Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter IX

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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नवम अध्याय: पंजाब में सिक्ख जाटों का राज्य

सिक्ख मिसलों का संक्षिप्त वर्णन

19 जून, 1716 ई० को बन्दा बहादुर की मृत्यु के पश्चात् पंजाब में सिक्खों के संपीड़न का युग आरम्भ हुआ। 1716 ई० से लेकर 1747 ई० तक मुगल सम्राटों की ओर से नियुक्त किये गये पंजाब के सूबेदार अब्दुस्समद खां, जकारिया खां तथा याहिया खां ने हजारों सिक्खों को इस्लाम धर्म को अस्वीकार करने के कारण मौत के घाट उतार दिया। परन्तु सिक्ख लोग इन अत्याचारों को असाधारण साहस तथा उत्साह से सहन करते गये। 1747 ई० में इनके सौभाग्य से अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिये। 1769 ई० तक उसने इस प्रान्त पर कुल दस आक्रमण किये। पहले पांच आक्रमणों के फलस्वरूप उसने इस प्रदेश में मुगलों और मराठों की शक्ति को कुचल डाला। पिछले पांच आक्रमण उसने सिक्खों के विरुद्ध किये, परन्तु घोर प्रयत्न करने पर भी वह इनकी शक्ति का दमन करने में असफल रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि पंजाब के विभिन्न भागों में सिक्ख जत्थों ने अपने राज्य स्थापित कर लिये। इस प्रकार बारह सिक्ख मिसलों की उत्पत्ति हुई। मिसल अरबी शब्द है जिसका भावार्थ दल होता है। प्रत्येक दल का एक सरदार होता था। इन मिसलों की संगठित बैठक का नाम गुरमता (गुरुमन्त्रणा) था। गुरमता में मिसलों के सरदार बैठते थे। गुरमता में निश्चय हुए प्रस्तावों को मानने के लिए वे बाध्य थे।

सिक्खों की इन 12 मिसलों में 10 मिसलें जाटों द्वारा संस्थापित हुई थीं और उनमें शामिल होकर युद्ध करने वालों में अधिकतर संख्या जाटों की ही थी। दो मिसलों के संस्थापक खत्री सरदार थे, परन्तु उनके जत्थों में अधिक संख्या जाटों की थी। इन मिसलों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है -

1. भंगी मिसल - इस मिसल के मनुष्य भंग का अधिक व्यवहार करते थे इसलिए ही उन्हें भंगड़ी अथवा भंगी नाम से पुकारा जाने लगा। सन् 1716 ई० में चौ० छज्जासिंह ढ़िल्लों गोत्र के जाटवीर ने इस मिसल की स्थापना की थी। इसके पुत्र हरिसिंह के समय में इस मिसल की संख्या 12,000 से बढ़कर 20,000 हो गई थी। उसने इन सैनिकों का नेतृत्व करके गुजरात, झंग, मुलतान, सियालकोट, कसूर, डेराखान आदि को जीतकर सूबा लाहौर के तीन-चौथाई भाग से मुग़लों का शासन पूर्ण रूप से समाप्त करके यहां अपना अधिकार जमा लिया। सरदार हरिसिंह ने अमृतसर में राजधानी स्थिर करके वहां एक विशाल किला बनवाया। इसने जम्मू पर चढ़ाई की थी और दूर-दूर तक काफी लूटमार की। इस सरदार ने कन्हिया और रामगढ़िया मिसलों को साथ लेकर लाहौर पर अधिकार कर लिया था जो कि अब्दाली ने इनसे छीन लिया। अब्दाली के भारत से चले जाने पर फिर इस मिसल ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसने पटियाला के सरदार आल्हासिंह पर भी आक्रमण कर दिया, जिस युद्ध में सरदार हरिसिंह मारा गया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-749


इसके पुत्र झण्डासिंह और गण्डासिंह भी बड़े वीर योद्धा थे। अब झण्डासिंह इस मिसल का सरदार बना। उसने 1766 से 1772 तक अनेक युद्ध किये और कई स्थानों पर विजय प्राप्त की। इस वीर सरदार ने रामनगर पर आक्रमण करके अहमदशाह अब्दाली की सेना से दमदमा नामक तोप छीन ली जो कि बाद में ‘भंगी तोप’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। सरदार झण्डासिंह ने जम्मू के राजा रणजीतसिंह डोगरा पर आक्रमण किया। झण्डासिंह जम्मू के दूसरे युद्ध में स्वर्गीय हुआ। इसका भाई गण्डासिंह कन्हिया मिसल मिसल के साथ पवनकोट में लड़ता हुआ मारा गया। इसके पश्चात् चड़तसिंह, देशूसिंह, करमसिंह आदि सरदार एक के बाद दूसरा नेता बने जो कि सुकरचकिया मिसल के सरदार महासिंह द्वारा मारे गये। सन् 1799 ई० में महाराजा रणजीतसिंह ने इस मिसल से लाहौर छीन लिया और फिर उसने अमृतसर पर अधिकार कर लिया।

2. कन्हिया मिसल - लाहौर के कान्हा गांव के सिन्धुवंशी जाट चौ० खुशालसिंह के पुत्र सरदार जयसिंह ने अपने गांव कान्हा के नाम पर इस मिसल का प्रारम्भ किया था। कांगड़े के राजा सरदारचन्द ने, नवाब शेफ अली खां किलेदार के विरुद्ध सरदार जयसिंह को अपनी सहायता के लिये बुलाया। जयसिंह ने किले पर अधिकार कर लिया और राजा संसारचन्द्र को भी धमका दिया। जम्मू के इस आक्रमण में रणजीतसिंह व उसके पिता स० महासिंह ने जयसिंह की सहायता की थी। जम्मू के लूट के माल पर इनकी अनबन हो गई और इनका युद्ध छिड़ गया। जयसिंह ने हार से बचने के लिए बुद्धिमानी से काम लिया। उसने अपनी पोती का विवाह रणजीतसिंह से करके उनके पिता महासिंह को अपना सम्बन्धी बना लिया। थोड़े दिन बाद अपने पुत्र गुरबक्ससिंह की मृत्यु के शोक में जयसिंह की मृत्यु हो गई। इसके बाद गुरबक्ससिंह की पत्नी सदाकौर राज्य की मालिक हुई। रानी सदाकौर बड़ी निपुण और योग्य शासक थी। वह अनेक युद्धों में भी शामिल हुई थी। स० महासिंह के मरने पर इस रानी ने दोनों ही राज्यों का काम संभाला था। वह रणजीतसिंह की बड़ी देख-रेख रखती थी। इस रानी का राज्य अमृतसर से उत्तर की ओर पहाड़ी प्रदेश में था। उसमें कांगड़ा, कलानौर, नूरपुर, पठानकोट, कोरहा, हाजीपुर, दीनानगर, यकरियान, अटलगढ़ आदि प्रसिद्ध नगर थे। जवान होने पर महाराजा रणजीतसिंह ने अपनी सास रानी सदाकौर से उसका राज्य छीन लिया।

3. नकिया मिसल - इस मिसल की स्थापना सिन्धुवंशी जाट चौ० हेमराज के पुत्र हीरासिंह ने की थी। जब उसने 1750 ई० में नक्का नामक प्रदेश पर अधिकार कर लिया तब यह मिसल नकिया नाम से प्रसिद्ध हुई। सरदार हीरासिंह ने 8000 सवारों का सैन्य दल लेकर भड़वाल, चूनिया, दयालपुर, कानपुर, जेठपुर, खण्डिया, शेरगढ़, मुस्तफाबाद, देवसाल, फिरोजाबाद, मन्द्रा, मागठ आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। उस समय पाकपट्टन में शेख सुजान कुर्रेशी का अधिकार था। वहां गोवध खूब होता था। इसको बन्द करने के लिए हीरासिंह ने शेख पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुआ। इसके बाद नाहरसिंह, वजीरसिंह, भगवानसिंह और ज्ञानसिंह राज के मालिक बने। ज्ञानसिंह के मरने पर महाराजा रणजीतसिंह ने इस राज्य पर अधिकार कर लिया।

4. करोड़ियानया/ करोड़सिंहया मिसल - इस मिसल का संस्थापक पंचगढ़ का रहने वाला जाट सरदार करोड़सिंह था। उसने 12,000 सैनिकों को लेकर नादिरशाह को लूटा और मुगलों से 10 लाख रुपये आय के प्रदेश को छीन लिया। जालन्धर के चारों ओर का प्रदेश इस मिसल के


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अधीन हो गया। अहमदशाह अब्दाली का जब पटियाला में सिक्खों से युद्ध हुआ, तब करोड़सिंह ने अब्दाली के कोष को लूटा। इसका उत्तराधिकारी सरदार बघेलसिंह धारीवाल गोत्री जाट बना। इसने 30,000 सवार सैनिकों को साथ लेकर सन् 1768 ई० में सीमा प्रान्त की ओर आक्रमण करके मुगल, पठानों की सत्ता समाप्त की और उसके बाद मेरठ, खुर्जा, अलीगढ़, बिजनौर, बुलन्दशहर, मुरादाबाद, चन्दौसी, हाथरस, इटावा, फर्रूखाबाद आदि नगरों पर आक्रमण करके लूट में बहुत सा धन प्राप्त किया। सन् 1781 ई० में सरदार बघेलसिंह ने 70,000 सेना के साथ दिल्ली पर आक्रमण करके वहां खूब लूटमार की।

उसने दिल्ली में मुस्लिम वध का आदेश दिया और किले पर अधिकार कर लिया। परन्तु आपसी कलह के कारण, किले को लूटकर बाहर निकल गए। बेगम समरू की बघेलसिंह ने प्राण-रक्षा की थी, इस कारण उस बेगम ने शाह आलम से कहकर सिक्खों को तीन लाख रुपया और दिल्ली में गुरु तेगबहादुर का गुरुद्वारा बनाने की आज्ञा दिलवा दी। सन्धि के अनुसार स० बघेलसिंह कोतवाली के प्रबन्ध और चुंगीकार ग्रहण करने के लिए अपने सैनिकों के साथ दिल्ली में ही रहे। उसने तेलीवाड़े देहली में माता सुन्दरी और साहबदेवी (धर्मपत्नी गुरुगोविन्दसिंह जी) की स्मृति में और गुरु तेगबहादुर की शवभूमि रकाबगंज में गुरुद्वारे बनवाए। इस सरदार ने शीशगंज गुरुद्वारे की नींव का चबूतरा भी बनवा दिया। कुछ समय बाद बादशाही खिलअत प्राप्त करेके पंजाब में लौट गया। इस वीर योद्धा का सन् 1801 ई० में स्वर्गवास हो गया। महाराजा रणजीतसिंह ने इनके प्रदेश को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

5. शहीद या शहीदान मिसल - इस मिसल का गठन बन्दा बैरागी के समय स० शहदीपसिंह सिंघुगोत्री जाट ने किया। वह 1762 ई० में अपनी सेना की सरदारी करते हुए अब्दाली के साथ अमृतसर युद्ध में शहीद हो गया। इसके बाद लाहौर के चौ० वीरसिंह सिन्धु जाट के पुत्र करमसिंह को इस मिसल का प्रमुख बनाया गया। उसने अपनी सेना के साथ सुदूर सीमाप्रान्त के जलालाबाद, लुहारी, सहारनपुर जिले के रणखण्डी और बडवाजमी का बड़ा प्रदेश भी 30 वर्ष तक अपने अधिकार में रखा। इस मिसल का प्रदेश सीधा ब्रिटिश सरकार को गया।

6. फैजुल्लापुरी या सिंहपुरिया मिसल - चौ० कपूरसिंह वरिकवंशी जाट सरदार ने इस मिसल की स्थापना की थी। सर्वप्रथम फैजुल्लापुर पर ही इस दल ने अधिकार किया था। इस कारण इस नाम पर ही ये प्रसिद्ध हुए। संवत् 1790 (1733 ई०) में दिल्ली के शाह की ओर से स० कपूरसिंह को एक लाख की जागीर और ‘नवाब’ की पदवी मिली। इस वीर ने अपनी तलवार से 500 मुसलमानों का वध किया था। उसके धर्मोपदेश के कारण अगणित जाटों ने सिक्ख धर्म अपनाया। इसी की प्रेरणा से पटियाला राज्य के संस्थापक सिद्धू जाटवीर योद्धा आल्हासिंह ने सिक्खधर्म ग्रहण किया था। तीन हजार सवार नवाब कपूरसिंह की आज्ञा पर धर्म पर बलिदान होने के लिए प्रत्येक समय तैयार रहते थे। इन वीरों ने भी दिल्ली तक छापे मारकर काफी लूट मचाई। इस मिसल ने मुसलमानों से जालन्धर का बहुत सा प्रदेश जीत लिया। सरदार कपूरसिंह ने मरते समय अपना उत्तराधिकार स० जस्सासिंह अहलूवालिया को ही दे दिया। इस प्रकार यह मिसल जाटों के अधिकार से कलालों के अधिकार में चली गई। कपूरसिंह ने जिस कपूरथला राज्य की स्थापना की थी उस पर भी


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स० जस्सासिंह अहलूवालिया के वंशधरों की ही परम्परा चलती रही थी।

7. निशानवालिया मिसलगिल जाटों का वह दल जो पन्थ के आगे निशान (चिह्न खालसा पन्थ) लेकर चलता था, निशानवालिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मन्सूरवाल (जि० फिरोजपुर) के चौ० रायगिल के पुत्र स० दसोधसिंह ने इस मिसल की स्थापना की थी। इसने सरहिन्द, कसूर और मेरठ की लूट की और उस धन से अपने 12,000 सवार संगठित कर लिये। इस वीर सरदार ने सन्धानवाला, साहनेवाल, सराय लश्करीखां, दोराहा, जीरा, लद्धड़, खेड़ी, अम्बाला और शाहाबाद पर अधिकार करके अम्बाला को अपनी राजधानी बनाया। स० दसोधसिंह मेरठ में जाब्ताखां से लड़ते हुए शहीद हुए। इसके भाई संगतसिंह और उसके पुत्र कपूरसिंह, मेहरसिंह, अनूपसिंह एवं अनूपसिंह की पत्नी दयाकौर बहुत समय तक इस मिसल का संचालन करते रहे। अन्त में महाराजा रणजीतसिंह ने इस मिसल के विजित प्रदेश को अपने शासन में ले लिया।

8. रामगढ़िया मिसल - रामगढ़ नामक स्थान पर इस मिसल की स्थापना एक जाट सिक्ख खुशहालसिंह ने की थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी नौंदसिंह ने जस्सासिंह, मालासिंह और तारासिंह, साहसी वीरों को अपना साथी बनाया, वे तीनों बढ़ई (तिरखान) थे। नौंदसिंह की मृत्यु के पश्चात् इस मिसल का सरदार, जस्सासिंह को बनाया गया। इस तरह से यह मिसल जाट सिक्खों के हाथ से निकलकर तरखान सिक्खों के हाथ में चली गई। जस्सासिंह ने अमृतसर और गुरुदासपुर के जिलों पर भी अधिकार कर लिया था। सन् 1808 ई० में महाराजा रणजीतसिंह ने इस मिसल का सारा प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया।

9. अहलूवालिया मिसल - अहलू ग्राम में रहनेवाले जस्सासिंह कलाल द्वारा इस मिसल की स्थापना की गई थी, इसलिए इस मिसल का नाम अहलूवालिया प्रसिद्ध हुआ। इस मिसल ने देहली पर आक्रमण किया। मांझा कहलाने वाले प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। नवाब कपूर सिंह ने अपने द्वारा संस्थापित कपूरथला राज्य के लिए अपना उत्तराधिकारी सरदार जस्सासिंह को चुन लेने से यह मिसल और फैजुल्लापुरी या सिंहपुरिया मिसल आपस में मिल गईं।

10. डल्लेवालिया मिसल - इस मिसल का संस्थापक रावी नदी के किनारे डेरा बाबा नानक के निकट गांव डल्लेवाला का निवासी सरदार गुलाबसिंह खत्री था। इस मिसल ने भी दूर-दूर तक ख्याति प्राप्त की थी। अन्त में इसके अस्तित्व को भी महाराजा रणजीतसिंह ने अपने राज्य में विलीन कर लिया।

11. फुलकियां मिसल - इस मिसल के संस्थापक चौ० फूल सिद्धू गोत्र के जाट थे। इनकी सन्तान ने इतना शीघ्र वैभव और स्थिर प्रसिद्धि प्राप्त की कि जिससे पंजाब के समस्त सिक्खों ने इन्हें सर्वप्रथम शासक स्वीकार किया। जिन दिनों पंजाब में चारों ओर मिसलों द्वारा की गई राज्य क्रान्ति से प्रान्त का वातावरण अशान्त एवं अव्यवस्थापूर्ण था, उस समय चौ० फूल के वंशजनों ने प्रयत्न करके पटियाला, जींद, नाभा राज्यों की स्थापना की, जिनको फूल के नाम पर फुलकियां राज्य कहा जाता है। इन राज्यों का वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जाएगा।

12. सुकरचकिया मिसल - इस मिसल का नाम सुकरचकिया इसलिए पड़ा कि इसके


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संस्थापक और सदस्य सुकरचकिया गांव के निवासी थे। इसकी स्थापना करने वाला नेता बुद्धासिंह शिशि गोत्र का जाट था। इस मिसल के बड़े-बड़े सरदार, बुद्धासिंह के वंशज नौधसिंह, चरतसिंह, महासिंह और रणजीतसिंह थे। सिक्खों की 12 मिसलों में सुकरचकिया मिसल सबसे शक्तिशाली थी। इस मिसल का सबसे शक्तिशाली नेता सरदार महासिंह का पुत्र रणजीतसिंह था। उसने सब मिसलों को जीतकर एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य बनाया जिसकी राजधानी लाहौर थी। वह शेरे पंजाब कहलाये। इनका वर्णन आगे के पृष्ठों पर लिखा जायेगा।

पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह

महाराजा रणजीतसिंह की गणना भारत के महान् शासकों में की जाती है। इटालियन जाति में जुलियस सीजर, फ्रांसीसियों में नैपोलियन, जर्मनों में लूथर, हिटलर और यूनानियों में जो स्थान सिकन्दर का है उनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण उज्जवल स्थान ने केवल सिक्खों एवं जाटों में बल्कि भारतवासियों में महाराजा रणजीतसिंह का है।

बौद्धकाल में बौद्धर्म में जो महत्त्व मौर्य जाट सम्राट् अशोक का है वही सिक्खों और जाटों में शिशि गोत्र के जाट महाराजा रणजीतसिंह का है। एक साधारण स्तर से प्रगति करके उसने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इसके नेतृत्व में सिक्ख एक मजबूत, शक्तिशाली और संगठित सैनिक राज्य में परिवर्तित हो गए। निःसन्देह रणजीतसिंह में एक जन्मजात शासक की विशेषतायें थीं। स्वयं निरक्षर होते हुए भी विलक्षण बुद्धि, अद्भुत शक्ति, विशुद्ध राजनीति और संगठन करने की जिस अनोखी प्रतिभाशालिता का उन्होंने परिचय दिया वह स्वाभिमानी जाट जाति के इतिहास में आदर्श उदाहरण है।

जिन दुर्दान्त पठानों की प्रचण्ड वीरता के सामने सारा भारत एक बार कम्पायनमान हो रहा था, उन्हें दिलेरी से दण्ड देकर यदि किसी भारतीय नरेश ने सीधा तथा अपने अधीन बनाया तो वह केवल महाराजा रणजीतसिंह ने ही ऐसा किया। इनके समय सिक्खों का सौभाग्यसूर्य मध्याह्न पर था।

रणजीतसिंह का जन्म 13 नवम्बर 1780 ई० को गुजरांवाला में हुआ। उसके पिता चन्द्रवंश में शिशि गोत्र के जाट महासिंह थे जो सुकरचकिया मिसल के नेता चरतसिंह का पुत्र था। रणजीतसिंह की माता का नाम राजकौर था। जब रणजीतसिंह 5 वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजा गया, परन्तु रुचि न होने के कारण इसने पढ़ना बन्द कर दिया। बचपन में ही रणजीतसिंह को भयानक चेचक निकल आई जिससे उसकी शक्ल बहुत बिगड़ गई और उसकी बाईं आंख भी जाती रही।

राज्यशक्ति की प्राप्ति - सन् 1792 ई० में सरदार महासिंह की मृत्यु हो गई। उस समय रणजीतसिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी। इसलिए 1792 ई० से लेकर 1797 ई० तक सुकरचकिया मिसल का शासन प्रबन्ध उसकी माता राजकौर तथा दीवान लखपतराय के हाथों में रहा। 1796 ई० में रणजीतसिंह का विवाह महताबकौर के साथ होने से उसकी सास सदाकौर भी सुकरचकिया मिसल के शासन प्रबन्ध में भाग लेने लग गई।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-753


1797 ई० में रणजीतसिंह ने सुकरचकिया मिसल के शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उस समय उसके पास केवल गुजरांवाला, वजीराबाद, पिंड दादनखां और कुछ अन्य गांव थे। एक वीर तथा महत्त्वाकांक्षी युवक होने के कारण वह सारे पंजाब पर अपना राज्य स्थापित करना चाहता था। अपने इस स्वप्न को पूरा करने के लिए उसने अपनी विजययात्रायें आरम्भ कर दीं। उसकी विजयों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है -

लाहौर की विजय (सन् 1799-1800) - रणजीतसिंह ने सबसे पहले लाहौर पर आक्रमण किया। उस समय लाहौर भंगी मिसल के सरदार मोहरसिंह और साहबसिंह के अधिकार में था। ये दोनों सरदार लाहौर छोड़कर भाग गये। सरदार चेतसिंह, जो भंगी मिसल का नेता था, ने रणजीतसिंह का मुकाबला किया परन्तु उसे पराजित कर दिया गया। इस प्रकार 7 जुलाई, 1799 ई० को रणजीतसिंह लाहौर का स्वामी बन गया।

रणजीतसिंह की लाहौर विजय के कारण आसपास के सिक्ख तथा मुस्लिम शासक उसके शत्रु बन गये। अतः उन्होंने इकट्ठे मिलकर रणजीतसिंह के विरुद्ध एक शक्तिशाली गुट बना लिया। इस गुट में शामिल होने वाले थे - अमृतसर का भंगी मिसल का सरदार गुलाबसिंह, गुजरात का साहबसिंह, कसूर का निज़ामुद्दीन, वजीराबाद का जोधसिंह और रामगढ़िया मिसल का सरदार जस्सासिंह। गुलाबसिंह के नेतृत्व में एक भारी सेना तैयार की गई। उधर रणजीतसिंह ने भी पूरी सैनिक तैयारी की और शत्रुओं का मुकाबला करने के लिए लाहौर से अमृतसर की ओर कूच किया। भसीन नामक स्थान पर 1800 ई० में युद्ध हुआ जिसमें रणजीतसिंह की विजय हुई। गुलाबसिंह की मृत्यु हो गई और उसके साथियों में भगदड़ मच गई। इस विजय से रणजीतसिंह की लाहौर विजय सुरक्षित हो गई और अन्य विजय प्राप्त करने के लिए उत्साह मिला।

अमृतसर की विजय (1805 ई०) - गुलाबसिंह की मृत्यु के बाद उसकी विधवा पत्नी माई सुक्खां ने अमृतसर में भंगी मिसल की बागडोर अपने हाथों में ले ली। वह अपने बालक पुत्र गुरदित्त सिंह की संरक्षिका थी। रणजीतसिंह ने अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। माई सुक्खां ने कुछ देर तक मुकाबला करने के पश्चात् हथियार डाल दिये। इस प्रकार रणजीतसिंह ने अमृतसर पर विजय प्राप्त की तथा वहां के लोहगढ़ किले पर अधिकार कर लिया। अमृतसर में दमदमा तोप (भंगी तोप) उसके हाथ आई। उसने अमृतसर को अपने राज्य में मिला लिया।

सिक्ख मिसलों के प्रदेशों की विजय (1802-1811 ई०)

रणजीतसिंह ने सिक्ख मिसलों के प्रदेश को जीतने के लिए बड़ी योग्यता तथा चालाकी से काम लिया। उसने कन्हैया मिसल की सदाकौर (रणजीतसिंह की सास), अहलूवालिया मिसल के सरदार फतेहसिंह तथा रामगढ़िया मिसल के सरदार जोधसिंह जैसे शक्तिशाली मिसलों के सरदारों से मित्रता स्थापित कर ली। उनकी सहायता से उसने दुर्बल मिसलों पर बिना किसी कारण के आक्रमण कर दिया और उनके प्रदेशों पर विजय प्राप्त कर ली।

1802 ई० में रणजीतसिंह ने अकालगढ़ के दूलसिंह को हराकर उसके प्रदेश कोअपने राज्य में मिला लिया। 1799-1800 ई० तथा 1805 ई० में भंगी मिसल के दो प्रसिद्ध नगरों - लाहौर और अमृतसर - को जीत लिया। 1807 ई० में डल्लेवाला मिसल के प्रदेशों को जीतकर अपने राज्य में


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मिला लिया। 1808 ई० में सियालकोट के जीवनसिंह को हराकर उसके प्रदेश पर अधिकार कर लिया। 1810 ई० में निकिया मिसल के प्रदेश तथा गुजरात के प्रदेश को जीत लिया। 1811 ई० में फैजुल्लापुरी मिसल के प्रदेश को अपने मिसल राज्य में मिला लिया। इसी प्रकार करोड़सिंहिया मिसल, निशानवालिया मिसल, रामगढ़िया मिसल के प्रदेशों को रणजीतसिंह ने जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

फुलकियां मिसल के पटियाला, नाभा और जींद के फुलकियां सरदारों के प्रदेशों पर भी रणजीतसिंह ने 1806 से 1807 ई० में दो बार आक्रमण किये और उन सरदारों से नजराना वसूल किया। 1809 ई० में अंग्रेजों के साथ की गई अमृतसर की संधि के अनुसार अंग्रेजों ने इस सब प्रदेशों को अपनी रक्षा में ले लिया। अतः रणजीतसिंह इनको अपने राज्य में न मिला सका।

महाराजा रणजीतसिंह ने कई प्रदेशों को जीतकर लाहौर में एक बड़ा जबरदस्त दरबार किया और महाराजा की उपाधि धारण की। सब सरदार हाज़िर हुए, पुरोहित ने राजतिलक किया, सैनिकों ने सलामी दी। लाहौर में टकसाल स्थापित की गई। न्यायालय स्थापित किया। काज़ी निजामुद्दीन और फ़क़रुद्दीन को न्याय-सचिव नियुक्त किया गया।

कसूर और झंग की विजय (1807 ई०) - 1807 ई० में रणजीतसिंह ने कसूर के शासक कुतुबुद्दीन को हराकर कसूर को अपने अधिकार में ले लिया। इसी वर्ष झंग के शासक अहमदखां को जो अन्य मुसलमान शासकों के साथ मिलकर रणजीतसिंह के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा था, हराया और झंग को सिक्ख राज्य में मिला लिया। महाराजा के साथ नवयुवक 15 वर्षीय हरिसिंह नलवा अपनी ‘सिंह हृदय’ नामक सेना के साथ थे। इस युद्ध में वीरता दिखलाने के बदले महाराजा ने हरिसिंह को एक जागीर दी।

कांगड़ा की विजय (1809 ई०) - कांगड़ा के राजा संसारचन्द कटोच ने गोरखा शत्रुओं के आक्रमणों को रोकने के लिये रणजीतसिंह से सहायता मांगी और इस सहायता के बदले कांगड़ा नगर रणजीतसिंह को देने का वचन दिया। रणजीतसिंह ने दीवान मोहकमचन्द के नेतृत्व में सिक्ख सेना भेजकर गोरखों को भगा दिया। अब संसारचन्द्र ने कांगड़ा नगर देने में टालमटोल की। रणजीतसिंह ने संसारचन्द्र के पुत्र अनुरोधचन्द को कैद कर लिया। अन्त में विवश होकर संसारचन्द ने कांगड़ा रणजीतसिंह को दे दिया। इस प्रकार 1809 ई० में कांगड़ा रणजीतसिंह के राज्य का भाग बन गया।

अटक की विजय (1813 ई०) - सिक्ख मिसलों के सरदारों तथा आसपास के छोटे-छोटे मुसलमान शासकों की शक्ति को कुचलकर रणजीतसिंह ने अपना ध्यान उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों की तरफ लगाया। इसी समय काबुल का वजीर फतेहखां भी इन्हीं प्रदेशों को जीतने की योजना बना रहा था। 1813 ई० में फतेहखां और रणजीतसिंह के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार फतेहखां की कश्मीर विजय के लिये रणजीतसिंह 12,000 सैनिक उनकी सहायता के लिए भेजेगा और इसके बदले में उसे विजित प्रदेशों का तीसरा भाग तथा वहां से प्राप्त किये गये धन का तीसरा भाग देगा। साथ ही रणजीतसिंह ने फतेहखां की अटक विजय में और फतेहखां ने रणजीतसिंह की मुलतान विजय में सहायता देने का वचन दिया। फतेहखां और रणजीतसिंह की सेनाओं ने मिलकर कश्मीर


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पर आसानी से विजय प्राप्त कर ली। फतेहखां ने अपने वचन को भंग कर दिया और उसने रणजीतसिंह को बदले में कुछ भी न दिया। इस पर रणजीतसिंह ने क्रोधित होकर अटक पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया। उस समय अटक का दुर्ग अफ़गानी राज्य की ओर से जहांदाद खां के अधिकार में था। रणजीतसिंह ने दीवान मोहकमचन्द और सेनापति सरदार हरिसिंह को अटक पर आक्रमण करने हेतु भेजा। उधर फतेहखां वजीर व उसके भाई दोस्त मुहम्मद खां अपनी शक्तिशाली अफ़गान सेना के साथ तैयार थे। अटक के पास हजरो नामक स्थान पर सिक्खों और अफ़गानों में एक भयानक युद्ध हुआ, जिसमें सिक्खों की विजय हुई। वजीर फतेहखां पराजित होकर भाग गया। 12 जुलाई, 1813 ई० को अटक के दुर्ग पर सिक्खों का अधिकार हो गया। इस विजय से अफ़गान शक्ति को सख्त धक्का लगा और सिक्खों का उत्साह बहुत बढ़ गया।

मुलतान की विजय (1818-1819 ई०) - 1802 ई० से ही रणजीतसिंह ने मुलतान पर आक्रमण शुरु किए। सन् 1818 ई० से पहले उसने वहां पर छः आक्रमण किए परन्तु हर बार वहां के शासक मुजफ्फरखां ने उसे नजराना देकर अपना पीछा छुड़ा लिया। 15 फरवरी सन् 1814 को महाराजा रणजीतसिंह ने एक बड़ी सेना और भारी तोपखाने के साथ मुलतान पर आक्रमण कर दिया। इस सेना में उनके साथ शूरवीर हरिसिंह नलवा, सरदार निहालसिंह और सरदार अतरसिंह भी थे। मुलतान नगर पर आक्रमण करके उस पर रणजीतसिंह ने अपना अधिकार कर लिया। मुसलमान सेना दुर्ग में जा छिपी। सिक्ख सेना ने दुर्ग का घेरा दे दिया।

रणजीतसिंह के आदेश पर क़िले की दीवारों में बारूदी सुरंगें लगाई गईं। भारी गोलियों की वर्षा में यह कठिन कार्य हरिसिंह नलवा, निहालसिंह और अतरसिंह ने अपनी सैनिक टुकड़ियों को साथ लेकर किया। किले की दीवार टूटने पर इन वीरों ने उस रास्ते से किले के भीतर घुसकर शत्रु को मारना था। बारूद में आग लगा दी गई। आग के लगते ही एक भारी विस्फोट के साथ दीवार टूट गई जिसका बहुत सा जलता हुआ मलबा इन तीनों सरदारों - हरिसिंह नलवा, निहालसिंह और अतरसिंह - पर आ गिरा। तीनों बुरी तरह से घायल हो गये और भूमि पर गिर पड़े। इन तीनों को उठाकर सैनिकों ने छावनी में पहुंचा दिया। छावनी में पहुंचने के पूर्व ही रास्ते में अतरसिंह का स्वर्गवास हो गया। शेष दोनों वीरों को चिकित्सक हकीम अजीजुद्दीन ने मरने से बचा लिया। रणजीतसिंह ने दीवार के गिरते ही अपने सैनिकों को धावे की आज्ञा दे दी। सिक्ख सैनिकों के किले में घुसते ही नवाब मुजफ्फरखां ने सफेद झंडा दिखाकर अधीनता स्वीकार कर ली। उसको बन्दी बना लिया गया। नवाब ने रणजीतसिंह से क्षमा मांग ली और बड़ी धनराशि भेंट की।

उसने ढाई लाख रुपया राजस्व और 22 बहुमूल्य घोड़े प्रतिवर्ष सरकार को देना स्वीकार किया और फिर विद्रोह न करने का वचन दिया। महाराजा रणजीतसिंह ने उसे क्षमा कर दिया। उस नवाब मुजफ्फरखां ने फिर विद्रोह कर दिया। महाराजा रणजीतसिंह ने अब मुलतान अपने राज्य में मिलाने के लिए 30 जनवरी 1818 ई० को अपने 25,000 सैन्यदल को मुलतान की ओर रवाना कर दिया। सिक्ख सेना का नायक राजकुमार खड़कसिंह था। उसके सेनापति सरदार हरिसिंह नलवा, फतेसिंह, धन्नासिंह तथा श्यामसिंह अटारी वाले थे। दीवान मोतीराम भी इनके साथ थे। खालसा सेना मुलतान पहुंच गई और 2 फरवरी सन् 1819 ई० को मुलतान पर आक्रमण


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कर दिया। सरदार हरिसिंह नलवा की अध्यक्षता में खालसा सेना प्रचण्ड आक्रमण करके नगर में घुस गई। नवाब मुजफ्फरखां अपनी सेना सहित दुर्ग में जा बैठा।

यह घटना 8 फरवरी 1819 ई० की है। सिक्ख सेना ने किले पर घेरा डाल दिया। इस प्रकार घेरा डाले तीन मास बीत गये। इस बीच कई बार दिन भर दुर्ग पर गोले, गोलियां बरसाईं गईं, दरवाजों पर मस्त हाथी दौड़ाये गए, पर दुर्ग पर कोई बड़ा प्रभाव न हुआ।

यह सारा समाचार पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह ने सुना तो उसने शूरशिरोमणि फूलासिंह अकाली से सहायता मांगी, जो अपना बलवान् “शहीदी जत्था” साथ लेकर मुलतान पहुंचा। उसी दिन जगतप्रसिद्ध तोप “जमजमा (दमदमा)” और “जंग बिजली” किले के खिजरी दरवाजे के आगे लगाई गई। अभी थोड़े से गोले चले थे कि किले के दरवाजे के साथ का बुर्ज गिर पड़ा और दीवार में दो छेद हो गए। अकाली फूलासिंह अपने वीरों को साथ लेकर, उन छेदों से दुर्ग में घुस गया। सरदार हरिसिंह नलवा फूलासिंह के बाद किले में सबसे पहले पहुंचने वालों में था। सहस्रों सिक्ख योद्धा दुर्ग में घुस गए। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। नवाब तथा उसके पांचों पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया।

किले पर सिक्खों का अधिकार हो गया। वहां से काफी धनराशि, सम्पत्ति, युद्ध सामग्री सिक्खों के हाथ आई। मुलतान को खालसा राज्य में मिला लिया गया।

कश्मीर विजय (1819 ई०) - महाराजा रणजीतसिंह ने 20 फरवरी 1819 ई० को 30,000 खालसा सैनिकों के साथ कश्मीर की ओर कूच कर दिया। वजीराबाद पहुंचने पर महाराजा ने राजकुमार खड़कसिंह, सरदार हरिसिंह नलवा और अकाली फूलसिंह को सबसे पहले कश्मीर पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी। इसके बाद और कई सरदारों की अध्यक्षता में अन्य सेना भेजी गई। इसके अतिरिक्त 10,000 रक्षित सेना महाराजा ने अपने पास रखी।

मई 1, 1819 ई० को सिक्ख सेना राजौरी पहुंची। हरिसिंह नलवा ने यहां के अफ़गान शासक अगरखां को हराकर वहां अधिकार कर लिया। अगरखां को पकड़कर भिम्बर में महाराजा के पास भेजा गया। महाराजा ने इसको क्षमा दे दी। सिक्ख सेना ने पुंच्छ के शासक जबरदस्तखां को जीत लिया। इस तरह से अनेक स्थानों को जीतकर श्रीनगर को खालसों ने अपना लक्ष्य बनाया।

कश्मीर का वास्तविक शासक बारकजई अफगान मुहम्मद जबरखां था। वह अपनी सेना को लेकर सोपियां के मैदान में आ डटा। 3 जुलाई 1819 ई० को यहां पर सिक्खों और अफ़गानों का भयंकर युद्ध हुआ जिसमें सिक्खों की जीत हुई। खालसा सेना ने 4 जुलाई 1819 ई० को श्रीनगर में प्रवेश किया इस तरह से आज इस्लामी शासन की 8 पीढ़ियों और 500 वर्ष (सन् 1325 से 1819 ई० तक) के बाद कश्मीर में सिक्ख राज्य स्थापित हो गया। हरिसिंह नलवा और श्यामसिंह अटारीवाले ने मुजफ्फराबाद और दरबंद के प्रदेशों को जीतकर अपने कश्मीर राज्य में मिला लिया। कश्मीर का सैनिक प्रबन्धक हरिसिंह नलवा को बनाया गया। महाराजा ने वहां का पहला गवर्नर दीवान मोतीराम को नियुक्त किया। वहां से वापस आने पर हरिसिंह नलवा का बड़ी धूमधाम से लाहौर में स्वागत किया गया। दीवान मोतीराम कश्मीर को नहीं सम्भाल सके। अतः 24 अगस्त 1820 ई० को


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महाराजा की आज्ञा अनुसार हरिसिंह नलवा ने श्रीनगर पहुंचकर दीवान मोतीराम से वहां की गवर्नरी का चार्ज ले लिया।

महाराजा रणजीतसिंह सरदार हरिसिंह के प्रबन्ध से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे अपने नाम का सिक्का चलाने का अधिकार दे दिया। हरिसिंह ने कश्मीर में अपने नाम का सिक्का जारी किया। इसके एक ओर फारसी अक्षरों में ‘श्री अकाल सहाय’ और संवत् ‘1878’ खुदा हुआ था। दूसरी ओर ‘हरिसिंह’ और उसके नीचे ‘यक रुपया’ लिखा था।

हरिसिंह नलवा ने कश्मीर की बड़ी अच्छी व्यवस्था की। यह होने पर महाराजा के आदेश अनुसार वहां का गवर्नर दीवान मोतीराम बना। महाराजा हरिसिंह को अफ़गानिस्तान के अन्य प्रदेश जीतने के लिए बुलाया। वह अपनी 7000 सिक्ख सेना के साथ 9 नवम्बर 1821 ई० को श्रीनगर से चल पड़ा। रास्ते में हजारा प्रान्त के पठानों से भयंकर युद्ध करके विजय प्राप्त की और वहां पर खालसा का अधिकार हो गया। यह युद्ध मांगली की प्रसिद्ध घाटी में हुआ था। 14 नवम्बर को मांगली से कूच करके हरिसिंह नलवा 28 नवम्बर 1821 ई० को खुशाब के पड़ाव पर महाराजा रणजीतसिंह से आ मिला। इस मांगली विजय की खुशी में महाराजा ने हरिसिंह नलवा को तोपों की सलामी दी तथा बड़ा मान किया।

मुंघेर, डेरा इस्माईलखां, बन्नू आदि की विजय (1821 ई०) - महाराजा रणजीतसिंह ने खुशाब के पड़ाव से 30,000 सैनिकों के साथ अफ़गानों के प्रान्तों पर आक्रमण करने के लिए कूच किया। सरदार दलसिंह और खुशहालसिंह को 8000 सेना के साथ डेरा इस्माइलखां की ओर दुर्गों पर आक्रमण करने हेतु भेजा गया। जर्नेल दीवानचन्द और कृपाराम को 10,000 सेना के साथ खानगढ़ और मौजगढ़ पर आक्रमण करने के लिए नियुक्त किया गया। सरदार हरिसिंह नलवा को 7000 सेना के साथ मुंघेर और रास्ते के दुर्गों पर धावा करने के लिए भेजा। सरदार हरिसिंह ने तीन दिन के कड़े युद्ध के बाद रास्ते में 7 दुर्ग जीत लिये। हाफिज अहमद खां ने अपनी पठानों की सेना को साथ लेकर बड़ी वीरता के साथ सामना किया।

पांचवें दिन हरिसिंह ने मुंघेर नगर को जीत लिया और वहां के शक्तिशाली दुर्ग का कड़ा घेरा डाल दिया। 19 नवम्बर को हरिसिंह ने तोपों के गोलों से किले की एक दीवार तोड़ दी। तत्काल हरिसिंह 2000 सैनिकों के समेत किले में जा घुसा। नवाब हाफिज अहमद खां ने अपनी 5000 पठान सेना के साथ बड़ी वीरता से युद्ध किया। सिक्ख सेना के सामने वे अधिक देर तक न रुक सके। अन्त में घबरा कर भागने लगे। नवाब को कैद करके महाराजा के पास भेज दिया गया और किले पर हरिसिंह का अधिकार हो गया। इस तरह से हरिसिंह ने मुंघेर प्रान्त को जीतकर खालसा राज्य में मिला लिया। इस प्रान्त का सरदार अमरसिंह सिद्धावालिया को गवर्नर बनाकर महाराजा रणजीतसिंह अपने साथ हरिसिंह को लेकर 27 जनवरी 1822 ई० को लाहौर पहुंच गया। दूसरी


1. मुंघेर का प्रान्त अटक नदी के दाहिनी ओर दूर तक फैला हुआ था, जो उस समय अफ़गानिस्तान के अधीन एक बड़ा माण्डलिक राज्य था। इसका शासक नवाब हाफ़िज अहमद खां था जो अपने समय में एक अद्वितीय चाबुक सवार और योद्धा प्रसिद्ध था।


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ओर सिक्ख सेनाओं ने खानगढ़, मौजगढ़, कोहाट, बन्नू, डेरा इस्माइलखां के परगनों पर अधिकार कर लिया। ये सब प्रान्त खालसा राज्य में मिला लिये गये।

डेरा गाजीखां (मुलतान से पश्चिम में) प्रान्त को सिक्खों ने 1820 ई० में ही जीतकर अपने अधीन कर लिया था। अब महाराजा रणजीतसिंह का ध्यान पेशावर जीतने की ओर हुआ।

पेशावर की विजय (1834 ई०) - पेशावर की विजय महाराजा रणजीतसिंह की अन्तिम परन्तु सबसे प्रसिद्ध विजय थी। इसे अपने राज्य में मिलाने से पहले उसे यहां कई आक्रमण करने पड़े। पहला आक्रमण 1818 ई० में किया गया। इस आक्रमण के फलस्वरूप पेशावर के सूबेदार दोस्त मुहम्मद और यार मुहम्मद पराजित करके भगा दिये गये और जहांदादखां को रणजीतसिंह ने पेशावर का सूबेदार नियुक्त किया। सिक्ख सैनिकों के वापस लौटते ही दोस्त मुहम्मद ने जहांदाद खां को निकालकर पेशावर पर पुनः अधिकार जमा लिया। रणजीतसिंह ने दूसरी बात अपने सेना पेशावर भेजी। अफगान सरदारों ने युद्ध करने की बजाय रणजीतसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे एक भारी रकम भेंट के रूप में दी। सन् 1822 ई० में काबुल के नये वजीर मुहम्मद अजीम खां बरकजई ने एक बहुत बड़ी सेना के साथ पेशावर को जीत लिया। यार मुहम्मद पेशावर छोड़कर भाग गया और दोस्त मुहम्मद को अजीम खां ने अपनी ओर गांठ लिया। अब उसने दूर-दूर के सब अफ़गानों को सिक्खों के विरुद्ध ‘जिहाद’ अर्थात् धर्म-युद्ध लड़ने के लिए भड़काया और बड़ी भारी संख्या में अफ़गानों को अपने झण्डे के नीचे इकट्ठा कर लिया। उसने सिक्खों से एक निर्णायक युद्ध करने का निश्चय किया।

सन् 1823 के आरम्भ में महाराजा रणजीतसिंह को जब यह सूचना मिली तो उसने हरिसिंह नलवा, राजकुमार शेरसिंह, वेंतूरा और अकाली फूलासिंह आदि जैसे वीर नेताओं को भारी सेना सहित पेशावर की ओर रवाना किया। ये सिक्ख सेनायें फरवरी 1823 ई० को अटक पहुंच गईं। उधर अजीम खां ने युद्ध के लिए नौशहरा का क्षेत्र नियत किया। उसने अपने भतीजे मुहम्मद जमान खां को बहुत से गाजियों के साथ सिक्खों को अटक के घाट पर ही रोक देने के लिए भेज दिया था।

उधर सरदार हरिसिंह और राजकुमार शेरसिंह ने अटक के पुल पर से सेनाओं को पार कराके गाज़ियों को पीछे हटाना आरम्भ कर दिया। पठानों की सेना सिक्ख सेना से चौगुनी थी इसलिए गाजियों से मैदान खाली कराना कठिन प्रतीत हुआ। मुहम्मद जमान खां हानि उठाकर भी पुल तक पहुंच गया और पुल के रस्से काट डालने में सफल हुआ। इससे सिक्ख सेना को नदी के पार से सहायता पहुंचनी बन्द हो गई। ठीक उसी दिन 25,000 सेना के साथ महाराजा रणजीतसिंह अटक पहुंच गये। उन्होंने देखा कि पुल तो बह गया और नदी पार की सिक्ख सेना की सहायता करनी है। रणजीतसिंह व अकाली फूलासिंह ने बिना देरी किये अपने घोड़े, ठाठें मारते हुए सिन्ध नदी में ठेल दिए। इनको देखकर सिक्ख सेना के वीरों ने भी अपने घोड़े नदी में डाल दिए और पंजाब केसरी के पीछे-पीछे दूसरे किनारे पर जा पहुंचे। इस समय हरिसिंह गाजियों के साथ भयंकर युद्ध कर रहा था। महाराजा के अटक के इस पार पहुंचने की खबर सुनकर गाजियों के पैर मैदान से उखड़ गये और वे


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अपने हताहत भी मैदान में ही छोड़कर भाग खड़े हुए। हरिसिंह ने जहांगीरा दुर्ग पर सिक्ख पताका फहरा दी।

14 मार्च सन् 1823 को खालसा फौज ने नौशहरा के मैदान में अजीम खां की सेना पर धावा बोल दिया। दोनों ओर से बड़े साहस व वीरता से यह भयंकर युद्ध लड़ा गया। परन्तु खालसा के सामने अफ़गान ठहर न सके और मैदान छोड़कर भाग गये। अजीम खां भागकर मिचनी जा पहुंचा। इस विजय से सीमा प्रदेश में सिक्ख राज्य की स्थापना हो गई। परन्तु खेद है कि उनका एक अद्वितीय वीर अकाली फूलसिंह वीरगति को प्राप्त हो गया। महाराजा रणजीतसिंह ने इस विजय के बाद पेशावर में प्रवेश किया, परन्तु अब भी उसने इस नगर को अपने राज्य में मिलाना उचित न समझा और एक भारी वार्षिक रकम के बदले इसे यार मुहम्मद को सौंप दिया। इस अस्थायी शासक की सहायता के लिए सरदार हरिसिंह को सेना सहित कुछ काल के लिए वहां छोड़ दिया। सरदार हरिसिंह 7 मास पेशावर में रहकर रणजीतसिंह की आज्ञा अनुसार फिर हजारा में आ गया। 1827 ई० में सैय्यद अहमद ने पेशावर क्षेत्र में फिर विद्रोह कर दिया। रणजीतसिंह ने हरिसिंह नलवा को वहां शान्ति स्थापित करने के लिए फिर भेजा। हरिसिंह ने वहां पहुंचकर सैय्यद अहमद और उसके जिहादी पठानों के साथ सैदू के खुले मैदान में एक घमासान युद्ध किया। पठान बड़ी वीरता से लड़े परन्तु खालसों की तलवारों के सामने देर तक ठहर न सके। अतः मैदान छोड़कर भाग गये। सैदू के युद्ध में खालसा की 8,000 सेना ने पठानों की 15,000 सेना पर विजय पाई। वहां का योग्य प्रबन्ध करके हरिसिंह एक मास के बाद हजारा की ओर लौट आया।

1833 ई० में जब काबुल में घरेलू युद्ध के कारण गड़बड़ फैल गई तो रणजीतसिंह ने इस अवसर को उचित समझकर पेशावर पर चढाई की तैयारी की। महाराजा ने हरिसिंह नलवा को पेशावर पर चढ़ाई का आदेश दिया। वह हजारा से चलकर 20 अप्रैल 1834 ई० को अपनी सेना सहित अटक पहुंच गया। 26 अप्रैल को राजकुमार नौनिहालसिंह भी सेना सहित लाहौर से अटक पहुंच गया। जब सिक्ख सेना यहां से आगे बढ़ी तो हाजी खां और खान मुहम्मद खां ने उसका मार्ग में सामना किया। परन्तु सिक्खों के आगे ठहर न सके और भाग गये।

6 मई 1834 ई० को खालसा फौज ने पेशावर नगर में प्रवेश किया और किला बालाहिसार पर अधिकार कर लिया और उसका नाम बदलकर सुमेरगढ़ कर दिया। पेशावर को खालसा राज्य में शामिल कर लिया गया। हरिसिंह नलवा को वहां का सूबेदार नियुक्त किया गया।

काबुल का शासक दोस्त मुहम्मदखां पेशावर को सिक्खों से छीन लेना चाहता था। वह बड़ी भारी सेना लेकर 11 मई 1835 ई० को खैबर के दर्रा से निकला और सिक्खों पर आक्रमण कर दिया जो पहले से ही बाला के मैदान पर तैयार थे। दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दिन भर लोहे से लोहा बजता रहा। परन्तु सायंकाल अमीर दोस्त मुहम्मद और उसकी अफगान सेना साहस छोड़ बैठी और मैदान छोड़कर भाग निकली। अमीर की बहुत बड़ी युद्ध सामग्री सिक्खों के हाथ आई। जब तक दोस्त मुहम्मद जीवित रहा, उसके फिर पेशावर की ओर मुंह नहीं किया। हरिसिंह की इस युद्ध में विजय होने से अफगान व पठानों पर उसकी धाक बैठ गई।


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महाराजा की आज्ञा से हरिसिंह ने पेशावर में अपने नाम का सिक्का चलाया। इस रुपये पर फारसी में एक ओर लिखा था - “पेशावर जलूस जर्ब 1890 विक्रमी” और दूसरी ओर - “देग तेग फतह व नुसरत बेदरंग याफ्त अज गुरु गोबिन्दसिंह।”

जमरोद की लड़ाई' - सरदार हरिसिंह नलवा ने काबुली पठानों के आक्रमणों को रोकने के लिए खैबर के निकट जमरोद नामक स्थान पर दिसम्बर 1836 ई० में एक मजबूत किला बनवाया। उसमें 800 पैदल सैनिक, 200 घुड़सवार, 80 तोपें और बहुत सी युद्ध सामग्री रखी गई। हजारा से बुलाकर सरदार महासिंह को इसका किलेदार बनाया गया। जमरोद और पेशावर के मध्य मार्ग पर बुर्ज हरिसिंह नाम का एक छोटा-सा दुर्ग भी बनाया गया।

इसी प्रकार और भी कई छोटे-छोटे क़िले बनवाये गये। इन क़िलों को देखकर काबुल का शासक बहुत घबरा गया। उसने ‘जिहाद’ (धर्म-युद्ध) के लिए मुसलमानों को बड़ी भारी संख्या में एकत्र किया।

इस बहुसंख्यक इस्लामी सेना का सेनापति काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद खां ने अपने विश्वसनीय नायब मिर्जा समी खां को नियुक्त किया। यह सेना 24 अप्रैल 1837 ई० को लंडोकोतल पहुंच गई और जमरोद पर आक्रमण की तैयारी होने लगी। यह सेना 28 अप्रैल को जमरोद पहुंच गई और तोपों से किले पर गोलावृष्टि आरम्भ कर दी। किलेदार महासिंह भी तोपों का उत्तर तोपों से देने लगा। दिनभर के घोर संग्राम के उपरान्त अफ़गान वहीं के वहीं थे जहां वे सवेरे थे। दूसरे दिन भी बार-बार दुर्ग पर अफगानों ने धावे किये परन्तु असफल किये गये। परन्तु मुकाबला देर तक न हो सकता था। सिक्ख सेना केवल 1000 थी और अफ़गान 30,000 से भी अधिक थे। अन्त में अफ़गानों ने दुर्ग के गिर्द घेरा डाल लिया। दुर्ग की एक भुजा तोपों की मार से धराशायी हो गई। परन्तु अफ़गानों का दुर्ग में घुसने का साहस नहीं हुआ।

रात होने पर सरदार महासिंह ने अपने सैनिकों को जोश दिलाया और दीवार के छेद को बन्द कर दिया। उसने सरदार हरिसिंह जो पेशावर में थे, के नाम पत्र लिखा जिसमें किले के घेरे व शत्रु के आक्रमणों की सूचना थी। उसने लिखा कि अब सवेरे यदि सिक्ख सेना को कुमक न पहुंची और पानी का प्रबन्ध न हुआ, तो किले की एवं किलेवालों की कोई आशा न रखना। इस पत्र को पेशावर पहुंचाने का साहस किसी को भी न हुआ। इस कार्य के लिए रसोईघर में काम करने वाली स्त्री हरिशरणकौर ने अपने इच्छा से जिम्मेदारी ली।

उसने यह पत्र लिया और कमर में बांध लिया। उसने एक पोस्तीन उल्टा करके पहन ली, जिससे बाल ऊपर की ओर रहें। उसने सैनिकों को कहा कि यदि चार बजे तड़के पेशावर से तोप की आवाज आ जाये तो समझ लेना कि मैं पहुंच गई हूँ। यदि तोप का शब्द न सुनाई दे तो समझ लेना कि मैं मारी गई हूं। किले का द्वार खुलते ही हरिशरणकौर बाहर निकली और हूबहू कुत्ते की भांति झाड़ियों को सूंघती और दौड़ती-भागती निकल गई। शत्रु दल उसे सचमुच कुत्ता समझकर बैठा रहा। इस समय केवल एक ही प्रहर रात गई थी। वह वीर रमणी, एक प्रकार से आग का समुद्र चीरकर, रात में ढ़ाई बजे पेशावर जा पहुंचे और वह पत्र हरिसिंह नलवा को दे दिया। उसने तीन बजे तोप का फायर करवाया जो जमरोद किले के सैनिकों को सुनाई दिया। सरदार हरिसिंह, ज्वर


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से पीड़ित होते हुए भी, अपनी सेना लेकर सूर्योदय से पहले जमरोद जा पहुंचे। वहां जाते ही सरदार नलवा पठानों पर अचानक टूट पड़ा। दोनों ओर से भयानक युद्ध हुआ परन्तु अन्त में पठानों के पांव उखड़ गये और मैदान छोड़कर भाग गये। हरिसिंह नलवा का नाम पठानों के लिए हौव्वा था। पठानों को यह मालूम हो गया कि सरदार हरिसिंह स्वयं लड़ रहे हैं तो वे भयभीत होकर रणभूमि से भाग गये।

इस युद्ध में असंख्य पठान और कुछ सिक्ख वीरगति को प्राप्त हुए। इसमें पठानों की काफी युद्ध सामग्री सिक्खों के हाथ आई। इसमें 14 तोपें भी थीं जिनमें एक का नाम “कोह शिकन” या “पहाड़ तोड़” था। सरदार हरिसिंह नलवा की, काबुल और भारत के सीमावर्ती प्रान्तों के मुसलमानों पर, इतनी धाक बैठ गई कि उस वीर योद्धा का नाम सुनते ही वे भयभीत हो जाते थे। पेशावर और काबुल में अब भी उनका नाम बच्चों को डराने के लिए प्रयोग किया जाता है। वहां की पठान स्त्रियां बच्चों को रोने से बन्द करने के लिए कहती हैं - सुफता वाशिद हरि आहद यानी “बच्चे, चुप हो जाओ, हरि आता है।” वहां के बच्चे उसे हौव्वा समझते थे। “हरिया आया” सुनते ही कांपने लगते थे और चुप हो जाते थे।

वीर योद्धा सरदार हरिसिंह नलवा की मृत्यु 30 (अप्रैल सन् 1837 ई०)

जब पठान जमरोद के रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए तो हरिसिंह उनका दूर तक पीछा करना नहीं चाहता था क्योंकि दिन भर की लड़ाई में उनकी सेना थक चुकी थी। परन्तु पता लगा कि सरदार निधानसिंह उन भगोड़ों को मारता-काटता तथा उनके पीछे खैबर दर्रे में दूर तक चला गया। यह देख उसकी सहायता के लिए सरदार हरिसिंह को जाना पड़ा। उस घाटी में समरूदीन खां नामक पठान 2000 ताजा फौज लेकर पहुंचा। जब उसके साथ निधानसिंह का युद्ध हो रहा था तब सरदार हरिसिंह एक गुफा के निकट खड़े लड़ाई का रंग देख रहे थे।

इतने में गुफा में छिपे पठानों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। एक गोली लगते ही इनकी अंगरक्षक सेना का कमेदान सरदार अजायबसिंह वहीं पर वीरगति को प्राप्त हुआ। सरदार हरिसिंह को एक गोली पेट में और दूसरी उनके पांवों में लगी। इनसे वह प्राणघातक रूप से घायल हो गया। उसके घावों से रक्त के फव्वारे छूट रहे थे। परन्तु वह धैर्य का धनी तुरन्त अपने स्वामिभक्त घोड़े पर चढ़ा और उसे दौड़ने को कहा। वह घोड़ा अपने स्वामी को पठानों के लश्कर तथा सिक्खों की सेना में से होकर जमरोद के दुर्ग में इस तरह ले गया जैसा कि हल्दीघाटी की रणभूमि से चेतक घोड़ा अपने स्वामी वीर राणा प्रतापसिंह को ले गया था।

उधर सरदार निधानसिंह की सहायता के लिए सरदार अमरसिंह जा पहुंचा। दिन भर घमासान युद्ध होता रहा। रात होते ही पठान हारकर भाग गये। वे इतने भयभीत हो गये कि उन्होंने फिर जमरोद या पेशावर की ओर मुंह नहीं किया।

उधर दुर्ग में पहुंचने के बाद वीर हरिसिंह की दशा क्षण-क्षण में अधिक बिगड़ती गई। दुर्ग में पहुंचने के आधा घण्टा उपरान्त की इस वीर योद्धा का प्राण-पखेरू पांचभौतिक शरीर को छोड़कर अमरपुर सिधार गया। इस वीर का नाम संसार में सदा अमर रहेगा।


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सरदार महासिंह ने दूसरे सेनानायकों की सम्मति से सरदार हरिसिंह का दाहसंस्कार उसी दिन, 30 अप्रैल सन् 1887 को, आधी रात के समय चुपचाप दुर्ग के भीतर ही कर दिया। परन्तु जब तक लाहौर से कुमुक न आ गई, उनकी मृत्यु का समाचार बाहर प्रकट नहीं होने दिया। उनकी कुछ अस्थियां तो उनकी पत्नी श्रीमती देसां को दे दी गईं और शेष पर एक समाधि मन्दिर बनवा दिया गया जो जमरोद के किले में आज भी विद्यमान है।

सरदार हरिसिंह के वीरगति को प्राप्त होने का दुःखद समाचार पंजाबकेसरी को लाहौर पहुंचा दिया गया। यह समाचार सुनकर महाराजा को बड़ा गम्भीर सदमा हुआ। उन्होंने कहा कि “आज सिक्ख राज्य का एक बड़ा स्तम्भ टूट गया।” महाराजा ने उसी समय खालसा सेना को पेशावर भेज दिया। सरदार हरिसिंह की मृत्यु होने का दुःख न केवल सिक्खों एवं जाटों को ही हुआ किन्तु सारे भारतवर्ष के हिन्दुओं को हुआ।

सरदार हरिसिंह का नलवा नाम पड़ने का कारण

सरदार गुरुदयालसिंह उप्पल गोत्र का जाट गुजरांवाला का निवासी था। वह सिक्खों की प्रसिद्ध ‘सुकरचकिया जाट मिसल’ का कमेदान (कमाण्डर) था। उन्हीं के यहां संवत् 1849 (1792 ई०) के आरम्भ में हरिसिंह का जन्म हुआ। महाराजा रणजीतसिंह लाहौर में प्रतिवर्ष एक बड़ा दरबार बुलाया करते थे। इस दरबार में पंजाब के नवयुवक आकर अपने शारीरिक बल का प्रदर्शन किया करते थे। उसी समय महाराजा योग्य युवकों को अपनी सेना में भरती करते थे। संवत् 1862 वि० को हरिसिंह उस दरबार में गया। महाराजा तथा अन्य लोग हरिसिंह के मनोहर रूप, सुडौल, बलिष्ठ एवं चुस्त शरीर तथा सैनिक कला देखकर आश्चर्य से चकित रह गये। महाराजा उससे इतने प्रसन्न हुए कि त्रन्त से अपने ‘हजूरी खिदमतदार’ अर्थात् अंगरक्षक का पद प्रदान किया। उस समय हरिसिंह की आयु केवल 13 वर्ष की थी।

सरदार हरिसिंह को राजसभा में आए अभी कुछ ही मास बीते थे कि एक दिन महाराजा आखेट के लिए वन में गये और नवयुवक हरिसिंह को भी साथ ले गये। वन में एक बाघ एकदम हरिसिंह पर झपटकर पूरे बल से उसे नीचे गिराने का यत्न करने लगा। उसने दोनों हाथों से बाघ के जबड़े को पकड़कर उसे इतने जोर से घुमाया कि उसका सांस बन्द हो गया और वह तत्काल भूमि पर गिर पड़ा। इतने में हरिसिंह ने शीघ्रता से कृपाण निकालकर बाघ की गर्दन पर इतना प्रबल प्रहार किया कि उसका सिर धड़ से पृथक् होकर दूर जा पड़ा। महाराजा इस घटना के समय कुछ दूरी पर थे। वे घोड़ा दौड़ाकर हरिसिंह की सहायता के लिये पहुंचे। परन्तु बाघ तो इनके पहुंचने से पहले ही मार दिया गया था। महाराजा हरिसिंह इस अद्भुत वीरता से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने उसे अपनी “सिंह-हृदय” नामक सेना का सेनापति बना दिया। इससे आगे हरिसिंह की वीरता एवं युद्धों का वर्णन पिछले पृष्ठों पर कर दिया गया है।

बाघ की गर्दन मरोड़कर उसे मारने के कारण इसका नाम नलवा पड़ा। बैरन हूगल ने अपने यात्रा वृत्तान्त में यह बात लिखी है। श्री एन० के० सिंह अपने इतिहास “रणजीतसिंह, 167, 168” पर लिखते हैं कि “सरदार हरिसिंह को नलवा इसलिए कहा जाता था कि उसने सिंह की गर्दन मरोड़कर उसे मार डाला था।”


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सिक्खों और अंग्रेजों की अफगानिस्तान पर चढ़ाई (25 अप्रैल, 1839 ई०)

भारत के गवर्नर जनरल, लार्ड ऑकलैंड के समय अंग्रेजों को रूस का भारी भय हो गया था। कारण यह कि रूस ने काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद खां से मित्रता कर ली थी। अब लार्ड ऑकलैंड ने महाराजा रणजीतसिंह के सामने एक सन्धि का प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार ब्रिटिश, शाहशुजा तथा रणजीतसिंह तीनों को इकट्ठा मिलाकर अपने समान शत्रु अमीर दोस्त मुहम्मद के विरुद्ध युद्ध करना था तथा दोस्त मुहम्मद को गद्दी से उतारकर उसके स्थान पर शाहशुजा को काबुल का अमीर बनाना था। यह तीन धड़ों की सन्धि 16 जून 1838 ई० को हुई। महाराजा रणजीतसिंह चाहते थे कि सिक्खों के अधीन सिन्धु नदी से पार के प्रान्तों पर पठानों के बार-बार आक्रमण पूरे तौर से बन्द हो जायें तथा वे हरिसिंह नलवा की हत्या का बदला भी लेना चाहते थे। महाराजा ने शाहशुजा और अंग्रेजों को अपनी शर्तें यह बतलायीं - (1) शाहशुजा काबुल का अमीर बनने पर समस्त अफगानिस्तान में गौवध बन्द करवा देगा। (2) काबुल विजय के उपरान्त हमें सोमनाथ के मन्दिर का वह चन्दन का दरवाजा भी वापिस दिलाया जाय जो गजनी का महमूद सन् 1025 में भारत से लूटकर ले गया था और जो अब उसके मकबरे में लगा हुआ है।

यह बातें शाहशुजा और अंग्रेजों ने स्वीकार कर लीं और सन्धि की शर्तें लेखबद्ध कर ली गईं। इस सन्धि पत्र पर ऑकलैंड, महाराजा रणजीतसिंह और शाहशुजा इन तीनों के हस्ताक्षर हो गये। काबुल की चढ़ाई की तैयारियां होने लगीं। अंग्रेजों ने अपने 15,000 सैनिक फिरोजपुर में एकत्र किए। महाराजा ने भी अपने 15,000 सिक्ख सैनिक तैयार कर दिए। शाहशुजा अपनी पठान सेना को लेकर काबुल में घुस गया। 2 जनवरी सन् 1839 को अंग्रेज एवं सिक्ख सेनाओं ने काबुल की ओर कूच किया। सिक्ख सेना का सेनापति कुंवर नौनिहालसिंह था। यह सम्मिलित सेना खैबर के दर्रे से आगे बढ़ी। इन्होंने 25 अप्रैल सन् 1839 को कन्धार पर अधिकार कर लिया। अमीर दोस्त मुहम्मद जान बचाकर भाग गया। 8 मई 1839 को शाहशुजा को गद्दी पर बैठा दिया।

इस युद्ध के समाप्त होने पर सोमनाथ के मन्दिर का दरवाजा वापिस भारत में लाया गया। महाराजा रणजीतसिंह को शाहशुजा से कोहनूर हीरा प्राप्त हुआ। यह हीरा नादिरशाह दिल्ली किले से लूट के माल के साथ अफगानिस्तान ले गया था। उसने सन् 1739 ई० में भारत पर आक्रमण किया था। सन् 1839 में 100 वर्ष के बाद यह कोहनूर हीरा महाराजा रणजीतसिंह के पास वापस भारत में आ गया।

नोट
सोमनाथ मन्दिर के दरवाजे को गज़नी से, पहली जाट बटालियन उठा कर भारत लाई थी। इसका संक्षिप्त वर्णन - पहली और दूसरी जाट बटालियन अफ़गानिस्तान के युद्ध में, अंग्रेज सेना के रूप में शामिल थीं। पहली जाट तथा अन्य सेनाओं के साथ खैबर के दर्रे के रास्ते गजनी पहुंची और वहां का किला जीत लिया। दूसरी जाट, जो बम्बई सेना का एक भाग थी - समुद्र द्वारा सिन्धु नदी के मुहाने पर पहुंचकर अप्रैल 1839 में क्वेटा पहुंच गई। फिर खोजक दर्रे को पार करके अगले महीने कन्धार जा पहुंची।

अफ़गानिस्तान के अनेक स्थानों पर हुए युद्धों में इन दोनों जाट बटालियनों ने सराहनीय वीरता दिखाई। सूबेदार बस्तीसिंह ने एक मुठभेड़ में बड़ी वीरता दिखाई और उसे पहला इंडियन आर्डर आफ मेरिट (आई० ओ० एम०) पदक से सम्मानित किया गया। यह पदक भारतीयों के लिये सबसे


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ऊंचा था। तब तक विक्टोरिया क्रास (वी० सी०) स्थापित नहीं हुआ था। भारतीयों को तो वी० सी० 1911 ई० के बाद ही मिल सकने का अधिकार मिला। पहली जाट के सिपाही भवानीसिंह ने केलात-ई-गिलज़ई (Kelat-e-Gilzai) के किले के युद्ध में, विशेष वीरता का प्रदर्शन किया। भवानी सिंह को आई० ओ० एम० पदक दिया गया।

जब यह पहली जाट बटालियन गजनी के समीप थी तो इसने वहां की विख्यात तोप “ज़बर जंग” शत्रु से छीन ली जिसको भारत में लाया गया। इसके लोहे के चिह्न आज तक इस बटालियन में मौजूद हैं। यह पहली जाट बटालियन गजनी से सोमनाथ के मन्दिर के चन्दन के फाटक उठाकर बड़े सम्मानपूर्वक भारत में लाई। यह पहली जाट खैबर के दर्रे से भारत आई। दूसरी जाट बटालियन 31 अक्तूबर तक क्वेटा लौट आई। इस अभियान में प्रशंसनीय कार्य के लिए पहली जाट बटालियन को लाइट इन्फेंटरी (एल० आई०) नाम से सम्मानित किया गया जो आज भी इस बटालियन के नाम के साथ जुड़ा हुआ है1/sup>।

नोट - लाइट इन्फेंटरी (Light Infantry) का अर्थ है - ‘प्रसिद्ध पल्टन’।

महाराजा रणजीतसिंह का स्वर्गवास - वीर योद्धा पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह का 27 जून 1839 ई० को स्वर्गवास हो गया।

महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार - महाराजा ने बहुत से प्रदेशों पर विजय प्राप्त करके अपनी छोटी-सी सुकरचकिया मिसल को एक विशाल राज्य में परिवर्तित कर दिया।

इनके राज्य की सीमायें - इनके राज्य की सीमायें उत्तर में कराकोरम पर्वत और तिब्बत तक, दूसरी ओर उत्तर पश्चिम में हिंदुकुशसुलेमान पहाड़ियों को छूती थी। दक्षिण-पूर्व में इनका राज्य सतलुज नदी तक और दक्षिण-पश्चिम में सिन्धु नदीसिन्ध प्रान्त तक था। पश्चिम में सिन्धु नदी तथा उसके पार डेरागाजी खां, डेरा इस्माइल खां, बन्नू, कोहाट और पेशावर के प्रान्त इनके राज्य में शामिल थे। इनका राज्यविस्तार तत्कालीन सम्पूर्ण भारतीय नरेशों से अधिक एवं शक्तिशाली था। महाराजा रणजीतसिंह को यदि अन्तिम हिन्दू सम्राट् कह दिया जाये तो वजा होगा। जनरल कनिंघम ने सिक्ख राज्य की सीमा इस प्रकार बताई है - “दिल्ली से पेशावर और सिन्ध से कराकोरम पर्वत श्रेणी तक विशाल भूखंड में उनका अधिकार और आधिपत्य है। पानीपत से खैबर तक 450 मील परिमित एक भूमि रेखा खींचने में उस पर दो समबाहु त्रिभुज अंकित हो सकते हैं। रणजीतसिंह का विजित राज्य और सिक्ख जाति का स्थायी उपनिवेश समूह उसके ही अन्तर्गत है।” महाराजा के राज्य की राजधानी लाहौर थी। उसने अपने राज्य को चार सूबों में बांटा था - (1) लाहौर (2) मुलतान (3) कश्मीर (4) पेशावर

महाराजा रणजीतसिंह यदि अंग्रेजों के साथ हुई अमृतसर की सन्धि की धारायें स्वीकार न करता तो वह सतलुज से पूर्व के क्षेत्रों को विजय करके दिल्ली पर भी अधिकार कर सकता था। दिल्ली के चारों ओर जाट शक्ति निवासी हैं और भरतपुर जाट नरेश भी उनकी सहायता करता। यही कहना पड़ता है कि यह सिक्खों व जाटों तथा उनके अतिरिक्त भारत की हिन्दू जाति का दुर्भाग्य था।


1. जाट बलवान, जाट रेजीमेंट की वीर गाथा, पृ० 4-7, लेखक कर्नल गौतम शर्मा


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अमृतसर की सन्धि (सन् 1809) - फ्रांस के नैपोलियन बोनापार्ट ने रूस से सन्धि कर ली थी और वह रूस की सहायता से भारत पर आक्रमण करना चाहता था। इससे इंग्लैंड और भारत के अंग्रेजों को बड़ी चिन्ता हुई। अंग्रेजों ने महाराजा रणजीतसिंह से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहा। अतः सन् 1808 में ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड मिण्टो ने मैटकाफ को रणजीतसिंह से बातचीत के लिए भेजा। मिण्टो ने रणजीतसिंह के सामने यह प्रस्ताव रखा कि फ्रांसीसी आक्रमण का मुकाबला करने के लिए उन्हें आपस में सन्धि कर लेनी चाहिए। रणजीतसिंह ने इस सन्धि की लिए अपनी दो शर्तें मानने को कहा। पहली यह कि उसे सभी सिक्खों का (मालवा के सिक्खों का भी) एकमात्र शिरोमणि स्वीकार कर लिया जाए और दूसरी यह कि वह काबुल के शासक के विरुद्ध युद्ध करे तो अंग्रेज उस युद्ध में कोई हस्तक्षेप न करेंगे। मैटकाफ ने इन शर्तों को अस्वीकार कर दिया और वह बिना सन्धि किए ही वापस चला गया। रणजीतसिंह ने तुरन्त ही सतलुज पार के प्रदेशों पर तीसरी बार आक्रमण कर दिया और मालवा के शासकों (सिक्ख राजे) से एक बार फिर नजराजा वसूल किया।

सन् 1809 ई० के आरम्भ में नैपोलियन का भय जाता रहा। अतः अंग्रेजों ने रणजीतसिंह की बढ़ती हुई शक्ति पर रोक लगाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। अंग्रेजों ने मैटकाफ को दूसरी बार रणजीतसिंह के पास भेजा, जिसने महाराजा को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह सतलुज पार के प्रदेशों पर से अपना अधिकार उठा ले, क्योंकि वे सब प्रदेश अंग्रेजों के संरक्षण में हैं। रणजीतसिंह ने इस बात को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां शुरु हो गईं। रणजीतसिंह ने अपने योग्य नेता मोहकमचन्द के नेतृत्व में अपनी सेनाएं फिल्लौर में एकत्रित कर लीं, जबकि अंग्रेजी सेनाएं अखतरलोनी (Ochterlony) के नेतृत्व में लुधियाना में तैयार खड़ी हो गईं। अब मैटकाफ रणजीतसिंह के पास तीसरी बार आया और उसने महाराजा के साथ सन्धि की बातचीत चलाई। महाराजा रणजीतसिंह इस सन्धि के लिए रजामन्द न था। रणजीतसिंह ने देख लिया कि सिक्ख रियासतों के सरदार अंग्रेजों के साथी बन गये और स्वयं अंग्रेजों की सैनिक शिक्षा और युद्ध कला बहुत ऊंचे ढ़ंग की है, अतः उसे सन्धि करनी पड़ी। अन्त में 25 अप्रैल, 1809 ई० को रणजीतसिंह तथा अंग्रेजों के मध्य अमृतसर की सन्धि पर हस्ताक्षर किये गये। इस सन्धि की मुख्य धारायें ये थीं -

  1. अंग्रेज सरकार और लाहौर राज्य में मित्रता स्थापित रहेगी। अंग्रेज रणजीतसिंह को अपना परम मित्र समझेंगे और सतलुज के उत्तर-पश्चिम में महाराजा के प्रदेशों तथा प्रजाजनों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
  2. दक्षिण में रणजीतसिंह के प्रभावशाली क्षेत्र की सीमा सतलुज नदी निश्चित रहेगी।
  3. रणजीतसिंह सतलुज नदी के बायें किनारे पर केवल उतनी ही सेना रखेगा जितनी कि वहां शान्ति रखने के लिए आवश्यक होगी। इससे अधिक सेना वहां नहीं रखेगा।
  4. अंग्रेजी सेना लुधियाना में रखी जायेगी।
  5. यदि ऊपर की धाराओं में से किसी को भी भंग किया गया तो सन्धि व्यर्थ समझी जायेगी।

इस सन्धि से अंग्रेजों को काफी लाभ हुआ। सतलुज नदी के दक्षिण में पटियाला, नाभा, जींद


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आदि सिक्ख रियासतें उनके प्रभाव क्षेत्र में आ गईं। अंग्रेजों पर सतलुज नदी के निकट तक उनकी सेनायें जमा होने की रोक न लगाई गई। अतः उन्होंने भारी संख्या में यहां पर अपनी सेनायें जमा कर लीं और लाहौर राज्य के समीप आ गये। रणजीतसिंह के लिए यह सन्धि हानिकारक थी। एक विशाल सिक्ख राज्य बनाने के उसके स्वप्न चूर-चूर हो गये। वह सतलुज के दक्षिण-पूर्व की ओर सिक्ख रियासतों पर अपना अधिकार करने तथा दिल्ली तक विजय प्राप्त करने के लिए बाध्य हो गया। परन्तु उत्तर और पश्चिम की ओर बढ़ने का अवसर और स्वतन्त्रता मिल गई। महाराजा ने इन दिशाओं की ओर दूर-दूर तक विजय प्राप्त करके अपने राज्य का विस्तार किया, जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है।

महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में विदेशी अफसर

महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में 37 यूरोपियन तथा विदेशी अफसर नौकर थे जिनमें फ्रांस के 17, इंग्लैंड के 6, जर्मनी के 3, स्पेन के 2, अमेरिका के 6, ऐंग्लो-इण्डियन 2 और इटली का 1 था। इन अफसरों में कई सेना के जनरल थे जिन्होंने महाराजा की सिक्ख सेना को यूरोपियन ढंग की सिखलाई दी। लाहौर और अमृतसर में तोप ढालने और बारूद बनाने के कारखाने स्थापित किए गए। इन सब अफसरों से भरती होने से पहले प्रतिज्ञा कराई थी कि वे गाय का मांस न खायेंगे, दाढ़ी न कटायेंगे और तम्बाकू न पियेंगे। पहली दोनों बातें वे पूर्णतया मानते रहे तथा तीसरी बात महाराजा ने माफ कर दी।

महाराजा रणजीतसिंह का रनिवास - महाराजा रणजीतसिंह की 18 रानियां थीं। इन रानियों में 7 सिक्ख जाटों की, 5 हिन्दू जाटों की, 2 राजपूतों की, 2 मुसलमानों की, एक हिन्दू जमींदार की और एक विदेशीय संतान थी। भारत के हिन्दू नरेशों में महाराजा जवाहरसिंह भरतपुर नरेश और पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह ही ऐसे थे जिन्होंने मुसलमान ललनाओं के डोले लिये। वरना ग्यारहवीं शताब्दी से यही होता रहा कि भारत के राजपूत नरेशों की ललनाओं को मुसलमान शासक अपनी बेगम बनाते रहे थे। यह सिक्ख एवं खासतौर से जाट जाति के लिए स्वाभिमान की बात है। (ठाकुर देशराज, जाट इतिहास, पृ० 282-284)।

महाराजा रणजीतसिंह के पुत्र - महाराजा रणजीतसिंह के सात पुत्र थे। उनके नाम ये हैं - (1) शेरसिंह (2) तारासिंह। इन दोनों की माता रानी महताबकौर थी जो सिन्धु जाटवंशीय चौ० गुरुबख्शसिंह की पुत्री थी। (3) खड़गसिंह - इसकी माता रानी रतनकौर थी जो सरदार रामसिंह सिन्धु जाट की पुत्री थी। (4) मुलतानसिंह जिसकी माता रानी रतनकौर थी। (5) कश्मीरासिंह (6) पिशोरासिंह, इन दोनों की माता रानी दयाकौर थी। (7) दलीपसिंह - इसकी माता का नाम रानी जिन्दा था जो महाराजा की अन्तिम रानी थी।

दलीपसिंह के पुत्र का नाम विक्टर दलीप था जो इंग्लैंड में पैदा हुआ था। खड़सिंह का पुत्र नौनिहालसिंह और तारासिंह के पुत्र का नाम फतहसिंह था।

महाराजा रणजीतसिंह का व्यक्तित्व - महाराजा रणजीतसिंह का कद मझला (दरमियाना), शरीर सुदृढ़ एवं भरा हुआ था। उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे तथा तेज छाया हुआ था। उनका चेहरा इतना रौबीला एवं भयानक था कि उसको देखने से डर लगता था। उनकी एक दाहिनी आंख


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थी जिससे वह देखते थे। बायीं आंख से काने थे। उनकी नाक सीधी, मोटी गर्दन, लम्बी सुदृढ़ व विशाल बाहें थीं जो घुटनों से नीचे तक पहुंची हुई थीं। उनका सिर बड़ा था और रंग गोरा था।

महाराजा पढ़े लिखे न होते हुए भी अत्यन्त प्रतिभाशाली, दूरदर्शी, प्रत्युत्पन्नमति एवं राज्य कार्य में सदा सावधान थे। लिखने वालों को पृथक् करके दूसरे से सुनकर विचारपूर्वक ही प्रत्येक आज्ञा और पत्रों पर अपनी मुहर लगवाते थे। सोने के समय तक मन्त्रियों को साथ रखकर नई सूझ लिखाया करते थे। राज्य के प्रत्येक विभाग की उन्हें पूरी जानकारी थी। महाराजा बड़े खिलाड़ी, तलवार चलाने के प्रेमी, बर्छी-भाला, तीनकमान के अभ्यासी और घोड़ों के अद्वितीय सवार तथा पारखी थे। उद्दण्ड से उद्दण्ड घोड़ों और पठानों को सीधा करने में तो वे बहुत ही सिद्धहस्त (कुशल) थे। भांति-भांति की जानकारी प्राप्त करने का उन्हें चाव था।

जैक्मों नामक फ्रांसीसी यात्री ने लिखा है कि “महराजा रणजीतसिंह पहला भारतीय है जो जिज्ञासावृत्ति में सम्पूर्ण राजाओं से बढ़ा-चढ़ा है। वह इतना बड़ा जिज्ञासु कहा जाना चाहिए कि मानो अपनी सम्पूर्ण जाति की उदासीनता को वह पूरा करता है। वह असीम साहसी शूरवीर है। उसकी बातचीत से सदा भय सा लगता है।” उन्होंने अपनी किसी विजय यात्रा में कहीं भी निर्दयता का व्यवहार नहीं किया। प्रिन्सेप ने लिखा है कि “एक अकेले आदमी द्वारा इतना विशाल राज्य इतने कम अत्याचारों के कभी स्थापित नहीं किया गया।” अद्भुत वीरता, धीरता, शूरता में समकालीन सभी भारतीय नरेशों के शिरमौर थे। दूसरे शब्दों में पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह भारत का नैपोलियन था1

महाराजा रणजीतसिंह के उत्तराधिकारी - 27 जून, 1839 ई० को महाराजा रणजीतसिंह के स्वर्गवास होने के बाद सिक्खों का पतन आरम्भ हो गया। डोगरा राजपूत राजा ध्यानसिंह, गुलाबसिंह और हीरासिंह नामक हिन्दू मन्त्रियों का सिक्खराज्य के पतन में विशेष भाग रहा। ये महाराजा के शासन में बड़े-बड़े ऊंचे पदों पर थे। रणजीतसिंह का उत्तराधिकारी खड़गसिंह अयोग्य, अस्थिर, कल्पनाहीन और असमर्थ व्यक्ति था। खड़गसिंह का पुत्र कुंवर नौनिहालसिंह और डोगरा राजा ध्यानसिंह सिक्खराज्य के कर्ता-धर्त्ता बने। महाराजा नौनिहालसिंह ने वास्तव में अपने दादा के पदचिह्नों पर चलकर अपने को सफल शासक सिद्ध किया। उसने कूटनीतिज्ञता से भरे अंग्रेजों से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद करके बनारस से अफ़गानिस्तान तक राज्यविस्तार की एक सुदृढ़ योजना बनाई। वह राजा ध्यानसिंह की स्वामीभक्ति से भी सावधान था। किन्तु 8 अक्तूबर 1839 ई० से आगे 27 दिन ही शासन चलाने के बाद, 5 नवम्बर 1839 ई० को अपने पिता महाराजा खड़गसिंह का दाह संस्कार करके जब लौटकर किले के फाटक में पहुंचे तो पूर्व निश्चित योजनानुसार बहुत सी ईंटें इन पर गिरवा दी गईं, जिनसे इनको ऐसी घातक चोंट आई कि केवल एक घण्टे में ही इनका स्वर्गवास हो गया। मृत्यु समय तक राजा ध्यानसिंह ने एकान्त हजारी बाग के अन्दर महल में किसी


आधार पुस्तकें -

1. जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज।
2. जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री
3. क्षत्रियों का इतिहास, लेखक परमेश शर्मा।
4. भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), ले० अविनाशचन्द्र अरोड़ा।


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को नहीं आने दिया। ऐसे समय महाराजा खड़गसिंह की महारानी चांदकौर ने शासन की बागडोर सम्भाली। सिन्धानवालिया सरदार इसके समर्थन में थे। ध्यानसिंह तब भी मन्त्री रहा किन्तु वह राज्य प्रबंध को बिगाड़ता रहा।

दरबार में षड्यन्त्र पनपने लगे। चान्दकौर, शेरसिंह, डोगर बंधु और सिन्धानवालिया सरदार सबने अपने-अपने दावेदारों और पक्षों का समर्थन किया। ब्राह्मणकुलकलंक तेजसिंह और लालसिंह सेनापति थे जिन्होंने विश्वासघात किया। सिक्ख ‘खालसा’ सेना पर नियन्त्रण नहीं रहा, वह शक्तिशाली होती गई। सन् 1842 में शेरसिंह ने लाहौर पर अधिकार करके रानी चान्दकौर का वध करवा दिया। लार्ड एलेनबरो जब भारत आया, उसने त्रिदलीय संधि को समाप्त कर दिया। इसी समय शेरसिंह, प्रतापसिंह और ध्यानसिंह तीनों के कत्ल से लाहौर संत्रस्त और संतप्त था। लार्ड एलेनबरो जुलाई 1844 में इंग्लैंड लौट गया। जब लार्ड हार्डिंग भारत आए तो रानी जिन्दा के संरक्षणत्व में बालक दलीपसिंह का राज्य था। लालसिंह का इनसे सम्बन्ध था।

हार्डिंग ने चालीस हजार सैनिक और सौ तोपें सीमा पर लगा दीं। लालसिंह और रानी जिन्दा ने भी यह एक अवसर समझा कि मुक्ति पाने के लिए खालसा सेना को अंग्रेजों से सतलुज के उस पार भिड़ा दिया जाए। सन् 1845 ई० में सिक्ख सेना की गश्ती टुकड़ी ने हरिकेपतन से से सतलुज पार किया। अंग्रेजों को सीमा उल्लंघन का बहाना मिल गया। लार्ड हार्डिंग ने दिसम्बर, 1845 में युद्ध की घोषणा कर दी।

प्रथम सिक्ख युद्ध

पहले सिक्खों की योजना फिरोजपुर पर आक्रमण करने की थी, किन्तु उनका नेता लालसिंह अंग्रेजों से मिला हुआ था। इसीलिये पहली मुठभेड़ मुदकी में हुई। अंग्रेज विजयी हुए, किन्तु वीर सिक्खों ने उनको गहरी हानि पहुंचाई। इसके बाद 21 दिसम्बर, 1845 को फिरोजपुर शहर में घमासान लड़ाई हुई। सिक्खों की वीरता और भीषण आक्रमण से अंग्रेज सेना के हौंसले पस्त हो गए किन्तु गवर्नर जनरल और जनरल डफ सेना को ढाढस बंधाते रहे। सिक्ख हार गए। इनकी पराजय लालसिंह और तेजसिंह की गद्दारी के कारण ही हुई थी। इसके बाद 21 जनवरी, 1846 को बद्दोवाल और 28 जनवरी को अलीवाल में कुछ झड़पें हुईं। 7 फरवरी को सुबराओं का युद्ध हुआ। लालसिंह और तेजसिंह भीरु, चंचल और विलासी थे, गुलाबसिंह ऊपर से रानी जिन्दा का सलाहकार बना हुआ था, किन्तु भीतर से अंग्रेजों से सौदेबाजी कर रहा था। रानी जिन्दा ने बारूद के स्थान पर बोरों और पीपों में अलसी के बीज भेज दिए। 10 फरवरी को सुबराओं में खालसा सेना तहस-नहस हो गई। 20 फरवरी को अंग्रेज लाहौर आ गए और 9 मार्च, 1846 को लाहौर की संधि हुई।

लाहौर की सन्धि

  • (1) सतलुज के वामपार्श्व की भूमि द्वाबा बिस्त जालन्धर तक अंग्रेजों को मिल गई।
  • (2) सिक्खों ने डेढ़ करोड़ रुपये युद्ध का हर्जाना देना स्वीकार किया। इनमें से 50 लाख रुपये नकद और शेष में काश्मीर का क्षेत्र गुलाबसिंह को दिए जाने का प्रावधान था।

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  • (3) सिक्ख सेना की संख्या 2000 पैदल और बारह हजार घुड़सवारों तक सीमित कर दी गई। शेष सेना वेतन चुकाकर अलग कर दी गई।
  • (4) सिक्खों को 30 तोपें रखने का अधिकार रहा। बाकी सब अंग्रेजों ने ले ली।
  • (5) आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेजी सेना पंजाब से गुजर सकती है।
  • (6) अंग्रेजी सरकार लाहौर दरबार के अन्दरूनी मामलों में दखल नहीं देगी।
  • (7) लाहौर में अंग्रेजी सेना रखी जाएगी।

इस सेना का हेनरी लारेंस को सेनापति बनाया गया। दलीपसिंह को महाराजा, रानी जिन्दा को संरक्षिका, लालसिंह को प्रधानमन्त्री स्वीकार किया गया। काश्मीर का राज्य 75 लाख रुपये में गुलाबसिंह को बेच दिया। कनिंघम और एलेनबरो ने इसकी तीव्र निन्दा की थी। परन्तु हार्डिंग ने द्रोहियों को तो पुरस्कृत करना ही था।

द्वितीय सिक्ख युद्ध और पंजाब का विलयनीकरण

लार्ड डलहौजी भारतवर्ष में गवर्नर-जनरल बनकर आया। हेनरी लारेंस बीमार होकर इंग्लैंड चला गया और उसके स्थान पर फ्रेडरिक कैरी को रेजीडैण्ट बनाकर लाहौर भेजा गया। मुलतान का प्रान्त सिक्ख राज्य के अन्तर्गत था। वहां के कुशल दीवान सावनमल की मृत्यु हो गई। उसके उत्तराधिकारी दीवान मूलराज को 30 लाख रुपये नजराने के रूप में देने के लिए कहा गया। उसको यह राशि न देने पर कैरी ने दबाव डालकर त्यागपत्र ले लिया। अब सरदार काहनसिंह को मुलतान का गवर्नर नियुक्त किया गया और दो अंग्रेज अफसर एगन्यू और एण्डर्सन उसके सहयोगी बनाए गए। जब ये मुलतान पहुंचे तो दोनों अंग्रेज अफसरों को मार डाला गया और काहनसिंह को कैद कर लिया। कैरी ने शेरसिंह अटारीवाला को सेना की कमान देकर मुलतान भेज दिया। रानी जिन्दा को देशनिकला देकर पैन्शन नियत करके वाराणसी भेज दिया गया। उस पर मूलराज से षड्यन्त्र करने का आरोप लगाया गया। इससे सिक्खों में असन्तोष फैल गया। इसके साथ ही सरदार छत्रसिंह अटारीवाला के विरुद्ध मुसलमानों को भड़काया गया। वह हजारा के गवर्नर थे। अंग्रेजों ने जो सेना मुलतान भेजी थी उसका अधिकांश भाग दीवान मूलराज से मिल गया। पंजाब में विद्रोह की आग फिर भड़क उठी। लाहौर दरबार या महाराजा दलीपसिंह ने तो कुछ बिगाड़ा नहीं था। डलहौजी ने युद्ध की घोषणा कर दी। शेरसिंह ने भी सब सिक्खों को संगठित होने के लिए अपील की, छत्रसिंह भी हजारा से चलकर पेशावर और अटक विजय करते हुए अपने बेटे शेरसिंह से मिलने के लिए चल पड़ा। अफ़गान शासक दोस्त मुहम्मद भी पेशावर वापस मिलने की शर्त पर सिक्खों का साथ देने को राजी हो गया।

सेनापति लार्ड गफ ने सतलुज पार करके पंजाब पर आक्रमण कर दिया। कैरी सेना सहित उसके स्वागत को तैयार था। सिक्खों ने डटकर मुक़ाबला किया और अंग्रेजों को गहरी क्षति पहुंचाई। पहली लड़ाई चिनाब के तट पर हुई, दूसरी चिलियांवाला में [[Jhelum River|झेलम के तट पर हुई। यह ऐतिहासिक युद्ध था। इसमें सिक्खों की जीत हुई। लड़ाई निर्णायक नहीं थी। डलहौजी ने सिन्धविजेता सर चार्ल्स नेपियर को सेना की कमान सौंपी। परन्तु नेपियर के आगमन से पहले


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ही 21 फरवरी, 1849 को गुजरात के युद्ध में गफ ने सिक्खों को करारी पराजय दी। लगभग इसी समय मूलराज ने भी मुलतान में हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर दिया। 12 मार्च 1849 को सारी सिक्ख सेना ने हथियार डाल दिए। उनके साथ पठान भी भाग निकले।

पंजाब का विलय - एच० एम० इलियट ने लाहौर सन्धि का मसूदा 29 मार्च 1849 को तैयार कर लिया और डलहौजी ने 5 अप्रैल 1849 को इसकी अनुमति दे दी। पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया। दलीपसिंह को चार और पांच लाख रुपयों के बीच वार्षिक पैन्शन पर इंग्लैंड भेज दिया गया। मूलराज ने काले पानी जाते हुए रास्ते में ही आत्मघात कर लिया। छत्रसिंह एवं शेरसिंह को बन्दी बनाया गया। पंजाब के विलय का पूर्ण दायित्व लार्ड डलहौजी की निरंकुश और अनैतिक नीति पर ही है। उसकी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा अपरिसीम थी।

लाहौर सन्धि और पंजाब हरण

29 मार्च सन् 1849 ई० को प्रातःकाल महाराजा रणजीतसिंह के राजभवन में आखिरी दरबार लगा। पंजाबकेसरी वीरवर रणजीतसिंह के पुत्र बालक महाराजा दलीपसिंह भी इसी दिन अन्तिम बार अपने पैतृक सिंहासन पर बैठे। मिस्टर इलियट, सर हैनरी लारेन्स और रेजीडेन्सी के अनेक कर्मचारी दरबार में आ पहुंचे। उनके साथ सेना का पूरा प्रबन्ध था।

सन्धि पत्र पर जिसका मसूदा पहले तैयार कर रखा था, सरदारों के हस्ताक्षर लिए गए और इसके पश्चात् नाबालिग दलीपसिंह से हस्ताक्षर करवा लिये गये। महाराजा रणजीतसिंह के किले पर ब्रिटिश-ध्वजा चढ़ा दी गई और तोपों से फायर किए गये।

पंजाब खालसा किये जाने का घोषणा-पत्र सर इलियट ने पढ़कर सुनाया जो निम्न प्रकार था -

  1. महाराजा दलीपसिंह और उनके उत्तराधिकारी-गण पंजाब-राज्य सम्बन्धी समस्त-स्वत्व, दावा और क्षमता परित्याग करते हैं।
  2. लाहौर दरबार की जो सम्पत्ति है उस पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकार होगा।
  3. महाराजा रणजीतसिंह ने शाहशुजा से जो कोहनूर नामक हीरा लिया था, वह लाहौर के महाराजा को इंग्लैंड की महारानी को भेंट करना पड़ेगा।
  4. महाराजा दलीपसिंह, उनके परिवार तथा नौकरों के जीवन निर्वाह के लिये ईस्ट इण्डिया कम्पनी अधिक से अधिक पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष या कम से कम चार लाख रुपये दिया करेगी।
  5. महाराजा दलीपसिंह के प्रति सम्मान का व्यवहार किया जाएगा। उनकी पदवी महाराजा दलीपसिंह बहादुर रहेगी। यदि भविष्य में वे ब्रिटिश सरकार के अधीन रहें तो आजीवन उन्हें ऊपर लिखी हुई वृत्ति अथवा उसका कुछ अंश जिस समय जितना आवश्यक समझा जाएगा, उतना उन्हें मिलता रहेगा। गवर्नर जनरल जिस स्थान को पसन्द करेंगे, वहां पर ही उन्हें भविष्य में रहना पड़ेगा।

लार्ड डलहौजी ने दलीपसिंह की पैतृक जागीर जब्त कर ली। स्वयं अंग्रेज लेखक इस कठोर


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कार्य की निन्दा करते हैं। लार्ड ले ने लिखा है -

“हम (अंग्रेज) चौड़े में दलीपसिंह के रक्षक थे। सन् 1854 ई० में दलीपसिंह बालिग होते। हम 19 नवम्बर सन् 1848 को राज्य की रक्षा के लिए आगे बढ़े थे। राज्यरक्षा की हमने घोषणा भी की थी1
विद्रोहियों को दण्ड देना और शासन सभा के प्रति जो विद्रोह हुआ था उसको दमन करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य था। किन्तु 5 मास में ही इतना परिवर्तन हो गया कि बालक दलीपसिंह का राज्य जब्त कर लिया गया। 24 मार्च सन् 1849 ई० को पंजाब राज्य के अन्त करने की घोषाणा कर दी गई और हमने अपने रक्षाधीन बालक की सब सम्पत्ति और राज्य छीनकर विलक्षण-रक्षा का परिचय दिया।”

खालसा हो जाने के बाद पंजाब का शासन सर हैनरी लारेन्स को सौंपा गया। वह पंजाब खालसा करने के मत से सहमत न था। इन्होंने पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का घोर विरोध किया था। परन्तु इनके विरोध का कुछ फल न हुआ। पंजाब में भूमिकर बढ़ाना लारेंस के रहते संभव न था। इसी पर लार्ड डलहौजी और हैनरी लारेंस की नहीं बनी और वे पंजाब से हटा दिए गए और पंजाब का शासन-भार जौन लारेंस (यह हैनरी लारेंस का भाई था) को सौंपा गया।

महाराजा दलीपसिंह का मातृभूमि विछोह - महाराजा दलीपसिंह को चार से पांच लाख रुपये वार्षिक पैन्शन देने का वायदा करके अंग्रेजों ने उसको 1200 रुपये मासिक देना आरम्भ कर दिया।

थोड़े दिन पंजाब में रहने के बाद गवर्नर जनरल के आदेश अनुसार डाक्टर लेगिन की देखभाल में दलीपसिंह को 21 दिसम्बर 1849 ई० को पंजाब छोड़ देना पड़ा। इनके साथ ही महाराजा शेरसिंह के छः वर्ष आयु के पुत्र (महाराजा रणजीतसिंह के पौत्र) सहदेवसिंह को भी पंजाब छोड़ने का आदेश मिला जिसके साथ उसकी माता भी गयी। ये चारों लाहौर से चलकर फरवरी मास सन् 1850 में फतहगढ़ पहुंच गये। दलीपसिंह का वेतन 600 रुपये मासिक कर दिया गया और शेष 600 रुपये डॉ० लेगिन को मिलने लगे। फतहगढ़ पहुंच जाने पर दलीपसिंह को ईसाई बनाया गया।

उसके केश कटवाये गए। यह 8 मार्च, 1851 ई० की घटना है। उस बालक महाराजा को इंग्लैंड ले जाने का आदेश दिया गया। उसको अपनी माता महाराजी जिन्दा से भी न मिलने दिया गया और उसे डाक्टर लेगिन के साथ कलगत्ता से लन्दन जाने वाले समुद्री जहाज में बैठा दिया गया जो वहां से 19 अप्रैल 1854 ई० को रवाना हो गया। रास्ते में काइरो (Cairo) की सैर की।

वहां पर दलीपसिंह एक बम्बूला नामक 16 वर्षीय सुन्दर लड़की पर आसक्त हो गया। उस


1. लार्ड हार्डिंग ने 29 फरवरी 1846 को घोषणा में लिखा था - “दरबार और सरदारों की सहायता से अंग्रेजों के परम मित्र रणजीतसिंह के पुत्र की अधीनता में निर्दोष सिक्ख-राज्य को स्थापित करने की हमारी इच्छा है।” जा० ई० 48.


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लड़की के साथ दलीपसिंह ने सन् 1863 में इंग्लैंड में शादी की थी। ये जून सन् 1854 में लन्दन पहुंच गये। एक बार जब दलीपसिंह लेडी लागिन के साथ महारानी विक्टोरिया से मिले तो उसकी इच्छा के अनुसार महारानी ने कोहनूर हीरा उसके हाथ में दे दिया। उसने धैर्यपूर्वक उसे महारानी विक्टोरिया को लौटा दिया। जिस कोहनूर को वह धारण करता था, वह ब्रिटिश ताज में जा पहुंचा। देखिये, कालचक्र का प्रभाव क्या कर देता है। इंग्लैंड में दलीपसिंह की इंग्लिश, जर्मन, फ्रैंच, इटली आदि भाषाओं की शिक्षा दी गई। दलीपसिंह की इच्छा भारत आने को हुई। गवर्नर जनरल ने उसे भारत में रहने की स्वीकृति दे दी परन्तु पंजाब जाने की पाबन्दी लगाई। वह जनवरी सन् 1861 ई० में कलकत्ता पहुंच गया। यहीं पर वह अपने भतीजे सहदेव से मिला और अपनी माता को नेपाल से यहां बुला लिया। महारानी जिन्दा का सौन्दर्य और स्वास्थ्य दोनों ही खराब हो चुके थे और उसे बहुत ही कम दिखाई देता था।

उसका वेतन केवल 2000 रुपये वार्षिक कर दिया गया था। अपनी माता के साथ सरकार का अपमानित व्यवहार जानकर दलीपसिंह को बड़ा दुख हुआ। लार्ड केनिंग ने यह देखकर कि दलीपसिंह से मिलने हेतु पंजाब से सिक्ख एवं दूर-दूर से अन्य लोग आने लगे हैं तो उसने दलीपसिंह को इंग्लैंड जाने का आदेश दे दिया। वह अपनी माता के साथ जुलाई सन् 1861 ई० में इंग्लैंड पहुंच गया। वहां रानी जिन्दा को दलीपसिंह से अलग रखा गया। इससे उसे बड़ा सदमा हुआ। अतः सन् 1863 ई० में उसका स्वर्गवास हो गया। सन् 1864 में दलीपसिंह ने भारत में नर्मदा नदी के तट पर पहुंचकर वहां अपनी माता के शव का दाह संस्कार किया और फिर आदेश अनुसार वहीं से वापिस इंग्लैंड लौट गया।

इसी समय डा० लेगिन की मृत्यु हो गई थी। इससे दलीपसिंह को बड़ा दुख हुआ।

सन् 1863 ई० में दलीपसिंह को सरकार ने ‘सितारे हिन्द’ की उपाधि दे दी थी। इससे उसको कोई प्रसन्नता नहीं हुई, क्योंकि उसके साथ अंग्रेजों का व्यवहार अच्छा नहीं था। महाराजा दलीपसिंह ने 1863 ई० में इंग्लैंड में, उस [[Cairo|काइरो में पसन्द की गई लड़की बम्बूला से विवाह कर लिया। उसने महारानी बम्बूला को इंग्लैंड में पढ़ाने का प्रबन्ध भी किया।

दलीपसिंह ने भारत में आकर निवास करने की आज्ञा मांगी जो सरकार ने यह पाबन्दी लगाकर कि वह पंजाब में प्रवेश नहीं कर सकता, उसको मंजूरी दे दी। उसने भारतवर्ष के लिए यात्रा शुरु करने से पहले 25 मार्च, 1886 ई० को लन्दन से एक पत्र अपने प्यारे देशवासियों को लिखा। इससे भारत में एक खुशी की लहर फैल गई। अंग्रेजों को भय हुआ कि दलीपसिंह के भारत पहुंचने पर पता नहीं कितना आंदोलन खड़ा हो जायेगा। अतः उन्होंने दलीपसिंह को अदन पहुंचते ही बन्दी बना लिया तथा वापिस इंग्लैंड ले गये। वहां वह बहुत खिन्न रहने लगा। एक दिन जब वह महारानी विक्टोरिया से मिला तो उसके पास कोहनूर देखकर दृढ़तापूर्वक बोला कि “यह हीरा मेरे पिता का है, इस पर महारानी का कोई अधिकार नहीं है।” अदन से वापस आकर उसने लंदन में, ईसाई मत छोड़कर सिक्ख धर्म ग्रहण कर लिया था। दलीपसिंह किसी तरह फ्रांस पहुंच गया, वहां से वह अप्रैल 1887 ई० में मास्को पहुंचा। वहां पर कुछ समय बाद महाराजा दलीपसिंह को अपनी रानी के स्वर्गवास का समाचार मिला। वह अत्यन्त दुःख और शोक से विह्वल हो गया। वह रूस


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छोड़कर फ्रांस चला आया। पेरिस पहुंचकर कुछ दिन बाद तपेदिक रोग के कारण 20 अक्तूबर 1893 ई० में पेरिस के एक होटल में उनका स्वर्गवास हो गया।

वह अपने पीछे तीन पुत्र और तीन पुत्रियां छोड़ गये। उसने अदन से लौटकर इंग्लैंड आने के बाद एक फ्रेंच स्त्री से भी विवाह कर लिया था। परन्तु उससे कोई सन्तान न हुई। दलीपसिंह के बड़े पुत्र का नाम विक्टर दलीप था।

इस तरह से उस प्रबल प्रतापी रणजीतसिंह, जिसके सामने किसी समय अंग्रेज सन्धिभिक्षा याचना के लिए दुम हिलाते हुए पीछे-पीछे फिरा करते थे, उसी के लाडले पुत्र को इन परिस्थितियों में डाल दिया जिन्हें कि भारतीय हमेशा बेईमानों की चालें समझते रहेंगे, और यह कभी नहीं कहा जाएगा कि ब्रिटिशों ने वीरतापूर्वक पंजाब का राज्य लिया।

सिद्धू बराड़ जाटवंश

ये दोनों जाटवंश (गोत्र) चन्द्रवंशी मालव या मल्ल जाटवंश के शाखा गोत्र हैं। मालव जाटों का शक्तिशाली राज्य रामायणकाल में था और महाभारतकाल में इस वंश के जाटों के अलग-अलग दो राज्य, उत्तरी भारत में मल्लराष्ट्र तथा दक्षिण में मल्लदेश थे। सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में इनकी विशेष शक्ति थी। मध्यभारत में अवन्ति प्रदेश पर इन जाटों का राज्य होने के कारण उस प्रदेश का नाम मालवा पड़ा। इसी तरह पंजाब में मालव जाटों के नाम पर भटिण्डा, फरीदकोट, फिरोजपुर, लुधियाना आदि के बीच के प्रदेश का नाम मालवा पड़ा। (देखो, तृतीय अध्याय, मल्ल या मालव, प्रकरण)।

जब सातवीं शताब्दी में भारतवर्ष में राजपूत संघ बना तब मालव या मलोई गोत्र के जाटों के भटिण्डा में भट्टी राजपूतों से भयंकर युद्ध हुए। उनको पराजित करके इन जाटों ने वहां पर अपना अधिकार किया। इसी वंश के राव सिद्ध भटिण्डा नामक भूमि पर शासन करते-करते मध्य भारत के सागर जिले में आक्रान्ता होकर पहुंचे। इन्होंने वहां बहमनीवंश के फिरोजखां मुस्लिम शासक को ठीक समय पर सहायता करके अपना साथी बना लिया था जिसका कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख शमशुद्दीन बहमनी ने किया है। इस लेखक ने राव सिद्ध को सागर का शासनकर्त्ता सिद्ध किया है। राव सिद्ध मालव गोत्र के जाट थे तथा राव उनकी उपाधि थी। इनके छः पुत्रों से पंजाब के असंख्य सिद्धवंशज जाटों का उल्लेख मिलता है। राव सिद्ध अपने ईश्वर विश्वास और शान्तिप्रियता के लिए विख्यात माने जाते हैं। राव सिद्ध से चलने वाला वंश ‘सिद्धू’ और उनकी आठवीं पीढ़ी में होने वाले सिद्धू जाट गोत्री राव बराड़ से ‘बराड़’ नाम पर इन लोगों की प्रसिद्धि हुई। राव बराड़ के बड़े पुत्र राव दुल या ढुल बराड़ के वंशजों ने फरीदकोट और राव बराड़ के दूसरे पुत्र राव पौड़ के वंशजों ने पटियाला, जींद, नाभा नामक राज्यों की स्थापना की। जब पंजाब पर मिसलों का शासन हुआ तब राव पौड़ के वंश में राव फूल के नाम पर इस वंश समुदाय को ‘फुलकिया’ नाम से प्रसिद्ध किया गया। पटियाला, जींद, नाभा रियासतें भी फुलकिया राज्य कहलाईं। बाबा आला सिंह संस्थापक राज्य पटियाला इस वंश में अत्यन्त प्रतापी महापुरुष हुए। राव फूल के छः पुत्र थे जिनके नाम ये हैं - 1. तिलोक 2. रामा 3. रुधू 4. झण्डू 5. चुनू 6. तखतमल। इनके वंशजों ने अनेक राज्य पंजाब में स्थापित किए।


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फुलकिया से सम्बन्धित कैथल और अरनौली राज्य थे। इनके अतिरिक्त भदौड़, झुनवा, अटारी आदि छोटी-छोटी रियासतें भी सिद्धू जाटों की थीं। यही वंश पंजाब में सर्वाधिक प्रतापी है और सम्पूर्णतया धर्म से सिक्ख है।

राव सिद्धू के पुत्र राव भूर बड़े साहसी वीर योद्धा थे। अपने क्षेत्र के भट्टी राजपूतों से इसने कई युद्ध किए। इसी तरह से राव भूर से सातवीं पीढ़ी तक के इस सिद्धूवंश के वीर जाटों ने भट्टी राजपूतों से अनेक युद्ध किए। भट्टी राजपूत नहीं चाहते थे कि हमारे रहते यहां कोई जाट राज्य जमे या जाट हमसे अधिक प्रभावशाली बनकर रहें किन्तु राव सिद्धू की आठवीं पीढ़ी में सिद्धू गोत्र का जाट राव बराड़ इतना लड़ाकू शूरवीर, सौभाग्यशाली योद्धा सिद्ध हुआ कि उसने अपनी विजयों द्वारा राज्यलक्ष्मी को अपनी परम्परा में स्थिर होने का सुयश प्राप्त किया। यहां तक कि फक्करसर, कोट लद्दू और लहड़ी नामक स्थानों पर विजय प्राप्त करने पर तो यह दूर-दूर तक प्रख्यात हो गया। राव बराड़ के नाम पर सिद्धूवंशज बराड़वंशी कहलाने लगे। आजकल के सिद्धू जाट अपने को बराड़वंशी कहलाने में गौरव अनुभव करते हैं। इस वीर योद्धा राव बराड़ के दो पुत्र थे। बड़े का नाम राव दुल (ढुल) और छोटे का नाम राव पौड़ था। इन दोनों की वंशपरम्परा में पंजाब में जो जो राज्य स्थापित किए उनका संक्षिप्त वर्णन किया जाता है।

कोटकपूरा तथा फरीदकोट राज्य

कोटकपूरा या फरीदकोट हिन्दू जाटों का वह पहला राज्य है जो वंशपरम्परागतरूप से स्थायीरूप में शासक होकर वर्तमानकाल तक विद्यमान रहा था। इस राज्य के पुरखा राव सिद्ध थे जिसके वंशज सिद्धू जाट हैं और उसी की आठवीं पीढ़ी में बराड़ नामक वीर योद्धा हुए जिनके वंशज बराड़ जाट कहलाये। बराड़ के दो पुत्रों में से राव दुल (ढुल) नामक बड़े पुत्र थे जो कि फरीदकोट राज्य के मुख्य पुरुष माने जाते हैं। राव दुल ने अपने बाप बराड़ की जागीर पर कब्जा किया। इसके छोटे भाई राव पौड़ ने इसके विरुद्ध बगावत कर दी, किन्तु सफल न हुआ। वह दक्षिण पश्चिम की ओर चला गया। बाद में इसके वंशजों ने पटियाला, नाभा, जींद रियासतों को स्थापित किया।

राव दुल तथा उसके वंशज कई पीढियों तक भट्टी राजपूतों से युद्ध करते रहे थे। भट्टियों और बराड़ों की लड़ाइयों का कारण यह था कि दिल्ली से घघर नदी के बीच का प्रदेश भट्टियों ने दबा रखा था। बराड़ उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते थे। इस कारण से बराड़ और राजपूत भट्टियों


1. नोट - पाठकों को याद दिलाया जाता है कि भट्टी राजपूत तथा भट्टी जाट दोनों ही यादव हैं जो कि गजनी की तरफ से आकर भटिण्डा की भूमि में बसने के कारण भाटी कहलाये। वास्तव में ये जाट ही हैं। एक समूह अपनी पुरानी रिवाजों को मानता रहा और दूसरा समूह, जो इन्हीं में से था, मौजूदा कृत्रिम हिन्दू-धर्म के रिवाजों में दीक्षित हो गया। वैदिक कालीन विधवा-विवाह, समानता का व्यवहार, मांस भक्षण निषेध, स्त्री स्वातन्त्र्य आदि रस्मों का पालन करने वाला समूह जाट-भट्टी और दूसरा पौराणिक धर्म को, विधवा विवाह निषेध, संकुचित भेदभाव, पर्दा-प्रथा, पशु बलिदान प्रणाली, स्त्री दासत्व आदि रस्मों का दासत्व ग्रहण कर लेने के कारण राजपूत भट्टी कहलाया। अतः ये लोग आज अपनी ही जाट जाति को खतरनाक समझते हैं। (जाट इतिहास, पृ० 398, लेखक ठा० देशराज)।


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में हमेशा लड़ाई रहती थी। राजपूत भट्टियों का एक बड़ा भाग मुसलमान हो चुका था। इन भट्टी मुसलमानों से भी बराड़ जाटों के युद्ध होते रहते थे।

राव दुल की छठी पीढ़ी में इसी के वंशज फत्तू नामक वीर ने पठानों की सहायता करके बदले में उनके सहारे अपने थोड़े इलाके पर अधिकार कर लिया। राव फत्तू के पुत्र राव संगर ने कोटकपूरा के पास हजारों गाय भैंस पाली हुई थीं। एक दिन एक मुगल आक्रान्ता बादशाह बाबर भूखा-प्यासा भटकता हुआ इन सिद्धुओं के इलाके में आ निकला। राव संगर ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया। बाबर ने राव संगर से मित्रता कर ली। इससे उसकी इलाके भर में धाक जम गई। यह अपने इलाके पर कब्जा किये हुए अपनी शक्ति बढ़ाता रहा। इसने बड़ी संख्या में अपने सैनिक ले जाकर शेरशाह सूरी के विरुद्ध हुमायूं की सहायता की थी। इस प्रकार इनकी मुगलवंश से गहरी मैत्री हो गई। किन्तु भट्टियों से इनकी लागडाट बनी ही रही।

भट्टियों ने जब देखा कि सिद्धुओं ने मुगलों पर अपना गहरा प्रभाव जमा लिया है और अकबर बादशाह विजय पर विजय प्राप्त करता जा रहा है, तो भट्टी राजपूतों के सरदार दूल्हा-भट्टी उपनाम मन्सूर ने अपनी कन्या का डोला अकबर को भेंट कर दिया। साथ ही अपने दामाद के धर्म इस्लाम को भी स्वीकार कर लिया। किन्तु अकबर ने राव संगर के पुत्र राव भुल्लनसिंह से अपनी मित्रता में कोई अन्तर नहीं आने दिया।

राव भुल्लनसिंह बहुत नीतिनिपुण शूरवीर योद्धा था। एक बार मंसूर खां और राव भुल्लनसिंह दोनों संयोगवश एक ही समय बादशाह अकबर से अपने-अपने इलाकों का निर्णय निपटारा कराने के लिए गए। अकबर ने फिर किसी समय हदबन्दी करा देने के लिए कहा। अकबर ने मन्सूर खां को भेंट में सिरोपाव दिया जिसके ऊपर पगड़ी रखी थी। राव भुल्लनसिंह को ईर्ष्याग्नि में जलाने के दृष्टिकोण से मन्सूर ने उस पगड़ी को वहीं बांधना आरम्भ कर दिया। जाट की तुरत बुद्धि तो भारत विख्यात ही है। भुल्लनसिंह ने तत्काल उठकर उसी पगड़ी के दूसरे सिरे को सिर पर तेजी से लपेटना प्रारम्भ कर दिया। अकबर ने यह सब देखा और वह बोला - “बस, तुम दोनों की राज्य सीमाओं का इस प्रकार अपने आप निर्णय हो गया। इस समय यह पगड़ी जिसके सिर पर जितनी है, उसी हिसाब से दोनों अपने-अपने राज्य का निपटारा कर लो।” नाप कर देखा गया तो दोनों पर पगड़ी बराबर निकली। दोनों अपना फैसला पाकर अपने-अपने इलाकों को लौट आये1। परन्तु भट्टी मन्सूर खां भांति-भांति के उत्पात खड़े करता ही रहा। इस पर तंग आकर जाटों ने भट्टियों पर जोरदार आक्रमण किया। यह घमासान युद्ध कभी तेज, कभी मन्द होते-होते बहुत दिन चला। मन्सूर के दोनों पुत्र इन लड़ाइयों में मारे गये। बराड़ जाटों के दो सरदार हेवतसिंह और जल्ला भी मारे गये। दोनों ओर के हजारों लोगों का नुकसान हुआ। विजय बराड़ जाटों के हाथ रही। मन्सूर खां भागकर रानिया को चला गया। ये युद्ध बलूआना (स्टेट पटियाला) तथा मौजा दयून (स्टेट फरीदकोट) के स्थान पर हुए थे। इन ऐतिहासिक युद्धों में विजय पाकर बराड़ बहुत शक्तिशाली हो गये। मन्सूर खां ने बराड़ों पर फिर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से खतराना (फिरोजपुर और रानिया के बीच) के स्थान पर घोर संग्राम हुआ जिसमें भट्टी मन्सूर खां काम आया। भट्टी और बराड़ों के विवाद में


1. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 365, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-776


बादशाह अकबर कभी नहीं पड़ा, वह अपने ससुर की गलती और जाटों की शक्ति से परिचित था।

राव भुल्लनसिंह ने शनैः शनैः अपने इस जाट राज्य का बहुत विस्तार कर लिया। उसने कोट कपूरा, फरीदकोट, माढ़ी, मुदकी, मुक्तेश्वर के सभी प्रदेशों को पूरे आधिपत्य के साथ अपने अधिकार में कर लिया। अकबर ने उसे ‘चौधरी’ का खिताब दिया। यह राज्य तब तक हिन्दू जाटों का ही था। भुल्लनसिंह ने इतनी लम्बी आयु पाई कि अकबर से लेकर शाहजहां तक उसका जीवन रहा। अन्तिम समय में शाहजहां के लिए बुन्देलों के साथ लड़ते हुए ओरछा के पास अपने भाई लालसिंह समेत निस्सन्तान वीरगति को प्राप्त हुआ।

भुल्लनसिंह के समय बराड़ लूटमार करने और राज्य बढ़ाने में खूब जोरों पर थे। एक बार उनका 900 वीर सैनिकों का दल किसी युद्ध से लौटता हुआ मौजा धनौर (बीकानेर में) पहुंचा। वहां इनको पता लता कि मौजा पूगल के रक़बा में एक खेत में राठौर राजपूतों की एक सुन्दर, शक्तिशाली नौजवान लड़की हजारों रुपये का जेवर पहने अकेली दिन रात अपने खेत में डाम्चा बनाए बैठी रहती है। राठौर इन बराड़ जाटों के शत्रु थे। इनका दल उस लड़की के पास खेत में पहुंचा। लड़की से इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि मैं विवाह होते ही विधवा हो गई हूं। मेरे ससुराल वाले और मायके वाले करेवा नहीं करते और मेरी इच्छा पुनर्विवाह करने की है। बराड़ सरदारों ने उस लड़की के रूप तथा उसके निशानाबाजी के कमाल को देखकर उसे शरण में ले लिया। उस लड़की के कहने अनुसार एक-एक करके उसके सामने से गुजरे। उसने राव दुल के पुत्र रतनपाल को पसन्द किया। सरदार रतनपाल ने उस सुन्दरी को घोड़े पर अपने पीछे बैठा लिया तथा अपने दल के साथ वहां से चल पड़ा। पता चलने पर राठौर राजपूतों ने इनसे मुकाबिला किया किन्तु बराड़वंशी जाट वीरों ने उन्हें मारकर भगा दिया। समय पाकर इस लड़की से एक लड़का पैदा हुआ जिसका नाम हरिसिंह रखा गया। (‘आइना बराड़वंश’, जिल्द 3, पृ० 96-98); जाट इतिहास पृ० 440-441, लेखक ठा० देशराज)।

चौ० कपूरसिंह बराड़ - भुल्लनसिंह के निस्सन्तान मरने पर उसका भतीजा कपूरसिंह उत्तराधिकारी बना। इसकी आयु उस समय केवल छः वर्ष की थी। यह न नीतिज्ञ था और न शूरवीर। बाल्यावस्था के दिनों बहुत-सा शाही टैक्स जमा नहीं किया गया था। बड़ा होने पर उस टैक्स को शाही कोष में जमा करके दिल्ली के बादशाह से ‘चौधरी’ का सम्मान प्राप्त किया और अपने खोए हुए इलाकों पर अधिकार जमाया और कुछ नई गढ़ियां भी बनवाईं। इसके वंशज भगतू संस्थापक राज्य कैथल के कहने पर कपूरसिंह ने अपनी राजधानी कोटकपूरा बनाई। उसे बसाया गया और वहां एक सुदृढ़ दुर्ग भी बनाया। इस राज्य को सुव्यवस्थित रूप में लाने वाले सरदार कपूरसिंह जी थे। ये राव सिद्ध की 17वीं पीढ़ी में थे। गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्खों की रक्षा के लिए चौ० कपूरसिंह से कोटकपूरा के दुर्ग की मांग की। मुगलों से मैत्री के कारण इसने कहला भेजा - “जाट मांगे से किसी को अपनी भूमि नहीं दिया करते।” गुरु जी इस पर बहुत अप्रसन्न हुए। किन्तु जिन मुसलमानों की मैत्री का इसे गर्व था उन्हीं में से एक कोट ईसा खां के सूबेदार ने चौ० कपूरसिंह को इन्दिया नामक गांव में धोखे से एक दावत में बुलाकर मरवा डाला।

यह घटना गुरु गोविन्दसिंह जी की मृत्यु (7 अक्तूबर, 1708 ई०) के बाद घटी। उस समय


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-777


दिल्ली का सम्राट् बहादुरशाह (1707-1712 ई०) था।

शेखासिंह, मेखासिंहसेनासिंह ने अपने पिता राजा कपूरसिंह की मृत्यु का बदला लेने की प्रतिज्ञा की। ये तीनों भाई 12 वर्ष तक इसी कार्य में जुटे रहे। कई बार ईसा खां पर असफल आक्रमण भी किए। किन्तु अन्तिम बार प्रदाद नामक युद्धक्षेत्र में जमकर युद्ध हुआ। तीन दिन तक भयानक मारकाट होती रही। तब ईसा खां हाथी पर सवार होकर रणभूमि में आया। सेनासिंह तीर की तरह सेना को चीरता हुआ हाथी तक जा पहुंचा और हाथी के पास अपना घोड़ा लगाकर हौदे में जा कूदा और झट तलवार से ईसा खां का सिर उतार लिया। शत्रु सेना भाग निकली। तब कहीं 12 वर्ष बाद प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बड़े भाई शेखासिंह ने कोटकपूरा में राजतिलक किया।

राजा जोधासिंह - राजा शेखासिंह की बड़ी रानी से जोधासिंह और छोटी रानी से हमीरसिंह एवं वीरसिंह हुए। चौधरी जोधासिंह कोटकपूरा के शासक घोषित हुए। इस समय तक कोटकपूरा के ये शासक हिन्दू जाट ही थे। इनके समय ही पंजाब में मिसलें खड़ी हुईं। इसके पूर्व कोटकपूरा, पटियाला, जींद, नाभा, कैथल आदि के संस्थापकों ने मुगल-साम्राज्य के विरुद्ध अपना प्रभाव और आतंक स्थिर करके जाट गौरव की स्थापना की। राजा जोधासिंह की अपने भाइयों से अनबन रहती थी। उसको यहां तक अभिमान हो गया कि पटियाला राज्य के संस्थापक बाबा आलासिंह और उसकी रानी फत्तो के नाम पर अपने घोड़ा-घोड़ी का नाम आल्हा फ़त्तो रख लिया। आलासिंह इस अपमान का शीघ्र ही बदला लेना चाहता था किन्तु उसके यहां भी बाप-बेटे में झगड़ा चल रहा था। उधर जोधासिंह के भाई हमीरसिंह ने अपनी अलग रियासत ‘फरीदकोट’ स्थापित कर ली। उसने फरीदकोट के किले पर अधिकार कर लिया।

तीनों भाइयों का अलग-अलग राज्य हो गया। हमीरसिंह का फरीदकोट, वीरसिंह का माड़ी और जोधासिंह का कोटकपूरा पर अधिकार हो गया। तीनों भाइयों ने सिक्ख धर्म की दीक्षा ली।

कुछ समय बाद अमरसिंह रईस पटियाला ने हमीरसिंह एवं वीरसिंह को साथ लेकर कोटकपूरा पर चढ़ाई कर दी। इन्होंने जोधासिंह व उसके दोनों पुत्रों को युद्ध में मार डाला। जोधासिंह का कोटकपूरा में दाहसंस्कार हुआ। वहां पर इनकी समाधि बनाई गई जो आज तक “बाबा जोधा” के नाम से प्रसिद्ध है। जोधासिंह के और दो पुत्र टेकसिंह और अमरीकसिंह थे। टेकसिंह कोटकपूरा का मालिक हुआ। उसने बाप का बदला लेने के लिए अपने चाचा हमीरसिंह को मारना चाहा। किन्तु सन् 1806 ई० में उसी के बेटे जगतसिंह ने उसे आग में जिन्दा जला दिया। अब जगतसिंह अपने बाप की रियासत कोटकपूरा का मालिक बन बैठा। महाराजा रणजीतसिंह ने कोटकपूरा रियासत को अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह से जोधासिंह खानदान के शासन का अन्त हो गया। वीरसिंह का राज्य मांड़ी, जो कि इलाका फिरोजपुर में था, को अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया गया।

राजा हमीरसिंह - राजा हमीरसिंह फरीदकोट नामक रियासत का पहला शासक था। इसी से ही फरीदकोट की परम्परा शुरु हुई, ऐसा माना जाता है। यह राव सिद्ध की 20वीं पीढ़ी में तथा राव बराड़ की 13वीं पीढ़ी में हुआ। यह सिक्ख धर्म का अनुयायी बन गया। इसी से सिक्ख जाटों का फरीदकोट पर राज्य शुरु हुआ जो कि पीढ़ियों से हिन्दू जाति के सिद्धू या बराड़ गोत्री जाटों का शासन चला आ रहा था। इस राजा हमीरसिंह की वंशपरम्परा में निम्नलिखित राजा इस फरीदकोट रियासत के शासक हुए। इन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया तथा अंग्रेज इनके रक्षक रहे -


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-778


1. राजा मोहरसिंह 2. चड़हतसिंह 1804 ई० में मर गया 3. गुलाबसिंह 4. अतरसिंह 5. पहाड़सिंह 6. वजीरसिंह 1857 ई० की क्रान्ति में अंग्रेजों का साथ दिया, 1874 ई० में मृत्यु 7. विक्रमसिंह, 1874-1898 ई० 8. बलबीर सिंह 1898 ई० में राजा बना 9. ब्रजेन्द्रसिंह 1916 ई० में गद्दी पर बैठे, 1918 ई० में स्वर्गवास हुए 10. हीरेन्द्रसिंह - आप राव सिद्ध की 30वीं पीढ़ी में हुए जो कि इस राज्य के अन्तिम महाराज थे। भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर आपकी इस रियासत को भारत सरकार के शासन में मिलाया गया*

पटियाला राज्य

पिछले पृष्ठों पर यह लिख दिया गया है कि राव सिद्धू के वंशज सिद्धू गोत्री जाट कहलाये और उसकी आठवीं पीढ़ी में बराड़ नामक योद्धा हुए जिनके नाम पर ये जाट बराड़ गोत्री कहलाने लगे थे। राजा बराड़ के बड़े पुत्र राव दुल के वंशजों ने फरीदकोट राज्य की स्थापना की तथा बराड़ के छोटे पुत्र राव पौड़ के वंशजों ने पटियाला, नाभा एवं जींद रियासतों की स्थापना की। इन रियासतों को राव पौड़ की परम्परा में राव फूल के नाम पर फुलकियां राज्य कहलाने का गौरव मिला। इस सिद्धू गोत्र के जाट चौ० फूल ने पंजाब में अपने नाम पर फुलकियां मिसल की स्थापना की थी। राव फूल हिन्दू जाट थे। आपके पुत्र राव रामू (रामचन्द्र) के घर सन् 1695 ई० में बाबा आलासिंह का जन्म हुआ जिसने पटियाला राज्य की स्थापना की। उसी के बड़े पुत्र चौ० गुरुदत्ता ने नाभा राज्य की स्थापना की और चौ० फूल के ही वंशजों ने जींद राज्य की स्थापना की।

बाबा आलासिंह - आपके पिता की जिस समय शत्रुओं के हाथों से मृत्यु हुई उस समय आपकी आयु 23 वर्ष की थी। दो वर्ष बाद आपने अपने पिता का बदला शत्रुओं से ले लिया। 1722 ई० में अनहगढ़ (बरनाला) को आबाद किया।

आलासिंह ने रायकोट, जगरांव के मुस्लिम शासकों, मालेरकोटला के अफ़गानों तथा दोआबा जालन्धर के शाही फौजदारों की संयुक्त शक्ति को पराजित किया। शत्रुओं के बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के सम्राट् मुहम्मदशाह रंगीला को आलासिंह की शक्ति का मुकाबला करने का साहस न हुआ। सन् 1747 ई० में आपने मौजा ढहडान में एक किला बनवाया। इसके निकट गांव काकड़े से फरीदखां नामक एक नवमुस्लिम राजपूत को आलासिंह के सेनापति अमरसिंह ने मार दिया और उसके पूरे इलाके पर अपना अधिकार कर लिया। परगना सनौर के जमींदार जिनके 48 गांव थे, आलासिंह की शरण में आ गए और उसको अपना सरदार मान लिया। इस परगने के प्रबन्ध के लिए सरदार आलासिंह ने अपने साले गुरुबख्शसिंह को नियुक्त किया और सन् 1749 ई० में उस स्थान पर एक मजबूत किला बनवाया। यही किला पटियाला के नाम से प्रसिद्ध है। “शेरे पंजाब” का लेखक लिखता है कि पहले इस किले का नाम पट-आळा था। सर्वसाधारण की बोलचाल से वह पटियाला कहलाने लगा।

सरदार आलासिंह ने सरदार जोधासिंह रईस भटिण्डा से युद्ध करके उसका कुल राज्य अपने


(*) आधार पुस्तकें -
1. जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज
2. जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
3. क्षत्रियों का इतिहास, लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री।


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राज्य में मिला लिया। इसके बाद ‘भोलाड़ा’ तथा ‘बूहा’ को नवमुस्लिम राजपूतों से छीनकर अपने राज्य में मिला लिया। सन् 1757 ई० तक उसने अपने पुत्र कुंवर लालसिंह को साथ लेकर मूनक, टोहाना, जमालपुर, धारसूल और सिकरपुरा को अपने कब्जे में कर लिया, जो कि नवमुस्लिम भट्टी राजपूतों के अधिकार में थे।

मालेरकोटला के पठानों से युद्ध करके उनके इलाके में से ‘शेरपुर’ और ‘पहोड़’ को छीनकर अपने राज्य में मिला लिया।

जब पानीपत युद्ध (1761 ई०) में मराठों को परास्त करके अब्दाली इनके ही राज्य मार्ग से लौटा तो उसने अपनी लूट होने के भय से बाबा आलमसिंह से सन्धि कर ली। अब्दाली ने 726 गांव वाले क्षेत्रफल के अधीन प्रदेशों पर आलासिंह को शासक मानकर ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की।

आलासिंह ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया। इसके प्रभाव में आकर इसके जातीय जाटों ने बड़ी संख्या में सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया। सन् 1765 ई० में खालसा सिक्ख सरदारों के साथ मिलकर गुरु पुत्रों के बलिदान का बदला लेने हेतु सरहिन्द के किले पर आक्रमण कर दिया। वहां पर अब्दाली का सूबेदार ‘जीनखां’ मारा गया। सिक्खों ने सरहिन्द की ईंट से ईंट बजा दी और उसके इलाके को आपस में बांट लिया। सरहिन्द तथा उसके निकट का क्षेत्र, शाही तोपखाना सरदार आलासिंह के हाथ आया। यह सूचना मिलने पर अब्दाली एक शक्तिशाली सेना लेकर पंजाब में पहुंचा। छोटे-छोटे सिक्ख सरदार पहाड़ों पर चले गये परन्तु सरदार आलासिंह उसके पास गया। आपने अब्दाली के दिमाग में यह बात बैठा दी कि सिक्खों की बढ़ती हुई शक्ति के सामने कोई भी विदेशी या विधर्मी सूबेदार सरहिन्द में नहीं निभ सकता। यह सब कुछ समझकर अब्दाली ने तीन लाख सालाना के खिराज पर सरहिन्द का सारा प्रदेश सरदार आलासिंह के नाम लिख दिया। यह अब्दाली की एकमात्र हार हुई। आपके कहने पर अब्दाली ने समस्त पंजाबी युद्धबन्दियों को भी छोड़ दिया। इसी कारण आलासिंह को जनता की ओर से बन्दी छोड़ की उपाधि मिली हुई थी। महाराजा आलासिंह का 70 वर्ष की आयु में, 22 अगस्त, 1765 ई० को निधन हो गया। आप ईश्वरभक्त तथा धर्मप्रिय व्यक्ति थे। आचरण के भी बड़े शुद्ध एवं पवित्र थे। बहुत-सी रानियां तथा दासी रखना आपको पसन्द न था। महारानी फत्तो भी बड़ी योग्य और बुद्धिमती थी। आपके स्थापित किये गये पटियाला राज्य का क्षेत्रफल 5932 वर्गमील था। इस राज्य के तीन भाग थे, जिसमें सबसे बड़ा भाग दक्षिणी किनारे पर था। दूसरा शिमला के पर्वतीय प्रदेश में और तीसरा नारनौल का परगना था।

महाराजा अमरसिंह - आपके पिता शर्दूलसिंह पहले ही स्वर्गीय हो गये थे। अतः आपने अपने दादा आलासिंह के स्वर्गवासी होने पर आप पटियाला की गद्दी पर बैठे। आप में योग्य शासक और वीर सैनिक के गुण थे। आपके शासनकाल में पटियाला राज्य बड़ा शक्तिशाली बन गया था जिसकी सीमाएं सतलुज से लेकर यमुना नदी तक थी। महाराजा अमरसिंह ने मालेरकोटला के शासक से पायल और ईसरडू छीन लिये। उसके अपने शत्रु कोटकपूरा के राजा जोधासिंह का उसके पुत्रों सहित वध किया और 1711 ई० में भटिण्डा को भट्टियों से जीत लिया।

इस राजा ने मनी माजरा और सैफाबाद पर भी अधिकार कर लिया। उसने हांसी, हिसार


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और रोहतक को भी अपने अधिकार में लिया। सन् 1778 ई० में सरसा, फतेहाबाद, रानिया, तोसाम तथा महम को भी मुसलमान शासकों से छीन लिया। इस पर देहली की ओर से वजीर नजफखां ने इन पर आक्रमण कर दिया और अन्त में उसे सन्धि करनी पड़ी, जिसके अनुसार कसहन, वागरना, बरनाला, परगना, बालसमद पर भी राजा का शासन सदा के लिए स्थिर हो गया। 1767 ई० में अहमदशाह अब्दाली फिर भारत आया तो उसने राजा अमरसिंह की महान् शक्ति को देखकर इसे “राजा-इ-राजगान बहादुर” की पदवी और नक्कारा एवं निशान प्रदान किए। अब्दाली के भारत से चले जाने पर राजा अमरसिंह ने मालेरकोटला के पठानों पर आक्रमण कर दिया और वहां के शासक अताल्ला खां ने महाराजा की अधीनता स्वीकार कर ली।

महाराजा अमरसिंह ने अपने नाम पर सिक्का भी जारी किया। भट्टियों एवं मुगलों ने इस राजा की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने का प्रयत्न किया किन्तु वे असफल रहे। यमुना और सतलुज के बीच महान् शक्ति संचित करके 1781 ई० में केवल 34 वर्ष की अल्पायु में ही इनका देहान्त हो गया।

महाराजा साहबसिंह और बीबी साहिबकौर

महाराजा साहबसिंह अपने पिता अमरसिंह के स्वर्गवास होने पर सन् 1781 ई० में पटियाला की गद्दी पर बैठा। उस समय इसकी आयु 7 वर्ष की थी। दीवान नानूमल की देखरेख में राज्य कार्य चलने लगा। 1787 ई० में अमृतसर के सरदार गुलाबसिंह की सुपुत्री राजेन्द्रकौर से राजा साहबसिंह का विवाह हो गया। सिक्ख सरदार नानूमल से द्वेष रखते थे। अतः उसे दरबार से हटा दिया गया। महाराजा ने अपनी बहन साहिबकौर को राज्य का मुख्तारे आम बना दिया। सन् 1749 ई० में मराठों की एक विशाल सेना लिछमनराव और अण्टाराव के नेतृत्व में पंजाब में आ पहुंची। बीबी साहिबकौर अपनी सेना को साथ लेकर राजगढ़ के मैदान में आ डटी। इसका मराठों से युद्ध हुआ। पटियाला की सेना थोड़ी थी इसलिए मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई।

बीबी साहिबा ने अपने सैनिकों को ललकारकर कहा - “यदि आप लोग कायर हैं अथवा आपको प्राण प्यारे हैं और मान मर्यादा का कुछ भी ख्याल नहीं, तो आप भाग सकते हो। पर मैं प्राण रहते रणक्षेत्र से हटने वाली नहीं। वीर क्षत्राणियों ने इसी दिन के किए आपको जना है। आप चाहें तो उनके दूध को लज्जित कर सकते हैं। अपमान की हजार वर्ष की जिन्दगी से मान की तो एक दिन की जिन्दगी कहीं अच्छी है। एक स्त्री को जो आपके वंश तथा राजघराने की है, मैदान में अकेली छोड़कर संसार के सामने मुंह दिखानी की यदि हिम्मत कर सकते हो तो आप लोग बेशक मैदान छोड़कर भाग जायें।”

बीबी साहिबा के उपरोक्त ओजस्वी भाषण ने सेना में मर मिटने का उत्साह पैदा कर दिया। इतना घमासान युद्ध हुआ कि मराठे मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। बीबी साहिबकौर की जीत हुई। कुछ दिन बाद बीबी साहिब को जार्ज टाम्सन से लड़ना पड़ा। यह अंग्रेज आफिसर 1787 ई० में बेगम समरू का नौकर था। वहां से निकाले जाने पर खांडेराव मराठा के पास आया जो कि माधोजी सिंधिया की तरफ से झज्जर, दादरी, काहनौर और नारनौल का हाकिम था। खांडेराव जार्ज टाम्सन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे झज्जर का जागीरदार बना दिया। उसने झज्जर के पास अपने नाम से जार्जगढ़ किला बनाया जो आजकल जहाजगढ़ कहलाता है। खांडेराव के मरने के बाद जार्ज


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टाम्सन ने हांसी, हिसार पर अधिकार कर लिया तथा जींद पर चढ़ाई कर दी। इसके पास 8,000 सैनिक और 50 तोपें थीं। नाभा, पटियाला, कैथल सभी रियासतों की सेना ने उसे घेर लिया। पटियाला की ओर से इस युद्ध में बीबी साहिबकौर बड़ी वीरता से लड़ी थी। इस युद्ध में जार्ज टाम्सन की बुरी तरह हार हुई।

जार्ज टाम्सन ने पंजाबी रियासतों पर पुनः लूटमार आरम्भ कर दी। मराठा सेना के जनरल पीरु की सहायता लेकर इन रियासतों ने जार्ज टाम्सन से तमाम इलाके छीन लिये। अंग्रेजों ने महाराजा साहबसिंह को “अधिराज राजेश्वर” की उपाधि से विभूषित किया। किन्तु उन्हें राज्यानुभव नहीं था इसी कारण राज्यकोष खाली हो जाने पर एजेण्ट अक्टरलोनी के सुझाव पर 6 अप्रैल 1812 ई० को महारानी आसकौर को शासिका नियुक्त किया गया। महाराजा का 1813 ई० में स्वर्गवास हो गया।

इसके बाद पटियाला की गद्दी पर शासक होने वाले राजाओं की कोई विशेष प्रसिद्धि नहीं, सिवाय इसके कि इन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया और अंग्रेज इनके रक्षक रहे। वे निम्न प्रकार से हैं -

1. महाराजा करमसिंह - 30 जून, सन् 1813 ई० में गद्दी पर बैठा। मृत्यु दिसम्बर, सन् 1845 ई०।

2. महाराजा नरेन्द्रसिंह - 18 जनवरी, सन् 1846 ई० को अपने पिता की गद्दी पर बैठा।

सन् 1857 ई० के विद्रोह के समय डिप्टी कमिश्नर अम्बाला ने विद्रोही सैनिकों को दबाने के लिए आपसे सहायता मांगी। महाराज अपनी कुल सेना सहित अम्बाला पहुंचा। वहां जाकर कप्तान विलियम मेकनेल साहब के परामर्श से विद्रोह को दबाने में सहायता दी और फिर पटियाला लौट आया। जब दिल्ली में लड़ाई छिड़ रही थी तब रास्ते में रसद का प्रबन्ध पटियाला ने किया। महाराजा ने अंग्रेज सरकार को 5 लाख ऋण इस समय दिया। सिरसा, हिसार, रोहतक से भागकर अंग्रेज स्त्री, पुरुष और बच्चे पटियाला पहुंचे तो महाराजा ने इनकी बड़ी सेवा व देखभाल की। इन सेवाओं से खुश होकर अंग्रेज सरकार ने महाराजा को नारनौल का इलाका जो झज्जर का था, भदौड़ का इलाका और जनतमहल आदि कई स्थान दिये और आपको “महाराजाधिराज” की उपाधि प्रदान की गई। इस महाराजा का नाम भारतीयों की दृष्टि से देशद्रोही और अंग्रेजों की नजर में राजभक्त है।

अंग्रेजों ने महाराजा को “सितारे हिन्द” की उपाधि दी। महाराजा नरेन्द्रसिंह का देहान्त 23 नवम्बर 1862 ई० को हो गया।

3. महाराजा महेन्द्रसिंह - 29 जनवरी 1863 ई० को महाराजा महेन्द्रसिंह पटियाला की गद्दी पर बैठा। अंग्रेजों ने महाराजा को सितारे-हिन्द की उपाधि दी। अंग्रेजी सरकार को विद्रोह के समय काफी मदद दी जिससे सरकार ने महाराजा को जी० एस० आई० की पदवी दी और 17 तोपों की बजाय 19 तोपों की सलामी कर दी। 25 वर्ष की आयु में सन् 1885 ई० में स्वर्गवास हो गया।

4. महाराज राजेन्द्रसिंह - अपने पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठाया गया। उस समय आप केवल चार वर्ष के थे। गवर्नर जनरल ने 1890 ई० में आपको पूरे अधिकार दिये। सन् 1907 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-782


5. महाराजा भूपेन्द्रसिंह जी - अपने पिता की मृत्यु के समय आप नाबालिग थे। आपका जन्म 1891 ई० में हुआ था। राज्य का प्रबन्ध एजेंसी कौंसिल द्वारा होता रहा। 1909 में सरकार ने आपको राज्य के शासन अधिकार सौंप दिये। 1905 ई० में आप सम्राट् जार्ज पंचम से लाहौर में मिले थे। आप क्रिकेट के खिलाड़ी थे। सन् 1911 में भारतीय क्रिकेट टीम के आप कैप्टन बनकर लन्दन गये थे। सम्राट् जार्ज पंचम ने देहली दरबार में आपको जी० सी० एम० आई० की उपाधि दी। अनेक सेवाओं के उपहार में सरकार ने आपको सी० ओ० बी० ई० की उच्च पदवी दी तथा मेजर जनरल का रैंक दिया। आपकी सलामी 19 तोपों की कर दी गई।

आपने अपने राज्य में शिक्षा की काफी उन्नति की। आपका उपाधि सहित नाम इस तरह से है - मेजर जनरल सर भूपेन्द्रसिंह महेन्द्र बहादुर G.C.I.E.G.C.S, I.G.E.B.O. महाराधिराज। 1947 ई० में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर आपकी इस रियासत को भी हिन्द सरकार के पंजाब राज्य में मिला लिया गया।

नाभा राज्य

सिद्धू वंशी जाट चौ० फूल के बड़े पुत्र चौ० गुरुदत्ता से इस राज्य का प्रारम्भ हुआ। इस राज्य को भी फुलकियां राज्य कहते हैं। चौ० गुरुदत्ता के पुत्र चौ० सूरतसिंह थे। इसने सर्वप्रथम धनौला और संगरूर नामक गांव बसाए। सूरतसिंह 1742 ई० में दो पुत्र छोड़कर मर गया और 1744 ई० में गुरुदत्ता का भी स्वर्गवास हो गया।

चौ० हमीरसिंह - यह चौ० सूरतसिंह के पुत्र थे। इन्होंने संगरूर, पक्खू, बुडयाला, माहदा, भादसों और कपूरगढ़ पर अधिकार करके 1775 ई० में नाभा नगर की स्थापना की। आपने सिक्ख धर्म की दीक्षा लेकर सरहिन्द के महायुद्ध में भाग लिया। विजयी होने पर परगना अमलोहा इनके अधिकार में आ गया। 1776 ई० में ऐडी को रहीमदाद खां से जीत लिया। हमीरसिंह ने अपनी टकसाल स्थापित की जो कि इसके स्वतन्त्र राजा होने का प्रमाण है। एक बार जींद नरेश राजा गजपतसिंह ने धोखे से संगरूर छीन लिया। आपकी रानी देसो ने राजा जींद का मुकाबला बड़ी वीरता से किया और संगरूर का छीना हुआ इलाका वापस ले लिया। राजा हमीरसिंह का स्वर्गवास 1783 ई० में हो गया।

उस समय उसके पुत्र जसवन्तसिंह की आयु केवल 8 वर्ष की थी। अतः रानी देसो ने बड़ी योग्यता से राज्य का संचालन किया। सन् 1790 ई० में इस रानी का स्वर्गवास हो गया। इससे एक वर्ष पूर्व, जींद का राजा गजपतसिंह जो रानी का शत्रु था, मर चुका था।

इसके बाद नाभा राज्य के निम्नलिखित शासक हुए जो अंग्रेजों के मित्र तथा उनके संरक्षण में रहे। अतः उनकी कोई विशेष ऐतिहासिक प्रसिद्धि नहीं है -

1. राजा जसवन्तसिंह - सन् 1790 ई० से 22 मई सन् 1840 तक।

2. राजा देवेन्द्रसिंह - 5 अक्तूबर सन् 1840 ई० को गद्दी पर बैठा और 1845 ई० को गद्दी से उतार दिया गया। आप 1865 ई० में 46 वर्ष की आयु में स्वर्गीय हुए।

3. राजा भरपूरसिंह - सन् 1847 ई० में गद्दी पर बैठे और इनकी दादी चन्दकौर ने इसकी


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देखभाल की। सन् 1857 ई० के विद्रोह में इस राजा ने अंग्रेजी सेना को धन, सेना, शस्त्र देकर सहायता की। विद्रोह के पश्चात् सरकार ने राजा साहब को परगना झज्जर का जिला बावल एवं कांटी इनाम में दिए। 9 नवम्बर, 1863 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

4. राजा भगवानसिंह - आप स्वर्गीय राजा साहब के निस्संतान होने से भाई के नाते राजा घोषित किए गए। सन् 1871 ई० में निस्संतान आपका देहान्त हो गया।

5. राजा हीरासिंह - आप फुलकियां वंश से ही गोद आए और 10 अगस्त 1871 ई० में गद्दी पर बैठाए गए। अंग्रेजों से जी० सी० एस० आई०, जी० सी० आई० ई० उपाधियां प्राप्त कीं। 1911 ई० में स्वर्गीय हुए।

6. महाराजा रिपुदमनसिंह - अपने पिता राजा हीरासिंह की मृत्यु के बाद आप 24 जनवरी, 1912 ई० को यूरोप से लौटकर सिंहासन पर बैठे। किन्तु राज्य के ऋणग्रस्त होने एवं पटियाला के मनमुटाव से तथा स्वाभिमानी विद्वेष होने से इन्हें सरकार ने असन्तुष्ट होकर राज्यपद से वंचित कर दिया। आप धार्मिकता से प्रेरणा पाकर गुरुचरणसिंह नाम रखकर दक्षिण भारत के एक किले में रहने लगे।

7. महाराजा प्रतापसिंह - महाराजा रिपुदमनसिंह के अधिकारच्युत होने के बाद उसके पुत्र प्रतापसिंह गद्दी पर बैठाए गए। आपका जन्म 1919 ई० में हुआ था और 1928 ई० में सिंहासन पर बैठाया गया था। आपका विवाह महाराजा उदयभानु राणा धौलपुर के यहां हुआ। आपकी रियासत पटियाला यूनियन के अन्तर्गत कर पूर्वी पंजाब में विलीन हो गई।

जींद राज्य

यह भी फुलकियां राज्य है। चौ० फूल के सगे पौत्र चौ० सुखचैन ने अपने नाम पर गांव बसाकर बड़ी जमींदारी पर अधिकार कर लिया। इसी के वंशज जींद रियासत के शासक थे। यह अपने बेटे गजपतसिंह के साथ गांव फूल में रहा करता था।

सन् 1758 ई० में 75 वर्ष की आयु में आपका देहान्त हो गया।

सुखचैन के वंशज जींद राज्य के शासकों का संक्षिप्त ब्यौरा -

1. आलमसिंह - यह सुखचैन का पुत्र था। शाही सेना से लोहा लेने में यह प्रसिद्ध हुआ। सन् 1763 ई० तक इसने एक बड़ा क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था। अगले वर्ष इसकी मृत्यु हुई।

2. बुलाकी सिंह - आलमसिंह के छोटे भाई बुलाकीसिंह ने दयालपुर जागीर की नींव डाली।

3. राजा गजपतसिंह - यह राजा सुखचैन का मंझला पुत्र था। यह बाल्यावस्था में ही शाही सेना ने बन्दी बना लिया था किन्तु बहुत शीघ्र छूटकर वालान वाली पर अधिकार कर लिया। पानीपत, करनाल तक सीमा बढ़ा ली। दिल्ली के सम्राट् शाह आलम द्वितीय ने इसे ‘राजा’ की पदवी दी और उसने अपना सिक्का भी चलाया। उस समय रियासत जींद की राजधानी बड़रू खां थी। आपकी लड़की राजकुंवरी का विवाह सन् 1774 ई० में सरदार महासिंह शिशि गोत्री जाट से हुआ जो सुकरचकिया मिसल का नेता था। कुछ दिनों बाद दिल्ली के सम्राट् ने हांसी के सूबेदार


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-784


रहीमदाद खां को जींद पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजा गजपतसिंह की सहायता के लिए पटियाला के राजा अमरसिंह ने दीवान नानूमल को सेना देकर भेजा। नाभा के राजा हमारसिंह स्वयं सेना लेकर आए। दोनों ओर से युद्ध हुआ किन्तु शाही सेना की बुरी तरह से हार हुई और रहीमदाद खां मारा गया। जाट सेनायें विजयी रहीं। सन् 1789 ई० में इस वीर साहसी एवं बुद्धिमान् राजा का स्वर्गवास हो गया।

4. राजा भागसिंह - राजा गजपतसिंह के बाद रियासत का बड़रूखां का क्षेत्र भूपसिंह को मिला और भागसिंह को जींदसफीदों का इलाका मिला। भागसिंह को “राजा” की उपाधि मिली। उस समय वह 21 वर्ष का था। सम्राट् शाह आलम द्वितीय ने भागसिंह को खरखोदा और गोहाना बतौर जागीर दे दिये। सन् 1794 ई० में पटियाला की रानी साहबकौर ने अण्टाराव व लिछमनराव मराठों पर राजगढ़ के स्थान पर युद्ध किया था जिसमें भागसिंह भी शामिल था। इस युद्ध में विजय रानी की हुई।

सन् 1795 ई० में मराठों ने भागसिंह से करनाल को जीतकर जार्ज टाम्सन को सौंप दिया। जार्ज टाम्सन ने सन् 1797 और 1799 ई० में जींद और सफीदों सेना से युद्ध किया। इन युद्धों में राजा भागसिंह को विजय प्राप्त हुई। इस राजा ने लार्ड लेक की सहायता करके 1805 ई० में जसवन्तराव होल्कर को पंजाब से बाहर निकाला। लार्ड लेक ने खुश होकर क्षेत्र गोहाना और खरखौदा को राजा साहब के अधिकार में ही रहने दिया।

इसके अतिरिक्त पानीपत की तरफ परगना बुवाना भी राजा भागसिंह को दे दिया। राजा भागसिंह को सन् 1806 ई० में क्षेत्र लुधियाना के 24 गांव, परगना जंडियाला के 24 गांव, दो गांव जगरांव और दो गांव कोट के मिले। भागसिंह अपने भानजे शेरे पंजाब महाराजा रणजीतसिंह से भी मिलता रहता था किन्तु अंग्रेज सरकार का ज्यादा वफादार था।

सन् 1809 में राजा भागसिंह का देहान्त हो गया।

5. राजा फतेहसिंह - भागसिंह के मरने के बाद उसका पुत्र फतेहसिंह जींद रियासत की गद्दी पर बैठा। 3 फरवरी सन् 1822 ई० को उसका स्वर्गवास हो गया।

6. राजा संगतसिंह - अपने पिता राजा फतेहसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र संगतसिंह 30 जुलाई, 1822 ई० को सिंहासन पर बैठा। इसके शासनकाल में बदअमनी फैल गई जिसे वह दबा न सका। राजा संगतसिंह की मृत्यु 23 वर्ष की आयु में हो गई। राजा संगतसिंह के कोई सन्तान न थी। उसके दादा भागसिंह के भाई भूपसिंह के पौत्र चौ० सरूपसिंह को जींद राज्य के सिंहासन पर बैठाया गया।

7. राजा सरूपसिंह - 10 जनवरी, 1837 ई० को परगना जींद और सफीदों का राजा मान लिया गया और सन् 1837 ई० में बड़ी धूमधाम से गद्दी पर बैठाया गया। आपके शासनकाल में लिजवाना गांव के दलाल गोत्री दो जाट भूरा और निघाईयां के नेतृत्व में उस क्षेत्र के लोगों ने जींद सेना का छः महीने तक बड़ी वीरता से मुकाबला किया। इस युद्ध का वर्णन दलाल गोत्र के प्रकरण में किया जायेगा। महाराजा ने सन् 1857 ई० के विद्रोह में अंग्रेजों की बड़ी सहायता की। महाराजा स्वयं अपनी सेना लेकर दिल्ली की चढ़ाई में शामिल हुए थे। सरकार ने इन सेवाओं के बदले में क्षेत्र


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दादरी, जो नवाब दादरी से जब्त किया गया था, राजा साहब को दे दिया। 26 जनवरी 1864 ई० को राजा सरूपसिंह का स्वर्गवास हो गया।

8. राजा रघुवीरसिंह - यह अपने पिता राजा सरूपसिंह की मृत्यु के बाद 31 मार्च, 1864 ई० को गद्दी पर बैठा। कुछ ही दिनों बाद दादरी में विद्रोह खड़ा हो गया। गांव चरखी में 2000 विद्रोही इकट्ठे हो गए थे। महाराजा ने अपनी सेना और तोपों के साथ 14 मई को चरखी पर धावा बोल दिया और विद्रोह को दबा दिया। फिर मौजा झोजूमानिकवास पर, जो विद्रोहियों के अधिकार में थे, दो दिन में ही कब्ज़ा कर लिया गया। दोनों ओर से काफी आदमी मारे गये। विद्रोह को शान्त कर दिया गया। सन् 1887 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

9. राजा रणवीरसिंह - राजा रघुवीरसिंह की मृत्यु होने के बाद उनका पोता रणवीरसिंह गद्दी पर बैठा। सरकार की ओर से आपको सर, जी० सी० आई० की उपाधि मिली थी। आपके दो राजकुमार हुए। उनके नाम राजवीरसिंह और जगतवीरसिंह थे। उनका जन्म क्रमशः सन् 1918 में और सन् 1925 ई० में हुआ था।

जींद राज्य के संगरूर, जींद और चरखी दादरी मुख्य नगर थे। भारत को स्वतन्त्रता मिलने पर अन्य रियासतों की तरह जींद राज्य को पटियाला संघ में और फिर पंजाब प्रान्त में मिला लिया गया।

कैथल-अरनौली राज्य

इस राज्य का इतिहास भी फुलकियां इतिहास से सम्बन्धित है। चौदहवीं शताब्दी के मध्य में धर नामक महापुरुष ने कैथल, सिद्धूवाल, झब्बा और अरनौली आदि गांवों पर अधिकार कर लिया। उसने भटिण्डा के क्षेत्र पर भी आक्रमण किया। धर के पुत्र मानकचन्द के पुत्र ओमू हुआ। गुरु रामदास के परम शिष्य के नाते ओमू ने अनेक ऐसे शुभ कार्य किए जिनसे सिक्ख मत में उनका नाम आज भी प्रशंसित है।

गुरु अर्जुन के समकालीन ओमू के सुपुत्र भाई भगतू ने भारी प्रतिष्ठा प्राप्त की। गुरु ने उसकी भक्ति एवं सेवा से प्रसन्न हो कर उसे ‘भाई’ की उपाधि प्रदान की। गुरु हरिराय की आज्ञानुसार भाई भगतू ने करतारपुर में अपना शरीर त्याग दिया।

भाई भगतू के छोटे पुत्र गोरासिंह के पुत्र दयालसिंह थे। उनके पुत्र गुरुबक्शसिंह बड़े उच्चाकांक्षी शूरवीर योद्धा थे। पटियाला राज्य के संस्थापक बाबा आलासिंह के साथ मिलकर इन्होंने अनेक युद्ध किए। इनके छः पुत्रों में भाई सुक्खासिंह के पुत्र गुलाबसिंह ने अरनौली पर, भाई देशासिंह के पुत्र लालसिंह ने कैथल पर और तीसरे भाई बुद्धासिंह ने थानेसरपहवा पर अधिकार करके कहोद में एक अच्छा किला बनवाया। इनके शेष तीन भाई निस्संतान रहे किन्तु थे बड़े शूरवीर। सबने मिलकर मुसलमानों और राजपूतों से बड़ी लड़ाइयां लड़ीं। उन्होंने मिलकर चार लाख की आय के


1 आधार पुस्तकें -
1. जाट इतिहास, लेखक ठा० देशराज
2. जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
3. क्षत्रियों का इतिहास, लेखक परमेश शर्मा।


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प्रदेश पर अपना शासन स्थिर कर लिया था। सन् 1809 में भाई देशासिंह का पुत्र सरदार लालसिंह, पटियाला के बाद सतलुज के समीपस्थ सभी सरदारों में प्रतिष्ठित माना जाता था। उसने समय अनुसार जनरल अक्टरलोनी के द्वारा अंग्रेजों से मैत्री कर ली। उसने चौसाया और गुहाना का प्रदेश देकर इस सरदार की प्रसन्नता एवं समर्थन लेकर 500 घुड़सवारों की सहायता प्रत्येक समय तैयार रखने के लिए 8 गांव और दिए। जसवन्तराव होल्कर को अंग्रेजों द्वारा परास्त कराने और महाराजा रणजीतसिंह से अंग्रेजों की सन्धि कराने में लालसिंह ने उल्लेखनीय कार्य किए। जींद नरेश पर जार्ज टाम्सन द्वारा चढ़ाई करने से आई आपत्ति के निराकरण करने में भाई लालसिंह ने भारी सहायता की। सन् 1846 ई० में इस यशस्वी सरदार के स्वर्गीय होने पर इसका पुत्र उदयसिंह अत्यन्त अयोग्य सिद्ध हुआ। यह निस्संतान रहा। इसने अपने ताऊ की परम्परा में गुलाबसिंह को अपना उत्तराधिकारी चुना। परन्तु यह भी निर्बल था।

इसने अरनौली में रहते हुए कैथल का शासन प्रारम्भ किया। सरदार उदयसिंह की रानी महताबकौर ने शासन में भारी हस्तक्षेप किया। वह अंग्रेजों के विपक्ष में एक स्वतन्त्रताप्रिय नारी थी। अंग्रेजों ने इसके शासन में बाधा डाली तो यह अंग्रेजों से युद्ध कर बैठी। यह युद्ध में हार गई तथा अंग्रेजों ने इसे बन्दी बना लिया। अंग्रेजों ने कैथल राज्य को जब्त कर लिया और रानी को आजीविका के लिए पोदा नामक गांव दे दिया जिसे रानी की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने अपने अधिकार में कर लिया। गुलाबसिंह को केवल 14,000 आय का प्रदेश मिला। वह अरनौली में रहकर राज्यप्रबन्ध करने लगा। इसके भाई संगतसिंह का पुत्र अनोखसिंह सिद्धूवाल गांव में रहता था। उसके निस्संतान रहने पर यह प्रदेश भी अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।

सिद्धू-बराड़ फुलकियां वंश के सभी राजाओं और सरदारों ने सम्मिलित रूप से कैथल पर अपना अधिकार सिद्ध किया। किन्तु शासन अंग्रेजी कौंसिल के अधीन कर दिया गया। इससे असन्तुष्ट होकर सिद्धू सरदारों से समर्थन प्राप्त नागरिकों ने विद्रोह कर दिया। तब तलवार के बल से कैथल पर अंग्रेजों ने अपना पूर्ण शासन स्थिर कर लिया।

भाई गुलाबसिंह के भाई जसमेरसिंह ने सिक्ख युद्धों में और 1857 ई० के स्वातन्त्र्य संग्राम में अंग्रेजों की सहायता की जिसके पुरस्कार में 3577 रु० वार्षिक की जागीर, प्रान्तीय दरबार का पद और दीवानी फौजदारी के पूरे अधिकार इसको दिए गए। इनकी परम्परा चीफ़ आफ़ अरनौली के नाम पर प्रसिद्ध हुई। 1907 ई० में भाई जसमेरसिंह के स्वर्गीय होने पर भाई शमशेरसिंह चीफ़ आफ़ अरनौली घोषित हुए1

संयुक्त प्रान्त में जाटराज्य

1. रोरा-रोरवंश

शुरु में ये लोग पंजाब में आबाद थे और राठौर, राठी आदि की भांति अरट्टों के उत्तराधिकारी हैं। संयुक्त प्रदेश में कागारौल नामक स्थान के पास इनका राज्य था, जो कि इनके काक नाम के राजा के नाम पर बसाया था। कहा जाता है कि उसका किला एक मील के घेरे से भी अधिक था। जैगारे व कागारौल के बीच में उसके निशान अब तक बताये जाते हैं। रोर या रूर लोग अब से


1. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 527-529, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-787


700 वर्ष पूर्व वैभवशाली थे। लाखा बंजारे की और सोरठ की गाथा का इन रोर लोगों से ही सम्बन्ध है ऐसा भी अनुमान किया जाता है।


2. ठेनआं* राजवंश] - मुरसान रियासत

संयुक्तप्रान्त के जाटों में यह राजवंश अधिक वैभवशाली था। ये लोग सोलहवीं शताब्दी के अन्त में अपने नेता माखनसिंह की अध्यक्षता में राजपूताने से ब्रज में आये थे। उन दिनों मुगल सम्राट् जहांगीर भारत का शासक था। माखनसिंह ने जावरा के पास अपना कैम्प बनाया और चारों ओर के बहुत से गांवों को अपने अधिकार में ले लिया। इन लोगों की अधिकृत रियासत (टप्पा) जावरा के नाम से प्रसिद्ध हुई। खोखन गोत्र के जाट, जिनका कि अधिकार राया के क्षेत्र पर था, उनकी लड़की से माखनसिंह ने विवाह कर लिया। आस-पास के जाटों को संगठित करके राज्य बढ़ाना आरम्भ किया। अनेक स्थानों पर गढ़ों का निर्माण होना आरम्भ हो गया जिसमें से आज भी अनेक गढ़ों के चिह्न वर्तमान में हैं जैसे गोसना, सिन्दूरा आदि में।

सम्राट् शाहजहां के अन्तिम काल में सादुल्ला खां ने जाटों के क्षेत्र के मध्य में आकर छावनी बनाई जो सादाबाद के नाम से प्रसिद्ध हुई। उसने सन् 1652 ई० में जाटों का टप्पा जावरा, कुछ भाग जलेसर का, खन्दोली के 7 गांव और महावन के 80 गांवों पर कब्जा करके सादाबाद के परगने में शामिल कर लिये। किन्तु जाट उसके अधीन होते हुए भी स्वतन्त्र रहे। उन्होंने कभी कर या टैक्स नहीं दिया। रात-दिन युद्ध-आक्रमण और आघात-प्रत्याघात जारी रहे।

शाहजहां के बाद जिस समय उसके लालची पुत्रों में राज्य-प्राप्ति के लिए गृह-युद्ध छिड़ा हुआ था, माखनसिंह के प्रपौत्र श्री नन्दराम जी ने जाटों की शक्ति को फिर संगठित किया और दरियापुर के पोरत्त राजा की भी शक्ति अपने साथ मिला ली। नन्दराम ने अपनी रियासत को बहुत बढ़ा लिया। औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही नन्दराम की बढ़ती हुई शक्ति को देखा किन्तु वह उस समय जाटों से भिड़ना बुद्धिमानी नहीं समझता था। इसलिए उसने नन्दराम को फौजदार की उपाधि दे दी और तोछीगढ़ की तहसील उसको सौंप दी। वास्तव में नन्दराम इस प्रान्त का स्वतन्त्र राजा हो चुका था। नन्दराम जी ने 40 वर्षों तक राज किया। इन 40 वर्षों में उनकी तलवार की चमक, हृदय की गम्भीरता, भुजाओं की दृढ़ता काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। ऐसे योद्धा का सन् 1695 ई० में स्वर्गवास हो गया। मुरसान रियासत के संस्थापक नन्दराम थे। नन्दराम जी के 14 पुत्र थे जिनमें जलकरनसिंह सबसे बड़े थे। इसके अतिरिक्त जयसिंह, भोजसिंह, चूरामन, जसवन्तसिंह, अधिकरन, विजयसिंह आदि थे।

चूरामन तोछीगढ़ के मालिक रहे। जसवन्तसिंह वहरामगढ़ी के अधिपति हुए। अधिकरन श्रीनगर के और विजयसिंह हरमपुर के मालिक रहे।

जलकरनसिंह अपने बाप के आगे ही स्वर्गवासी हो चुके थे। उनके सुयोग्य पुत्र खुशालसिंह राज्य के मालिक हुए। उनके चाचा भोजसिंह से उसको राहतपुर और मकरौल गांव मिले। खुशालसिंह


(*). ठेनुवा या ठेनआं - यह जाटवंश चन्द्रवंशी तंवर या तोमर जाटवंश का शाखा-गोत्र है। देखो तृतीय अध्याय, तंवरवंश प्रकरण।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-788


ने सआदत उल्ला खां से दयालपुर, मुरसान, गोपी, पुतैनी, अहरी और बारामई के ताल्लुके छीन लिए। मुरसान के प्रसिद्ध गढ़ का निर्माण इन्होंने बड़े हर्ष के साथ कराया था। इस समय उनके पास तोप और अच्छे-अच्छे घोड़े काफी संख्या में थे। धीरे-धीरे राज्य-विस्तार बढ़ रहा था। मथुरा, हाथरस और अलीगढ़ के बीच के प्रदेश पर इनका अधिकार प्रायः सब जगह हो चुका था। इनके बाद इनके पुत्र पुहपसिंह राज्य के मालिक हुए। आपकी गिनती उस समय के प्रसिद्ध लड़ाके योद्धाओं में होती थी। ग्राम्य-गीतों में भरतपुर के साथ इनके युद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं। किन्तु वृद्ध ब्रजवासी जाट तो कहा करते हैं कि- गद्दी मुरसान की बड़ी है और राज भरतपुर का बड़ा है। बड़ी से शायद उनका मतलब प्राचीन से है। भरतपुर के युद्ध में रणबांके सरदार पुहुपसिंह हार गए क्योंकि सूरजमल जैसे शक्तिशाली योद्धा के सामने उनकी शक्ति इतनी न थी कि ठहर सकें। उन्हें मुरसान छोड़ना पड़ा। सासनी पर जाकर उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया। एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण किया। सासनी का गढ़ आज भी जाटों के महान् अतीत की याद दिलाता है। सन् 1764 ई० में महाराजा जवाहर सिंह जी से अधीनता तथा मित्रता हो जाने के कारण पुहुपसिंह फिर मुरसान के मालिक हो गए। नवम्बर सन् 1764 ई० के देहली युद्ध में महाराजा पुहुपसिंह ने महाराजा जवाहरसिंह का साथ देकर अपने जातीय धर्म का पालन किया था। यही कारण था कि सन् 1766 ई० में देहली के शासक नजफ खां वजीर ने अपनी सेना मुरसान पर कब्जा करने को भेजी। वीर जाट बड़ी बहादुरी के साथ लड़े, किन्तु उन्हें सफलता न मिली और मुरसान छोड़ना पड़ा।

यह कहना ठीक होगा कि राजपूतों में जो स्थान दृढ़ता और वीरता की दृष्टि से दुर्गादास का है, वही स्थान जाटों में रणबांके राजा पुहुपसिंह का है। उन्होंने फिर से मुरसान को लेने के लिए 10 वर्ष तक तैयारी की और अन्त में सन् 1785 ई० में मुरसान से शत्रुओं को मारकर भगा दिया। मुरसान हाथ आने के बाद राजा वीर पुहुपसिंह बराबर अपना राज्य बढ़ाते रहे। वृद्धावस्था में भी उन्हें रण प्रिय था। वे जीवनभर लड़ते रहने वाले योद्धाओं में से थे। मरने तक उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। सन् 1798 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

राजा पुहुपसिंह ने मरने से पहले ही अपने राज्य की बागडोर अपने प्रिय पुत्र भगवन्तसिंह को सौंप दी थी। उस ठेनुआ राजवंश के अधीनस्थ 5,000 सैनिक प्रतिक्षण तैयार रहते थे।

यह समय अंग्रेज और मराठा संघर्ष का था। अलीगढ़ उस समय कभी जाटों के हाथ में रहता था तो कभी मराठों के हाथ में। मराठों ने उस समय अलीगढ़ पर फ्रांसीसी जनरल मि० परन को नियुक्त कर रखा था। समय देखकर अंग्रेजों ने जाटों के बड़े घराने भरतपुर से सन्धि कर ली थी। फिर भी उनको जाटों से भय था। लार्ड लेक ने विजयगढ़ पर डेरा डाल दिया और रात के समय सासनी पर आक्रमण कर दिया। राजा भगवन्तसिंह बड़ी वीरता, साहस और धैर्य से लड़े और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। लगातार छः महीने तक युद्ध होने पर सासनी अंग्रेजों के हाथ आ सका था। यह जाटों की अद्भुत वीरता का उदाहरण है। इससे भी बढ़कर जाटों की वीरता का अद्वितीय उदाहरण यह है कि सन् 1805 ई० में इसी लार्ड लेक ने बड़ी सेना व भारी तोपों के साथ भरतपुर किले पर आक्रमण किया और कई महीनों तक धावे जारी रखे। परन्तु जाटवीरों ने इसका मुँहतोड़ जवाब दिया और अंग्रेज सेना के ऐसे दांत खट्टे किए कि लार्ड लेक को निराश होकर किले पर से घेरा उठाना पड़ा और हार का मुंह देखना पड़ा था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-789


इन्दौर से प्रकाशित होने वाली ‘वीणा’ नामक मासिक पत्रिका के दूसरे वर्ष की सातवीं संख्या में मराठा लेखक श्रीयुत भास्कर भालेराव ने केवलकिशन नाम के कवि का एक गीत दिया है। उस गीत से सासनी के बहादुर जाटों की वीरता का अच्छा पता लगता है। उस गीत का कुछ अंश हम भी यहां देते हैं -

अव्वल तो किया जाके विजयगढ़ पे भी डेरा।
फिर सासनी के नांई आधी रात को घेरा॥
चकती जु लिखी लेक ने होते ही सवेरा।
गढ़ खाली करो जल्दी कहा मान लो मेरा।
पत्री को देख बेटे पुहुपसिंह के बोले।
तैयार हों रनिवास के मुरसान को डोले।
नजर किये उनने वहां पांच भी गोले।
गढ़ देवेंगे मगर जरा जंग तो हो ले।

इस गीत काव्य से भी यही बात मालूम होती है कि सासनी घमासान युद्ध के बाद अंग्रेजों के हाथ लगा। पुहुपसिंह के बेटों का स्वाभिमान भी देखिए -

“गढ़ देवेंगे जरा जंग तो हो ले।” यह है क्षत्रियोचित उत्तर लार्ड लेक की चिट्ठी का। वे जानते थे कि असंख्य अंग्रेज सेना उनके दुर्ग को तहस-नहस कर देगी, परन्तु बनियापन से तो गढ़ खाली न करना चाहिए। आखिर किया भी ऐसा ही। यह पहले लिखा जा चुका कि नन्दरामसिंह के 14 पुत्र थे; जलकरनसिंह और जयसिंह उनमें अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। भगवन्तसिंह जी, जलकरनसिंह के प्रपौत्र थे और सासनी तथा मुरसान के अधीश्वर थे। जयसिंह जी के पुत्र राजा दयाराम जी थे जो कि हाथरस के मालिक थे। भगवन्तसिंह और दयाराम दोनों ही ने अपने राज्य का खूब विस्तार किया था।

मि० ग्राउस साहब की लिखी ‘मथुरा मेमायर्स’ को पढ़ने से पता चलता है कि “मुरसान और हाथरस के राजा अपने को पूर्ण स्वतन्त्र समझते थे।”

अंग्रेज इनके किलों पर अधिकार करना चाहते थे। लड़ने के लिए उनको बहाना मिल ही गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार अपराधी जिन पर हत्या का अभियोग था, दयाराम जी की शरण में पहुंच गए। अंग्रेजों ने राजा दयाराम से उन अपराधियों को पकड़कर उनके सुपुर्द करने को लिखा परन्तु दयाराम ने शरण में आए हुए आदमियों को देने से इन्कार कर दिया। इसी कारण से जनरल मारसल ने बड़ी सेना लेकर मुरसान और हाथरस पर चढ़ाई कर दी। मुरसान के राजा की कोई तैयारी न थी क्योंकि यह आक्रमण अचानक कर दिया था। यही कारण था कि जनरल मारसल ने मुरसान पर विजय प्राप्त कर ली। मुरसान पर अधिकार करते ही अंग्रेजी सेना हाथरस पहुंची। इस युद्ध का उल्लेख आगे हाथरस रियासत के वर्णन में किया गया है।

मुरसान के राजा भगवन्तसिंह जी का सन् 1823 ई० में स्वर्गवास हो गया। सरकार ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इससे प्रजा में बड़ा असंतोष फैला। प्रजा ने यह आवाज उठाकर


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-790


आन्दोलन शुरु कर दिया कि हमारे राजा से हमको अलग न किया जाए। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर सरकार ने बहुत सा राज्य भगवन्तसिंह के पुत्र टीकमसिंह को वापिस लौटा दिया। बहुत से गांव सरकारी राज्य में मिला लिए गए। इस तरह मुरसान के पास पहले से तिहाई राज्य रह गया।

सन् 1857 ई० में भारत में गदर हो गया, उस समय हाथरस और मुरसान के जाट राजाओं ने दयापूर्वक अंग्रेजों की रक्षा की। इस सहायता के बदले सरकार ने मुरसान के टीकमसिंह को गौंडा और सेमरा दो बड़े गांव दिये। तो पीढ़ी तक 7 गांव का खिराज बिलकुल माफ कर दिया। साथ ही राजा बहादुर और सी० आई० ई० की उपाधि भी दी। 25 जून सन् 1858 ई० में लार्ड कैनिंग ने इन राजाओं को राजभक्ति की एक सनद भी दी1

सन् 1878 ई० में राजा बहादुर टीकमसिंह जी का स्वर्गवास हो गया। उनके एक पुत्र किशनप्रसादसिंह उनके आगे ही मर चुके थे, इसलिए किशनप्रसादसिंह के सुपुत्र कुंवर घनश्यामसिंह जी मुरसान की गद्दी पर बैठे। यह बड़ा दानी और भक्त था। आप राज्य का प्रबन्ध भी बहुत अच्छी तरह से करते थे। सन् 1902 ई० में राजा घनश्यामसिंह का स्वर्गवास हो गया। यह महाराजा जसवन्तसिंह जी भरतपुर के समकालीन थे2

घनश्यामसिंह के पश्चात् उनके सुपुत्र राजा दत्तप्रसादसिंह जी मुरसान के राजा हुए। आप जाट महासभा के कार्यों में भी दिलचस्पी लेते थे। कई कारणों से आपके आगे राज्य-कोष में बड़ी कमी आ गई थी। रियासत कोर्ट आफ वार्डस के अधिकार में चली गई थी। सन् 1933 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया। उनके पश्चात् मुरसान की गद्दी पर राजा बहादुर श्री किशोरीरमनसिंह जी विराजमान हुए। उस समय मुरसान के अधीश्वर के पास केवल अलीगढ़ जिले में ही 88 गांव और 25 मुहाल थे। इनके अलावा अन्य जिलों में भी उनकी सम्पत्ति थी।

3. रियासत हाथरस

ठेनुंवा जाटों की इस रियासत पर मुरसान राज्य के संस्थापक श्री नन्दरामसिंह के तीसरे पुत्र जयसिंह के पौत्र राजा दयाराम इस रियासत हाथरस के राजा बने। इनके विषय में पिछले पृष्ठों में कुछ लिखा गया है। जनरल मार्शल ने मुरसान विजय करते ही हाथरस पर आक्रमण कर दिया। इस बीच हाथरस वाले संभल चुके थे। वैसे हाथरस का किला मुरसान के किले से अधिक मजबूत था। यह युद्ध सन् 1817 ई० में हुआ था। इस घमासान युद्ध में जाटवीरों ने अंग्रेज सेना के दांत खट्टे


1. टीकमसिंह महर्षि श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती के परमभक्त थे। स्वामीजी 19 मार्च, 1874 ई० में महाराजा मुरसान की घोड़ागाड़ी पर सवार होकर मुरसान पहुंचे। महाराजा ने उनका बड़ा सम्मान किया। महाराजा टीकमसिंह ने ठाकुर गुरुप्रसादसिंह को स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिए मुरसान बुलाया। वह अपने 600 आदमियों को साथ लेकर मुरसान आया परन्तु स्वामीजी से शास्त्रार्थ करने की उसकी हिम्मत न हुई और अपना सा मुंह लेकर बेसवां लौट आया।
2. राजा घनश्यामसिंह के तीन पुत्र थे। (1) श्री दत्तप्रसादसिंह (2) श्री बलदेवसिंह (3) श्री महेन्द्रप्रताप सिंह जिनको आर्य पेशवा राजा महेन्द्र कहते हैं। आपको राजा हरनारायणसिंह जी ने हाथरस रियासत पर गोद लिया था।


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कर दिये। यह लड़ाई कई दिन तक चली। जाटों ने प्राणों की बाजी लगा दी। किन्तु विजयलक्ष्मी उनसे रूठ गई थी। दयाराम जी ने अब अंग्रेजों से सन्धि करना ही उचित समझा। उन्होंने अंग्रेजी कैम्प में जाकर सन्धि की बात तय कर ली। किन्तु उनका पुत्र नेकरामसिंह जो कि अहीर रानी से पैदा हुआ था, सन्धि करने पर राजी न हुआ। दयाराम ने भी बेटे की रुचि देखकर पुनः युद्ध करने की ठान ली। जब अंग्रेजों ने देखा अब सन्धि नहीं होगी तो पूर्ण शक्ति के साथ हाथरस दुर्ग पर धावा बोल दिया। जाट भी वन-केसरी की भांति छाती तानकर अड़ गये। वे थोड़े थे फिर भी बड़े उत्साह से लड़ रहे थे। क़िले पर से शत्रु पर वे अग्निवर्षा कर रहे थे। उन्हें पूरी आशा थी कि मैदान उनके हाथ रहेगा किन्तु बारूद के मेगजीन में अकस्मात् आग लग गई। बड़े जोर का धमाका हुआ, असंख्य जाट सैनिक भस्म हो गए। अब क्या था, शत्रु को पता होते ही हाथरस स्वयं विजित हो गया। बन्दी न बनने के इरादे से स्वाभिमानी दयाराम शिकारी टट्टू पर सवार होकर रातों रात क़िले से निकल कर भरतपुर पहुंचा। वहां शरण न मिलने पर दयाराम जयपुर गए, वहां भी शरण न मिली। अंग्रेजी सेना उनके पीछे लगी हुई थी। अन्त में दयाराम ने अंग्रेजों से सन्धि कर ली। अंग्रेजों ने उसे 2000 रुपये मासिक पैन्शन दे दी। उन्होंने जीवन के शेष दिन अलीगढ़ में पूरे किए। सन् 1841 ई० में उनका देहान्त हो गया। इस समय पंजाब में महाराजा रणजीतसिंह शासन कर रहे थे। यदि उस समय जाटों में कोई ऐसी शक्ति पैदा हो जाती जो पंजाब, भरतपुर और मुरसान के जाट नरेशों को संगठित कर देती तो आज भारत के एक बड़े भाग पर जाटों का आधिपत्य होता।

हाथरस युद्ध के पश्चात् भी इस ठेनुआं राजवंश की शक्ति-वैभव बहुत कुछ शेष था। सन् 1875 ई० में अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर ने अपनी रिपोर्ट में इनके सम्बन्ध में लिखा है - “मुरसान के राजा का आधिपत्य समस्त सादाबाद और सोंख के ऊपर है, और महावन, मांट, सनोई, राया, हसनगढ़, सहपऊ और खंदोली उनके भाई हाथरस वालों के हाथ में है।” उक्त रिपोर्ट में आगे लिखा है कि लार्ड लेक की इन लोगों ने अच्छी सहायता की थी इसलिए अंग्रेज सरकार ने इन्हें यह परगने दिये थे।

दयाराम जी के पश्चात् उनके बेटे गोबिन्दसिंह जी गद्दी पर बैठे। ये बड़े ही शान्ति प्रिय थे। अंग्रेजों के साथ लड़कर अब शेष राज्य को नष्ट करने की भी इनकी इच्छा नहीं थी। सन् 1857 ई० के गदर के समय गोबिन्दसिंह ने दयापूर्वक अंग्रेजों की रक्षा की। अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर मि० ब्रामले ने स्पेशल कमिश्नर को 14 मई सन् 1858 ई० को लिखा था -

“इन ठाकुर गोबिन्दसिंह की राजभक्ति के कारण इनकी भारी आर्थिक हानि हुई है। 25वीं सितम्बर को इनकी 30,000 रुपये से ऊपर हानि हुई है। दिल्ली से लौटते समय बागियों ने इनका वृन्दावन वाला मकान लूट लिया है जिससे इनकी पैतृक सम्पत्ति की इतनी हानि हुई है जो पूरी नहीं की जा सकती।”

अंग्रेज सरकार ने गोविन्दसिंह हाथरसवाले को पचास हजार नकद और मथुरा तथा बुलन्दशहर जिले में कुछ गांव उस सहायता के उपलक्ष्य में दिये। दो पुश्त तक 7 गांवों का खिराज़ बिलकुल माफ कर दिया। साथ ही राजा बहादुर और सी० आई० ई० का खिताब भी दिया। 25 जून सन् 1858 को लार्ड कैनिंग ने राजा को राजभक्ति की एक सनद भी दी।


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गोविन्दसिंह का विवाह भरतपुर के प्रसिद्ध नरेश महाराजा जसवन्तसिंह के मामा रतनसिंह की बहन से हुआ था। उनसे एक बच्चा भी हुआ था जो मर गया।

राजा गोविन्दसिंह का सन् 1861 ई० में स्वर्गवास हो गया। पीछे विधवा रानी ने जतोई के ठाकुर हरनारायणसिंह को गोद ले लिया। जतोई का घराना भी ठेनुआं जाट सरदारों का ही है। किन्तु दयाराम जी की अहीर स्त्री के पुत्र नेकरामसिंह के लड़के केसरीसिंह ने हरनारायणसिंह के गोद लेने का विरोध किया और हाथरस की गद्दी का अपने को हकदार बताया। बहुत दिनों तक इस मामले में मुकद्दमेबाजी होती रही। अन्त में दीवानी अदालत और हाईकोर्ट ने हरनारायणसिंह को बहाल कर दिया। राजा हरनारायणसिंह का जन्म सन् 1863 ई० में हुआ था। सन् 1876 ई० में देहली के दरबार में आपको राजा की उपाधि मिली थी। यह राजा साहब बड़े लोकप्रिय थे। सन् 1895 ई० में इसका स्वर्गवास हो गया।

इनके कोई पुत्र न था इसलिए मुरसान से कुंवर महेन्द्रप्रताप जी को गोद लेकर (1888 ई०) उन्होंने उसको अपना उत्तराधिकारी बनाया। आपकी जीवनी का वर्णन आगे पृष्ठों में किया गया है। आप विदेश चले गए थे, आपके सुयोग्य पुत्र श्री प्रेमप्रताप हाथरस के मालिक हुए जो वृन्दावन के राजा भी कहलाते थे।

इन ठेनुंआं राजवंश के कई और छोटे-छोटे हिस्से थे। अन्त समय इन विभिन्न भागों के निम्न अधिपति थे -

  1. राजा बहादुर किशोरीरमनसिंह, - मुरसान राज्य।
  2. कुं बलदेवसिंह जी (मुरसान नरेश के चाचा थे) - बलदेवगढ़ छोटुवा।
  3. कुं० रोहनीरमनध्वजप्रसादसिंह, बेसवां
  4. कुं० प्रेमप्रतापसिंह - वृन्दावन और हाथरस
  5. कुं० नौनिहालसिंह, बलदेवगढ़।
  6. शक्तसिंह के वंशधर - करोल और जेराई।

4. स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेन्द्रप्रताप

राजा महेन्द्रप्रताप उन देशभक्त तथा दानवीरों में से हैं जिनके ऊपर जाट जाति को ही नहीं, किन्तु समस्त भारत को अभिमान है। राजा रईसों में इतना प्रबल त्याग करनेवालों में वे पहले व्यक्ति हैं।

अपनी शूरवीरता के लिए प्रसिद्ध ठेनुआं जाट राजवंश में मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी संवत् 1943 विक्रमी तदनुसार 1 दिसम्बर सन् 1886 ई० को ब्रजभूमि मुरसान (अलीगढ़) में राजा महेन्द्रप्रताप का जन्म हुआ। आप मुरसान रियासत के राजा घनश्यामसिंह जी के तृतीय पुत्र थे और हाथरस के राजा हरनारायणसिंह जी के दत्तक पुत्र थे। उन्होंने आपको 1888 ई० में गोद लिया था। हाथरस में आपका लालन-पालन हुआ। राजा साहब जब आठ वर्ष के ही थे तो राजा हरनारायणसिंह जी का सन् 1895 ई० में स्वर्गवास हो गया। आपके बालिग होने तक राज्य का प्रबन्ध कोर्ट आफ वार्डस के हाथ में रहा। आपने अलीगढ़ विश्वविद्यालय से बी० ए० तक शिक्षा प्राप्त की। 18 वर्ष की आयु में


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राज्याधिकार प्राप्त हुआ। आपका विवाह जींद की राजकुमारी से हुआ1। राजा बनते ही आपने अपनी रानी साहिबा सहित इंग्लैंड की यात्रा की। वहां की रस्म-रिवाजों को तो आपने देखा ही, किन्तु शिल्प और औद्योगिक शिक्षण-संस्थाओं का आपके दिल पर बड़ा असर पड़ा। जब आप भारत लौट रहे थे तो जहाज में आपकी रानी बीमार हो गई। आपने उसके ठीक होने की प्रभु से प्रार्थना की। प्रभु कृपा से रानी स्वस्थ हो गई। इसी खुशी में आपने अपने सब मित्रों, नरेशों, सम्बन्धियों और लोक नेताओं को निमन्त्रित किया कि मेरे पुत्र हुआ है। इस उपलक्ष्य में 24 मई 1909 ई० को वृन्दावन के महल में एक महोत्सव हुआ। महामना पं० मदनमोहन मालवीय समारोह के अध्यक्ष बनाए गए। स्वागत भाषण की प्रथम पंक्तियों में राजा जी ने कहा - “मैंने एक निःशुल्क राष्ट्रीय शिक्षा संस्था स्थापित करने का आयोजन किया है जिसमें शिल्प कलाकौशल की ऊंची क्रियात्मक शिक्षा दी जाया करेगी। आप सब इसका नामकरण कीजिए। यही मेरा पुत्र है और इसी के जन्म का उत्सव है।” पुत्र का नाम रखा गया “प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन”। राजमहल में यह संस्था स्थापित की गई। इस संस्था का ध्येय अक्षर ज्ञान के साथ-ही-साथ शिल्प और उद्योग ज्ञान प्राप्त कराना था। खर्च काटकर 33,000 रुपये वार्षिक आमदनी का अपनी रियासत का आधा भाग भी राजा साहब ने सदैव के लिए प्रेम महाविद्यालय को दे दिया। वे इसके मन्त्री और मैनेजर भी रहे। यह संस्था आज भी चल रही है। महाविद्यालय के साथ एक प्रेस भी है, ‘प्रेम’ नाम का एक पत्र भी निकाला जिसका सम्पादन स्वयं राजा साहब ने भी किया था।

आपने फर्रूखाबाद में स्थापित गुरुकुल को, संयुक्त-प्रान्तीय आर्य-प्रतिनिधि सभा के तत्कालीन प्रधान कुंवर हुकमसिंह जी की इच्छा के अनुसार, वृन्दावन में लाने के लिए 5 सन् 1911 ई० को अपना सुविशाल बाग दान कर दिया। आपने अछूतों को नौकर रखना शुरु किया। इसके बाद आप दूसरी बार विदेश यात्रा के लिए चले गये। सन् 1912 ई० में आप विदेश यात्रा पर गये थे। जब आप लौटकर भारत आए तो श्रावण सम्वत् 1970 विक्रमी तदनुसार सन् 1913 ई० में आपकी रानी साहिबा जींद वाली से पुत्र रत्न हुआ जिसका शुभ नाम प्रेम-प्रताप रखा। आपने “निर्बल सेवक पत्र” आरम्भ किया जिसके द्वारा, पर्दे के विरुद्ध, स्त्री-समानता के पक्ष में तथा किसानों के हित के लिए, खूब प्रचार किया था। सन् 1914 ई० में यूरोप में महासंग्राम छिड़ गया। इस युद्ध को देखने के लिए सन् 1914 ई० में आप स्वामी श्रद्धानन्द जी के पुत्र श्री हरिश्चन्द्र जी के साथ विलायत को रवाना हो गए। जेनेवा में वे पादरी चेपलेन के घर ठहरे। फिर आप जर्मनी पहुंच गए और वहां की सरकार से मिलकर भारत को आजाद बनाने की योजना बनाई। उसी के लिए जर्मन शासक कैसर की ओर से काबुल गए। वहां 2 अक्तूबर, 1915 ई० के दिन अफ़गानिस्तान के अमीर साहब ने आपको ‘राजा’ की उपाधि दी। आपने वहां आजाद हिन्द सरकार बनाई। वहां से मास्को जाकर रूस के शासक जार से भी मिले। फिर कुस्तुन्तुनिया आदि से चीन गए, वहां से जापान चले गए। भारत की स्वाधीनता के लिए आप 32 वर्ष तक जर्मनी, स्विटजरलैंड, अफ़गानिस्तान, काबुल, तुर्की, यूरोप, रूस, चीन, जापान, अमेरिका आदि में भटकते रहे।

बड़ी कौंसिल के प्रश्नोत्तर से यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें बाग़ी मान लिया है।


1. राजा साहब का विवाह 14 वर्ष की अवस्था में जींद राज्य के महाराजा रणवीरसिंह की राजकुमारी बलबीर कौर के साथ हुआ था।


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सरकार की ओर से कहा गया था कि मई 1916 ई० में सरकार को उनकी बाग़ियाना कार्रवाइयों का पता चल गया है, इसलिए उनकी रियासत कुर्क की जाती है। यदि वे भारत में आयेंगे तो न्यायालय में विचार किया जाएगा। उनकी रानी साहिबा के लिए 200 रुपये माहवारी और कुंवर प्रेमप्रताप के लिए 400 रुपये माहवार मय दाई के खर्च के दिए जाएंगे।

अन्त में आपने जापान जाकर आजाद हिन्द सेना की स्थापना की, जो बीच में शिथिल हो जाने पर नेताजी सुभाष जी ने पुनर्गठित की। आपका स्वप्न था कि भारत के राजे और जाट तथा लड़ाकू जातियां शस्त्र विद्रोह करके हमारा साथ देंगे। ब्रिटिश सरकार ने आपको विद्रोही घोषित करके भारतीय नागरिकता के अधिकारों से वंचित कर दिया। विदेशों में आपने अपना नाम पीटर-पीर-प्रताप रख लिया था।

सन् 1946 ई० में आपको भारत आने की अनुमति मिल गई; आप भारत आ गए। यदि इससे पहले आप अंग्रेजों के हाथ लग जाते तो आपको गोली से उड़ा देते या उमर कैद, काला पानी भेजते। भारत आते ही आप महात्मा गांधी से मिलकर कांग्रेस में शामिल हो गए। किन्तु कांग्रेसियों ने आपको जिला या प्रान्तीय स्तर पर भी सम्माननीय स्थान नहीं दिया। आपने कांग्रेस छोड़कर लड़ाकू जातियों को एक प्लेटफार्म पर आने के लिए आमन्त्रित किया। इस दिशा में आपने “दिल्ली पकड़ो” एक आन्दोलन चलाया। 10 मई सन् 1956 ई० के दिन दिल्ली में एक विराट सभा की गई। प्रतिबन्ध लगाकर सेना और पुलिस से उस विशाल जलूस को भंग करवा दिया गया। आपने अपने वक्तव्य में कहा - “न दिल्ली ने हमें पकड़ा और न हम दिल्ली पकड़ पाए। अब मैं चुनाव के द्वारा दिल्ली पकड़ूंगा।”

आपने मथुरा जाकर गांव-गांव में जनता को जगाया। चुनाव आया, आपके विपरीत कांग्रेस ने चौ० दिगम्बरसिंह (जाट) को ही टिकट दिया और जनसंघ ने सर्वोच्च नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी को खड़ा किया। राजा साहब ने कांग्रेस को 26,000 मतों से हराया और अटल जी की जमानत जब्त हुई। आप एम० पी० हुए और आपने दिल्ली पकड़ ली। आप वृद्धावस्था में भी देश को प्रेम धर्म का संदेश सुनाते रहे। “संसार संघ” हिन्दी में और “वर्ल्ड फैडरेशन” अंग्रेजी में संचालित करते रहे। राजा साहब की एकमात्र पुत्री राजकुमारी भक्तिदेवी है जिसने प्रतिज्ञा की थी कि पिताजी के स्वदेश लौट आने पर ही विवाह करूंगी। अन्त तक भी विवाह नहीं किया था। राजा साहब के स्व० प्रेमप्रताप जी के अमरप्रताप और सरला प्रताप नामक दो सन्तान हैं।

पेशवा राजा महेन्द्रप्रताप जी का स्वर्गवास 29 अप्रैल, 1979 ई० को सायं 5.30 बजे हो गया।

राजा महेन्द्रप्रताप का दृष्टिकोण बहुत विशाल था।

  1. सर्वप्रथम उनका लक्ष्य अपने देश भारत को स्वतन्त्र कराने का था।
  2. तत्पश्चात् एशिया को स्वतन्त्र कराने का था।
  3. अन्त में इनकी इच्छा ‘संसार संघ’ की स्थापना की थी। संसार संघ की स्थापना से उनका तात्पर्य था कि संसार की एक ही सरकार हो, एक सेना हो, एक कचहरी हो तथा एक राज होना चाहिए जिससे एक देश दूसरे देश से न लड़ सके।

आपका तप, त्याग, प्रेम धर्म और स्वदेशानुराग प्रत्येक नवयुवक के लिए अनुकरणीय है। आप


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भारतवर्ष और हमारी जाट-जाति की गोद के एक उज्जवल लाल थे जिन पर सब देशवासियों को गौरव है।

दलाल जाटों का राज-वंश

इस जाट वंश की राजधानी कुचेसर रही जो कि जिला बुलन्दशहर में है। अब से लगभग 250 वर्ष पहले से यह वंश यहां पर आबाद है। दलाल जाट गोत्र के भुआल, जगराम, जटमल और गुरबा नामक चार भाई थे जिन्होंने इस राज्य की नींव डाली थी।

“मुग़ल साम्राज्य जब जाटों और मराठों के प्रबल प्रताप से पतन की ओर जा रहा था और जाट संघ के अनेक घरानों ने छोटी-बड़ी रियासतें स्थापित कर ली थीं, उस समय रोहतक जिले के मांडौठी गांव के दलाल वंश के चार जाट जिनके नाम ऊपर लिखे हैं, उत्तर प्रदेश में चले गए।” (क्षत्रियों का इतिहास श्री परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री पृ० 178)।

भुआल, जगराम और जटमल ने चितसौना और अलीपुर में प्रथम बस्ती आबाद की। चौथे भाई गुरबा ने परगना चंदौसी (जिला मुरादाबाद) पर अधिकार कर लिया।

भुआल के पुत्र मौजीराम हुए। इनके दो पुत्र रामसिंह और छतरसिंह थे। छतरसिंह ने बहुत सा इलाका जीत लिया। छतरसिंह के दो पुत्र मगनीराम और रामधन थे। जब महाराजा जवाहरसिंह ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए दिल्ली पर चढ़ाई की तो उस समय छतरसिंह, मगनीराम और रामधन ने म० जवाहरसिंह की 25000 जाट सेना से बड़ी मदद की। दिल्ली के नवाब नजीबुद्दौला ने एक चाल चली। छतरसिंह को अपने पक्ष में मिला लिया। उसको राव का खिताब दिया और साथ ही कुचेसर की जागीर और 9 परगने का ‘चोर मार’ का ओहदा भी दिया। छतरसिंह ने अपने पुत्रों और सैनिकों को म० जवाहरसिंह से अलग कर लिया। दिल्ली की ओर से अलीगढ़ में उन दिनों असराफिया खां हाकिम था। इस युद्ध के बाद उसने कुचेसर पर चढ़ाई कर दी। उसको खतरा था कि कुचेसर के जाट बढ़ते ही गए तो अलीगढ़ को जीत लेंगे। इस युद्ध में दलाल जाट हार गए। राव मगनीराम और रामधन कैद कर लिये गये। कोयल के किले में उन्हें बन्द कर दिया गया, किन्तु वे दोनों भाई कैद से निकल गये। पहले ये भरतपुर महाराजा1 से क्षमा याचना करके और मुरादाबाद में सिरसी के मराठा हाकिम को प्रभावित करके फिर मराठा और जाट सेनाएं लेकर 1782 ई० में कुचेसर पर चढ़ाई कर दी।

वह मुग़ल हाकिम इस आक्रमण से भयभीत होकर भाग निकला। उसे पकड़कर उसका सिर कुचल दिया। इसी से किले का नाम कुचेसर पड़ गया। इस अवसर पर जाटों ने इनका भारी समर्थन किया। अब ये फिर कुचेसर के अधिकारी हुए।

राव मगनीराम दो पत्नियां और सात पुत्र छोड़कर स्वर्गवासी हो गया। कहा जाता है कि बहादुरनगर में एक खजाने का नक्शा छोड़ जाने पर विवाद होने से राव रामधन ने अपने दो-तीन भतीजों को मरवा डाला, शेष ईदनगर चले गए। नक्शे के अनुसार विशाल खज़ाना मिल जाने पर कुचेसर का भण्डार भरपूर हो गया। 1790 ई० में राव रामधन पूर्णरूप से कुचेसर के शासक हुए। उस


1. महाराजा रणजीतसिंह भरतपुर नरेश


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समय दिल्ली का बादशाह शाह आलम था। उसने सैदपुर, दतियाना, पूठ, सियाना, थाना, फरीदा के विस्तृत क्षेत्र कुचेसर को ही इस्तमुरारी पट्टे पर दे दिए।

इस इस्तमुरारी पट्टे के बदले 40,000 मालगुजारी देनी होती थी। बाद में 1794 ई० में अकबर शाह ने तथा 1803 ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी इस इलाके पर कुचेसर का ही शासन स्वीकार कर लिया। किन्तु अंग्रेजों का भविष्य अनिश्चित समझकर राव रामधन ने मालगुजारी करनी बन्द कर दी, इस पर अंग्रेज सरकार ने इन्हें कैद कर लिया। 1816 ई० में मेरठ की जेल में इनकी मृत्यु हो गई। इनके पुत्र राव फतेहसिंह रियासत के मालिक हुए। फतेहसिंह ने उदारतापूर्वक अपने चाचा के लड़कों का खान-पान मुक़र्रर कर दिया। उनको रियासत का कुछ भाग भी दे दिया। उनमें राव प्रतापसिंह भी थे। 1839 ई० में राव फतेहसिंह का स्वर्गवास हो गया। उनके बाद उनके पुत्र बहादुरसिंह जी राज के मालिक हुए। इन्होंने 26 गांव खरीदकर रियासत में शामिल कर लिये। इनकी दो पत्नियां थीं, जाट स्त्री से लक्ष्मणसिंह, गुलाबसिंह और राजपूत स्त्री से उमरावसिंह हुए। लक्ष्मणसिंह का स्वर्गवास अपने पिता के ही आगे हो गया था। राव बहादुरसिंह के मरने पर राज का अधिकारी कौन बने इस बात पर काफी झगड़ा चला। यह भी कहा जाता है कि जाट बिरादरी के कुछ लोगों ने उमरावसिंह को दासी-पुत्र ठहरा दिया और गुलाबसिंह को राज्य का अधिकारी ठहराया। गुलाबसिंह को राजा बनाया गया। सन् 1857 ई० में गुलाबसिंह ने अंग्रेजों की खूब सहायता की। इसके बदले में ब्रिटिश सरकार ने आपको कई गांव तथा राजा साहब का खिताब प्रदान किया। राजा गुलाबसिंह का सन् 1859 ई० में स्वर्गवास हो गया। इन्होंने सियाना के समीप साहनपुर किला निर्माण कराया था।

राजा साहब का कोई पुत्र न था, एक पुत्री थी बीबी भूपकुमारी। रानी जसवन्तकुमारी के बाद उनकी पुत्री बीबी भूपकुमारी राजगद्दी पर बैठी। सन् 1861 में वह भी निःसंतान मर गई। भूपकुमारी की शादी बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह के भतीजे राव खुशहालसिंह से हुई थी। वे ही उत्तराधिकारी शासक हुए। किन्तु फतेहसिंह के चचेरे भाई प्रतापसिंह, उमरावसिंह ने अपने अधिकार का दावा किया। 1868 ई० में मुकदमे के पंच फैसले में निर्णय हुआ कि पांच आना राव प्रतापसिंह, छः आना राव उमरावसिंह और पांच आना खुशहालसिंह को बांट दिया जाये। राव उमरावसिंह ने अपनी लड़की की शादी खुशहालसिंह से कर दी। 1879 ई० में खुशहालसिंह निःसंतान मर गया। इसलिए दोनों हिस्सों का प्रबन्ध उसके ससुर उमरावसिंह जी के हाथ में आ गया। सन् 1898 में उमरावसिंह का भी स्वर्गवास हो गया। उनके तीन लड़के पहली रानी से और एक लड़का दूसरी रानी से था। सबसे बड़े राव गिरिराजसिंह जी को अपने भाइयों से 1/16 अधिक भाग मिला। मुकदमेबाजी ने इस घराने को बरबाद कर रखा था। साहनपुर की रानी साहिबा श्रीमती रघुवीरकुंवरी ने राज गिरिराजसिंह जी तथा उनके भाइयों पर तीन लाख मुनाफे का अपना हक बताकर दावा किया था। पिछले बन्दोबस्त में पूरे 60 गांव और 16 हिस्से इस रियासत के जिला बुलन्दशहर में थे। इसकी मालगुजारी सरकार को सन् 1903 से पहले 118292 रुपये दी जाती थी। रियासत साहनपुर और कुचेसर का वर्णन प्रायः सम्मिलित है। श्रीमान् कुंवर ब्रजराजसिंह जी रियासत साहनपुर के मालिक थे। इन रियासतों का संयुक्त प्रदेश के जाटों में अच्छा सम्मान था।

इसी कुचेसर राजपरिवार के दलाल वंश के 12 गांव हैं। जिनमें चौ० केहरसिंह पूर्व सेक्रेट्री


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-797


शिक्षा विभाग तथा कमिश्नर ट्रांस्पोर्ट उत्तरप्रदेश सरकार, चौ० चरणसिंह एम० ए० प्रोफेसर लखावटी कालेज, चौ० चतरसिंह एडवोकेट बुलन्दशहर आदि अनेक उन्नतिशील व्यक्ति हैं। (ठा० देशराज, जाट इतिहास पृ० 572-575; क्षत्रियों का इतिहास, पृ० 178-180, लेखक परमेश शर्मा)।

राज्य साहनपुर

जिस समय मुगलसम्राट् अकबर अपने समकालीन राजाओं को रौंदता कुचलता हुआ बढ़ता चला जा रहा था, उस समय उच्चाकांक्षाओं से प्रेरित होकर जींद राज्य में रामरायपुर ग्राम को छोड़कर कुछ काकराणावंशी जाट अपने बसरूसिंह (सुपुत्र नाहरसिंह) नेता के नेतृत्व में बहादुरगढ़ में आ बसे। यहां उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वी भट्टी राजपूतों से बदला लेने के लिए शाही सेनाओं की सेवाएं स्वीकार कर लीं। दुल्हा भट्टी की कमान में लड़ने वाली राजपूत सेनाओं के साथ युद्धग्रस्त रहकर इन्होंने अपनी रणरसिकता से अपने वंश की प्रतिष्ठा को बहुत उन्नत किया। फलतः सरदार बसरूसिंह की मुगल सेना के प्रख्यात शूरवीरों में गणना की जाने लगी। “आईने अकबरी” और “जहांगीरनामे” में इनका उल्लेख आता है।

इस वीर योद्धा बसरूसिंह के चार पुत्र थे - रामसिंह, धर्मसिंह, आलमसिंह तथा पदारथसिंह। इनमें सर्वाधिक प्रतापी राय पदारथसिंह थे। इनके गौरवर्ण के तेजस्वी मुखमण्डल पर काली घनी मूंछें इतनी लम्बी थीं कि उन्हें मरोड़कर आप उन पर नारंगी रख लिया करते थे। इसीलिए उन्हें मूंछ पदारथसिंह तेगबहादुर के नाम पर भी प्रसिद्धि प्राप्त थी। ये बहादुरगढ़ से विशाल गोधन के साथ कनखल (हरिद्वार) और चण्डी से बालावाली तक के उस प्रदेश पर आकर शासक बन गए जो गंगा के दोनों ओर आज के बिजनौर और सहारनपुर जिलों में पड़ता है। इनकी गाय भैंसें नांगल के पास गंगा पार करके आज के नजीबाबाद क्षेत्र में चरने जाया करती थीं। वह स्थान “भैंस घट्टे की घटरी” के नाम पर आज भी विख्यात है। इन्हें अपने “धन” की रक्षार्थ वन के शेरों, चीतों आदि हिंसक प्राणियों का प्रायः आखेट करना होता था। राय मूँछ पदारथसिंह ने शहजादा सलीम (जहांगीर) को प्रभावित करके मित्र बना लिया और शेरों के शिकार के लिए अपने प्रदेश में आमन्त्रित किया। सलीम ने इधर आकर शेरों का शिकार खेला। उसने राय मूँछ पदारथसिंह को आखेट की सकुशल सम्पन्नता पर प्रसन्न होकर उसे तत्कालीन सूबेदार से जिला मुरादाबाद में लगने वाले परगने जलालाबाद, किरतपुर, मण्डावर के 300 गांवों पर अधिकार स्वीकार करा दिया। सन् 1603 ई० में इन्हें ‘राय’ की उपाधि खिलअत और “ता संग अज गंगा” गंगा से शिवालिक पहाड़ तक के प्रदेश पर शासक होने का ताम्रपत्र दिया गया। तब राय मूँछ पदारथसिंह ने बहादुरगढ़ से अपने परिवार को भी यहां बुला लिया। इन्होंने इधर आकर गंगा पार नांगल में एक कच्चा किला बनाया। माता सोती के नाम पर इस गांव को आबाद किया। आज भी इसे सोती की नांगल के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। नांगल के अतिरिक्त राय मूँछ पदारथसिंह ने एक किला कच्चा बनवाया। उसके अन्दर विशाल हवेलियां बनवायीं। उसका नाम जलालुद्दीन अकबर के नाम पर जलालाबाद रखा। अगले वर्ष 1605 ई० में इन्होंने किला स्वर्णपुर जो आज साहनपुर के रूप में प्रसिद्ध है, पर अधिकार कर लिया। इस प्राचीन किले के इनके अधिकार में आने पर ये इस क्षेत्र के दूर-दूर तक एकछत्र अधिपति के नाम पर प्रख्यात हो गए।


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1628 ई० में जब शाहजहां सम्राट् बना तो उसका पुत्र दाराशिकोह बिना सूचना दिए ही साहनपुर के वनों में मृगया के लिए आ घुसा। वहां पर राय मूँछ पदारथसिंह का अकेले में दारा से सामना हो गया। हल्के से ही युद्ध में दारा सख्त घायल हो गया। जब ज्ञात हुआ कि यह “दारा” है तो उसकी गुप्त रूप से सेवा शुश्रूषा भी कराई। इस स्वास्थ्य लाभ में दारा को इधर 30-40 दिन हो गए। जब दारा स्वस्थ होकर दिल्ली जाने लगा तो राय मूँछ पदारथसिंह भी उसके सत्कारार्थ साथ गया। इसको शाहजहां ने बन्दी बना लिया। ऐसे समय एक आश्रित मिरासी निसार खां ने दिल्ली दरबार पहुंचकर अपनी बाण विद्या के चमत्कार से शाहजहां को मुग्ध कर लिया। मिरासी के कहने पर शाहजहां ने राजा राय मूँछ पदारथसिंह को बन्दीगृह से बुलवाकर तीरन्दाजी के करतब दिखाने की आज्ञा दी। उसने सात लोहे के तवे रखवाकर इतनी शक्ति से बाण मारा कि वह सातों तवे तोड़ता हुआ पीछे आम के पेड़ में जा धंसा। इस पर प्रसन्न होकर सम्राट् शाहजहां ने उसे ससम्मान मुक्त कर दिया और 300 के स्थान पर 660 गांव और राय की उपाधि देकर विदा किया। वहां से लौटकर दो वर्ष बाद 1631 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

इनके बड़े भाई रामसिंह ने रम्पुर गांव बसाया जो आजकल नजीबाबाद का एक मोहल्ला है। दूसरे भाई आलमसिंह ने आलम सराय बसाई। तीसरे भाई धर्मसिंह जलालाबाद में ही आबाद रहे। इनकी ही भांति इसी परिवार का एक जत्था युवराज सलीम की कृपादृष्टि से मेरठ के मवाना क्षेत्र पर अधिकारी हो गया जहां कि वे मसूरी, दूधली, राफड़ बणा और बाद में मुजफ्फरनगर में फाईमपुर पर आज भी बड़ी सम्पन्न स्थिति में बसे हुए हैं, किन्तु इनके सर्वाधिक प्रतापी पुरुष राय मूंछ पदारथसिंह तेगबहादुर ही हुए।

राय भीमचन्द - यह अपने पिता राय मूंछ पदारथसिंह की मृत्यु होने के बाद राज्याधिकारी हुए। एक बार ये अपने छः भाई और कई भतीजों सहित रानियों को साथ लेकर सदलबल हरिद्वार में गंगास्नान करके कनखल के दक्ष प्रजापति मन्दिर के दर्शनार्थ गए हुए थे कि ज्वालापुर के मुसलमान पुण्डीरों ने इन्हें घेरे में लेकर आक्रमण कर दिया। इस पर इनकी रानियों ने संकटकाल समझकर चिताएं तैयार कर लीं। घनघोर संग्राम आरम्भ होते ही चिताएं धधक उठीं। यह दृश्य देखकर जाट सेना अन्तिम दम तक शत्रु सेना को मारती काटती रही। साहनपुर नरेश के सभी भाई भतीजे इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। साहनपुर के वीर जाटों और पुण्डीर मुसलमानों के इस युद्ध की गाथाएं कनखल ज्वालापुर के पण्डों की पुरानी बहियों में आज भी सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त उन आदर्श जाट वीरांगनाओं की स्मृति में निर्माण कराए गए सतियों के अनेक मठ दक्ष मन्दिर के दक्षिण की ओर साहस और पतिव्रत धर्म पालनार्थ बलिदान की साक्षी स्वरूप विद्यमान हैं। लक्षावधि दर्शनार्थी देश के कोने-कोने से पहुंचकर आज भी उन सती मठों पर प्रतिदिन श्रद्धा के पुष्प चढ़ाते हैं।

राय नत्थासिंह - राय भीमचन्द और उनके समस्त भाइयों के वीरगति प्राप्त होने पर राय नत्थासिंह राज्याधिकारी बने। इनकी अपने भाई फतहसिंह सहित राजपूत मुसलमानों से युद्ध करते हुए मृत्यु हो गई। तब इनका भाई रामयसबलसिंह साहनपुर का शासक बना। उसने नांगल से चार मील दूर सबलगढ़ नामक दुर्ग बनवाया जिसके आज भी खण्डहर विद्यमान हैं।

राय राजाराम - यह बलशाली तेजस्वी नरेश था और महाबली के नाम पर प्रख्यात था।


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इन्होंने आम के इतने अधिक बाग लगवाये कि नजीबाबाद से हरिद्वार तक की यात्रा आम्रादि वृक्षों की छाया ही छाया में की जा सकती थी। इनका लगवाया हुआ रामबाग बड़ा प्रसिद्ध है। 1691 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया।

राय सभाचन्द - अपने पिता राय राजाराम के मरने के बाद आप सिंहासन पर बैठे। 1698 ई० में इनके सौतेले भाई ताराचन्द ने फौजदार मौहम्मद अली की सहायता लेकर साहनपुर किले पर चढ़ाई कर दी। कई आक्रमण किले पर हुए किन्तु राय सभाचन्द ने पहाड़ी प्रदेश जीतकर बड़ी वीरता से किले की रक्षा की और अपनी रियासत में 1787 गांव कर लिए। इन्होंने नगीने बिजनौर की सत्तासी वसूल की और अकबराबाद मोल लिया। ये 1719 ई० में स्वर्गीय हुए। इसके बाद साहनपुर राज्य के शासक क्रमशः इस प्रकार हुए।

(1) राय रामदास - 1772 ई० में वीरगति को प्राप्त हुए। (2) राय बसुचन्द - ये 1777 ई० तक शासक रहे। (3) राय तपराजसिंह - 1817 ई० में ये स्वर्गीय हुए। (4) राय जहांचन्द (5) राय हिम्मतसिंह - आपके शासनकाल में 1857 ई० का विद्रोह हुआ, 1864 ई० में स्वर्गवासी हुए। (6) राव उमरावसिंह - आपका 1882 ई० में स्वर्गवास हो गया। (7) राय डालचन्द - आपके चार पुत्र रानी सूरजकौर से हुए - 1. कुं० प्रतापसिंह 2. कुं० हरवंशसिंह 3. कुं० जगतसिंह 4. कुं० भरतसिंह। सन् 1897 ई० में आपका स्वर्गवास हो गया। (8) राय प्रतापसिंह - आपका सन् 1902 ई० में स्वर्गवास हो गया। (9) राय हरवंशसिंह - आपका 1909 ई० में स्वर्गवास हो गया।

(10) आनरेबल राजा राय भरतसिंह जी साहब बहादुर O.B.E. साहबपुर नरेश - आप सन् 1909 ई० में राज्य के शासक हुए। 1922 ई० में अंग्रेज सरकार ने राय भरतसिंह को व्यक्तिगत राय बहादुर, फिर O.B.E. और बाद में “राजा” की पदवी प्रदान की। आपने पुराने किले तुड़वाकर आधुनिक ढ़ंग से बनवाए। सैंकड़ों निर्धन बालकों की शिक्षा, अनाथ पुत्रियों के विवाह, असहाय विधवाओं की सहायता आपके द्वारा हुई। आपने एक नया राममन्दिर बनवाया। गंगा, गौ, गायत्री, ईश्वर, धर्म, साथु और ब्राह्मणों के प्रति आप अत्यन्त आस्थावान् थे। आपको राजर्षि चरतसिंह, तेजस्वी राजकुमार प्रीतमसिंह, राजकुमार गिरिराजसिंह जी सरीखे सुयोग्य पुत्र प्राप्त हुए। आपकी वीरता भी इतनी विख्यात हुई कि आप पैदल शेरों का शिकार करते थे। 26 सितम्बर 1944 ई० में आपका देहली में स्वर्गवास हो गया। आपकी स्मृति में कन्या गुरुकुल हरिद्वार ने “भारत भवन” का निर्माण कराया।

(11) राजर्षि बहादुर राय चरतसिंह - आपका जन्म 1901 ई० में हुआ। आपके जीवन की सबसे बड़ी घटना कांग्रेस के चढ़ते दिनों जिला कांग्रेस के प्रधान को करारी पराजय देकर एम० एल० ए० चुना जाना था। आपको पराजित करने के लिए पं० जवाहरलाल नेहरू ने कई बार आकर विरोधी भाषण दिए किन्तु, जनता के उमड़ते जोश के सामने उनकी भी न चली और अपने विशद व्यक्तित्व के बल पर भारी बहुमत से विजयी हुए। आपके जीवन का बड़ा दूसरा कार्य था अ० भा० जाट क्षत्रिय महासभा द्वारा प्रमाणित “जाट क्षत्रिय इतिहास” को प्रकाशित होने में सहायता देना। आप शिक्षा प्रसार के प्रति भी अत्यधिक रुचिवान थे। आपने सर्वाधिक धन दान देकर सरस्वती कालेज नजीबाबाद को आरम्भ कराया। आप ही उसके प्रधान रहे। कन्या गुरुकुल हरिद्वार के भी


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आप उपप्रधान रहे। आपको शेरों के शिकार का गहरा अनुभव था। आपने 400 शेरों का शिकार किया था जिनमें से अनेक शेर पैदल ही मारे थे। आपके भाई प्रीतमसिंह भी उच्च शिक्षित एवं उच्चकोटि के खिलाड़ी थे। शेरों का आखेट, जीव जन्तु विज्ञान में विशेषताएं और प्रधान कार्यों में गहरी रुचि लेना आपकी विशेषता है। तीसरे भाई राजकुमार गिरिराजसिंह भी कृषिविज्ञान के विद्वान् थे।

यह साहनपुर राज्य 200 गांवों, नांगल, किरतपुर, मण्डावर, जलालाबाद, अकबराबाद, रामपुर, स्याना (बुलन्दशहर) आदि कस्बों, 12 वर्गमील के शालवनों तथा 114 वर्गमील वाले भूमिभाग से घिरा हुआ था। हर की पैड़ी हरिद्वार, दक्ष मन्दिर कनखल की गंगाधार से लगाकर नैनीताल जिले के काशीपुर राज्य के जंगलों की सीमा तक के वन इसी राज्य के थे। शेरों की दहाड़ और हाथियों की चिंघाड़ इस राज्य के वनों को सदा गुंजायमान रखती थी। मुगलसम्राट् जहांगीर को शेरों का शिकार खिलाकर प्राप्त किए इस राज्य के वंशधर भी भारत भर में और विदेशों में शेरों के शिकार के लिए ही प्रसिद्ध हैं। यह एक संयोगवश प्रत्यावर्तित घटित घटना है। सम्पूर्ण जाटों में इस रियासत का सम्मानित स्थान है। ऊपर लिखित रियासतों के अतिरिक्त और भी कई छोटी-छोटी जाटों की रियासतें संयुक्त प्रदेश में थीं। जैसे फफूंद, मुरादाबाद, जारखी, मुहीउद्दीनपुर, सेहरा, सीही, सैदपुर और भटोना आदि।

फफूंद में राजा भागमल जिनका दूसरा नाम बारामल्ल था, शासक थे। आपने फफूंद में एक किला बनवाया था जिसके चिह्न अब तक भी शेष हैं। आपने मुसलमानों के लिए एक मस्जिद भी बनवाई थी जिस पर आज तक जाट नरेश राजा भागमल जी का नाम खुदा हुआ है। मुरादाबाद रियासत के अन्तिम शासक कुंवर सरदारसिंह थे जो एम० एल० सी० भी थे। आप जाट महासभा के कोषाध्यक्ष भी थे।

हरयाणा प्रान्त में जाट राज्य

तेवतिया/ भटौनिया जाटों का बल्लभगढ़ एवं भटौना राज्य -

यहां तेवतिया गोत्र के जाटों का राज्य था। देहली गजेटियर से जो इनका हाल मिलता है व संक्षेप में इस तरह से है - बल्लभगढ़ से उत्तर की ओर 3 मील के फसले पर सीही नाम का एक ग्राम है। 1705 ई० में तिब्बत गांव (भटिंडा के निकट) से सरदार गोपालसिंह नाम का एक जाट वीर अपने सहगोत्री तेवतिया जाटों के साथ यहां आकर बस गया। औरंगजेब उस समय मर चुका था। गोपालसिंह ने अपने साथियों के साथ राज्य स्थापना की भावना से प्रेरित होकर देहली और मथुरा के बीच के प्रदेश में लूटमार आरम्भ कर दी। थोड़े ही समय में बहुत साधन और शक्ति एकत्रित कर ली। उस समय बल्लभगढ़ से 8 मील पूर्व की ओर ‘लागोन’ नाम के गांव में गूजर बड़ा जोर पकड़ रहे थे। इसने उनसे मित्रता कर ली। आस-पास के गांवों की चौधरायत एक राजपूत के पास थी। गूजरों की सहायता से उस राजपूत पर चढ़ाई करके गोपालसिंह ने उसे मार डाला और उसके प्रदेश पर अधिकार कर लिया और बल्लभगढ़ को अपनी राजधानी बनाकर उस क्षेत्र का राजा बन बैठा।

फरीदाबाद में उस समय मुग़लों की ओर से मुर्तिजा खां हाकिम था। उसने भयभीत होकर गोपालसिंह से सन्धि कर ली और उसे फरीदाबाद के परगने का चौधरी बना दिया। कुल लगान में से


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एक आना फी रुपये के हिसाब से कटौती का हक़ भी उसे दे दिया। यह घटना 1710 ई० की है। गोपालसिंह सेना की भर्ती और धन संग्रह भी शीघ्रतापूर्वक करने लगा। किन्तु उसका इरादा पूरा होने से पहले ही उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् उसका बेटा चरनदास रियासत का मालिक हुआ। चरनदास भी महत्त्वाकांक्षी था। उसने बादशाही शासन को कमजोर देखकर मालगुजारी देना बन्द कर दिया। शाही सेना उसके विरुद्ध भेजी गई।

चरनदास की शक्ति शाही सेना से कम थी, इसलिए उसको शाही सेना ने गिरफ्तार कर लिया। चरनदास के पुत्र बलराम ने जब देखा कि युद्ध द्वारा अपने पिता को छुड़ा लेना कठिन है तो उसने एक चाल चली। वह यह कि मालगुजारी का रुपया देने का वायदा करके अपने बाप चरनदास को मुग़ल सैनिकों के पहरे में बल्लभगढ़ बुला लिया। रुपयों की जो थैलियां थीं, उनमे दो-चार में तो रुपये भरे, बाकी सब में पैसे भर दिए। चरनदास छोड़ दिया गया और मुग़ल सैनिक थैलियां लेकर प्रस्थान कर गये। पिता और पुत्र दोनों बल्लभगढ़ को छोड़ करके भरतपुर के महाराजा सूरजमल की शरण में चले गए। महाराजा सूरजमल ने बल्लभगढ़ पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में हाकिम मुर्तिजा़ खां मारा गया। महाराजा सूरजमल ने विजय करके यह परगना बल्लभगढ़ बलराम को सौंप दिया। यह घटना सन् 1747 ई० की है। उस समय देहली का सम्राट् अहमदशाह था। उसके वजीर सफदरजंग ने सूरजमल व बलराम को परगना छोड़ देने को कहा परन्तु वे न माने। सूरजमल ने वजीर की चुनौती स्वीकार कर ली। जनवरी सन् 1748 ई० में वजीर अपनी मुग़ल सेना लेकर देहली से चल पड़ा। वह थोड़ी दूर गया ही था कि उसको सूचना मिली कि अवध सूबे में रुहेलों ने विद्रोह कर दिया है। वह सूरजमल व बलराम से टक्कर लेने से पहले लौट गया। वह रोहेलखण्ड पहुंचा। उसने उन अफ़गानों से युद्ध किया और उपद्रव को शान्त करने के पश्चात् अपने नाइब नवलराम को वहां का अधिकारी छोड़ दिया।

वजीर स्वयं सेना लेकर सन् 1750 ई० में जाटों के साथ युद्ध करने को चल दिया। परन्तु इस समय सहमदखां बंगाश द्वारा नवलराम के हराये और मारे जाने के समाचार ने उसे सूरजमल के साथ सन्धि करने को बाध्य कर दिया। मराठा वकील के बीच में पड़ने से सन्धि हुई। बलराम, मराठा मन्त्री के साथ वजीर सफदरजंग के सामने गया, जिसने बलराम को क्षमा प्रदान कर उसकी गैर कानूनी रीति से कब्जा की हुई भूमि आदि को उसी के अधिकार में बने रहने की आज्ञा दे दी। बलराम ने बल्लभगढ़ में एक सुदृढ़ क़िला बनाकर अपने राज्य की शक्ति को बढ़ाया। उसी के नाम से यह बल्लभगढ़ प्रसिद्ध हुआ।

बलराम को सन् 1753 ई० की 29 नवम्बर को आकवितमहमूद ने इसलिए मरवा डाला कि बलराम ने उसके बाप मुर्तिजा खां को कत्ल किया था।

बलराम के मारे जाने के बाद में महाराजा सूरजमल ने उनके लड़के बिशनसिंह को क़िलेदार और किशनसिंह को नाजिम बना दिया। वे सन् 1774 तक बल्लभगढ़ के कर्त्ता-धर्ता रहे। उनके बाद हीरासिंह बल्लभगढ़ का मालिक हुआ। बल्लभगढ़ के राजाओं का खिताब राजा का था।

राजा हीरासिंह के पश्चात् और राजा नाहरसिंह से पहले कौन-कौन बल्लभगढ़ के जाट राजे हुए उनका नाम हमको मालूम नहीं हो सका है। राजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ नरेश का इतिहास


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(देखो सप्तम अध्याय, सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में जाटों का योगदान, प्रकरण)।

पहले इन जाटों का, जो भटिण्डा के क्षेत्र में आबाद थे, शिविगोत्र था। यह शिविगोत्र चन्द्रवंश में वैदिककालीन जाट गोत्र है। जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं कि इस वंश के एक सरदार गोपालसिंह, जो कि तिब्बत गांव (जो अब तिरपत) का रहने वाला था, ने अपने वंशजों के साथ आकर बल्लभगढ़ राज्य की स्थापना की और शिवि गोत्र के स्थान पर अपने को तिब्बत (तिरपत) गांव के नाम से तेवतिया प्रसिद्ध कर दिया। उसके अन्य वंशधर जिनौली, नंगला, तिरसण, करिज, हाजीपुर, देलाको, छपरौली, अछगौदा, नंगलाभुक्कु, अटाली आदि गांवों में आबाद हुए जो इसी तेवतिया गोत्र के जाट हैं। सन् 1857 ई० के विद्रोह में अंग्रेजों ने तेवतिया जाटों के बल्लभगढ़ राज्य को समाप्त कर दिया किन्तु इसके बाद अंग्रेजी शासनकाल में तेवतिया जाटों की भटौना नाम की एक नई रियासत का विकास हुआ जो कि जिला बुलन्दशहर में है। इस भटौना रियासत का आदि पुरुषा बहारिया नामक जाट सरदार था, जो बल्लभगढ़ राज्य को सुदृढ़ करने वाले बलरामसिंह का भाई था। उसके तीन पुत्रों ने बुलन्दशहर जिले के उपजाऊ भाग गुलावटी के पास भटौना नामक स्थान पर अधिकार स्थिर किया। यहां से तेवतिया जाटों ने सन्तति वृद्धि की और कृषि की विशाल आय से बहुत गांव, भूमि मोल लेकर बसाए जैसे - अस्ता, छपरावत, खदैड़ा, देवली, नरावठी, नगौरा, शेख, बटाल, कयामपुर, भरथल, झण्डामसरखपुर, रामगढ़ी, महमूदपुर, मिसौली, गोठनी आदि। मेरठ में जानी खुर्द, चित्तौड़ा, भदौला, मुरादाबाद में भवानीपुर नामक गांव तेवतियों के हैं। इस वंश का विशाल वैभव गुड़गांव और बुलन्दशहर जिलों में भी है। सब मिलकर 60-70 गांवों में बसे हुए ये लोग अब तेवतिया के साथ भटौनिया नाम से कहे जाते हैं क्योंकि इनकी अधिक प्रसिद्धी भटौना गांव से निकलने पर हुई। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए जहां इनकी सेवायें अग्रगण्य रहीं, वहां देशभक्ति और स्वाधीनता के लिए किए गए कार्य भी उल्लेखनीय हैं। चौधरी चरणसिंह भूतपूर्व प्रधानमन्त्री और भारत के किसानों के महान् नेता इसी गोत्र के थे।


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नवम अध्याय समाप्त



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