Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Navam Parichhed

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

नवम परिच्छेद

कौन खानदान कहाँ गया, वैदेशिक चर्चा

कौन खानदान कहाँ गया, वैदेशिक चर्चा

क्योंकि हम 'विदेशों में जाट साम्राज्य' नामक एक खंड अलग प्रकाशित करना चाहते हैं, अतः यहां उस सब सामग्री को तो नहीं देंगे जो हमने अब तक एकत्र की है; परंतु कुछ थोड़े से उन खानदानों का वर्णन जरूर करना चाहते हैं जिन्होंने वहां जाकर संसार को अचंभे में डाल देने वाले कार्य किए। अथवा जो एक समय भारत में पुनः वापस आ गए।

जाटों की प्राचीन निवास भूमि

जब हम जाटों की प्राचीन निवास भूमि का वर्णन पढ़ते हैं तो कुभा (काबुल) और कृमि (कुर्रम) नदी उसकी पश्चिमी सीमाएं, तिब्बत की पर्वतमाला पूर्वी सीमा, जगजार्टिस और आक्षस नदी उत्तरी सीमा और नर्मदा नदी दक्षिणी सीमा बनाती हैं। वास्तव में यह देश में आर्यों का है जो चंद्रवंशी अथवा यदु, दृहयु तुर्वसु, कुरु और पुरू कहलाते थे। भगवान श्रीकृष्ण के सिद्धांतों को इनमें से प्राय सभी ने अपना लिया था अतः समयानुसार बेशक जाट कहलाने लग गए। इन सभी खानदानों की पुराणों में स्पष्ट और अस्पष्ट निन्दा ही की है। या तो इन्होंने आरंभ से ही ब्राह्मण वैशिष (बड़प्पन) को स्वीकार नहीं किया था या बौद्ध काल में यह प्राय: सभी बौद्ध हो गए थे।


[पृ.147]: बाहलीक, तक्षक, कुशान, शिव, मल्ल, क्षुद्रक (शूद्रक), नव आदि सभी खानदान जिंका कि महाभारत और बौद्ध काल में नाम आता है इन्हीं यदु, दृहयु तुर्वसु, कुरु और पुरू की उत्तराधिकारी शाखाएं थे। बाहलीक लोग कुरुवंशी राजा शांतनु के भाई बाहलीक के वंशज हैं। शिवी यदुओं में उशीनर के वंशज हैं। यह बात हम पहले ही बता चुके हैं। गांधार, पांचाल यह लोग पुरू वंश में थे।

कृष्ण द्वारा ज्ञातिराज्य का प्रस्ताव - उत्तरोत्तर संख्या वृद्धि के साथ ही वंश (कुल) वृद्धि भी होती गई और प्राचीन जातियां मे से एक-एक के सैंकड़ों वंश हो गए। साम्राज्य की लपेट से बचने के लिए कृष्ण ने इनके सामने भी यही प्रस्ताव रखा कि कुल राज्यों की बजाए ज्ञाति (जाति) राज्य कायम का डालो।

सारे यदुओं का एक राष्ट्र हो चाहे वे भोज, शूर, अंधक, वृष्णि, दशार्ण आदि कुछ भी कहलाते हों। इसी तरह सारे कुरुओं का एक जाति राष्ट्र हो; पांचाल, पौरव, गांधार, मद्र, पांडव सब मिलकर एक संघ कायम कर लें। किन्तु इसको कोई क्या कहे कि कम्बखत कुरु लोग और यादव लोग आपस में ही लड़कर नष्ट हो गए। यदि वेदो के पंचजना:, कहे जाने वाले, यदु, कुरु, पुरू, आदि संगठित हो जाते तो आज सारे संसार में वैदिक धर्मी ही दिखाई देते। किंतु ये तो लड़े, खूब लड़े। एक दो वर्ष नहीं, सदियों तक लड़े।

जाटों का विदेशों में जाना

यही कारण हुआ कि अनेकों समूहों को देश छोड़ विदेशों में भटकना पड़ा। कौनसा खानदान भारत से बाहर (उस बृहतर भारत से बाहर जिसमें काबुल, कंधार, उद्यान और मानसरोवर


[पृ.148]: आ जाते हैं) कब गया, यह तो हम 'जाट शाही' अथवा विदेशों में जाट साम्राज्य नामक पुस्तक में बताएंगे। यहां तो थोड़े से खानदानों का ही जिक्र करना है।

द्वारिका के जाट-राष्ट्र पर हम दो विपत्तियों का आक्रमण एक साथ देख कर प्रभास क्षेत्र में यादवों का आपसी महायुद्ध और द्वारिका का जल में डूब जाना। अतः स्वभावतः शेष बचे जाटों को दूसरी जगह तलाश करने के लिए बढ़ना पड़ा। वज्र को तो पांडवों ने ले जाकर मथुरा का राजा बना दिया। लेकिन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के आठ पटरानियों से 17 पुत्र थे। पुराण अन्य रनियों से 80800 पुत्र बताते हैं। खैर हम 17 को ही सही मान कर चलते हैं। इनमें से दो चार तो बच्चे ही होंगे। ये लोग पूर्व-दक्षिण की ओर तो बढ़ नहीं सकते थे। क्योंकि साम्राज्य का हौआ दक्षिण से ही बढ़ रहा था। दूसरे उधर आबादी भी काफी थी। अतः पश्चिम उत्तर की ओर बढ़े।

उधर पांडवों में भी परीक्षित को इंद्रप्रस्थ का राज्य देने के बाद भीम, नकुल, सहदेव के कई पुत्र शेष रह जाते हैं। स्वयं युधिष्ठिर के भी यौधेयी रानी से पैदा होने वाले यौधेय बाकी थे। अतः उन्हें भी नए देश खोजने के लिए उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ना पड़ा। यदि हम हरिवंश, यादव दिग्विजय और महाभारत तथा पुराणों के वर्णन में से सच्चाई को छांट लेने की कोशिश करें तो हमें ज्ञात होता है कि पेशावर से ऊपर उद्यान


[पृ.149]: में जहां तख्तेवाही अथवा भीम का तख्त है वहां भीम के पुत्र आबाद कर दिए गए। और मुगलों के आने तक वे लोग वहां पर आनंद से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आबाद रहे। भीम का गल जाना वहीं माना जाता है। कहा जाता है कि युधिष्ठिर नहीं गले थे। इस तरह युधिष्ठिर के साथी कैस्पियन सागर के किनारे तक पहुंच जाते हैं।वे यौधेय ही धेय, धे और यूनानी लेखकों की भाषा में (Dahae) ढे और ढहाये हैं। कुछ लोग ऐसे ही जेन्थोई कहने लगे। यह शब्द जाट यौधेय का अपभ्रंश है, जो केवल भाषा भेद से जेन्थोई हो गया है। इन ढे लोगों को लेकर ही स्ट्रेबो और हेरोडोटस आदि ने भारतीय जाटों को विदेशी समझा है। इस्लाम के जोर के समय इनका एक समूह है भारत में आकर फिर आबाद हो गया जो आजकल ढे नाम से प्रसिद्ध है। यौधेयों का एक समूह आरंभ में पंजाब में ही रह गया था जो आजकल जोहिया कहलाता है।

शिविओं का एक समूह उद्यान को छोड़कर चीन की पूर्वी हद पर पहुंच गया, जो वहां की भाषा में श्यूची कहलाने लगा। कुशान लोग ही श्यूची (शिविची) लोगों की एक शाखा थे जो कि तुर्क देश में बसने के कारण तुरक नाम से भी याद किए हैं। वास्तव में यह वैसे ही तुरक थे जैसे मुंबई के रहने वाले पारसी, हिंदुस्तानी हैं। अर्थात रक्त से तुरक नहीं थे हालांकि पुराणों के कथनानुसार तुरक (तुरुष्क) यदुवंशी की संतान हैं।


[पृ.150]: ईसा की पहली शताब्दी में फिर ये भारत में आ गए और पुरुषपुर अथवा पेशावर को अपनी राजधानी बनाया।

यदुवंश में एक गज हुआ है। जैन पुराणों के अनुसार गज कृष्ण का ही पुत्र था। उसके साथियों ने गजनी को आबाद किया। भाटी, गढ़वाल, कुहाड़, मान, दलाल वगैरह जाटों के कई खानदान गढ गजनी से लौटे हुए हैं।

जाटों ने ईरान और अफगानिस्तान को आबाद किया

शिवियों का एक समूह है उद्यान से ईरान की और भी बढ़ गया था। वहां उन्होंने शिवस्थान नामक एक नगर अपने नाम से आबाद किया जो अब सीसतान कहलाता है।

बाना लोगों ने ईरान के देश में जाकर बस्ती आबाद की जहां उनके नाम पर ही उस नदी का नाम मशहूर हो गया जिसके कि किनारे वे जाकर बसे थे। भारत में बाणगंगा के किनारे से उठकर गए थे जहां पर कि आजकल बयाना आबाद है। उषा इन्हीं लोगों की पुत्री थी। कृष्ण से लड़ने के कारण भक्त लोगों ने बान लोगों के सरदार को बाणासुर कहा है किंतु बात ऐसी नहीं है। कंस, बान, दंतवक्र यह सब चंद्रवंशी थे असुर नहीं थे। कुछ लोग मानते हैं कि स्कैंडेनेविया को बान के लड़के स्कंद ने आबाद किया था।

गांधार लोग कंदहार में एक लंबे अरसे से राज्य कर रहे थे। अफगानिस्तान में गातई एक स्थान है जो आज भी इसी नाम से मशहूर है। यहां पर गात्रवान ने जो कि श्रीकृष्ण की


[पृ.151]: लक्ष्मणा नामक रानी से पैदा हुआ था, अपने राज्य की नींव डाली थी। गोताला और गटवाल इसी इसी गातवान के वंशज हैं और गातई से लौटने वाले जाट हैं।

बाल्हीकों ने अफगानिस्तान में बलख नाम से पुकारे जाने वाले नगर को अपनी राजधानी बनाया था। एक समूह ईरान में भी इनका बढ़ गया था जो आजकल आजकल बलिक कबीले के नाम से मशहूर है। याद रहे कबीला जत्थे और वंश को कहते हैं। यह बलिक आजकल मुसलमान हैं और सिदव प्रांत में रहते हैं। अच्छे घुड़सवार समझे जाते हैं। काश्यप गोत्री जाटों का एक जत्था इन्हीं बलिकों के पड़ोस में रहता है जो आजकल कास्पी कहलाता है। ईरान के सोलहुज जिले में कारापाया एक कबिला है। यह कारपश्व लोगों में से हैं। ये कारपश्व जाट मथुरा जिले से उठकर गए थे जहांकि उनकी राजधानी आजकल के कारब में रही थी। अफगानिस्तान में हमें महावन नामक परगना भी मिलता है। इसका नामकरण मालूम होता है इन्हीं कारपश्व लोगों ने किया होगा। फिर बिचारे वहां से भी सोलहुज जिला (ईरान) में चले गए होंगे। कारपाया लोग बड़े अच्छे घुड़सवार गिने जाते हैं। कहा जाता है कि आरंभ में यह इस जिले में केवल 800 कुटुंब लेकर आबाद हुए थे। आजकल भी यह इस सोलहुज जिले के अधिकारी हैं और मुसलमान धर्म का पालन करते हैं।


[पृ.152]: उत्तर प्रदेश के जिन गदर जाटों को आजकल हम मामूली सी हालत में देखते हैं, वे उशना (शुक्राचार्य) के प्रदेश उशनेई के पास बहने वाली गदर नदी के किनारे बहुत दिन रह चुके हैं।

ईरान में रोअंडिज़1 एक प्रांत है। उसमें सोहरान एक कबिला अब तक रहता है। वे रोअंदिज के मालिक हैं। भारत में लोहारु में इन सोहरान अथवा स्यौरान के 52 गांव पाते हैं। विधि की विचित्रता से रोअंदिज के सोहरान (मांडलिक) शासक हैं और लोहारू के श्यौरान शासित हैं। अगर मजहब का पचड़ा बीज से हटा दिया जाए तो क्या लोहारू और ईरान के सोहरान भाई नहीं हैं?

यूरोप के लोग जाटों को यूरोप में असीरिया से आया हुआ मानते हैं। यह असीरिया ईरान का ही प्रांत है। जिसे मालवा के असीगढ़ से जाकर जाटों ने बसाया था। यहीं पर एक लाहियान जिला भी है। भारत के लोहियान जाट इसी जिले से लौटे हुए हैं।

जाटों में आंजना जाट जयपुर राज्य में पाए जाते हैं। जो वास्तव में किसी समय अराजण (अराजक) रहे हैं। इनका भी एक समूह बहुत समय तक अजरी नदी के किनारे रहा है। जाटाली प्रांत जाटों के नाम से ईरान में काफी प्रसिद्धि पा गया था।

पंजाब के हिसार जिले को सभी लोग जाटों का जिला मानते हैं। ईरान में जगातू नदी के पास हिसार एक प्रसिद्ध शहर रह चुका है। अब तो वह उजाड़ पड़ा है। ईरान के हिसार


नोट-1: रोअंडिज़ शहर इराक में है। Laxman Burdak (talk)


[पृ.153]: पास सेई कलह और सहना दो प्रसिद्ध स्थान हैं। हम नहीं जानते पंजाब के हिसार के पास भी इन्हीं नाम के जाटों के कोई नगर हैं या नहीं। इसके अलावा दो हिसार हम अफगानिस्तान के भूगोल में आज भी पढ़ते हैं। एक बाला हिसार और दूसरा मूंदा हिसार है। क्या इन में से एक हो बालाइन जाटों का और दूसरे को मूंद जाटों का हिसाब कहना उचित नहीं होगा।

अफगानिस्तान में शिवि और कुर्रम दो जिले हैं, जो शिवि और कृमि जाटों के नाम पर मशहूर हुए थे। हाला जाटों के नाम पर एक हाला पहाड़ भी है, जिसे सोमगिरि के नाम से भी पुकारते हैं।

ईरान को लोग पारसियों का देश समझते हैं किंतु पारसी सारे संसार में पौने दो लाख ही हैं। वास्तव में तो ईरान का अधिकांश भाग भारतीय क्षत्रियों से भर गया था।

अफगानों के कई जिरगे जाटों में से हैं यूसुफजई जिरगा को कुछ लोगों ने गुर्जरों में से लिखा है। हम भी मानते हैं कि वह गुर्जरों में से हैं किंतु पंजाब के गुजरात नाम के इलाके के जाटों का जो गुर्जर गोत्र है वह उसमे से हैं।

जाटों का यूरोप की ओर बढ़ना

हूणों के आक्रमण के समय जगजार्टिस और आक्सस नदियों के किनारे तथा कैस्पियन सागर के तट पर बसे हुए जाट यूरोप की ओर बढ़ गए। एशियाई देशों में जिस समय हूणों का उपद्रव था, उसी समय यूरोप में जाट लोगों का


[पृ.154]: धावा होता है। कारण कि आंधी की भांति उठे हुए हूणों ने जाटों को उनके स्थानों से उखाड़ दिया था। जाट समूहों ने सबसे पहले स्केंडिनेविया और जर्मनी पर कब्जा किया। कर्नल टॉड, मिस्टर पिंकर्टन, मिस्टर जन्स्टर्न, डिगाइन, प्लीनी आदि अनेक यूरोपियन लेखकों ने उनका जर्मनी, स्केंडिनेविया, रूम, स्पेन, गाल, जटलैंड और इटली आदि पर आक्रमण करने का वर्णन किया है। इन वर्णनों में में कहीं उन्हें, जेटा, कहीं जेटी, और कहीं गाथ नाम से पुकारा है। क्योंकि विजेता जाटों के यह सारे समूह ईरान और का कैस्पियन समुद्र के किनारे से यूरोप की ओर बढ़े थे। इसीलिए यूरोपीय देशों में उन्हें शकसिथियन के नाम से भी याद किया गया है। ईरान को शाकद्वीप कहते हैं। इसीलिए इरान के निवासी शक कहलाते थे। यूरोपियन इतिहासकारों का कहना है कि जर्मनी की जो स्वतंत्र रियासतें हैं, और जो सैक्सन रियासतों के नाम से पुकारी जाती हैं। इन्हीं शक जाटों की हैं। वे रियासतें विजेता जाटों ने कायम की थी। हम यह मानते हैं और यह भी मानते हैं कि वे जाट शाकद्वीप से ही गए थे। किंतु यूरोपियन लेखकों के दिमाग में इतना और बिठाना चाहते हैं कि शाल-द्वीप में वे जाट भारत से गए थे। और वे उन खानदानों में से थे जो राम, कृष्ण और यदु कुरुओं के कहलाते हैं।

यूरोप में जाने वाले जाटों ने राज्य तो कायम किए ही थे साथ ही उन्होंने यूरोप को कुछ सिखाया भी था। प्रातः बिस्तरे


[पृ.155]: से उठकर नहाना, ईश्वर आराधना करना, तलवार और घोड़े की पूजा, शांति के समय खेती करना,भैंसों से काम लेना यह सब बातें उन्होंने यूरोप को सिखाई थी। कई स्थानों पर उन्होंने विजय स्तंभ भी खड़े किए थे। जर्मनी में राइन नदी के किनारे का उनका स्तंभ काफी मशहूर रहा था।

भारत माता के इन विजयी पुत्रों ने यूरोप में जाकर भी बहुत काल तक वैदिक धर्म का पालन किया था। किंतु परिस्थितियों ने आखिर उन्हें ईसाई होने पर बाध्य कर ही दिया। यदि भारत के धर्म प्रचारक वहां पहुंचते रहते तो वह हरगिज ईसाई ना होते। किंतु भारत में तो सवा दो हजार वर्ष से एक संकुचित धर्म का रवैया रहा है जो कमबख्त हिंदूधर्म के नाम से मशहूर है। उनकी रस्म रिवाजों और समारोहों के संबंध में जो मैटर प्राप्त होता है उसका सारांश इस प्रकार है:-

  • जेहून और जगजार्टिस नदी के किनारे के जाट प्रत्येक संक्रांति पर बड़ा समारोह किया करते थे।
  • विजयी अटीला जाट सरदार ने एलन्स के किले में बड़े समारोह के साथ खङ्ग पूजा का उत्सव मनाया था।
  • जर्मनी के जाट लंबे और ढीले कपड़े पहनते थे और सिर के बालों की एक बेणी बनाकर गुच्छे के समान मस्तक के ऊपर बांध लेते थे।

[पृ.156]:
  • उनके झंडे पर बलराम के हल का चित्र था। युद्ध में वे शूल (बरछे) और मुग्दर (गदा) को काम में लाते थे।
  • वे विपत्ति के समय अपनी स्त्रियॉं की सम्मति को बहुत महत्व देते थे।
  • उनकी स्त्रियां प्रायः सती होने को अच्छा समझती थी।
  • वे विजिट लोगों को गुलाम नहीं मानते थे। उनकी अच्छी बातों को स्वीकार करने में वे अपनी हेटी नहीं समझते थे।
  • लड़ाई के समय वे ऐसा ख्याल करते थे कि खून के खप्पर लेकर योगनियां रणक्षेत्र में आती हैं।

बहादुर जाटों के ये वर्णन जहां प्रसन्नता से हमारी छाती को फूलाते हैं वहां हमें हृदय भर कर रोने को भी बाध्य करते हैं। शोक है उन जगत-विजेता वीरों की कीर्ति से भी जाट जगत परिचित नहीं है।


नवम परिच्छेद समाप्त

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