Chhoturam/चौ. छोटूराम का हत्यारा कौन? - पूर्वार्ध - पृष्ठ 1 - 88

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चौ. छोटूराम का हत्यारा कौन?
लेखक
हवासिंह सांगवान जाट
पूर्वार्ध - पृष्ठ 1 - 88



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मेरा कथन

इस पुस्तक का उद्देश्य दीनबन्धु चौ. छोटूराम की विचारधारा को पुनर्जीवित करना है। इस पुस्तक में संकलित लगभग सभी लेख कहीं न कहीं हमारे प्रिय नेता स्व. चौ. छोटूराम की विचारधारा से प्रेरित हैं क्योंकि जब से मैंने चौ. छोटूराम के बारे में गहराई से जानने की कोशिश की तो उनके जीवन और उनकी विचारधारा ने मेरे दिल और दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी है और मेरा जीवन चौ. छोटूराममय हो चुका है और यही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है कि इस विचारधारा के अनुसार जाट कौम को उसका उचित स्थान मिले, जिसकी जाट कौम हकदार है । इसके लिए मैं कोई कोर-कसर नहीं छोडूंगा और इसके लिए बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तत्पर रहूंगा । इस पुस्तक में संग्रहित लेखों में से अधिकतर लेख जाट पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं । इसलिए पाठकों को एक ही घटना या बात को बार-बार पढ़ने का कष्ट करना पड़ेगा क्योंकि ये लेख अलग-अलग समय में लिखे गए हैं । एक लेख तो राष्ट्रीय समाचार पत्र जगतक्रान्ति के मुख्य भाग में दिनांक 30-9-2009 को छपा था । कुछ जाट पत्र-पत्रिकाएं मेरा लेख छापने में हिचकते भी हैं । शायद उन्हें जाट कौम से अधिक सद्भावना का ख्याल रहता है ।


मेरा इस पुस्तक को लिखने का अभिप्राय किसी व्यक्ति या जाति की आलोचना करना तनिक भी नहीं है बल्कि उन सच्चाइयों को हमारी कौम के सामने उजागर करना है जिसे प्रायः लोग छिपा कर रखना चाहते हैं या फिर उन्हें लिखने का साहस नहीं करते । इसी कारण आमतौर पर लोग सच्चाई पर विश्वास नहीं करते बल्कि परम्परागत लेखन व बनावटी इतिहास आदि पर विश्वास करते हैं जबकि उसमें भारी घपला है । इस पुस्तक में लिखे तथ्यों के मेरे पास ठोस प्रमाण हैं, इसी कारण मैं डंके की चोट पर लिखने का दावा भी करता हूं । मैं अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष चौ. यशपाल मलिक का विशेष रूप से आभारी हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को ‘‘चौ. छोटूराम का हत्यारा कौन?’’ के शीर्षक से लिखने के लिए प्रेरित किया और इसे एक जाट मिशन के तौर पर अपनाने की सलाह दी । इस पुस्तक के भाग नं-2 में चौ. छोटूराम

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की विचारधारा के अतिरिक्त उनके द्वारा किए गए कार्यों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया है। चौ० छोटूराम की विचारधारा को समझने के लिए आवश्यक है कि हमें समझना होगा कि 1885 में अंग्रेजों को कांग्रेस का गठन क्यों करना पड़ा ? जब 1857 में जाट, गुर्जर व अहीर आदि जातियों ने भारी उत्पात मचाया तो अंग्रेज उसके बाद अपनी सत्ता में इन जातियों की भागीदारी से डरने लगे थे और उन्होंने कायस्थ, ब्राह्मण व बणिया जातियों पर अपना विश्वास किया । लेकिन जाटों की लड़ने की भारी ताकत को देखते हुए उन्हें सेना में विशेष स्थान तो दिया लेकिन कमान और प्रशासन में नहीं दिया । चौ० छोटूराम अंग्रेजों की इस नीति को समझ चुके थे इसलिए उन्होंने अंग्रेजों की इस सोच को बदलने के लिए प्रयास किया जो उनकी विचारधारा का एक बिन्दु था । इस पर इस पुस्तक के भाग नं-2 में विस्तार से लिखा गया है ।


इससे पहले भी मेरी पुस्तक ‘‘असली लुटेरे कौन” और “अयोध्या में अयोद्धा” भी चौ. छोटूराम की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई थी । ‘असली लुटेरे कौन?’ पुस्तक जाट कौम में विशेष लोकप्रिय है । इसका पंजाबी भाषा में अनुवाद चौ० भलेराम नैन गांव भूल्लन जिला संगरूर (पंजाब) के सद्प्रयासों से हो चुका है और यह शीघ्र ही छपने वाली है । लेकिन बड़े अफसोस से लिखना पड़ रहा है कि अधिकतर शिक्षित जाट भी अपने इतिहास से पूर्णतया अनभिज्ञ है । उन्हें नहीं पता कि महाराजा नाहरसिंहमहाराजा महेन्द्र प्रताप कौन थे ? उन्होंने कितनी बड़ी कुर्बानी और त्याग इस देश के लिए किया है ? जबकि इतिहास किसी भी कौम व देश का रहबर होता है।


जाट मिशन जाट कौम के लिए एक ऐसा मिशन है जिसमें कई जाट भाई अपना सहयोग दे रहे हैं । जिनमें कर्नल हाजी मोहम्मद यामीन चौधरी, चौ० अलीमास पडौसा, सरदार करनैल सिंह भावड़ा व सरदार बलदेव सिंह आदि प्रयासरत हैं। जाटों की एक विचारधारा नहीं होने के कारण ही आज जाट कौम में बिखराव है, इसी कारण प्रत्येक जाट ने अपनी-अपनी विचारधारा सृजित कर ली और वे उसी के अनुसार भाषण, तर्क-वितर्क कर के बोलता रहता है । आज जाट कौम में काफी लोग


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स्वार्थी होने के बावजूद भी बहुत जाट ऐसे हैं जो इस कौम के लिए मर मिटने के लिए तैयार हैं । लेकिन वे सब इसी बात पर लाचार हैं कि चौ० साहब जी के देहान्त से अभी तक जाट कौम की न तो कोई विचारधारा थी, न ही कोई एजेण्डा और न ही कोई नेतृत्व । वह समय दूर नहीं जब जाट कौम असलियत को समझ जाएगी और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेगी तथा अपनी एक नई पहचान बनाएगी । अभी धीरे-धीरे जागरूकता आरम्भ हो चुकी है । याद रहे जाति प्रथा का वही जातियां कड़ा विरोध कर रही हैं जिनके जातीय संगठन मजबूत हैं, शासन पर पूरी पकड़ है और अपने नामों के साथ अपनी जातीय गोत्रों का खुलकर इस्तेमाल करते हैं ।


मैं एक बार फिर से इस बात को लिखित रूप में दोहरा दूं कि मेरा किसी भी राजनीतिक पार्टी से कोई भी लेना-देना नहीं है और न ही भविष्य में होगा। हम सबने मिलकर अपनी महान् जाट कौम को उसका उचित दर्जा दिलवाना होगा जिसके लिए कौम हकदार है और वह तभी संभव होगा जब हम सभी चौ० छोटूराम की विचारधारा को समझकर इसके प्रचार-प्रसार में जुट जाएंगे और संघर्षमय हो जाएंगे । इसलिए मेरी जाट भाइयों से प्रार्थना है कि वे इस पुस्तक को ध्यान से पढ़ें और अपने जाट भाइयों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें । क्योंकि किसी ने सच ही कहा है कि कलम की मार तलवार की मार से भी घातक होती है । याद रहे जाट मुफ्त की वस्तु को बेकार की समझते हैं इसलिए किसी को पुस्तक मुफ्त में न दी जाए । इसकी कीमत लागत मात्रा रखी गई है । किसी विद्वान् ने कहा है कि यदि कोई पुस्तक लेकर उसे न पढ़े तो यह उस पुस्तक को जला देने से भी बुरा है ।


इस पुस्तक को लिखने व छापने में मैं विशेष तौर पर चौ० यशपाल मलिक, भाई जोशपाल दहिया खजूरी (दिल्ली) मूलनिवासी कस्बा करनावल जिला मेरठ (उ.प्र.), चौ० उमराव सिंह सांगवान पूर्व ए.सी.पी., श्री सुभाष श्योराण पूर्व डिप्टी कमांडेंट, ओमपाल आर्य, गांव मिताथल (हरियाणा), मनोज दूहन एडवोकेट व दफेदार चौ० जिलेसिंह धनखड़ झज्जर का आभारी हूं ।


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अहिंसा के परदे के पीछे कायरों की जमात

हम इतिहास में झांककर देखते हैं तो अंतिम छोर तक वीरों के पीछे कायरों की एक लम्बी कतार खड़ी नजर आती है । लेकिन ये कायर या गद्दार कोई साधारण कायर नहीं थे । इन्होंने अपनी कायरता के बल पर इस देश के इतिहास को बार-बार बदला है और इन्होंने महापुरुषों अर्थात् वीरों की बहादुरी तथा उनके कारनामों को कलंकित करके अपने आपको प्रथम पंक्ति में ला खड़ा कर दिया और अपने नामों को बनाए रखा।


हम इनकी शुरुआत मोहम्मद बिन कासिम के हमले सन् 712 ई० से आरम्भ करते हैं। जब इस लड़ाई में सिंध (आलौर) के हिन्दू ब्राह्मण राजा दाहिर आठ दिन की लड़ाई के बाद विजय के बिल्कुल करीब था जो उसी के ब्राह्मण मन्त्री ज्ञानबुद्ध ने लालच में कासिम को जीतने की तरकीब बताई जिसके कारण दाहिर की बुरी तरह हार हुई और इस युद्ध में उसकी हत्या की गई । मन्दिर के पुजारी हरनंदराय ने चंद सिक्कों के लोभ तथा खीर के लोभ में कासिम को गुप्त खजाने का रास्ता बतलाया जो उस समय 72 करोड़ का था । हालांकि दाहिर के चाचा चच ने भी तत्कालीन सिंध के जाट महाराजा सियासी राय मोर से एक भयंकर षड्यन्त्र करके राज हथियाया था जबकि चच स्वयं राजा के एक मंत्री का मुंशी था । जब मोहम्मद गजनी सोमनाथ का मन्दिर लूटने आया तो उसकी सेना का मार्गदर्शन करने वाला स्वयं एक ब्राह्मण सेनापति तिलक था। वहां के हिन्दू राजा भीमदेव ने डर में और अंधविश्वास के कारण गजनी के सामने समर्पण कर दिया । जब बाबर आया तो उसकी सेना का मार्गदर्शन करने वाला भी एक रैमीदास नाम का ब्राह्मण ही था। (इसको नाई जाति से भी लिखते हैं ) । जब अंग्रेज भारत आए तो उनको अपना पहला कारखाना सूरत में लगाने के लिए वहां की ब्राह्मण सभा ने अपना एक मांग पत्रा रखा


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जिसको मानने पर अंग्रेजों ने अपने आपको इस देश में स्थापित किया । सन् 1857 के प्लासी के संग्राम में विजय का सेहरा अंग्रेजों के सिर बांधने वाला सेठ अमीचंद हिन्दू पंजाबी था ।


इसी प्रकार महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद सिखों और अंग्रेजों में 6 साल तक लगातार घनघोर युद्ध हुआ लेकिन सोहनलाल सूरी हिन्दू पंजाबी अंग्रेजों का वेतन भोगी खुफिया एजेंट बना रहा जिसने अंग्रेजों को जीत का सेहरा बंधाया । जिसकी कीमत उसके वंशज 125 रु. प्रतिमाह पैंशन के रूप में सन् 47 तक अंग्रेजों से वसूलते रहे । इसी प्रकार सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी के दोनों छोटे बेटों जोरावरसिंह और फतेहसिंह को लोभ और लालच में दो कायरों, पण्डित गंगाराम तथा दीवान सुचानन्द हिन्दू पंजाबी ने सरहिंद के नवाब ज्यानी खां के हाथों दीवार में चिनवा दिया था । सिखों की हार के दूसरे कारण डोगरा गुलाब सिंह, सुचेतसिंह और ध्यान सिंह थे जिन्होंने सिखों की तोपों में धोखे से बारूद की जगह सरसों का दलिया भरवा दिया था ।


सन् 1857 का संग्राम विफल हो जाने पर राजा सिंधिया ने क्रान्तिकारी नाना देशमुख को उनकी शरण में आने पर भी उनको अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया और वीर तांत्या टोपे को धोखे से गिरफ्तार करवा दिया। वैसे सन् 1857 के और भी कई बड़े कायर और गद्दार थे जिसमें सबसे पहले एक बंगाली ब्राह्मण था जिसने कारतूसों में लगने वाली भेड़ बकरी की चर्बी के सप्लाई आर्डर में अंग्रेजों को गाय तथा सूअर की चर्बी सप्लाई की जो अधिक सस्ती थी । इसी कारण जब यह बात फौजियों तक पहुंची तो कलकत्ता की बैरकपुर छावनी में तैनात एक सिपाही मंगल पाण्डे ने एक अंग्रेज अफसर को गोली से मार दिया और फांसी पर चढ़ गया । इसी गड़बड़ी के कारण समय से पहले 1857 की क्रान्ति भड़की और विफल रही । मंगल पाण्डे का सन् 1857 की क्रान्ति से कोई लेना-देना नहीं था। उसका मामला तो एक नितान्त धार्मिक मामला था जो उसने भांग के नशे में किया।


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1857 की खूब लड़ी मर्दानी कही जाने वाली रानी झांसी की रानी ने तो क्रान्तिकारियों को अपने गोला भण्डार से एक भी गोली देने से मना कर दिया था और उसने सन् 1857 में कभी भी तलवार नहीं उठाई । जब 1858 में अंग्रेजों ने उसके दत्तक पुत्र को मानने से मना कर दिया तो वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी और मारी गई । अंग्रेजों ने स्वयं लिखित रूप में माना है कि रानी झांसी का 1857 के गदर से कोई लेना-देना नहीं था । एक अन्य लेखिका श्रीमती जयश्री मिश्रा ने अपनी पुस्तक में रानी झांसी को झांसी रियासत के रेजिडेंट रोबर्ट ऐलिस की प्रेमिका लिखा है तो फिर वह कैसे अंग्रेजी सरकार की दुश्मन हो सकती थी ? 1857 के दो और बड़े गद्दार और कायर पं० गंगाधर कौल और जीवन लाल कायस्थ थे । पण्डित गंगाधर कौल पं० नेहरू के सगे दादा थे जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों के लिए दिल लगाकर मुखबरी की थी और इस संग्राम के विपफल होने पर इनको दिल्ली का कोतवाल लगाया गया था तथा 9 जनवरी 1858 को महाराजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ उनके सेनापति गुलाब सिंह सैनी, साथी भूरासिंह और खुशहाल सिंह को यही कौल महाशय चांदनी चौक में फांसी पर चढ़ाने के लिए श्रंगार कर लाए थे । कायस्थ जीवन लाल तथा उनके पुत्र 1857 के कायरों में से बड़े कायर थे जिन्होंने अंग्रेजों के लिए पूरे देश की मुखबरी का ठेका ले रखा था ।


23 मार्च 1931 को शहीद-ए-आजम भगतसिंह को फांसी के तख्ते पर ले जाने वाला पहला जिम्मेवार सोहनलाल वोहरा हिन्दू पंजाबी की गवाही थी । यही गवाह बाद में इंग्लैण्ड भाग गया और वहीं पर मरा । शहीदे आजम भगतसिंह को फांसी दिए जाने पर अहिंसा के महान पुजारी गांधी ने कहा था, ‘‘हमें ब्रिटेन के विनाश के बदले अपनी आजादी नहीं चाहिए ।’’ और आगे कहा, ‘‘भगतसिंह की पूजा से देश को बहुत हानि हुई और हो रही है । वहीं इसका परिणाम गुंडागर्दी का पतन है । फांसी शीघ्र दे दी जाए ताकि 30 मार्च से करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में कोई बाधा न आवे ।”


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अर्थात् गांधी जी की परिभाषा में किसी को फांसी देना हिंसा नहीं थी । इसी प्रकार एक ओर महान् क्रान्तिकारी जतिनदास को जो आगरा में अंग्रेजों ने शहीद किया तो गांधी जी आगरा में ही थे और जब गांधी जी को उनके पार्थिक शरीर पर माला चढ़ाने को कहा गया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया अर्थात् उस नौजवान द्वारा खुद को देश के लिए कुर्बान करने पर भी गांधी जी के दिल में किसी प्रकार की दया और सहानुभूति नहीं उपजी, ऐसे थे हमारे अहिंसावादी गांधी जी । जब सन् 1937 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेताजी सुभाष और गांधी द्वारा मनोनीत सीताभिरमैया के मध्य मुकाबला हुआ तो गांधी जी ने कहा यदि रमैया चुनाव हार गया तो वे राजनीति छोड़ देंगे लेकिन उन्होंने अपने मरने तक राजनीति नहीं छोड़ी जबकि रमैया चुनाव हार गए थे। इसी प्रकार गांधी जी ने कहा था, “पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा” लेकिन पाकिस्तान उनके समर्थन से ही बना । ऐसे थे हमारे सत्यवादी गांधी जी । इससे भी बढ़कर गांधी जी और कांग्रेस ने दूसरे विश्वयुद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया तो फिर क्या लड़ाई में हिंसा थी या लड्डू बंट रहे थे ? पाठक स्वयं बतलाएं ? गांधी जी ने अपने जीवन में तीन आन्दोलन (सत्याग्रहद्) चलाए और तीनों को ही बीच में वापिस ले लिया गया फिर भी लोग कहते हैं कि आजादी गांधी जी ने दिलवाई ।


इससे भी बढ़कर जब देश के महान सपूत उधमसिंह ने इंग्लैण्ड में माईकल डायर को मारा तो गांधी जी ने उन्हें पागल कहा इसलिए नीरद चौ० ने गांधी जी को दुनियां का सबसे बड़ा सफल पाखण्डी लिखा है । इस आजादी के बारे में इतिहासकार सी. आर. मजूमदार लिखते हैं – “भारत की आजादी का सेहरा गांधी जी के सिर बांधना सच्चाई से मजाक होगा । यह कहना उसने सत्याग्रह व चरखे से आजादी दिलाई बहुत बड़ी मूर्खता होगी । इसलिए गांधी को आजादी का ‘हीरो’ कहना उन सभी क्रान्तिकारियों का अपमान है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना खून बहाया ।” यदि चरखों


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की आजादी की रक्षा सम्भव होती है तो बार्डर पर टैंकों की जगह चरखे क्यों नहीं रखवा दिए जाते ?


लार्ड माऊंटबेटन कहते हैं कि जब सत्ता पं० नेहरू को देने का फैसला हुआ तो सायं भोजन के उपरान्त नेहरू ने ब्रिटिश साम्राज्य के लम्बे जीवन के नारे लगाए थे और 15 अगस्त का दिन इसलिए निश्चित हुआ कि इसी दिन दो साल पहले लार्ड माऊंटबेटन ने जापान और आई.एन.ए. के विरुद्ध विजय पाई थी । जब 15 अगस्त सन् 47 के बाद हिन्दू मुस्लिम में मारकाट शुरू हुई तो लार्ड माऊंटबेटन (भारत के प्रथम गवर्नर जनरल) के पास नेहरू पहुंचे और कहा - इस हालात में भारत का शासन संभालना उनके बस की बात नहीं वे खुद ही संभालें । ऐसे कायर थे हमारे प्रथम प्रधानमन्त्री । जब नेता जी सुभाष की मृत्यु पर पहला आयोग बैठाया और उसका अध्यक्ष हिन्दू पंजाबी जी. डी. खोसला ने अपनी रिपोर्ट में नेताजी को देश का ‘गद्दार’ और ‘जापानियों की कठपूतली’ लिखा । साथ-साथ नेहरू ने अंग्रेजों को लिखित रूप में आश्वासन दिया कि यदि नेताजी मिले तो वे उन्हें अंग्रेजों को सुपुर्द कर देंगे । अंग्रेजों ने तो सुभाष के मिलने पर उनको फांसी ही देनी थी कोई माला तो पहनानी नहीं थी । ऐसे थे हमारे अहिंसावादी नेता । सन् 1948 में ब्रिटेन के रक्षामन्त्री सर स्टैपफर्ड क्रिप्स ने बड़ा सच कहा था “हमने 200 साल तक अपने व्यापार की सुरक्षा में भारत में राज्य किया और इसके बाद जब व्यापार को खतरा हो गया तो उसी की सुरक्षा के लिए हम भारत की सत्ता अपने एजेंटों को दे आए ।“


इसी प्रकार उस समय जम्मू कश्मीर के राजा हरीसिंह भी एक बहुत बड़े कायर और गद्दार थे जिन्होंने पटेल के कहने के बावजूद अपनी रियासत का विलय भारत संघ में नहीं किया लेकिन जब 1948 में पाकिस्तान कबाईलियों ने काश्मीर पर आक्रमण किया और काश्मीर में ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह की कमान में उसकी पूरी फौज मारी गई तो वह दौड़कर दिल्ली में नेहरू और लार्ड माऊंटबेटन की


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शरण में आकर बोले कि जम्मू कश्मीर को वे ही संभालें । इस पर जब भारत की सेनाएं वहां भेजी गई और पाकिस्तान अधिकृत काश्मीर में प्रवेश कर रही थी तो नेहरू ने एकतरपफा युद्धविराम लागू कर दिया और यू.एन.ओ. में लिखकर दे दिया कि कश्मीर की जनता से पूछा जाए कि वे किस देश के साथ रहना चाहती है, यही उनकी कायरता और मूर्खता हमारा आज का सबसे बड़ा नासूर है। ऐसी ही कायरता उन्होंने चीन के साथ 1962 के युद्ध में दिखाई और इसी प्रकार उनका गोत्री भाई लैफ्रिटनेंट जनरल बी.एम. कौल नेफा में तैनात कोर कमाण्डर चीन की गोली की आवाज सुनते ही उनके दस्त लग गए और नेहरू के पास दिल्ली भाग आया । हमारे इस महान देश में जितने वीर हुए हैं उन्हीं की आड़ में एक से एक बढ़कर विश्वासघाती कायर लोग भी हुए हैं जिनके ऊपर कई पुस्तकें लिखी जा सकती हैं । इससे पहले भी शक्तिसिंह जयचंद और मीर जाफर जैसे महान् गद्दार हुए हैं जिसमें शक्तिसिंह अकबर की सेना के साथ मिलकर अपने ही भाई राणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी में लड़े तो उससे पहले पृथ्वीराज चौहान के मौसेरे भाई जयचंद स्वयं पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ लड़ने के लिए मोहम्मद गौरी को बुला लाए । नवाब सिराजुदौला को प्लासी की लड़ाई में हराने के लिए उसी के जमाई मीर जाफर ने स्वयं उसका सेनापति होते हुए भी सेठ अमीरचंद पंजाबी की बनाई गई योजना को कार्यान्वित किया और खुद अपने ससुर का सिर कलम कर दिया । इस प्रकार अहिंसावादियों ने अपना पर्दा डालकर पूरी कायरों की जमात को उसमें छिपा दिया।


चौ० छोटूराम ने कहा था - मैं अहिंसा में विश्वास नहीं रखता । मैं नेहरू और गांधी की परवाह करने वाला नहीं हूं । पंजाब केसरी (दिल्ली) दिनांक 19-2-08 के दिल्ली अंक में श्री राजेन्द्र शर्मा जी शिव विहार से लिखते हैं, (संक्षेप में) गांधी ने देशभक्तों का हमेशा विरोध और अपमान किया है । भगतसिंह जैसे वीरों को फांसी पर चढ़वाया । सुभाष जैसों को कांग्रेस पद से हटवाया आदि-आदि । नत्थूराम गोडसे ने उन्हें तीन गोली मारी, यदि तीन गोली ....


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क्या यह सच नहीं है ?

महात्मा गांधी ने कहा था “हमें ब्रिटेन के विनाश के बदले अपनी आजादी नहीं चाहिए ।” भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाये जाने पर कहा “भगतसिंह की पूजा से देश को बहुत हानि हुई और हो रही है, वहीं इसका परिणाम गुण्डागर्दी का पतन है । फांसी शीघ्र दे दी जाए ताकि 31 मार्च से करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में कोई बाधा न आये” ।


शहीद जतिनदास के पार्थिव शरीर पर आगरा में गांधी जी ने फूल चढ़ाने से मना कर दिया था । पण्डित नेहरू ने चन्द्रशेखर आजाद से वार्तालाप के समय क्रान्तिकारियों को फासिस्ट कहा था । याद रहे पं० नेहरू ने डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (राष्ट्रपति) को सरदार पटेल के दाह संस्कार में जाने से रोका था लेकिन वे नहीं माने और वहां गए । परन्तु पं० नेहरू उनके दाह संस्कार पर नहीं गए । यह थी पं० नेहरू की मानवता या दुष्टता । जबकि पटेल हमारे देश के गृहमन्त्री ही नहीं बल्कि उपप्रधानमन्त्री भी थे । (इण्डिया टुडे अप्रैल 2008) अर्थात् क्रांतिकारियों को फांसी देना गांधी जी की नजरों में हिंसा नहीं थी । सन् 1937 में नेता जी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लड़ रहे पट्टाभि सीतारमैया के लिए गांधी जी ने कहा - यदि वे हार जायेंगे तो वह राजनीति छोड़ देंगे । और वे हारे । क्या गांधी जी ने राजनीति छोड़ी ? दूसरे विश्वयुद्ध में गांधी जी ने अंग्रेजों का बिना किसी शर्त के साथ देने का वचन दिया तो क्या युद्ध में हिंसा हो रही थी या मिठाइयां बंट रही थीं ? क्या महात्मा जी वास्तव में अहिंसावादी तथा सत्यवादी थे ? क्या गांधी जी ने अपने असहयोग के हथियार का प्रयोग सन् 1937 में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में नहीं अपने कांग्रेस अध्यक्ष नेता जी के विरुद्ध किया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया ? शहीद उधमसिंह द्वारा माईकल उडवायर की हत्या करने पर गांधी जी ने इन्हें पागल कहा । नीरद चौधरी ने उचित लिखा है - मोहनदास कर्मचन्द गांधी दुनिया का सबसे बड़ा सफल पाखण्डी था । ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली ने कहा था


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“भारत के नेताओं के साथ समझौता हो चुका है कि जब कभी सुभाषचन्द्र गिरतार होंगे उन्हें ब्रिटेन को सौंपना होगा ।” (पंडित नेहरू द्वारा लिखे गये अंग्रेजी के मूलपत्र की नकल उपलब्ध है) । पंजाब केसरी-भारत के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश मनोज मुखर्जी ने बयान दिया कि ‘‘प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि आपका युद्ध अपराधी सुभाषचन्द्र बोस रूस में शरण लिए है आप उचित कार्रवाई करें । क्या यह भी सच नहीं है कि स्वामी ज्योर्तिदेव जो वास्तव में नेता जी सुभाष ही थे, की निर्मम हत्या श्रीमती गांधी ने मध्यप्रदेश के श्योपुर गाँव में दिनांक 21 मई 1977 को गुप्त तरीके से वहाँ के कांग्रेसियों के हाथों नहीं करवाई? (पाठकों को चौकने की आवश्यकता नहीं, ऐसी एक लिखित रिपोर्ट उपलब्ध है) गांधी जी की शिक्षा थी कि यदि कोई एक गाल पर मारे तो उसे दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए । तो क्या पाकिस्तान ने जब कारगिल पर आक्रमण किया तो हमें लेह क्षेत्र को पाकिस्तान के सामने कर देना चाहिए था ? क्या बम्बई हमले (26 नवम्बर 2008) के संदर्भ में हमें इसी नीति का पालन करना चाहिए ? ‘यदि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए।’ ऐसी नीति से न कभी कोई आजादी प्राप्त कर सकता है और न ही आजादी की रक्षा हो सकती है । यह हमने 1962 में चीन के साथ देख लिया था । आज हम बात तो गांधीगिरी की करते हैं लेकिन फिर क्यों सेना व अर्धसैनिक बलों पर देश का आधा बजट खर्च कर रहे हैं ? ऐसी दोगली बातें कोई दोगला व्यक्ति ही कर सकता है । गांधी जी को गांधी इसलिए कहा गया कि इनके पूर्वज इत्र का व्यापार करते थे । जिसे गुजरात में गंध कहा जाता है । इसी गंध से इनका उपनाम गांधी पड़ा । गांधी ने धोती-गाती में नंगा रहने की आदत बिहार के लोगों को देखकर सीखी थी।


गांधी ने पं० टैगोर को गुरुदेव की उपाधि दी तो बदले में टैगोर ने गांधी को महात्मा की उपाधि दे डाली और इसी प्रकार गांधी ने नेहरू को देश का प्रधानमन्त्री बनाया तो नेहरू ने गांधी को देश का बापू ही बना डाला अर्थात् बणिये ने ब्राह्मण को पूरी दक्षिणा प्रदान कर दी । श्री एल.


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आर. बाली उचित लिखते हैं, “खिलाफत आन्दोलन के गांधी के केवल दो ही उद्देश्य थे, पहला ब्राह्मण बनिया एकता, दूसरा कांग्रेस पर कब्जा।” और यह सत्य प्रमाणित हुआ । चौ० छोटूराम ऐसी तीव्र बुद्धि जाट थे जिसने गांधी के उद्देश्यों को तुरन्त भांप लिया और खिलाफल आन्दोलन के विरोध में सन् 1920 में कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया । पुस्तक ‘क्या गांधी महात्मा थे’ में उचित लिखा है कि गांधी को जीवित रखने में अंग्रेजों को अधिक फायदा था, इसलिए दिखावे के लिए उन्हें अंग्रेज जेल भेज देते थे और जेल में उन्हें दूध, फल, किताबें, समाचार पत्र, टाईपिस्ट व चिकित्सक, यहां तक कि शहद और सचिव तक उपलब्ध करवाया जाता था । जबकि आज देश के आजाद होने के इतने वर्षों बाद भी एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति को अपने घर में भी ये चीजें उपलब्ध नहीं हैं । गरीब और जेल की बात तो छोड़ो । सरोजिनी नायडू ने ठीक कहा था, “गांधी जी को गरीब बनाये रखने के लिए कांग्रेस को अधिक धन खर्च करना पड़ता था क्योंकि बिरला हाऊस के पास कालोनियों में नकली भंगी बनाकर रखने पड़ते थे तथा यात्रा के समय रेल के डिब्बों में भी उनके साथ बनावटी भंगी बैठाने पड़ते थे जो बहुत खर्चीला था ।” प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नल्ड ताईबी लिखते हैं - गांधी अपने देश से अधिक अंग्रेजों के लिए हितकर था । इतिहासकार आर.सी. मजूमदार अपने इतिहास “हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमैंट इन इण्डिया” में लिखते हैं - भारत की स्वतन्त्रता का सेहरा गांधी के सिर पर बांधना सच्चाई से मजाक होगा । यह कहना कि उसने सत्याग्रह व चरखे से आजादी प्राप्त की, मूर्खता होगी। गांधी कट्टर ब्राह्मणवादी सनातनी हिन्दू बनिया था । इस बारे में सोवियत इनसाईक्लापेडिया में लिखा है गांधी प्रतिक्रियावादी है जो बणिया जाति से सम्बन्ध रखता है । उसने जनता से विश्वासघात किया और साम्राज्यवादियों की मदद की । साधु-संन्यासियों की नकल की । उसने नेतागिरी के तौर पर भारत की आजादी और अंग्रेजों से शत्रुता का दिखावा किया । धार्मिक पक्षपातों को खूब इस्तेमाल किया । गांधी जी ब्राह्मण और हिन्दूवाद को मानवता का


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सुन्दर फूल मानते थे । इसलिए वे जात-पांत के पक्षधर थे । लेकिन उसी के कट्टर ब्राह्मणवाद व हिन्दुत्व (आर.एस.एस.) ने उसकी हत्या की और मिठाइयां बांटी । गांधी ने कांग्रेस पर कब्जा होने पर सच्चे और ईमानदार लोगों जैसे कि नेता जी सुभाष, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण आदि को कांग्रेस से बाहर कर दिया । 15 राज्यों में से 12 राज्यों की कांग्रेस कमेटियों के समर्थन के बावजूद गांधी ने पटेल को प्रधानमन्त्री पद से दूर रखा, वरना यही गांधी जी सुभाष को ‘अपना बेटा’, जयप्रकाश नारायण को ‘लेनिन’, डॉ० लोहिया को ‘बुद्धिमान राजनीतिज्ञ’ तथा पटेल को ‘अपना दायां हाथ’ कहा करते थे । विख्यात पत्रकार जे.एन. साहनी लिखते हैं - नेहरू ने 1952 के लोकसभा चुनाव में अपनी पसंद के उम्मीदवार चुने थे और उनको वफादार कुत्ते कहा करते थे ।


डॉ. लोहिया नेहरू के चरित्र का सटीक नक्शा पेश करते हैं -


नेहरू बहुरूपिया है । उसे रईसों और औरतों के बहकावे में आने की बुरी लत है । देखने में वे आकर्षक और उदार प्रतीत होते हैं । लेकिन अपने रिश्तेदारों, दोस्तों व अपने लोगों (ब्राह्मण) की स्वार्थसिद्धि के जितने तरीके उन्हें मालूम हैं, उतने इस देश में किसी को मालूम नहीं । वे अपने दुश्मन को बर्बाद करने के लिए किसी हद तक पीछा करते हैं । वह अपने लालच और अपनी कलह को दुर्बोध करने के लिए ऐसा जाल फैंकते हैं कि दूसरा उनको छू तक नहीं सकता ।


इस आदमी ने जाट कौम का इतना बड़ा नुकसान किया कि जाट समुदाय शायद ही कभी समझ पाए । हालांकि जाटों को मूर्ख बनाने के लिए उन्होंने कहा - दिल्ली और उसके चारों तरफ ऐसी बहादुर जाट कौम बसती है जो जब चाहे दिल्ली पर कब्जा कर सकती है । हम जाट खुश हो गए और उसने ऐसा कहकर दूसरों को चेता दिया तथा ऐसा बन्दोबस्त कर दिया कि दिल्ली पर जाटों का कभी दखल ही न हो पाए । जाट कौम कृपया विचार करे कि इसी नीति के तहत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों को सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के साथ बांध कर शोषण किया जा रहा है ताकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों का आधिपत्य


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बना रहे । इसलिए आज तक उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं होने दिया । बनारस के ब्राह्मणवाद की दादागिरी देखिए कि एक बार नेता जी सुभाष को वहां के एक कुएं से नीचे उतार दिया गया और ऊपर से खाना और पानी दिया । (इसी प्रकार एक बार भगवान देव आचार्य उर्फ स्वामी ओमानन्द को जाट होने के कारण बनारस में एक मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था) लेकिन गांधी ने इन बातों पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की । इसी प्रकार स्वामी दयानन्द भी उस समय के महान् समाज सुधारक होते हुए भी गांधी जी ने उनकी प्रशंसा में कभी भी एक शब्द तक नहीं कहा । स्वयं गांधी के पौत्र राजमोहन ने कहा - देश का विभाजन ब्राह्मण प्रधानता के कारण हुआ । यदि गांधी ब्राह्मण होते तो उनकी हत्या कभी नहीं होती । नहेरू के चरित्र के बारे में अधिक जानना है तो इन्हीं के निजी सचिव रहे श्री ओ. एम. मथैई की पुस्तक को पढ़ना चाहिए जिसमें उनका पूरा भण्डा फोड़ किया है । इसी प्रकार गांधी जी के बारे में जानने के लिए उन्हीं के निजी सचिव रहे श्री निर्मल कुमार बोस की पुस्तक माई डेज विद गांधी तथा विद्वान् वेद महता की पुस्तक महात्मा गांधी और उसके भगत पढ़ना अनिवार्य है । संक्षेप में इतना ही लिखना काफी होगा कि ये लोग (ब्राह्मण बनिये) एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे जो राष्ट्रवादी कम और जातिवादी अधिक थे । इसलिए लंडन के शीर्ष अखबार ‘ट्रुथ’ ने लिखा था - गांधी पूंजीपतियों, राजा-महाराजाओं के संत हैं लेकिन पवित्र आत्मा होने का ढोंग करते हैं । यह सच है क्योंकि बिड़ला, बजाज तथा सिंघानिया आदि सभी पूंजीपति उनके मित्र थे जिन्हें वे बड़ी चतुराई से ट्रस्टी कहते थे । बोस ने नेहरू के बारे में कहा - नहेरू अवसरवादी है, वह दूसरों का बाद में सोचते हैं, पहले अपना हित निश्चित करते हैं । गांधी ने नहेरू के बारे में कहा कहा था - नेहरू मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है । कौन किसकी कमजोरी थी, पाठक विचार करें ।


क्या यह सच नहीं है कि थलसेना के पूर्व अध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने अपनी पुस्तक From Surprise to


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Victory में कारगिल युद्ध का दोष पं० वाजपेयी में ढूंढा है और दिनांक 28-3-07 को गृह मंत्रालय के उपसचिव एस.के. मल्होत्रा जी कह रहे हैं कि मंत्रालय के पास नेता जी सुभाष का देश की आजादी के संघर्ष से सम्बन्धित कोई रिकार्ड नहीं ? लगता है सरकार ने ऐसा काफी रिकार्ड/फाइलें जला दी हैं ? मेरा जाटों व सभी किसानों से अनुरोध है कि वे दिल्ली में अपनी जमीन का रिकार्ड संभालकर रखें चाहे वह जमीन अब उन्हीं के अधिकार में न रही हो, क्योंकि ये लोग इस रिकार्ड को समाप्त कर देंगे और एक दिन कहेंगे कि यह जमीन इन जाटों व किसानों की नहीं थी । इस बात का अर्थ समझें, क्योंकि यह सभी जगह जो सरकार व कम्पनियों आदि ने खरीद ली है एक न एक दिन हमारी लीज पर होनी हैं । जैसे कि दिल्ली में इण्डिया गेट । हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी तथा पं० नेहरू जी के प्रति हमारे देशवासियों में कितनी लोकप्रियता है और हम कितने भारतवासी उनको हृदय से चाहते हैं ? इस लोकप्रियता को जानने के लिए देश की प्रसिद्ध मासिक अंग्रेजी पत्रिका इण्डिया टुडे ने देश में एक सर्वे करवाया जिसके नतीजे अप्रैल 2008 के अंक में छपे हैं, जो इस प्रकार हैं ।


(किसको कितने प्रतिशत वोट मिले)


1. शहीद भगत सिंह - 37 प्रतिशत
2. नेता जी सुभाष चन्द्र बोस - 27 प्रतिशत
3. महात्मा गांधी - 13 प्रतिशत
4. सरदार पटेल - 8 प्रतिशत
5. पण्डित नेहरू - 2 प्रतिशत


इसलिए आज आवश्यक हो गया है कि गांधी जी की जगह भगतसिंह को राष्ट्रपिता घोषित किया जाए और नोटों पर गांधी की जगह भगतसिंह के फोटो छपें । जब प्रजातन्त्र में पांच साल बाद राष्ट्रपति बदला जा सकता है तो 50 साल बाद राष्ट्रपिता क्यों नहीं ? पुस्तक - देशनायक, लेखक - ब्रह्मप्रकाश, भारतीय इतिहास - एक अध्ययन, हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ काश्मीर, हिस्ट्री ऑफ सिक्ख- हिन्दुईज्म, पंचायती इतिहास, लोहपुरुष सरदार पटेल, क्या गांधी महात्मा थे ? आदि-आदि)


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गर्व से कहो हम जाट हैं, मगर क्यों ?

स्वयं को महान् कहने से कोई महान् नहीं बनता । महान् किसी भी व्यक्ति व कौम को उसके महान् कारनामे बनाते हैं और उन कारनामों को दूसरे लोगों को देर-सवेर स्वीकार करना ही पड़ता है। देव-संहिता को लिखने वाला कोई जाट नहीं था, बल्कि एक ब्राह्मणवादी था जिसके हृदय में इन्सानियत थी उसने इस सच्चाई को अपने हृदय की गहराई से शंकर और पार्वती के संवाद के रूप में बयान किया कि जब पार्वती ने शंकर जी से पूछा कि ये जाट कौन हैं, तो शंकर जी ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया -

महाबला महावीर्या महासत्यपराक्रमाः |

सर्वांगे क्षत्रिया जट्टा देवकल्पा दृढ़व्रताः ||15||

(देव संहिता)


अर्थात् - जाट महाबली, अत्यन्त वीर्यवान् और प्रचण्ड पराक्रमी हैं । सभी क्षत्रियों में यही जाति सबसे पहले पृथ्वी पर शासक हुई । ये देवताओं की भांति दृढ़ निश्चयवाले हैं । इसके अतिरिक्त विदेशी व स्वदेशी विद्वानों व महान् कहलाए जाने वाले महापुरुषों की जाट कौम के प्रति समय-समय पर दी गई अपनी राय और टिप्पणियां हैं जिन्हें कई पुस्तकों से संग्रह किया गया है लेकिन अधिकतर टिप्पणियां अंग्रेजी की पुस्तक हिस्ट्री एण्ड स्टडी ऑफ दी जाट्स से ली गई है जो कनाडावासी प्रो० बी.एस. ढ़िल्लों ने विदेशी पुस्तकालयों की सहायता लेकर लिखी है -


  • 1. इतिहासकार मिस्टर स्मिथ - राजा जयपाल एक महान् जाट राजा थे । इन्हीं का बेटा आनन्दपाल हुआ जिनके बेटे सुखपाल राजा हुए जिन्होंने मुस्लिम धर्म अपनाया और ‘नवासशाह’ कहलाये । (यही शाह मुस्लिम जाटों में एक पदवी प्रचलित हुई । भटिण्डाअफगानिस्तान का शाह राज घराना इन्हीं के वंशज हैं - लेखक) ।


  • 2. बंगला विश्वकोष - पूर्व सिंध देश में जाट गणेर प्रभुत्व

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थी । अर्थात् सिंध देश में जाटों का राज था ।


  • 3. अरबी ग्रंथ सलासीलातुत तवारिख - भारत के नरेशों में जाट बल्हारा नरेश सर्वोच्च था । इसी सम्राट् से जाटों में बल्हारा गोत्र प्रचलित हुआ - लेखक ।


  • 4. स्कैंडनेविया की धार्मिक पुस्तक एड्डा - यहां के आदि निवासी जाट (जिट्स) पहले आर्य कहे जाते थे जो असीगढ़ के निवासी थे ।


  • 5. यात्री अल बेरूनी - इतिहासकार - मथुरा में वासुदेव से कंस की बहन से कृष्ण का जन्म हुआ । यह परिवार जाट था और गाय पालने का कार्य करता था ।


  • 6. लेखक राजा लक्ष्मणसिंह - यह प्रमाणित सत्य है कि भरतपुर के जाट कृष्ण के वंशज हैं ।


इतिहास के संक्षिप्त अध्ययन से मेरा मानना है कि कालान्तर में यादव अपने को जाट कहलाये जिनमें एकजुट होकर लड़ने और काम करने की प्रवृत्ति थी और अहीर जाति का एक बड़ा भाग अपने को यादव कहने लगा । आज भी भारत में बहुत अहीर हैं जो अपने को यादव नहीं मानते और गवालावंशी मानते हैं ।


  • 7. मिस्टर नैसफिल्ड - The Word Jat is nothing more than modern Hindi Pronunciation of Yadu or Jadu the tribe in which Krishna was born. अर्थात् जाट कुछ और नहीं है बल्कि आधुनिक हिन्दी यादू-जादु शब्द का उच्चारण है, जिस कबीले में श्रीकृष्ण पैदा हुए।


दूसरा बड़ा प्रमाण है कि कृष्ण जी के गांव नन्दगांव व वृन्दावन आज भी जाटों के गांव हैं । ये सबसे बड़ा भौगोलिक और सामाजिक प्रमाण है । (इस सच्चाई को लेखक ने स्वयं वहां जाकर ज्ञात किया ।)


  • 8. इतिहासकार डॉ० रणजीतसिंह - जाट तो उन योद्धाओं के

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वंशज हैं जो एक हाथ में रोटी और दूसरे हाथ में शत्रु का खून से सना हुआ मुण्ड थामते रहे ।


  • 9. इतिहासकार डॉ० धर्मचन्द्र विद्यालंकार - आज जाटों का दुर्भाग्य है कि सारे संसार की संस्कृति को झकझोर कर देने वाले जाट आज अपनी ही संस्कृति को भूल रहे हैं ।


  • 10. इतिहासकार डॉ० गिरीशचन्द्र द्विवेदी - मेरा निष्कर्ष है कि जाट संभवतः प्राचीन सिंध तथा पंजाब के वैदिक वंशज प्रसिद्ध लोकतान्त्रिक लोगों की संतान हैं । ये लोग महाभारत के युद्ध में भी विख्यात थे और आज भी हैं ।


  • 11. स्वामी दयानन्द महाराज आर्यसमाज के संस्थापक ने जाट को जाट देवता कहकर अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में सम्बोधन किया है । देवता का अर्थ है देनेवाला । उन्होंने कहा कि संसार में जाट जैसे पुरुष हों तो ठग रोने लग जाएं ।


  • 12. प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ तथा हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस के संस्थापक महामहिम मदन मोहन मालवीय ने कहा - जाट जाति हमारे राष्ट्र की रीढ़ है । भारत माता को इस वीरजाति से बड़ी आशाएँ हैं । भारत का भविष्य जाट जाति पर निर्भर है ।


  • 13. दीनबन्धु सर छोटूराम ने कहा - हे ईश्वर, जब भी कभी मुझे दोबारा से इंसान जाति में जन्म दे तो मुझे इसी महान् जाट जाति के जाट के घर जन्म देना ।


  • 14. मुस्लिमों के पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने कहा - ये बहादुर जाट हवा का रुख देख लड़ाई का रुख पलट देते हैं । (सलमान सेनापतियों ने भी इनकी खूब प्रतिष्ठा की इसका वर्णन मुसलमानों की धर्मपुस्तक हदीस में भी है - लेखक) ।


  • 15. हिटलर (जो स्वयं एक जाट थे), ने कहा - मेरे शरीर में शुद्ध आर्य नस्ल का खून बहता है । (ये वही जाट थे जो वैदिक संस्कृति के स्वस्तिक चिन्ह (卐) को जर्मनी ले गये थे - लेखक)।

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(i): उत्तरी भारत में आज जो जाट किसान खेती करते पाये जाते हैं ये उन्हीं जाटों के वंशज हैं जिन्होंने एक समय मध्य एशिया और यूरोप को हिलाकर रख दिया था ।

(ii): राजस्थान में राजपूतों का राज आने से पहले जाटों का राज था ।

(iii): युद्ध के मैदान में जाटों को अंग्रेज पराजित नहीं कर सके ।

(iv): ईसा से 500 वर्ष पूर्व जाटों के नेता ओडिन ने स्कैण्डेनेविया में प्रवेश किया।

(v): एक समय राजपूत जाटों को खिराज (टैक्स) देते थे ।


(i) There was no nation in the world equal to the jats in bravery provided they had unity अर्थात्- संसार में जाटों जैसा बहादुर कोई नहीं बशर्ते इनमें एकता हो । (यह इस प्रसिद्ध यूनानी इतिहासकार ने लगभग 2500 वर्ष पूर्व में कहा था । इन दो लाइनों में बहुत कुछ है । पाठक कृपया इसे फिर एक बार पढें । यह जाटों के लिए मूलमंत्र भी है – लेखक )

(ii) जाट बहादुर रानी तोमरिश ने प्रशिया के महान राजा सायरस को धूल चटाई थी ।

(iii) जाटों ने कभी निहत्थों पर वार नहीं किया ।


  • 18. महान् सम्राट् सिकन्दर जब जाटों के बार-बार आक्रमणों से तंग आकर वापिस लौटने लगे तो कहा- इन खतरनाक जाटों से बचो ।


  • 19. एक पम्पोनियस नाम के प्राचीन इतिहासकार ने कहा - जाट युद्ध तथा शत्रु की हत्या से प्यार करते हैं ।


  • 20. हमलावर तैमूरलंग ने कहा - जाट एक बहुत ही ताकतवर जाति है, शत्रु पर टिड्डियों की तरह टूट पड़ती है, इन्होंने मुसलमानों के



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हृदय में भय उत्पन्न कर दिया।


  • 21. हमलावर अहमदशाह अब्दाली ने कहा - जितनी बार मैंने भारत पर आक्रमण किया, पंजाब में खतरनाक जाटों ने मेरा मुकाबला किया । आगरा, मथुराभरतपुर के जाट तो नुकीले काटों की तरह हैं ।


  • 22. एक प्रसिद्ध अंग्रेज मि. नेशफील्ड ने कहा - जाट एक बुद्धिमान् और ईमानदार जाति है ।


  • 23. इतिहासकार सी.वी. वैद ने लिखा है - जाट जाति ने अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति को अभी तक कायम रखा है । (जाटों को इस प्रवृत्ति को छोड़ना भी नहीं चाहिए, यही भविष्य में बुरे वक्त में काम भी आयेगी - लेखक)


  • 24. भारतीय इतिहासकार शिवदास गुप्ता - जाटों ने तिब्बत,यूनान, अरब, ईरान, तुर्कीस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनोविया, इंग्लैंड, ग्रीक, रोममिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज किया । और वहाँ की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था । (प्राचीन भारत के उपनिवेश पत्रिका अंक 4.5 1976)


  • 25. महर्षि पाणिनि के धातुपाठ (अष्टाध्यायी) में - जट झट संघाते - अर्थात् जाट जल्दी से संघ बनाते हैं । (प्राचीनकाल में खेती व लड़ाई का कार्य अकेले व्यक्ति का कार्य नहीं था इसलिए यह जाटों का एक स्वाभाविक गुण बन गया - लेखक)


  • 26. चान्द्र व्याकरण में - अजयज्जट्टो हूणान् अर्थात् जाटों ने हूणों पर विजय पाई ।


  • 27. महर्षि यास्क - निरुक्त में - जागर्ति इति जाट्यम् - जो जागरूक होते हैं वे जाट कहलाते हैं ।

जटायते इति जाट्यम् - जो जटांए रखते हैं वे जाट कहलाते हैं ।


  • 28. अंग्रेजी पुस्तक Rise of Islam - गणित में शून्य का प्रयोग जाट ही अरब से यूरोप लाये थे । यूरोप के स्पेन तथा इटली की



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संस्कृति मोर जाटों की देन थी ।

  • 29. अंग्रेजी पुस्तक Rise of Christianity - यूरोप के चर्च नियमों में जितने भी सुधार हुए वे सभी मोर जाटों के कथोलिक धर्म अपनाये जाने के बाद हुए, जैसे कि पहले विधवा को पुनः विवाह करने की अनुमति नहीं थी आदि-आदि । मोर जाटों को आज यूरोप में ‘मूर बोला जाता है – लेखक ।
  • 30. दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार पर जर्मन जनरल रोमेल ने कहा- काश, जाट सेना मेरे साथ होती । (वैसे जाट उनके साथ भी थे, लेकिन सहयोगी देशों की सेना की तुलना में बहुत कम थे

- लेखक)


  • 31. सुप्रसिद्ध अंग्रेज योद्धा जनरल एफ.एस. यांग - जाट सच्चे क्षत्रिय हैं । ये बहादुरी के साथ-साथ सच्चे, ईमानदार और बात के धनी हैं ।



  • 33. महाराजा उदयभानुसिंह धोलपुर नरेश ने सन् 1930 में कहा- मुझे पूरा अभिमान है कि मेरा जन्म उस महान् जाट जाति में हुआ जो सदा बहादुर, उन्नत एवं उदार विचारों वाली है । मैं अपनी प्यारी जाति की जितनी भी सेवा करूँगा उतना ही मुझे सच्चा आनन्द आयेगा ।
  • 34. डॉ. विटरेशन ने कहा - जाटों में चालाकी और धूर्तता,योग्यता की अपेक्षा बहुत कम होती है ।


  • 35. मेजर जनरल सर जॉन स्टॉन (मणिपुर रजिडेंट) ने अपने एक जाट रक्षक के बारे में कहा था - ये जाट लोग पता नहीं किस मिट्टी से बने हैं, थकना तो जानते ही नहीं ।


  • 36. अंग्रेज हर प्रकार की कोशिशों के बावजूद चार महीने लड़ाई लड़कर भी भरतपुर को विजय नहीं कर पाये तो



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लार्ड लेकेक ने लिखा है - हमारी स्थिति यह है कि मार करने वाली सभी तोपें बेकार हो गई हैं और भारी गोलियाँ पूर्णतः समाप्त हो गई हैं । हमारे एक तिहाई अधिकारी व सैनिक मारे जा चुके हैं । जाटों को जीतना असम्भव लगता है ।

उस समय वहाँ की जनता में यह दोहा गाया जाता था-

यही भरतपुर दुर्ग है, दूसह दीह भयंकार |

जहाँ जटन के छोकरे, दीह सुभट पछार ||


  • 37. बूंदी रियासत के महाकवि ने महाराजा सूरजमल के बारे में एक बार यह दोहा गाया था -

सहयो भले ही जटनी जाय अरिष्ट अरिष्ट |

जापर तस रविमल्ल हुवे आमेरन को इष्ट ||

अर्थात् जाटनी की प्रसव पीड़ा बेकार नहीं गई, उसने ऐसे प्रतापी राजा तक को जन्म दिया जिसने आमेर व जयपुर वालों की भी रक्षा की (यह बात महाराजा सूरजमल के बारे में कही गई थी जब उन्होंने आमेर व जयपुर राजपूत राजाओं की रक्षा की) ।


  • 38. इतिहासकार डॉ० जे. एन. सरकार ने सूरजमल के बारे में लिखा है - यह जाटवंश का अफलातून राजा था ।


  • 39. इतिहासकार डी.सी. वर्मा:- महाराजा सूरजमल जाटों के प्लेटो थे।


  • 40. बादशाह आलमगीर द्वितीय ने महाराजा सूरजमल के बारे में अब्दाली को लिखा था - जाट जाति जो भारत में रहती है, वह और उसका राजा इतना शक्तिशाली हो गया है कि उसकी खुली खुलती है और बंधी बंधती है ।


  • 41. कर्नल अल्कोट - हमें यह कहने का अधिकार है कि 4000 ईसा पूर्व भारत से आने वाले जाटों ने ही मिश्र (इजिप्ट) का निर्माण किया ।


  • 42. यूरोपीयन इतिहासकार मि० टसीटस ने लिखा है - जर्मन



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लोगों को प्रातः उठकर स्नान करने की आदत जाटों ने डाली । घोड़ों की पूजा भी जाटों ने स्थानीय जर्मन लोगों को सिखलाई । घोड़ों की सवारी जाटों की मनपसंद सवारी है ।


  • 43. तैमूर लंग - घोड़े के बगैर जाट, बगैर शक्ति का हो जाता है । (हमें याद है आज से लगभग 50 वर्ष पहले तक हर गाँव में अनेक घोडे, घोड़ियाँ जाटों के घरों में होती थीं । अब भी पंजाब व हरयाणा में जाटों के अपने घोड़े पालने के फार्म हैं - लेखक)


  • 44. भारतीय सेना के ले० जनरल के. पी. कैण्डेय ने सन् 1971 के युद्ध के बाद कहा था - अगर जाट न होते तो फाजिल्का का भारत के मानचित्र में नामोनिशान न रहता ।


  • 45. इसी लड़ाई (सन् 1971) के बाद एक पाकिस्तानी मेजर जनरल ने कहा था - चौथी जाट बटालियन का आक्रमण भयंकर था जिसे रोकना उसकी सेना के बस की बात नहीं रही । (पूर्व कप्तान हवासिंह डागर गांव कमोद जिला भिवानी (हरयाणा) जो 4 बटालियन की इस लड़ाई में थे, ने बतलाया कि लड़ाई से पहले बटालियन कमाण्डर ने भरतपुर के जाटों का इतिहास दोहराया था जिसमें जाट मुगलों का सिहांसन और लाल किले के किवाड़ तक उखाड़ ले गये थे । पाकिस्तानी अफसर मेजर जनरल मुकीम खान पाकिस्तानी दसवें डिवीजन के कमांडर थे ।)


  • 46. भूतपूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन ने जाट सेण्टर बरेली में भाषण दिया - जाटों का इतिहास भारत का इतिहास है और जाट रेजिमेंट का इतिहास भारतीय सेना का इतिहास है । पश्चिम में फ्रांस से पूर्व में चीन तक ‘जाट बलवान्-जय भगवान्’ का रणघोष गूंजता रहा है ।


  • 47. विख्यात पत्रकार खुशवन्तसिंह ने लिखा है - (i) "The Jat was born worker and warrior. He tilled his land with his sword girded round his waist. He fought more battles for the



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defence for his homestead than other Khashtriyas" अर्थात् जाट जन्म से ही कर्मयोगी तथा लड़ाकू रहा है जो हल चलाते समय अपनी कमर से तलवार बांध कर रखता था। किसी भी अन्य क्षत्रिय से उसने मातृभूमि की ज्यादा रक्षा की है । (ii) पंचायती संस्था जाटों की देन है और हर जाटों का गांव एक छोटा गणतन्त्र है ।


  • 48. जब 25 दिसम्बर 1763 को जाट प्रतापी राजा सूरजमल शाहदरा में धोखे से मारे गये तो मुगलों को विश्वास ही नहीं हुआ और बादशाह शाहआलम द्वितीय ने कहा - जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो जाये । (यह बात विद्वान् कुर्क ने भी कही थी ।)


  • 49. टी.वी History Channel ने एक दिन द्वितीय विश्वयुद्ध के इतिहास को दोहराते हुए दिखलाया था कि जब सन् 1943 में फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा था तो जुलाई 1943 में सहयोगी सेनाओं ने फ्रांस में जर्मन सेना पर जबरदस्त हमला बोल दिया तो जर्मन सेना के पैर उखड़ने लगे । एक जर्मन एरिया कमांडर ने अपने सैट से अपने बड़े अधिकारी को यह संदेश भेजा कि ज्यादा से ज्यादा गुट्ठा सैनिकों की टुकड़ियाँ भेजो । जब उसे यह मदद नहीं मिली तो वह अपनी गिरफ्तारी के डर में स्वास्तिक निशानवाले झण्डे को सेल्यूट करके स्वयं को गोली मार लेता है । याद रहे जर्मनी में जाटों को गुट्टा के उच्चारण से ही बोला जाता है । - (लेखक)


  • 50. एक बार अलाउद्दीन ने देहली के कोतवाल से कहा था - इन जाटों को नहीं छेड़ना चाहिए । ये बहादुर लोग ततैये के छत्ते की तरह हैं, एक बार छिड़ने पर पीछा नहीं छोड़ते हैं ।


  • 51. इतिहासकार मो० इलियट ने लिखा है - जाट वीर जाति सदैव से एकतंत्री शासन सत्ता की विरोधी रही है तथा ये प्रजातंत्री हैं ।


  • 52. संत कवि गरीबदास - जाट सोई पांचों झटकै, खासी मन ज्यों निशदिन अटकै । (जो पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, बुरे संकल्पों से दूर



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रहकर भक्ति करे, वास्तव में जाट है ।


  • 53. महान् इतिहासकार कालिकारंजन कानूनगो -
(क) एक जाट वही करता है जो वह ठीक समझता है । (इसी कारण जाट अधिकारियों को अपने उच्च अधिकारियों से अनबन का सामना करना पड़ता है - लेखक)
(ख) जाट एक ऐसी जाति है जो इतनी अधिक व्यापक और संख्या की दृष्टि से इतनी अधिक है कि उसे एक राष्ट्र की संज्ञा प्रदान की जा सकती है ।
(ग) ऐतिहासिक काल से जाट बिरादरी हिन्दू समाज के अत्याचारों से भागकर निकलने वाले लोगों को शरण देती आई, उसने दलितों और अछूतों को ऊपर उठाया है । उनको समाज में सम्मानित स्थान प्रदान कराया है। (लेकिन ब्राह्मणवाद तो यह प्रचार करता रहा कि शूद्र वर्ग का शोषण जाटों ने किया - लेखक)
(घ) हिन्दुओं की तीनों बड़ी जातियों में जाट कौम वर्तमान में सबसे बेहतर पुराने आर्य हैं।


  • 54. महान् इतिहासकार ठाकुर देशराज - जाटों को मुगलों ने परखा, पठानों ने इनकी चासनी ली, अंग्रेजों ने पैंतरे देखे और इन्होंने फ्रांस एवं जर्मनी की भूमि पर बाहदुरी दिखाकर सिद्ध किया कि जाट महान् क्षत्रिय हैं ।


  • 55. पं० इन्द्र विद्यावाचस्पति- जाटों को प्रेम से वश में करना जैसा सरल है, आँख दिखाकर दबाना उतना ही कठिन है ।


  • 56. कवि शिवकुमार प्रेमी -

जाट जाट को मारता यही है भारी खोट ||

ये सारे मिल जायें तो अजेय इनका कोट ||

(कोट का अर्थ किला)

इसीलिए तो कहा जाता है - जाटड़ा और काटड़ा अपने को मारता है । (लेखक)



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  • 57. विद्वान् विलियम क्रूक -

(i) जाट विभिन्न धार्मिक संगठनों व मतों के अनुयायी होने पर भी जातीय अभिमान से ओतप्रोत हैं । भूमि के सफल जोता, क्रान्तिकारी, मेहनती जमीदार तथा युद्ध योद्धा हैं ।

(इसीलिए तो जाटों या जट्टों के लड़के अपनी गाड़ियों के पीछे लिखवाते हैं - ‘जट्ट दी गड्डी’, ‘जाट की सवारी’ ‘जहाँ जाट वहाँ ठाठ’, ‘जाट के ठाठ’ तथा ‘Jat Boy’ आदि-आदि - लेखक ।


(ii) स्पेन, गाल, जटलैण्ड, स्काटलैण्ड और रोम पर जाटों ने फतेह कर बस्तियां बसाई ।


  • 58. विद्वान् ए.एच. बिगले - जाट शब्द की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । यह ऋग्वेद, पुराण और मनुस्मृति आदि अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों से स्वतः सिद्ध है । यह तो वह वृक्ष है जिससे समय-समय पर जातियों की उत्पनि हुई ।


  • 59. विद्वान् कनिंघम - प्रायः देखा गया है कि जाट के मुकाबले राजपूत विलासप्रिय, भूस्वामी गुजर और मीणा सुस्त अथवा गरीब, कास्तकार तथा पशुपालन के स्वाभाविक शोकीन, पशु चराने में सिद्धहस्त हैं, जबकि जाट मेहनती जमीदार तथा पशुपालक हैं ।


  • 60. विख्यात इतिहासकार यदुनाथ सरकार - जाट समाज में जाटनियां परिश्रम करना अपना राष्ट्रीय धर्म समझती हैं, इसलिए वे सदैव जाटों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य करती हैं । वे आलसी जीवन के प्रति मोह नहीं रखती ।


  • 61. प्राचीन इतिहासकार मनूची - जाटनियां राजनैतिक रंगमंच पर समान रूप से उत्तरदायित्व निभाती हैं । खेत में व रणक्षेत्र में अपने पति का साथ देती हैं और आपातकाल के समय अपने धर्म की रक्षा में प्रोणोर्त्सग (प्राणत्याग) करना अपना पवित्र धर्म समझती हैं ।


  • 62. जैक्मो फ्रांसी इतिहासकार व यात्री लिखता हैमहाराजा रणजीतसिंह पहला भारतीय है जो जिज्ञासावृत्ति में सम्पूर्ण राजाओं से



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बढ़ाचढ़ा है । वह इतना बड़ा जिज्ञासु कहा जाना चाहिए कि मानो अपनी सम्पूर्ण जाति की उदासीनता को वह पूरा करता है । वह असीम साहसी शूरवीर है । उसकी बातचीत से सदा भय सा लगता है। उन्होंने अपनी किसी विजययात्रा में कहीं भी निर्दयता का व्यवहार नहीं किया ।


  • 63. यूरोपीय यात्री प्रिन्सेप - एक अकले आदमी द्वारा इतना विशाल राज्य इतने कम अत्याचारों से कभी स्थापित नहीं किया गया । अद्भुत वीरता, धीरता, शूरता में समकालीन सभी भारतीय नरेशों के शिरमौर थे । दूसरे शब्दों में पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह भारत का नैपोलियन था।


  • 64. महान् इतिहासकार उपेन्द्रनाथ शर्मा - जाट जाति करोड़ों की संख्या में प्रगितिशील उत्पादक और राष्ट्ररक्षक सैनिक के रूप में विशाल भूखण्ड पर बसी हुई है। इनकी उत्पदाक भूमि स्वयं एक विशाल राष्ट्र का प्रतीक है ।


  • 65. विद्वान् सर डारलिंग - ‘‘सारे भारत में जाटों से अच्छी ऐसी कोई जाति नहीं है जिसके सदस्य एक साथ कर्मठ किसान और जीवंत जवान हों।’’


  • 66. महान् इतिहासकार सर हर्बट रिसले - जाट और राजपूत ही वैदिक आर्यों के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं ।


  • 67. फील्ड मार्शल माउंट गुमरी - “Jat is true soldier. I will be happy to die with dignity amongst Jats Regt. My soul will be bless with peace.” अर्थात् ‘‘जाट एक सच्चा सैनिक है । मुझे खुशी होगी यदि मैं जाटों के बीच रहकर इज्जत से मर जांऊ ताकि मेरी आत्मा को शान्ति मिल सके ।”


  • 68. अंग्रेज प्रमुख जनरल ओचिनलैक (बाद में फील्ड मार्शल) - ‘‘If things looked back and danger threatened I would ask nothing better than to have Jats beside me in the face of the enemy” अर्थात “हालात बिगड़ते हैं और खतरा आता है तो जाटों को साथ रखने से



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बेहतर और कुछ नहीं होगा ताकि मैं दुश्मन से लड़ सकूं ।”


  • 69. क्रान्तिदर्शी राजा महेन्द्रप्रताप - “हमारी जाति बहादुर है । देश के लिए समर्पित कौम है । चाहे खेत हो या सीमा । धरतीपुत्र जाटों पर मुझे नाज़ है ।”


  • 70. पं. जवाहरलाल नेहरू - ‘‘दिल्ली के आसपास चारों ओर जाट एक ऐसी महान् बहादुर कौम बसती है, वह यदि आपस में मिल जाये और चाहे तो दिल्ली पर कब्जा कर सकती है ।”

(यह पंडित नेहरू ने सन् 1947 से पहले कहा था, लेकिन पंडित जी देश आजाद होने के बाद जाटों को भूल गये और उन्होंने अपने जीते जी कभी किसी हिन्दू जाट को केन्द्रीय सरकार में किसी भी मंत्री पद पर फटकने नहीं दिया - लेखक)


  • 71. स्वामी ओमानन्द सरस्वती तथा वेदव्रत्त शास्त्री - (देशभक्तों के बलिदान ग्रंथ में) - ‘‘ईरान से लेकर इलाहाबाद तक जाटों के वीरत्व व बलिदानों का इतिहास चप्पे-चप्पे पर बिखरा पड़ा है । क्या कभी कोई माई का लाल इनका संग्रह कर पाएगा ? काश ! जाट तलवार की तरह कलम का भी धनी होता।”


  • 72. डॉ० बी.एस. दहिया ने अपनी पुस्तक Jats- The Ancient Rulers अर्थात्- ‘‘जाट प्राचीन शासक हैं’’ में लिखा है -‘‘There is no battle worth its name in The World History where the Jat Blood did not irrigate The Mother Earth’’ अर्थात्- ‘‘विश्व में ऐसी कोई भी लड़ाई नहीं हुई, जिसमें जाटों ने अपनी मातृभूमि के लिए खून न बहाया हो ।”

(काश ! यह देश और इस देश के इतिहासकार इसे समझ पाते- लेखक)


  • 73. विद्वान् इतिहासकार डॉ० धर्मकीर्ति -

(i) आगरा के ताजमहल और लाल किले को लूट ले जाना, सिकन्दरा में अकबर की कब्र के भवन और एत्माद्दौला की कब्र के ऐतिहासिक भवन में भूसा भरकर आग लगा देना, जिसके परिणामस्वरूप इन भवनों के काले पड़े हुए पत्थर आज भी (बौद्ध) जाटों के शौर्य की



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वीरगाथा गा रहे हैं ।

(ii) “वर्तमान जाट जाति को इस बात का गर्व से अनुभव करना चाहिए कि उनके पूर्वज बौद्ध नरेश असुवर्मा नेपाल के प्रसिद्ध राजा हो चुके हैं।” (इन्हीं विद्वान् ने सम्राट् कनिष्क से लेकर सम्राट् विजयनाग तक 17 बौद्ध जाट राजाओं का उनके काल तथा संसार में उनके राज्य क्षेत्र का वर्णन किया है - लेखक)


  • 74. विद्वान् मोरेरीसन - “The Jats and Rajputs of the Doab are descendents of the late Aryans” अर्थात् दोआबा के जाट और राजपूत आर्यों के वंशज हैं।


  • 75. विद्वान् नेशफिल्ड - “जाटों से राजपूत हो सकते हैं परन्तु राजपूतों से जाट कभी नहीं हो सकते हैं ।”


  • 76. प्रो० मैक्समूलर - “सारे भूमण्डल पर जाट रहते हैं और जर्मनी इन्हीं आर्य वीरों की भूमि है ।”


  • 77. इतिहासकार बलिदबिन अब्दुल मलिक - “अरब की हिफाजत के लिए हमने जाटों का सहारा लिया ।”


  • 78. सुल्तान मोहम्मद - “जाट कौम का डर मेरे ख्वाब में भी रहता है । इन्होंने मुझे कभी खिराज नहीं दिया ।”


  • 79. प्रो० बी. एस. ढिल्लों - “मोहम्मद गजनी ने जाटों को खुश करने के लिए साहू जाटों से अपनी बहिन का विवाह किया था ।” (पुस्तक - ‘हिस्ट्री एण्ड स्टडी ऑफ दी जाट’- मूलस्रोत - सर ए. कनिंघम) ।


  • 80. कैप्टन फॉलकॉन - (i) “The Jats are throughly independent in character and assert personal and indivisual freedom as against communal or tribal control more strongly than other people.” अर्थात् जाट चारित्रिक रूप से पूर्णतया आजाद होते हैं जो निजी तौर पर दूसरों की तुलना में साम्प्रदायिक विरोधी होते हैं । (ii) गोत्र प्रथा को कैनेडा, अमरीका व इंग्लैण्ड में बसने वाले जाट भी मानते हैं ।



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  • 81. प्रो० पी.टी. ग्रीव - “जाट केवल भगवान के सामने ही अपने घुटनों को झुकाता है क्योंकि वह नेता होता है, अनुयायी नहीं ।”


  • 82. विद्वान् टॉलबोट राईस - “याद रहे चीन ने 1500 मील लम्बी और 35 फिट ऊंची दीवार जाटों से बचने के लिए ही बनाई थी ।”


  • 83. इतिहासकार जे.सी. मोर - “जाट वास्तव में हिन्दुओं की जाति नहीं है, यह एक नस्ल है।”


  • 84. विद्वान् डॉ० वाडिल - “गुट, गोट, गुट्टी, गुट्टा, गोटी और गोथ आदि जाटों के नाम के ही शाब्दिक उच्चारण के विभिन्न रूप हैं, जो मध्यपूर्व में महान् शासक हुए हैं ।”


  • 85. विद्वान् जनरल सर मैकमन - (i) जाट बहुत ताकतवर और कठिन परिश्रमी किसान हैं जो हाथ में हल लेकर पैदा होता है । (ii) जाटों ने हमेशा अपनी लड़ने की योग्यता को कायम रखा, इसी कारण प्रथम विश्वयुद्ध में केवल जाटों की छटी रेजीमेंट को रॉयल की उपाधि मिली ।


  • 86. विद्वान् लेनेन पूले - “गजनी ने अपने कमांडर नियालटगेन को पंजाब में तैनात किया तो जाट उसका सिर काट ले गए और वही सिर उन्होंने गजनी को चांदी के सैकड़ों-हजारों सिक्कों के बदले वापिस किया ।”


  • 87. विद्वान् ब्री० सर साईक्स - “आठवीं सदी के आरम्भ में बसरा-बगदाद की लड़ाई में जाटों ने खलीफा को हराया तो वहां के प्रसिद्ध जाट कवि टाबारी ने पर्सियन भाषा में इस प्रकार गाया-


(अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद)
ओह ! बगदाद के लोग मर गए,
तुम्हारा साहस भी हमेशा के लिए ।
हम जाटों ने तुम्हें हराया,
हम तुम्हें लड़ने के लिए मैदान में घसीट लाए ।



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हम जाट तुम्हें ऐसे खींच लाए,
जैसे पशुओं के झुंड से कमजोर पशु को ।


  • 88. विद्वान् मेजर बरस्टो - “जाटों की विशेषता है कि वे अपने गोत्र में शादी नहीं करते चाहे वह हिन्दू जाट हो या पंजाबी । क्योंकि जाट इसे व्यभिचार मानते हैं ।”


  • 89. डॉ० रिस्ले - “When Jat runs wild it needs God to hold him back अर्थात् यदि जाट बिगड़ जाए तो उसे भगवान ही काबू कर सकता है ।”


  • 90. रूसी इतिहासकार के.एम. सेफकुदरात ने अगस्त 1964 में मास्को में एक भाषण दिया जो भारतीय समाचार पत्रों में भी छपा था और उसने कहा “I studied the histories of various sects before I visited India in 1957. It was found that Jats live in an area extending from India to Central Asia and Central Europe. They are known by different names in different countries and they speak different languages but they are all one as regards their origin.”

अर्थात् “मैंने 1967 से पहले भारत की यात्रा करने से पहले इतिहास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया और पाया कि जाट भारत से मध्य एशिया और मध्य यूरोप तक रहते हैं वे अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं और वे भाषाएं भी अलग बोलते हैं । लेकिन उन सभी का निकास एक ही है ।” इसलिए जाट कौम एक ग्लोबल नस्ल है ।


  • 91. इतिहासकार डॉ० सुखीराम रावत (पलवल) - “राजा गज ने गजनी के पास वर्तमान में अफगानिस्तान में बामियान के पास बुद्ध का विश्वप्रसिद्ध स्तूप बनवाया जिसे तालिबानियों ने सन् 2001 में संसार के सभी देशों की परवाह न करते हुए डाइनामाइट से उड़वा दिया ।”



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  • 93. चौ० ओमप्रकाश पत्रकार (रोहतक) - “मकौड़ा, घोड़ा और जठोड़ा पकड़ने पर कभी छोड़ते नहीं ।”


  • 94. चौ० ईश्वरसिंह गहलोत (विख्यात जाट गायक) - “आज भी काबुल चिल्ला रहा है, बंद करो फाटक रणजीत आ रहा है ।”


  • 95. पंजाब केसरी पत्र ने अपने धारावाहिक सम्पादकीय दिनांक 25.09.2002 को झूठा इतिहास - झूठे लोग में लिखा - “जाटों का इतिहास देख लें ! बड़ा ही गौरवपूर्ण इतिहास है ! इतना गौरवपूर्ण कि वैसा इतिहास खोजना मुश्किल हो जाए । इतिहासकारों

ने इसे इतना तरोड़-मरोड़ कर लिखा है कि जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है । क्या यह सब महज इत्तिफाक है ?”

(यह इतिफाक नहीं था, जाटों के इतिहास के साथ इसलिए हुआ कि पहले जाट बौद्धधर्मी थे और भारत का ब्राह्मणवाद बौद्ध धर्म का दुश्मन रहा जो स्वयं इतिहासकार थे, इसलिए ऐसा करना ही था । क्योंकि यदि भारत का सच्चा इतिहास सामने आयेगा तो ऐसे लोगों का गर्व-खर्व होना निश्चित है - लेखक) ।


  • 96. बी.बी.सी. लंदन (जयपुर संवाददाता) “जाट जब अपने असली रूप में आ जाये तो वह हिमालय को भी चीर सकता है । हिन्दमहासागर को भी पार कर सकता है । थार के रेगिस्तान में बसे करोड़ों धरतीपुत्रों ने रैली को रैला बनाकर हिन्दुस्तान की सत्ता को थर्रा दिया था और आज 20 अक्तूबर 1999 को राजस्थान सरकार को जाटों को ओ. बी. सी. का आरक्षण देना ही पड़ा ।” (क्या शेष भारत के जाट, जाट नहीं हैं ? रोजाना रैलियों में दौड़ते भागते रहते हैं अपने हक के लिए (आरक्षण

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के लिए) नहीं लड़ सकते हैं ? - लेखक)


  • 97. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे सिधिंया ने दिनांक 07.05.2004 को हांसी में संसद चुनाव में वोट मांगते हुए कहा- “मैं बहादुर जाटों की बहू हूँ इसलिए उनसे वोट मांगने का मेरा अधिकार है ।”


  • 98. गुर्जर इतिहास (पेज नं० 3, लेखक राणा अली हसन चौहान, पाकिस्तान) - “जाट शुद्ध आर्यों की जाति है ।”


  • 99. विख्यात फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र ने सन् 2005 में बिजनौर (उत्तर प्रदेश) की एक जनसभा में कहा- “मैं जाट जाति में पैदा होकर गौरव का अनुभव करता हूँ ।”


  • 100. लेखक - “जाट इतिहास कोई भंगेड़ियों, भगोड़ों व भाड़े का इतिहास नहीं, यह सच्चे वीरों का इतिहास है।” इन टिप्पणियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जाट जाति का चरित्र कैसा रहा है तथा यह कितनी महान् जाति रही ।


इसलिए गर्व से कहो हम जाट हैं ।



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जाट कौन हैं ?

जाट कौन हैं? यह प्रश्न बहुत ही सरल लगता है लेकिन इसका उत्तर उतना ही कठिन है । लेकिन फिर भी मैं इसका उत्तर ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर इस संक्षेप लेख के द्वारा देने का प्रयास कर रहा हूं । जाट का शाब्दिक अर्थ तथा भावार्थ एकजुट होना है अर्थात् बिखरी हुई शक्ति को इकट्ठा करना या किसी कार्य को एकजुट होकर करने वालों को ही जाट कहा जाता है। इसीलिए पाणिनि ऋषि ने लगभग 4000 वर्ष पूर्व अष्टाध्यायी मैं जट् झट् संघाते लिखा है। जाट बुद्धिजीवियों ने जाट को परिभाषित करने के लिए अंग्रेजी में इसको इस प्रकार संधिच्छेद किया है- J का अर्थ justice अर्थात् न्यायप्रिय, A का अर्थ Action अर्थात् कर्मशील, T का अर्थ Truthful अर्थात् सत्यवादी । इन तीनों गुणों के मिलने पर सम्पूर्ण जाट कहलाता है, लेकिन जाट कौन है ? प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा है ।


सबसे पहले हमें यह स्पष्ट होना चाहिए कि Yayat, Yat, Yet, Yeti, Yates, Yachi, Jat, Jatt, Jati, Jutes, Juton, Jaton, Jeth, Gat, Jatee, Gatak, Goth आदि इसी जाट शब्द के पर्यायवाची हैं जो केवल उच्चारण भेद के कारण हैं । यह सत्य है कि उच्चारण हर बीस कोस के बाद बदल जाता है । इसलिए पुरानी कहावत है - कोस कोस पर बदले पानी, बीस कोस पर वाणी । उदाहरण के लिए छोटे से हरियाणा राज्य में कहां शब्द को रोहतक क्षेत्र में कड़ै , अहीरवाल क्षेत्र में कठै, भिवानी क्षेत्र में कित तथा हिसार क्षेत्र में कड़ियां बोला जाता है । यही शब्द पंजाब में जाकर कित्थे और फिर जम्मू व हिमाचल प्रदेश में कुत्थे हो गया । इसी प्रकार ब्रज क्षेत्र में जाट को जाटन् तो पंजाब व डोगरी क्षेत्र में जट्ट या जट्टु हो गया । मध्य एशिया में जत्त-जती, इटली में गोथ, जर्मनी में गुट्टा


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तो चीनी भाषा में ‘याची’ हो गया । जिस प्रकार चीनी यात्री फाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के वृत्तान्त में सिन्धु नदी को Sindhu न कहकर Shin-Tuh लिखा तो यमुना नदी को Poo-ha लिखा । ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि जाटों को पूरे संसार में अलग-अलग उच्चारण से बोलना स्वाभाविक है । इसका यहाँ में केवल एक ही प्रमाण दे रहा हूं -


A Russian historian, K.M. Safequadrat, delivered a speech in the international congress at Moscow in Aug. 1964, which was published in Indian Newspaper. He said, “I studied the histories of various sects before I visited India in 1957. It was found that Jats live in an area extending from India to Central Asia and Central Europe. They are known by different names in different countries and they speak different languages but they are all one as regards their origin.”


अर्थात् रूसी इतिहासकार के.एम. सेफकुदरात ने अगस्त 1964 में मास्को में एक भाषण दिया जो भारतीय समाचार पत्रों में भी छपा था और उसने कहा, “मैंने 1967 में भारत की यात्रा करने से पहले इतिहास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया और पाया कि जाट भारत से मध्य एशिया और मध्य यूरोप तक रहते हैं वे अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं और वे भाषाएं भी अलग बोलते हैं । लेकिन उन सभी का निकास एक ही है ।” इसलिए जाट कौम एक ग्लोबल नस्ल है । लेकिन जाट है कौन? यह अभी तक अनुत्तरित है ।


सारे संसार में मुख्य तौर पर जाट के दो ही रूप रहे हैं किसान और सैनिक । इन दोनों के कार्यों से जाट के चरित्र का निर्माण हुआ । किसान ईश्वर पर सबसे अधिक भरोसा करने वाला है और यह विडम्बना ही रही है कि ईश्वर की विपदाओं को सबसे अधिक इसी



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ने झेला है । लेकिन इन्सानी अत्याचार और अन्याय का प्रतिवादी है । सैनिक इन्सानी अत्याचार व हमलों का घोर प्रतिवादी लेकिन अनुशासनप्रिय के साथ-साथ विजय उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य रहा है । किसान और सैनिक दोनों ही के कार्य अकेले न होकर एकजुट होकर करने वाले रहे इसलिए एकजुटता से ही जट और जाट कहलाए । इसी कारण जाट का चरित्र Justice - Action - Truthful बना तथा इसी बल पर इस कौम ने प्राचीन समय में संसार की बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी और लगभग दो तिहाई संसार पर राज किया । कुछ इतिहासकारों ने याट या यादु से भी जाट शब्द की उत्पत्ति बतलाई है । महर्षि यास्क के ग्रन्थ में ‘जटायते इति जाट्यम’ अर्थात् जटायें रखने वालों को जाट बतलाया गया है । लेकिन जाट का धर्म क्या है?


धारण करने को धर्म कहते हैं, जाट का धर्म ईश्वर की एकीय शक्ति को स्वीकार करता है, पाखंडों का विरोध करता है । चित्र (मूर्ति) की जगह चरित्र की पूजा करता है तथा इसी आधार के कारण जाट अपने पूर्वजों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं । जहां तक घोषित धर्मों की बात है तो इसके प्राचीन दस्तावेज चीनी यात्री फाह्यान के वृत्तान्त में जाटों के धर्म की पहली बार बात आई है जो लगभग 1600 वर्ष पहले भारत आया था । उसने सबसे पहले अफगानिस्तान होते हुए स्वात घाटी (जहां आजकल पाकिस्तान में युद्ध छिड़ा है) में प्रवेश किया । उसके बाद पेशावर से सीधा मथुरा आया, वहां से बौद्धों के शहर बनारस फिर पटना और गया पहुंच गया । वहां से सीधा श्रीलंका गया और फिर समुद्र के रास्ते वापिस चीन को लौट गया । अफगानिस्तान से लेकर बिहार में गया तक के पूरे क्षेत्र को अंग्रेज अनुवादक James Leqqe ने जाट-जुट्स बहुल क्षेत्र लिखा है । जहां सभी जगह बौद्ध धर्म का डंका बज रहा था तथा जगह-जगह बौद्ध विहार बने थे जहां हजारों हजार बौद्ध भिक्षु रहते थे । इस क्षेत्र में कहीं जीव हत्या नहीं होती थी । नशे का नाम तक नहीं था, घी-दूध का अधिक प्रयोग होता



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था । केवल चाण्डाल जाति के लोगों को मछली पकड़ने का अधिकार था । इन्हीं लोगों में से काफी को पुजारी बनाया जा रहा था । कहीं-कहीं वैष्णव पंथ (Sect) था जिसके लिए कुछ ब्राह्मण पुजारी थे लेकिन उन्होंने कहीं भी हिन्दू धर्म या हिन्दू शब्द का इस्तेमाल नहीं किया न ही पुराण, रामायण, महाभारत, गीता आदि का उल्लेख किया लेकिन बौद्ध धर्म साहित्य का बार-बार वर्णन आता है । इससे स्पष्ट है कि उस समय तक भारत में हिन्दू धर्म के नाम का प्रचलन तथा ब्राह्मण साहित्य का लेखन नहीं हुआ था । लगभग समस्त जाट कौम बौद्ध धर्मी थी । तो फिर हिन्दू शब्द और यह धर्म कहां से आया ?


भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में बोलने की भाषा में कहीं भी ‘ट’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता वे इसे ‘त’ बोलते हैं । ये लोग ‘ट्रेन’ (रेलगाड़ी) को ‘त्रेन’ बोलते हैं । बिहार के मैथिली क्षेत्र में ‘ड़’ की जगह ‘र’ का प्रयोग होता है तो दक्षिण के मालाबार क्षेत्र में ‘ज’ की जगह ‘श’ का प्रयोग होता है । इसी प्रकार सिन्धु नदी के पश्चिम में रहने वाले क्षेत्र के लोग ‘स’ की जगह ‘ह’ शब्द का प्रयोग करते थे, इसलिए वे लोग सिन्धु को हिन्दू बोलते थे । जब आठवीं व नौवीं सदी में सिन्धु पार के क्षेत्र में इस्लाम फैला तो सिन्धु के पूर्व में रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा जाने लगा, जो बाद में पूरे भारत में हिन्दू के नाम से प्रचलित हो गया । क्योंकि अरबी भाषा में ‘स’ की जगह ‘ह’ शब्द का उच्चारण होता है । सप्ताह को हफ्ता कहते हैं । इससे पहले न कहीं हिन्दू शब्द था तथा न ही हिन्दू धर्म । यह शब्द उच्चारण भेद के कारण था जो अलग-अलग क्षेत्रों में जाट के साथ हो रहा है । इसलिए फाह्यान ने कहीं भी हिन्दू धर्म का नाम तक नहीं लिखा है । मुगलकाल तक हिन्दू धर्म पूर्णतया प्रचलन में नहीं था ये सभी अंग्रेज आने के बाद और उनके इतिहासकारों ने सन् 1790 के बाद इसे एक धर्म के नाम से प्रचारित किया । इस धर्म को सनातन धर्म (सबसे प्राचीन धर्म) कहना हास्यास्पद है ।



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जाटों ने अपने चारित्रिक गुण एकीय ईश्वर मत के अनुसार मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के बाद जाटों ने इस्लाम धर्म को अपनाया जो सिन्धु तक फैला तथा यूरोप में 16वीं शताब्दी के बाद जाटों ने कैथोलिक ईसाई धर्म अपनाया तथा अठारहवीं सदी में भारत के जाटों ने पंजाब में सिख धर्म को अपनाया । 1875 में आर्यसमाज की स्थापना के बाद भारत के शेष जाटों ने उसी निराकार एकेश्वर मत के अनुसार वैदिक धर्म अपनाया क्योंकि जाट चरित्र में मूर्ति पूजा का कभी कोई स्थान नहीं रहा ।


लेकिन आर्यसमाज इस धर्म को कानूनी जामा पहनाने में पूर्णतया असफल रहा और जाट कौम को मंझधार में छोड़ दिया जिस कारण वे वैदिक धर्म की बजाए पाखण्डवाद की तरफ लौटने लगा और अपने को हिन्दू कहने लगा । जबकि स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने हिन्दू शब्द का विरोध किया था लेकिन उन्हीं के अनुयायियों ने स्वामी जी की अवहेलना की । इस प्रकार जाट आज मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, कुछ जैन तथा शेष बिखरे हुए आर्यसमाजी और ब्राह्मणवादी हिन्दू हो गए । इसलिए अंग्रेजी इतिहासकार जे.सी. मोर ने लिखा है - ‘जाट कौम हिन्दुओं की जाति नहीं यह एक नस्ल है।’ ऐसे अनेक उदाहरण हैं । जाटों के धर्म के बारे में विस्तार से जानना है तो पाठक लै० रामस्वरूप जून की पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ दी जाट्स पढ़ें । लेकिन फिर जाटों की नस्ल क्या है ?


अभी तक सभी इतिहासकार इस विषय पर भ्रमित रहे हैं कि भारत में आर्य बाहर से आए जबकि अभी हाल के शोधों से यह प्रमाणित हो चुका है कि आर्य लोग भारत के मूल निवासी हैं । (World History ...... 1992 by Jim Schaffer and Mark Kenoyer)


महाभारत युद्ध के काल में सरस्वती नदी अपने सूखने की प्रक्रिया में थी जिससे युद्ध से प्रताड़ित लोगों के लिए सिंचाई की



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जमीन भी कम होती गई जिस कारण भारत से आर्य लोग दलों के रूप में मध्य एशिया, यूरोप तथा पाताल (अमेरिका) तक चले गए जिसमें अधिक ईरान क्षेत्र में आबाद हुए । जब राजस्थान का क्षेत्र भी बंजर हो रहा था तो काफी लोग दक्षिण भारत के जंगलों में जाकर आबाद होने लगे और खेती करने लगे जिन्हें आज द्रविड़ कहा जाता है । इनमें जो शारीरिक रंग परिवर्तन हुआ है वह भूमध्यीय रेखा क्षेत्र में रहने के कारण हुआ है । भारत में केवल दो तीन ही नस्लें हैं आर्य, आरमिनियन तथा मंगोलियन । भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में मंगोलियन नस्ल पाई जाती है । बाकी शेष भारत के आदिवासी भी आर्य नस्ल के हैं । अरोड़ा पंजाबी आदि आरमिनियन व्यापारी हैं जो आर्यन में मिश्रण हो गया । इनको आप इण्डो-यूरोपियन भी कह सकते हैं । लेकिन किन्हीं कारणों से आदिवासी लोग समय-समय पर आर्य मुख्यधारा से अलग होते रहे और जंगलों में शरण लेने के कारण इनमें भी शारीरिक, सामाजिक व धार्मिक परिवर्तन होते रहे । भारत के आर्यों का मुख्य प्रस्थान लगभग 4000 से 5000 साल पहले हुआ जिसमें मुख्य रूप से बाहर जाने वाले जाट और गूजर थे । उस समय तक राजपूत नाम नहीं था जो 7वीं सदी के बाद आया । इसके बाद द्रविड़ संस्कृति तथा अन्य बाद में विकसित हुई हैं । वर्तमान में द्रविड़ संस्कृति तथा इण्डो-यूरोपियन संस्कृति का उत्तरी भारतीय आर्य संस्कृति पर हमला है ।


कुछ इतिहासकारों ने जाटों को सिथियन नस्ल का लिखा है जिसका कारण उन्होंने आर्यों का बाहर से आना लिखा है । ईरान में सिंधु डेल्टा क्षेत्र को प्राचीन में शिव + स्थान = शिवस्तान कहा जाता था और इसी को आज सिस्तान कहते हैं और यहां रहने वालों को ही सिथियन कहा गया । इन लोगों ने जाटों का निकास मध्य एशिया तथा ईरान माना है इसी कारण जाटों को सिथियन भी लिखा गया है । जबकि आधुनिक World History 1992 से यह प्रमाणित है कि



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सिथियन भी आर्यन हैं । सबसे पुख्ता प्रमाण जाटों की शारीरिक संरचना कह रही है कि वे आर्यों में से शुद्ध आर्य हैं क्योंकि इस कौम में आज तक कम से कम मिश्रण हुआ है । (सिथियन इतिहासकार अब्दुल गाजी ने अपने को तार गोत्र का जाट माना है।)


जो जाट अपने को हिन्दू कहने में गर्व महसूस कर रहे हैं उन्हें स्पष्ट होना चाहिए कि जाट कौम बौद्ध रही है जो ब्राह्मणवाद के निशाने पर रही और ब्राह्मणवादी विचारधारा को न मानने के कारण ब्राह्मणों ने अपने ग्रंथों - स्कन्द पुराण, भविष्य पुराण तथा पद्म पुराण आदि में जाटों को शूद्र लिखवाया और इन्हीं पोथों के आधार पर सन् 1932 में लाहौर हाईकोर्ट से जाटों को शूद्र घोषित करवाया । जबकि सच्चाई यह है कि जाट न तो शूद्र है और न हिन्दू है और न ही ब्राह्मणिक वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत है क्योंकि यह ग्लोबल नस्ल है । इसलिए यह किसी वर्ण में नहीं आता है, यह आर्यों की श्रेष्ठ नस्ल है । इसी कारण वर्तमान में जाट को हिन्दू कोड 1955 (हिन्दू मैरिज एक्ट) के तहत अधिक कष्ट झेलने पड़ रहे हैं । यदि जाट हिन्दू है तो फिर उसको अपने ही हिन्दू कानून से विरोध क्यों? हिन्दुत्व का वर्तमान में बड़ा प्रचार हो रहा है जबकि इसका अर्थ स्पष्ट तौर पर आधुनिक ब्राह्मणवाद ही है और कुछ नहीं । इसलिए जाट स्वयं को हिन्दू कहना, लिखना शर्मनाक है ।


इसलिए गर्व से कहो कि हम जाट हैं ।



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अस्तित्व की जंग जारी है। क्या हम जंग हार रहे हैं ?

जाट कौम ने संसार में जगह-जगह अपनी मातृभूमि के लिए खून बहाया और कभी हारे भी तो हारकर बैठे नहीं । यही एक सच्चे योद्धा की पहचान है । लेकिन मैं दूसरी जंग की बात कर रहा हूँ ।


उत्तर भारत के तत्कालीन संयुक्त पंजाब में महायोद्धा चौ० छोटूराम ने हमारी आर्थिक और कौमी अस्तित्व के लिए जंग लड़ी और वे सर्वदा महाविजेता रहे, लेकिन उनके देहान्त के बाद उस जीती हुई जंग को हम हार गए और उनकी उपलब्धियों को स्थाई रूप देने में सर्वथा असफल रहे ।


जब 15 अगस्त 1947 को सत्ता परिवर्तन हुआ तो हमारा यह सोचना सर्वथा अनुचित था कि हमने सब कुछ पा लिया है, जबकि उसी दिन से दूसरी जंग शुरू हुई और इस जंग के योद्धा बनिया (गांधी), ब्राह्मण (नेहरू) और कायस्थ (राजेन्द्र प्रसाद) बने । इस जंग की शुरुआत नेहरू ने देश में पहले आम चुनाव सन् 1952 में होने तक सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री अपनी ब्राह्मण जाति से नियुक्त करके शुरुआत की । पं० नेहरू बहुत शातिर राजनीतिज्ञ और कट्टर मनुवादी ब्राह्मण थे । प्रथम उन्होंने नीति बनाई कि जो राज्य का कांग्रेस अध्यक्ष होगा वही राज्य का मुख्यमन्त्री बनेगा । इसके लिए उन्होंने पहले गैर ब्राह्मण कांग्रेस अध्यक्षों को हटाया अर्थात् त्याग पत्र मांगे । बम्बई राज्य के पारसी नरीमन कांग्रेस अध्यक्ष थे जिन्होंने त्याग पत्र देने से आनाकानी की तो उसे इतना तंग किया कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी । लेकिन नेहरू के चेलों ने आत्महत्या छुपाकर इसे स्वाभाविक मौत करार दिया । उनकी याद में आज केवल ‘नरीमन हाउस’ है जहां पर 26-11-09 को उग्रवादियों ने हमला किया था । सन् 1947 में केवल 4 प्रतिशत ब्राह्मण कर्मचारी-अधिकारी थे लेकिन नेहरू ने


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इनकी संख्या सन् 1960 तक 70 प्रतिशत पहुंचा दी । लेकिन उत्तर भारत की सबसे ताकतवर जाट कौम इस जंग में कहीं नजर नहीं आती । इसी प्रकार इस जंग में केन्द्र सरकार में हमारी भागीदारी नदारद थी । हालांकि सिख जाट सरदार बलदेव सिंह को केन्द्र में रक्षामन्त्री लिया गया । लेकिन उनको एक सिख धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर लिया गया न कि जाट के तौर पर । कहने का अर्थ है कि यह जंग हम बिना लड़े ही हार गए और इस हार के परिणामों को हम बीस वर्षों तक झेलते रहे और अभी तक भी झेल रहे हैं ।


तीसरा हमला हमारी दिल्ली पर हुआ । जिस दिल्ली का घेरा हमारे पूर्वजों ने सभी कष्ट झेलने के बाद भी कभी नहीं तोड़ा । लेकिन सन् 1947 के बाद लोग हमें घेर कर बैठ गए । जब 1947 में दिल्ली से एक लाख मुस्लिम पाकिस्तान गए तो बड़ी योजनाबद्ध एवं कुटिल चाल के तहत चार लाख अस्सी हजार पाकिस्तानी शरणार्थियों को दिल्ली में हमारी जमीन पर बसाया गया और फिर 1959 में 50 हजार से अधिक तिब्बती शरणार्थियों को पनाह दी गई । इसी के साथ-साथ जी. बी. पंत की योजना अनुसार गढ़वाल व कुमाऊ वालों ने दिल्ली की राह पकड़ी तथा सन् 1971 के बाद बंगलादेशियों तक को दिल्ली में पनाह दी गई । जाटों की जमीन हड़पने के लिए योजनाबद्ध तरीके से डीडीए का गठन किया गया जो अंग्रेजों के अधिनियम 1894 के तहत जाटों की जमीन को कौड़ियों के भाव अधिकृत करके निजी ट्रस्टों व सोसायटियों को देकर वहां बड़े-बड़े अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, होटल व दूसरी संस्थाएं खड़ी होती रही । दिल्ली का जाट दिल्ली को सभी के सांझे की राजधानी कहता रहा, लेकिन जाटों का इन सभी में कहीं भी सांझा (हिस्सा) नहीं दिखा । जबकि जाटों के रायसिना गांव के ताल (खेत) में खड़ा इण्डिया गेट आज तक भी अंग्रेजों के 99 साला लीज पर चला आ रहा है । उसके बाद बिहारियों का आगमन शुरू हुआ तो गांवों के चारों ओर जे.जे. कालोनियां खड़ी


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करके जाटों की पहचान और संस्कृति पर धावा बोलकर संविधान के मौलिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई गई और आज नौबत यहां तक आ गई है कि दिल्ली राज्य की सरकार में एक भी जाट मंत्री नहीं । जाटों की जमीन पर बनी विभिन्न संस्थाओं कालोनियों व सड़कों के नाम गैर जाट लोगों ने व सरकार ने अपनी मर्जी से रखकर जाटों के इतिहास को दफन करने के साथ-साथ, जाटों के भूगोल तक को बदल डाला । नतीजन जाटों की देशभक्ति की प्रवृत्ति ही उनके विनाश का कारण बनती चली गई अर्थात् जाट तीसरी जंग भी हार गए ।


अंग्रेजों की शहरीकरण व पूंजीवादी (दलाली और बिचौलिया) रणनीति को नेहरू ने और भी तीखा बना दिया जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण जाट किसान को सुधार के नाम पर दरिद्रता की तरफ धकेल दिया गया । नतीजन गांवों में आज बचे 90 प्रतिशत जाटों में से 40 प्रतिशत जाटों की आर्थिक हालत दलितों से भी बदतर बन गई । इसी बीच चौ० चरणसिंह, चौ० बलदेवराम मिर्धा, सरदार प्रतापसिंह कैरों व चौ० देवीलाल सरीखे किसानों (परोक्ष रूप से जाटों) के महायोद्धा बनकर मैदान में उतरे और ताबड़ तोड़ सुधार का भरसक प्रयास किया । लेकिन मसला सुधार का नहीं था, मसला तो व्यवस्था परिवर्तन का था, जिसमें ये सभी महायोद्धा असपफल रहे । उसी का परिणाम था कि हरित क्रान्ति की सारी कमाई दलाल व बिचौलिये खा गये और जाट किसान के हाथ केवल कर्जा और आत्महत्या आया । जो कौम इस देशवासियों का पेट भरती रही और सुरक्षा भी करती रही उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष का ख्याल तक नहीं आया, क्योंकि यह सर्वविदित प्रमाणित है कि वह उत्पादक कभी भी खुशहाल नहीं हो सकता, जिसके उत्पादन की कीमत खरीददार निर्धारित करे । अर्थात् ये चौथी जंग भी हम हार गए और हमारी नियती मुआवजा, कर्जा माफी और पीले कार्ड बनवाने तक ही सीमित रह गई।


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जाट कौम की रीढ़ और पहचान उसकी गोत्रा प्रथा और खाप प्रथा रही हैं यही हमारी प्राचीन धरोहर है, जिसने हमारे शुद्ध रक्त की रक्षा की है । लेकिन जब 1955 में हिन्दू विवाह कानून बना तो हमारी इस धरोहर पर सीधा हमला किया गया, लेकिन किसी भी जाट भाई को इस कानून की भनक तक नहीं लगी और जब लगी तो इसके सामने जाट कौम ने समर्पण कर दिया और अपने बच्चे जो किन्हीं कारणों से शादी के बन्धनों में बंध चुके थे, हम उन्हें भाई-बहन बनाने की गलती करने लगे । हमारे दुश्मन जिनके पूर्वज कभी चौ० छोटूराम को काले झण्डे दिखाया करते थे, इसी गलती के कारण आज हमारी इस धरोहर के विरोध में न्यायालय जा रहे हैं । क्योंकि हमने स्वयं इनको ये अवसर दिया, जिसकी ताक में ये लोग चौ० छोटूराम के देहान्त के बाद से बैठे थे । और आज यह समय आ गया है कि हम स्वयं उनके सुर में सुर मिलाकर बोल रहे हैं जबकि ये प्रमाणित है कि कभी किसी खाप या सर्वखाप ने किसी को शारीरिक दण्ड नहीं दिया। दिया है तो केवल सामाजिक दण्ड दिया, जैसे कि “अकाल तख्त” देता रहा है । इसी के परिणाम स्वरूप इन खापों को समाप्त करने की मांग उठाई जा रही है । जबकि देश में एक दर्जन सांसद सरेआम रिश्वत लेते पकड़े गए, हिन्दू मठाधीश हत्या के मामलों में संलिप्त पाये गए, कई पंथों/डेरों के स्वामी/भगवान अनेक अपराधों में लिप्त पाये गए और अनेक मंत्री भिन्न-भिन्न अपराधों में मुजरिम प्रमाणित हुए तो फिर क्यों संसद, मठ, पंथ/डेरे व मंत्री पद को समाप्त करने की आज तक मांग नहीं उठी? कहने का अर्थ है कि ये पांचवीं जंग भी हम हार रहे हैं ।


छठी जंग इस देश में सन् 1990 में आरक्षण के नाम पर आरम्भ हुई, जाट कौम पिछड़ी जाति में आरक्षण के लिए संविधान की धारा 340 के तहत दोनों शर्तों को पूरा करती है । लेकिन जाट कौम (मंडल कमीशन) के सामने अपना दावा पेश करने में पूर्णतया विफल रही


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और न ही मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को पढ़ने की जहमत उठाई । जाट कौम को बहकाया गया कि वह क्षत्रिय कौम है, जबकि क्षत्रिपन का फैसला किसी कौम की लड़ने की ताकत करती है न कि आरक्षण । जाट कौम को योग्यता और आर्थिक शर्तों के नाम पर भी बहकाया गया । जाटों को द्वितीय विश्वयुद्ध से राज राइफल्स, ग्रेनेडियर्स व आर्मर्ड में 40 प्रतिशत आरक्षण था, जो मुलायम सिंह यादव ने रक्षा मन्त्री होते हुए 20 प्रतिशत कर दिया । लेकिन जाटों को भनक तक नहीं लगी । और जब भनक लगी तो कोई विरोध नहीं किया । जब जाट कौम को आरक्षण के महत्त्व का आभास होने लगा तो ये कौम कुलमुलाने लगी । इसी कुलमुलाहट को देखते हुए अलग-अलग राज्यों ने अलग-अलग तरीके से आरक्षण देकर, या न देकर केन्द्रीय सरकार ने मौन रहकर जाट कौम में फूट के बीज बोये और उनके लाखों बच्चों को बेरोजगार कर अपराध की दुनिया में धकेल दिया या आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया । ये जंग जारी है, जिसका नतीजा हमारे संघर्ष पर निर्भर करेगा ।


यहां मेरा कहने का अर्थ यह नहीं है कि जाटों ने कोई उन्नति नहीं की है । जाटों ने सन् 1947 के बाद हर क्षेत्र में पर्दापण किया है, लेकिन अफसोस यह है कि ये नाम मात्र का है, क्योंकि जो लोग कभी अपने हिस्से के लिए हमारे खलिहानों पर लाईन लगाते थे और कल तक गधों पर अचार बेचा करते थे, वे हमसे आगे कैसे निकल गए ? यदि यह मेरी जलन है तो सच है कि जलन किसी भी जीव का स्वाभाविक गुण है, जो पूर्णतया उचित है । इस जलन के कारण बड़े साफ हैं, लेकिन फिर भी जाट कौम को घुण क्यों लग गया ? उसके संघर्ष का माद्दा कहां चला गया ? आज कौम इस फिक्र में क्यों है कि यदि हम अपनी कौम के लिए संघर्ष करेंगे तो दूसरे लोग नाराज हो जायेंगे ? आज जाट अपने को जाट कहलाने में क्यूं हिचक रहा है ? कुछ जाट तो अपनी ही जाति से क्यों घृणा करने लग गए


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हैं ? ये बहुत से प्रश्न हैं जिनके उत्तर आज जाट कौम को ढूंढने होंगे ?


जब किसी परिवार, खानदान या कौम आदि में गिरावट या पतन आरम्भ होता है तो उसके कुछ लक्षण होते हैं और आज जाट कौम में पतन के कुछ लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते हैं । उदाहरण के लिए -


1. जिस कौम को अपने इतिहास का ज्ञान न हो, अपने महापुरुषों पर अभिमान न हो और नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति का भान न हो, उस कौम का पतन होना निश्चित है । यही सब आज जाट कौम में व्याप्त है, जो हर जगह दिखाई पड़ रहा है ।


2. जिस कौम को अपने अधिकारों का ज्ञान न हो, अपनी ताकत का आभास न हो, संघर्ष करने की नीयत न हो और अपने आपको समय के साथ परिवर्तित न करे उसका पतन होना निश्चित है । इसका मैं एक जीता जागता प्रमाण देना चाहूंगा जो कि हरियाणा के जाटों का है । पूरे भारत में हरियाणा के जाटों को सबसे पहले सन् 1991 में ओबीसी में आरक्षण का लाभ दिया गया, लेकिन कब, किसने और कैसे उनका ये अधिकार छीन लिया, जाटों को भनक तक नहीं लगी? इससे स्पष्ट है कि जाट कौम अपने अधिकारों के प्रति बिल्कुल जागरूक नहीं है।


3. तीसरा लक्षण है कि आज गांवों में जाट भाई औरतों की कमाई पर आश्रित हो चले हैं, गांवों में जाटनियां प्रातः से रात तक बैलों की तरह काम में जुटी रहती हैं और जाट भाई सारा दिन ताश खेलते रहते हैं । उनके पास खाने-नहाने-धोने तक की भी फुरसत नहीं । वे पूछने पर कहते हैं कि उन्हें कोई काम नहीं, वे तो टाईम पास कर रहे हैं । जबकि उनकी धोती, पायजामा, कुर्ता, पगड़ी, टोपला और चद्दर मैल में सने रहते हैं, चारपाई की पांत टूटकर लटकती रहती है, घरों में मकड़ी के जालों और गन्दगी की भरमार रहती है, इनको साफ करना, ये भाई कोई काम नहीं समझते । औरतों की कमाई खाने की आदत बनती जा रही है, जो पतन का एक लक्षण है ।


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ऐसे बहुत से लक्षण हैं जो स्पष्ट कह रहे हैं कि जाट कौम अपने पतन की ओर अग्रसर है । इसलिए मैं यह कहने का अधिकार रखता हूं कि आज जाट कौम अपनी जंग हार रही है । इन सबके बावजूद भी इस देश में आज भी जाट कौम संकट (crisis) के समय सबसे अधिक एकजुट होने की ताकत रखती है, इसलिए आज हमें इस जंग को एक संकट समझना होगा । यदि हमें हारी हुई जंग को जीतना है तो संघर्ष को गले लगाना होगा, परिवर्तन पर विचार करना होगा । हिन्दू सिक्ख व मुस्लिम की बात छोड़कर हमें केवल जाट बनना होगा । आस्था और अंध-विश्वास के बीच लम्बी लकीर खींचनी होगी । अपने हृदय में बैठे ब्राह्मणवाद से अपना पिण्ड छुटवाना होगा। अर्थात् अपनी सोच को बदलना होगा। यही जंग जीतने की आखिरी तजवीज है और जयकारा दो जाट एकता जिंदाबाद


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जातिवार जनगणना का विरोध क्यों ?

यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर भूतकाल की गहराइयों में उतर कर ही ढूंढा जा सकता है । वर्तमान में भारत में सात हजार से अधिक जातियां हैं जिसमें उत्तर-पूर्वी राज्यों की कई और भी जातियां हैं जिन्हें अभी तक चिह्नित नहीं किया गया है । उन्हें आदिवासी मानकर छोड़ दिया गया है । जबकि यह सर्वविदित है कि आदिवासी कोई एक जाति नहीं है यह तो एक वर्ग है ।


हमें यह सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार करना होगा कि हमारे देश में जातिप्रथा की जननी वर्ण व्यवस्था है । हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जाति प्रथा हमारे देश की एक हकीकत है चाहे उसके कितने भी नुकसान क्यों ना हों । जो इस हकीकत को स्वीकार नहीं करता वह या तो कोई बड़ा साधु-संत है या अज्ञानी है या दूसरों को मूर्ख बनाने में महारथी है, या फिर राजनीतिक नाटककार है । हमारे संविधान में दलित व पिछड़ी जातियों के आरक्षण देने के लिए क्लास शब्द का उल्लेख किया गया है लेकिन आरक्षण के लिए गठित कोई भी आयोग इस क्लास शब्द को परिभाषित नहीं कर पाया ओर उसे अंत में इसी जाति प्रथा का ही सहारा लेना पड़ा । परिणामस्वरूप संपूर्ण देश में आरक्षण जातियों पर आधारित है ।


हर दस वर्ष के बाद देश में जनगणना का कानून ब्रिटिश सरकार ने बनाया जिसमें एक अलग से जनगणना विभाग का सृजन किया और उन्होंने सन् 1931 में अंतिम बार जातिवार जनगणना की गई क्योंकि वे हमारे देश की वास्तविक सामाजिक स्थिति से परिचित थे और जातिवाद जनगणना कराने का उनका उद्देश्य जातियों की संख्या तथा उनका चित्रण (प्रोफाईल) को जानना था लेकिन सन् 1941 में ब्रिटिश सरकार दूसरे विश्वयुद्ध में बुरी तरह उलझ गई जिस कारण 10 वर्ष बाद होने वाली जनगणना नहीं करवा पाई । इस के बाद सत्ता


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का हस्तांतरण हो गया ।


कांग्रेस की परम्परा या नियम था कि पार्टी का अध्यक्ष ही सरकार का मुखिया होता था । सत्ता हस्तांतरण से पहले लगभग आधे राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें थी और कांग्रेस को विश्वास नहीं था कि ब्रिटिश राज इतना जल्दी भारत को छोड़ देगा । जब सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं बढ़ी तो सन् 1946 में देश का भावी प्रधानमन्त्री चुनने के लिए भारत के 15 राज्यों की कांग्रेस कमेटियों से उनकी राय जानी गई तो बारह राज्यों की कमेटियों ने पटेल के नाम का समर्थन किया । यह जानते ही तुरन्त पण्डित नेहरू ने बड़ी होशियारी से मौलाना अब्दुल-कलाम-आजाद से कांग्रेस पद से जबरिया त्याग पत्र दिलवाकर स्वयं को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए गांधी को पटाया और पटेल को इस पद से दूर रखने में सफल हुए । उन्होंने अध्यक्ष बनते ही सभी राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों से त्यागपत्र लेकर अपनी ब्राह्मण जाति के अध्यक्ष नियुक्त कर दिये लेकिन बम्बई राज्य के अध्यक्ष नरीमन जो पारसी थे, ने त्यागपत्र देने से इनकार कर दिया । नरीमन नेहरू से सीनियर और प्रभावशाली थे । लेकिन उनको त्यागपत्र देने के लिए इतना अपमानित किया गया कि उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी । लेकिन कांग्रेस ने इसे स्वाभाविक मौत करार देकर मामले को रफा-दफा कर दिया गया । ये वही नरीमन थे जिनके नाम पर आज बम्बई में केवल नरीमन प्वाईंट शेष है जहां 26-11-08 को जेहादी हमला हुआ था । सत्ता प्राप्ति के बाद नेहरू ने उन्हीं अध्यक्षों को सभी राज्यों के मुख्यमन्त्री बना दिया । सत्ता हस्तांतरण से पहले सरकारी नौकरियों में एक तिहाई मुस्लिम थे, सेना और पुलिस में इससे भी अधिक थे । जबकि ब्राह्मण मात्र चार प्रतिशत थे । अफसरशाही में कायस्थ ब्राह्मणों से अधिक थे । मुस्लिम पाकिस्तान जाने पर पण्डित नेहरू ने एक गुप्त सरकारी नोटिफिकेशन के तहत मुसलमानों को नई भर्ती में दो प्रतिशत तक सीमित कर दिया और उनके स्थान पर ब्राह्मणों को लिया गया ।


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इसी नीति के तहत पं० नेहरू ने अपने जीवन में ही बड़े-बड़े पदों में ब्राह्मण जाति की हिस्सेदारी 70 प्रतिशत से अधिक पहुंचा दी और कायस्थ ब्राह्मणों से काफी पीछे चले गए । लेकिन फिरर भी नेहरू को धर्मनिरपेक्ष और जाति विरोधी बताया गया । इसी हकीकत को छुपाये रखने के लिए पं० नेहरू ने कभी भी जातिवाद जनगणना नहीं होने दी और उनके बाद कांग्रेसी सरकारों ने इस परम्परा को कायम रखा । भाजपा से इस प्रकार की आशा रखना मूर्खता है ।


इतने सालों तक दलित जातियों का आरक्षण होने के बावजूद भी सन् 1990 के आंकड़े कह रहे हैं कि देश में कुल 2483 आई.ए.एस. अधिकारी थे जिनमें ब्राह्मण 675, कायस्थ 353, बनिया 317, अरोड़ा खत्री 204 कुल 1549 अधिकारी थे जो केवल 5 जातियों के होते हुए देश की लगभग 7 हजार जातियों पर भारी थे । इनमें से 2350 शहरी क्षेत्र से तथा केवल 133 ही ग्रामीण क्षेत्रा से थे । हिन्दू जाट केवल 13 और सिख जाट 31 थे । इस सभी के बावजूद हर बड़े क्षेत्र में ब्राह्मण सन् 1990 में सबसे आगे थे । ‘इलाहाबाद पत्रिका’ अंक दिनांक 01-11-1990 के पेज नं० 4 अनुसार ब्राह्मण जाति की स्थिति इस प्रकार थी -


तालिका
पद कुल ब्राह्मण प्रतिशत
गवर्नर-लै०, जनरल 27 18 65
सचिव 24 13 56
मुख्य सचिव 26 13 50
केन्द्रीय मन्त्री (कैबिनेट) 18 09 50
राज्यमन्त्री व उपमन्त्री 49 34 71
सभी केन्द्रीय मन्त्रालयों में सचिव 500 310 64.5
वाइस चांसलर 98 50 52
हाईकोर्ट व सह-जज 336 169 50
राजदूत-कमिश्नर 140 58 41.8
पब्लिक इन्टरप्राइस 158 91 57

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जबकि ब्राह्मण पूरे भारत में मुश्किल से 3 प्रतिशत हैं । इससे स्थिति बड़ी स्पष्ट है कि जिन-जिन जातियों के लोग अधिक ऊंचे पदों पर विराजमान हैं उनकी जनसंख्या मात्रा 12 प्रतिशत है और वे इस सच्चाई को देश की 88 प्रतिशत लोगों से छिपाकर रखना चाहते हैं ताकि देश के आम लोगों को इसका आभास न हो सके । इसलिए इन पांचों जातियों के अधिकतर लोग ऊंचे-ऊंचे पदों पर विराजमान हैं जो जातिवार गणना का पुरजोर विरोध कर रहे हैं । वे नहीं चाहते कि विषमता के सिद्धान्त को लोग समझें जिसमें जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी ही राज में उसकी हिस्सेदारी । जबकि प्रजातन्त्र में यह एक आवश्यक तत्व है । इसी कारण मायावती ने जातिवार जनगणना पर कभी जोर नहीं दिया क्योंकि वे जानती हैं कि दलित जाति के आरक्षण का लाभ अधिकतर चमार जाति ने ही उठाया है और जनजाति का लाभ मीणा जाति ने । जब तक जातिवार जनगणना नहीं होगी तो आरक्षण की समीक्षा कैसे की जायेगी ? क्योंकि आंकड़े बोलते हैं और वे पूरे देश की तस्वीर को जनता के सामने रख देंगे । दूसरा जातिवार जनगणना से बड़ा लाभ होगा कि जाली जाति प्रमाण-पत्रों पर अंकुश लगेगा जो आज की एक बड़ी समस्या बन चुकी है ।


इस लेख में दिये गये सभी तथ्यों के दस्तावेज उपलब्ध हैं । मैंने इस लेख की कापियां उत्तर भारत के सभी मुख्य समाचार पत्रों को यह जानते हुए भेजी थी कि इनमें से अधिकतर इसी पक्षपाती विचारधारा से ग्रस्त हैं और शायद ही इस लेख को छापने का कष्ट करें और ऐसा ही हुआ । लेकिन मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि जातिवार गणना जाट कौम के लिए वरदान सिद्ध होगी । यदि यह गणना होती है तो जाट कौम को बहुत सतर्क रहकर तथा पूरे मन से इसमें सहयोग करना चाहिए ।


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दिल्ली में ‘जाट भवन’ आवश्यक क्यों ?

किसी भी धर्म, देश, समाज और संगठन का सुचारू रूप से संचालन करने के लिए मुख्यालय की आवश्यकता पड़ती है जहां पर उसकी सभी समस्याओं का निदान व भविष्य की योजनाओं पर विचार विमर्श करके आगे की रणनीति बनाई जाती है । इसलिए सभी समुदायों ने अपने-अपने मुख्यालय बनाए हुए हैं । उदाहरण के लिए इस्लाम का मक्का-मदीना, सिखों का अमृतसर, कैथोलिकों का बेटिकन सिटी, यहूदियों का येरूशलम, पारसियों का जरुर्थस्ट, बौद्धों का गया, मराठों का मुम्बई, तमिलों का चेन्नई, आर.एस.एस. का नागपुर और अग्रवालों का अग्रोहा आदि-आदि । भारत की राजधानी दिल्ली भी जाटों की रही लेकिन जाटों को छोड़कर अन्य सभी के अपने-अपने शहरों में भवन बने हुए हैं और वहां से इनके मुख्यालय चलते हैं । जब अंग्रेजों ने दिल्ली को सन् 1912 में अपना मुख्यालय (राजधानीद) बनाया तो सत्ता के नजदीक रहने के लिए रियासतों के राजाओं ने भी दिल्ली में अपने-अपने भवन बनवाए जिन्हें आज बीकानेर हाउस, जयपुर हाउस, पटियाला हाउस आदि नामों से जाना जाता है । देश आजाद होते ही सभी राज्यों ने भी अपने-अपने हाउस (भवन) बनाए जैसे कि नागालैण्ड हाउस, मणिपुर हाउस, राजस्थान हाउस व हरियाणा भवन आदि-आदि । इनको देखते हुए समझदार जातियों ने भी दिल्ली में अपने भवन बनवाए जैसे कि राजपूत भवन, गुर्जर भवन, अग्रवाल भवन, यादव भवन आदि । यहां तक कि हरियाणा के सुदूर पश्चिम में तथा राजस्थान में रहने वाली बिश्नोई जाति ने भी दिल्ली में अपना भवन बना दिया । लेकिन जाट कौम के दिये के तले अंधेरा ही रहा है । दिल्ली की 70 प्रतिशत जमीन जाटों की थी जिसे डी.डी.ए. कौड़ियों के भाव अधिकृत करती रही और उस पर चालाक लोग ट्रस्ट आदि पंजीकृत करवाकर अपने हस्पताल,


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स्कूल व कॉलेज बनाते रहे और व्यापार के केन्द्र खोलकर लूटते रहे । लेकिन जाट अपने मुआवजे के लिए सरकारों की दहलीज पर सिर पटकते रहे और अन्त में किराए पर आकर टिक गए ।


उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व केन्द्र में जाट मन्त्री, मुख्यमन्त्री, उपप्रधानमन्त्री तथा प्रधानमन्त्री पद तक पहुंच गए लेकिन दिल्ली में जाटों को अपने घर का कभी ख्याल तक नहीं आया । याद रहे वह घर पूर्ण नहीं होता जिसमें अपनी बैठक (ड्राईंग रूम) ना हो और वह गांव पूर्ण नहीं होता जिसकी अपनी कोई चौपाल ना हो क्योंकि इन जगहों से ही किसी परिवार, खानदान या गांव का उचित संचालन होता है । भारतवर्ष की प्रशासनिक शक्ति दिल्ली में रहती है जहां से पूरे देश को संचालित किया जाता है । जब जाटों को दिल्ली में बैठने, सोचने और विचार विमर्श करने का कोई स्थान ही नहीं है तो जाट कौम उस केन्द्रीय शक्ति से अपना तालमेल कैसे कर पाएगी? किसी एक दिन के लिए किसी हॉल या स्टेडियम को किराए पर लेने से कोई भी हल नहीं निकलता है । इसके विकल्प के लिए जाटों द्वारा जनकपुरी में स्थापित महाराजा सूरजमल संस्थान को भी बार-बार चुना जाता रहा है जो इस उद्देश्य के लिए नहीं बनाई गई है । यदि जाट कौम ‘जाट भवन’ के महत्त्व को समझ जाए तो दिल्ली में विश्व का सबसे बड़ा भवन ‘जाट भवन’ बन सकता है जिसके लिए हरियाणा सरकार की भी दिल्ली में दर्जनों जगह पर जमीन पड़ी हैं दिल्ली में हरियाणा की 32 बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां (जमीन) बिकाऊ हैं ।


आज जाट कौम के पास पैसे की कोई कमी नहीं है, कमी है तो केवल इच्छा शक्ति की है । मैंने आगे लेख “धर्मनिरपेक्ष जाट कौम पाखण्डवाद की चपेट में” भी यह सिद्ध किया है कि जाट कौम प्रतिवर्ष अरबों रुपया पाखण्डवाद पर बर्बाद कर रही है यदि इसी बर्बादी को रोक दिया जाए तो राष्ट्रपति भवन से बड़ा जाट भवन और


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जाट मेडिकल कॉलेज, इंजीनियर कॉलेज और गांवों में अनेक स्टेडियम बनाकर जाट कौम की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा सकते हैं। जाट के लिए ऐसा करना कुछ भी कठिन नहीं है, अगर कमी है तो केवल जागरूकता और इच्छा शक्ति की है ।


बड़ी खुशी की बात है कि हरियाणा के 21 जिलों में से 19 जिलों में जाट धर्मशालाएं बन चुकी हैं और अन्य जिलों में बन रही हैं । रोहतक, सोनीपत, हिसारझज्जर जिलों में दो-दो धर्मशालाएं बन चुकी हैं । कुरुक्षेत्र की धर्मशाला, जो सभी साधनों से सम्पन्न है पूरे भारत में सबसे बड़ी धर्मशाला है । हो सकता है कि यह धर्मशाला एशिया व संसार में भी बड़ी हो लेकिन कठिनाई यह है कि वहां पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खाने पर खर्च करके भीखमंगों को पाला जाता है । अधिकतर धर्मशालाओं को ताश खेलने के अड्डे मान लिया गया है जहां लोग प्रातः से ही ताशों में जुट जाते हैं । ये लोग इतनी बेशर्मी से ताश खेलते हैं कि वहीं समाज की कोई भी बैठक करे इन्हें कोई लेना-देना नहीं होता । यही लोग तो वास्तव में जाट समाज पर बोझ हैं इनको समझाना ऊंट को गाड़ी में बैठाने जैसा हैं । शायद बैठ-बैठकर इनकी रगों में जाट का खून ठण्डा पड़ चुका है। जिन लोगों की घर में कदर नहीं या कदर करवाते नहीं वे सुबह से ही यहां ताशों पर जुट जाते हैं । ऐसे जाट, जाट कौम पर बोझ हैं। इन जाट भाइयों को वृद्ध आश्रमों में चले जाना चाहिए । ऐसा न हो कि ये जुआरीखाना न बन जाए और समय आते गलत कार्यों के अड्डे न बन जाएं । अभी तक भिवानी धर्मशाला में ताश खेलने की पाबन्दी है । इन धर्मशालाओं का उद्देश्य आरामगाह नहीं होना चाहिए बल्कि कौम के लिए चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श, पठन-पाठन व जाट महापुरुषों के जन्मदिन, शहीदी दिवस व निर्वाण दिवसों के समारोह आदि का आयोजन होना चाहिए । वरना इनका मूल उद्देश्य व्यर्थ होगा । केवल जाट शब्द लिखने या कहने से कोई हल नहीं है। इसी प्रकार जाट कौम के पूरे उत्तर भारत


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में अनेक स्कूल, कालेज हैं लेकिन वहां पर जाट कौम के इतिहास/ संस्कृति का कोई परिचय नहीं करवाया जाता । इसलिए उनका उद्देश्य भी पूर्ण नहीं है क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति का ज्ञान करवाना भा हमारा उद्देश्य होना चाहिए । वरना इसके परिणाम अभी गोत्र के मामलों में आ रहे हैं ।


इसलिए जाट कौम संकल्प ले कि वह दिल्ली में अपनी शक्ति का प्रतीक जाट भवन बनवाकर ही रहेगी ।


जाट बलवान - जय भगवान

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जाट कौम में गौत्र विवाद - जायज या नाजायज?

भारत वर्ष की विशेष पहचान सांस्कृतिक विभिन्नता से है । देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न समाज हैं जिनकी सामाजिक परम्परायें और संस्कृतियों में पूर्ण विभिन्नता है । उदाहरण के लिए दक्षिण के राज्यों में विशेषकर तमिलनाडू के हिन्दू समाज में अपनी बहिन, भुआ (बुआ) व मामे की लड़की/लड़के से विवाह करना उत्तम सम्बन्ध माना जाता है जबकि उत्तर भारत की स्थानीय जातियों में इनको भाई-बहन का दर्जा प्राप्त है । उत्तर पूर्वी राज्यों में सम्पत्ति की मालिक स्त्री है तो मेघालय में दूल्हे की बजाए दुल्हन बारात लेकर आती है । इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं लेकिन इसका मुख्य कारण दक्षिण व उत्तर-पूर्व की समाज मातृ-प्रधान संस्कृतियां हैं तो उत्तर भारत पितृ-प्रधान संस्कृति है । इसी का प्रमाण है कि दक्षिण भारतीय कोई भी कर्मचारी अपने परिवार को साथ रखने के समय अपनी मां की बजाए अपनी सास को साथ रखता है । इसी प्रकार हिन्दू धर्म में भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यताएं हैं जो एक-दूसरे के विपरीत हैं । हमें तो एक दूसरे की संस्कृतियां बहुत ही हैरान करने वाली लगती हैं लेकिन सभी को अपनी-अपनी संस्कृतियां प्रिय व सम्मानीय हैं । इसलिए भारतीय संविधान ने सभी को सुरक्षा का भरोसा दिलाया है ।


जाट कौम मुख्य तौर पर उत्तर भारत में रहती है । इसकी मूल सभ्यता, संस्कृति व पहचान चार बातों पर टिकी रही है - पंचायत, गौत्र, गांव और जमीन (कृषि) । इसे कृषि सभ्यता भी कहा जाता है । यही जाट कौम की पहचान है । संक्षेप में इतना ही कहना काफी होगा कि पंचायत प्रणाली मूल रूप से जाट कौम की उपज है और इसी पंचायत प्रणाली से आज के प्रजातन्त्र का विकास हुआ । इस सच्चाई के ठोस


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प्रमाण हैं । इसी पंचायत से खाप पंचायत का विकास हुआ । एक गौत्र के समूह के गांवों ने अपनी खाप पंचायत बनाई तो कम संख्या के गौत्र गांवों ने मिलकर अपनी खाप पंचायतें बनाई । एक खाप में चाहे कितने ही गौत्र हों उनका भाईचारा स्थाई होता है और उनके बच्चों का दर्जा आपसी सगे भाई बहन का होता है । यही जाट सभ्यता की एक बड़ी महानता है। उदाहरण के लिए हरयाणा में सांगवान खाप के 40 गांवों के कितलाना गांव में सांगवान गौत्र के कुल 80-85 परिवार हैं जबकि धायल और मलिक व कुछ अन्य गौत्रों के 400 परिवार हैं लेकिन कोई भी सांगवान जाट धायल व मालिक आदि जो इस गोत्र में हैं, इन गौत्रों की लड़की ब्याह कर नहीं ला सकता है, इसी प्रकार ये गौत्र-भाई सांगवान गौत्र की नहीं । इसी को जाट समाज में भाईचारा कहते हैं और मानते हैं ।


इन खापों को इकट्ठा करके जाट सम्राट हर्षवर्धन बैंस ने सन् 643 में सर्वखाप पंचायत का निर्माण किया । सर्वखाप क्षेत्र में रहने वाली दूसरी जातियां भी अपनी सुरक्षा हेतु इसमें सम्मिलित हो गईं जिसे आज सर्वजातीय खाप पंचायत भी कहने लगे । सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय आरम्भ से ही उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव सौरम में रहा है जहां इसका पर्याप्त इतिहास उपलब्ध है और इस मुख्यालय में बाबर व अकबर सरीखे बादशाह भी नतमस्तक हो चुके हैं । इस इतिहास पर कई पुस्तकें और शोध हो चुके हैं । सर्वखाप पंचायत की अपनी सेना थी और खुले न्यायालय थे । सन् 643 से सन् 1857 तक उत्तर भारत में कोई भी ऐसा युद्ध नहीं हुआ जिसमें सर्वखाप की पंचायती सेना ने भाग न लिया हो । इसी कारण सन् 1857 के बाद अंग्रेजों ने इस शक्ति को देखते हुए इस पर पाबन्दी लगाई जो सन् 1947 तक लागू रही । इस पंचायत के फैसले न्याय की कसौटी पर खरे होते थे । इस बात के भी प्रमाण उपलब्ध हैं अपने फैसले करवाने के लिए राजा और नवाब तक इन्हें बुलाते थे । सर्वखाप


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पंचायत का संविधान अलिखित और परम्पराओं पर आधारित है जैसे कि 300 सालों से इंग्लैण्ड का संविधान चला आ रहा है ।


राजस्थान की खापों का अन्त राजपूत राज आने पर हुआ । पंजाब में सिख धर्म आने पर इनका स्थान जत्थों और मोर्चों ने ले लिया जिसका असर फतेहाबाद और कुरुक्षेत्र तक पड़ा फिर भी आज लगभग 600 खापों का वर्चस्व कायम है । हिसार क्षेत्र के गांव 17वीं व 18वीं सदी में राजस्थान से आकर बसे जिनमें एक गोत्र नहीं, इसलिए खाप नहीं बन पाई । हालांकि जाटों के कुछ क्षेत्रों में आज खाप पंचायतें नहीं रही लेकिन जाटों की गौत्र प्रथा ज्यों की त्यों कायम है । यही जाट कौम की पहचान और ताकत है । यह संस्कृति समाप्त होने पर जाट कौम और रेलवे स्टेशन की भीड़ में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । जाट कौम की इस ताकत से सरकारें तथा दूसरे लोग अच्छी तरह परिचित हैं । हकीकत तो यह है कि सर्वखाप पंचायत, खाप पंचायत और गौत्रा प्रथा जाट-कौम की रीढ़ है । इसी रीढ़ को तोड़ने के लिए मानव अधिकारों के बहाने पंचकूला से ‘साहनी’ पंजाबी, खत्री सरीखे उच्च न्यायालय तक पहुंच गए हैं जिसमें कुछ जाट भाई भी मानव-अधिकार के ठेकेदार बनकर वाही-वाही लूटने के लिए अपनी अज्ञानता प्रदर्शित कर रहे हैं । ऐसे ही लोगों ने समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी रूप से जायज ठहराया जो सभी कृत्य पाश्विक वृत्तियों से भी निम्नतर हैं, और कुछ नहीं ।


जब लगभग सन् 1990 के बाद दूरदर्शन के प्राईवेट चैनलों की बाढ़ आई तो अधिक कमाई के चक्कर में इन्होंने अश्लील प्रसारण का सहारा लिया जिसका प्रभाव जाट बच्चों पर भी पड़ना लाजमी था । इसी समय से जाटों की हुक्का संस्कृति भी सिमट रही थी अर्थात् जाटों की नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति का ज्ञान कराने वालों का समाज में भारी अभाव हुआ जिस कारण नई पीढ़ी अपनी संस्कृति से कटती चली गई और वे भाई बहन के पवित्र रिश्ते को ही भूल बैठे ।


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दूसरी और ये कमाऊ चैनल इन रिश्तों को अन्धी वासना का खेल न कहकर इन भाई बहनों को प्रेमी युगल कहकर प्रचार करने लगे जिनका समाचार पत्रों ने भी पूरा साथ दिया । जाट समाज में भारत की किसी भी एक जाति से अधिक 4800 गौत्र हैं जिनमें से रिश्तों के लिए केवल दो या तीन गौत्र ही छोड़ने पड़ते हैं जबकि पाकिस्तान का मुसलमान जाट आज भी रिश्तों के लिए अपने मां-बाप का गौत्र छोड़ता है लेकिन हमारे यहां मानव अधिकार और इक्कीसवीं सदी का बहाना बनाकर हमारे जाट समाज को तोड़ने के लिए षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं जिसमें जाट विरोधी मीडिया अपना मुख्य पार्ट अदा कर रहा है । अब उसमें न्यायपालिका भी सम्मिलित हो गई है । जज, जो स्वयं अपने नाम के साथ गोत्र जोड़ रहा है फिर भी पूछता है कि गौत्र क्या होता हैं । ऐसे जजों को जज बनने का क्या अधिकार है जिन्हें अपने देश की संस्कृति का ही ज्ञान नहीं है ?


जब इस प्रकार जाट समाज का विघटन शुरू हुआ तो जाट समाज के प्रबुद्ध लोगों की बेचैनी बढ़ी और जाट खापें सक्रिय होने लगी । इन जाट खापों की कुछ पंचायतों में ऐसे मूर्ख पंच भी सम्मिलित होने लगे जो ऐसी शादियों की बरातों में शरीक थे और कन्यादान किया अर्थात् वे एक बहिन-भाई की शादी के दर्शक थे और फिर इन्होंने ऐसे फैसले दिए जिसमें बच्चे पैदा होने के बाद भी बहन-भाई का रिश्ता बनाने पर मजबूर करने लगे । यदि ऐसे फैसले नहीं हुए तो समाचार पत्रों में ऐसे खबरों का खापों को उसी समय खण्डन करना चाहिए था । लेकिन इन्हीं कारणों से जाट कौम की जग हंसाई होने लगी और इन फैसलों पर प्रश्न-चिन्ह लगने लगे । मीडिया इन्हें तालीबानी फतवे कहकर हवा देने लगा । मौके की ताक में बैठे दूसरे लोग अधिक सक्रिय हो गए तो बबली-मनोज जैसे हत्याकांड होने लगे लेकिन जाट समाज ने इस समस्या के लिए कोई स्थायी समाधान खोजने का प्रयत्न नहीं किया । परिणामस्वरूप आज जाट कौम का अस्तित्व खतरे में है ।


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सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि गौत्र प्रणाली स्पष्ट रूप से विज्ञान पर आधारित है जो हमारे जाट जीन्स को सक्रिय रखने के लिए अनिवार्य है । जिस धर्म या समाज में इस प्रथा का अभाव है उसमें प्रजनन शक्ति का भारी अभाव पाया गया । उदाहरण के लिए पारसी समाज जिनकी जनसंख्या सन् 1991 की जनसंख्या से 2001 की जनगणना में 3000 से भी अधिक घट गई जिसके लिए आज यह समाज चिन्तित है । दूसरा उदाहरण भारत में किसी विशेष एक धर्म के समूह के लोग मुश्किल से 20 प्रतिशत हैं लेकिन भारत के किन्नरों में इन लोगों की संख्या 70 प्रतिशत से भी अधिक है । वैज्ञानिक परीक्षणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि एक ही समूह में रहने वाले जंगली जानवरों में भी प्रजनन की भारी गिरावट आई है । उदाहरण के लिए अफ्रीका के जंगलों में एक ही समूह में रहने वाले शेरों के झुण्ड समाप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं जिसके लिए उपाय ढूंढे जा रहे हैं । संक्षेप में यही कहना है कि जाटों की गौत्र प्रथा विज्ञान पर आधारित है जिस पर जाट कौम को नाज होना चाहिए और जाटों को अपने अस्तित्व की रक्षा जी जान से करनी चाहिए ।


अभी-अभी दिनांक 18-5-90 के अंग्रेजी समाचार ‘दी ट्रिब्यून’ के पेज नं० 7 पर दयानन्द मैडिकल कॉलेज लुधियाना के डॉ० सोबती की रिपोर्ट विस्तार से छपी है कि पाकिस्तान से आने वाली खत्री जाति में थेलेशिमिया की बीमारी 7.5 प्रतिशत पाई गई जो सबसे अधिक है इसलिए इस जाति के लोगों को अन्तर्जातीय विवाह करने चाहिएं । याद रहे हमारी गौत्र/खाप प्रथा के विरोध में सबसे पहले सन् 2005 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में जाने वाले एक साहनी पंजाबी खत्री जाति के हैं । इनका तो बेड़ा गर्क हो रहा है और हमारे पीछे पड़े हैं ।


अभी प्रश्न यह है कि इसमें अवरोध क्या है? इसका एकमात्र बड़ा विरोध सन् 1955 में बना ‘हिन्दू विवाह कानून’ है जिसमें गौत्र


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का कोई भी प्रावधान नहीं है । इसके अनुसार सगे बहिन भाई के रिश्ते को भी ‘हिन्दू कोड’ वैध मानता है । इसी कारण दिल्ली हाईकोर्ट में 21 जून 2008 को एक सगोत्र विवाह को वैध ठहरा दिया गया । इसलिए हमारे समाज में जो इस प्रकार का गैर सामाजिक और हमारे अनुसार गैर धार्मिक कृत्य करता है और उन पर पुलिस प्रशासन जुल्म ढाता हैं न्यायालय हमारी पंचायतों के विरोध में फैसला देता है और जाट समाज मारा-मारा फिरता है जबकि मुख्य दोषी केवल ‘हिन्दू विवाह कानून’ है । यही जाट कौम का आज सबसे बड़ा दुश्मन है । अभी प्रश्न है कि इस दुश्मन से कैसे लड़ा जाए ?


हमें याद रखना होगा कि प्रजातन्त्र और कानून जनता की भलाई के लिए बने हैं । संविधान लोगों की संस्कृति और पहचान की सुरक्षा का विश्वास दिलाता है तो ‘हिन्दू कोड’ हमारी पहचान में रोड़ा क्यों ? इस हिन्दू कोड का मसौदा भी उन्हीं लोगों ने तैयार किया था जो अपनी बहन की लड़की को बीबी मानते हैं । इसी बीच किसी समाज में किसी करिश्मा कपूर से किसी संजय कपूर की शादी को वैध मानने वाले भी हैं । इसलिए इस समस्या का पहला और एकमात्र हल ‘हिन्दू कोड’ में संशोधन है । दूसरा हल अपना हमारे समाज का है जिसमें हमारे समाज की इन प्रथाओं को तोड़ने वालों को समाज से बाहर कर दिया जाए । इसमें केवल कसूरवार व इसमें सहयोग करने वालों को ही यह दंड दिया जाए दूसरों को नहीं चाहे उसके सगे भाई बहन व परिवार ही क्यों न हो । बेकसूर को दंड देना किसी भी न्याय की परिधि में नहीं है ।


इस हिन्दू विवाह कानून में गौत्र का प्रावधान करने के लिए हम उच्चतम न्यायालय में भी जा सकते हैं लेकिन ऐसे मामले में न्यायालयों में ज्यादा लम्बे खींच जाते हैं । इसलिए जाट समाज को भारतवर्ष की पंचायत (संसद) में जाना होगा । सर्वखाप पंचायत करके यह फैसला लिया जाए कि इस मुद्दे को कौन जाट सांसद


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उठाएगा जो इसका पूरा अध्ययन करके संसद में जाए । यदि इसके बाद भी सरकार जाट समाज की नहीं सुनती है तो इसका अर्थ होगा कि भारत सरकार जाट समाज के हितों, संस्कृति व पहचान की रक्षा करने में समर्थ नहीं है । इसलिए जाट समाज का इस प्रजातन्त्रा में रहने का कोई भी औचित्य नहीं रह जाता । इसी लिए जाट समाज को भारत सरकार को स्पष्ट तौर पर बगैर किसी हिचक व लाग-लपेट के कह देना चाहिए कि हमें अलग करो, हमें हमारी जमीन से अधिक कुछ नहीं चाहिए लेकिन हमारी जमीन पर जो भी है वह हमारा है चाहे संसद भवन ही क्यों न हो? इसके अतिरिक्त भी जाट कौम के पास अनेक चाबियां हैं जिन्हें कौम को इस्तेमाल करना चाहिए । ये सभी चाबियां सभी तालों पर सटीक लगेंगी । आवश्यकता केवल आत्मविश्वास और निडरता की है, लीपा पोती की नहीं ।


कुछ समय पहले हरयाणा के मुख्यमन्त्री चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने विश्वास दिलाया था कि वे संसद में संशोधन का प्रस्ताव लायेंगे । इसी प्रकार चौ० ओमप्रकाश चौटाला ने भी बयान दिया कि वे हरयाणा सदन में प्रस्ताव लायेंगे लेकिन दोनों ही अब पीछे हट गए हैं। इनको कम से कम लालू यादव, मुलायम यादव व शरद यादव से सीख लेनी चाहिए जो तीनों अलग-अलग पार्टियों में होने पर भी समाज की बात पर संसद में एक होकर मुखर रहते हैं ।


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हिन्दू विवाह कानून में संशोधन के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं

सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि गौत्र और खाप एक दूसरे के पूरक हैं । इसलिए इनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है । खाप व्यवस्था हरयाणा और यू.पी. के जाट बाहुल्य क्षेत्र में स्थापित है लेकिन सिरसा क्षेत्र में यह व्यवस्था नहीं क्योंकि ये गांव 17वीं व 18वीं सदी में राजस्थान से आकर स्थापित हुए थे और किसी एक गोत्र के गांव नहीं हैं । खाप और सर्वखाप सभी स्थानीय जातियों की है लेकिन जाट बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण ये केवल जाटों की प्रतीत होती हैं । खाप और सर्वखाप ने कभी भी किसी को मारने या शारीरिक कष्ट देने के लिए कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया । खाप केवल सामाजिक मान्यताओं का उल्लंघन करने वालों के विरोध में सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव पास करती हैं, जिस प्रकार सिख समाज में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी करती आई है या वकील समय-समय पर अपने न्यायालयों का बहिष्कार करते रहते हैं । खाप व जाट समाज किसी भी “ऑनर किलिंग” व हिंसा की पुरजोर भर्त्सना करता है । मीडिया को एक तरफी कहानी न लिखकर “ऑनर किलिंग” के कारणों का गहराई से अध्ययन करना चाहिए क्योंकि तथाकथित हिन्दू जाट समाज पूरे देश में ही नहीं पूरे संसार में एक बहुत बड़ा शाकाहारी समाज है जो अहिंसा में विश्वास करता है । लेकिन इनको तालिबानी कहना और लिखना एक गैर राष्ट्रीय कर्म है तथा वासना में वशीभूत युवकों को प्रेमी युगल कहना इस समाज और इसकी संस्कृति का अपमान है । जो जाट समगौत्र रिश्तों का समर्थन कर रहे हैं वे एक बहिष्कृत समूह हैं जिनका अपनी जड़ों से न कोई सम्बन्ध है और न ही ग्रामीण समाज में कोई आधार ।


गौत्र प्रथा विज्ञान पर आधारित है और एक हृष्ट-पुष्ट संतानों के लिए


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प्रमाणिक तथ्य है । जो जातियां इस व्यवस्था में विश्वास नहीं करती उनमें वंशानुगत त्रुटियां पाई गई हैं । उदाहरण के लिए पाकिस्तान से आने वाली खत्री जाति में थैलेसेमिया बीमारी का अधिक प्रकोप पाया गया जिस कारण दयानन्द मैडिकल कॉलेज लुधियाना के डॉक्टर सोबती ने इन्हें अन्तर्जातीय विवाहों की सलाह दी है जिसकी विस्तृत रिपोर्ट “दी ट्रिब्यून” दिनांक 18 मई 2010 को छपी है, जबकि जाट कौम में 4800 से अधिक गौत्र हैं जिसमें रिश्तों के लिए दो या तीन गौत्रों को छोड़ना एक अन्तर्जातीय विवाह से बढ़कर है । जाट समाज व स्थानीय जातियां किसी भी कीमत पर समगौत्र विवाह को स्वीकार नहीं करेगी इसलिए देर-सवेर सरकार को “हिन्दू विवाह कानून 1955” में संशोधन करना ही पड़ेगा । यदि सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो भविष्य में एक बहुत बड़े उपद्रव का सामना करना पड़ेगा । यह कोई धमकी नहीं है यह एक पूर्व अनुमान है क्योंकि विस्फोट के लिए सरकार स्वयं ही लावा तैयार कर रही है ।


यह सर्वविदित है कि समाज ही विधानपालिका का चुनाव करता है, जो कानून बनाती है । इसलिए समाज कानून से बड़ा है । इसलिए राजनेताओं को इस विषय पर किसी प्रकार की राजनीति न करके इस कानून में संशोधन करना चाहिए । यदि इसी प्रकार समाज विशेषकर जाट समाज की सरकार अनदेखी करती रही तो समस्त जाट समाज कुछ अलग से सोचने पर मजबूर होगा क्योंकि जो देश और धर्म जिस समाज की परम्पराओं व संस्कृति की सुरक्षा नहीं कर सकता उनको अपनाए रखने में कोई औचित्य नहीं है । जब देश के संविधान की धारा 29(1) जो देश के समाजों की संस्कृति की सुरक्षा का दावा तो करती लेकिन समाज व जाट समाज की संस्कृति को बचाए रखने में असहाय हैं तो वह संविधान और धर्म हमारे लिए किस काम का ? सरकार को फैसला करना होगा कि देश का संविधान बड़ा है या हिन्दू कानून ? वैसे हमारे देश को अहिंसावादी अर्थात् गांधी का देश कहा


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जाता है लेकिन देश का 63 साल का इतिहास कह रहा है कि किसी भी समाज की कोई भी मांग बगैर हिंसा के नहीं मानी गई है । सरकार देश में स्वयं ही विघटन के बीज बोती रही है फिर समझौते करती रही है । ऐसे अनेक उदाहरण हैं । विख्यात पत्राकार और लेखक खुशवन्तसिंह लिखते हैं, “पंचायती व्यवस्था जाट समाज की एक प्राचीन व्यवस्था है ।” इस व्यवस्था से ही आधुनिक लोकतन्त्र तथा पंचायती राज का जन्म हुआ है । इस बात के प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध हैं । हमें अपनी परम्पराओं को अधिक पारदर्शी, मजबूत और 21वीं सदी के अनुरूप बनाना होगा । गौत्र व्यवस्था हमारी छत्तीस बिरादरी की महिलाओं को गांव में अधिक सुरक्षा और मान मर्यादा प्रदान करती है ।


फिर ऐसे कौन से कारण हैं कि हमें हमारी इन स्वस्थ परम्पराओं को त्यागना पड़े ? इससे भी बढ़कर इस देश के सर्वोच्च न्यायालय की एक ज्यूरी ने दिनांक 11 दिसम्बर 1995 को अपना फैसला दिया कि हिन्दू कोई धर्म नहीं तो फिर ‘हिन्दू विवाह कानून-1955 की वैधता’ ही कहां है? फिर हिन्दू धर्म नहीं है तो हिन्दुत्व कैसे हुआ ? बगैर बाप के बेटा कैसे हुआ ? यदि हुआ तो वह गैरकानूनी है ।


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जाट कौम ने अपनों को किया पराया !

पाणिनि ऋषि ने हजारों साल पहले अपनी अष्टाध्यायी में लिखा- जट् झट् संघाते अर्थात् जाट बड़े जल्दी संघ बनाते हैं । उनका तात्पर्य यह था कि जाट अपनी चौधर (राजद) स्थापित करने के लिए बहुत जल्दी संगठित होते हैं । जाट एक अति प्राचीन कौम है जिससे अनेक जातियों का जन्म हुआ । इस बारे में विद्वान् इतिहासकार ए.एच. बिगले लिखते हैं - जाट शब्द की व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है । यह ऋग्वेद, पुराण और मनुस्मृति आदि अति प्राचीन ग्रन्थों से स्वतः सिद्ध है । यह तो वह वृक्ष है जिससे समय-समय पर जातियों की उत्पत्ति हुई ।


जाट जाति एक महान् शासक जाति रही, जिसकी बहादुरी का कोई सानी नहीं था। जिस पर राजस्थान इतिहास के रचयिता कर्नल जैम्स् टॉड लिखते हैं, उत्तरी भारत में जो जाट किसान खेती करते पाए जाते हैं वे उन्हीं जाटों के वंशज हैं जिन्होंने एक समय मध्य एशिया और यूरोप को हिलाकर रख दिया था । लेकिन इस महान् कौम की बड़ी दुश्मन आपसी फूट रही जिस पर यूनानी इतिहासकार हैरोडोट्स लिखते हैं - संसार में जाटों जैसा बहादुर कोई नहीं, बशर्ते इनमें एकता हो ।


जाट कौम ने केवल शासन ही नहीं किया इस संसार के अधिकतर लोगों को खाना-कमाना भी सिखाया था । जिस पर विद्वान् इतिहासकार शिवदास गुप्ता लिखते हैं, जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्कीस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्केण्डिनेविया, इंग्लैंड, ग्रीक, रोम व मिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज किया और वहां की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बना दिया । जाटों ने संसार की एक से एक बहादुर जातियों से केवल लोहा ही नहीं लिया बल्कि उनके विजेताओं को मौत के


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घाट भी उतारा । चाहे वह महान् सिकन्दर हो या मोहम्मद गौरी । संसार की एक बहादुर कौम हूण को हराने वाले भी जाट थे जिस पर चन्द्र व्याकरण में लिखा है अजयज्जटो हूणान् अर्थात् जाटों ने हूणों पर विजय पाई । जाट बुद्धि बल में भी सर्वोपरि रहे हैं जिस पर अंग्रेजी की पुस्तक राईज ऑफ ईस्लाम में लिखा है - गणित में शून्य का प्रयोग जाट अरब से यूरोप लाए थे । यूरोप के स्पेन तथा इटली की संस्कृति मोर जाटों की देन है । जाट संसार में महान् समाज सुधारक भी हुए हैं । अंग्रेजी की एक अन्य पुस्तक राईज ऑफ क्रिश्चियनिटी में लिखा है कैथोलिक धर्म में विधवा विवाह को मान्यता जाटों के यूरोप आगमन पर हुई । इस सम्पूर्ण सच्चाई को भारत के स्वर्गीय राष्ट्रपति जाकिर हुसैन ने इस प्रकार बयान किया -

जाटों का इतिहास भारत का इतिहास है और जाट रैजिमेंट का इतिहास भारतीय सेना का इतिहास है । पश्चिम में फ्रांस से पूर्व में चीन तक जाट बलवान जय भगवान का रणघोष गूंजता रहा है ।

जाट इतिहास की महानता पर पर्दा उठाते हुए हिन्दी समाचार पत्र ‘पंजाब केसरी’ ने अपने सम्पादकीय दिनांक 25 सितम्बर 2002 को लिखा - जाटों जैसा गौरवशाली इतिहास ढूंढने से भी नहीं मिलेगा । लेकिन इतिहासकारों ने इसे इतना तोड़-मरोड़ कर लिखा है कि शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है । क्या यह सब महज इत्तिफाक है? यह कोई इत्तिफाक नहीं, यह पूरा पौराणिकवाद की काली करतूत तथा जाट कौम की सरासर लापरवाही का ही परिणाम है।


सम्राट कनिष्क कुषाण वंशीय जाट थे जिनका पश्चिमी चीन तथा अफगानिस्तान तक राज था । सम्पूर्ण मौर्य वंशीय राज मोर जाटों का था तो गुप्त वंशीय राज धारण गोत्री जाटों का शासन था । गुप्ता इनको इसलिए कहा गया कि पहले इनकी पदवी गुप्ता, गुप्त, गुप्ती थी जो एक मिलिट्री गवर्नर की होती थी । इसी इतिहास के काल को


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भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है जो केवल जाटों की देन थी । लेकिन पौराणिकवादी इतिहासकारों ने जाटों के इतिहास को धूमिल करने के लिए इन जाट राजाओं को शूद्र तक लिख डाला । वास्तव में इस इतिहास का टर्निंग प्वाईंट सम्राट अशोक मोर के कनिष्ठ शासक पुत्र बृहद्रथ की हत्या उसी के विश्वासपात्र ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र द्वारा करने पर है जब पुष्यमित्र ने ब्राह्मण धर्म को राजकीय धर्म बनाकर बौद्ध धर्म के विनाश के लिए इसके विरोध में ब्राह्मण धर्म साहित्य की रचना हुई जिसमें सभी पुराण स्मृतियां व अनेक पाखण्डवादी ग्रंथों की रचना की गई । यहां तक कि गीता में भी बार-बार परिवर्तन किया गया। उसके बाद शशांक ब्राह्मण शासक ने तो जाटों के मठों को पूर्णतया तबाह कर दिया था जिसके लिए जाट आज तक कहता फिरता है - मठ मार दिया, मठ मार दिया । हालांकि बीच-बीच में जाटों को खुश करने के प्रयास भी होते रहे जिसमें देव संहिता जैसे ग्रंथ लिखकर जाटों की महानता गाई गई तथा जाटों की उत्पत्ति शिव की जटाओं से भी बतलाई गई लेकिन बाद में शंकराचार्यों की कूटनीति को साकार करने के लिए माऊंट आबू पर्वत (राजस्थान) पर बृहत् यज्ञ रचाकर जाटों से ही एक नई जाति अग्नि कुण्ड से राजपूत पैदा करने के बाद भी पौराणिकवाद को चैन नहीं पड़ा जबकि सच्चाई यह है कि न तो जटाओं से जाट पैदा हुए । जटाओं से तो केवल जूएं ही पैदा हो सकती हैं और न ही अग्नि कुण्ड से राजपूत पैदा हुए । अग्निकुण्ड से केवल राख ही पैदा हो सकती है । हालांकि कुछ निष्पक्ष इतिहासकारों ने मोर तथा गुप्तवंशीय राजाओं को जाट माना है जैसे कि डॉ० जे.पी. जायसवाल, विद्वान् दशरथ शर्मा व डॉ० एस.डी. गुप्त आदि ने । स्वर्गीय डॉ० बी.एस. दहिया ने जाटों के इस इतिहास पर विवेचनात्मक इतिहास दी जाट एन्सियंट रूलर्ज की रचना की । पाकिस्तान के करांची से चौ० उमर रसूल ने बताया कि इस इतिहास का पाकिस्तान में उर्दू में अनुवाद हो चुका है और वहां


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पाकिस्तान के जाटों में सरदार भगतसिंह, चौ० छोटूराम और डॉ० बी. एस. दहिया के इतिहास को प्रमुखता से याद किया जाता है । प्रमाणिक सत्य है कि चित्तौड़ के शासक गहलोत गोत्री जाट थे जो बलवंशी थे । एक बार सिसौद गांव को राजधानी बनाने पर इनका एक वंश सिसोदिया भी कहलाया । उदयपुर का राज भी इन्हीं गहलोत गौत्री जाटों का था । इसी वंश में बप्पा रावल तथा महाराणा प्रताप जैसे यौद्धा हुए । इसी वंश से यौद्धा सज्जन सिंह ने महाराष्ट्र में सतारा रियासत की स्थापना की और भौसलमेर पर कब्जा होने पर वहां यह खानदान भौंसले कहलाया जिसमें छत्रापति शिवाजी पैदा हुए । महायोद्धा शब्द से ही बिगड़कर वहां के मराठा शब्द की उत्पत्ति हुई । वहां भी पौराणिकवाद ने शिवाजी का पीछा नहीं छोड़ा और इन्हें बतलाया गया कि इतिहास इन्हें शूद्र लिखेगा इसलिए ब्राह्मणों की सलाह पर शिवाजी ने कांशी के ब्राह्मणों को बुलाकर उनके हाथ राजतिलक कराने के लिए 6 जून 1666 को रायगढ़ में ब्राह्मणों को चार करोड़ छब्बीस लाख रुपये रिश्वत के तौर पर दिए गए लेकिन फिर भी ब्राह्मणों के मुखिया गंगाभट्ट ने शिवाजी का राजतिलक अपने हाथ के अंगूठे की बजाए अपने पैर के अंगूठे से किया । यह सब होने पर भी आज तक जाटों ने बेचारे शिवाजी को जाट नहीं माना । इसी चित्तौड़ के गहलोत खानदान से समरसिंह के बेटे ने नेपाल में जाकर अपना राज स्थापित किया और राणा की पदवी धारण की जो वंश अभी तक चला आ रहा है जिसमें पिछले वर्षों मारा-मारी हुई थी । लेकिन जाटों ने अपने इस इतिहास पर न कभी विश्वास किया न ही गर्व ।


बड़े ही दुःख की बात है कि आज जाट शिक्षित होने पर भी यह कहते सुने गए हैं कि इस इतिहास के क्या प्रमाण हैं ? जबकि इस इतिहास के प्रमाण भारत से लेकर यूरोप तक बिखरे पड़े हैं । जाटों का दुर्भाग्य रहा कि इन्होंने कभी भी लेखकों का सम्मान नहीं किया इसलिए इनके इतिहास को संग्रहित करने के लिए कोई लेखक नहीं मिला


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जैसे कि राजपूत, मराठा और सिखों को मिले । इसी लिए आज शिक्षित जाट भी यह सवाल करते पाए जाते हैं कि राजा महेन्द्र प्रताप कौन थे? क्या राजा नाहरसिंह जाट थे ? आदि-आदि। राजस्थान इतिहास के रचयिता कर्नल जैम्स टॉड मानते हैं कि राजस्थान में राजपूत राज आने से पहले वहां जाटों का राज था क्योंकि राजपूत संघ बनने के लगभग 500 साल बाद राजपूत अपने आपको स्थापित कर पाए। दिल्ली में जब जाट राजा अनंगपाल तोमर का राज था जिनके कोई पुत्र नहीं था इसलिए गंगा स्नान जाने से पहले अपने दोहते पृथ्वीराज चौहान को राज संभलवा गए परन्तु उनकी वापिसी पर पृथ्वीराज ने राज देने से इनकार कर दिया जिस पर जाटों में आपस में भारी खून-खराब हुआ और इसमें कुछ तोमर और चौहान जाटों के दल पलवल और मथुरा के पास जाकर बसे जिनके आज वहां कई गांव हैं ।


अंग्रेजी की पुस्तक सरदार बल्लभ भाई पटेल में लिखा है कि गुजरात में सिद्धराज राजा का शासन था । वहां बार-बार खाद्य पदार्थों की कमी पर बारहवीं शताब्दी में दोआबा (उत्तर प्रदेश) से 1800 जाट किसान परिवारों को गुजरात के कर्मसाद क्षेत्र में छोटे-छोटे बारह गांव बनाकर तथा जमीन पट्टे पर देकर बसाया जिस पर ये जाट पट्टीदार से पटेल कहलाए और इन्हीं में से एक परिवार सरदार पटेल के पूर्वजों का था । लेकिन जाटों ने पटेल को कभी जाट नहीं माना फिर भी गूजर भाइयों ने उन्हें अपनाने की कोशिश की है । अंग्रेजी की पुस्तक मुगल इम्पायर इन इण्डिया में साफ-साफ लिखा है - दूसरी पानीपत की लड़ाई के योद्धा हेमू का असली नाम बसन्तराय था जो अलवर क्षेत्र में तिजारा के पास देवती गांव का रहने वाले जाट जमींदार प्रणपाल का लड़का था । लेकिन लोगों ने इसे बनिया व बकाल तक लिख डाला । ब्राह्मणों ने इसे ब्राह्मण भी घोषित करने का प्रयास किया जिसने एक महीने तक दिल्ली पर शासन करके


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विक्रमादित्य की पदवी धारण की थी लेकिन जाटों ने कभी इनको जाट नहीं कहा । ऐसे अनेक उदाहरण हैं।


जब मोर वंशीय, गुप्त वंशीय (धरण) शासकों तथा बैंस वंशीय हर्षवर्धन (जाट सम्राट्) को पौराणिकवादी इतिहासकारों ने इन्हें शूद्र लिख दिया तो स्वाभिमानी जाट कौम अपनी अज्ञानता से पीछे हट गई और इन्हें शूद्र वर्ण की जातियों ने अपनाना आरम्भ कर दिया। इसी का उदाहरण है कि बहुजन समाज पार्टी तथा दलितों का गैर राजनीतिक संगठन बामसेफ के मंचों पर छत्रपति शिवाजी का चित्र लगाकर लोग भाषणों में कहने लगे कि इनका ढाई हजार साल पहले भी अपना शासन था और फिर से अपना शासन लाएंगे । उन्हें कौन समझाए कि यदि चन्द्रगुप्त मौर्य शूद्र जाति के होते तो कैसे कट्टर ब्राह्मण चाणक्य उनको सम्राट् स्थापित करके उस शूद्र के अधीन मंत्री पद स्वीकार करते ? चाणक्य नीति के तहत ही चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्पूर्ण राज में सभी गांवों से शूद्र जाति के लोगों को अछूत मानकर गांव से बाहर एक किनारे बसाया गया । सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य या अन्य कोई भी शासक अपने वर्ग के लोगों को इस प्रकार कैसे अपमानित करवा सकता था? यह वह काल था जब छुआछूत अपनी चरम सीमा की तरफ अग्रसर था । इसी प्रकार महाराष्ट्र का कट्टर ब्राह्मण समाज जिसमें ठाकरे खानदार के पूर्वज भी सम्मिलित थे, किस प्रकार एक शूद्र छत्रपति शिवाजी के अधीन मन्त्री व नौकरी चाकरी करते और आज तक छत्रापति शिवजी के नाम से शिव सेना का गठन करके उन्हीं के नाम से राजनीति करते रहे ? इन्हीं कट्टर ब्राह्मणों ने तो कभी अम्बेडकर को स्कूल में भी नहीं घुसने दिया तथा न ही संस्कृत पढ़ने दी थी । इन्हीं कारणों से बाबा ज्योतिबा फूले को आंदोलन तक चलाना पड़ा था ।


परन्तु खेद है कि आज पाणिनि ऋषि के सूत्र जट् झट् संघाते के विपरीत जाट कौम अपने चरम बिखराव पर है । क्योंकि


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इनमें अपने इतिहास का ज्ञान न होने तथा पूर्वजों पर विश्वास न होने के कारण अनेक विचार तथा धारणाएं बन चुकी हैं । हिन्दू जाट दूसरे धर्म के जाटों को जाट ही नहीं मानते जबकि उन्हीं में जाति विरोधी अनेक विचारधाराएं पैदा हुईं जैसे कि आर्यसमाजी, साम्यवादी, राधा स्वामी, निरंकारी, ब्रह्माकुमारी आदि जो आज जाति को ही मानने को तैयार नहीं, तो फिर कौम का भला भी कैसे होगा ? जबकि वास्तव में हिन्दू जाट आज बहुत बड़ा पाखण्डवादी होता जा रहा है । सिख जाट अपने को सर्वश्रेष्ठ मानता है तो यू.पी. का जाट सिख जाट को मानने को तैयार नहीं । हरयाणा का जाट अपने आपको और भी पक्का जाट समझता है तो राजस्थान के जाट को दोयम दर्जा समझता है । मुस्लिम जाट भाई जो उसी खून का है, तथाकथित हिन्दू जाट उसे अपना मानने को तैयार नहीं । पंजाब में उग्रवाद के समय सिख जाट से दूरी बढ़ी, इसका कारण सिखों के विरोध में दुष्प्रचार था । अल्पसंख्या में रहने वाले जे एण्ड के, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार व आंध्रप्रदेश आदि के जाट की तो कोई पूछ ही नहीं करता । न ही उन्हें पता कि इन राज्यों में भी उनके भाई रहते हैं । हिन्दू जाट को तो शायद पता ही नहीं कि इसी देश में बौद्ध, जैन, ईसाई और मुस्लिम धर्मी जाट भी हैं । हमें याद रखना होगा कि जाट केवल जाट है चाहे वह किसी भी धर्म व पंथ का मानने वाला क्यों न हो । क्योंकि यह खून का रिश्ता है और यह रिश्ता दुनिया में सबसे बड़ा माना गया है । जाट की मूल भावना समानता पर आधरित है जो गणतन्त्र की पक्षधर है । भविष्य में इस कौम को बचाना है तो हमें आपसी भाईचारा और सौहार्द बनाना ही होगा अन्यथा इसके अलावा कोई चारा नहीं । इसलिए गर्व से कहो और समझो कि हम सभी जाट हैं । अपनों को अपनाओ और उन्हें पराया मत जानो । सम्पूर्ण जानकारी के लिए मेरी पुस्तक असली लुटेरे कौन? का छठा संस्करण अवश्य पढ़ें ।


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धर्म-निरपेक्ष जाट कौम ब्राह्मणवाद की चपेट में

पाखण्डवाद का अभिप्राय ब्राह्मण जाति से नहीं है । इसका अभिप्राय अन्धविश्वास, आस्था और धर्म के नाम पर शोषण से है । ईश्वर और प्रकृति के रहस्य के शोषणकारियों से है जो सदियों से समाज का शोषण करके अपनी जीविका ही नहीं चलाते आये अपितु ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करते रहे । ये अधर्म पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है । देश की हजारों साल की गुलामी का कारण इसी अधर्म के नाम पर पाखण्ड और अन्धविश्वास था। धर्म के नाम पर मन्दिरों में अथाह सोने-चांदी के भण्डार व विपुल सम्पत्ति इक्ट्ठी की गई जिसकी प्रसिद्धि मध्य एशिया और यूरोप तक फैल चुकी थी । इसी कारण भारत को सोने की चिड़िया कहा गया । इसी विपुल सम्पत्ति ने बाहरी आक्रमणकारियों को आकर्षित किया था जिसमें सबसे पहला आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम था जिसे सन् 712 में सिन्ध की आलौर रियासत के मन्दिरों में सोने चांदी के भण्डार मिले । तत्कालीन औलार के राजा दाहिर ब्राह्मण के हारने का एकमात्र कारण भी मन्दिर ही था । स्वयं मन्दिर के पुजारियों ने लड़ाई के मैदान के पास के मन्दिर का झण्डा लालच के तहत हटाये जाने पर आलौर की हिन्दू सेना ने आठ दिन की लड़ाई के बाद मैदान छोड़ दिया । सन् 1026 में मोहम्मद गजनी सोमनाथ के मन्दिर को लूटने आया तो वहां के तत्कालीन हिन्दू राजा भीमदेव ने गजनी को संदेश भिजवाया कि वह जितना चाहे सोना-चांदी ले ले लेकिन मन्दिर में तोड़-फोड़ न करे । इसके उत्तर में गजनी ने कहा था कि वह सौदागर नहीं, मूर्तिभंजक है जिसका फैसला उसकी तलवार करती है । इस पर मन्दिर के मुख्य पुजारी ने राजा को विश्वास दिलाया कि गजनी की सेना मन्दिर में प्रवेश करते ही अंधी हो जायेगी लेकिन वही हुआ जो अंधविश्वास


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में होता है । गजनी ने सोमनाथ मन्दिर को जी भरकर लूटा और तहस नहस कर दिया। यही इतिहास मथुरा और काशी आदि के मन्दिरों का है । जब आक्रमणकारियों ने इस देश की इस कमजोरी को भांप लिया तो उनमें से कुछ ने यहां पर स्थायी रूप से अपने राज स्थापित कर लिये । याद रहे इन आक्रमणकारियों से लोहा लेने वाले केवल सिंध, पंजाब, भरतपुर और मथुरा के जाट ही थे जिनके बारे में अहमदशाह अब्दाली ने जाटों के विरोध में अपनी दुःख भरी टिप्पणी की थी - जितनी बार मैंने भारत पर आक्रमण किया पंजाब के खतरनाक जाटों ने मेरा मुकाबला किया । आगरा, मथुरा व भरतपुर के जाट तो मेरे लिए नुकीले कांटे सिद्ध हुए । जो इतिहासकार आपसी फूट का रोना रोते हैं उसमें बहुत कम सच्चाई है ।


जाट सम्राट अशोक मौर्य की मृत्यु के पश्चात् उनका कनिष्ठ पुत्र बृहद्रथ राजगद्दी पर बैठा तो उनके ही विश्वासपात्र ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने धोखे से उनकी हत्या करवाकर सत्ता हथिया ली । याद रहे बौद्ध धर्म के संस्थापक व मुख्य प्रचारक व प्रसारक जाट ही थे । महाराजा हर्षवर्धन बैंस जाटों के आखिरी बौद्ध राजा थे । ये स्वाभाविक था कि जब जाट राजा बौद्ध थे तो जाट प्रजा भी बौद्ध धर्म की अनुयायी थी । इसका प्रमाण आज भी जाट समाज में स्पष्ट है कि किसी भी जाट की हानि व नुकसान होने पर वह सपाट से कहता है मठ मार दिया । अर्थात् जाट अपने बौद्ध धर्म के प्रतीक मठ को आज भी जीवित स्वरूप ही समझता है । पुष्यमित्र ब्राह्मण ने बृहद्रथ की हत्या बौद्ध धर्म के सर्वनाश के लिए ही की थी ताकि ब्राह्मण धर्म की पुनः स्थापना की जा सके । इसी पुष्यमित्र के समय से ही अधिक मन-घड़न्त पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की गई जिसमें गरुड़ पुराण और स्कन्द पुराण प्रमुख हैं । स्कन्द पुराण की शिक्षा है कि विधवा का पुनर्विवाह अधर्म है जिसको जाट कौम ने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि बौद्ध धर्म में विधवा विवाह को शुद्ध धार्मिक


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कृत्य माना गया था । इसी कारण जाट कौम को शूद्र घोषित कर दिया गया तथा इसी प्रकार जाट बौद्ध राजाओं को भी । गरूड़ पुराण पूरे का पूरा ईश्वर और प्रकृति के रहस्य का शोषणकारी ग्रन्थ है जिसमें कहा गया है कि अपने पूर्वजों को स्वर्ग भेजना है तो ब्राह्मणों को गाय दान करो और गंगा में ब्राह्मण के हाथ मृतकों का पिंड दान करो, आदि-आदि । अर्थात् स्वर्ग के सब्जबाग दिखाकर सरेआम जनता को लूटा जाता रहा है । इसी कड़ी में ब्राह्मण और गाय को अवध्य घोषित किया और यहां तक लिख डाला कि ब्राह्मण चाहे कैसा भी अपराध क्यों न करे वह मृत्यु दण्ड का भागी नहीं होगा । इस तथ्य को मंडल कमीशन ने भी अपनी रिपोर्ट में दोहराया है ।


जाट कौम ने इस पाखण्डवाद का विरोध सदियों तक किया और कभी हार नहीं मानी लेकिन इसके लिए जाट कौम को अपने इतिहास तक का बलिदान देना पड़ा । इसी पाखण्डवाद ने पहले प्रचार किया कि कलियुग में कोई क्षत्रिय वर्ण नहीं होगा लेकिन जब इस पाखण्डवाद को अपनी दुकान बंद होती नजर आई तो इन्होंने आठवीं सदी के प्रारम्भ में माउंट आबू पर्वत (राज.) पर बृहत् यज्ञ रचाकर अग्नि के सम्मुख चार जाटों को खड़ा करके घोषणा कर दी कि अग्नि कुण्ड से राजपूत (क्षत्रिय) वर्ण ने जन्म ले लिया है जबकि अग्नि से क्षत्रिय तो क्या एक चींटी तक भी पैदा नहीं की जा सकती । इस पाखण्डवाद के विरोध में जाट कौम ने सदियों से संघर्ष करने के बाद भी आखिरकार आज अपने हथियार डाल दिये हैं । इसी का परिणाम है कि आज इस बहादुर जाट कौम के नौजवान शेर पागलों की तरह कंधों पर कांवड़ उठाये घूम रहे हैं और रास्तों में गाड़ियों के नीचे कुत्ते, बिल्लियों की तरह कुचले जा रहे हैं वरना कभी इन्हीं के पूर्वजों ने आक्रमणकारियों और पाखण्डियों को कुचला था । जौत की जमीन रही नहीं और रोजगार मिला नहीं तो शादी हुई नहीं तो फिर इन्हें बहकाया गया कि कावड़ लाओ दुल्हन आएगी । शायद इन्हें पता नहीं दुल्हनों की


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हत्या तो पेट में ही हो गई थी । कुछ गांजा, चरस और भांग का लुत्फ उठाने जाते हैं तो कुछ शिविरों में हलवा, पूरी खाने जाते हैं । वरना क्या कभी किसी चावला, खन्ना, खुराना, सिन्हा, सक्सेना, आडवाणी व अम्बानी को कावड़ लाते देखा है? एक अनुमान के अनुसार हर साल औसतन आठ लाख जाट यह पागलपन कर रहे हैं जिसमें औसतन एक कावड़िया लगभग 5 हजार तक खर्च करके प्रति वर्ष जाट कौम का 40 करोड़ रुपया सरेआम बर्बाद किया जा रहा है । यह कार्य लगभग 15 सालों से चल रहा है और बढ़ता ही जा रहा है । जिन जाटों के पास किसी कारण से आज पैसा आ गया वे इन कावड़ियों के लिए शिविर लगाकर अपनी ही कौम को धर्म के नाम पर बर्बादी की तरपफ धकेल रहे हैं । पिछले वर्ष दिल्ली के एक धनाढ्य जाट से मुझे किसी कार्य से मिलना था तो पता चला कि वे हरिद्वार में कावड़ियों के लिए शिविर लगाने गये हैं कुछ दिन बाद दोबारा पता किया तो बतलाया गया कि वह मथुरा की परिक्रमा के लिए शिविर लगाने गये हैं । मैंने उसे टेलीफोन पर कहा था कि यह आस्था नहीं, पागलपन है इससे अच्छा तो कौम के चार होशियार गरीब बच्चों को अपनाकर दिल्ली में पढ़ाकर और कोचिंग दिलाकर आई.ए.एस. बना देते तो देश के चार जिलों पर हमारा प्रशासनिक कब्जा हो जाता लेकिन ये पैसे वाले जाट भी कौम को बर्बाद करने में अग्रणी हैं ।


पूरे भारत से प्रतिदिन औसतन तीन हजार जाट अपने मृतकों का पिंड दान कराने गंगा जाते हैं जिसमें प्रति मृतक कम से कम दो हजार रुपये खर्चा आता है अर्थात् लगभग दो अरब रुपया सरेआम प्रतिवर्ष अंधविश्वास की भेंट चढ़ रहा है लेकिन खुशी है कि कई गांवों के जाट इस कुप्रथा से दूर हैं । इसी प्रकार सम्पूर्ण जाट समाज में प्रतिवर्ष एक लाख से भी अधिक मृत्यु भोज होते हैं अर्थात् जाटों को भी मरे पर खाने की लत लग गई है जिसमें औसतन प्रति भोज पर 50 हजार


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रुपया खर्च होता है जो लगभग 5 अरब रुपये बनता है । यह सारी पैसों की बर्बादी झूठे धर्म और स्वर्ग के नाम पर भेंट चढ़ जाती है जबकि प्रत्येक मरने वाले के नाम से पहले स्वर्गीय लिखा जाता है (चाहे खर्च करो या न करो) तो फिर नरक है ही कहां ? जो कुछ भी है वह इसी धरती पर है । राजस्थान तथा दक्षिण हरयाणा इस कुप्रथा में अग्रणी हैं ।


अभी लगभग 20 वर्ष से केवल हरयाणा में 5130 जाट बाहुल्य गांवों में लगभग 12000 मंदिर बन चुके हैं जिन पर कुल लगभग 3 अरब 60 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं । अभी गांवों में पान्नावार (मोहल्लावार) होड़ लगी है कि कौन कितना ऊंचा मन्दिर बनवाता है ? बाद में इसी मन्दिर में एक पाखंडी को रोजगार दिया जाता है जबकि जाटों के खुद के बच्चे बेरोजगार हैं । यही पाखण्डी गांवों की औरतों को बहकाता व फुसलाता है, अंधविश्वास फैलाता है और पता नहीं क्या कुछ करता होगा? अपने बच्चों को स्कूल में बैठने के लिए टाट नहीं लेकिन मन्दिर का पंडा पंखे नीचे बैठ कर हमारे बच्चों की जन्म-पत्री बना रहा है जबकि स्वयं उनके बच्चे विधवा और विधुर हो रहे हैं लेकिन फिर भी हमारे बच्चों की जन्म-पत्री में हमारा वर्ण शूद्र लिखता है । याद करो हमारे पूर्वज और हम भी आज हर बुराई के लिए बोलते हैं ‘पंडा छोड़ो और छुड़वाओ’ यह पंडा शब्द इसी पाखण्डी के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है जबकि हम इसी पंडे को आज अपने घर लेकर आ रहे हैं और ये भूल जाते हैं कि कृष्ण और कंस की एक ही राशि थी तो ओबामा और ओसामा की भी एक ही राशि है ।


यही पाखंडी प्रचार करता है कि ईश्वर बड़ा दयालु है ताकि लोग अधिक से अधिक दान करें लेकिन वही इनका दयालु ईश्वर किसान की 6 महीने की खून पसीने की कमाई पर ओला वृष्टि कर या सूखा या बाढ़ से देखते ही देखते मिट्टी में मिला देता है तो तीर्थयात्रा पर निकले लोग रोजाना दुर्घटनाओं में मर रहे हैं तो फिर ईश्वर दयालु


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कहां ? फिर ये पाखंडी समाज को डराने लग जाते हैं कि ईश्वर गुस्से में है और निर्दयी हो गया है इसलिए और दान-पुण्य करो । यदि ईश्वर निर्दयी होता तो उसे यह सृष्टि रचने की आवश्यकता क्या थी ? इस प्रकार ये पाखंडी लोग धर्म दान का प्रलोभन देकर ईश्वर को गुलाम बनाने में लगे रहते हैं जबकि ईश्वर का इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है । वह न तो दयालु है और न ही निर्दयी । वह केवल अपना काम करता है सृष्टि को चलाता है और इसके सिस्टम को कंट्रोल करता है । इन पाखंडों से उसका कोई लेना-देना नहीं । क्या ईश्वर हमारी भलाई के लिए इन पंडों को रिश्वत देने की मांग करेगा ? कभी नहीं ! मांगने वाले को भिखारी कहा जाता है । मन्दिरों में बैठ कर दान मांगने वाला भी भिखारी है और मन्दिर में दान के बदले समृद्धि मांगने वाला भी भिखारी है । यह केवल भिखारी से भिखारी का मिलन है।


आज के इक्कीसवीं सदी में उद्योग जगत इतनी उन्नति करने के बाद भी पाखंडवाद का उद्योग इस देश में सबसे बड़ा उद्योग है। भारतवर्ष के 25 लाख मन्दिरों में एक करोड़ तीन लाख पंडे इस उद्योग को चला रहा हैं जिसके कर दाता हम कई करोड़ हैं । वरना हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया था - आत्मा ही परमात्मा है । फिर ये तीसरा एजेंट/दलाल कहां से आ गया ? हल जोतने से पहले बैलों व ऊंटों को वे कहते थे ले राम का नाम' या अल्लाह' या रब का और वे सभी कार्य इसी प्रकार शुरु करते थे लेकिन आज का जाट जागरणों में तालियां पीटता फिरता है या एक धाम से दूसरे धाम गाड़ियां लेकर दौड़ता रहता है । वह भूल गया है कि उसके गांव का कुल देवता किसी भी काश्मीर का खील भवानी का मन्दिर, जम्मू कटरा का वैष्णों देवी, रघुनाथ व परमण्डल मन्दिर, राजस्थान के सालासर, खाटू श्याम, मेहन्दीपुर के धाम, गोहाटी का कामाख्या मन्दिर जहां रोजाना भेड़ बकरियों की बलि दी जाती है, उड़ीसा का जगन्नाथपुरी मन्दिर, आंध्र प्रदेश का तिरूपति मन्दिर तथा मदुराई व कन्याकुमारी के मन्दिरों


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से अधिक पवित्र और शक्तिशाली देव है । क्योंकि इन गांवों के कुल देवताओं के साथ हम सीधे तौर पर मिलते हैं बीच में कोई एजेंट और दलाल की आवश्यकता नहीं होती इसलिए आस्था ही रखनी है तो अपने इन गांवों के कुल देवताओं से बड़ी आस्था हो ही नहीं सकती । इन भिखारियों की दलाली की सिफारिश से तो कभी नहीं । आज इसी पाखंडवाद का परिणाम है कि जाटों के घरों में अपने स्वर्गीय माता-पिताओं, पूर्वजों और जाट महापुरुषों के चित्रों की बजाय उन धार्मिक मठाधीशों के चित्रा मिलेंगे जिनका परिवार ने नाम दान ले रखा है । जबकि इन मठाधीशों के खानदान, जात-पात, गोत्र-नात धर्म कर्म आदि का कोई पता नहीं होता । यदि किसी जाट के घर अपने चहेते राजनीतिज्ञ के साथ अपना चित्र खिंचवाकर लगा देता है तो वह अपने को धन्य समझता है । जबकि हमको जिन्होंने इस धरती पर आने का मौका दिया, पहचान दी और सिर छुपाने के लिए झोपड़ी दी उन्हें भुला दिया गया । जबकि जाट कौम ने हमेशा से ही चित्र की बजाय चरित्र को अधिक महत्त्व दिया था । यदि हम आस्था के नाम पर पाखंडवाद पर खर्च करने वाले अरबों रुपयों को बचा लें तो एक ही वर्ष में दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से बड़ा ‘जाट भवन’ तथा प्रतिवर्ष कई जाट मैडिकल कॉलेज व इंजीनियरिंग कॉलेज तथा गांवों में सैकड़ों स्टेडियम बना सकते हैं । लेकिन आज जाट कौम इस पाखण्डवाद की चपेट में आ गई और इसके शोर शराबे में कुछ भी सुनाई/दिखाई नहीं दे रहा है । जाट कौम संसार की सबसे अधिक निरपेक्ष कौम रही है । याद रहे पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमन्त्री चौधरी लियाकत अली खां मढ़ान गोत्र के जाट थे । वर्तमान में चौधरी सुजेत हुसैन मुस्लिम लीग कायदे आजम पार्टी के प्रधान भराईच गोत्र के जाट हैं । पंजाब के मुख्यमन्त्री सरदार प्रकाश सिंह बादल ढिल्लो गोत्र के जाट हैं तो भूपेन्द्र सिंह हुड्डा हिन्दू जाट हैं । वर्तमान में प्रसिद्ध जैन साधु उपेन्द्र मुनि रिढाना गांव के नरवाल गोत्री जाट हैं तो पलवल के


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डॉ० धर्मचन्द्र विद्यालंकार कुण्डू गोत्री जाट बौद्ध धर्मी हैं । इसलिए चौ० छोटूराम ने कहा था कि धर्म बदलने से आदमी की जाति की चारित्रिक विशेषताएं अर्थात् खून नहीं बदलता चाहे वह एक दिन में तीन बार धर्म बदली क्यों न करे । इस तरह से जाट हमेशा से धर्म निरपेक्ष रहा है व आडम्बरों व पाखण्डों से हमेशा दूर रहा है । यहां तक कि अंधविश्वासों को जड़मूल से नष्ट कर नेस्तानाबूद करने में देर नहीं लगाता था ।


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