Patanjali Ke Jartagana or Jnatrika Kaun The
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(Who are Jartas or Jnatrikas of Patanjali ?)
Author: Dharmchandra Vidyalankar
[p.14]: ऋग्वेद की प्रथम ॠचा यही कहती है कि - "अन्गिनीड़े पुरोहितम् होतारम् रत्नधातमम्. अर्थात मैं रत्नों को धारण करने वाला याज्ञिक या पुरोहित सर्वप्रथम अग्निदेव की ही उपासना अनन्य भाव से करता हूं. होता का ही अर्थ बाद में पुरोहित हो गया है. वरना आरंभ में वह गृहपति-यज्ञमान ही रहा होगा. जो कि धन-धान्य से परिपूर्ण था. तभी तो वह अपने मन पर रत्नों और धातुओं को धारण कर सकता था. परंतु बाद की वैदिक ॠचाओं में होतारम् के स्थान पर जाने क्यों जरितारम् शब्द ही मिलता है. उसका भी अर्थ आर्य पुरोहित ने परवर्ती काल में वही कर दिया था.
जबकि प्रथम वैदिक व्याकरणकार यास्चाकार्य ने जरित की बजाय ॠत् विशेषण का ही प्रयोग कृषक यजमानों के लिए किया है. तभी डॉक्टर अतलसिंह खोखर जैसे वेदवेताओं ने उन्हीं की नियुक्ति को उपयुक्त मान्य किया है. जिसके अनुसार ॠतु इसी कृषिकर्म तं जनयाति इति जरिता:. अर्थात जो लोग अपना श्रम स्वेद् बहाकर कृषि व्यवसाय में सतत रूप से संलग्न थे, बस वही जरित थे. अर्थात स्वर्ण शस्य उगाकर अन्न का उत्पादन वही जरित जन-गण करते थे. जबकि कई अन्य आर्य वेद भाष्यकारों ने ॠत् का अर्थ किंवा शाश्वत सत्य भी किया है. जिनमें स्वामी दयानंद सरस्वती भी शामिल हैं. वे योगिक अर्थ-प्रक्रिया को अपनाकर प्रत्येक वैदिक वचन का निर्वचन केवल आध्यात्मिक ही करते हैं. बावजूद इसके कि वही वेदों को ही सारे ज्ञान और विज्ञान का मूलोत्स भी मनु (सुमति भार्गव) की ही भांति मानते हैं. जैसा कि मनुस्मृति की यह सूक्ति है- "वेदोअखिलो धर्ममूलं, सर्वज्ञान भयो हि स:".
मजे की बात यह है कि जब मनु ने भी यह विधान या व्यवस्था दी है कि- "इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपजृभ्येत्" अर्थात ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों सहित भी वैदिक मंत्रों की विस्तृत व्याख्या संभव है. परंतु स्वामी दयानंद जैसे वेदभाष्यकार भले ही वेदों में ही सारे ज्ञान-विज्ञान का भंडार खोजते रहे हों, तथापि वे उसके अंतर्निहित ऐतिहासिक उदाहरणों की घनघोर उपेक्षा ही करते हैं. यथा वे इंद्र का अर्थ केवल बादलों के घनघोर गर्जन से ही ग्रहण करते हैं तो उनके लिए मरूद्गण केवल आयु के ही नाना विशेषण ही हैं. जबकि वैदिक इंद्र आर्यों का वरुण देव के पश्चात दूसरा शासक ही है. जो कि संभवत: मकवाना के मरुस्थल (मध्य एशिया) की ओर से चलकर ही इधर आया होगा क्योंकि उसका एक अपर नाम हमें वेद में मघवन् भी मिलता है; जिसका अर्थ धनवान ही वेद भाष्यकारों ने किया है. उसी का एक नाम पुरंदर या आखंडल भी है जोकि हरियूपिया (हड़प्पा) के पुरों या नगरों किंवा दुर्गों का ध्वंसन करने के ही कारण पड़ा होगा.
वर्तमान में भी हमें गुजरात के दलितों में मकवाना जैसे कुलनाम मिलते हैं तो महाराष्ट्र के ब्राह्मणों में भी हमें पुरंदरे जैसे वंशवाची विशेषण उपलब्ध होते हैं. अतः इस विषय में प्रथम वैदिक वैयाकरण यास्काचार्य कहीं अधिक व्यवहारिक हमें प्रतीत होते हैं, क्योंकि उन्होंने ही वेद भाष्यकारों की एक कोटि इतिहासकारों की भी मान्य की है. उन्होंने स्पष्टत: यह निर्देश इस विषय में किया है-
- 'इति ऐतिहासिक': अर्थात वेदों में इतिहास भी आर्यों के आगमन का अंतर्समाहित है.
महर्षि यास्काचार्य ने ही तो जरितों किंवा जर्तों को ही गर्तास्यु भी बताया है; अर्थात वही जर्तगण भूतल में भवन बना कर भी नित्य निवास किया करते हैं. मध्यपूर्व के जार्डन (जर्तायन) जैसे देश के प्रेत (प्रेटा) नामक नगर में ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्राब्दी के ऐसे ही शैलाश्रय उत्खनन में मिले हैं. जिनमें विधिवत रूप से ही पर्वत मालाओं को काट-काट कर भव्य स्तम्भ-संयुक्त विशाल गृह और आवास भवन बनाए हुए हैं. यह स्थान वर्तमान में मानव की आदिम भवन संबंधी संरचना है.
लगभग उसी काल के यास्काचार्य यही हमें बता रहे हैं कि जर्त या जाट लोग ही भूतल में घर बना कर रहा करते थे.
सीरिया में जिस हयूक-सभ्यता किंवा असुर सभ्यता का पूर्ण परिचय पुरातत्वविदों को मिलता है, उसमें भी कच्ची मिट्टी के ही घर भूतल में निर्मित मिले हैं. असुर अवनिपाल जोकि असुरों का प्रथम प्रसिद्ध शासक माना जाता है, उसी के वीर वंशज हमें वर्तमान में बेनीवाल जैसे कुल नामधारी लोग दलितों से लेकर जाटों तक में मिलते हैं. बल्कि कश्मीर में बनिहाल और हरियाणा में एक बनवाली या बनिहाल जैसा प्राचीन पुरातात्विक स्थल भी विद्यमान हैं.
यास्काचार्य के पश्चात पाणिनि की अष्टाध्यायी ही हमारे पास एकमात्र शाब्दिक स्रोत इस विषय में है. जिसमें कुल्लू-कांगड़ा घाटी में उनकी संख्या पहले तीन त्रिगर्ता: तो बाद में वै छ: भी गिनाए गए हैं. इनका अपना एक गणसंघ भी
[p.15]:था महाभारत ग्रंथ में भी विराटनगर (बहरोड) के पास त्रिगर्तों का निवास वर्णित है. संभवत: वर्तमान का तिजारा जैसा नगर ही रहा होगा.
'कितने पाकिस्तान' जैसी औपनान्याषिक रचना के कथाकार श्री कमलेश्वर ने भी उसी और स्पष्ट संकेत किया है. महाभारत में भी ऐसा एक प्रकरण आया है कि जब त्रिगर्त गणों ने अथवा जाटों के तीन कुलों ने विराटराज की गायों का अपहरण बलपूर्वक कर लिया था, तब वहीं पर छद्म वेशधारी अर्जुन ने अपने गांडीव नामक धनुष बाण से ही उन गायों को मुक्त कराया था. सभी वे तीन जाट जनगण के लोग राजभय से भयभीत होकर उत्तर पश्चिम की दिशा में प्रवास कर गए थे.
यह सुखद संयोग ही है कि बहरोड (विराटनगर) के ही निकट वर्तमान में भी एक सातरोड नामक गांव स्थित है, तो उसी नाम की एक खाप हांसी (असिका) नामक नगर के निकट उन्हीं लोगों की विद्यमान है. जिसका सामान्य सा नामांतरण भाषिक विकार या उच्चारण की भ्रष्टता के कारण सातरोड से सातरोल जैसा भी हो गया है. वहीं से राठी ही राष्ट्री या बैराठी का संक्षिप्त रूप धारण करने वाले वे लोग आगे हरियाणा के रोहतक (महम) और बहादुरगढ़ तक में भी पाए जाते हैं. संभवतः राठौड़ और रोड जैसे वंशज भी वही हों. वे पाणिनि मुनि के आरट्टगण भी संभव हैं.
पाणिनि जिन गण संघों की ओर इंगित करते हैं, उनमें दामला और दाण्डक (ढांडा) तथा कुंडू जैसे गणगोत्र वाची लोग भी हैं. वह हमें वर्तमान में भी कुरुक्षेत्र और कैथल जैसे जिलों में दामल और ढांडा एवं कुंडू जैसे कुलनामोंके साथ आबाद मिलते हैं. बल्कि ढांडा या दाण्डक लोगों का तो अपना एक बड़ा गांव या कस्बा ढांड के नाम से कैथल जिले में स्थित है तो बामल या बामला लोगों का भी अपना एक गांव भिवानी जिले में हमें मिलता है. हां कुंडू लोग उनसे थोड़े पीछे हिसार जिले के पावड़ा और फरीदपुर में बसे हुए हैं. उनके ये गांव शायद रोहतक के टिटौली गांव से ही निसृत हैं. तो पानीपत और पलवल जैसे जिलों में कुंडू जाटों के गांव आज भी आबाद हैं.
महर्षि पतंजलि जो कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के वैयाकरण हैं और जिन्होंने महाभाष्य जैसा महान पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रों की व्याख्या के लिए रचा है. वे पुष्यमित्र शुंग नामक क्षत्रिय वंश विनाश कर्त्ता, ब्राह्मण शासक किंवा पौराणिक परशुराम के ही राजपुरोहित और प्रधान अमात्य या महामंत्री भी थे. उन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी में आगत जर्तों को वाहिक या पश्चिमी पंजाब का ही निवासी वहां पर बताया है. दूसरे, वे उन्हें अब्राह्मणिक और अराष्ट्रिक अथवा गणों में संगठित होने के ही कारण अराजक और बहुभाषी या विकट वाचाल भी बतलाते हैं.
यही घोर घृणा जर्तगणों के प्रति हमें महाभारत के उस कर्ण-पर्व में भी देखने को मिलती है, जिसके अनुसार अपना रथ कीचड़ में फसने पर कर्ण अपने सारथी शल्य के भी सम्मुख उन्हीं जर्तगणों की जमकर खिंचाई करते हैं. वह सब कर्ण के ब्याज से उनके मुख में विराजमान ब्राह्मण ही तो बोल रहा था. क्योंकि जब मद्रराज शल्य उससे यही पूछते हैं कि तुम्हें भला हमारे जर्तगणों के विषय में ऐसी घिनौनी सूचना किसने दी है, तो वह यही स्पष्ट कर देता है कि उधर वाहिक देश से आगत एक ब्राह्मण ने ही उसे यह ज्ञान दिया था. गणतंत्र की व्यवस्था के समर्थक होने से ही महाभारत में जाटों को ज्ञाति कहा गया है.
पश्चिमी पंजाब अथवा वर्तमान के पाकिस्तान से सिकंदर के आक्रमण के पश्चात ही ये त्रिगर्त और षष्टगर्त जनगण आगे पूर्वी पंजाब से भी दक्षिण में राजस्थान की ओर प्रस्थान कर गए थे. ऐतिहासिक अध्ययन से भी हमें यही ज्ञात होता है कि व्यास नदी और सतलुज के उर्वर अंतर्वेद में आबाद यही तीन जर्तगण - मालव, कठ और शिवी गण राजस्थान से गुजरकर ही मालवा और काठियावाड़ी भी गए थे. मालवगण ने ही प्रथम ईशा पूर्व में शकों को पराजित करके दशपुर या दशार्ण प्रदेश और विदिशा को अपने ही कुल नाम पर 'मालवा' नाम दिया था.
प्रथम विक्रमादित्य सहसांक संभवत: पंजाब के वारिक् या औलख जैसे ही वंश का वीर व्यक्ति था. उसी ने विक्रमादित्य का वरणीय विरुद्ध अपनी शक विजय के उपरांत उपलब्ध किया था. उसी ने उसी उपलक्ष्य में विक्रमी संवत का भी पावन प्रचलन किया था. बल्कि मालवगण का ही वीर वंशज शासक होने के कारण उसने आरंभ में उसका नामकरण भी मालव-संवत ही किया था. भगवती पुरोहित जैसे पुरातत्ववेत्ता विद्वान् भी हमारे उपर्युक्त अभिमत से सहमत हैं.
शिवि गण ने राजस्थान में जाकर सिरोही (शिवि रोही) और मेवाड़ तक में अपना शिवि जनपद बसाया था; जिसके मुद्रांक हमें उत्खनन में मिलते हैं. इसी नाम की एक जाति वहां पर वर्तमान में भी शिरवी कहलाती है. संभवत: मद्र-देश (स्यालकोट) से प्रवाजित होने के ही कारण उन्हीं का एक नाम मद्र से बिगड़ कर मेड और मेव तक भी हो गया है. शायद मेवाड़ नाम शिवि जनपद का होने के कारण हुआ होगा. अजमेर का भी पुरातन नाम मेरवाड़ा ही है.
[p.16]: कठ कबिले ने ही ईसा की आरंभिक शताब्दियों में जाकर सौराष्ट्र या शकराष्ट्र को अपना काठियावाड़ नाम दिया था. शकों के राज्य की सूचना हमें केवल सुदर्शन झील के जीर्णोद्धार के अवसर पर अंकित चौथी शताब्दी के शकराज रुद्रदामन के अभिलेख से ही मिलती है. शकराष्ट्र से ही बिगड़ कर सौराष्ट्र नाम पड़ा था तो कठों के अधिकार के पश्चात ही काठियावाड़ नाम हुआ होगा.
पाणिनि के जर्तगण ही संभवत: बाद में पूर्वांचल में बिहार तक पहुंचकर जथरिया या जाठर बन गए थे. उन्हीं का संस्कृत में नाम ज्ञातृक गण था. जिसमें कि जैन धर्म के अंतिम उपदेशक अथवा तीर्थंकर वर्धमान महावीर का जन्म हुआ था. वह लोग तब तक वहां पर क्षत्रीयमन्य ही थे. क्योंकि अंबडसुत नामक ग्रंथ में वर्मधमान महावीर को क्षत्रियकुल प्रसूत ही दर्शाया गया है. संभवत: वर्तमान काल में जो लोग भुधारक होने के ही कारण भूमिहार भी कहलाते हैं.
इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कर्मकांड का पूर्णत: परित्याग बौद्ध धर्म के प्रभूत प्रभव के चलते हैं करने के ही कारण वही लोग त्यागी भी कहे जाते हैं. अतएव वैदिक कालीन जर्तगण ही पश्चिम से पूर्व और दक्षिण तक विस्तृत हुए हैं.
दूसरे जो कबीला ऋग्वेद का मरुद्गण था, वह संभवतः मरुभूमि में आवासित होने के कारण बजाए कृषक के व्यापारी भी बन गया होगा. संभवत: यह लोग पणिक् जनगण के भी सदस्य रहे होंगे व क्योंकि इन्हीं का संघर्ष ऋग्वेद में रसा नामक नदी के निकट अर्बुद पर्वत शिखर पर दिखाया गया है. उन्होंने भी आर्यों की गायों का ही अपहरण कर लिया था. तब इंद्र ने अपनी 'शर्मा' नमक देवदूती को ही संदेशवाहिका बनाकर उनके पास समझौते के लिए भेजा था. जब पणियों ने संधि-सुलह करने से स्पष्टतया इंकार कर दिया था, तभी देवराज इंद्र ने उनको अपने सैन्य बल से पराभूत करके उत्तर-पूर्व की ओर धकेल दिया था. उन्हीं पणिक् लोगों में से आगे चलकर किसान बनने वाले लोग ही मरुस्थल के जांगल प्रदेश या बिकानेर संभाग के ही चुरू जैसे जिलों में पूनिया जाट बन गए थे और जो उतने में से आगे चलकर अतिरिक्त करभार से आगे जाकर भूमिहीन बन गए थे; वहीं पंजाब में दलित भी बन गए थे. भूमिहीन कामगार ही हमें हरियाणा और पंजाब में पुनिया, बल और चीमा जैसे दलित कुलनाम मिलते हैं. बल्कि राजस्थान के पाली जिले में तो कभी मंडोर राज्य के शासक परिहार कुल के लोग भी हमें दलितों में ही देखने को मिलते हैं. पनिकों के नायक का भी नाम हमें ऋग्वेद में बलवूथ ही मिल रहा है.
संभवत: उपर्युक्त जर्तगणों का ही रक्त-संबंध ऋग्वेद के पान्चजन्यों से भी रहा हो. जिन्होंने रावी नदी के जल वितरण को लेकर आर्य शासक दिवोदास की राज्य शक्ति के विरुद्ध संघर्ष किया था. उनको भी वहां पर पंचकृष्ट्य भी कहा गया है. जिनमें यदु, अनु, द्रुह्यु, पुरु और तुर्वसु भी आते हैं. संभवतः उनमें ही अनु के वंशज आनव और तत्पुत्र उशीनर ही दक्षिणी पश्चिमी पंजाब प्रदेश में बाद में पराजित होकर व्यास और सतलुज जैसी सदानीरा सरताओं के उर्वर अंतर्वेद में जाकर बसे होंगे. वही प्रदेश वर्तमान में भी मालव गणों के पूर्ण प्रभुत्व के कारण मालवा ही कहलाता है. जो कि पश्चिमी पंजाब के फिरोजपुर-बठिंडा, फरीदकोट-मोगा से लेकर पाकिस्तान के बहावलपुर से लेकर झांग-मघियाना-सरगोधा से मुल्तान तक विस्तृत था. इसी पुण्य प्रदेश का एक नाम हमें पुराकाल में सौवीर जनपद भी मिलता है. संभवत: शिवि गणों के मूल अधिवास के कारण भी वैसा ही हुआ होगा. क्योंकि उसके पीछे ही बलूचिस्तान से ईरान तक विस्तृत शिवस्थान (Sistan|सिस्तान) प्रदेश है. जाटों में आज तक भी शिवि गणों के सोहू और तेवतिया जैसे कुलनाम मिलते हैं. सैवीर जनपद की ही भाषा जटकी या मुल्तानी पंजाबी अथवा सिराएकी कहलाती है. जर्तगण से ही और जटराणा जैसे वंश-वाचक कुलनाम वर्त्तमान में भी (गण, प्राचीन गण-परंपरा के प्रमुखतम प्रतिनिधि) जाटों में ही मिलते हैं.
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