुनकर इन लोगों के दिल की धड़कन तेज हो जाती थी । लेकिन ये अपने अखबारों में चौ० साहब के विरोध में कभी लिखना नहीं छोड़ते थे । उन्होंने कभी भी चौ० साहब का पूरा नाम नहीं लिखा । कहीं छोटू लिखते थे तो कभी छोटूखान । कई बार उन्होंने चौ० साहब को हिटलर लिखा । इसके जवाब में चौ० साहब कहते ‘जहां यहूदी रहेंगे वहां हिटलर तो अवश्य होगा ।’ ये लोग चौ० छोटूराम को पश्चिमी पंजाब में जाने पर काले झण्डे दिखाया करते थे और ये झण्डे इन्होंने पक्के तौर पर बनवाकर अपने घरों में रख लिये थे । उन्हीं में से आज भी कुछ लोग हरयाणा के बाजारों में मेहंदी से चितकबरा सिर किए अपना बुढ़ापा काट रहे हैं । इन्होंने अवश्य अपनी उस विरासत को अपनी संतानों को दे दिया है ।


चौ० साहब ने जाटों की गरीबी के कारण ढूंढ लिए थे । पूरे संयुक्त पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का राज्य जाने के बाद 55 हजार सूदखोर पैदा हो गए थे जिनकी 100 साल से ब्याज की कमाई बढ़कर पंजाब राज्य के सालाना बजट से तीन गुणा अधिक थी । इनके बाट बट्टे और ताखड़ी नकली और काणी होती थी । (पूर्ण जानकारी के लिए मेरी पुस्तक असली लुटेरे कौन? के अध्याय ‘जाटों ने चौ० छोटूराम की शिक्षाओं को भुलाया’ तथा ‘जाटों की टूटती पीठ’ को अवश्य पढ़ें ।)


जब सन् 1938 में ‘पंजाब कृषि उत्पादन मार्केट एक्ट’ पर पंजाब सदन में बहस हुई तो इन हिन्दू पंजाबियों के नेता डॉ० गाकुलचन्द नारंग ने कहा ‘इस बिल के पास होने से रोहतक का दो धेले का जाट


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लखपति बनिये के बराबर मार्केट कमेटी में बैठेगा ।’ इसके उत्तर में चौ० साहब ने गरजकर कहा, ‘नारंग जी आप तो एक दिन एक बैठक में कह रहे थे कि जाट तो राष्ट्रवादी कौम है, उसके अपने अधिकार हैं फिर आज उनके अधिकार कहां चले गए?’ चौ० साहब बहुत हाजिर जवाब थे और अपनी बात को दृढ़ता और आत्मविश्वास से कहते थे । चौ० साहब इस बात को बार-बार दोहराते थे कि जाट कौम बोलना सीखे और दुश्मन को पहचाने । उनके निशाने पर दो दुश्मन थे - मंडी और पाखण्डी । लेकिन अफसोस है कि चौ० साहब ने इन दुश्मनों के विरुद्ध जो कानून बनवाए उनको हम न तो गति दे पाए और न ही याद रख पाए । उन्होंने अपने समय में इस लुटेरे वर्ग को नंगा कर दिया था और एक कोने में लगा दिया था । वे यह भी भली-भांति जानते थे कि अंग्रेजों से कैसे और कब काम लेना है । उन्होंने अपनी कौम के फायदे का कोई एक अवसर भी नहीं गंवाया । एक तरफ तो वे अपने जाट गजट में अंग्रेजों की शासन प्रणाली की बखिया उधड़ते थे तो दूसरी तरफ इसी ‘जाट गजट’ के लिए अंग्रेजों से ग्रांट भी लेते थे । चौ० साहब बहुत ही बुद्धिमान और पक्के इरादे वाले जाट थे जिन्होंने बड़ी सफाई से अंग्रेजों को दूहा और कांग्रेस को धोया । पंजाब में तो कांग्रेस का इन्होंने लगभग सफाया ही कर दिया था । इसी कारण नेहरू, गांधी पंजाब में उनके देहान्त तक कांग्रेसी सरकार के लिए मुंह ताकते रहे । उधर अंग्रेज जान गए थे कि चौ० साहब के बगैर पंजाब में पत्ता भी हिलने वाला नहीं । इसीलिए दूसरे विश्वयुद्ध में जब अंग्रेज युद्ध के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे थे तो चौ० साहब ने समय की नजाकत को भांपते हुए गेहूं का मूल्य 6 रुपये प्रति मन से बढ़ाकर 10 रुपये प्रति मन की मांग कर डाली । इस पर पंजाब के गर्वनर ने सभी राज्यों के कृषिमन्त्री या प्रतिनिधियों को अपने दफ्तर बुलाया जिसमें दक्षिण राज्य के श्री राजगोपालाचार्य ने गेहूं का भाव न बढ़ाने के लिए समर्थन किया तो चौ० साहब ने तड़ाक


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से कहा कि ये दक्षिण वाले हैं, ये चावल बोते हैं, गेहूं नहीं । इस पर भी जब गर्वनर नहीं माना तो चौ० साहब ने उनकी टेबल पर मुक्का मारकर कहा यदि गेहूं का भाव 10 रुपये प्रति मन नहीं किया गया तो वे पंजाब के खेतों में खड़े गेहूं को आग लगवा देंगे और उठकर चले गए । क्या कोई पिट्ठू अपने शासक पर इस प्रकार का व्यवहार करने की हिम्मत रखता है ? क्या आज भी इस आजाद देश में मुख्यमन्त्री या मंत्री या किसान नेता अपनी मांग को इस प्रकार मनवा सकता है ? लेकिन अंग्रेजों ने उनकी मांग को मानना पड़ा । चौ० साहब ने अपने राजनीतिक जीवन में अनेक किसान हितैषी कानून बनवाए जिनको इस लेख में लिखना सम्भव नहीं है । याद रहे चौ० छोटूराम भारतवर्ष के प्रथम कृषि दार्शनिक थे ।


कुछ लोग कहते थे कि चौ० छोटूराम आजादी के पक्षधर नहीं थे । यह प्रचार उनके विरोधियों ने शुरू किया था क्योंकि उन्होंने सन् 1929 में कहा था - हम गौरे बनियों का राज बदलकर काले बनियों का राज नहीं चाहते अर्थात् उनके विचार में बनिया तो बनिया ही है, चाहे काले हो या गौरे । उन्होंने तो सिर्फ हमें लूटना है । जब लुटना ही है तो कोई भी लूटे, इसमें क्या फर्क है ? ऐसी ही टिप्पणी एक बार शहीदे-आजम भगतसिंह ने भी की थी । चौ० साहब अच्छी तरह जानते थे कि उस समय यदि आजादी मिली तो वह सत्ता हस्तांतरण होगा और यह सत्ता बनियों को मिलेगी और यह शत-प्रतिशत सच हुआ क्योंकि इस देश के प्रधानमन्त्री का चयन करने वाला असल में कर्मचन्द गांधी बनिया जाति से था । चौ० साहब चाहते थे कि किसान और मजदूर का राज हो जिसमें जाट स्वयं ही सर्वोपरि होगा । इसलिए वे चाहते थे कि जाट कौम पहले शिक्षित हो ताकि देश आजाद होने पर सत्ता पर कायम रह कर अच्छी तरह से शासन करे । इसलिए उन्होंने आजादी के लिए कभी भी हड़बड़ी और जल्दबाजी नहीं दिखलाई । विरोधी यह भी कहते हैं कि चौ० साहब कभी जेल नहीं गए ।



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मोहम्मद जिन्ना तो कभी एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए फिर वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति कैसे बने ? यह जानने का विषय है कि नेहरू और गांधी को जेलों में जो सुविधाएं मिली वे सुविधाएं आज तक हमारे घरों में भी हमें नहीं मिलती और इसका उदाहरण पाकिस्तानी हत्यारा कसाब से भी लिया जा सकता है जिसको उसकी सुरक्षा में लगे सिपाहियों से कहीं बेहतर खाना मिलता रहा । चौ० साहब भली भांति जानते थे कि उसी समय सत्ता मिलने पर कौन लोग सत्ता पर काबिज होंगे । इसलिए उन्होंने एक दिन कहा था, ‘बड़ी विचित्र बात है कि आज भी भारत पर 12 प्रतिशत उच्च जाति के लोगों का राज 88 प्रतिशत भारतीय जनता पर है ।’


हम सभी जानते हैं कि किस प्रकार नेहरू और गांधी ने जिन्ना की पाकिस्तान की मांग के सामने घुटने टेक दिए थे जबकि उसी जिन्ना को जो पंजाब में पाकिस्तान की तलाश करने गया था को चौ० साहब ने रातोंरात पंजाब से खदेड़ दिया था और 9 मई 1944 को लायलपुर की एक विशाल जनसभा में चौ० साहब ने जिन्ना को चैलेंज किया था कि वह उसके इक्यासी मुस्लिम विधायकों में से किसी एक को भी तोड़ कर दिखाए, पाकिस्तान बनाने की तो बात ही छोड़ो । इसी दम पर चौ० साहब ने 14 अगस्त 1944 को गांधी को एक पत्र विस्तार से लिखा था कि उन्हें जिन्ना के बहकावे में नहीं आना है । लेकिन अफसोस, कर्मचन्द गांधी उस पत्र का उत्तर ही नहीं दे पाए और इसका इन्तजार करते-करते चौ० साहब चले गए ।



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चौ० छोटूराम का हत्यारा कौन? (2)

9 जनवरी सन् 1945 का दिन आधुनिक जाट कौम का सबसे मनहूस दिन था । चौ० छोटूराम ने अपने 25 साल के अथक प्रयास से जिस विचारधारा को स्थापित किया उसकी परीक्षा की घड़ी थी । नेहरू-गांधी-जिन्ना का सपना साकार हो रहा था । चौ० छोटूराम की कर्मभूमि पंजाब में एक साम्प्रदायिक देश के जन्म की तैयारी होने लगी । चौ० साहब की विचारधारा का सबसे बड़ा स्तम्भ जाट भाईचारा टूटने जा रहा था । सर हैयात खां तिवाना बेबस और लाचार थे क्योंकि उनके जाट धर्म-चाचा चौ० छोटूराम इस दुनिया से जा चुके थे अर्थात् उनके दायां हाथ कट चुका था और इसी दर्द के कारण उसने पाकिस्तान छोड़ दिया और इंग्लैण्ड जा बसे और वहीं एकान्त में मरे लेकिन उनके इस बिछोह को कोई नहीं समझ सका । चौ० साहब का अंदेशा सच साबित हुआ जब देश की सत्ता काले अंग्रेजों के हाथ आई । पंजाब में जमींदारा पार्टी दफन हो चुकी थी । पाकिस्तान एक नया देश बन चुका था । भारत के सभी 15 राज्यों के मुख्यमन्त्री नेहरू ने अपनी जाति से बनाए । जो कुछ जाट नेता चौ० साहब की विचारधारा के थे उन्हें भी हताश होकर कांग्रेस का दामन थामना पड़ा ।


जब 15 अगस्त 1947 को नेहरू को सत्ता मिली तो उन्होंने अंग्रेजों से कई गुप्त शर्मनाक समझौते किये क्योंकि यह सत्ता कुछ शर्तों पर आधारित थी । जिसमें प्रथम समझौता था कि यदि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस भारत आते हैं तो उन्हें अंग्रेजों के सुपुर्द करना होगा । जिन क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने अपना दुश्मन मानना पड़ा उन्हें नेहरू व उसकी सरकार भी देश का दुश्मन मानती रही । इसी कारण 1857 के क्रान्तिकारियों या फिर शहीदे-आजम भगतसिंह व नेता जी सुभाष या आई.एन.ए. तक की प्रशंसा करना नेहरू काल तक एक


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गुनाह माना जाता रहा और इसी प्रकार इनके इतिहास को भुलाने का पूरा प्रयास किया गया जिस कारण आज 1857 के क्रान्तिकारियों के नाम ढूंढने असम्भव हो गए हैं जिन्होंने इस देश के लिए खून बहाया था । तो फिर चौ० छोटूराम की विचारधारा व उनके सत्कर्मों को संजोकर रखने की उम्मीद कैसे कर सकते थे? इसलिए उनको और उनकी विचारधारा को भुला दिया गया क्योंकि जो जाट कांग्रेसी थे उन्हें तो नेहरू की नीति के अनुसार चलना ही था चाहे वह सरदार प्रतापसिंह केरों या चौ० चरणसिंह व देवीलाल आदि । सब कुछ नेहरूमय हो चुका था । उस समय चौ० छोटूराम की विचारधारा की बात करना नेहरू या कांग्रेस की बुराई करने के समान था । उस समय ये हालात बना दिए गए थे कि अगर नेहरू मर गया तो इस देश का क्या होगा अर्थात् यह कहा जाता था कि “Who after Nehru”। इसलिए बेचारे जाट नेताओं ने भी अपनी राजनीति कायम रखने के लिए अपने जमीर को गिरवी रख दिया और यह धारणा इन्दिरा के शासनकाल तक कायम रही । जब कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने कहा था, “Indira is India” । जाट कौम का चौ० साहब से दिली लगाव होने के कारण जाट राजनीतिक नेता चौ० साहब की पुण्यतिथि या निर्वाण दिवस पर दिखावे के लिए कभी-कभी दर्शन दे जाते हैं लेकिन उनकी विचारधारा पर कभी कोई वार्ता, गोष्ठी या भाषण नहीं हुआ । धीरे-धीरे पुराने जाट जाते रहे उतनी ही चौ० साहब की विचारधारा हमसे दूर होती चली गई । जब हमारे जाट नेताओं की एक पीढ़ी इस दुनिया से चली गई तो उनके वारिशों ने केवल अपने बाप-दादों की यादगारों को जीवित रखने की जिम्मेदारी उठाई क्योंकि आधुनिक युग में जब राजनीति पूर्णतया नोट और वोट की हो गई तो उन्होंने अपनी खानदानी राजनीतिक परम्परा को जीवित रखने के लिए यही रास्ता अपनाया और चौ० साहब की विचारधारा को असामायिक बना दिया गया और इन हमारे जाट नेताओं ने केवल


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एक ही बात कहकर अपना पिंड छुड़ाना शुरू कर दिया कि चौ० छोटूराम का जमाना तो अलग था । क्या अभी जाट कौम नहीं रही या उनकी समस्याएं नहीं रही या उनकी वोट कम हो गई थी? ऐसा माहौल बनता चला गया जिससे जाट कौम का जमीर भी मरता चला गया । जिस कौम को चौ० साहब ने अपनी निर्भीकता और पूर्ण आत्मविश्वास भरी एक विचारधारा से खड़ा किया और कौम में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाया उसी जाट कौम के लोग अपनी छोटे-छोटे निजी हितों के लिए अपने अपने नेता चुनने लग गए जहां कोई अपना निजी फायदा दिखाई दिया उसी के नारे लगाने लगे । किसी भी पार्टी के छोटे-छोटे पदों के लिए जाट हाथ पांव मारने लगे और अपने नेताओं के इतने अंधभक्त हो गए कि वे उनके हित के लिए अपना निजी हित साधते हुए कोई भी अनुचित कार्य करना या मारधाड़ तक भी करने के लिए तत्पर रहने लगे । इनका न किसी विचारधारा से मतलब रहा न ही जाट कौम से ।


वहीं दूसरी तरफ कुकुरमुत्तों की तरह अनेक जाट संगठन खड़े हो गए । जब कोई भी कौमी चौधरी नहीं रहा तो अनेक स्वयंभू चौ० बनकर अपने-अपने संगठनों को पंजीकृत करवाकर और उनके प्रधान बनकर फख्र महसूस करने लगे । उनके संगठन का उद्देश्य क्या है,अभी तक संगठन ने क्या हासिल किया, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं । केवल अपना नाम और फोटो छपवाना सफलता की कुंजी बन गया । यदि किसी अखबार में नाम और फोटो छप जाए तो फिर क्या कहने? और यदि सफेद कुर्ता-पायजामा पहन लिया तो नेतागिरी की पक्की मोहर समझ ली गई । कहने का तात्पर्य यह है कि अनेक जाट नेता होने पर भी सम्पूर्ण जाट कौम नेता विहीन हो गई और पूरी जाट कौम को एक सिरकटे भूत के समान बना दिया गया । चौ० साहब की विचारधारा को खत्म करने के लिए बड़े जाट से लेकर छोटे तक सभी ने अपनी आहूति डाली इसलिए आज हम सभी जाट गुनाहगार हैं और


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चौ० साहब की विचारधारा के हत्यारे हैं । इसलिए अभी समय आ गया है कि हम सब जाट मिलकर अपने इस पाप का प्रायश्चित करें ।


मेरी यह बात कितने जाट भाइयों के गले उतरेगी, मैं नहीं कह सकता । लेकिन मैं पूर्ण आत्मविश्वास से लिख रहा हूं कि यदि हमें हमारी कौम को जीवित रखना है तो हमें चौ० साहब व उनकी विचारधारा को पुनर्जीवित करना होगा । इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं । यही एक रास्ता है जिससे बिखरी पड़ी कौम को पुनः संगठित किया जा सकता है और हमारे लम्बित अधिकारों को प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए हमें दूसरों से भी सीखना होगा जो लोग दूसरों को भी जीवित रखकर और उन्हें पूजकर अपना हित साधते रहे हैं । उदाहरण के लिए राम, कृष्ण, शिव, हनुमान और गणेश में कोई भी ब्राह्मण नहीं था और सभी के सभी क्षत्रिय वर्ण से थे । लेकिन ब्राह्मण समाज उनको सदियों से पूजकर अपनी संतानों के पेट भरते आए और बड़े गौरव से ऐशो-आराम की जिंदगी जीते रहे। डॉ० अम्बेडकर, बाबा ज्योतिबा फूले व शिवाजी में से कोई भी चमार जाति से नहीं था लेकिन चमार जाति ने इनकी विचारधारा का 30 सालों में इतना जोरदार प्रचार किया कि वे आज केवल दलितों के ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर पूजनीय हो गए जबकि डॉ० अम्बेडकर ने अपना संघर्ष 1928 में शुरू किया लेकिन चौ० साहब ने अपना संघर्ष 1921 में आरम्भ किया और संयुक्त पंजाब में अपनी इतनी बड़ी राजनीतिक सल्तनत कायम की । जो डॉ० अम्बेडकर महाराष्ट्र में कभी नहीं कर पाए । लेकिन यह चमार और दलित जातियों का ही सद्प्रयास था कि उनकी विचारधारा को पूरे भारत में घर-घर में ही नहीं बल्कि सरकार की चौखटों तक पहुंचा दिया वरना इससे पहले इस देश में डॉ० अम्बेडकर को बहुत कम लोग जानते थे । लेकिन आज सरकारें उनके जन्मदिन को सरकारी तौर पर मनाने के लिए मजबूर हैं । इस सत्कार्य को आगे बढ़ाने में दलित जातियों के गैर राजनीतिक संगठन


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बामसेफ का सराहनीय योगदान है । इनके प्रयास सराहनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय है । वहीं दूसरी ओर हम हमारे एक महापुरुष की विचारधारा को आज तक न तो समझ पाए और इसलिए न ही उसे जीवित रख पाए ।


यदि वास्तव में हम जाट हैं और इस कौम को जीवित रखकर आगे बढ़ाना है तो हमें निजी स्वार्थ छोड़कर तन-मन-धन से यह प्रण लेना होगा कि चौ० साहब की विचारधारा को हर कीमत पर पुनर्जीवित करके उसे यथा सम्भव स्थान दिलाएंगे और आज से हमारा नेता-देवता-कुलदेवता, युगपुरुष और महापुरुष केवल चौ० छोटूराम होंगे और उन्हीं की विचारधारा हमारा मार्गदर्शन करेगी । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निम्नलिखित सुझाव हैं ।


  • 1. हर जाट की बैठक या घर में चौ० साहब का चित्र अवश्य लगा हो ।


  • 2. जहां भी हमें फालतू समय मिले चाहे वह जाट धर्मशाला, चौपाल या कोई और सामाजिक स्थल हो हम जाट भाई चौ० साहब और उनकी विचारधारा पर चर्चा अवश्य करें । फालतू की राजनीति की चर्चाओं पर अपना समय बर्बाद न करें ।


  • 3. जाट समाज अपने हर सामाजिक आयोजन या कार्यस्थल पर चौ० साहब का चित्र लगाकर उस पर फूल चढ़ाकर अपने आयोजन का शुभारम्भ करें तथा ऐसे आयोजन पर चौ० छोटूराम तथा ‘जाट एकता जिंदाबाद’ के नारे अवश्य लगाएं ।


  • 4. हर जाट संस्था में चौ साहब का जन्मदिवस या निर्वाण दिवस अवश्य मनाया जाए । जहां तक सम्भव हो सके उनके जन्मदिन पर बच्चों में मिठाई बांटी जाए ताकि बच्चों को भी मालूम हो कि वे मिठाई किस खुशी में खा रहे हैं ।


  • 5. जाट शिक्षण संस्थाओं में हर साल उनकी विचारधारा पर सेमीनार और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाए ।

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  • 6. समर्थ जाट भाई व जाट संस्थाएं हर साल उनके चित्र के साथी कैलेण्डर चित्र या मूर्ति अवश्य हो और चौराहों आदि पर जहां भी सम्भव हो उनकी मूर्तियां स्थापित की जाएं । उनके जन्मदिन पर शहर व गांव में शोभायात्रा निकालने का आयोजन हो जिसमें छोटे-छोटे पम्फलेटों का वितरण किया जाए ।


  • 7. दिल्ली में कहीं स्थान चुनकर उनकी मूर्ति के साथ एक यादगार स्थल बनाया जाए जिसे क्रान्तिस्थल या कोई ऐसा ही उपयुक्त नाम दिया जाए ।


  • 8. उनकी चित्र के स्टीकर बनाकर जाट भाई अपनी गाड़ियों पर लगाएं लगाएं । इससे गांवों के ट्रैक्टर भी अछूते न रहें ।


  • 9. जो जाट भाई शिक्षित हैं और लिखने पढ़ने में दिलचस्पी रखते हैं वे जाट पत्रा-पत्रिकाओं तथा अन्य समाचार पत्रों पत्रिकाओं में चौ० साहब के बारे में तथा उनकी विचारधारा पर समय-समय पर लेख लिखते रहें और समर्थ जाट भाई पुस्तक/पुस्तिकाएं छपवाते रहें तथा लागत कीमत पर उन्हें देते रहें (याद रहे जाट कौम मुफ्त की चीज को बेकार समझती है और अधिक कीमत की पुस्तक को बेकार का खर्चा समझती है ।)


  • 10. उनके नाम पर अधिक से अधिक संस्थाओं, सड़कों व पार्कों आदि के नाम रखे जाएं । जहां तक सम्भव हो, चप्पे-चप्पे पर चौ० छोटूराम का नाम हो ।


  • 11. वर्तमान में मुरथल तकनीकी संस्थान में चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा मुख्यमन्त्री हरयाणा ने चौ० साहब की कुर्सी लगवा दी है जहां उनके बारे में शोध कार्य हो । उन्होंने संयुक्त पंजाब के सदन में विभिन्न विषयों पर वाद-विवाद व बिलों की बहस पर जो भाषण दिए उसके दस्तावेज चौ० बलबीर सिंह हौजखास नई दिल्ली में चालीस हजार पन्नों के रूप में एक प्रतिलिपि सुरक्षित है जिसकी फोटो कापियां बनवाकर उनके ऊपर शोध किया जाए ।

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  • 12. जाट कौम एक चरित्रावान संघर्षशील और जनूनी कौम रही है । आज भी इस कौम में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो इस कौम का कौमी नेतृत्व कर सकें । इसलिए कौम को अपना नेतृत्व करने के लिए कोई एक कौमी नेता ढूंढना ही होगा क्योंकि बगैर नेतृत्व के कोई भी देश, सेना, संगठन या समाज आदि नहीं चल सकता है । एक नेता होना अनिवार्य है ।


इन ऊपरलिखित प्रयासों से कुछ ही वर्षों में दूसरे समाज के लोग भी उनके बारे में जानने के लिए उत्सुक हो जाएंगे और वह दिन दूर नहीं होगा कि उत्तर भारत की सभी सरकारों व केन्द्र सरकार को चौ० छोटूराम और उसकी विचारधारा को हर हाल में स्वीकार करना होगा । इस बात का मुझे पूर्ण विश्वास है ।


(नोट - जाट भाई इसका अर्थ यह बिल्कुल न समझें कि दूसरे जाट महापुरुषों के जन्मदिन नहीं बनाने या उनको याद नहीं किया जाना है ।)



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क्या तथाकथित हिन्दू जाटों को कोई धर्म धारण करना आवश्यक है?

धर्म का अर्थ है -धारणात धर्मः अर्थात् धारण करने को धर्म कहते हैं । संसार में विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा अपने कुछ नियम, एक चिन्ह, एक स्थान एक धर्म गुरु, एक पूजापद्धति तथा एक धर्मग्रन्थ निर्धारित करके उनको धारण कर लिया और उन्होंने अपने-अपने अलग-अलग धर्म स्थापित कर लिए । उदाहरणस्वरूप मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन तथा बौद्ध आदि । लेकिन केवल हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है जिसका ऊपर वर्णित कोई भी एक चीज नहीं है और इससे भी बड़ा आश्चर्यजनक प्रमाण है कि हिन्दू कहे जाने वाले ग्रन्थों में जैसा कि वेद, उपनिषद्, शास्त्रा, गीता, रामायण, महाभारत तथा पुराणों में कहीं भी हिन्दू शब्द या हिन्दू धर्म का उल्लेख तक नहीं है । इसलिए हिन्दू धर्म को धर्म कहना एक मूर्खता एवं अज्ञानता है । इसी सच्चाई के आधार पर भारत की सर्वोच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने रमेश यशवंत बनाम श्री प्रभाकर कांशीनाथ कुंटे के केस में दिनांक 11-12-95 को अपने फैसले में स्पष्ट किया कि हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं है । हालांकि न्यायालय ने इसे जीवन पद्धति कहा । लेकिन हिन्दुओं की यह जीवन पद्धति भी हिन्दू समाज में पूरे देश में आपस में कहीं भी मेल नहीं खाती । उदाहरण के लिए उत्तर भारत में अपनी बहन की बेटी को अपनी बेटी समान तो बुआ और मामे की बेटी को बहिन का दर्जा प्राप्त है जबकि दक्षिण भारत के हिन्दुओं (ब्राह्मण) में ठीक इसके विपरीत इनको अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया जाता है । इसी प्रकार अनेक हिन्दुओं के नियम व संस्कार आपस में कहीं भी मेल नहीं खाते । उदाहरण के लिए हिन्दू समाज में उच्च जातियां कही जाने वाले समाज में विधवा का पुनर्विवाह करना अधर्म माना गया ।


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जबकि अन्य जातियों में ऐसा करना अपना धर्म समझा गया । जाटों में विधवाओं का चाहे उस स्त्री का मुकलावा (संयोग) हुआ हो या न हुआ हो, पुनर्विवाह एक धार्मिक कृत्य समझा गया । इसी कारण जाटों में एक कहावत प्रचलित हुई - “जाटनी कभी विधवा नहीं होती ।” और इस पर जाट कौम गर्व करती आई है । लेकिन अफसोस है कि स्वामी दयानन्द के जाट शिष्य आज तक यह प्रचार करते रहे हैं कि स्वामी दयानन्द ने विधवा विवाह का समर्थन किया था जबकि सत्यार्थप्रकाश के चौथे सम्मुलास के पेज नं० 74 के एक श्लोक में कहा है कि ऐसा केवल शूद्र वर्ण ही कर सकता है, बाकी के वर्णों की विधवा स्त्री को मुकलावा होने के बाद पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है । इससे स्पष्ट है कि स्वामी जी ने जाटों को शूद्र माना, न कि क्षत्रिय । इसलिए हमारी प्रार्थना है कि आर्यसमाजी जाट भाई सत्यार्थप्रकाश को गौर से पढ़ें । इसी प्रकार जाट आर्यसमाजियों ने चौ० छोटूराम को एक आर्यसमाजी कहकर भारी भूल की है क्योंकि सर्वविदित है कि आर्यसमाज जाति-पांति पर नहीं, वर्ण व्यवस्था पर आधारित है । जबकि चौ० छोटूराम जाट जाति के संगठन जाट सभा के काफी वर्षों तक अध्यक्ष रहे और उन्होंने संयुक्त पंजाब में अपने हिन्दू मुस्लिम और सिख जाट भाइयों को एक मंच पर खड़ा कर दिया । यह कार्य आर्यसमाजी कभी नहीं कर सकता है । इससे स्पष्ट है कि जब कोर्ट के अनुसार हिन्दू धर्म ही नहीं है तो हिन्दू मैरिज एक्ट कैसे वैध हो सकता है?


हिन्दू धर्म पर ऊपरलिखित सच्चाइयों से विवश होकर हिन्दुओं का एक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख पं० मोहन भागवत को कहना पड़ा कि हिन्दू न तो कोई धर्म है और न ही जाति । जबकि वे स्वयं ब्राह्मण जाति से सम्बन्ध रखते हैं और हिन्दुत्व का प्रचार करते हुए हिन्दू अर्थात् ब्राह्मण संगठन चलाते हैं। (पंजाब केसरी पेज नं० 3, दिनांक 17-10-09).


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इसी प्रकार पंजाब के परिवहन मन्त्री मा० मोहन लाल ने “पंजाब केसरी” पत्र के माध्यम से अपने लेख में स्पष्ट लिखा है कि “हिन्दू कोई धर्म या मजहब नहीं, अपितु एक जीवन पद्धति है ।” जबकि मंत्री जी स्वयं भाजपा के नेता होते हुए हिन्दुत्व का अलाप करते रहते हैं, जिसे ये लोग पद्धति कहते हैं । जब हिन्दू कोई धर्म ही नहीं, तो इसकी पद्धति कहां से आ गई? जब कोई वस्तु संसार में है ही नहीं, तो उसका गुण स्वभाव कैसे जाना जाएगा ? लेकिन बड़े आश्चर्य की बात है कि उपरोक्त टिप्पणियों के बावजूद हिन्दू धर्म के चार शंकराचार्य इस विषय पर मौन क्यों हैं ?


हमने इस लेख के शीर्षक में तथाकथित शब्द का इस्तेमाल किया है क्योंकि जब हिन्दू धर्म ही नहीं है तो स्वाभाविक है कि जाट भी हिन्दू नहीं है । इसी कारण आज जाट कौम को “1955 हिन्दू विवाह कानून” के कारण ही कष्ट और शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है । जहां तक हिन्दूइज्म के अध्यात्म की बात है, इस पर डॉ० हरदयाल ने एक बहुत ही सुन्दर टिप्पणी करते हुए इसे ऊटपटांग की संज्ञा दी है और आगे लिखा है कि “हिन्दू अध्यात्म विद्या भारत का कलंक रही है जिसने भारतीय इतिहास को चौपट कर दिया और उसे विनाश के गड्ढे में धकेल दिया । इन्होंने अपने महापुरुषों को दयनीय स्थिति में डालकर उन्हें निरर्थक जिज्ञासा और चेष्टा के गलियारे में भटका दिया । उसने कुतर्क को कला और कपोल की कल्पनाओं को ज्ञान के ऊंचे सिहांसन पर बैठा दिया । जिसने भारतीयों को इतना निकम्मा बना दिया कि वे सैकड़ों सालों तक कोल्हू के बैल की तरह उसी पुराने ढर्रे पर चलते हुए गुलामी की जिल्लत झेलते रहे । कल्पना की बेवकूफी भरी उड़ानें, विचित्रे भ्रान्तियों और अंट-शंट अटकलबाजियों से ग्रन्थ के ग्रन्थ भरे पड़े हैं जिन्हें हम अभी तक नहीं समझ पाए कि वे सभी व्यर्थ हैं ।” इसी कारण यह सवर्ण हिन्दू समाज चींटियों को चीनी डालेगा, हवन यज्ञ में मूल्यवान सामग्री भस्म करेगा, सूर्य को पानी


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पहुंचाएगा, मूर्तियों को भोग लगाएगा, मिठाई खिलाएगा और दूध पिलाएगा, बंदरों को केला और चणा खिलाएगा और शनि महाराज को तेल पिलाएगा लेकिन गरीब को एक बूंद पानी तथा रोटी का एक टुकड़ा देने में भी रोएगा । इनमें से कुछ तो ऐसे भी हैं जो कि अपने बूढ़े मां-बाप से झाड़ू पौछा तथा बर्तन साफ करवाने तक का काम भी करवाते हैं । इन्होंने भगवान को वश में करने के तरीके तो ढूंढ लिए और कहते हैं कि हर प्राणी में ईश्वर समान रूप से वास करता है लेकिन क्या इन्होंने पहले कभी इन्सानों से भी समान रूप से व्यवहार किया है?


लेकिन अभी प्रश्न पैदा होता है कि फिर भी धर्म आवश्यक क्यों है? क्योंकि इन्सान जितना मजबूत है उतना ही कमजोर भी है और उसके इस कमजोर पक्ष को किसी सहारे की जरूरत पड़ती है जिसे हम आस्था कहते हैं और इसी आस्था को कायम रखने के लिए किसी धर्म का सहारा लेना पड़ता है । इसलिए मानव जाति के लिए धर्म एक सर्वाधिक शक्तिशाली प्रेरक शक्ति है । लेकिन अफसोस है कि यही धर्म और आस्था, पाखण्डवाद, अंधविश्वास और जादू-टोनों में भटक कर रह जाती है । जबकि धर्म का सर्वोत्तम नियम कमा कर खाने का हो, उसमें आत्मसम्मान और आत्मविश्वास श्रेष्ठ हो और धर्म अन्धविश्वास, गुरुडम और मूर्तिपूजा का विरोध हो । ऐसा धर्म कभी न हो जिसमें नंगे बाबे, भगवाधारी, अवधूत साधु, पण्डे-पुजारी और मठाधीश आदि अपने राष्ट्र पर बोझ बनकर रहें ।


जब संसार के दूसरे लोगों को धर्म की आवश्यकता है तो फिर जाट कौम को क्यों नहीं होगी । यदि हम जाट कौम के सिद्धान्त, आचरण, परम्पराएं और उनकी संस्कृति को हिन्दू धर्म से मिलाते हैं तो उनमें कोई मेल नहीं है । उदाहरण के लिए जाटों की विधवा विवाह प्रथा, मूर्ति पूजा का न होना, गौत्र प्रथा, खाप प्रथा, समानता का सिद्धान्त, कट्टर छूआछूत को न मानना तथा सबसे बढ़कर जाट कौम


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इस देश में ही नहीं संसार में सबसे बड़ी शाकाहारी कौम है जो जीव-हत्या की पूर्णतया विरोधी है । जबकि उत्तर पूर्व के हिन्दू मन्दिरों में पशुओं की बलि दी जाती है तो जाट बाहूल्य क्षेत्र को छोड़कर पूरे देश का ब्राह्मण मांसाहारी है और केरल का हिन्दू तो बीफ (गाय बछड़े का मांस) तक खाता है । पुस्तकों में तो यहां तक लिखा है कि वैदिक काल में ब्राह्मण गाय का मांस खाते थे । इस बात को इतिहासकार पण्डित रामशरण शर्मा ने स्वीकार किया है । इसके अतिरिक्त विधवा विवाह का विरोध करने वालों से ही रखैल प्रथा तथा वेश्या प्रथा का जन्म हुआ और मन्दिरों में देवदासियां पहुंचाई । इस बारे में विस्तार से न लिखते हुए संक्षेप में इतना ही कहना सार्थक होगा कि हिन्दू धर्म एक ब्राह्मण धर्म है और हिन्दूत्व ब्राह्मणवाद है जिसने शनैः-शनैः वैदिक धर्म को भी अपने अंदर अपने स्वार्थवश समेट लिया जिस कारण वैदिक धर्म संविधान और कानून से लोप होकर ब्राह्मणवाद में समा गया। आश्चर्यजनक बात तो यह है कि हिन्दू धर्म नहीं है तो इस देश में 1955 हिन्दू विवाह कानून कैसे लागू है?


यह ब्राह्मण धर्म जाट कौम का कभी धर्म नहीं रहा । इससे पहले प्राचीन में जाट प्रकृति की पूजा करते थे उसके बाद उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया जिसका मुख्य कारण था जाट राजा बौद्ध धर्मी हो गए थे । इस कारण जाट प्रजा भी बौद्ध धर्मी हो गई अर्थात् ‘यथा राजा तथा प्रजा’ । उदाहरण के लिए अशोक मोर गौत्रीय जाट, कनिष्क कुषाण (कास्वान) गौत्रीय जाट, हर्षवर्धन बैंस गौत्रीय जाट तथा यशोधर्मा विर्क गोत्रीय जाट आदि सभी बौद्ध धर्म के मानने वाले थे । इसीलिए आज भी जाट दिन में बार-बार कोई भी नुकसान होने पर अपने प्राचीन धर्म बौद्ध के प्रतीक मठ को याद करता रहता है, “मठ मार दिया-मठ, मार दिया ।” क्योंकि कट्टर ब्राह्मणवादियों ने हमारे इन बौद्ध मठों को बर्बाद कर दिया था । जाटों का शाकाहारी होना और विधवा विवाह प्रथा आदि आज भी जाटों में बौद्ध धर्म के ही संस्कार हैं ।


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लेकिन अब प्रश्न पैदा होता है कि जाटों ने इस ब्राह्मणवाद में प्रवेश कैसे किया ? यह जानने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना पड़ेगा। प्राचीन उत्तर भारत में अफगानिस्तान व स्वात घाटी से लेकर मथुरा, आगरा व बौद्ध गया तक जाटों का गढ़ था जहां बौद्ध धर्म का डंका बज रहा था । इस सच्चाई को चीनी यात्रा फाह्यान ने लिखा है जिसने सन् 399 से 414 तक उत्तर भारत की यात्रा की । उसने लिखा है कि इस क्षेत्र में कहीं-कहीं ब्राह्मण थे जो छोटे-छोटे मन्दिरों में पूजा किया करते थे । यात्री ने इनके धर्म को केवल ब्राह्मणवाद ही लिखा है जबकि उसने जैन धर्म के मानने वालों की संख्या तक का वर्णन किया है । फाह्यान ने अपना यात्रा वृत्तान्त चीनी भाषा में लिखा है जिसका अंग्रेजी में सबसे पहला अनुवाद जेम्स लिगी ने किया जिसमें अपने अनुवाद में इन ब्राह्मणों को Heretics Brahmans अर्थात् विधर्मी ब्राह्मण लिखा है । अर्थात् इन ब्राह्मणों का कोई नहीं है । इस कारण पूजा के नाम से इनका गुजर-बसर बहुत कठिनाई से चल रहा था । जाट बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण इन्होंने जाटों को खुश करने के लिए अपने मंदिरों में जाट महापुरुषों उदाहरण के लिए शिवजी, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री हनुमान, गणेश आदि की मूर्तियां स्थापित की जिससे जाट लोग भी इन्हें कुछ दान-पुण्य करने लगे और समय आते-आते कुछ जगह ब्राह्मण राजाओं का राज आने पर साथ-साथ ब्राह्मणों की भी पूजा होने लगी । इस काल में कुछ जाट मूर्तिपूजक होकर ब्राह्मणों का समर्थन करने लगे थे । महाराजा हर्षवर्धन बैंस की मृत्यु (सन् 647) के पश्चात् जिनका कोई वंशज नहीं था, मौका देखकर व अवसर का लाभ उठाते हुए, ब्राह्मणों ने माऊंट आबू पर्वत पर ‘बृहत्यज्ञ’ के नाम से एक यज्ञ रचाकर अग्निकुण्ड से राजपूत जाति की उत्पत्ति का ढोंग रचाया । इसी कारण केवल चार गौत्रों के राजपूत अपने आपको अग्निवंशीय राजपूत कहते है । जबकि अग्नि से एक चींटी भी पैदा नहीं हो सकती है क्योंकि अग्नि का स्वभाव


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जलाने व भस्म करने का है, पैदा करने का नहीं है ।


इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण धर्म अर्थात् हिन्दू धर्म जाटों का धर्म न कभी था, और न अभी है । जो धर्म वास्तव में है ही नहीं तो उसे धारण करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । इसलिए प्रश्न पैदा होता है कि हम जाटों को अभी किस धर्म को धारण करना चाहिए । इससे पहले हमें सभी मुख्य धर्मों को संक्षेप में समझना है । हम सबसे पहले जाटों के प्राचीन धर्म बौद्ध की बात करेंगे । याद रहे बौद्ध धर्म अहिंसा पर आधारित है और इसी अहिंसा के सिद्धान्त के कारण प्राचीन में जाटों के राज गए इसलिए इसे क्षत्रिय धर्म नहीं कहा जा सकता, जो जाटों के स्वभाव के उपयुक्त नहीं है । इसलिए इस धर्म को धारण करने का कोई औचित्य नहीं । इसके बाद संसार के लोगों का एक बड़ा धर्म इस्लाम धर्म है जिसमें हिन्दू कहे जाने वाले जाटों से अधिक मुसलमान जाट हैं लेकिन इन तथाकथित हिन्दू जाटों के दिलों में सदियों से ब्राह्मणवादी प्रचार ने कूट-कूट कर नफरत पैदा कर दी और उसे एक गाली के समान बना दिया जिस कारण यह जाट वर्तमान में इस धर्म को नहीं पचा पाएंगे । हालांकि इस्लाम धर्म की तरह जाट कौम एकेश्वरवाद में विश्वास करने वाली तथा मूर्ति पूजा विरोधी रही है । इसके बाद दुनिया का सबसे विकासशील और शिक्षित धर्म ईसाई धर्म है जो दया और करूणा पर आधारित धर्म है । परन्तु जाट कौम 300 सालों से इस धर्म के प्रति किसी भी प्रकार की न तो कोई सोच रखे हुए है और न ही इसका कोई ज्ञान । इसलिए इतनी बड़ी कौम को ईसाई धर्म के विचार में अचानक डालना एक मूर्खतापूर्ण कदम है । इसके बाद एक और भारतीय धर्म जैन धर्म है जो पूर्णतया अहिंसावादी सिद्धान्त वाला है, इसलिए इसके बारे में विचार करना जाट कौम के लिए निरर्थक है । इसके बाद नवीनतम धर्म सिख धर्म है । वर्तमान में सिख धर्म में 70 प्रतिशत जाट हैं और यह धर्म मुगलों से लड़ते-लड़ते बहादुरी का प्रतीक होते-होते स्थापित हुआ जिसमें कमा के खाना सर्वोपरि है । पाखण्डवाद और असमानता का विरोधी है । सेवाभाव में


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विश्वास करने वाला एवं ब्राह्मणवाद का विनाश करने वाला धर्म है । यह धर्म आधुनिक, विकासशील व प्रगतिशील और अपनी सुरक्षा करने में सदैव सक्षम है । आज तक की लड़ाइयों से यह सिद्ध हो चुका है कि इस धर्म के लोग सबसे अधिक देशभक्त और लड़ाकू हैं । यह धर्म जाट परम्पराओं और उनकी संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है जिसको ग्रहण करने में जाटों को किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नही होगी । वैसे भी निरुक्त ग्रन्थ में लिखा है - जटायते इति जाट्यम । अर्थात् जो जटाए रखते हैं वे ही असली जाट कहलाते हैं । भाषा किसी भी धर्म को ग्रहण करने में कोई बाधा नहीं होती । इस धर्म को रख पाने में जब पंजाब के जाट को कोई परेशानी नहीं है तो हमको कैसे होगी । यदि भविष्य में जाट कौम अपनी इज्जत, शान और अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए इस गौरवपूर्ण एवं स्वाभिमानी सिख धर्म को धारण करती है तो हमारा भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा क्योंकि मैं दावे से लिख रहा हूं कि जाट कौम अपने को हिन्दू कहकर कभी भी शिखर पर नहीं जा सकती और कभी चली गई तो कोई उसे रहने नहीं देगा । इस बात को चौ० चरणसिंह ने भी अपने जीवन में स्वीकार किया था और कहा था कि ‘काश ! मैं ब्राह्मण होता।’ हम ब्राह्मण बन नहीं सकते, सिख बन सकते हैं । चौ० छोटूराम ने भी जाट गजट के अंक सन् 1924 में जाटों को सिख धर्म अपनाने की वकालत की थी । जिसकी निन्दा पं० श्रीराम शर्मा के अखबार हरियाणा तिलक ने 17 अप्रैल 1924 को छापी थी ।


जाट भाइयो, आओ और खुले दिल और दिमाग से इस पर विचार मंथन करें और कौम को पाखण्डवाद और कायरता की गुलामी से मुक्त करें । जय जाट ! जौर से कहो, बोलो सो निहाल । सत् श्री अकाल ।


राज करेगा खालसा, आकी रहै ना कोई ।

अर्थात् भविष्य में खालिस व पवित्र लोग ही राज कर सकेंगे ‘आकी’ अर्थात् कोई गुण्डा, पाखण्डी और लुटेरा नहीं रह सकेगा ।



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खरी-खरी........!

जाट भाइयो,

जाट कौम को 65 साल से अर्थात् दीनबन्धु चौ० छोटूराम के देहान्त के बाद से ही मन्दिर का शंख बना दिया गया है जो चाहे जितनी फूंक मारकर बजा रहा है । कभी गोरक्षा के नाम से इसे आर्यसमाज बजा रहा है तो कभी कामरेड हिन्दू विवाह कानून का समर्थन करने के लिए बजा रहा है । कभी बाबा रामदेव देश के स्वाभिमान के नाम से बजा रहा है (योग को पहले व्यापार बनाया, अब इसे राजनीति का अखाड़ा बनाने जा रहा है । बही-खाते की देखभाल उनके परिवार के लोग ही कर रहे हैं, दूसरों पर विश्वास नहीं । देश के स्वाभिमान की बात कर रहे हैं), तो कभी राधास्वामी, सच्चा सौदा व बापू आसाराम आदि-आदि अध्यात्म के नाम से बजा रहे हैं। मैं इन सब डेरे वालों को चैलेंज करके कह रहा हूं कि वे मेरे हाथ की छोटी वाली अंगुली को मोड़ना तो दूर अपने अध्यात्म से या किसी भी काले पीले मंत्र से एक बार हिला कर तो दिखा दें । ब्राह्मणवाद ने तो जाट कौम को पाखण्डवाद के अंधेरे में धकेलने की कसम खा रखी है, ये लोग इस शंख में इतनी फूंक मार रहे हैं कि आज हमारे लाखों नौजवान जाट कांवड़ ढोने में लगे हैं । गांव में ऊंचे-ऊंचे मन्दिर बनवाकर अपनी दुकान जमा रहे हैं और जाट कौम की गाढ़ी कमाई का पैसा उस भगवान के नाम से बर्बाद किया जा रहा है जिसे आज तक किसी ने नहीं देखा । अब ये कहेंगे कि भगवान तो अनुभव करने की चीज है तो फिर ड्रामेबाजी क्यों ? जाट कौम को मरे पर खाने की आदत डाली जा रही है वहीं दूसरी ओर जागरणों के न्यौते दिए जा रहे हैं । लेकिन वास्तव में जाट कौम का जागरण आज तक किसी ने भी आरम्भ नहीं किया चौ छोटूराम को छोड़कर । भगवान को रिश्वत के तौर पर सवामणि और भण्डारे करके जाट कौम को प्रलोभन दिए जा रहे हैं । आज जाट कौम दूसरों के हाथों का शंख बन गई है जबकि इस शंख से कावड़ लाने वालों को न तो कभी नौकरी ही मिलेगी तथा न ही कोई दुल्हन । आज अनपढ़ जाट और पढ़े लिखे जाट की मानसिकता में कोई अंतर नहीं रहा


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है । पुरानी कहावत अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा और पढ़ा जाट खुदा जैसा आज बदल गई है । जाट और एक पाखण्डी या ढोंगी में कोई अंतर नहीं रह गया है ।


जाट किसान जिस दिन धरती में दाना डालता है, उसी दिन से उसका धर्म शुरू हो जाता है । इसी दाने को पहले कीड़े मकौड़े खाते हैं फिर पक्षी, जानवर और इन्सान खाकर इस पर जिंदा रहते हैं । इन्सान इस दाने को चाहे जमीन पर बैठ कर खाए या फाईव स्टार होटल में । फिर जाट के लिए कौन-सा धर्म बाकी रह जाता है ? इससे बड़ी सेवा और धर्म कौन-सा है?


फिर जाट को पाखण्ड और झूठा ढोंग या धर्म करने की आवश्यकता कहां रह जाती है । ब्राह्मणवाद का गणेश कभी दूध पीता है तो कभी उसकी आंख से आंसू टपक पड़ते हैं । लेकिन जब हजारों साल तक यह देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़कर सिसकता रहा तो इन देवताओं की आंखों से कभी एक भी आंसू नहीं टपका । अभी इन्हें किस पर तरस आ रहा है? क्या माल खाने वाले पुजारियों पर या जाटों की कमाई पर या जाटों के पागलपन पर । धर्म वे लोग करें जो जनता और देश को लूटकर खा रहे हैं ।


जाट कौम जमीन को अपनी कहकर इतराती रही है । लेकिन कहां है जाटों की जमीन, कहां रखा है इसका रिकार्ड? सरकारें जब चाहें और जिस कीमत पर चाहें इस जमीन को हड़प कर लेती हैं तो फिर हमारी जमीन कहां हुई? सरकार मर्जी से मुआवजा देकर सन् 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून के तहत हमें जमीन से बेदखल करके हमारे बच्चों को सड़क पर छोड़ देती है । क्या आज भी कानून अंग्रेजी सरकार का नहीं चल रहा है? फिर कहां है हमारी सरकार? जमीन में पैदा होने वाले अन्न के भाव पर भी हमारा कोई अधिकार नहीं है तो फिर हमारा अधिकार है कहां? गौरे और काले अंग्रेजों में अंतर क्या है?


इस देश का इतिहास हमारा है लेकिन इसी इतिहास में नाम गैरों का है तो फिर हमारा इतिहास कहां है? जिन्होंने कभी एक लड़ाई भी नहीं


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जीती और हमेशा मुगलों की दरबारी की और अपनी बहन बेटियों के डोले उनको थमाए उनके नाम से इतिहास को क्यों और किसने लिखा? हम क्या कर रहे थे? और आज भी क्या कर रहे हैं? हमारे दिलों में मुसलमानों और मुगलों के प्रति सदियों से नफरत भरी जाती रही लेकिन उनके दरबारियों के प्रति क्यों नहीं? औरंगजेब को इतिहास में चाहे कितना ही बदनाम किया गया लेकिन उनके डर से कभी कोई जाट मुसलमान नहीं बना यदि उनके डर से कोई मुसलमान बनता तो सबसे पहले बनिया और कायस्थ और उसके बाद दिल्ली का जाट बनता । लेकिन इस इतिहास ने यह क्यों नहीं बतलाया कि सन् 712 में मोहम्मद बिन कासिम को सिंध में पहली बार विजय किसने दिलवाई? मोहम्मद गजनी का सेनापति तिलक कौन था? बाबर का सेनापति रैमीदास कौन था? शहीद राजा नाहरसिंह को फांसी देने वाला गंगाधर कौल कौन था? अंग्रेजों की बंदूकों में कारतूसों के लिए गाय की चर्बी सप्लाई करने वाला कौन था? शहीद भगतसिंह के विरुद्ध गवाही देने वाला वोहरा कौन था? जाटों को लाहौर उच्च न्यायालय में शूद्र घोषित करवाने वाले कौन थे? गुरनाम सिंह आयोग की रिपोर्ट जिसके तहत जाटों को आरक्षण दिया गया, को रद्द करवाने वाले कौन थे?


जाट भाइयों मैं ऊंचे टीले पर चढ़कर जोर से कहना चाहता हूँ कि यदि कोई जाट शराब की बोतल हाथ में लेकर आए तो विश्वास कर लेना, लेकिन यदि कोई ब्राह्मणवादी हाथ में दूध का गिलास लेकर भी आए तो उस पर कभी विश्वास मत करना ।


आज जिस जाट के घर में चौधर नहीं वही कौम का चौधरी बना फिर रहा है । फटी हुई पगड़ी, धोती में जगह-जगह सुराख, गठाई हुई चप्पल, जेब में पैसा नहीं, बेटे को नौकरी नहीं न ही कौम के इतिहास का ज्ञान, न कौम की ताकत का भान, न अपने अधिकारों का अहसास, न दुश्मन की पहचान । सारा दिन ताश में मगन अपनी कौम की कोई नहीं लगन, फिर भी कौम की चौधर में गलतान है। गांव का लड़का अपने ही गौत्र की लड़की अर्थात् अपनी ही बहन को भगा रहा है । बाप खुद अपने बेटे


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के लिए दुल्हन की तलाश में त्रिपुरा तक पहुंच गया, अपने अनाज के भाव का ज्ञान नहीं, दुल्हन का मोलभाव कर रहा है । लंगड़ी-लूली दुल्हन का भाव कम हो गया, इस बात का ज्ञान है । लेकिन इस बात का ज्ञान नहीं कि इस दुल्हन से कैसे जाट पैदा होंगे ? जब उन बच्चों के मामे ही नहीं होंगे तो भाती कहां से आएंगे? जब कौम के रिश्तेदार ही नहीं होंगे तो किस बात का चौधरी ? लेकिन फिर भी अपने को चौधरी मानकर पूरी कौम को जुगाड़ बनाने में लगा है ।


आरक्षण के बारे में अभी भी जाट कहता है कि आरक्षण मिल जाने पर जाट हरिजन बन जाएगा । यह बात जाट कैसे भूल गया कि जो हरिजन कुछ साल पहले हमारी रात की बची हुई खिचड़ी सुबह घर ले जाकर अपना पेट भरता था और वही लोग जो अपने हिस्से के लिए हमारे खलिहानों पर लाईन लगाते थे वे आज जमीन से आसमान पर कैसे पहुंच गए । फिर भी जाट जान नहीं रहा है कि यह तस्वीर 40 सालों में कैसे बदल गई । जाट हवा का रूख जानने में असफल है। उसको नहीं मालूम क्यों और कैसे कौन लोग उनको दलितों का दुश्मन बना रहे हैं । जाट दुश्मन को पहचानने में अभी भी नादान हैं ।


जाट कौम की पहचान, संस्कृति, और सम्पत्ति पर चारों ओर से हमले शुरू हो चुके हैं । अपने नामों के साथ-साथ अपने गौत्र लगाने वाले जज ही आज पूछ रहे हैं कि जाटों में गौत्र होता ही क्या है? लेकिन जिस जज को अपने देश की संस्कृति का ज्ञान नहीं उसे किस आधार पर जज बना दिया गया? मीडिया जाटों के बच्चों को जो आपस में बहन-भाई हैं, उन्हें किस आधार और अधिकार से प्रेमी युगल लिख रहे हैं? जाटों को तालिबानी और तालाब का ठहरा हुआ पानी कहा जा रहा है । राम जेठमलानी टी.वी. चैनलों पर जाटों को सरेआम पागल (ल्यूनाटिक) कह रहा है । एक जज बगैर किसी चश्मदीद गवाह के एक साथ 5-5 जाटों को फांसी पर चढ़ा रहा है । पहले लोगों ने जाटों का इतिहास बिगाड़ा फिर भूगोल बिगाड़ने पर लगे हैं। अब तो उनकी संस्कृति और पहचान पर ही हमला बोल दिया है । फिर भी जाट ताश खेलने में मग्न हैं । इस पूरे नाटक को जाट राजनैतिक नेता गूंगे-बहरे बनकर देख रहे हैं क्योंकि ये लोग


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जानते हैं कि जाट कौम तो इनकी अपनी बपौती है, क्योंकि ये जानते हैं कि जाटों को बांट कर इन्हीं को वोट देनी है । बाकी जातियों के वोटों को पकाओ । इसलिए ये नेता दूसरी जातियों के सम्मेलन बुलाकर उनमें मुख्य अतिथि बनकर वाह-वाही लूट रहे हैं । क्योंकि ये जानते हैं कि यही वाही-वाही फिर इनके वोटों को लुटेगी और फिर ये लोग जाटों की वोटों को मिलाकर नोटों को लुटेंगे । यही आज की राजनीति है ।


चौ० चरणसिंह ने अपना जीवन और राजनीति किसानों के हितों में लगा दी थी । फिर भी किसान की हालत दिन प्रतिदिन क्यों बिगड़ती चली गई? उन्होंने अपना जीवन गांधीवादी विचारधारा को फैलाने में लगाया जबकि गांधी की विचारधारा कागजी थी और गांधी जी वहीं तक गांवों में गए जहां तक अंग्रेजों की रेल पहुंची । इसी विचारधारा के तहत चौ० चरणसिंह ने उत्तर प्रदेश के जाटों के सिरों से पगड़ी उतरवाकर गांधी टोपी पहना दी । पूरे देश में कहीं भी गांधी की विचारधारा लागू नहीं है लेकिन उनके अनुयाइयों के इतिहास ने गांधी को महान् बना दिया और उस इतिहास को अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा तक पहुंचा दिया । चौ० चरणसिंह ने जांति-पांति के विरोध में अपना पूरा जीवन लगाया और इस बात को सिद्ध करने के लिए अपने बच्चों के रिश्ते भी दूसरी जातियों से जोड़े लेकिन फिर भी लोगों ने उन्हें किसान नेता न मानकर जाट नेता कहा । अन्त में सन् 1980 में मीडिया से तंग आकर कहना पड़ा, ‘काश ! मैं ब्राह्मण होता।’ अर्थात् जाति के स्वरूप और उसकी ताकत को मानना पड़ा । मंडल कमीशन का गठन हुआ उस समय वे भारत के गृहमन्त्री थे और जब रिपोर्ट तैयार हुई तब वे भारत के प्रधानमन्त्री थे । और जब वे प्रधानमन्त्री बने तो भारतवर्ष के पूरे मीडिया ने लिखा और कहा कि भारत में पहली बार पिछड़ी जाति से चौ० चरणसिंह प्रधानमन्त्री बने हैं । लेकिन फिर भी उन्होंने यह जानने का कष्ट नहीं उठाया कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट में जाटों को पिछड़ी जाति माना या नहीं । जो भी हो, आज उनके बेटे-पोते उन्हीं की विरासत के कारण राजनीति के मैदान में डटे हैं ।


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चौ० देवीलाल जाट के बेटे थे और खुद भी जाट थे, काम भी जाट की तरह करते थे । लेकिन फिर भी जाट भाई बलराम जाखड़ को चुनाव में हराने के लिए राजस्थान के सीकर में क्यों पहुंचे ? चौ० कुम्भाराम आर्य जो जाटों के पक्षधर थे, की बेटी को चुनाव में हराने के लिए राजस्थान के चुरू में क्यों पहुंचे? उत्तर प्रदेश में चौ० चरणसिंह के बेटे अजीतसिंह को एक किनारे करके मुलायम सिंह अहीर को मुख्यमन्त्री बनाने क्यों पहुंचे? बाद में इसी यादव साहब ने जाटों का बड़ा नुकसान किया लेकिन चौ० देवीलाल की विरासत पर उनके बेटे चौ० ओमप्रकाश चौटाला राजनीति कर रहे हैं और उनके आगे की पीढ़ियां उनकी सल्तनत पर अधिकार के लिए तैयार खड़ी हैं । लेकिन फिर भी इस खानदान ने जाट संस्कृति को कायम रखने का प्रयास किया है ।


चौ० बंसीलाल एक सफल प्रशासक थे लेकिन न तो इन्होंने कभी जाट का नाम लिया, न ही जाट का अलग से कोई काम किया । उस समय हरयाणा के जाट को शिक्षा की परम आवश्यकता थी क्योंकि हरयाणा में राजनीति का यह पहला पड़ाव था । लेकिन चौ० बंसीलाल ने न तो जाटों की शिक्षा पर ध्यान दिया और न ही उनकी नौकरियों पर । समय था कि वे अपनी चला गए । आज इनकी विरासत को कौन संभाले हुए है, शायद संभालने वालों को भी इसका पता नहीं ।


चौ० भजनलाल मांझू गोत्र के जाट हैं लेकिन इनकी बात न ही की जाए तो जाट कौम का भला होगा क्योंकि इन्होंने हरियाणा में जाट कौम का आरक्षण खत्म करके जाट कौम के साथ एक ऐतिहासिक विश्वासघात किया ।


चौ भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हरयाणा के मुख्यमन्त्री बनने से पहले रोहतक क्षेत्र को छोड़कर उनके दादा चौ० मातुराम के नाम को शायद ही कोई जानता था । चौ० मातुराम अंग्रेजों के समय जेलदार थे और उनके सम्बन्ध चौ० छोटूराम और उनकी जमींदारा पार्टी से कैसे थे यह सब भी वहां के लोग जानते हैं । चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के पिता भाखड़ा बांध के उद्घाटन के समय मन्त्री थे लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि


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चौ० रणबीर सिंह का नाम भाखड़ा योजना के निर्माण के साथ जोड़ा जा रहा है जबकि सच्चाई यह है कि भाखड़ा बांध की योजना तथा नलकूप योजना को चौ० छोटूराम ने सन् 1937 में संयुक्त पंजाब के सदन में पास करवा लिया था और इसकी सर्वे भी अपने जीवन में ही करवा दी थी । और इस योजना पर उनके जीवन के अन्तिम हस्ताक्षर थे । चौ० रणबीर सिंह हुड्डा को भारतीय संविधान निर्माण कमेटी का अन्तिम जीवित सदस्य माना गया और इनके नाम से रोहतक के पास एक विशाल संविधान स्थल का निर्माण हो रहा है । लेकिन संविधान की किस धारा के ऊपर इन्होंने बहस की, यह नहीं बतलाया जा रहा है । याद रहे हिन्दू विवाह कानून 1955 भी उसी समय बना था जो पूर्णतया जाट और उत्तर भारत की स्थानीय जातियों के विरोध में है । उसको पढ़ने की चौ० साहब ने जहमत क्यों नहीं उठाई? यह एक बड़ा प्रश्न है । वर्तमान में चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा मुख्यमन्त्री को अधिक चिंता ब्राह्मण तथा पंजाबी (अरोड़ा-खत्री) की रहती है जिनकी जनसंख्या मुश्किल से 14 प्रतिशत है जबकि जाट की जनसंख्या 40 प्रतिशत से भी अधिक है।


चौ० वीरेन्द्र सिंह डूमरखां चौ० छोटूराम के दोहते हैं इसलिए उनको सम्मान और राजनीति में समर्थन मिलता रहा है लेकिन इन्होंने कभी भी चौ० छोटूराम की विचारधारा को आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया । चौ० छाजूराम ने रोहतक की नीली कोठी जो चौ० छोटूराम को दी थी, उस पर आज तक कब्जा किया हुआ है और साथ लगती जमीन को व्यवसायिक रूप में प्रयोग किया जा रहा है जो केवल निजी लाभ के लिए किया गया है । जबकि इस कोठी में चौ० छाजूराम और चौ० छोटूराम के यादगार संग्रहालय होने चाहिएं थे तथा साथ में ही चौ० छोटूराम पर शोध-संस्थान बनना चाहिए था क्योंकि आज तक चौ० छोटूराम के ऊपर विस्तार से कोई भी शोध नहीं हो पाया है ।


यही हाल पंजाब के जाटों का है। पंजाब में कई वर्षों से बादल खानदान और कैप्टन अमरेन्द्र बराड़ खानदान राज करते आ रहे हैं । अभी तक यही कहा जाता रहा है कि पंजाब का जाट किसान बड़ा सम्पन्न


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है। जबकि सच्चाई यह है कि पंजाब का जाट किसान आज बड़ा कर्जदार और आढ़तियों का बंधक है ।


चौ० शमशेर सिंह सुरजेवाला को और कोई काम नहीं मिला तो वे खापों के पीछे पड़ गए ।


जो भी हो, इन जाट नेताओं ने कभी भी कौम की आवाज को नहीं उठाया और न ही जाट कौम को किसानी के धंधे से निकालने का प्रयास किया जिस कारण आज किसान जाट की आर्थिक हालत बद से बदतर हो चली है । जाट समाज की मानसिकता को इन जाट नेताओं ने इतना गुलाम बना दिया है कि वे इनके इशारे पर मरने और मारने को तैयार हो जाते हैं और जाट समाज की सोच बंधक बनकर रह गई है ।


पूर्व विधायक और मन्त्री प्रो० छतरपाल सिंह ने 3 सितम्बर 2008 को हरियाणा सदन में जाटों के आरक्षण के अधिकार की आवाज को बुलन्द किया तो पूर्व सांसद किशन सिंह सांगवान ने 19 फरवरी 2009 को भारतीय संसद में इसी मांग को उठाया तो जाटों ने उनको चुनाव में हराकर सड़क पर लाकर छोड़ दिया । यही ठोस उदाहरण है कि जाट समाज की मानसिकता का किस प्रकार से अपहरण कर लिया गया है । यही प्रमाण जाट कौम की मानसिकता का दीवालियापन दर्शाता है ।


आज जाट कौम हर मोर्चे पर घायल होकर छटपटा रही है लेकिन इन नेताओं को अपनी खानदानी राजनीति विरासत चलाने की फिक्र रहती है । इसके बावजूद ये लोग कहते हैं कि ये जाटों को ही ज्यादा नौकरियां दे रहे हैं । मैं दावे से लिख रहा हूं कि कोई भी जाट नेता किसी भी एक जाट के लड़के को आई.ए.एस. और आई.पी.एस. की नौकरी दिलाकर दिखा दे । इनको तो आरक्षण की पूरी प्रक्रिया तक का ज्ञान भी नहीं है । वह इसलिए कि जाट कौम ने इनका खानदानी आरक्षण कर दिया और जाट कौम जाए भाड़ में।


इन्हें छोटूराम की बात याद दिलाई जाती है तो ये लोग कहते हैं कि समय बदल गया है । समय तो रोज बदलता है और बदलता रहेगा । किसी पहलवान को चित्त करने के लिए अपने दांव पर लाना पड़ता हैं । इन नेताओं ने अपनी कौम के लिए कभी दांव नहीं खेला । केवल एक बार


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चौ० देवीलाल ने सन 1990 में जाटों को हरियाणा में आरक्षण देकर दांव खेला था और आरक्षण का जो किला बनाया उसको चौ० भजनलाल ने छीन लिया लेकिन उसी किले पर उनका पुत्र चौ० ओमप्रकाश चौटाला दोबारा से कब्जा नहीं कर पाया । इसलिए वे इतिहास में असफल योद्धा कहलाएंगे । राजस्थान के जाटों की सोच इसलिए बंधक नहीं हो पाई क्योंकि वहां आज तक कोई भी एक राजनीतिक जाट खानदान नहीं था जिसके इशारे का जाट समाज इंतजार करता । इसलिए राजस्थान का जाट अपने आरक्षण के अधिकार के लिए इकट्ठा हो पाया और अधिकार ले लिया । हालांकि आजादी से पहले राजस्थान के जाटों ने राजपूत खानदानों की तरफ से चाहे कितनी भी जिल्लत झेली हो । इसलिए वह समय दूर नहीं होगा जब राजस्थान का जाट वहां के राजपूत से कोसों आगे निकल जाएगा और वहां का राजपूत अपने आप से पूछेगा - क्या यह वही जाट है, जिनके कंधों पर हम कभी पैर रखकर ऊंट से नीचे उतरा करते थे?


आज भारतवर्ष का जाट अपनी निजी विचारधारा पर ही बड़बड़ाता रहता है, कहीं भी एकता नहीं है । अपने दुश्मन को तो तब पहचाने जब यह किसी को दुश्मन मानता है । दूसरे की तो जब सुनें जब कुछ जानता हो । जाट को तो यह भी नहीं पता कि महाराजा महेन्द्र प्रताप और शहीद राजा नाहरसिंह कौन थे? जाट कौम ने तो अपनी मानसिकता और अपनी निजी विचारों से ही सुरक्षात्मक कवच अपने चारों तरफ बना रखा है । उसे इस प्रजातन्त्र में कुछ पाना है तो सुरक्षात्मक कवच को तोड़कर आक्रामक रुख को अपनाना पड़ेगा । आक्रामक का अर्थ किसी का सिर फोड़ने का नहीं बल्कि अपने अधिकारों के लिए आक्रामक होने से है । आज देश और विदेश में राम, कृष्ण, ईसा मसीह, हजरत मुहम्मद, गुरु नानक, कार्ल मार्क्स, लेनिन और माओ आदि की पूजा इसलिए हो रही है क्योंकि उनकी कोई विचारधारा थी, जिसे लोगों ने स्वीकारा है । इसके लिए जाट कौम को केवल और केवल एक विचारधारा को अपनाना होगा जो दीनबन्धु चौ० छोटूराम की थी । इस विचारधारा को जाट समाज ने पूर्णतया समझकर उसका अनुकरण करना होगा। जाट समाज को यह अच्छी तरह समझना होगा कि चाहे जाट किसी धर्म या पंथ को माने वह केवल जाट


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है और यह खून का रिश्ता है जो दुनिया में सबसे बड़ा होता है । इसलिए जाट भाइयों यह एक मिशन है जिसके साथ हम सभी को जुड़ना चाहिए ।


इसी विचारधारा को आगे चलाने के लिए कई वर्षों से हमें एक नेतृत्व की तलाश थी । क्योंकि कोई भी विचारधारा, कोई संगठन और कोई भी संस्था बगैर नेतृत्व के कभी भी नहीं चल सकती है । यदि कुशल नेतृत्व है तो यह सभी कुशलता से चलकर सफलता को प्राप्त होती है । स्वार्थी लोगों का कोई भी मिशन कभी सफल नहीं हुआ । ढोंग कभी स्थाई नहीं होता, उससे कुछ दिन के लिए लोगों को बहकाया जा सकता है । सच्चाई को कुछ दिन के लिए ही छिपाया जा सकता है । समाज को बार-बार धोखा नहीं दिया जा सकता है । समाज को लम्बे समय तक अंधेरे में नहीं रखा जा सकता । इसलिए एक सच्चे और ईमानदार नेतृत्व की आवश्यकता थी और यह आवश्यकता चौ० यशपाल मलिक के रूप में पूरी हुई है । इसलिए सभी धर्मों के जाटों ने इकट्ठा होकर इनको अपना कौमी नेता चुन लिया है । किसी भी शुरुआती दौर में जो होता है वह हो रहा है । कोई कहता है यशपाल मलिक, चौ० अजीत सिंह और चौ० टिकैत का विरोधी है । कोई कहता है कि मायावती इनको पैसा दे रही है । हर प्रकार से कुछ जाट भाई ही यह भ्रामक प्रचार कर रहे हैं । ऐसे ही कुछ स्वार्थी अज्ञानी और भ्रमित जाट आज तक चौ० छोटूराम को अंग्रेजों का पिट्ठू कह रहे हैं । इसलिए यह कोई नई बात नहीं है । कुछ लोगों ने यह अफवाह भी फैला रखी है कि चौ० यशपाल मलिक और हवासिंह सांगवान भविष्य में कोई चुनाव लड़ने की नीति बना रहे हैं । हम कौम को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि इस प्रकार की हमारी कोई सोच नहीं है । हम तो राजनीति नहीं जाटनीति, करेंगे । जाट कौम इसे हमारा लिखित हलफनामा समझे -


हम कभी भी, कहीं भी, किसी भी स्तर पर कोई भी चुनाव नहीं लड़ेंगे ।


जय जाट


आपका अपना प्रचारक


हवासिंह सांगवान


इति



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लेखक का परिचय

Hawa Singh Sangwan

नाम - हवासिंह सांगवान जाट सुपुत्र स्वर्गीय चौ. श्योनन्द सांगवान जाट

जन्मस्थान - गाँव व डॉकखाना मानकावास, तहसील चरखी दादरी व जिला भिवानी (हरयाणा)।

जन्मतिथि - 16 मार्च सन् 1947 (सरकारी तौर पर)


आठवीं तक की शिक्षा अपने गाँव से तथा मैट्रिक की परीक्षा पड़ोसी गाँव चरखी से सन् 1965 में पास की, कालेज की शिक्षा ‘दयानन्द कॉलेज’ हिसार तथा ‘जनता कॉलेज’ चरखी दादरी से प्राप्त की और सन् 1969 में स्नातक की डिग्री मिलने पर 6 अक्टूबर सन् 1969 को सी.आर.पी.एफ. में हैड कांस्टेबल के पद पर श्रीनगर में नियुक्त हुये । कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर चलते हुए जनवरी 2001 में कमांडैंट के पद पर पहुंचे और प्रथम अप्रैल 2004 को साढ़े-34 साल सेवा करने के बाद सेवानिवृत्त हुये । सरकारी रिकार्ड में अधिक आयु होने के कारण भविष्य के प्रमोशन से वंचित रहे ।


इस साढ़े-34 साल के सेवाकाल में लेह-लद्दाख के ‘हॉट सप्रिंग’ से ‘कन्या कुमारी’ तथा नेफा (अरुणांचल) के ‘हॉट सप्रिंग’ (चीन, ब्रह्मा व भारत सीमा का ट्राई जंक्शन) से गुजरात के खंभात कस्बे (इसी कस्बे के नाम से वहाँ समुद्र की खाड़ी का नाम खंभात की खाड़ी पड़ा) तक लगभग सम्पूर्ण भारत को देखने का अवसर मिला । सी.आर.पी.एफ. की सेवा की बदौलत-पैदल व खच्चर के सफर से लेकर चेतक-हेलिकॉप्टर तथा एयर-बस तक यात्रा करने का और रेलवे के गले-सड़े प्लेटफार्म व टूटे-फूटे गाँवों की झोपड़ियों से लेकर फाईव-स्टार होटलों में रहने तक का अवसर प्राप्त हुआ । इस अवधि में बंगाल का नक्सलवाद, तेलंगाना आंदोलन (सन् 1973), पी.ए.सी. विद्रोह, बंगाल में बंग्लादेशियों की घुसपैठ, पंजाब का उग्रवाद, गुजरात पुलिस का आंदोलन, आसाम में गणपरिषद् का आंदोलन व ‘उल्फा’ का उग्रवाद, मिजोरम व मणिपुर के स्थानीय आंदोलन व उग्रवाद, कश्मीरी उग्रवाद, बोडो उग्रवाद, सन् 1990 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद व मन्दिर विवाद और मेरठ, मुरादाबाद व हैदराबाद के साम्प्रदायिक दंगे आदि-आदि तथा इसके अतिरिक्त देशभर में अनेक जगह चुनाव के कार्यों में भाग लिया । इस अवधि में अनेक प्रशंसापत्र तथा मैडल मिले । लेकिन लेखक का मानना है कि उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि पूरे सेवाकाल में कभी भी अपने आत्मसम्मान को ठेस तथा अन्याय से समझौता नहीं किया और इसके लिए उनको सन् 1986 में पंजाब व हरयाणा उच्च न्यायालय तथा सन् 2000 में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में भारत सरकार व सी.आर.पी.एफ. के विरुद्ध जाना पड़ा और पूर्णतया न्याय मिला । इसी कारण साढ़े-34 साल के सेवाकाल में से 28 साल भारत के अशांत क्षेत्रों में गुजारने पड़े ।


उनकी दूसरी उपलब्धि यह है कि सम्पूर्ण भारत को नजदीक से देखने व विभिन्न समाजों को जानने का अवसर मिला । सन् 1988 के बाद जहाँ-जहाँ भी रहे वहाँ के इतिहासों का अध्ययन किया तथा अपनी जाट जाति को सामने रखकर हमेशा तुलनात्मक दृष्टि को अपनाकर गंभीरता से इसका विश्लेषण व चिंतन किया । इसी परिणामस्वरूप अपनी जाट जाति के बारे में लिखने पर विवश हुए । मोबाइल नम्बर 9416056145.


नोट - लेखक ने अपने नाम के साथ उनकी जाति (जाट) इसलिए जोड़ दिया कि उनको दूसरी जातियों में सांगवान गोत्र के लोग मिले हैं । उदाहरण के लिए कुम्हार, श्यामी, धानक और वाल्मीकि । सांगवानों के गांवों से जाने के कारण बाहर इन्होंने अपने नाम के पीछे सांगवान लिखना आरम्भ कर दिया ।


किताब में त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है । अतः पाठकों से नम्र निवेदन है किसी भी त्रुटि के रहने पर उसे हमें ज्ञात कराएं ताकि अगले संस्करण में उसे शुद्ध किया जा सके ।


जय जाट !



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