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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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दशम अध्याय: आधुनिक युग में जाटों की महत्ता


Contents

भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में जाटों का योगदान

यह द्वितीय अध्याय में प्रमाणों द्वारा लिख दिया गया है कि जाट आर्य हैं, भारतीय हैं तथा क्षत्रिय वर्ण के हैं। यहां भी कुछ उदाहरण याद दिलाने की आवश्यकता है।

  • 1. “If appearance goes for anything, the Jats could not but be Aryans.” अर्थात् “रंगरूप यदि कुछ समझे जाने वाली कसौटी है तो जाट आर्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकते।” (मि० नेसफील्ड)
  • 2. “The Jas are not only a Hindu caste; of course they are a race” (John Seymore, a well known British author and B.B.C. Commentator writes in his book “Round about India 1953”). अर्थात् जाट केवल एक हिन्दू जाति ही नहीं, वास्तव में एक नस्ल हैं और वह है आर्य।
  • 3. “The argument derived from language is largely in favour of the pure Aryan origin of the Jats.” “जाटों की भाषा के प्रत्येक शब्द का मूल संस्कृत भाषा से मिलता है” - (मि० डब्ल्यू क्रुक)।
  • 4. महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने जाटों को विशुद्ध आर्य माना है। तब ही तो उन्होंने अपने लिखित पुस्तक सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास में जाट जी और पोप जी की घटना का एक उदाहरण देकर जाट जी का बड़ा सम्मान किया है। अन्त में लिखा है कि “जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।”
  • 7. “जाट सच्चे क्षत्रिय हैं” (मि० एफ० एस० यांग)।

जाट स्वतन्त्रता प्रेमी हैं और अन्याय व अत्याचार करने वालों के विरुद्ध अपनी तलवार उठाते हैं। जाटों ने अपने प्राचीन वैदिक आर्यधर्म को किसी प्रकार की कठिन स्थिति में भी नहीं छोड़ा और आज भी उसी धर्म के अनुयायी हैं। ये अपनी स्वतन्त्रता को कायम रखने हेतु अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं और इसके लिए प्राचीनकाल से युद्ध करते आये हैं। इन्होंने कभी भी दूसरों के अधीन रहना पसन्द नहीं किया। ये जाटों की निराली ही विशेषतायें हैं।

जाट सच्चे देशभक्त हैं। इसके बारे में इतिहास साक्षी है कि देश को जब-जब क्षत्री भावना प्रधान वीर युवकों की आवश्यकता हुई तब-तब इस जाट जाति ने अपने देश की रक्षा एवं सेवा में


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-804


अपने नौनिहालों को उत्सर्ग करने के अमर उदाहरण उपस्थित किए। जाट वीर वैदिककाल, रामायणकाल, महाभारतकाल एवं इसके पश्चात् वर्तमानकाल तक अपनी वीरता, धीरता और योग्यता के कारण लोकप्रसिद्ध हुये तथा इनके वैभव और ऐश्वर्य की पवित्र गाथायें आज भी संसार के इतिहास में श्रद्धा और शोभा की चीज समझी जाती है।

प्राचीनकाल से भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमणकारियों से टक्कर लेकर जाटों ने देश की रक्षा की। इस देश पर शासन करने वाले मुसलमान सम्राटों के अत्याचारों के विरुद्ध लोहा लिया तथा कभी उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की। फिर अंग्रेजों ने धीरे-धीरे इस भारतवर्ष पर अपना राज्य स्थापित किया और उन्होंने भारतीयों के साथ अन्याय का व्यवहार तथा अत्याचार किये। इसके फलस्वरूप भारतवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1857 ई० में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम किया जिसमें अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह जफर को अपना नेता बनाया था। अंग्रेजों के विरुद्ध इस प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध में जाटों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। यह भारतीयों का दुर्भाग्य था कि सफलता न मिली और अंग्रेज इस विद्रोह को दबाने में कामयाब हुये। इसके बाद अंग्रेजों ने भारतीयों पर जो अत्याचार तथा अन्याय किये उनको सुनकर कठोर हृदय भी कांपने लगते हैं।

भारतीय उनको भूले नहीं थे तथा अंग्रेजों को भारत से निकालकर अपने देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किसी न किसी रूप में लगे हुए थे। अन्त में भारतीयों को सफलता मिली, अंग्रेजों को यहां से निकाल दिया गया और 15 अगस्त 1947 ई० के दिन भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई।

अब देखना यह है कि यह इतनी बड़ी सफलता कैसे हुई, इसके क्या कारण थे, देशवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध किस तरह से क्रांति एवं युद्ध किये तथा बलिदान दिए। देश की इस स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जाटवीरों ने कैसे और क्या योगदान दिया। इन सब बातों का केवल संक्षिप्त वर्णन किया जाता है।

इस स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तीन मोर्चों पर युद्ध लड़ा जो अपने अलग-अलग ढंग के थे। इन सब के कारण ही अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा और भारत को आजादी मिली। वे तीन मोर्चे निम्नलिखित थे -

  1. भारत राष्ट्रीय कांग्रेस जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक युद्ध लड़ा। यह युद्ध देश के भीतर अहिंसक आन्दोलन, हड़ताल, सत्याग्रह द्वारा किया गया। कुछ वीरों ने शस्त्रों का भी प्रयोग किया। इस अहिंसक क्रांति में देश की सभी जातियों तथा वर्गों ने भाग लिया।
  2. भारतीय सेना (Indian Army) ने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किये जो देश के भीतर और बाहर रहकर भी किए। इस सशस्त्र विद्रोह में भारतवर्ष की सभी जंगजू जातियों ने भाग लिया जिनमें जाटों की संख्या अधिक थी।
  3. आज़ाद हिन्द फौज (I.N.A.) जिसका संगठन देश के बाहर हुआ जिसमें भारतीय वे सैनिक थे जो अंग्रेजों की ओर से लड़ते-लड़ते शत्रु ने बन्दी बना लिए थे। इस आजाद हिन्द फौज के संचालक जनरल नेता जी सुभाषचन्द्र बोस थे जो अपनी सेना को साथ लेकर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए भारत के पूर्वी प्रान्तों तक पहुंच गए थे। इस सेना में जाट सैनिकों की संख्या आधी से भी अधिक थी।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-805


भारतवासियों में धार्मिक आन्दोलनों द्वारा जागृति

सन् 1885 ई० में कांग्रेस के जन्म से पूर्व भारतवासियों का कोई राजनैतिक जीवन नहीं था। राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म देने की प्रबल इच्छा अभी तक पैदा नहीं हुई थी। कोई भी व्यक्ति स्वराज्य तथा लोकप्रिय शासन की स्थापना करने का विचार भी नहीं करता था। अंग्रेज सरकार अत्याचार कर रही थी परन्तु उसके विरुद्ध आवाज उठाने की शक्ति किसी में नहीं थी। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा राममोहनराय तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के समाजसुधार कार्यों को और अधिक व्यापक बनाया गया। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लोगों में स्वतन्त्रता, देशप्रेम तथा भारतीय वस्तुओं के प्रति प्रेम का संचार किया। वे ही प्रथम भारतीय थे जिन्होंने यह नारा लगाया कि “भारतवर्ष भारतवासियों के लिए है।” उत्तरी भारत में लोगों के हृदयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने में आर्यसमाज का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह संस्था विदेशी सरकार की आंखों में सदा खटकती रही। स्वामी दयानन्द का लक्ष्य सब भारतवासियों को सत्य वैदिक धर्मी बनाकर तलवार के बल से अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालकर ऐसी दृढ़ स्वतन्त्रता प्राप्त करना था जिससे भारत का चक्रवर्ती राज्य सदा के लिए कायम रहे। यह भारत का दुर्भाग्य था कि वे समय से पहले स्वर्गवासी हो गये। स्वामी दयानन्द जी ने सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में गुप्त रूप से भाग लेकर देशभक्ति का महान् उदाहरण दिया (देखो, सप्तम अध्याय, स्वतन्त्रता संग्राम प्रकरण)।

स्वामी दयानन्द सरस्वती (1825-1883 ई०) ने 10 अप्रैल, 1875 ई० को बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। वे संस्कृत के अद्भुत विद्वान् थे, उनका वेद-शास्त्रों का अध्ययन अद्वितीय था। वे एक महान् देशभक्त और समाजसुधारक थे जो कि भारत को अविलम्ब स्वतन्त्र देखना चाहते थे। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उन्होंने देशवासियों को सबसे पहले ‘स्वराज्य’ का नारा दिया था। उनका कहना था कि “विदेशी राज्य कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह स्वराज्य की बराबरी नहीं कर सकता।”

अपने एक ग्रन्थ आर्याभिविनय में उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि “प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य है कि अपने देश के उत्थान के लिए और स्वराज्य के लिए प्रयत्न करे।”

आर्यसमाज ने 19वीं शताब्दी के अन्त तक पूरे उत्तर भारत में अपना डंका बजा दिया।

परम्परागत हिन्दू दर्शन के विचार-प्रवाह में एक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ और देखते-देखते पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में एक विराट रूप धारण करके यह मान्यता जनजीवन का अंग बन गई। इन प्रान्तों के जाट तो सब के सब आर्यसमाज के अनुयायी बन गए क्योंकि जाट तो हैं ही आर्य, जैसा कि पहले लिख दिया गया है।

उत्तर भारत में आर्यसमाज हिन्दू धर्म के सुधारवादी आन्दोलनों में एक मील पत्थर बना। आर्यसमाज के द्वारा ही जन-जागरण का सूत्रपात हुआ और आगे चलकर आर्यसमाज के आन्दोलन ने आगामी स्वाधीनता संघर्ष में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पाठक समझ गए होंगे कि इन स्वाधीनता-संघर्षों में जाटों का बड़ा योगदान रहा।

आर्यसमाज के नेताओं ने अनेक स्थानों पर गुरुकुल और पाठशालायें खोलीं। इन शिक्षण


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संस्थाओं ने भारतीय शिक्षा पद्धति को लोकप्रिय बनाया और नई पीढ़ी को स्वाधीनता संग्राम में संघर्षरत होने के लिए तैयार किया। इन गुरुकुलों और पाठशालाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को राष्ट्र-प्रेम और स्वदेशी भावना के वातावरण में शिक्षा दी जाती थी। इस तरह इन शिक्षण-संस्थाओं ने कितने ही देशभक्तों को अपने यहां से तैयार करके समाज-सेवा के लिए भेजा। इन शिक्षण-संस्थाओं का एक महत्त्वपूर्ण योगदान यह भी रहा कि अंग्रेजों द्वारा निर्धारित अंग्रेजीप्रधान शिक्षा-पद्धति के मुकाबले में इन्होंने विशुद्ध भारतीय शिक्षा-पद्धति को लोकप्रिय बनाए रखा। यही कारण था कि मिशन-स्कूलों द्वारा मसीही अभियान का प्रभाव यहां बहुत कम पड़ा। देखते-देखते देश में अनेक गुरुकुलों की स्थापना हुई जिनके द्वारा देश में शिक्षा और जन-चेतना की लहर फैली।

हरयाणा प्रान्त में गुरुकुलों की सूची निम्न प्रकार से है -

  1. जिला रोहतक - 1. गुरुकुल झज्जर 2. गुरुकुल सिंहपुरा 3. गुरुकुल लड़रावण 4. गुरुकुल ऋतस्थली-माण्डौठी 5. गुरुकुल सिद्दीपुर लोवा।
  2. जिला सोनीपत - 1. गुरुकुल भैंसवाल 2. गुरुकुल मटिण्डू 3. कन्या गुरुकुल खानपुर 4. गुरुकुल सांदल कलां
  3. जिला करनाल - 1. गुरुकुल घरौंडा 2. गुरुकुल डिकाडला 3. कन्या गुरुकुल मोर माजरा 4. कन्या गुरुकुल पाढ़ा 5. कन्या गुरुकुल बला
  4. जिला हिसार - 1. गुरुकुल आर्यनगर (कुरड़ी) 2. गुरुकुल धीरणवास 3. गुरुकुल कुम्भा खेड़ा
  5. जिला गुड़गांव - 1. गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ 2. गुरुकुल गदपुरी 3. गुरुकुल सुठाना।
  6. जिला जींद - 1. गुरुकुल कालवा 2. गुरुकुल गुलकनी बलिदान स्मारक 3. कन्या गुरुकुल खरल
  7. जिला कुरुक्षेत्र - 1. गुरुकुल कुरुक्षेत्र।
  8. देहली - 1. गुरुकुल टटेसर जोन्ती 2. कन्या गुरुकुल नरेला 3. श्रीमद् दयानन्द वेदविद्यालय, गौतम नगर, नई दिल्ली।

इनके अतिरिक्त दूसरे प्रान्तों में भी अनेक गुरुकुलों की स्थापना की गई। जिनके उत्तरप्रदेश में गुरुकुल कांगड़ी बड़ा प्रसिद्ध है।

इन गुरुकुलों एवं पाठशालाओं में जाट विद्यार्थियों की संख्या लगभग 90 प्रतिशत रही है और आज भी यही है। सो, साफ है कि इन जाट युवकों ने स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भाग लिया और देशभक्ति का प्रमाण दिया।

आर्यसमाज के जाट धार्मिक नेताओं में स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, महात्मा भक्त फूलसिंह जी, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी, आचार्य भगवानदेव (स्वामी ओमानन्द जी) अति प्रसिद्ध हुए हैं।


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इन नेताओं ने उत्तरी भारत में प्रचार करके वैदिक धर्म फैलाया तथा लोगों में देशभक्ति एवं स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना पैदा की। इनके अतिरिक्त जाटवंशज आर्य भजनोपदेशकों ने जिनमें कविसम्राट् चौ० ईश्वरसिंह गहलावत, इनके शिष्य चौ० नौनन्दसिंह, कुंवर जौहरीसिंह व चौ० सूरतसिंह और इनके अतिरिक्त चौ० तेजसिंह तथा चौ० पृथ्वीसिंह बेधड़क ने भजनों द्वारा जनता में वैदिक धर्म फैलाया तथा स्वतन्त्रता के लिए जागृत किया*। इस तरह से जाटों ने हर पहलू से देशभक्ति तथा सेवा की है। इनके अतिरिक्त पंडित बस्तीराम जी जो स्वामी दयानन्द जी के शिष्य एवं भक्त थे, ने अपने भजनोपदेशों द्वारा हरयाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश की जनता में आर्यसमाज को लोकप्रिय बनाया और राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न की। आर्यसमाजी भजनोपदेशकों में पंडित बस्तीराम जी सबसे पहले तथा लोकप्रिय व्यक्ति थे। इस विषय में उनका महान् योगदान था।

महर्षि दयानन्द सरस्वती के अतिरिक्त, दक्षिण भारत में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 1886 ई० में मद्रास के निकट आडियार नामक स्थान पर हुई। शीघ्र ही श्रीमती ऐनीबीसेण्ट (एक आयरिश महिला) के भारत आने पर इस सोसायटी ने अधिक उन्नति की। इस सोसयटी ने राष्ट्रीय भावना को बल प्रदान करने में भारी योगदान दिया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) और उनके प्रमुख शिष्य स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने अपनी प्राचीन परम्पराओं के गौरव तथा अभिमान को जागृत करने के लिए काफी प्रयास किया और राष्ट्रीय चेतना जगाने में सफलता प्राप्त की। उन्हें भारत में राष्ट्रीय चेतना का स्तम्भ माना जाता है। इस प्रकार धार्मिक सुधारकों का कार्य तथा उनके द्वारा उत्पन्न की गई धार्मिक चेतना भारतीय राष्ट्रीय विकास में सहायक रही है। जब भारतीयों को अपनी सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ, तो उनमें यह भाव उत्पन्न हो गए कि “वे पराधीन क्यों?” इसी से धीरे-धीरे राजनैतिक जागृति उत्पन्न हुई और स्वतन्त्रता संग्राम को जन्म मिला।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के 28 वर्ष पश्चात् ब्रिटिश प्रशासन में सचिव के उच्च पद पर काम करने वाले मि० ह्यूम ने लार्ड डफरिन की सम्मति से दिसम्बर 1885 ई० में बम्बई के ‘गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज’ में केवल 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’ की स्थापना की थी। इस कांग्रेस के पहले स्थापना अधिवेशन के प्रधान श्री डब्ल्यू० सी० बैनर्जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था “कांग्रेस सरकार की वफादार है और चाहती है कि सरकार जनता को प्रशासनिक व्यवस्था में उसका हिस्सा दे।” स्पष्ट है कि कांग्रेस की स्थापना उस समय स्वराज्य के ध्येय की पूर्ति के लिए नहीं हुई थी। केवल इसका लक्ष्य था सरकार और जनता के बीच में एक आत्म-भाव पैदा करना और जनता को प्रशासकीय ढाचे में उसका स्थान दिलवाना।

कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन 1886 ई० में कलकत्ता में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में हुआ जिसमें 434 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। तीसरे मद्रास अधिवेशन में 607 प्रतिनिधियों


नोट- चौ० ईश्वरसिंह के शिष्यों में से एक चौ० रतनसिंह लौरा आर्य भजनोपदेशक आज भी उनके सिद्धान्त अनुसार आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।


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ने भाग लिया। सर सैय्यद अहमद खान के कांग्रेस विरोधी प्रचार के बावजूद मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या भी बढ़ती चली गई। दूसरे और तीसरे अधिवेशन में उनकी संख्या क्रमशः 33 और 81 थी। छठे अधिवेशन में तो 702 प्रतिनिधियों में से 156 मुसलमान थे।

कांग्रेस के जन्म के आरम्भिक काल में ब्रिटिश सरकार की सहानुभूति भी इस संस्था से बनी रही थी। सरकारी कर्मचारियों को भी अधिवेशनों में भाग लेने की अनुमति थी। यहां तक कि कलकत्ता अधिवेशन के प्रतिनिधियों के लिए लार्ड डफरिन ने स्वागत समारोह का आयोजन करके उन्हें सम्मान दिया था। परन्तु 1888 के बाद सरकारी रुख एकदम बदला। क्योंकि यहां तक पहुंचते-पहुंचते कांग्रेस ने स्वशासन की मांग पर जोर देना आरम्भ कर दिया था।

कांग्रेस को बिल्कुल एक नये रूप में ले जाने का मुख्य श्रेय दादाभाई नौरोजी को जाता है। नौरोजी ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य थे। इन्होंने इंग्लैंड में रहकर अनुभव किया था कि ब्रिटिश शासन का भारतीय जनता पर जो बड़ा अंकुश है, वह पूर्ण रूप से अनुचित है। सन् 1906 ई० में कलकत्ता कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर दादाभाई नौरोजी ने ‘स्वराज्य’ का नारा दिया और देशवासियों की आकांक्षाओं और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता रहा।

दादाभाई नौरोजी, बदरुद्दीन तैय्यबजी, फिरोजशाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, रमेशचन्द्र दत्त, गोपालकृष्ण गोखले, बालगंगाधर तिलक तथा आनन्दमोहन बोस इस समय कांग्रेस के कुछ महान् नेताओं में से थे। सन् 1885-1905 में कांग्रेस ने समूचे देश में राष्ट्रीय चेतना को उभारा और एकता की भावना को प्रबल बनाया। भारतीयों में आधुनिक विचार, प्रजातन्त्र व राष्ट्रवाद का प्रसार किया। अंग्रेजी शासन के भयानक परिणामों की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया। 20 वीं शताब्दी के आरम्भ में स्वराज्य अथवा स्वशासन की मांग प्रबल हुई।

उग्रवादी राष्ट्रीय भावना के सर्वश्रेष्ठ नेता बालगंगाधर तिलक थे जो ‘लोकमान्य’ कहलाते थे। उन्होंने महाराष्ट्र में ‘मराठा’ तथा ‘केसरी’ पत्रों द्वारा अपने विचार व्यक्त करने आरम्भ किए। उन्होंने जनता को साहसी, आत्मविश्वासी तथा निःस्वार्थी बनने की प्रेरणा दी। तिलक ने कहा - “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लूंगा।” इसी प्रकार विपिनचन्द्रपाल, अरविन्द घोष, लाला लाजपतराय आदि भी उग्रवादी राष्ट्रवाद के अन्य प्रसिद्ध नेता थे। इनका यह दृढ़ विश्वास था कि भारतवासियों को अपने देश के कल्याण के लिए संघर्ष एवं बलिदान की आवश्यकता है। केवल भाषणों एवं प्रस्तावों से कुछ प्राप्त न होगा। स्वराज्य इनके सम्मुख एकमात्र लक्ष्य था। ये लोग सरकार के पास प्रतिवर्ष विनीत निवेदनपत्र भेजने की खिल्ली उड़ाते क्योंकि ये निवेदनपत्र सरकार द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे।

बंगाल विभाजन - 20वीं शताब्दी के आरम्भ में उग्रवादी राष्ट्रवाद का जन्म हो चुका था। 1905 में बंगाल विभाजन ने इसे और भी अधिक तीव्रता और शक्ति प्रदान की। जुलाई 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल को दो प्रान्तों - पूर्वी बंगाल तथा आसाम और बंगाल में विभक्त किया। पूर्वी बंगाल में मुसलमानों की संख्या अधिक थी। इण्डियन नेशनल कांग्रेस और बंगाल के नेताओं ने इस विभाजन का कड़ा विरोध किया। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के नेतृत्व में आन्दोलन चलाया गया जिसमें स्कूलों और कालिजों के विद्यार्थियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। जनता ने अंग्रेजी माल न खरीदने


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की प्रतिज्ञा की। राष्ट्रीय तथा देशभक्तिपूर्ण गीत और कविताएं गुंजित होने लगीं। अनेक मुसलमान नेताओं ने भी इस स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया। परन्तु शेष मुसलमानों ने इस आन्दोलन का खुलकर विरोध किया तथा बंगाल विभाजन का समर्थन किया। ढाका का नवाब इन मुसलमानों का प्रमुख नेता था। उसने विभाजन का स्वागत किया क्योंकि पूर्वी बंगाल तथा आसाम एक मुस्लिम बहुमतीय प्रान्त थे। यह आन्दोलन बम्बई, मद्रास और उत्तरी भारत के अनेक भागों में भी फैल गया। सरकार ने कठोरतापूर्वक इस आन्दोलन को दबा दिया।

दिसम्बर 1907 को बंगाल के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की रेलगाड़ी को बम से उड़ा देने का प्रयत्न किया गया। शीघ्र ही आतंकवादी देश के अन्य भागों में अपना कार्य कर रहे थे। श्याम जी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, हरदयाल और जाट महाराजा महेन्द्रप्रतापसिंह आदि देशभक्त क्रान्तिकारी नेता विदेशों में इस कार्य में उत्साहपूर्वक संलग्न थे।

1905 ई० में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन वाराणसी में गोपालकृष्ण गोखले की अध्यक्षता में हुआ। वहां पर उग्रवादी नेताओं ने कांग्रेस की नरम नीति का विरोध किया। उग्रवादी नेता थे - बालगंगाधर तिलक, विपिनचन्द्रपाल तथा लाला लाजपतराय, जो प्रमुख थे।

1906 ई० में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ। दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वराज्य अथवा स्वशासन प्राप्ति भारतीयों का लक्ष्य घोषित किया।

1907 ई० में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के गरम दल और नरम दल का खुल्लम-खुल्ला झगड़ा हुआ। पुलिस ने हस्तक्षेप किया और सूरत अधिवेशन को समाप्त कर दिया गया।

अखिल भारतीय मुस्लिम-लीग - इसकी स्थापना 1906 ई० में हुई। इसके प्रमुख नेता थे - आगा खां, ढाका नवाब और नवाब मोहसिन-उल-मुल्क। मुस्लिम लीग इस बात पर बल देती थी कि हिन्दुओं और मुसलमानों के राजनीतिक उद्देश्य भिन्न हैं। यह कांग्रेस की प्रत्येक राष्ट्रीय तथा प्रजातांत्रिक मांग का कड़ा विरोध करती थी। अंग्रेजों की नीति थी कि फूट डालो और राज्य करो, इसलिए सरकार ने मुसलमानों का पक्ष लिया। कुछ मुसलमानों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया। इनमें मौलाना अब्दुल कलाम आजाद प्रमुख नेता थे।

प्रथम विश्वयुद्ध और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन

1914 ई० में इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, रूस और जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, तथा तुर्की के बीच युद्ध छिड़ गया। भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति तथा स्वामिभक्ति की भावना प्रकट की। उनको यह आशा थी कि युद्ध के बाद विदेशी सरकार उनकी मांगों को कृतज्ञता के साथ स्वीकार करेगी। इस युद्ध के लिए भारतीयों ने अंग्रेजों को असंख्य जवान लड़ने के लिए तथा भारी धनराशि देकर सहायता की थी। पाठकों की जानकारी के लिए केवल हरयाणा प्रान्त से सैनिकों की भर्ती एवं धनराशि का योगदान निम्न प्रकार से है -


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4 अगस्त 1914 से 30 नवम्बर 1918 तक जिलेवार जो भर्ती हुए -


1. जिला हिसार 15461
2. जिला रोहतक 22144
3. जिला गुड़गांव 18867
4. जिला करनाल 6553
5. जिला अम्बाला 8341
6. देशी राज्य 8566
कुल जोड़ 79932
नोट - इन सैनिकों में लगभग 80 प्रतिशत जाटों का अनुमान लगाया गया है जिनकी संख्या 64,000 होती है।

इसी तरह से हरयाणा के लोगों ने दिल खोलकर आर्थिक सहायता दी। इस प्रान्त से दान दी गई कुल धनराशि 38,95,900 रुपये थी जिनमें चौ० छाजूराम (अलखपुरा) ने 1,40,000 रुपये और चौ० शेरसिंह (हांसी) ने 1,35,000 दान दिये। हर प्रकार की सहायता देने वाले हरयाणवी प्रमुख नेता थे - रोहतक के चौ० लालचन्द, चौ० छोटूराम, पं० प्रभुदयाल; गुड़गांव के राव बलवीर सिंह; हिसार के चौ० लाजपतराय, सेठ सुखलाल, चौ० बंसगोपाल तथा पंडित जानकीप्रसाद।

सन् 1916 में ‘होम रूल लीग’ की स्थापना हुई। इसके प्रमुख नेता लोकमान्य तिलक और श्रीमती एनी बीसेन्ट थे। उन्होंने होम रूल अथवा स्वशासन की मांग की। फलतः राष्ट्रीय आन्दोलन अधिक तीव्र हो गया। अमेरिका में भारतीय क्रान्तिकारियों ने ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की। इसके प्रमुख नेता लाला हरदयाल तथा सोहनसिंह भकना थे। इसकी शाखाएं संसार के अनेक देशों जापान, चीन, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैण्ड आदि में स्थापित हुईं। गदर पार्टी के नेता अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक क्रान्तिकारी संघर्ष के पक्ष में थे। युद्ध के छिड़ने के तुरन्त बाद उन्होंने भारत में युद्ध-शस्त्र भेजने का निर्णय किया। परन्तु अंग्रेजी सरकार की सतर्कता के कारण ये योजनाएं सफल न हुईं। रासबिहारी बोस तथा राजा महेन्द्रप्रताप अन्य क्रान्तिकारी नेता थे जो अंग्रेजों के विरुद्ध भारत से बाहर क्रान्तिकारी संघर्ष में संलग्न थे।

सन् 1916 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लखनऊ में हुआ जहां कांग्रेस के दोनों नरम व गरम दलों में एकता स्थापित हो गई। लोकमान्य तिलक तथा अन्य उग्रवादी नेताओं ने कांग्रेस में पुनः प्रवेश किया। 1907 के बाद यह कांग्रेस का पहला संयुक्त तथा सफल अधिवेशन था। लखनऊ में ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं में समझौता हो गया जो ‘लखनऊ पैक्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है। जुलाई 1918 में मान्टेगो-चेम्सफोर्ड सुधारों की घोषणा की गई। परन्तु युद्ध के समाप्त होने के बाद अंग्रेजों ने भारत को धन्यवाद के अलावा कुछ भी नहीं दिया। अब राष्ट्रीय आन्दोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक नई दिशा की ओर चला।

सन् 1919 में ‘रौलेट एक्ट’ पास किया गया जिसके द्वारा सरकार किसी भी व्यक्ति को बन्दी बना सकती थी। नेताओं पर भाषण देने, प्रचार करने तथा उत्तेजनापूर्ण लेख लिखने पर रोक लगा दी गई। सुधार तथा स्वशासन के स्थान पर भारतीयों को मिला यह कठोर और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को कुचलने वाला कानून, ऐसे तनावपूर्ण समय में महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आन्दोलन की बागडोर सम्भाली। देश के इतिहास में ‘गांधी युग’ का आरम्भ यहीं से होता है।


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गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के आधार पर आन्दोलन चलाए। उनका सर्वप्रथम आन्दोलन 1917 से बिहार के चम्पारन जिले में नील की कृषि करने वाली पीडि़त किसानों की सहायता करने के उद्देश्य से आरम्भ हुआ। सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सरकार को किसानों की दशा में सुधार करना पड़ा। रौलट एक्ट के विरोध में 6 अप्रैल, 1919 को महात्मा गांधी ने समस्त देश में एक भारी हडताल करने का आह्वान किया। देश में राजनैतिक उत्साह और जोश भरा हुआ था।

जलियांवाला बाग का हत्याकांड - 13 April 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर में बड़ी भारी सभा हुई। उस समय पंजाब के गवर्नर सर माइकेल ओडायर थे। उन्होंने अमृतसर शहर जनरल डायर के हवाले कर दिया। जनरल डायर ने इस सभा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। हजारों लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए। इस सभा में गांधी जी व डा० सत्यपाल की रिहाई की मांग हो रही थी।

इसमें रौलेट एक्ट का भी विरोध किया जा रहा था। जनरल ई० एच० डायर ने सभा के 20,000 लोगों को तितर-बितर होने के लिए कहा। आदेश के दो मिनट बाद (जब तक लोग निकलना आरम्भ भी न कर पाए) गोली चलाने का आदेश दे दिया। जनरल डायर के 50 अंग्रेज तथा 25 गोरखा व 25 बलोची सैनिकों ने 1650 गोलियां जनता की भीड़ पर चलाईं। बाग से बाहर निकलने का केवल एक ही रास्ता था, उसी पर मशीनगन से फायर खुलवा दिया। इन गोलियों से 400 भारतीय नागरिक मारे गये और 2000 घायल हो गए। समस्त पंजाब में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया हजारों लोगों पर अभियोग चलाये गये। जनता पर असहनीय अत्याचार ढाये गये। अमृतसर में दिन भर लोगों को तपती धूप में खड़ा रखा जाता था। यहां की एक गली में प्रत्येक आने-जाने वाले को पेट के बल रेंग कर पार जाना पड़ता था। लोगों के नंगे शरीर पर कोड़ों की बौछार की जाती थी।

इस जलियांवाला बाग हत्याकांड तथा अन्य अत्याचारों के कारण देश में रोष की लहर दौड़ गई। इससे भारतीयों का हृदय कांप गया। इस अत्याचार के विरुद्ध अपना रोष प्रकट करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘नाइट’ (Knight) या ‘सर’ की उपाधि का परित्याग कर दिया। इस हत्याकांड से गांधीजी को बड़ा भारी दुःख हुआ। उन्होंने सरकार के विरोध के लिए असहयोग आन्दोलन आवश्यक समझा। यहां से स्वतन्त्रता की मांग को एक नया रूप दिया गया।

खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन (1919-1922 ई०)

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के हार जाने के पश्चात् उसके साथ अंग्रेजों ने अच्छा व्यवहार नहीं किया। उसके प्रदेशों को छीन लिया गया। तुर्की का सुल्तान खलीफा इस्लाम का धार्मिक नेता होने के नाते सभी मुसलमानों के लिए श्रद्धा का पात्र था। अतः भारत के मुसलमान खलीफ़ा के इस अपमान को सहन न कर सके और उन्होंने अंग्रेज सरकार को सहयोग न देने का निर्णय किया। कांग्रेस नेताओं ने, विशेषकर महात्मा गांधी ने, खिलाफ़त आन्दोलन का स्वागत किया। अगस्त 1920 में खिलाफ़त आन्दोलन का आरम्भ हुआ। 4 सितंबर 1920 ई० में कलकत्ता में कांग्रेस के एक विशेष अधिवेशन में महात्मा गांधी ने असहयोग की योजना का समर्थन किया। इस अधिवेशन के अध्यक्ष


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लाला लाजपत राय थे। गांधी जी ने एक ऐतिहासिक प्रस्ताव के माध्यम से पूर्णतया अहिंसावादी मांग पर चलते हुए निम्नलिखित ढंग से सरकार से असहयोग करने की बात कही -

  1. सरकार द्वारा दी गई सब उपाधियां तथा अवैतनिक पद छोड़ दिये जायें तथा नगरपालिकाओं अदि के मनोनीत सदस्य इस्तीफा दे दें।
  2. सरकार द्वारा बुलाए दरबारों तथा अन्य सरकारी और अर्धसरकारी उत्सवों आदि में भाग न लिया जाए।
  3. सरकार द्वारा चलाए जाने वाले या सहायता प्राप्त करने वाले स्कूलों तथा कालिजों से धीरे-धीरे विद्यार्थियों को निकालकर राष्ट्रीय स्कूलों तथा कालिजों में डाला जाए।
  4. वकीलों तथा मुवक्किलों को सरकारी न्यायालयों का धीरे-धीरे बहिष्कार कर देना चाहिए तथा आपसी झगड़ों का निपटारा पंचायतों द्वारा कर लेना चाहिए।
  5. नई कौंसिलों के लिए होने वाले चुनावों में कोई उम्मीदवार खड़ा न हो। यदि कोई सदस्य मना करने पर चुनाव लड़े तो उसे वोट न दिया जाये।
  6. सरकारी पदों पर लगे भारतीयों को त्यागपत्र दे देना चाहिए। सैनिकों तथा पुलिस कर्मचरियों को अपने शस्त्र फेंकर घर चला आना चाहिये।
  7. पेंशन पाने वालों को अपने पैन्शन बुक फेंक देनी चाहियें तथा पैन्शन लेनी बन्द कर दी जायें।
  8. किसानों को भूमि कर देना बन्द कर देना चाहिए तथा दुकानदारों एवं साहूकारों को हर प्रकार का टैक्स (कर) देना बन्द कर देना चाहिए।
  9. विदेशों में जाकर सेवा करना अथवा नौकरी करने से जवाब दे देना चाहिए।
  10. विदेशी माल का बहिष्कार कर देना चाहिये। दुकानदारों को चाहिए कि अपना विदेशी माल, कपड़ा तथा अन्य वस्तुओं को धीरे-धीरे बेचकर फिर दूसरा विदेशी सामान न मंगवायें।
  11. सबको भारतीय खद्दर का प्रयोग करना चाहिए।

गांधी जी को मोतीलाल नेहरू और अली बन्धुओं के समर्थन के कारण यह असहयोग प्रस्ताव 884 मतों से पास हो गया। इस मतदान में कुछ लोगों ने भाग नहीं लिया।

इसके पास होते ही लोगों ने इसे अपना लिया और सारा देश असहयोग आंदोलन की लहर में बह गया। देशभक्ति और राष्ट्रीयता की भावना जोरों पर थी। हिन्दू और मुसलमान कन्धे से कन्धा मिलाकर विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। 1921-22 ई० में हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल और कालिजों को छोड़ दिया। लोगों ने सरकारी नौकरियां त्याग दीं। विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया जाने लगा। खादी का प्रचार हुआ और यह स्वतन्त्रता का प्रतीक बना। इतना होते हुए भी यह आन्दोलन असफल रहा। 5 फरवरी, 1922 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के कस्बे चोरा-चोरी में कुछ लोगों ने उपद्रव किए। उन्होंने पुलिस थाने पर हमला करके 22 पुलिस सिपाहियों की हत्या कर दी। महात्मा गांधी ने इस हिंसक कांड को देखकर इस असहयोग आन्दोलन को स्थगित


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कर दिया। 10 मार्च, 1922 ई० को महात्मा गांधी जी को पकड़ लिया गया और सरकार के विरुद्ध विद्रोह की भावना फैलाने के अभियोग में 6 वर्ष के कारावास का दण्ड दे दिया गया। कुछ समय बाद खिलाफत आन्दोलन भी कमजोर पड़ गया। 1922 ई० में मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की के सुल्तान को गद्दी से उतारकर एक आधुनिक राज्य की स्थापना की। उसने तुर्की का आधुनिकीकरण किया। 1924 ई० में खिलाफ़त आन्दोलन समाप्त किया गया। खिलाफ़त आन्दोलन द्वारा एक धार्मिक समस्या को राजनीतिक प्रश्न का रूप प्रदान किया गया। मुसलमानों में साम्प्रदायिक चेतना और अधिक तीव्र हो गई। फलतः पृथकता को बल मिला। असहयोग आन्दोलन असफल रहा परन्तु राष्ट्रीय संघर्ष अधिक व्यापक और प्रबल हुआ।

हरयाणा प्रान्त में कांग्रेस तथा असहयोग आन्दोलन का प्रभाव

हरयाणा प्रान्त के जाटों ने आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनाया जिससे उनके हृदयों में देशभक्ति की भावना भर गई और वे सार्वजनिक कार्यों के लिए प्रेरित हुए। रोहतक में आर्यसमाज के प्रमुख जाटनेता चौ० पीरूसिंह, भक्त फूलसिंह, चौ० मातूराम, चौ० रणपतसिंह, सांघी ग्राम के एक डाक्टर रामजीलाल, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी, आचार्य भगवानदेव आदि थे। पंजाब एवं हरयाणा के प्रमुख आर्यसमाजी नेता जाटवंशज स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा लाला लाजपतराय थे। चौ० छोटूराम भी आर्यसमाजी थे जो स्वामी दयानन्द को अपना धार्मिक गुरु मानते थे। आर्यसमाजी तो अंग्रेजों को देश से निकालकर स्वराज्य चाहते ही थे। अतः इन्होंने कांग्रेस को अपनाया और हजारों लोगों ने राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लिया। पंजाब एवं हरयाणा की जनता को देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा सिन्धु गोत्र के जाट सरदार अजीतसिंह ने अपने गीत पगड़ी सम्भाल जट्टा द्वारा दी।

सन् 1907 में सरदार अजीतसिंह और लाला लाजपतराय को सरकार ने गिरफ्तार किया और देश से बाहर मांडले जेल भेज दिया। इस घटना से हरयाणा की जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति भारी रोष फैल गया। उनकी गिरफ्तारी ने अनेक आर्यसमाजी उपदेशकों और भजनीकों ने गांव-गांव जाकर अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध प्रचार किए और इस तरह इस घटना के पश्चात् राष्ट्रीय भावनाओं का प्रसार तेजी से हुआ।

महात्मा गांधीजी ने 30 मार्च, 1919 को रोलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इसके लिए हरयाणा भर में 30 मार्च से 19 अप्रैल, 1919 तक व्यापक आन्दोलन चलता रहा। आन्दोलन के दौरान जिले तथा तहसील कांग्रेस के केन्द्रों में सभाओं का आयोजन किया गया। इन सभाओं में 2,000 से लेकर 10,000 तक की उपस्थिति हुआ करती थी।

गांधी जी की गिरफ्तारी - उन्हीं दिनों गांधीजी की गिरफ्तारी ने आन्दोलन को और भी अधिक भड़काया। 6 अप्रैल को, आर्यसमाज के सर्वश्रेष्ठ नेता स्वामी श्रद्धानन्द जी तथा अन्य नेताओं के निमन्त्रण पर गांधी जी बम्बई से दिल्ली तथा हरयाणा के दौरे पर रवाना हुए। सरकार ने गांधी जी को 10 अप्रैल को पलवल के स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया। यह गांधी जी की भारत में प्रथम गिरफ्तारी थी।

इससे सारे देश में रोष की लहर फैल गई। जगह-जगह सार्वजनिक सभायें हुईं जहां सरकार


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के इस कदम की भर्त्सना की गई। रोहतक की एक ऐसी ही सभा में चौ० छोटूराम, चौ० नवलसिंह, लाला शामलाल, लालचन्द जैन, मियां मुश्ताक हुसैन आदि ने सरकार के विरोध में खुले विद्रोह तक का आह्वान किया। सरकार ने इस ‘बागी कदम’ उठाने पर इन सब वकीलों के लाइसैंस जब्त कर लिए। परन्तु वकीलों ने मुकदमे चलाए तो सरकार को हार का मुँह देखना पड़ा। ऐसी स्थिति 13 अप्रैल तक चलती रही। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में खूनी हत्याकांड हुआ। उसके बाद वातावरण में अत्यधिक तनाव आ गया। 14 अप्रैल को बहादुरगढ़ के रेल कर्मचारी, मजदूर तथा सामान्य जनता ने रेलवे स्टेशन पर आक्रमण कर दिया। अगले दिन रोहतक और समर गोपालपुर की बीच टेलीग्राफ के तार काट दिए गए। उसी दिन गोहाना के पोस्ट आफिस पर आक्रमण हुआ और टेलीग्राफ के तार काट दिए गए। कैथल में उत्तेजित भीड़ ने रेलवे स्टेशन पर आक्रमण किया और भारी क्षति पहुंचाई। 19 अप्रैल को रात के समय क्रांतिकारियों ने अम्बाला छावनी में 1/34 सिख पाइनियर रेजिमेंट के स्टोर में आग लगा दी। इससे समस्त छावनी में आतंक छा गया। 20 अप्रैल को रोहतक में जाट हाई स्कूल के समीप नहर विभाग के टेलीफोन के तार काट दिए गए। उन दिनों लगभग हर जगह छोटी-मोटी तोड़-फोड़ की गई।

आन्दोलन की इन हिंसात्मक गतिविधियों से चिन्तित होकर पंजाब सरकार ने हरयाणा के करनाल और गुड़गांव जिलों को पुलिस एक्ट की धारा 15 के अधीन्कर दिया। रोहतक, हिसार पहले से ही ‘सेडिशियंस मीटिंग एक्ट 1907’ के अधीन थे। अतः इस प्रकार समस्त हरयाणा पुलिस के नियन्त्रण में आ गया। पुलिस के आतंक के बावजूद भी आन्दोलन चलता रहा। 22 अप्रैल को अम्बाला में 1/34 सिख पाइनियर के डिपो का दफ्तर आतंकवादियों ने जला दिया। जिला रोहतक में भी कई स्थानों पर हिंसात्मक घटनायें घटीं। इस प्रकार की बढ़ती हुई अशान्ति को खत्म करने के लिए सरकार ने धरपकड़ शुरु की। 28 अप्रैल को रोहतक जिले के प्रसिद्ध आर्यसमाजी और कांग्रेसी नेता चौ० पीरूसिंह दहिया को ‘डिफेंस ऑफ इण्डिया रूल्स’ के अधीन गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार ने इनके विषय में कहा कि “यह व्यक्ति आतंकवादी है। यदि इसे पकड़ा न गया तो जाटों को भड़काकर बगावत पर आमादा करेगा।”

रोहतक जिला कांग्रेस का संगठन सन् 1917 में हो चुका था। रोहतक जिला कांग्रेस कमेटी के प्रधान चौ० छोटूराम और मन्त्री बाबू शामलाल थे। हरयाणा के प्रभावशाली तथा योग्य जाट नेता चौ० छोटूराम तथा चौ० पीरूसिंह थे जिनके नेतृत्व में ये उपर्युक्त राष्ट्रीय आन्दोलन तथा हिंसक घटनायें हुईं। सो, स्पष्ट है कि इनमें जाटों ने अधिक भाग लिया।

हरयाणा में असहयोग आन्दोलन

8 अक्तूबर 1920 को महात्मा गांधी, मुहम्मद अली, शौकत अली के साथ रोहतक पधारे। गांधी जी का ऐतिहासिक स्वागत हरयाणावासियों ने किया। इस विराट् जनसभा में बोलते हुए गांधी जी ने असहयोग का ऐतिहासिक नारा बुलन्द किया। उन्होंने कहा “स्वराज्य की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि आप बलिदान देने को तैयार नहीं होते। जब तक कि आप अपने क्रोध को काबू में नहीं रखते और संगठित नहीं होते। जेल ही आजादी की प्रतीक है।” उनके बाद श्री मुहम्मद अली, शौकत अली तथा ‘खिलाफत’ के सम्पादक श्री कुतुबुद्दीन ने भी भाषण दिए। मौलाना शौकत अली ने कहा था - “गुलाम रहने से अच्छा है मर जाना।”


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अक्तूबर 1920 में ही पानीपत शहर में प्रथम राजनीतिक कांफ्रेंस हुई जिसके अध्यक्ष लाला लाजपतराय थे और स्वागत समिति के प्रधान मौलाना लकाउल्ला खां थे। हजारों लोगों ने असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया। 22 अक्तूबर, 1920 को भिवानी में कांफ्रेंस हुई जिसमें महात्मा गांधी, मौलाना आजाद, मौलाना मोहम्मद अली, शौकत अली, डा० अंसारी, लाला दुलीचन्द आदि नेताओं ने भाग लिया। यहां हजारों लोगों की सभा में गांधी जी ने असहयोग का कार्यक्रम बताया।

गांधी जी ने पहली बार यहां पर ब्रिटिश सरकार को ‘शैतानी सरकार’ बताया। लोगों में अभूतपूर्व जागृति आई। 6 नवम्बर, 1920 को रोहतक में भी एक कांफ्रेंस हुई जिसके अध्यक्ष लाहौर के प्रसिद्ध नेता चौ० रामभजदत्त थे। लाला श्यामलाल स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। जाटनेता चौ० छोटूराम, चौ० बलदेवसिंह, चौधरी मातूराम और चौ० देवीसिंह आदि इस कांफ्रेंस में उपस्थित थे। जब असहयोग के प्रस्ताव के अनुमोदन की बात चली तो स्थानीय कांग्रेस नेता दो दलों में बंट गए। किसान नेता चौधरी छोटूराम असहयोग के विरोध में थे। वे स्वदेशी अपनाने और पंचायतों की स्थापना तथा विदेशी सामान के बहिष्कार आदि के पक्ष में तो थे, परन्तु भूमि कर न देने, पैन्शन न लेने, सैनिक तथा पुलिस को शस्त्र फैंक देने तथा सरकारी पदों पर लगे लोगों को त्यागपत्र देने के विरुद्ध थे। उनका कहना था कि यदि किसान कर नहीं देगा तो सरकार उसकी भूमि छीन लेगी और कृषक खाएगा क्या? उसे शीघ्र ही सरकार के सामने झुकना पड़ेगा। इनकम टैक्स कानून के अनुसार तो यह था कि कोई जितनी रकम इनकम टैक्स की रोकेगा उतनी ही कीमत के सामान की कुर्की होगी। किन्तु उस समय के राजस्व कानून के मुताबिक कृषि लगान का कोई भी अंश रोकने पर सारी जमीन जब्त होती थी। सेना तथा पुलिस में किसानों के बेटे हैं, यदि वे नौकरी छोड़कर घर आ गये तो उनका कैसे गुजारा होगा। पैन्शन पाने वाले भी अधिकतर किसान ही हैं। यदि वे पैन्शन लेना बन्द कर दें तो कहां जाकर अपने बच्चों का पेट भरेंगे। चौ० छोटूराम ने प्रस्ताव की इन धाराओं को हटाने के लिए कहा और फिर असहयोग की बातों को मान लेने में अपनी स्वीकृति दी। परन्तु उनकी बात पर किसी कांग्रेस नेता ने ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने कहा कि फिर ऐसे काम क्यों किए जाएं जिनमें असफलता ही हाथ लगने की संभावना हो। चौ० छोटूराम की राजनीति पूरी तरह व्यावहारिक एवं किसान हितों की थी। वे समझते थे कि प्रस्ताव की इन धाराओं पर अमल करने से सबसे पहले और एकदम से किसानों का शोषण हो जाएगा। अतः वे इस असहयोग संघर्ष के सिद्धान्तों पर सहमत नहीं हुए और उन्होंने कांग्रेस पार्टी से अपना नाता तोड़ लेने की घोषणा कर दी।

चौ० छोटूराम के भाषण को सुनकर भीड़ में से लोगों ने ‘शर्म-शर्म’ की आवाज़ कस दी और भीड़ में से लोगों ने चौ० छोटूराम के विरुद्ध नारे लगाने भी शुरु कर दिये।

यहां तक भी हुआ कि कुछ लोग चौ० छोटूराम पर आक्रमण करने हेतु उनकी ओर लपके। इस पर जनता में झगड़ा और तू-तू मैं-मैं शुरु हो गयी। इस अवसर पर चौ० छोटूराम के समर्थक युवक किसानों ने चारों ओर से आकर, नारे लगाने वाली भीड़ पर लाठी मारनी शुरु कर दीं। उनकी मार से क्षणभर में मैदान साफ हो गया। सरकारी पुलिस दूर खड़ी देखती रही। 7 नवम्बर 1920 को


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यानी दूसरे दिन फिर सभा हुई जिसमें चौ० छोटूराम और उनके साथी सम्मिलित नहीं हुए। असहयोग प्रस्ताव का समर्थन हो गया, किन्तु कांग्रेस के हाथ से एक महान् नेता खो गया। यदि कांग्रेसी नेता थोड़ी सी समझदारी और संयम से चौ० छोटूराम की बात मान लेते तो फिर हरयाणा का इतिहास ही दूसरा होता। चौ० छोटूराम के विचारों के अनुसार यह असहयोग आन्दोलन असफल रहा जैसा कि पीछे लिख दिया गया है। चौ० छोटूराम सन् 1916 से 1920 तक कांग्रेस पार्टी में रहे। कांग्रेस को छोड़ने के पश्चात् उन्होंने पंजाब के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मियां फजले हुसैन से मिलकर नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी (संयुक्त राष्ट्रवादी दल) यानी जमींदार लीग बना ली। इस नई पार्टी का उद्देश्य था गांवों के किसानों और पिछड़े हुए गरीब लोगों का उद्धार करना। कांग्रेस अब देहात में पूरी तरह नहीं पहुंच पाई थी। यूनियनिस्ट पार्टी ने वह किया जो कांग्रेस न कर पाई। देहात को उन्होंने अपने साथ लगा लिया।

कांग्रेस छोड़कर ‘जमींदार लीग’ बनाने पर कांग्रेसी एवं ईर्ष्यालु लोगों ने छोटूराम को अंग्रेजों का दास, पिट्ठू, टोडी तथा देशद्रोही, गद्दार एवं विश्वासघाती बताया और आज भी कुछ ईर्ष्यालु एवं अज्ञानी लोगों की बुद्धि से कुछ ऐसे विचार दूर नहीं हुए हैं। पहले इसी के विषय में जानकारी लिखने की आवश्यकता है।

सर छोटूराम तथा उनकी जमींदार लीग ने अंग्रेज सरकार से मिलकर पंजाब के किसानों तथा गरीबों की हर पहलू में उद्धार एवं उन्नति की। जहां तक किसानों के हित का प्रश्न हुआ तो चौ० छोटूराम ने अवश्य ही सरकार से मिलकर सहायता ली। किन्तु जहां पर अंग्रेजों ने देश, किसानों एवं चौ० छोटूराम के विरुद्ध अपने हितों की बात करनी चाही, वहीं पर चौधरी साहब ने निडरता से उनकी बात को ठुकरा दिया और डटकर टक्कर ली। वे सच्चे देशभक्त, अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के पक्ष में तथा किसानों के सच्चे हितकारी तथा मसीहा थे। इनके प्रमाण अगले पृष्ठों पर तथा सर छोटूराम की जीवनी में विस्तार से लिखे जायेंगे। यहां पर केवल कुछ उदाहरण संक्षेप में लिखे जाते हैं जो निम्न प्रकार से हैं।

चौ० छोटूराम एक सच्चे देशभक्त तथा अंग्रेज सरकार के विरोधी

1. 
रोहतक के डी० सी० मि० वोल्सटर (1919-20 ई०) ने चौ० छोटूराम की देशभक्ति तथा सरकार के खिलाफ विद्रोह फैलाने के आरोप में उन पर भारतीय दंड विधान की धारा 124-ए के अधीन मुकदमा चलाने की आज्ञा ले ली और देश निकाला की सजा देना निश्चित कर लिया। इस पर अनेक नेताओं तथा भारी संख्या में किसानों ने डी० सी० का जोरदार विरोध किया। गवर्नर ने मुकदमा चलाने के आर्डर रद्द कर दिये। इस प्रकार एक स्वाभिमानी भारतीय के नाते चौ० छोटूराम ने एक घमण्डी अंग्रेज को नीचा दिखाया क्योंकि न्याय और सत्य चौधरी साहब के पक्ष में थे। बात इतनी थी कि चौ० छोटूराम ने उस डी० सी० वोल्सटर की जी-हजूरी और चापलूसी कभी नहीं की। (दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जीवन-चरित्र, पृ० 17-18, लेखक प्रो० हरिसिंह, खेड़ीजट)।
2. 
वास्तव में चौ० छोटूराम गद्दार नहीं थे। यदि छोटूराम ही गद्दार थे, तो हरयाणा और पंजाब में शायद ही कोई देशभक्त रहा हो। वस्तुतः उनका कांग्रेस से हट जाना या विरोध करना न तो देश के साथ गद्दारी थी और न ही द्रोह। क्या सुभाषचन्द्र बोस तथा अनेक सम्माननीय

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राष्ट्रवादियों ने ऐसा नहीं किया था? कोई मनुष्य कांग्रेस या किसी अन्य राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाने से ही देशभक्त या देशसेवक नहीं बन जाता। प्रत्येक पार्टी में देशद्रोही भी होते हैं। यह भावना तो उसके मन के विचारों से होती है जो उसके रक्त में विद्यमान है। किसी भी राजनैतिक पार्टी में रहकर या दूर रहकर भी अनेक मनुष्य देशभक्त हुए हैं और देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे गए हैं। सर छोटूराम ने भारत की स्वतन्त्रता के प्रश्न पर कभी भी अंग्रेजों से समझौता नहीं किया। अपने देश की परतन्त्रता उन्हें कांटे की तरह चुभती थी और उसे समाप्त करना - पर संवैधानिक तरीके से, उनके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य था। उनके अपने शब्दों में - “भारत की राजनीतिक परतन्त्रता और विदेशी शासन मुझे ऐसे ही कचोटते हैं जैसे किसी भी अन्य देशभक्त भारतीय को अथवा किसी भी सामान्य मानव को।” बिगड़ती हुई भारत की आर्थिक दशा पर आंसू बहाते हुए चौ० छोटूराम ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बड़ी तीखी बातें कही थीं। “साफ जाहिर है कि गोरे बनियों की संगीनों की छाया में हमारे ऊपर काले बनिए शासन कर रहे हैं। देश का दोहन (चूसना) आरम्भ से ही गोरे बनियों ने इन काले बनियों के माध्यम से किया है। दोनों प्रकार के शोषकों से देश को जब तक मुक्त नहीं कराया जाएगा तब तक कोई भी सुखी नहीं रह सकता।” इसके अतिरिक्त किसानों की दुर्दशा के लिए सरकार को दोषी ठहराते हुए चौ० छोटूराम ने अंग्रेजों को खूब लताड़ दी है। क्या कोई उन दिनों पंजाबहरयाणा में अंग्रेज सरकार और उसकी नौकरशाही को ऐसे धमकाने का साहस रखता था? (रहबरे आजम स्मारिका 1985-86, सर छोटूराम मिशन, खेड़ीजट, लेख डा० के० सी० यादव)।
3. 
चौ० छोटूराम ‘खुदी के पुजारी’ थे, वे कभी भी किसी अंग्रेज से नहीं दबे। गवर्नर मालकम हेली के निर्णय एवं प्रार्थना पर भी 1924 ई० में चौ० छोटूराम ने अंग्रेज केसन1 को पंजाब विधान परिषद् (कौंसिल) का अध्यक्ष नहीं बनने दिया था। इस प्रकार 2 जून, 1942 में लार्ड वेवल वायसराय ने कृषिमन्त्रियों की फूड कांफ्रेंस बुलाई और गेहूं की कीमत 6 रु० प्रति मन प्रस्तावित की। चौ० छोटूराम ने 10 रु० प्रति मन का प्रस्ताव रखा। लार्ड वेवल ने स्पष्ट कहा कि गेहूं की कीमत 6 रु० प्रति मन ही रहेगी। इस पर चौधरी छोटूराम ने चुनौती दी, “खरीदना हो तो 10 रु० प्रति मन खरीदें, अन्यथा मैं गेहूं को खेतों में ही जलवा दूंगा।” लार्ड वेवल बड़बड़ाते चले गए और चौ० छोटूराम अपनी मरोड़ के साथ पंजाब में लौटे। वायसराय ने पंजाब के गवर्नर पंजाब के मुख्यमंत्री से पूछा तो दोनों ने उत्तर दिया - “सर छोटूराम एक जिम्मेदार मन्त्री हैं। वे किसानों के हितों के सामने किसी की भी परवाह नहीं करते हैं। पंजाब के जमींदार उनके पीछे हैं। उनके बिना पंजाब सरकार चल नहीं सकती। आप गेहूं का भाव 10 रु० प्रति मन ही कर दें क्योंकि इन ही जाट किसानों के बेटे युद्ध में लड़ रहे हैं। चौ० छोटूराम को नाराज करने में बड़ा खतरा है।” भारत सरकार ने पंजाब से 11 रु० प्रति मन गेहूं खरीदा। इस घटना से चौ० सर छोटूराम की धाक केन्द्र

1. अंग्रेज एच० ए० केसन आई० सी० एस० 1919-21 तक अम्बाला डिवीजन का कमिश्नर रहा। इसकी बजाए सर छोटूराम ने पंजाब कौंसिल का अध्यक्ष जमींदार लीग के अबुलकादिर को बनाया और इसी पार्टी का उपाध्यक्ष सरदार महेन्द्रसिंह को बनाया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-818


तक बैठ गई*। ऐसे नेता को टोडी या अंग्रेजों का पिट्ठू कहना, उनको अंग्रेजी राज्य का सहयोगी बताना एक बेबुनियाद, असत्य तथा प्रमाणशून्य बात है। (रहबरे आजम स्मारिका 1985-86, पृ० 37; लेखक मूलचन्द जैन, भूतपूर्व सदस्य लोकसभा)।
4. 
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जाट रेजिमेन्ट सेन्टर बरेली के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल पोटर साहब जाट सैनिकों से ईर्ष्या एवं द्वेष रखते थे। अतः उन्होंने जाट सैनिकों को निकालकर उनके स्थान पर मुसलमान भर्ती करने की पुरजोर सिफारिश आर्मी हैडक्वाटर तक कर दी। जब यह सूचना सर छोटूराम को मिली तब वे लाहौर से 23 सितम्बर, 1943 ई० को बरेली पधारे। उनके आदेश पर अंग्रेज आफिसरों ने एक दरबार किया जो कि “सर छोटूराम का एक ऐतिहासिक दरबार” कहलाता है। इस दरबार में लगभग 25,000 सैनिक उपस्थित थे, जिनमें ब्रिटिश एवं इण्डियन ऑफिसर भी शामिल थे। इस अवसर पर कर्नल पोटर नहीं था क्योंकि वह तो सर छोटूराम से डरकर छुट्टी ले गया था। चौधरी साहब ने सब बातों का सही भेद ले लिया था जिसमें कर्नल पोटर की जाटों के प्रति अन्याय एवं द्रोह की भावना थी। सर छोटूराम ने वहां अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्रिटिश आफिसरों की ओर मुखातिब होकर कहा कि “तुम गोरी छोकरी जाट वीरों को कमाण्ड करने आ गई जबकि तुमको इनके प्राचीन एवं आधुनिक इतिहास तथा इनकी वीरता के कारनामों का पता नहीं है। तुमको जाट भर्ती करने नहीं आते क्योंकि तुमको जाटों की शक्ल, बनावट, डील-डौल, शक्ति तथा निडरता का भेद व पहचान नहीं। यही कारण है कि तुम जाटों की बजाए युद्ध में डरने वाली जातियों1 को भर्ती कर लेते हो, जो समय आने पर डरकर भागते हैं और फिर जाटों को बदनाम करते हो। कहां है वह पोटर, उठकर जाटों की गलती तो बताओ?” मगर पोटर तो वहां आया ही नहीं था। सर छोटूराम ने वहीं पर निडरता से कह दिया था कि जाटों को कोई नहीं निकाल सकता। आज से ही कर्नल पोटर किसी भी जाट पलटन में नहीं होगा। उसी समय एक मेजर को कमांड संभालने का आदेश दे दिया। आते व जाते समय उनके स्वागत के लिए अंग्रेज आफिसर, उनको एक खुली जीप में बैठाकर बरेली छावनी से रेलवे स्टेशन तक, उस जीप को रस्सों द्वारा अपने हाथों से खींचकर ले गये थे। पूरे रास्ते के दोनों ओर, लगभग 2 मील तक, सैनिकों की कतार खड़ी हुई थी जो “सर छोटूराम की जय” के नारे गुंजा रहे थे। बरेली से सर छोटूराम सीधे दिल्ली पहुंचे और लार्ड वेवल को बड़ी निडरता से ये सब बातें बतलाईं और लार्ड वेवल से आदेश दिलवाया कि जाटों को जाट रेजिमेन्ट में रखा जायेगा और कर्नल पोटर उन पर कमांड नहीं करेगा। कर्नल पोटर तो फिर न जाने कहां गया। यह थी सर छोटूराम की जाटों के प्रति सहानुभूति तथा अंग्रेजों के विरुद्ध निडरता और साहस। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सर छोटूराम अंग्रेजों के दास, पिट्ठू तथा सहायक बिल्कुल नहीं थे। वे तो सिद्धान्त के धनी, किसानों, गरीबों और जाट जाति के हितों के रक्षक थे। इनके हितों के विपरीत होने पर बड़े से बड़े अंग्रेज पदाधिकारी से निडरता से टक्कर लेकर अपनी बात मनवा लेते

(*) - यह घटना होने पर कहावत प्रचलित हुई कि “हुक्म जाट का, अंगूठा लाट का।” तात्पर्य है कि चौ० छोटूराम के आदेशों की स्वीकृति एवं पालन अंग्रेज उच्च पदाधिकारियों को भी करना पड़ता था।
1. सर छोटूराम ने उन सैनिकों में से 10 सैनिकों को इशारा कर-करके आगे बुला लिया जिनका आकार जाटों से नहीं मिलता था। सर छोटूराम ने उनसे उनकी जाति पूछी तो पता लगा कि वे दसों युद्ध में डरनेवाली जातियों के थे। इस तरह से आपने अंग्रेज आफिसरों को यह प्रत्यक्ष प्रमाण देकर सबको फटकारा। आपकी तीव्र बुद्धि से सब चकित रह गए।


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थे। (यह घटना उन सैनिकों की जबानी है जो उस दरबार में उपस्थित थे, जिनमें से आज भी कई जीवित हैं)।
4. स्वतन्त्रता के लिए जाट संगठन 
जब महात्मा गांधी के आदेश पर 1942 ई० में “अंग्रेज भारत छोड़ो” आन्दोलन जोरों पर था तब सर छोटूराम ने अपनी स्थिति स्पष्ट और मजबूत करने के लिए 29 नवम्बर, 1942 ई० को दिल्ली के तीस हजारी मैदान में अखिल भारतीय जाट महासभा का विशाल सम्मेलन कराया। भरतपुर नरेश महाराजा विजेन्द्रसिंह जी इसके अध्यक्ष थे, लाहौर के मुस्लिम जाट बैरिस्टर सर हबीबुल्लाह ने मुख्य प्रस्ताव पेश किया और अजमेर के ईसाई जाट श्री श्रीनाथ ने उसका समर्थन किया। प्रस्ताव की मुख्य बातें थीं -
(i) जाट चाहते हैं कि भारत शीघ्र अतिशीघ्र स्वतन्त्र हो। चूंकि स्वतन्त्रता देने के लिए अंग्रेजों के वायदों में भारतीयों का विश्वास नहीं रहा है और अंग्रेजों की Divide and Rule (फूट डालो और राज्य करो) की नीति से फिरकापरस्त तत्त्वों को प्रोत्साहन मिलता है जो जात-पात और मजहबी भावों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काकर अंग्रेजी राज को सत्य सिद्ध करते हैं। इसलिये अमेरिका के प्रेज़ीडेण्ट की मध्यस्थता में स्वतन्त्र भारत के संविधान का निर्माण कार्य शुरु कर दिया जाए ताकि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत तुरन्त आजाद हो सके।
(ii) यह कहना गलत है कि सभी मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ हैं या सभी हिन्दू कांग्रेस के साथ हैं या सभी सिक्ख अकाली दल में हैं। उदाहरणार्थ पंजाब में जमींदार लीग में हिन्दू, सिक्ख एवं मुसलमान सब शामिल हैं और जाट फिरकापरस्ती से दूर हैं। जाट की सबसे बड़ी यही विशेषता है।
(iii) युद्ध के बाद अंग्रेजी साम्राज्य समाप्त हो जाएगा। भारत आज़ाद होगा। इसलिए ब्रिटिश सरकार फिरकापरस्ती को न उभारकर राष्ट्रीय तत्त्वों के हाथों में सत्ता सौंप दे जो आर्थिक और सैकुलर आधार पर भारत की आर्थिक समस्याएं हल करें और सब मज़हबों को समान सम्मान दें।
चौ० सर छोटूराम ने लाखों लोगों की इस सभा में अपने ओजस्वी भाषण में स्पष्ट किया कि जाट फिरकापरस्ती के खिलाफ एक होकर लड़ेंगे और पंजाब तथा देश की अखंडता की रक्षा करेंगे। भारत में मजदूर-किसान राज्य स्थापित करने के लिए काम करेंगे। इस लड़ाई में उनका खून फिजूल नहीं बहेगा। वे कभी भी अंग्रेजों के साथ नहीं थे और अंग्रेज अफसरशाही की दाल नहीं गलने दी। फिरकापरस्तों से टक्कर लेना तो उनका जीवन मिशन रहा है। अन्त में उन्होंने हिन्दू-सिक्ख-मुस्लिम-ईसाई एकता के लिए अपील की और विश्वास व्यक्त किया कि केवल जाट ही ऐसा कर सकते हैं क्योंकि जाट चाहे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई धर्मी हैं सबका खून एक ही है। ये पंजाब में एक हो गये हैं। अन्य मार्शल (लड़ाकू) कौमों राजपूतों, अहीरों, गूजरों और गौड़ ब्राह्मणों से भी अपील की कि वे देश की आजादी और राष्ट्रीय एकता के लिए जाटों का साथ दें। जाट चाहते हैं कि भारत शीघ्र अतिशीघ्र आज़ाद हो। अखिल भारतीय जाट महासभा के इस सम्मेलन में इन प्रस्तावों को सर्वसम्मति से पास कर दिया गया। (दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जीवन-चरित, पृ० 112-113,

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लेखक प्रो० हरिसिंह खेड़ीजट, रोहतक (हरयाणा); (प्रथम विश्व युवा जाट सम्मेलन स्मारिका, पृ० 11, लेखक Z.S. Rana, Haryana Agricultural University, Hissar Haryana)। जाटों तथा चौ० छोटूराम की देशभक्ति का यह कितना उज्जवल एवं स्पष्ट उदाहरण।
6. चौ० छोटूराम ने कहा कि “भारत की स्वतन्त्रता के लिए मैं हाथ में तलवार लेकर लड़ूँगा” 
सन् 1942 में जब ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चल रहा था तब अम्बाला छावनी में ब्रिगेडियर चर्चिल ने अनौपचारिक तौर पर भोजन के समय चौ० छोटूराम से प्रश्न किया, “कांग्रेस तो हमारे खिलाफ लड़ रही है, परन्तु आप हमारा साथ दे रहे हैं, ऐसा क्यों?” चौधरी साहब ने उत्तर दिया, “मैं अपने ढंग से अंग्रेजी राज्य के खिलाफ लड़ रहा हूं। जो भी अधिकार अंग्रेज हमें सौंपते हैं उसे हम मिलकर बरतते हैं और हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई एकता करके किसानों में फिरकापरस्ती के खिलाफ जागृति लाकर आपकी ‘फूट डालो और राज्य करो’ की नीति को विफल करता हूं। मैं गांधी जी की तरह राजनीति में अहिंसा को अपना मत नहीं बनाता। मैं अंग्रेजों की इसलिए मदद कर रहा हूं कि हम हिटलर या जापान को अपना नया मालिक नहीं बनाना चाहते। मुझे विश्वास है कि इस युद्ध के बाद अंग्रेज भारत को आजाद करके चले जायेंगे।” अंग्रेज ब्रिगेडियर ने पूछा, “यदि ऐसा न किया गया तो आप क्या करेंगे?”
चौधरी साहब ने तड़ाक से उत्तर दिया, “उस हालत में मैं वज़ारत से त्यागपत्र देकर तलवार हाथ में लेकर अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध खुल्लमखुल्ला बगावत करूंगा। मैं गांधीजी का चेला नहीं हूं कि गिरफ्तार होकर जेल में जा बैठूं।” ब्रिगेडियर ने उसी रात गवर्नर पंजाब को तार भेजा, उसने प्रधानमंत्री को सब बातें बतलाईं। लाहौर आने पर चौ० छोटूराम ने अपना त्यागपत्र देते हुए कहा, “मैं यह नहीं कर सकता कि अपने जलसों में कहता फिरूं कि हम युद्ध में इसलिए मदद कर रहे हैं कि जीत होने पर अंग्रेज भारत को गुलाम रख सकें। कांग्रेसी मुझे अंग्रेजी राज्य का पिट्ठू सहायक कहते हैं और मुस्लिमलीगी मुसलमानों का शत्रु। यह उनकी अज्ञानता है। मैं यूनियनिस्ट हूं और यूनियनिस्ट (मेल करने वाला) ही रहूंगा।” जब उनका त्यागपत्र मंजूर नहीं किया तब चौधरी साहब ने स्पष्ट कहा, “आगे से मैं अपने भाषणों में खुल्लम-खुल्ला यह कहूंगा कि हम लड़ाई में इसलिए मदद कर रहे हैं कि हिटलर, जापान की हार के बाद भारत आजाद हो और यदि अंग्रेज ने आजादी देने में कोई बहाना किया या आनाकानी की तो भारत हिंसक लड़ाई करेगा। दुनियां की हमदर्दी हमारे साथ होगी। चीन, रूस, अमेरिका हमारी मदद करेंगे।” इसके बाद चौधरी साहब ने ऐसा ही किया जिससे उनका राष्ट्रीय एवं लड़ाकू व्यक्तित्व और भी निखरा व अधिक चमका। दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जीवन-चरित, पृ० 113-114, लेखक प्रो० हरिसिंह खेड़ीजट, रोहतक (हरयाणा)।
इस उदाहरण से पाठक समझ गये होंगे कि सर छोटूराम अंग्रेजों के कितने विरुद्ध थे और वास्तव में भारत की स्वतन्त्रता सच्चे दिल से प्राप्त करना चाहते थे।
7. 
एक बार सर छोटूराम पीरागढ़ी (दिल्ली) में एक विशाल जलसे की अध्यक्षता कर रहे थे। उस जलसे में एक उच्च अधिकारी अंग्रेज अफसर भी था। भजनोपदेशक पृथ्वीसिंह ‘बेधड़क’ ने इस जलसे में अपने एक भजन में अंग्रेज सरकार की खुलकर आलोचना की और दोष बताए। उस अंग्रेज अफसर ने पृथ्वीसिंह ‘बेधड़क’ को गाना बन्द करने का आदेश दिया। सर चौधरी छोटूराम ने उस

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अंग्रेज अफसर को डांटते हुए कहा कि “तू मेरी उपस्थिति में इसके गाने को बन्द करने की हिम्मत कैसे कर बैठा?” इस पर पृथ्वीसिंह ने अपना वही गाना फिर चालू कर दिया और सारी बातें कहकर समाप्त किया।
यह थी “सर छोटूराम की निडरता एवं देशभक्ति।” (समाचार-पत्र हिन्दुस्तान 10-3-1982)।
8. चौधरी सर छोटूराम की स्वतन्त्रता प्राप्ति की गुप्त योजना
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब भारत की पूर्वी सेनाओं पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अपनी आजाद हिन्द फौज सहित पहुंचने की चर्चा फली तो सर छोटूराम ने जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी को लाहौर बुलाकर कहा कि अब देश में सत्ता परिवर्तन की सम्भावना है, अतः आप स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी (चौधरी साहब के गुरु) के साथ हरयाणा जायें और वहां की जनता को अपने ढंग की नई परिस्थितियों के लिए तैयार करें। आप आर्य समाज के प्रचार के काम से हरयाणा का दौरा करो और वहां विश्वसनीय लोगों को इस बात के लिए तैयार करो कि हमारी सेनायें अवसर आने पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी भूमिका पूरी करने को तैयार रहें। साथ ही जो सैनिक छुट्टी आते रहते हैं, उनको यह समझाओ कि “देश को स्वतन्त्र कराना है और यह कार्य सेना द्वारा ही सम्भव है। अब वह समय आ गया है। नेताजी की आजाद हिन्द फौज (जिसमें भारतीय सैनिक ही हैं) ने देश को आजाद कराने के लिए भारत की पूर्वी सीमाओं पर आक्रमण शुरु कर दिया है। इसलिए वीरो, तुम इस मौके को मत चूकना। उनका स्वागत करना और उनके साथ मिलकर अंग्रेजों को यहां से निकालो और देश को आजाद कराओ।”
चौधरी सर छोटूराम के आदेश अनुसार आर्यसमाज के चोटी के विद्वान् श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, आदरणीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज, आचार्य भगवानदेव जी (स्वामी ओमानन्द सरस्वती) और महाशय प्यारेलाल जी (भजनोपदेशक) (चारों जाटवंशज) ने एक मास तक हरयाणा का भ्रमण किया और दिन-रात कड़ी मेहनत करके गुप्त रूप से स्वतन्त्र रूप से हजारों युवक भरती कर लिए और बड़ी संख्या में अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर लिए। इन विद्वानों द्वारा सर छोटूराम जी का संदेश पाकर जो सैनिक छुट्टी काटकर अपनी यूनिटों में पहुंचे तो उन्होंने वहां अपने साथियों को देश की स्वतन्त्रता के लिए भी तैयार किया। ऐसा करने वालों में एक देशभक्त सैनिक योगिराज सदाराम जी ब्रह्मचारी भी थे।
इस योजना का पता लगने पर अंग्रेज सरकार ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को पकड़कर लाहौर किले में बन्द कर दिया जो बाद में सर छोटूराम ने वहां से छुड़वा दिया। श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी भूमिगत हो गये और अपना कार्य करते रहे। परन्तु अस्त्र-शस्त्र भण्डार अंग्रेजों के हाथ न आने दिए। (जगदेवसिंह सिद्धान्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 37, 71-72 लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री; एक देशभक्त योगिराज सदाराम जी ब्रह्मचारी, लोहार हेड़ी, रोहतक (हरयाणा), पृ० 6-8)।
9. चौ० छोटूराम अखण्ड भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति चाहते थे
कांग्रेसी नेता स्वराज्य पाने के लिए इतने उतावले हो रहे थे कि मुसलमानों की अधिक से अधिक मांगों को मानकर भी वे स्वराज्य पा लेना चाहते थे। महात्मा गांधी ने तो यहां तक कह दिया था कि मि० जिन्ना यदि चाहें तो उन्हें भारत का प्रथम उच्च शासक बनाया जा सकता है

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और गांधी जी के प्रिय साथी श्री राजगोपालाचार्य ने स्पष्ट कहा कि जब मुसलमान संयुक्त शासन नहीं चाहते तो उन्हें क्यों न पाकिस्तान दे दिया जाए। इस पर के० एम० मुन्शी को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने कांग्रेस छोड़ दिया और ‘अखण्ड भारत संघ’ का निर्माण किया।
चौ० छोटूराम के दिल में भारत माता की अखण्डता के लिए कितना प्रेम था वह इससे प्रकट हो जाता है कि उन्होंने तुरन्त श्री के० एम० मुन्शी को तार दिया कि मैं भारत को एक राष्ट्र बनाए रखने में आपके साथ हूं और इसके तुरन्त बाद उन्होंने रोहतक जिले की एक सार्वजनिक सभा में अपने भाषण में कहा कि “पाकिस्तान हमारी लाशों पर ही बन सकेगा।”
25 अगस्त 1944 को सर छोटूराम ने महात्मा गांधी जी को पाकिस्तान बनने के विरुद्ध एक ऐतिहासिक पत्र लिखा जिसमें पाकिस्तान न बनने के ठोस प्रमाण दिए। मगर यह देश का दुर्भाग्य था कि कांग्रेस नेताओं ने उनकी बात न मानी।
उनका कहना था कि “मज़हब बदल सकता है मगर खून का नाता एक ही रहता है।” अर्थात् जाट-हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान एवं ईसाई धर्मी हो परन्तु सबके खून का नाता तो एक ही है। इस पर बहादुरगढ़ से लेकर सिंध नदी तक पूरे अखण्ड पंजाब तथा रियासतों के सब धर्मों के जाट एक होकर चौ० सर छोटूराम की जमींदार पार्टी के झण्डे के नीचे (जिसका निशान हल व तलवार का था) आ गए। उनके साथ ही देहात के अन्य जातियों के किसान तथा मजदूर भी जमींदार पार्टी के साथ मिल गए। पाकिस्तान तो पंजाब में बनना था जहां पर मुसलमानों की अधिक संख्या थी। जब वे सब सर छोटूराम को अपना नेता मान चुके थे तो पाकिस्तान कैसे बन सकता था।
10. मार्च 28, सन् 1944 में मि० जिन्ना को कान पकड़कर पंजाब से बाहर निकालना
सन् 1944 में भारत की राजनीति में मुस्लिम लीग का प्रभाव बहुत प्रबल हो गया था। मुसलमान जाति उसके झण्डे के नीचे संगठित होकर जिन्ना को अपना नेता मान चुकी थी, परन्तु जिन्ना इस बात से बहुत चिन्तित थे कि मुसलमानों के गढ़ पंजाब में चौ० छोटूराम के कारण उनकी दाल नहीं गल पा रही है। अतः वहां की यूनियनिस्ट सरकार को किसी भी प्रकार तोड़ने के लिए वे जी-तोड़ कौशिश कर रहे थे। जिन्ना लाहौर पहुंचे और पंजाब के प्रधानमन्त्री श्री खिजरहयात खां पर दबाव डाला परन्तु चौधरी छोटूराम के निर्देश पर श्री खिज़रहयात खां ने मि० जिन्ना को 24 घण्टे के भीतर पंजाब से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। वह निराश होकर आदेश अनुसार पंजाब से बाहर निकल गया। उन दिनों जब राष्ट्र के कांग्रेसी चोटी के नेता तथा अन्य सभी नेता जिन्ना के सामने किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर हथियार डाल रहे थे और अंग्रेज शासक जिन्ना की पीठ ठोक रहे थे तो केवल चौ० छोटूराम का ही साहस था कि उसके विरुद्ध ऐसा कठोर पग उठाया। अहंकार की मूर्ति जिन्ना को कितनी खीझ हुई होगी, इसकी कल्पना सहज ही की सकती है।

जिन्ना को पंजाब से बाहर निकाले जाने पर पंजाब के मुसलमानों में कोई रोष पैदा नहीं हुआ और न ही उन्होंने इसका विरोध किया। इसका कारण साफ है कि पंजाब के मुसलमानों के दिल चौ० छोटूराम ने जीत रखे थे जो इनको छोटा राम कहा करते थे। जिन्ना को पंजाब से निकालने के बाद तो मुसलमानों ने चौ० छोटूराम को रहबरे आजम का खिताब दे दिया।

मि० जिन्ना को पंजाब से निकालने पर सर छोटूराम की प्रसिद्धि पूरे भारत में हो गई और


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वे उच्चकोटि के राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी में आ गए। मि० जिन्ना की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई। परन्तु कांग्रेस के नेताओं ने उसे धूल से निकालकर फिर ऊपर चढ़ा दिया। महात्मा गांधी ने उसके पास जाकर उसकी मांगों के विषय में पूछा तथा राजाजी फार्मूले के अनुसार पाकिस्तान उसे बड़े थाल में रखकर भेंट कर दिया। यदि कांग्रेस आजादी लेने में इतनी जल्दी न करती या कुछ दिन के लिए ठहरी रहती और सर छोटूराम की बात को मान लेती तो पाकिस्तान बनने का प्रश्न ही नहीं होता और देश की अखण्डता कायम रहती रहती। पाठक समझ गये होंगे कि सर छोटूराम की कितनी महान् देशभक्ति थी कि वे कभी भी पाकिस्तान नहीं बनने देते जिससे भारत की अखण्डता कायम रहती। पाकिस्तान तो कांग्रेस के नेताओं ने बनवा दिया। बात बिल्कुल स्पष्ट है कि देश के टुकड़े न होने देने में सर चौ० छोटूराम की देशभक्ति कांग्रेस की तुलना में बहुत महान् है।

यह देश का दुर्भाग्य था कि 9 जनवरी 1945 के दिन चौधरी सर छोटूराम का स्वर्गवास हो गया। उस समय के नेताओं व विचारकों का मत था कि “यदि चौधरी छोटूराम जी जीवित रहते तो मि० जिन्ना का षड्यन्त्र पंजाब की राजधानी लाहौर के चौराहे पर ही चकनाचूर हो जाता और देश विभाजन से बच जाता।” (जगदेवसिंह सिद्धान्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 80-81, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री; चौ० छोटूराम जीवन चरित पृ० 336-337 लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री)। आज के आधुनिक युग में दो ही नेता ऐसे हुए हैं जो भारत की अखण्डता को कायम रख सकते थे तथा देश के टुकड़े नहीं होने देते। वे थे 1. सर चौ० छोटूराम 2. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस। सर छोटूराम का इस विषय में वर्णन कर दिया गया है। नेताजी का वर्णन इस प्रकार से है। सिंगापुर में 4 जुलाई 1943 को नेताजी ने आजाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमाण्डर (अध्यक्ष) पद को सम्भाला। 9 जुलाई 1943 को एक विशाल सभा सिंगापुर के नगर भवन में हुई जिसमें 60,000 सैनिक और नागरिक तथा 25,000 महिलां उपस्थित थीं। उस भाषण में नेताजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में जोरदार शब्दों में कहा - तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, चलो दिल्ली। साथ ही यह भी कहा कि “अभी से तुम हिन्दुस्तानी हो तथा जाति-पाति एवं अपने धर्म को भूल जाओ। केवल हिन्दुस्तानी ही तुम सबका धर्म है।”

नेताजी के भाषण का सब पर एक जादू जैसा असर हो गया। सब धर्मों के सैनिकों का खान पान एक ही साथ हो गया। जय हिन्द का नारा अपनाया। आजाद हिन्द फौज का युद्धघोष (Battle cry) भी ‘जय हिन्द’ हो गया। नेताजी में उन सैनिकों की इतनी श्रद्धा हो गई कि युद्ध में या बीमार होकर मरते समय प्रत्येक सैनिक ने अपने साथियों को यही कहा कि “मेरा जयहिन्द का संदेश नेताजी तक पहुंचा देना।” नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने 4 फरवरी, 1944 को अराकान के मोर्चे पर स्वाधीनता का युद्ध लड़ा और 18 मार्च, 1944 को पहली बार सीमा पार करके भारत भूमि पर कदम रखा। यहां से पीछे हटना पड़ा। अमेरिका ने 6 अगस्त, 1945 को हीरोशीमा पर और 9 अगस्त 1945 को फार्मोसा द्वीप के ताईहोकू स्थान पर वायुयान दुर्घटना में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की मृत्यु हो गई। यदि ये दोनों नेता या दोनों में से एक भी लम्बे समय तक जीवित रहता तो भारत का नक्शा कुछ और ही होता। देश अखंड रहकर आजाद होता और देश के टुकड़े नहीं होते। आज देश के कुछ प्रान्तों में भाषा एवं धर्म के आधार पर, कई तरह के पचड़े खड़े हो


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रहे हैं जिससे देश को बेचैनी है। हमारे नेताओं को बार बार यह कहना पड़ रहा है कि “किसी भी कीमत पर देश के टुकड़े नहीं होने देंगे।” यदि ये दोनों नेता समय से पहले न मरते तो आज देश को यह बेचैनी न होती।

हरयाणा में असहयोग आन्दोलन

हरयाणा में असहयोग आन्दोलन के विषय में आगे लिखते हैं - राष्ट्रीय आन्दोलन में जाट जाति के कई अग्रणी नेता संघर्ष के लिए जनता को तैयार कर रहे थे। इनमें चौ० मातुराम, चौ० देवीसिंह और प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री मास्टर बलदेवसिंह की सेवाएं बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुईं।

इन्हीं दिनों खडवाली निवासी चौ० टेकराम ने भी संघर्ष में कूद पड़ने का निर्णय किया और असहयोग आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण काम किया। इसके फलस्वरूप उन्हें लाहौर के किले में नजरबन्द भी रखा गया। राव मंगलीराम झज्जर क्षेत्र में कार्यरत हुए। रोहतक जिला रोलेट ऐक्ट से लेकर असहयोग तक के समय में पंजाब के 29 जिलों में एक प्रमुख संघर्षस्थल के रूप में उभरकर सामने आया था। ब्रिटिश अधिकारियों की नजर हर समय अमृतसर के साथ रोहतक पर रहती थी। रोहतक से ही गुड़गांव तथा करनाल जिलों में स्वाधीनता आन्दोलन का विस्तार हुआ।

तभी असहयोग कार्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षण संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण का दौर चला। उस समय रोहतक में ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल, दो शिक्षण संस्थाएं जन सहयोग से चल रही थीं। दोनों संस्थाओं की प्रबन्ध समितियों ने सरकार और पंजाब विश्वविद्यालय से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और पंजाब सरकार द्वारा दिए गए मान्यतापत्रों को लौटा दिया। शिक्षण संस्थाओं के राष्ट्रीयकरण के समय मास्टर चौ० बलदेवसिंह ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उन्होंने लाहौर से डी० ए० वी० कालेज से बी० ए० पास करके बी० टी० की डिग्री गवर्नमेंट ट्रेनिंग कालेज, लाहौर से सन् 1913 में प्राप्त की थी। सन् 1913 में ही उन्होंने रोहतक में जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल की स्थापना की थी। उन्होंने दिसम्बर 1920 में इस जाट हाई स्कूल का राष्ट्रीयकरण घोषित कर दिया। चौ० छोटूराम और उनके सहयोगी कांग्रेस से 1920 में अलग हो गये थे। परन्तु चौ० मास्टर बलदेवसिंह ने जो उस समय जाट समुदाय में एक प्रबुद्ध व्यक्ति माने जाते थे, कांग्रेस के कार्यक्रम को अपनाये रखा था। उन्होंने जाट राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और गांधीजी के सिद्धान्तों पर अटल रहे तथा सरकार के विरोधी रहे। असहयोग के आह्वान के फलस्वरूप अम्बाला, भिवानी और रोहतक के अनेक नम्बरदारों और कुछ जैलदारों ने अपने पदों को त्याग दिया। उनमें अधिकतर जाट थे। हरयाणा में उस समय सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें उल्लेखनीय जाट नेताओं के कुछ नाम इस प्रकार हैं - चौ० बलदेवसिंह, चौ० हरफूलसिंह, लडान गांव के चौ० श्रीराम जाखड़ एवं उनका चौदह वर्षीय बेटा, चौ० अखेराम आदि।

ये सब रोहतक जिले के थे। इसी प्रकार हरयाणा के सब जिलों से गिरफ्तारियां हुईं। सबके नाम प्राप्त नहीं हो सके। यह असहयोग संघर्ष पूरे देश में चल रहा था। इतना होते हुए भी यह आन्दोलन असफल रहा। 5 फरवरी,1922 को चोराचारी में हिंसक घटना होने पर गांधीजी ने इस असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर दिया।


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स्वराज्य पार्टी - असहयोग आन्दोलन स्थगित तथा असफल होने के बाद देश में निराशा फैल गई। सरकार के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने के लिए कुछ नेताओं ने, जिनमें मोतीलाल नेहरू तथा चितरंजनदास मुख्य थे, कौंसिलों के लिए चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा। अतः दिसम्बर, 1922 में स्वराज्य पार्टी की स्थापना हुई। 1923 के चुनाव में स्वराज्य पार्टी ने 101 निर्वाचित सीटों में 42 सीटें जीतीं। उनका उद्देश्य कौंसिलों में प्रवेश पाकर अंग्रेजों की पाशविक नीतियों तथा कार्यों का विरोध करना था। परन्तु विदेशी सरकार के अधिकारवादी शासन को परिवर्तित नहीं कर सके। 1925 ई० में चितरंजनदास की मृत्यु के कारण भी इस दल को बहुत हानि पहुंची।

उधर पंजाब में 1923 के चुनाव में चौ० छोटूराम जीतकर मंत्री बने और फजले हुसैन से मिलकर यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदार लीग) की स्थापना की जिसमें शहरी जनता का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। पंजाब में जमींदार पार्टी की सरकार बनी जिसके प्रधानमंत्री सर फजले हुसैन थे तथा सर छोटूराम कृषि मंत्री बने।


सविनय अवज्ञा आन्दोलन - सन् 1927 ई० के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में पुनः नवशक्ति तथा स्फूर्ति का संचार हुआ। देश के नवयुवकों ने कांग्रेस नेता जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में एक बार फिर संघर्ष आरम्भ किया। किसानों और मजदूरों में एक बार फिर जागरण हुआ। गुजरात के कृषकों ने बढ़ाये हुए भूमि-कर का विरोध किया। 1928 में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में प्रसिद्ध बारदौली सत्याग्रह हुआ जहां कृषकों ने भूमिकर देने से इन्कार कर दिया। देश में अनेक स्थानों पर हड़तालें हुईं तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन ने फिर जोर पकड़ा।

साईमन कमीशन - नवम्बर, 1927 में भारत में संवैधानिक सुधारों पर विचार करने के लिए एक कमीशन नियुक्त किया गया। इसके अध्यक्ष सर जॉन साईमन थे। इस कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे। भारतीय इससे क्रुद्ध हुए और उन्होंने अपने आपको अपमानित समझा। इसलिए भारत के लोगों ने इसका बहिष्कार किया। अंग्रेजों के इस कथन से कि भारतीय अपने देश के लिए कोई सर्वसम्मत संविधान तैयार करने के अयोग्य हैं, भारतीयों को बहुत ठेस पहुंची। अतः मोतीलाल नेहरू के सभापतित्व में एक समिति बनाई गई जिसे भारत के लिए संविधान बनाने का कार्य सौंपा गया। इस समिति ने अगस्त 1928 में अपने रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसे ‘नेहरू रिपोर्ट’ कहते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में ‘अधिराज स्थिति’ स्थापित करने, संयुक्त चुनाव प्रणाली, अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए कुछ स्थान सुरक्षित रखने के सुझाव थे। परन्तु मुस्लिम लीग तथा अन्य साम्प्रदायिक दलों ने इस रिपोर्ट को अस्वीकृत कर दिया।

3 फरवरी 1928 में साईमन कमीशन भारत आया। देश में हड़ताल का आयोजन किया गया तथा जगह-जगह ‘साईमन वापस जाओ’ के नारे लगाये गये। लाहौर में लाला लाजपतराय ने साईमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। पुलिस द्वारा 30 अक्तूबर 1928 को लाठियां बरसाई गईं1 जिनकी मार से भयंकर चोटों के कारण 17 नवम्बर 1928 को लालाजी वीरगति को प्राप्त हुए।


1. प्रदर्शनकारी भीड़ को हटाने का दायित्व सहायक पुलिस अधीक्षक साण्डर्स को सौंपा गया था। उसने लाला लाजपतराय तथा भीड़ पर लाठियां मारने का आदेश दे दिया।


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इससे पूरे देश में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध रोष फैल गया और देश के युवकों में अंग्रेजों के विरुद्ध एक ज्वाला भड़क उठी। सरदार भगतसिंह और उसके साथियों ने लालाजी की मृत्यु का बदला लिया और ब्रिटिश सरकार का निडरता से विरोध करके पूरे देश में क्रान्ति की लहर फैला दी।

अब उन देशभक्त वीरों का वर्णन किया जाता है जिन्होंने कांग्रेस पार्टी से अलग रहकर देश की स्वतन्त्रता के लिए बलिदान दिये। जैसे 1. वीर भगतसिंह 2. सरदार रामसिंह 3. सरदार करतार सिंह 4. बाबा बैसाखसिंह 5. श्री हरकिशनसिंह 6. सरदार ऊधमसिंह 7. सरदार अजीत सिंह 8. स० बन्तासिंह 9. स० रंगासिंह 10. स० बीरसिंह 11. मास्टर रामजीलाल आदि।

1. सरदार अजीतसिंह - पंजाब के जालन्धर जिले में खटकरकलां बंगा गांव के सिन्धु जाट सरदार अर्जुनसिंह के पुत्र अजीतसिंह ने भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए बहुत उल्लेखनीय कार्य किए। इन्हीं के भाई स० स्वर्णसिंह लाहौर जेल की कठोर यन्त्रणाओं में शहीद हुए।

सरदार अर्जुनसिंह के तीसरे पुत्र किशनसिंह थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में इन तीनों भाइयों ने पंजाब में गर्म राजनीतिक दल का बीज वपन किया था। इन तीनों भाइयों ने पंजाब प्रान्त में स्वराज्य की ज्वालायें जला दीं। ये ज्वालायें किसान वर्ग तक पहुंचा दीं। पंजाब सरकार ने इनको पकड़ना आवश्यक समझा, इसके पश्चात् इन वीरों का जीवन कभी कारावास में, कभी गुप्तावस्था में व्यतीत होने लगा।

सरदार किशनसिंह के पुत्र वीर भगतसिंह ने भी ‘अमर शहीद’ पद प्राप्त किया। यह बात उल्लेखनीय है कि सिक्खधर्मी होते हुए सरदार अर्जुनसिंह आर्यसमाज के सक्रिय कार्यकर्ता और प्रचारक थे। उनके सब वंशज भी आर्यसमाज के सिद्धान्तों को मानते थे। सरदार अजीतसिंह ने ही पंजाब में सर्वप्रथम वैध आन्दोलनों को राजनैतिक भिखारीपन मानते हुए भी किसानों, जमींदारों को संगठित किया जिसके बदले आपको पंजाब में सर्वप्रथम जेल जाना पड़ा। आप ने पंजाब में ‘पगड़ी सम्भाल ओ जट्टा, पगड़ी सम्भाल’ का नारा दिया। इससे बड़ी भारी जागृति आई जो सरकार की दृष्टि से घोर अपराध थी।

आप ने नए टैक्स और जमींदारी अधिकारों में परिवर्तन करने के सरकारी षड्यन्त्र का घोर विरोध किया। ब्रिटिश सरकार ने सरदार अजीतसिंह तथा लाला लाजपतराय को 1907 ई० में देश निकाला देकर बर्मा की मांडले जेल में नजरबंद कर दिया। इन्होंने ही ‘देशभक्त’ नामक संस्था भी स्थापित की। उसके लिए ‘भारतमाता’ नामक पत्र चलाया, जिसके सम्पादक सूफी अम्बाप्रसाद थे। मांडले से छूटने के बाद सरदार अजीतसिंह और सूफी चुपचाप विदेश चले गए जहां पर आप ईरान, स्पेन, फ्रांस और ब्राजील में घूम-घूमकर भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रवासी भारतीयों को समर्थन देते और दिलाते रहे।

द्वितीय महायुद्ध के दिनों में स० अजीतसिंह इटली1 रेडियो से भारतीयों को अंग्रेज सरकार के


1. सरदार अजीतसिंह ने ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना ‘आजाद हिन्द लश्कर’ नाम से इटली में की। इस दिशा में इटली में ही जाट सिक्ख बाबा लाभसिंह एवं इकबाल शैदाई के प्रयत्न प्रशंसनीय हैं।


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विरुद्ध भड़कीले भाषण ब्राडकास्ट करते थे। विदेशों में स्वाधीनता का संदेश प्रसारित करते हुए स० अजीतसिंह का लाला हरदयाल एम० ए० तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से भी मिलन हुआ।

नेताजी का रोम की सरकार से आपने ही स्वागत कराया परन्तु इटली की हार होने पर आप भी बन्दी बनाए गए। स० अजीतसिंह सन् 1908 में भारत से बाहर विदेशों में गये थे और वहां लगभग 38 वर्ष तक अपने देश की आजादी के लिए घोर कठिनाइयों का सामना कर भारत माता की आजादी के समय 1946 में आप भारत आ गए, परन्तु कुछ दिन बाद 14 अगस्त 1947 के दिन, आपका स्वर्गवास हो गया। आपका जीवन विशुद्ध देशभक्त का रहा, आप अनेक बार जेल गए। भारत के क्रान्ति आन्दोलन में आपने आजीवन सहयोग दिया है। आपका विवाह श्रीमती विद्यापति देवी जी के साथ हुआ। उससे 8 सन्तानें हुईं जिनमें 5 पुत्र एवं 3 पुत्रियां थीं।

2. सरदार भगतसिंह (सन् 1907-1930) - सिन्धु गोत्र के जाट सरदार भगतसिंह का जन्म जि० जालन्धर की नवांशहर तहसील के खटकड़कलां बंगा गांव में 28 सितम्बर 1907 को हुआ था। इसी दिन इनके पिता सरदार किशनसिंह तथा चाचा सरदार स्वर्णसिंह देशभक्ति के आन्दोलन में सजा काटकर घर आए थे और उसी दिन उनके चाचा सरदार अजीतसिंह के निष्कासन की अवधि समाप्त होने की सूचना मिली थी। इसीलिए बालक को निहायत भाग्यशाली माना गया था। बंगा गांव में प्राइमरी पास करके भगतसिंह ने डी० ए० वी० स्कूल लाहौर से मैट्रिक किया और ब्रेडलाहाल के नेशनल कालेज में भर्ती हो गया।

वहां अपनी ही आयु के सुखदेव, भगवतीचरण और यशपाल से इसकी मित्रता हुई और प्रो० भाई परमानन्द एम० ए० का अध्यापन मिला। यहां से 1923 ई० में 16 वर्ष की आयु में जब बी० ए० किया तब तक भगतसिंह की सहानुभूति बब्बर अकाली आन्दोलन से हो गई थी। भगतसिंह के विचार बचपन से ही क्रान्तिकारी थे। एक बार उनके पिताजी के एक मित्र लाला आनन्दकिशोर ने पूछा कि “तुम बेचते क्या हो?” भगतसिंह ने अपनी तोतली भाषा में उत्तर दिया - “मैं बन्दूक बेचता हूं।” इसी तरह उसने अपने पिताजी से कहा कि आप अन्न बो रहे हो, आप तलवार बन्दूक आदि क्यों नहीं बोते हैं? बचपन में ही आप क्रान्ति दल बनाकर अपने साथियों के साथ युद्ध करते थे। जब उनके घरवालों ने उसको विवाह करने को कहा तो वह घर से भागकर कानपुर चला गया। यहां स्व० गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रताप प्रेस में बलवन्त नाम से काम करने लगे। यहीं उनकी बी० के दत्त से मित्रता हुई। वहां से लौटकर लाहौर में नौजवान भारत सभा की स्थापना की। देहली में इसकी केन्द्रीय समिति बनाई गई। 9 अगस्त 1928 को दिल्ली में फिरोजशाह कोटला के खण्डहरों में क्रान्तिकारियों की एक मीटिंग हुई। इसमें भगतसिंह को क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व सौंपा गया। इस दल का नाम “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसियेशन” रखा गया। पार्टी का काम पूरा करने के लिए उसको देश में घूमना था, अतः पार्टी के निर्णय के अनुसार उसने दाढ़ी तथा बाल कटवा दिए। अब वह बम्ब बनाने की कोशिश में थे।

साण्डर्स का वध - इन क्रान्तिकारियों तथा वीर देशभक्तों का लक्ष्य लाला लाजपतराय के हत्यारे एवं हजारों बेगुनाह लोगों को लाठियों से घायल करवाने वाले साण्डर्स को मारने का था। 17 दिसम्बर सन् 1928 को उक्त अंग्रेज अधिकारी मि० साण्डर्स सन्ध्या के लगभग 4 बजे


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ज्योंही अपने दफ्तर से मोटरसाईकिल पर बैठकर चला त्योंही सामने से रिवाल्वर की गोली उसके सीने में आकर लगी। वह घायल होकर नीचे गिर पड़ा। पड़ते ही दो गोली और आकर लगीं। काम समाप्त हो गया। ये तीनों उसे मारकर वापिस आ गए। इन तीनों वीरों के नाम ये थे - श्री वीरवर भगतसिंह, श्री राजगुरु, श्री चन्द्रशेखर आजाद। तीनों साण्डर्स को यमलोक में पहुंचाकर वहीं से डी० ए० वी० कालेज के भोजनालय में गये। वहां पर्याप्त समय रहकर वहां से चल दिए। दूसरे दिन लाहौर में सभी प्रमुख स्थानों पर लाल रंग के छपे हुए इश्तिहार लगे हुए थे जिनमें लिखा हुआ था - “साण्डर्स मारा गया। लालाजी की मृत्यु का बदला ले लिया गया। इन्कलाब जिन्दाबाद।” इस घटना से सरकारी अधिकारियों में बड़ी हलचल मच गई। अपराधियों को शीघ्रातिशीघ्र खोज करने का कड़ा आदेश दिया गया। तत्काल ही लाहौर से बाहर जाने वाली सभी सड़कों तथा स्टेशन पर अपना राज्य जमा लिया। उस समय दल के लगभग सभी सदस्य लाहौर में थे। साण्डर्स के वध के बाद अधिकांश सदस्य वहां से निकल गए थे, पर समस्या भगतसिंह को बाहर निकालने की थी। इसको हल किया दुर्गा भाभी ने। दुर्गा भाभी के पति भगवतीचरण स्वयं क्रांतिकारी थे। उसने लाहौर से कलकत्ता के लिए फर्स्ट क्लास का कूपे रिजर्व कराया। भगतसिंह ऊंचे कालर का ओवरकोट पहने, तिर्छा फ्लैट हैट लगाए, बाईं तरफ भाभी के बेटे को गोद में लिए, दुर्गा भाभी को पत्नी के रूप में साथ लेकर पांच बजे की गाड़ी में सवार हुए। बिस्तर बन्द लेकर नौकर की तरह राजगुरु चले और कलकत्ता पहुंच गए। इसी ट्रेन से रामनामी दुपट्टा ओढ़े माथे पर तिलक लगाए, हरिओम् बोलते मथुरा के पण्डा बने आज़ाद यात्रा कर रहे थे। आज़ाद तथा राजगुरु लखनऊ उतर गए। कलकत्ता पहुंचने पर भगतसिंह तथा दुर्गा भाभी का सुशीला दीदी तथा भगवतीचरण ने स्टेशन पर स्वागत किया। लाहौर स्टेशन तथा देहली आदि अनेक स्टेशनों पर सरकारी पुलिस इन वीर क्रान्तिकारियों को बिल्कुल नहीं पहचान सकी। भगतसिंह तथा उनके साथियों का पुलिस तथा सी० आई० डी० को चकमा देकर निकल जाना उतना ही सराहनीय है जैसे ‘जानी चोर’ तथा नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के चकमे।

दिल्ली की असेम्बली में धमाका - असेम्बली में ‘पुब्लिक सुरक्षा बल’ तथा ‘ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ पास हो रहे थे। यह जनता के लिए अच्छे न थे। इनसे जनता अत्यधिक असन्तुष्ट थी। अतः इनका विरोध करने की ठानी। विरोध इस प्रकार का था कि जब यह बिल पास हों तब सभा भवन में बम्ब फैंका जाय। इस कार्य के लिए वीर भगतसिंह तथा उनके मित्र बटुकेश्वर दत्त को चुना गया। 8 अप्रैल, 1929 को इन दोनों बिलों पर मत पड़ने वाले थे। उसी दिन ये दोनों वीर वहां जा धमके। ठीक ग्यारह बजे अध्यक्ष ने घण्टी बजाकर दो विभागों में बांटने को कहा। यह स्मरण रहे कि यह बिल अध्यक्ष महोदय ने पहले भी ठुकराए थे। परन्तु कौंसिल ऑफ स्टेट ने इन्हें फिर विचारार्थ भेजा था।

श्रीयुत अध्यक्ष पटेल ने बड़ी मर्म वेदना के साथ यह देखकर कि विरोधियों की संख्या अधिक है, अतः अपने रुंधे हुए कण्ठ से कहा “ये बिल पास”। इतने में एक बम्ब धमाका हुआ। फिर दूसरा बम्ब भी फैंका गया। सभा भवन धुएं से भर गया, इस आवाज़ से सदस्य वर्ग में भगदड़ मच गई। अध्यक्ष के पास बैठे हुए सर जॉन साइमन पल भर में छिप गये। होम मेम्बर सर जेम्स का सिर कुर्सियों के नीचे छिप गया। केवल दो सदस्य अपने स्थान पर बैठे रहे - पं० मोतीलाल नेहरू और मदनमोहन मालवीय। ये बम्ब ऐसी जगह फैंके गए कि किसी को चोट न आए। यदि ये वीर चाहते तो निकल


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सकते थे, लेकिन वहीं खड़े रहे। काफी देर बाद सार्जन्ट टेरी और इन्सपेक्टर जॉनसन उनके पास आए जो घबराए हुए थे। भगतसिंह तथा दत्त ने भरे हुए पिस्तौल निकालकर डेस्क पर रख दिए। वे गिरफ्तार हो गये। बम्ब फैंकने के बाद सभा में कुछ शान्ति हुई, तब दोनों ही वीरों ने लाल पर्चे बांटने शुरु कर दिये जिसका प्रथम वाक्य था “बहरों को सुनाने के लिए जोर से बोलना पड़ता है।” और इसके नीचे “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन” के अध्यक्ष के हस्ताक्षर थे। जब पुलिस दोनों को कोतवाली ले जा रही थी तब इन युवकों ने चलते समय “इन्कलाब जिन्दाबाद”, “साइमन का नाश हो” इन नारों से आकाश गुंजा दिया। इस समय उनके मुख पर कोई भय न था और अन्त तक कभी नहीं आया। ये मुस्कराहट के साथ अपने कार्य को सुचारू रूप से कर सकने पर सन्तोष प्रकट कर रहे थे।

दिल्ली जेल की अदालत में भगतसिंह की पेशी - इन तीनों वीरों पर मुकदमा चलाया गया। 7 मई से मुकदमा चला, जो 12 जून, 1929 को सेशन में जाकर समाप्त हो गया। भगतसिंह और दत्त ने अदालत में एक मिला जुला वक्तव्य दिया “क्रान्तिकारी दल का उद्देश्य देश में मज़दूरों तथा किसानों का समाजवादी राज्य स्थापित करना है। क्रान्तिकारी समिति जनता की भलाई के लिए लड़ रही है।” वीरवर भगतसिंह और दत्त ने जो संयुक्त वक्तव्य अदालत में दिया, वह बहुत ही विद्वत्तापूर्ण था। इससे पूर्व किसी भी क्रान्तिकारी ने अदालत में खड़े होकर ऐसा वक्तव्य नहीं दिया। भगतसिंह जिस समय अदालत में आते, उस समय ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा लगाते। वन्दे मातरम् गीत गाते और फिर उसके बाद क्रान्तिकारी शहीदों का प्रसिद्ध गीत गाते -

सर फरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है !
देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है !
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां,
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

12 जून, 1929 को, अपने 41 पृष्ठ के फैसले में जज ने दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। इसके बाद भगतसिंह को लाहौर सेण्ट्रल जेल तथा बटुकेश्वर दत्त को मियांवाली जेल में भेज दिया गया। मुकदमे के बीच पहले 15 दिन का अनशन भगतसिंह ने किया। उसका उद्देश्य राजनैतिक कैदियों को जेल में विशेष सुविधाएं देने की मांग थी। 15 जून, 1929 से दूसरा अनशन किया जिसकी सहानुभूति में 30 जून को ‘सिंह दत्त दिवस’ मनाया गया। अनशन के दिनों में ही मियांवाली जेल से लाकर इन्हें “लाहौर षड्यन्त्र केस” में सम्मिलित किया गया। अनशन ज्यों-ज्यों लम्बा पड़ता गया, देश में भगतसिंह आदि के साथ सहानुभूति बढ़ती गई। 52 दिन बीतने पर स्व० मोतीलाल नेहरू ने 4 अगस्त को सार्वजनिक सभा द्वारा सरकार की न झुकने वाली मनोवृत्ति की निन्दा की। पं० जवाहरलाल नेहरू लाहौर आकर भगतसिंह आदि से मिले और अनशन छोड़ देने की सलाह दी और सच्चाई जानी। पंजाब सरकार के समर्थन से भारत सरकार ने पूर्ण आश्वासन दिया कि सब प्रान्तों में जांच और सुधार कमेटियां नियुक्त की जायेंगी। बहुत शीघ्र पंजाब जेल कमेटी बनी। इस प्रकार 15 दिन के बाद अनशन तोड़ दिया गया। उस समय से पहले जेलों की बड़ी दुर्दशा थी। भगतसिंह ने व्यापक आन्दोलन उठाकर जो सफलता प्राप्त की वह उसके जीवन की सबसे बड़ी घटना मानी जाती है।

सरदार भगतसिंह ने भारतीय क्रान्तिकारियों को एक नई देन दी कि स्वाधीनता के लिए संघर्ष अपराध, नहीं, कर्त्तव्य है। इसलिए उसे स्वीकार कर लेना निर्भीकतापूर्ण साहस है। उन्होंने क्रान्ति को


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धर्म के आधार से राजनीति का आधार दिया। “इन्कलाब जिन्दाबाद”, “साम्राज्यवाद का अन्त हो” “क्रान्ति चिरंजीवी हो” के नारे देकर, देश को समाजवाद के मार्ग पर चलने को ललकार दी। उसका विश्वास था कि देश सशस्त्र क्रान्ति से, चाहे आतंकवाद से, शीघ्र स्वाधीन होना चाहिए जबकि महात्मा गांधी अहिंसा के आधार पर देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति चाहते थे।

अदालत में भगतसिंह खूब ज़ोर से बोलते ताकि बाहर खड़े लोग उनकी बातें सुनें, उनकी पार्टी के दर्शन को जान लें और भली प्रकार समझ लें कि वह खूनी नहीं, देश की आजादी तथा तरक्की के दीवाने हैं। वे अदालत में ही गाते -

कभी वह दिन भी आएगा कि जब आजाद हम होंगे,
ये अपनी ही जमीं होगी, ये अपना ही वतन होगा।
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा॥

कानपुर में 23 अक्तूबर सन् 1928 को जो बम्ब दशहरा के मेले पर फटा था, उससे दस लोगों की मृत्यु हुई तथा 30 घायल हो गये। नौकरशाही ने इस मामले की छानबीन की, जिसके फलस्वरूप पता लगा कि मि० साण्डर्स की हत्या करने में वीरवर भगतसिंह का हाथ भी था। इस सम्बन्ध में 16 व्यक्तियों पर केस चला। सरकार ने एक आर्डिनेन्स गजट प्रकाशित किया। मुकद्दमा मजिस्ट्रेट से हटकर तीन जजों के एक ट्रिब्युनल के सामने आया। जस्टिस जी० सी० हिल्टन अध्यक्ष थे और जस्टिस अब्दुल कादिर तथा जे० के० टैम्प सदस्य थे। इन तीन जजों की अदालत को यह अधिकार दिया गया था कि अभियुक्तों की अनुपस्थिति में भी उन पर मुकद्दमा चलाया जाये। अक्तूबर 1930 को सुबह लाहौर जेल में जाकर ट्रिब्युनल ने इस मुकदमे का फैसला इस प्रकार सुनाया - भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी; कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिवशर्मा, गयाप्रसाद, किशोरीलाल और महावीरसिंह को आजीवन काला पानी; कुन्दनलाल को सात वर्ष की सजा; प्रेमदत्त को तीन साल की कैद और मास्टर आशाराम, अजय घोष, देशराज, सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय और जितेन्द्रनाथ सान्याल को बरी कर दिया गया।

वीरवर भगतसिंह की फांसी के समाचारों पर देश के कोने-कोने से रोष प्रकट किया गया। हड़तालें हुईं। 11 फरवरी सन् 1931 को प्रीवी कौंसिल में इस मुकदमे की अपील की गई, किन्तु वह रद्द कर दी गई।

अन्तिम दृश्य - फांसी वाले दिन तीनों भगतसिंह, राजगुरु तथा सुखदेव लाहौर की जेल काल कोठरी से बाहर आए। तीनों हंसते-हंसते एक दूसरे से मिलकर चले। भगतसिंह ने गाना शुरु किया - “दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।” फिर तीनों फांसी के फंदों के पीछे खड़े हो गये। फिर तीनों ने नारा लगाया - “इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।” इसके बाद फंदों को चूमा। अपने हाथों से गलों में डालकर जल्लाद से कहा “इनको ठीक कर लो।” लाहौर में 23 मार्च सन् 1931 को सायंकाल, 7 बजकर 33 मिनट पर तीनों को फांसी दे दी गई। यों तो कानून सवेरे फांसी देने का है। किन्तु इनके लिए इस नियम को भंग किया गया। उनकी लाशें सम्बन्धियों को


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नहीं दी गईं तथा उन्हें बड़ी बेपरवाही से मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। उनके फूल अनाथों के फूलों की भांति सतलुज में डलवा दिए गए। उन देशभक्त पुरुषसिंहों की अंग्रेज सरकार ने इस प्रकार हत्या कर डाली! कितना बड़ा अत्याचार, अन्याय तथा अपराध था यह? कितना बड़ा अत्याचार अन्याय तथा अपराध था यह? सरकार जनमत की कितनी परवाह करती है? यह एक इसी बात से कांग्रेस के नेताओं पर जाहिर हो जानी चाहिए थी, किन्तु क्रूर ब्रिटिश सरकार ने इन क्रान्तिकारियों के प्राण लेकर मिटाने की कौशिशें कीं और गांधीवादियों ने उनको भुलाने की साजिशें कीं, लेकिन क्या वह मिटे?

ब्रिटिश सरकार को भारतीयों के इस तरह के क्रान्ति संघर्ष को देखकर यह निश्चय हो गया था कि “यदि गांधीजी सफल होते हैं तो भारत में अंग्रेज कुछ समय और ठहर सकते हैं, किन्तु वीरवर भगतसिंह सफल होते हैं तो अंग्रेजों की विदाई तुरन्त निश्चित है।”

इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए कांग्रेस के गांधीवादी बड़े से बड़े नेताओं की भी तुलना में, वीरवर जाट भगतसिंह की देशभक्ति, बलिदान, स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए योगदान आदि महान् कार्य, बहुत बढ़ चढ़कर हैं। यदि वे लम्बे समय तक जीवित रहते तो अंग्रेजों को देश से निकालकर सन् 1947 से बहुत पहले ही आजाद करा देते। भगतसिंह के शहीद होने की याद में 23 मार्च को उनके गांव बंगा में प्रतिवर्ष मेला लगता है। अब भगतसिंह दिवस सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। देश के अनेक नगरों में आपकी प्रतिमा स्थापित हैं। आप तीनों शहीदों का स्मारक जि० फिरोजपुर में हुसैनीवाला के स्थान पर सतलुज नदी के तट पर स्थापित किया गया है जिसका उद्घाटन हमारे प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी जी ने अपने करकमलों द्वारा 23 मार्च 1987 को किया था।

3. गदर पार्टी की स्थापना - लाला हरदयाल एम० ए० देशभक्त थे तथा देश की स्वतन्त्रता की योजना बना रहे थे। सन् 1905 में इंग्लैण्ड में उनकी मुलाकात श्यामजी कृष्णवर्मा से हुई जो भारत की स्वतन्त्रता का प्रचार कर रहे थे। लाला जी की संगति वीर सावरकर तथा भाई परमानन्द एम० ए० से भी अमेरिका आदि देशों में हुई। उन सबका प्रभाव लाला जी पर बड़ा अच्छा पड़ा। भाई परमानन्द जी तो इंग्लैण्ड चले गये किन्तु लाला हरदयाल ने 10 1913 को केलिफोर्निया के यूलो नामक नगर में भारतीयों की एक सभा की और इसी सभा में भारत में गदर कराने की दृष्टि से “गदर पार्टी” की स्थापना की। पार्टी का मुख्य पत्र ‘गदर’ निकालने का भी निश्चय हुआ। मुख्य कार्यालय सानफ्रांसिस्को बनाया गया। यह गदर का प्रथमांक पहली नवम्बर 1913 में हिन्दी, उर्दू, गुजराती और गुरुमुखी आदि भाषाओं में निकला। इस गदर पार्टी का उद्देश्य यह था कि यूरोप में महायुद्ध होने वाला है। उस अवसर पर अंग्रेजों के युद्ध में फंस जाने पर भारत में विप्लव करा के अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालकर अपने देश को स्वतन्त्र कराया जाए। इस पत्र की प्रतियां भारत, बर्मा, चीन, लन्दन आदि सभी स्थानों पर जहां भी प्रवासी भारतीयों का विदेशों में निवास था, सर्वत्र भेजी जाती थीं। गदर पार्टी के साथ मिश्र, टर्की और जर्मनी आदि अनेक देश सहानुभूति रखते थे। गदर पार्टी का संगठन गोरों के


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अत्याचार एवं अन्याय के विरुद्ध लड़ रहा था। इसके लिए सिक्ख जाटों ने खूब कार्य किया, जिनमें मुख्य सरदार भागसिंह, सुन्दरसिंह, हरनामसिंह, बलवन्तसिंह और अर्जुनसिंह आदि थे।

4. कोमागातामारू जहाज की दुर्घटना -

बाबा गुरुदत्तसिंह अमृतसर जिले के निवासी सिक्ख जाट थे। उन्होंने कैनेडा तथा प्रवासी भारतीयों के कष्ट दूर करने के लिए अपनी कम्पनी की ओर से एक समूचा जहाज हांगकांग से एक जर्मन एजेण्ट द्वारा किराये पर ले लिया। इस जहाज का नाम “कोमागातामारू” था। यह जहाज यात्रियों को लेकर 4 अप्रैल 1914 को हांगकांग से चला। मार्ग में इसके यात्रियों को गदर पत्र भी जहाज में पढ़ने को मिलता रहता था। 23 मई, 1914 को यह जहाज कैनेडा की मुख्य बन्दरगाह वैंकोवर जा पहुंचा। इस जहाज में लगभग 3,000 सिक्ख जिनमें अधिकतर जाट थे, तथा 21 पंजाबी मुसलमान यात्री थे। इनको कैनेडा में नहीं उतरने दिया। जाट सरदार भागसिंह ने अपने मित्रों से मिलकर 32,000 डालर देकर जहाज का चार्टर अपने नाम लिखवा लिया। कैनेडा की सरकार ने अपना जंगी जहाज युद्ध करने को भेजा तो कोमागातामारू वहां से 23 जुलाई को वापिस चल पड़ा। बाबा गुरुदत्त को योकोहामा में सूचना दी गई कि उनके जहाज को हांगकांग में नहीं ठहरने दिया जाएगा। विवश होकर जहाज को कलकत्ता जाना पड़ा। कोमागातामारू हुगली नदी में पहुंचा। इसने 29 सितम्बर 1914 को प्रातः 11 बजे बजबज में लंगर डाला। अंग्रेजों की खुफिया पुलिस ने इस जहाज के यात्रियों के विरुद्ध भयानक रिपोर्ट दे रखी थी। अतः इनको मार्ग में कहीं नहीं उतरने और भारत में सब यात्रियों को उतारकर पकड़कर नजरबन्द किया जाये यह सरकार का निश्चय था।

5. बजबज का गोली काण्ड - जहाज से उतारकर सब यात्रियों को पंजाब ले जाने के लिए स्पेशल ट्रेन में बैठने का आदेश मिला। सरकार इन सबको कैद करना चाहती थी। किन्तु इस जहाज के यात्रियों ने गाड़ी में चढ़ने से साफ इन्कार कर दिया। सरकार ने सेना द्वारा इन पर फायर करवा दिया। दोनों ओर से गोलियां चलीं और दोनों ओर के बहुत व्यक्ति मरे। इसमें 18 सिख जाट मारे गये, जिनका बहुत समय तक पता न चला। अन्त में 60 यात्रियों को जिनमें 17 मुसलमान थे, सायंकाल गाड़ी में विवश कर बैठाया गया। गिरफ्तार लोगों में से अधिकांश को जनवरी 1915 को छोड़ दिया गया। 31 को जेलों में नजरबन्द कर दिया गया। इस गोलीकाण्ड में बाबा गुरुदत्तसिंह गोली लगने से घायल हो गये। उनके साथी उनको उठा ले गये। सरकार सब कुछ करने पर भी उन्हें कभी नहीं पकड़ सकी। यह सूचना सब जगह पहुंच गई। भारतीयों की गदर पार्टी ने इस समय यही निश्चय किया था कि भारतवर्ष में आकर भारत की देशी सेना तथा जनता में प्रचार करके गदर कराया जाये। भारत की सेना को अंग्रेजों की सहायता करने से रोका जाये। भारत में भी पहले से देशभक्त पंजाब तथा बंगाल आदि प्रान्तों में गदर की तैयारी कर रहे थे। विदेशों से आने वाले भारतीय यात्री जिनमें अधिकतर सिक्ख जाट थे, भारत में विद्रोह करने की योजना को गुप्त न रख सके, जिसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों को इस षड्यंत्र का सारा भेद लग गया। उन्होंने इस गदर पार्टी को प्रत्येक देश से समाप्त कर दिया। सरकार ने सैंकड़ों नवयुवकों को फांसी दी और सहस्रों को जेल में सड़ा दिया तथा


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बड़े-बड़े कष्ट दिये। इस गदर पार्टी की योजना तथा उन पर अंग्रेजों द्वारा किए गए अत्याचारों के कारण भारत की जनता में अंग्रेजों के प्रति घृणा और देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति का साहस बहुत बढ़ गया।

6. सरदार रामसिंह - ये जिला जालन्धर में तुलेता नामक गांव के जाट थे। इन्होंने गदर पार्टी का ‘गदर’ अखबार उस समय चलाया जबकि वहां के सभी मुख्य व्यक्ति भारत आकर क्रान्ति करने में लगे हुए थे। इन पर अंग्रेज सरकार ने अमेरिका में ही मुकदमा चलवाया। जिसमें इनके साथी रामचन्द्र ने मुखबरी के बयान देने आरम्भ कर दिए तो इन्होंने उसे अदालत में ही गोली मार दी। इस पर वहां खड़ी पुलिस ने तत्क्षण आपको गोली से उड़ा दिया।

7, 8, 9. स० बन्तासिंह, स० रंगासिंह, स० वीरसिंह - ये तीनों क्रान्तिकारी जाट थे जो गदर पार्टी के कार्यकर्त्ता बनकर, अमेरिका, कनाडा प्रवास को त्यागकर देश को स्वाधीन कराने आए थे। इन्होंने अमृतसर पुल को उड़ाया। वहां लड़कर सिपाहियों से 15 बन्दूकें, 750 कारतूस छीने और कपूरथला राज्य की मैगजीन (शस्त्र बारूद का गोदाम) लूटने का प्रयास किया। इनको घुड़सवार पुलिस 60 मील तक पीछा किये जाने पर भी गिरफ्तार न कर सकी। अन्त में भेदियों द्वारा बन्दी बनाए गए।

10. सरदार करतारसिंह - आप जि० लुधियाना में गांव सरावा के जाट जमींदार स० मंगलसिंह के पुत्र थे। आपका जन्म सन् 1896 में सरावा गांव में हुआ था। रासबिहारी बोस और भाई परमानन्द एम० ए० तक इस वीर से आशान्वित थे। इन्हें अपने चाचा के पास उड़ीसा में पढ़ने के समय बंगाल के क्रान्तिकारियों का सम्पर्क मिला। ये पढ़ने के नाम पर ही अमेरिका, सानफ्रांसिस्को पहुंचे। वहां इनको लाला हरदयाल एम० ए० के साथ रहने का सुयोग मिला। उनके और अन्य सहयोगियों के साथ उन्होंने 1913 ई० में ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की और ‘गदर’ नामक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्र में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोही भावनाएं उभारी जाती थीं। 1914 ई० में महायुद्ध छिड़ने पर इन्होंने भारत आकर देहातियों को क्रान्ति सेना में भर्ती होने और सेनाओं को विद्रोह की तैयारी में जुटने के लिए उभारा। बंगाल में रासबिहारी और शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ सहयोग करके स्वतन्त्रता संग्राम की तैयारी की। एक ही दिन विद्रोह के लिए तय भी कर लिया किन्तु समय से पहले भेद खुल गया और काबुल जाते हुए एक छावनी के सैनिकों में सरकार के विरुद्ध प्रचार करते हुए सरदार करतारसिंह पकड़ लिए गए। उस समय उनकी आयु केवल 20 वर्ष की थी। इन पर डाकेजनी तथा सैनिक विद्रोह कराने का अभियोग लगाया तो इन्होंने सब स्वीकार कर लिया और कहा - “हम ब्रिटिश सरकार को भारत पर शासन नहीं करने दे सकते, मैंने इसी कार्य के लिए जनता और सेना को तैयार किया था, इसी के लिए मैं अमेरिका से लौटा था।” जज ने उनके बयान नहीं लिखे, उसे सोचकर बोलने के लिए अगला दिन दिया। अगले दिन भी इस वीर के बयान वही थे। वीरता पर मुग्घ हुए जज ने लिखा कि “यह करतारसिंह 61 अभियुक्तों में सबसे मुख्य है, इसने लगाए सभी आरोप स्वीकार कर लिए हैं। इसे अपने कारनामों पर भारी गर्व है।” फांसी का आदेश सुनकर उसने जज को “थैंक्यू” (आपका धन्यवाद) कहा और मुस्करा दिया।

स्मरण रहे इसी कार्य में भाई परमानन्द भी अभियुक्त थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में


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लिखा है - “करतारसिंह को मैंने अमेरिका में देखा था। हथकड़ी बेड़ी में कसकर जब जेल में लाया गया तो अपने दो साथियों के साथ प्रसन्न होता हुआ और हंसता हुआ जेल में आया। शुरु में इसके पांवों में जंजीर डालकर जेल के दरवाजे से बांधा गया जबकि यह हथकड़ी भी पहने हुए था। भले ही यह 18-20 वर्ष का नौजवान था परन्तु सच तो यह है कि पंजाब में सारी हलचल का वास्तविक लीडर करतारसिंह था। उस लड़के का पुरुषार्थ और साहस आश्चर्यजनक था।”

11. बाबा बैसाखासिंह - अमृतसर जिले की तरनतारन तहसील के गांव ददेर में सिंधु गोत्र के जाट स० दयालसिंह एवं उनकी धर्मपत्नी इन्द्रकौर के यहां अप्रैल 1877 ई० में बाबा बैसाखासिंह का जन्म हुआ। इसी गांव के सन्त ईश्वरदास के चरणों में बैठकर सिक्ख धर्म के साहित्य को पढ़ने का सुयोग मिला। 1905 ई० से 1906 तक 11 नं० रिसाले में जेहलम जाकर सैनिक रहे, किन्तु एक सभा में देशभक्ति की बातें सुनकर नौकरी छोड़ दी। 1907 ई० में चीन के अंग्रेजी प्रदेश में पुलिस कांस्टेबल हो गये। हांगकांग में रहते हुए पुनः नौकरी छोड़ दी। शंघाई से केलीफोर्निया चले गए। अमेरिका इन्हें बहुत पसन्द आया। सन् 1910 ई० को दसवें बादशाह के जन्मदिन पर भाई परमानन्द, लाला हरदयाल की उपस्थिति में बाबा बैसाखासिंह ने जनता के सामने अपना जीवन देशसेवा के लिये अर्पण कर दिया। रसिवाली गांव के जाट सरदार बाबा गुरुदत्तसिंह जब ‘कोमागातामारू’ जहाज लेकर कनाडा पहुंचे और उसे वहां की सरकार ने उल्टे लौटाया तो कैलिफोर्निया की पार्टी का आखरी जत्था 1914 ई० में 50 मनुष्यों का बाबा बैसाखासिंह का था जो भारत आया, हांगकांग से ही पुलिस ने इनका पीछा किया। लुधियाना मिलिट्री पुलिस ने इन्हें अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर को सौंप दिया, तो इसे ददेर गांव में नजरबंद कर दिया गया और 25 दिन बाद लाहौर जेल में पहुंचा दिया गया। प्रथम लाहौर षड्यन्त्र केस में 24 को फांसी की सजा सुनाई, इनमें बाबा भी थे। किन्तु लार्ड हार्डिंग ने 10 को फांसी से काला पानी दिया, जिनमें भाई परमानन्द और बाबा बैसाखासिंह आदि थे। 1915 ई० के दिसम्बर में इन सबको अण्डमान भेजा गया। 1921 ई० के आरम्भ में निरन्तर रोगी रहने पर इन्हें कोलम्बो लाकर छोड़ दिया गया। पुलिस ने इन्हें ददेर लाकर नजरबन्द कर दिया। यहां पीछे इनकी सारी सम्पत्ति जब्त की जा चुकी थी। इधर “देशभक्त परिवार सहायक कमेटी” बनाई, “कैदी परिवार सहायक फण्ड” खोला। उसमें लोगों ने दिल खोलकर दान दिया। तीन लाख रुपये इस उपर्युक्त कमेटी ने असहाय परिवारों की सहायता पर व्यय किए। इसके लिए बाबा ने एक कमेटी बनाई और सारे देश का कई बार दौरा किया। 1929 ई० में तरनतारन गुरुद्वारे की कारसेवा में सर्वसम्मति से बाबा को पंचप्यारा चुना गया और 1932 ई० में अमृतसर के अकाल तख्त का जत्थेदार पद का सम्मान भी आपको प्रदान किया गया। 1933 ई० में इन्हें एक वर्ष के लिए नजरबन्द कर दिया गया। आपने मुकदमेबाजी को बन्द कर देने की ददेर के जाटों से प्रतिज्ञा की और चन्दा एकत्र करके तरनतारन में एक पांच मंजिली धर्मशाला बनाई। अकाली आन्दोलन में आपने अग्रणी बनकर सेवाएं कीं। सन् 1939 में शिरोमणि कमेटी के निर्णायक पंच चुने गए और छेहाल्टा (अमृतसर के पास) की नई इमारत की नींव रखी। युद्धकाल में इन्हें 26 जून 1940 ई० को बन्दी बनाकर डेरा गाज़ीखां जेल में रखा गया, फिर ये देवली भेजे गये। इस प्रकार 75 वर्ष की अवस्था तक इन्होंने ब्रिटिश सरकार से कठोर संघर्ष कर देश की स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।


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12. श्री हरिकिशनसिंह - आपका जन्म गल्लाढेर गांव (पंजाब) में एक अच्छे जाट जमींदार के घर हुआ। आपके पिता गुरुदासमल जाट थे। आपके भाई भगतराम देशप्रेम के अपराध में पेशावर जेल में कैद रहे। आपने क्रांतिकारियों की पुस्तक पढ़ी जिससे देशभक्ति की भावना पैदा हुई। आप बन्दूक, पिस्तौल आदि बहुत अच्छी तरह चलाते थे।

आप 23 दिसम्बर, 1930 को पंजाब विश्वविद्यालय के पारितोषिक वितरण उत्सव पर गये। विद्यालय के चांसलर और गवर्नर परीक्षोत्तीर्ण छात्रों को उपाधि देने आये थे। वहां पुलिस का कड़ा पहरा था। बिना टिकट के अन्दर कोई भी नहीं जा सकता था। आप भी टिकट के साथ अन्दर चले गए। इस प्रकार सभा की कार्यवाही निर्विघ्न समाप्त हुई। अन्त में सभा विसर्जित करके जब गवर्नर बाहर जा रहे थे तो अचानक वीर हरिकिशन ने हाल के अन्दर से फायर किया। गवर्नर की पीठ और भुजा पर दो गोलियां लगीं। इसके अतिरिक्त अन्य मनुष्यों को भी चोटें आईं और एक की मृत्यु हो गई। गवर्नर की मरहमपट्टी करने से वे अच्छे हो गये।

हाल के बरामदे में खड़ा नवयुवक हरिकिशन अभी गोलियां चला ही रहा था कि एक इन्सपेक्टर ने उसे पकड़ लिया। तलाशी लेने पर उसके पास एक पिस्तौल, 6 गोलियां, एक चाकू और कुछ कागज मिले। 3 जनवरी, 1931 को लाहौर जेल में हरिकिशन के मुकदमे की पहली पेशी हुई। हरिकिशन ने अदालत में अपना अपराध स्वीकार करते हुए केवल इतना ही कहा - “मैं यहां गवर्नर को मारने के लिए आया था। मैंने छः फायर गवर्नर पर किये, किन्तु किसी अन्य को मारने के लिए नहीं। अदालत में जो पिस्तौल और गोलियां पेश की गई हैं वे मेरी हैं। मैंने जो कुछ किया है अपनी इच्छा से किया है।” अदालत ने उसी दिन इस व्यक्ति को सेशन को सौंप दिया। 21 जनवरी, 1931 ई० को सेशनजज की अदालत में पेशी हुई। सेशनजज ने वीर हरिकिशन को फांसी की सजा सुना दी। हरिकिशन ने दण्ड सुनकर गम्भीरता से उत्तर दिया - “बहुत अच्छा।” वीर हरिकिशन को मियांवाली जेल में भेज दिया गया। 8 जून 1931 को हरिकिशन के माता-पिता उससे अन्तिम बार मिलने के लिए मियांवाली जेल में गये थे। उस समय हरिकिशन के मस्तिष्क पर प्रसन्नता थी। उसने सरकारी अधिकारियों से अन्तिम इच्छा यह प्रकट की थी कि “मेरी लाश मेरे सम्बन्धियों को दे दी जाये और मेरा अन्तिम संस्कार वहीं हो जहां सरदार वीरवर भगतसिंह आदि का हुआ था और मेरा जन्म पुनः इसी देश में हो, ताकि मैं मातृभूमि को गुलामी के बन्धन से मुक्त कराने में भाग ले सकूँ।”

इसके पश्चात् देशभक्त हरिकिशन को 9 जून सन् 1931 को मियांवाली जेल में फांसी के तख्ते पर झुला दिया गया। फांसी के पश्चात् हरिकिशन की लाश को आधी रात के समय मुसलमानों की कब्रों में जला दिया गया और जहां अन्त्येष्टि संस्कार किया वहां पर पुलिस का पहरा लगा दिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीयों के प्रति अंग्रेजों का व्यवहार अत्यन्त अत्याचारी, अन्यायी और निर्दयी था। फांसी के समय वीर हरिकिशन का वजन 9 पौंड बढ़ गया था। इसका कारण देश के लिए अपना बलिदान देने की खुशी थी।

13. मास्टर रामजीलाल - मास्टर रामजीलाल जी का जन्म 6 नवम्बर, 1901 को फजलपुर ग्राम, तहसील सरधना, जिला मेरठ में एक गरीब जाट किसान के घर हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा गांव में ही हुई और बड़ौत से मिडल पास करके मिशन स्कूल मेरठ में अंग्रेजी शिक्षा का अध्ययन प्रारम्भ किया। मास्टर जी पर छात्रवृत्ति का मुलम्मा चढ़ाकर ईसाई बनने पर बाध्य किया गया।


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आपने छात्रवृत्ति को लात मार दी। अपने धर्म व चरित्र की रक्षा कर आप वहां से दिल्ली आये और यहां से हाई स्कूल परीक्षा पास कर आप सरकारी नौकरी पर लग गये। उसी समय अंग्रेजों का रौलट एक्ट पास हुआ और जलियांवाला बाग का हत्याकांड हुआ। इन घटनाओं के विरोध में मास्टर जी ने अंग्रेजी नौकरी को लात मार दी।

आपने अपने अथाह परिश्रम से अपने गांव फजलपुर में एक आर्यसमाज मन्दिर की स्थापना की, जो आज भी विद्यमान है। अंग्रेजी राज्य के अत्याचारों को देखकर जनता दुःखित थी। स्वराज्य आंदोलन भी तेज होता जा रहा था। जनता अपनी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जाग गई थी। इसके लिए भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, बिस्मिल सरीखे क्रांतिकारी तथा न जाने कितने देशभक्त फांसी के फंदे को चूम चुके थे। सन् 1942 में “भारत छोड़ो” के नारे के साथ एक प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो गई। मास्टर रामजीलाल भी इस क्रांति संघर्ष में कूद पड़े। आपके पीछे गुप्त पुलिस रहने लगी। मास्टर जी ने सरकार की राजधानी दिल्ली के सबसे बड़े पुलिस स्टेशन कोतवाली चांदनी चौक में भयंकर बम विस्फोट कर दिया। केन्द्रीय सरकार के लिए यह एक चुनौती थी। इसके बाद तो पुलिस आपके पीछे हाथ धोकर पड़ गई और अन्त में बम केस के अभियोग में मास्टर जी को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ दिन आपको सदर बाजार दिल्ली के पुलिस स्टेशन में रखा गया। फिर दिल्ली सेन्ट्रल जेल में और उसके बाद आपको फिरोजपुर जेल में भेज दिया गया। दिन-रात आपको सोने नहीं दिया जाता था और बड़ी-बड़ी यातनायें दी जाती थीं। परन्तु पुलिस आपसे कोई भी गुप्त रहस्य न जान सकी। 10 महीने के कठिन कारावास के पश्चात् आपको केस साबित न होने पर छोड़ दिया गया। जेल से आने के 4 वर्ष पश्चात् तक आपके पीछे गुप्त पुलिस लगी रही। कारावास से मुक्त होते ही आपने फिर ‘रामजस’ स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् कांग्रेस ने देश की बागडोर सम्भाली तब जेलों के सर्टिफिकेट दिखाकर कांग्रेस सरकार में लोगों को बड़े-बड़े पद मिल रहे थे। परन्तु मास्टर रामजीलाल को कांग्रेस सरकार से केवल घोर निराशा ही हाथ आई। अतः आपने कांग्रेस के साथ असहयोग करने का निश्चय किया। वह कांग्रेस की पशु-पक्षियों का मांस भक्षण को प्रोत्साहित करने की नीति के कट्टर विरोधी थे। कला का ठीक उद्देश्य न समझकर उसके नाम पर नवयुवतियों के नाच का प्रचार सरकार द्वारा देखकर वे बड़े दुःखी थे। देश के बड़े-बड़े शहरों की सड़कों पर अनाथ भूखों को देखकर, शहरों की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं और उनमें रहने वाले, ऊंचे वेतन पाने वालों एवं भ्रष्ट लोगों से उन्हें घृणा हो गई थी। वे कहते थे कि “हमारे तो सभी प्रयत्न बेकार में ही गये। गोरे चले गये, उनके स्थान पर काले सत्ताधारी बन गये। अन्तर केवल इतना ही है।” चलचित्रों द्वारा भारतीय युवक-युवतियों का चरित्र बिगड़ता देखकर वे कांग्रेस सरकार पर अपना रोष प्रकट करते थे। आप विरजानन्द संस्कृत परिषद् के महामंत्री नियुक्त किये गये। आपने आर्यसमाज और संस्कृत के प्रचार कार्य में अपना जीवन व्यतीत किया। पीलिया रोग से 56 वर्ष की आयु में आपका स्वर्गवास हो गया।

14. देशभक्त ऊधमसिंह - ऊधमसिंह का जन्म 26 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के जिला संगरूर के एक गांव सुनाम में सिख जाट घराने में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार टहलसिंह था। ऊधमसिंह जब दो वर्ष के थे तब उनकी माता का स्वर्गवास हो गया और जब सात वर्ष के हुए तब उनके पिता की भी मृत्यु हो गई थी। 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के


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जलियांवाला बाग का हत्याकांड, ब्रिटिश अधिकारियों का अन्याय, अत्याचार और निर्दय कार्य था, जिसमें हजारों निर्दोष लोगों को गोलियों से भून दिया गया था। यह घटना इसी अध्याय में “जलियांवाला बाग का हत्याकांड” प्रकरण में लिख दी गई है।

ऊधमसिंह ने 13 अप्रैल, 1919 का यह कुख्यात जलियांवाला बाग कांड अपनी आंखों से देखा था। उस वक्त वह 19 वर्ष का नौजवान था और उसका मित्र वीर भगतसिंह 12वें वर्ष में चरण धर रहा था। वीर ऊधमसिंह ने उसी दिन शपथ ली थी और वह हर साल इसी को दोहराता था।

शपथ - जलियांवाला बाग कांड के मुख्य तीन दुष्ट थे - 1. पंजाब के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर सर माइकेल ओडायर, 2. जनरल ई० एच० डायर जो भारत में जन्मा एक सैनिक अधिकारी था, 3. भारत का सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लार्ड जेटलैंड।

उधमसिंह ने इन तीनों से खून का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी।

प्रतिशोध की आग में जलते हुए ऊधमसिंह सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। वहां से वे अमेरिका पहुंचे, जहां उसने मातृभूमि के लिए संघर्षशील क्रान्तिकारियों से भेंट की। 1923 में वे इंग्लैंड गये। 1928 में भगतसिंह द्वारा बुलाये जाने पर भारत लौट आये। जब वे लाहौर पहुंचे तो उन्हें आयुध अधिनियम के उल्लंघन में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 4 साल का कठोर कारावास दिया गया। 23 मार्च, 1931 को लाहौर की सैन्ट्रल जेल में जब भगतसिंह को फांसी दी गई तब ऊधमसिंह दूसरी जेल में थे। 1932 में उन्हें रिहा कर दिया गया। कुछ दिनों के लिए उन्होंने अमृतसर में एक दुकार चलाई जिसके साइनबोर्ड उसका नाम “राममोहम्मदसिंह आजाद” लिखा हुआ था। 1933 में वह पुलिस को चकमा देकर जर्मनी चले गये। बर्लिन से वे लन्दन पहुंचे और फिर इञ्जीनियरिंग के कोर्स में प्रशिक्षण के लिए दाखिला ले लिया, ताकि उनका इरादा छिपा रहे। उन्हें अपने नाम कई बार बदलने पड़े। कभी वे उदयसिंह बने, कभी शेरसिंह, फ्रेंक बार्जिक और कभी राममोहम्मदसिंह आजाद। तब तक जनरल डायर मर चुका था, लेकिन सर माइकल ओडायर और लार्ड जेटलैण्ड अभी जिन्दा थे। वे इनके पीछे लग गये। उसने एक रिवाल्वर खरीदा और उसे भरकर सदा अपने पास रखता था।

सफलता के क्षण - 13 मार्च, 1940 को वह दिन भी आया जब वह अपने उद्देश्य में सफल हुआ। उस दिन सर माइकेल ओडायर को कैस्टन हाल में रायल सैन्ट्रल एशिया सोसाइटी और ईस्ट इण्डियन एसोसियेशन द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में भाग लेना था। लार्ड जेटलैण्ड को इसकी अध्यक्षता करनी थी और उसी को इसका उद्घाटन करना था। ऊधमसिंह धीरे-धीरे चुपके से जाकर मंच से कुछ दूरी पर बैठ गया। सर माइकेल ओ’डायर ने एक उत्तेजक भाषण किया। उनके स्वभाव के अनुसार उसमें भारत के विरुद्ध जहर उगला गया था और कठोर नीति को अपनाये जाने की वकालत की गई थी। जैसे ही वे बैठने के लिए मुड़े और सचिव धन्यवाद देने के लिए खड़ा हुआ, ऊधमसिंह ने पिस्तौल निकाला और सर माइकेल ओ’डायर की छाती पर गोली मार दी, जिससे वह वहीं पर मर गया। उस समय शाम के साढे चार बजे थे। ऊधमसिंह ने उसी क्षण लार्ड जेटलैण्ड पर भी दो गोलियां दाग दीं। किन्तु उसकी किस्मत अच्छी थी कि वह घायल होकर ही बच गया।

हाल में भगदड़ मच गई। ऊधमसिंह आसानी से बचकर निकल सकते थे, लेकिन वे दृढ़ता से


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खड़े रहे और सीना तानकर कहा कि “माइकेल को मैंने मारा है।” 2 अप्रैल, 1940 को उन्हें अदालत में पेश किया गया। ऊधमसिंह के जीवन का यह स्वर्णिम दिन था, जब उन्होंने ब्रिटिश मजिस्ट्रेट के सामने यह बयान दिया - “यह काम मैंने किया। मैंने इसलिए किया, क्योंकि मैं उस व्यक्ति से चिड़ा हुआ था। वह असली अपराधी था। वह मेरे देश की आत्मा को कुचल देना चाहता था, इसलिए मैंने उसी को कुचल दिया। पूरे 21 साल तक मैं बदले की आग से जलता रहा, क्योंकि मैंने उसे मारने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। मुझे खुशी है कि मैंने यह काम पूरा किया। मैं अपने देश और भाइयों के लिए मर रहा हूं। यह मेरा कर्तव्य था। मेरा इससे बड़ा और क्या सम्मान हो सकता है कि मैं अपनी मातृभूमि के लिए मरूं।”

जब सुनवाई करने वाले मजिस्ट्रेट ने उनका नाम पूछा तो उन्होंने कहा मेरा नाम उधमसिंह नहीं है। मेरा नाम “राममोहम्मदसिंह आजाद” है। राम हिन्दू, मोहम्मद मुसलमान, सिंह सिक्ख और आजाद का मतलब है - भारत की आजादी। फिर ऊधमसिंह ने कहा - मुझे किसी भी सजा पर अफसोस न होगा। अदालत ने उसे मौत की सजा सुनाई। जेल से उन्होंने अपने दोस्तों को पत्र द्वारा कहा था कि मेरी पैरवी पर कोई पैसा खर्च न किया जाये। ब्रिसटन जेल से उन्हें पेंटोविन जेल भेज दिया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी गई। इस वीर अमर शहीद ऊधमसिंह ने देश के अपमान का बदला लेने के लिए 21 साल तक प्रतीक्षा की।

श्रद्धांजलि - भारत सरकार के लगातार प्रयत्नों के बाद ऊधमसिंह के अवशेष 19 जुलाई, 1974 को भारत लाए गये और पालम हवाई अड्डे पर राष्ट्रीय नेताओं ने उसको ससम्मान उतारा। 5 दिन वे दिल्ली में रहे और फिर उन्हें हरद्वार में गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। राष्ट्र ऐसे शहीदों के बलिदान से कभी अनृण नहीं हो सकता। उनका नाम हमारे इतिहास में मणि माणिक के समान दमकता रहेगा। (विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय, सूचना और प्रसारण मन्त्रालय, भारत सरकार द्वारा आकल्पित एवं प्रकाशित 1 जुलाई, 1983)।

15. जाट सरदार करतार सिंह के नेतृत्व में पंजाब में क्रांति की योजना - देशभक्त श्री रासबिहारी बोस, भारत के वीर सेनानी आजाद हिन्द फौज के सूत्रधार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के वंशज थे। सन् 1912 में देहली में एक विशाल दरबार लगा था। उस समय वायसराय लार्ड हार्डिंग हाथी की पीठ पर जलूस के साथ जा रहे थे। उसी समय श्री रासबिहारी बोस की योजनानुसार उन पर बम्ब फेंका गया। इससे लार्ड हार्डिंग का एक हाथ घायल हो गया, जिससे वह मूर्च्छित हो गया। सारा जलूस तितर-बितर हो गया। रासबिहारी बोस के वारण्ट जारी हो गये। उसको पकड़ने के लिए बड़े-बड़े इनाम घोषित कर दिये गये। उनके पीछे गुप्तचर विभाग की भी सारी शक्ति लग गई, किन्तु वे मरण पर्यन्त हाथ नहीं आये। वे सन् 1914 में बनारस पहुंचे और वहां पर रहकर अंग्रेजों के विरुद्ध गुप्त षड्यन्त्र की योजना बनाने लगे। इन्हीं दिनों पिंगले, जो अमेरिका से आया था, रासबिहारी के क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गया। पिंगले ने रासबिहारी को बताया कि उत्तर भारत में विद्रोह के लिए 4,000 क्रांतिकारी अमेरिका से आये हैं और क्रांति प्रारम्भ होने पर 20,000 और आयेंगे। रासबिहारी तभी से पंजाब में क्रांति की योजना बनाने लगे। अखण्ड पंजाब में क्रांति का दिन 21 फरवरी सन् 1915 निश्चित कर दिया। याद रहे उन दिनों प्रथम विश्व महायुद्ध जोरों पर


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चल रहा था। रासबिहारी बोस ने अखण्ड पंजाब में क्रांति का मुख्य अधिकार जाट सरदार करतार सिंह को सौंप दिया। (करतारसिंह के विषय में पिछले पृष्ठों पर देखो)।

विनायकराव कपिल को पंजाब में बम्ब भेजने के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रकार पंजाब में क्रांति की योजना पूर्णरूपेण बन गई। ज्यों-ज्यों क्रांति का दिन निकट आ रहा था, त्यों-त्यों क्रांति के कार्यकर्ताओं में जोश और उत्साह बढ़ता जा रहा था। सब अपना-अपना निश्चित कार्य सुचारू रूप से चला रहे थे। निश्चित तारीख आने में केवल दो दिन शेष रह गये थे। यह ज्वालामुखी फटने ही वाली थी कि उन्हीं के साथी गद्दार कृपालसिंह ने पंजाब सरकार को सारा भेद खोल दिया। एकाएक धरपकड़ प्रारम्भ हो गई। कई क्रांतिकारी पकड़ लिये गये। करतारसिंह, पिंगले और रासबिहारी बोस आदि भाग गये। इस प्रकार एक नीच व्यक्ति के धोखे ने सारी महाक्रांति की योजना को विफल कर डाला। यदि कृपालसिंह गद्दारी न करता तो आज ‘भारत माता’, रासबिहारी बोस, करतारसिंह एवं उनके साथियों का इतिहास और ही कुछ होता। पिंगले 23 मार्च को पकड़ा गया। रासबिहारी बोस बचकर निकल गये। आपने सिंगापुर आदि कई स्थानों पर षड्यन्त्र की शाखायें खोल दीं। इन्हीं दिनों कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जापान जा रहे थे। रासबिहारी बोस भी उन्हीं व्यक्तियों में सम्मिलित हो गये, जो श्री रवीन्द्रनाथ जी के लिए पासपोर्ट आदि का प्रबन्ध कर रहे थे और अन्त में पी० एन० ठाकुर के नाम से आपने भी अपना पासपोर्ट बनवा लिया। इस प्रकार आप जापान जाने में समर्थ हो गये। वहां पर आप Black Dragon नामक दल के नेता काउण्ट तोयामा के पास रहने लगे जो कि सच्चे देशभक्तों को आश्रय देते थे।

सन् 1932 में आजाद हिन्द सेना का नेतृत्व आपके हाथों में सौंपा गया। आपने ‘एशियाटिक रेव्यू’ नाम की एक पत्रिका भी निकाली थी। अन्त में 21 जनवरी, सन् 1945 को देशभक्त श्री रासबिहारी बोस जी 64 वर्ष की आयु में भारत की स्वतन्त्रता की अमिट भावना लिए हुए इस संसार से चल बसे।

अब भारत में साईमन कमीशन आने के पश्चात् की घटनायें लिखते हैं -

पूर्ण स्वराज्य की घोषणा

देश में विदेशी शासन के विरुद्ध एक नया उत्साह था। कांग्रेस में कुछ नये नेता उभर रहे थे जिन्होंने इसके गतिविधियों में एक नई शक्ति तथा उत्तेजना ला दी। वे नेता थे - जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचन्द्र बोस। ये जनता में विशेषकर नवयुवकों में बहुत लोकप्रिय हुए। उनका समाजवादी विचारों में अटूट विश्वास था। उनकी धारणा थी कि देश की निर्धनता तथा पिछड़ेपन को दूर करने के लिए स्वराज्य अत्यन्त आवश्यक है। दिसम्बर 1929 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लाहौर में रावी नदी के किनारे पर हुआ। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति का प्रस्ताव पास किया गया। 31 दिसम्बर, 1929 को 200 फुट ऊँचे खम्भे पर विशाल तिरंगा झण्डा फहराया गया। 26 जनवरी, 1930 स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया गया। देश में उत्साह और संघर्ष का वातावरण व्याप्त हुआ। भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति के संघर्ष के लिये तैयार थे।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन

मार्च 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ किया गया। गांधी जी साबरमती से 200


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मील की कठिन पदयात्रा कर गुजरात के समुद्री तट तक डांडी नामक स्थान पर पहुंचे। यहां उन्होंने समुद्र से नमक लेकर सरकार के नमक कानून को भंग किया। यह भारतीयों का विदेशी राज्य के प्रति विरोध का प्रतीक था। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के हितों के विरुद्ध बनाये गये नियमों के विरोध में देश में हड़तालें, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और ‘कर न दो’ आंदोलन शुरु हो गये। महिलाओं ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया।

सरकार ने इस आन्दोलन के दबाने के लिए निष्ठुर दमनचक्र चलाया। लगभग 90,000 सत्याग्रही बन्दी बना लिए गए। गांधी जी को पकड़कर जेल भेज दिया गया। कांग्रेस को अवैध संस्था घोषित किया गया। साथ ही साथ सरकार आन्दोलन से तंग आकर कांग्रेस से समझौता करना चाहती थी।

क्रांतिकारियों ने 23 दिसम्बर, 1929 के दिन दिल्ली के पुराने किले के पास वायसराय लार्ड इरविन की रेलगाड़ी पर बम्ब फेंककर उनकी हत्या करने का प्रयत्न किया। किन्तु लार्ड इरविन बाल-बाल बच गये। इस घटना से ब्रिटिश साम्राज्य दहल गया और लन्दन तक हलचल मच गई। इस बम का निर्माण रोहतक नगर में हुआ था।

प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस - 21नवम्बर, 1930 ई० को प्रथम गोलमेज कांफ्रेंस लन्दन में आरम्भ हुई। इस कांफ्रेंस में राजनीतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों को निमन्त्रित किया गया। कांग्रेस ने इस कांफ्रेंस का बॉयकाट किया। अतः कांग्रेस की अनुपस्थिति के कारण यह कांफ्रेंस असफल रही।

गांधी-इर्विन समझौता - 5 मार्च, 1931 को गांधी जी और वाससराय लार्ड इरविन के बीच एक समझौता हुआ। सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया गया। सरकार ने इस आन्दोलन के समय पास किए गए सब कानून वापिस ले लिए और सब राजनीतिक बन्दियों को मुक्त कर दिया गया।

दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस - 14 सितम्बर, 1931 को लन्दन में दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में गांधी जी ने भाग लिया। परन्तु अंग्रेज सरकार ने कांफ्रेंस की मूल मांग साम्राज्य स्थिति के आधार पर ‘स्वतन्त्रता’ पर कोई ध्यान न दिया। साम्प्रदायिक प्रश्न बहुत अधिक उलझ गया। मुस्लिम लीग तथा कांफ्रेंस संयुक्त रूप से निर्णय पर न पहुंच सके। इस प्रकार गांधी जी खाली हाथ भारत लौट आये। वापिस आने पर गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन पुनः आरम्भ किया। गांधी जी तथा अन्य नेताओं को बन्दी बना लिया गया। लाखों सत्याग्रहियों को जेल में डाल दिया गया। सरकार ने अत्याचार, दमन और पाश्विकता की नीति अपनाई। सरकार धीरे-धीरे सफल हुई और सविनय अवज्ञा आन्दोलन धीमा पड़ गया। अन्त में कांग्रेस ने इसे 1933 में इसे समाप्त कर दिया।

तृतीय गोलमेज कांफ्रेंस - इसी संघर्ष के दौरान नवम्बर 1932 में तीसरी गोलमेज कांफ्रेंस हुई। कांग्रेस ने इसमें कोई भाग नहीं लिया।

हरयाणा में प्रतिक्रिया

सन् 1932 में राष्ट्रीय नेताओं की इस गिरफ्तारी की हरयाणा में तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। पूरे प्रदेश में सरकार की इस दमन नीति के विरुद्ध रोष फैला। 6 जनवरी 1932 का दिन विरोध-दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया गया और हरयाणा के साहसी स्वतन्त्रता सेनानी फिर सत्याग्रह


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के मार्ग पर चल पड़े। 12 जनवरी, 1932 को पूरे हरयाणा में स्वाधीनता दिवस मनाया गया। इस दिन राव मंगलीराम के नेतृत्व में एक विराट् जुलूस रोहतक में निकाला गया। पुलिस ने जुलूस पर भयंकर लाठीचार्ज किया।

इस क्रान्तिकारी आन्दोलन में प्रमुख जाट नेताओं की गिरफ्तारी -

रोहतक में पंडित श्रीराम शर्मा, राव मंगलीराम, चौधरी छाजूराम, चौधरी लक्खीराम आदि को गिरफ्तार किया गया। युवक रामसिंह जाखड़ को एक देशभक्ति की कविता पढ़ने के आरोप में जेल में ले जाकर कोड़ों से पीटा गया। देशभक्त साहसी युवक जाखड़ गोत के जाट रामसिंह और करनाल जिले के जाट पातीराम दोनों रोहतक जिलाधीश की कोठी पर पहुंचे। इन साहसी वीरों ने सन्तरी की नजर बचाकर काठ के जीने से ऊपर चढ़कर ‘यूनियन जैक’ को उतार फैंका और उसके स्थान पर ‘राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा’ लहरा दिया तथा वहीं से ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाने शुरु कर दिये। इस साहसपूर्ण घटना को देखने जिलाधीश की कोठी की ओर लोगों की भारी भीड़ बढ़ आई। जिलाधीश पहले ही पीछे के दरवाजे से कोठी से बाहर निकल गये। ये दोनों युवक नारे लगाते हुए नीचे उतरे और बेधड़क शहर की तरफ चल दिये। पुलिस ने भी उन्हें गिरफ्तार करने का साहस नहीं किया क्योंकि उनके पीछे लोगों का भारी जुलूस चला जा रहा था। गिरफ्तार होने पर इन दोनों देशभक्तों एवं साहसी वीरों को बेंतों की सजा मिली।

झज्जर में चौधरी जुगलाल, चौधरी श्योचन्द आदि नेता गिरफ्तार किये गये।

सिरसा में श्री नेकीराम, वर्तमान मुख्यमन्त्री हरयाणा चौधरी देवीलाल तथा इनके बड़े भाई साहबराम, चौधरी गणपत, चौधरी कुन्दन आदि अनेक कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार किया गया। चौधरी देवीलाल तथा उनके बड़े भाई साहबराम का मैदान में आना आन्दोलन के लिए लाभदायक था। सम्भवतः हिसार जिले का यह पहला बड़ा जमींदार घराना है जो राष्ट्रवादी आन्दोलन में आया था।

जिला करनाल में भी आन्दोलन ने तेजी पकड़ी। करनाल की राजनैतिक गतिविधियों में सरदार मानसिंह, चौधरी खजानसिंह, चौधरी अनन्तराम, चौधरी हरनामसिंह, चौधरी मनीराम, चौधरी नाथीराम, चौधरी रामसिंह आदि ने महत्त्वपूर्ण काम किया था। चौधरी मलखानसिंह घरौंडा और चौधरी जगदेवसिंह ने लाहौर जाकर आन्दोलन में भाग लिया था। चौधरी मलखानसिंह का मुलतान जेल में स्वर्गवास हुआ। रिवाड़ी में भी जोरदार आन्दोलन चला। जिन प्रमुख लोगों की गिरफ्तारियां हुईं उनमें सर्वश्री पतराम, चौधरी आत्माराम, चौधरी फूलचन्द, चौधरी टीकाराम, चौधरी प्यारेलाल, चौधरी भगवानसिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

सन् 1932 के सत्याग्रह में सबसे अधिक गिरफ्तारियां तहसील सोनीपत और गोहाना के स्वाधीनता-सेनानियों ने दीं। इस क्षेत्र में कांग्रेस की गतिविधियां तेज करने वालों में महत्त्वपूर्ण लोग उसी तहसील के रहने वाले थे। इन स्वाधीनता-सेनानियों में मदीना निवासी डांगी गोत्र के जाट चौधरी मेहरसिंह कांग्रेस के अग्रणी प्रचारक थे जिन्होंने अपने पूरे क्षेत्र में दिन-रात राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए जोरदार अभियान चलाया था। उसने अनेक बार जेल यात्रा की थी और सरकार के कठोर दण्ड सहे थे। चौधरी भरतसिंह मोखरा निवासी भी यहां के एक कर्मठ कार्यकर्त्ता


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के रूप में मैदान में कूदे थे। गोहाना, सोनीपत, रोहतक और झज्जर तहसीलों में बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां हुईं। अम्बाला जिला भी गिरफ्तारियां देने में अग्रणी रहा।

इसी आन्दोलन के मध्य मास्टर चौधरी नान्हूराम ने सरकारी नौकरी छोड़कर सत्याग्रह में भाग लिया और उन्हें एक वर्ष की सजा हुई। चौधरी बदलूराम ने भी इन्हीं दिनों नम्बरदारी का पद त्याग कर आन्दोलन में भाग लिया और जेल-यात्रा भी की। इसी तरह चौधरी प्यारेलाल और चौधरी दीवानसिंह ग्राम सांघी भी कार्य-क्षेत्र में आए।

इन्हीं दिनों वत्स गोत्र के चौधरी मांगेराम एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में उभर कर सामने आए। उन्होंने हिसार में ‘कीर्ति किसान दल’ की स्थापना की। चौधरी मांगेराम वत्स इस हद तक संघर्षरत हुए कि उन्होंने सम्भवतः देशभक्तों में सब से अधिक जेलें काटीं और ब्रिटिश सरकार का भयंकर दमन सहन किया। आगे चलकर चौधरी मांगेराम वत्स सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख कार्यकर्ता रहे। आन्दोलन के दिनों में ही सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां हरयाणा में पधारे। भारी जनसभाएं हुईं और पंजाब प्रान्त के सभी प्रमुख नेताओं ने इनमें भाग लिया।

'क्रान्तिकारी आन्दोलन में भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौ० चरणसिंह

चौधरी चरणसिंह के राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी जी थे। आपने कांग्रेस पार्टी में रहकर स्वतन्त्रता पार्टी के लिए संघर्ष किए। सन् 1930 में नमक कानून भंग करने पर आपको छः मास के लिए जेल भेजा गया। नवम्बर 1940 ई० में सत्याग्रह आन्दोलन में भाग लेने के कारण आपको एक वर्ष की जेल मिली। आपको DIR के अधीन अगस्त, 1942 में बन्दी बनाया गया और नवम्बर 1943 में छोड़ दिया गया। आप सन् 1929 से 1939 ई० तक गाजियाबाद नगर कांग्रेस समिति के सदस्य रहे और इस दौरान कई पदों पर कार्य किए। आप सन् 1939 से 1948 तक मेरठ जिला कांग्रेस समिति के प्रधान या प्रमुख मन्त्री लगातार रहे। आप 1946 ई० से राष्ट्रीय कांग्रेस समिति (A.I.C.C.) के सदस्य रहे और सन् 1951 से राष्ट्रीय प्रतिनिधि सभा के सदस्य रहे और 1948 से 1956 तक राष्ट्रीय कानून साज सभा के कांग्रेस पार्टी के General Secretary (प्रमुख मंत्री) रहे। सन् 1965 में आपने कांग्रेस पार्टी से अपने सम्बन्ध तोड़ दिये।

उत्तर प्रदेश की जनता पर विशेषकर जाटों एवं किसानों पर चौधरी चरणसिंह का बड़ा भारी प्रभाव था। अतः इस प्रदेश की जनता ने स्वतन्त्रता प्राप्ति आन्दोलनों में बढ़ चढ़कर भाग लिया। सारांश यह है कि दिल्ली के चारों ओर 150 से 200 मील तक के क्षेत्र में जाटों की घनी आबादी है। इन क्षेत्रों में कोई भी जिला या खण्ड ऐसा नहीं है जहां के जाटों ने इन आन्दोलनों में भाग न लिया हो। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध जाटों ने या तो कांग्रेस पार्टी में रहकर अहिंसक आन्दोलन किये या कांग्रेस से अलग रहकर अपने ढ़ंग से हिंसक संघर्ष किये। स्थान के अभाव के कारण सब प्रान्तों के जाटों के नाम तथा उनके संघर्ष कार्य लिखना असम्भव है।

अखिल भारतीय जाट महासभा की स्थापना सन् 1906 में मुजफ्फरनगर (यू० पी०) में हुई। इस जाट महासभा ने देश की स्वतन्त्रता के लिए क्षत्रिय जाट जाति में देशव्यापी कार्यक्रमों द्वारा नवचेतना व स्फूर्ति पैदा की। अलखपुरा से कलकत्ता - दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम जीवन चरित, पृष्ठ 50, लेखक प्रतापसिंह शास्त्री)।


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गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया एक्ट 1935

इस एक्ट का उद्देश्य प्रांतीय सरकार को और अधिक स्वतन्त्रता देना और केन्द्र में एक ऐसा संयुक्त शासन स्थापित करना था, जिसमें प्रान्तों के अतिरिक्त देशी रियासतें भी शामिल हों। मत देने का अधिकार अत्यन्त सीमित था। इस एक्ट द्वारा वायसराय तथा गवर्नरों के अधिकारों में वृद्धि की गई। विदेशी शासन ज्यों का त्यों बना रहा। भारतीयों की आकांक्षाओं को यह एक्ट सन्तुष्ट न कर सका। कांग्रेस इस एक्ट के विरुद्ध तो थी परन्तु फिर भी इसके अन्तर्गत 1937 में होने वाले प्रांतीय कौंसिलों के चुनावों में भाग लिया। कांग्रेस को चुनाव में भारी सफलता प्राप्त हुई। 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों की स्थापना हुई। बाद में दो प्रान्तों में कांग्रेस ने मिली-जुली सरकारों की स्थापना की। केवल बंगाल और पंजाब में गैर कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल कार्य करते रहे। इस समय इन्होंने जनता के हित के लिए बड़ा सराहनीय कार्य किया। राजनीतिक बन्दियों को छोड़ दिया गया। कांग्रेस के नेताओं, विशेषकर जवाहरलाल नेहरू का विश्वास था कि समाजवाद ही भारत की सामाजिक और धार्मिक स्थिति को सुधार सकता है। वे 1936-37 में कांग्रेस के प्रधान चुने गये थे। 1925 में साम्यवादी दल की स्थापना हो चुकी थी, जिसने इस विचारधारा को बढ़ावा दिया। साथ ही साथ आचार्य नरेन्द्रदेव तथा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। ये सब दल समाजवाद के प्रसार में संलग्न रहते। कांग्रेस ने विश्व की घटनाओं में अधिक भाग लिया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद का विरोध इसका प्रमुख लक्ष्य था। एशिया और अफ्रीका में होने वाले राष्ट्रीय आंदोलनों के प्रति सहानुभूति तथा सहयोग प्रदर्शित किया। स्वतन्त्रता, प्रजातन्त्र और समाजवाद कांग्रेस की नीति के मूल आधार बने।

इसी समय भारतीय देशी रियासतों में भी राष्ट्रीय आंदोलन प्रकट हुए। इन रियासतों में जनता अत्यन्त हीन तथा पददलित अवस्था में थी। लोगों के प्रजातन्त्रात्मक शासन और अधिकारों की प्राप्ति के लिए आंदोलन जोरों पर थे।

हरयाणा प्रान्त में जिन रियासतों में जनता ने नवाबों एवं राजाओं के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किये – लोहारू कांड, नारनौल, जींद, दादरी, फरीदकोट, बावल, नाभा, दुजाना आदि। इन संघर्षों में जाटों ने बड़ी भारी संख्या में भाग लिया। दूसरी जातियां नाममात्र ही थीं। इन आन्दोलनों में आर्यसमाज का बड़ा योगदान रहा। कश्मीर, हैदराबाद, जयपुर, राजकोट और अन्य रियासतों में भी आन्दोलन जोरों पर थे। हैदराबाद के आन्दोलन में सबसे अधिक हरयाणा के आर्यसमाजियों ने भाग लिया जो लगभग सभी जाट थे। देश के अन्य कई प्रान्तों के आर्यसमाजियों तथा हिन्दुओं ने भी अपना योगदान दिया। कांग्रेस पार्टी ने इन आंदोलनों का समर्थन किया। 1938 में कांग्रेस ने देशी रियासतों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति का लक्ष्य बनाया।

पाकिस्तान बनाने की मांग - इसी समय मुस्लिम लीग की शक्ति बढ़ने लगी। प्रसिद्ध मुसलमान लेखक सर मुहम्मद इक़बाल ने 1930 में पाकिस्तान का प्रस्ताव रखा। मुस्लिम लीग ने मुहम्मद अली जिन्हा के नेतृत्व में कांग्रेस का कड़ा विरोध करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने कहा - “हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र हैं।” 1940 में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक पृथक् देश


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‘पाकिस्तान’ की मांग रखी। हिन्दू महासभा ने भी साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया। अतः साम्प्रदायिकता पनपने लगी।

द्वितीय विश्वयुद्ध और राष्ट्रीय आन्दोलन - 1 सितम्बर, 1939 में जर्मनी के पोर्टलैण्ड पर आक्रमण कर देने से द्वितीय विश्वयुद्ध की आग भड़क उठी। इंग्लैण्ड ने जर्मनी के इस कार्य का विरोध किया और 3 सितम्बर को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। भारत के वायसराय ने बिना पूछे ही घोषणा कर दी कि भारत भी जर्मनी के विरुद्ध इंग्लैण्ड का साथ दे रहा है। वायसराय ने गांधी जी को बुलाया और युद्ध में सहयोग देने को कहा। उन्होंने कहा कि “विदेशों में जाकर हमारे जवानों में दूसरों के प्रभाव से देश स्वतन्त्रता और देशभक्ति की भावना ज़ोर पकड़ेगी और समय आने पर आज़ादी प्राप्ति के लिए अंग्रेज़ों को देश से बाहर निकाल सकेंगे।” हुआ भी ऐसा ही।

सन् 1941 में जापान भी युद्ध में कूद पड़ा, जो अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रहा था। जापान शीघ्र ही फिलीपाइन्स, हिन्द-चीन, मलेशिया और बर्मा को रोंदता हुआ भारत के निकट आ पहुंचा। अंग्रेजों की स्थिति नाजुक थी। अतः वे भारतीयों की सहायता के इच्छुक थे। भारत का सहयोग पाने के लिए मार्च 1942 में इंग्लैण्ड की सरकार ने सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को समझौता करने के लिए भारत भेजा। कांग्रेस की मांग थी कि शासन के अधिकार तुरन्त ही भारतीयों को सौंप दिये जायें और फिर भारत युद्ध में अंग्रेजों को पूर्ण सहयोग देगा। अंग्रेजों को यह मांग स्वीकार न थी। इस प्रकार क्रिप्स मिशन असफल रहा।

कांग्रेस ने अपने सदस्यों को केन्द्रीय विधान सभा से हटा लिया। 22 अक्तूबर, 1939 को कांग्रेसी मंत्रियों ने त्याग-पत्र दे दिये थे। इसके बाद प्रान्तों में गवर्नरों का निरंकुश शासन स्थापित हो गया।

अंग्रेज भारत छोड़ो की घोषणा - क्रिप्स मिशन के असफल होने के बाद भारतीयों ने अंग्रेजों को स्वतन्त्रता प्रदान करने के लिए बाध्य किया। गांधी जी ने 14 जुलाई, 1942 ई० को कांग्रेस कार्य समिति की सभा बुलाई, जिसमें “भारत छोड़ो आंदोलन” आरम्भ करने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया। बम्बई में हुई एक विशाल जनसभा में 9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी ने घोषणा की कि “British Quit India” अर्थात् “अंग्रेजो भारत छोड़ो”। साथ ही महात्मा जी ने बड़े ही ओजस्वी भाषण में कहा - “करो या मरो।” उनके नेतृत्व में अहिंसात्मक सत्याग्रह शुरु हुआ, परन्तु तुरन्त ही अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी तथा अन्य सभी कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्त्ताओं को बन्दी बना लिया। कांग्रेस को गैर-कानूनी संस्था घोषित किया गया। नेताओं के पकड़े जाने पर देश में गड़बड़ी मच गई। हड़ताल और प्रदर्शनों के अतिरिक्त लोग हिंसा का अनुसरण करने लगे। आन्दोलन नेतृत्वविहीन हो गया। सरकारी भवन जलाये गये, खजाने लूट लिये गये, टेलीफोन की तार की लाइनें काट दी गईं और रेलवी लाइनें उखाड़ दी गईं आदि। उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि में अंग्रेजी हकूमत लगभग समाप्त हो गई। क्रांतिकारी फिर उभर पड़े।

सरकार ने दमन की नीति अपनाकर अत्याचार किये तथा कांग्रेस को कुचलने के पूर्ण प्रयत्न किये। पुलिस और सेना ने क्रूरता एवं नृशंसता से इस आंदोलन को दबा दिया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों की निरंकुशता के विरुद्ध 21 दिन का उपवास आरम्भ किया। गांधी जी का स्वास्थ्य खराब


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हो जाने के कारण उन्हें जेल से छोड़ दिया गया। स्वतन्त्रता के लिए कोई भी उपाय सफल न हो सका। इस आंदोलन के कारण अंग्रेज एवं मुस्लिम लीग में समझौता हो गया, जिससे कांग्रेसी इन दोनों के ही विरोधी हो गये।

हरयाणा प्रान्त में तोड़-फोड़ की घटनाएं - (1) रेलवे स्टेशन को पूर्ण तथा आंशिक क्षति = 4, (2) डाकघरों पर आक्रमण = 11, (3) तार काटने की वारदातें = 45. (4) रेल की पटड़ी उखाड़ने की वारदातें = 6, (5) पुलिस स्टेशनों तथा सरकारी भवनों पर आक्रमण = 8 ।

यह प्रश्न उठता है कि कांग्रेस तो अहिंसावादी संस्था थी फिर तोड़-फोड़ क्यों हुई? सब नेताओं के जेल चले जाने पर भी आन्दोलन किसने चलाया। वस्तुतः लगभग सारी तोड़-फोड़ नया वर्ग, जिसमें किसान और मजदूर थे, कर रहा था। याद रहे किसानों में जाटों की भी काफी संख्या थी। इसके नेता वत्स जाट गोत्री चौधरी मांगेराम, चौधरी लछमनसिंह, चौधरी लेखराम वैद्य, चौधरी शिशपालसिंह, राधाकृष्ण और रामकुमार बिधाट आदि थे। ये नेता काफी समय तक भूमिगत रहकर काम करते रहे। परन्तु 1942 के मध्य तक ये सब पकड़े गए। ऐसी स्थिति में जनता का नेतृत्व दूसरी पंक्ति के नेताओं द्वारा हुआ। इस आंदोलन में शहरों और गांवों का प्रत्येक वर्ग भाग ले रहा था। किसान सविनय अवज्ञा आंदोलन की अपेक्षा इस आंदोलन में अधिक संख्या में शामिल थे, पर फिर भी इनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी क्योंकि उनका बड़ा भाग अब भी चौधरी सर छोटूराम की जमींदार पार्टी के प्रभाव में ही था, जो कि अपने ढंग से पंजाब के किसानों और मजदूरों को हर तरह से उन्नत करके स्वतन्त्रता प्राप्ति के योग्य बना रहे थे।

अंग्रेज सरकार ने भी हिंसा का जवाब हिंसा से दिया। पुलिस और फौज की सहायता से इस आंदोलन को सख्ती से दबा दिया गया। इस क्रांति में भारतवर्ष में प्रायः 6-7 हजार मनुष्य मरे, एक लाख से ज्यादा जेलों में गये, 50 गांव वीरान कर दिये गये। इस क्रान्ति में लगभग 4 करोड़ व्यक्तियों मे खुले रूप में भाग लिया। महिलाओं का योगदान भी बड़ा सराहनीय है।

देश की आजादी के लिए दूसरा मोर्चा आजाद हिन्द फौज

देश से बाहर जाकर आजाद हिन्द फौज की स्थापना करने वाले क्रमशः इस प्रकार थे -

  1. ठेनुआं जाट गोत्र के स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेन्द्रप्रताप
  2. सिंधु गोत्र के जाट सरदार अजीतसिंह
  3. देशभक्त रासबिहारी बोस।
  4. जाट सिख कैप्टन मोहनसिंह
  5. महान् क्रान्तिकारी देशभक्त नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

इस अध्याय के यहां तक के वृत्तान्त में आधार पुस्तकें - हरियाणा का इतिहास भाग 3 लेखक के० सी० यादव; स्वाधीनता संग्राम और हरियाणा, लेखक देवीशंकर प्रभाकर;

भारत का इतिहास, हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी; जगदेवसिंह सिद्धान्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री; सुधारक बलिदान विशेषांक, लेखक आचार्य भगवानदेव; जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत का इतिहास, Paper B.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-846


1. स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेन्द्रप्रताप - राजा महेन्द्रप्रताप अपने राज्य के आनन्द को छोड़कर अपने देश की आजादी के लिए विदेशों में 32 वर्ष प्रयत्न करते रहे। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वे 10 फरवरी 1915 को मोहम्मद पीर का नाम धारण किए स्विटजरलैण्ड से बर्लिन आये थे। जर्मनी की मदद से भारत की आजादी के आन्दोलन को प्रगति देने के लिए यहां पहुंचे थे। जर्मनी के अधिपति विल्हैल्म द्वितीय ने उनका स्वागत किया। ठीक दो महीने बाद आप अफगानिस्तान पहुंचे। आपने 2 अक्तूबर 1915 को जर्मनी के कैसर का व्यक्तिगत पत्र अफ़ग़ानिस्तान के शाह अमीर हबीबुल्ला को दिया। काबुल में 1 दिसम्बर, 1915 को ‘भारत की स्वतन्त्र सरकार’ की घोषणा कर दी जिसके वे स्वयं राष्ट्रपति और बर्कतुल्लाह प्रधानमन्त्री तथा उबैदुल्ला अन्तर्देशीय मन्त्री बने। इस स्वतन्त्र भारत की प्रथम सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान के बादशाह के साथ सन्धि की।

प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की विजय के कारण अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने उन्हें काबुल से हटाकर मजारे शरीफ भेज दिया जहां से वे रूस, तुर्की गये परन्तु उन सरकारों ने मदद नहीं की। इस महेन्द्रप्रताप सरकार को जर्मनी में बसे भारतीय परिवारों का पूरा और सक्रिय सहयोग प्राप्त था। जिसमें सरोजिनी नायडू के भाई क्रान्तिकारी वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय, पत्रकार राकन पिल्ले और अतिवादी लाला हरदयाल भी शामिल थे। 12 मार्च 1918 में पीटर्सबर्ग में जब रूस की प्रथम क्रान्ति का वार्षिक उत्सव मनाया था, उसमें राजा साहब विशिष्ठ अतिथि थे। राजा महेन्द्रप्रताप के ओजस्वी भाषण ने लोगों को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन को एक नया रूप दिया। “भारत-रूस-जर्मनी संघ” की स्थापना हुई। सन् 1918 में बर्लिन की महती जनसभा में भाषण देने के लिए वे भारत की निष्काषित सरकार के राष्ट्रपति की पोशाक पहनकर मंच पर प्रकट हुए थे। वे जगमगाता साफा बांधे हुए थे और अपनी पताका जिस पर लाल गरुड़ का चिह्न अंकित था, लिए हुए थे। सच तो यह है कि सारे यूरोप भर में उनका रोमानी व्यक्तित्व जाना माना था। रूस के जार से लेकर लेनिन तक उनका परिचय था। राजा साहब जहां भी गये, वहां भारत की आजादी के ही प्रयत्न करते रहे। उनका उद्देश्य था कि शस्त्र के बल पर भारत को आजाद कराया जाये, फिर संसार के सब देशों की मिली-जुली एक ही सरकार स्थापित की जाये जिस से धार्मिक भेदभाव एवं आपसी युद्ध सदा के लिए समाप्त हो जायें। इस कार्य के लिए उन्होंने देश के भीतर तथा बाहर भारतीय सैनिकों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करने के प्रयत्न किए और विदेशों से सहायता मांगी।

1925 ई० में राजा साहब कैलीफोर्निया अमेरिका में आए और वहां के भारतीयों की मदद से जापान चले गये। वहां उन्होंने एक नई संस्था कायम की जिसका नाम “आजाद हिन्द संघ” था। राजा साहब स्वयं उसके प्रधान बने और रासबिहारी बोस उपप्रधान बने। बाबू आनन्दमोहन सहाय उसके महामन्त्री थे। जापान से वे चीन तथा उत्तरी तिब्बत भी गये।

द्वितीय महायुद्ध के अन्त में जापान की हार के समय वे जापान में ही थे। इस युद्ध के दौरान राजा साहब ने भारतीय सेना के युद्ध बन्दियों की एक ‘आजाद हिन्द सेना’ की स्थापना की थी, जो बीच में शिथिल हो जाने पर कैप्टन मोहनसिंह और फिर नेताजी सुभाष ने पुनर्गठित की। 1946 में आप भारत लौट आए। [[रहबरे-आजम स्मारिका 1985-86, पृ० 43-45, प्रकाशक - दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम मिशन, खेड़ी जट (रोहतक)। (अधिक जानकारी के लिए देखो, नवम अध्याय, स्वतन्त्रता सेनानी राजा महेन्द्रप्रताप प्रकरण)।


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2. सरदार अजीतसिंह - प्रथम विश्व महायुद्ध के समय सरदार अजीतसिंह ने इटली में आजाद हिन्द सरकार की स्थापना ‘आजाद हिन्द लश्कर’ के नाम से की थी। इस दिशा में इटली में ही जाट बाबा लाभसिंह और इकबाल शैदाई के प्रयत्न प्रशंसनीय हैं। (नेताजी सुभाष दर्शन - श्रीकृष्ण ‘सरल’, पृष्ठ 124)। (अधिक जानकारी के लिए देखो, दशम अध्याय, सरदार अजीतसिंह प्रकरण)।

3. रासबिहारी बोस, 4. कैप्टन मोहनसिंह के विषय में जानकारी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रसंग में लिखी जायेगी।

5. महान् क्रान्तिकारी देशभक्त नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - नेताजी के विषय में संक्षिप्त वर्णन किया जाएगा, केवल अधिकतम आवश्यक घटनाओं की जानकारी दी जाएगी। इनके विषय में सारे संसार के मनुष्य भली-भांति परिचित हैं। विद्रोही सुभाष का विद्रोही गुरु देशबन्धु चितरंजनदास था और उनकी पत्नी श्रीमती वासन्ती देवी ने सुभाष को प्रभावित किया। पहली जेल 26 जनवरी 1925 से 15 मई 1927 तक बर्मा की मांडले में काटी। सन् 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये। 19, 20, 21 फरवरी 1938 का यह कांग्रेस का 51वां अधिवेशन था। 10-12 मार्च 1939 को कांग्रेस के 52वें अधिवेशन में त्रिपुरा (जबलपुर) में आप फिर कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये। 29 अप्रैल 1939 को आपने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर, 3 मई, 1939 को कलकत्ता में ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की घोषणा कर दी। आपके आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द जी थे। भारत छोड़ने से पहले आपने वीर सावरकर से मिलकर महत्त्वपूर्ण बातों पर वाद-विवाद किया था। जेल से मुक्त करने के बाद अंग्रेज सरकार ने आपको कलकत्ता में उनके तीन मंजिले भवन में नजरबन्द कर दिया, जिसको 62 सरकारी पहरेदार दिन-रात घेरे रहते थे। सबको चकमा देकर, 1941 ई० में 16 जनवरी की रात के 12 बजे सुभाष मौलवी के रूप में, उस भवन से निकल गये और काबुल पहुंच गये। वहां पर भगतराम (जिसने अपना नाम रहमत खान रख लिया था) और उसके मित्र उत्तमचन्द मलहोत्रा ने आपकी काफी सहायता की। आप इटली के दूतावास की सहायता से रूस पहुंचे। सुभाष 28 मार्च, 1941 को मास्को से वायुयान द्वारा बर्लिन के लिए रवाना हुए और 3 अप्रैल को वहां पहुंच गये। आपकी मुलाकात हर हिटलर से हुई, जिसके दफ्तर में आप बड़ी निडरता से गये। इस ऐतिहासिक पुरुष का स्वागत करते हुए हर हिटलर ने अपनी भाषा में कहा -

“मैं फाइज इण्डीशेफूहरर का जर्मनी में स्वागत करता हूं और श्रीमान् के बर्लिन में सुरक्षित पहुंचने पर हार्दिक बधाई देता हूं।” जर्मन भाषा के ‘फाइज इण्डीशेफूहरर’ का अर्थ होता है ‘आजाद हिन्द के नेता’। तभी से बोस नेताजी के नाम से पुकारे जाने लगे। जर्मनी में जो ‘आजाद हिन्द संघ’ का संविधान बना था उसमें भी यही प्रावधान रखा गया था कि श्री बोस को नेताजी कहकर पुकारा जाए और पारस्परिक अभिवादन के लिए ‘जय हिन्द’ का प्रयोग हो। आजाद हिन्द का राजचिह्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का तिरंगा झण्डा था। चरखे के स्थान पर छलांग मारते हुए शेर का चित्र था। यह इस भावना के साथ किया गया था कि अपने देश की आजादी दान या भीख के रूप में नहीं लेंगे बल्कि शेर की तरह झपटकर आजाद हिन्द फौज के बल से ब्रिटिश शासन पर झपटेंगे और अपनी आजादी शत्रु से छीनकर लेंगे। द्वितीय महायुद्ध में जर्मनी ने जो भारतीय सैनिक बन्दी बनाये थे उनका नेताजी ने आजाद हिन्द संघ बनाया जो ‘आजाद हिन्द सरकार’ के समान ही था। इसके संचालक एवं सेनापति स्वयं नेताजी थे। आजाद हिन्द फौज के लिए तमगों


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और उपाधियों की भी व्यवस्था की गई थी। ‘वीर-ए-हिन्द’ और ‘शेर-ए-हिन्द’ की उपाधियां दी जाती थीं। कभी-कभी जर्मन सरकार भी भारतीय सैनिकों को ‘आयरन क्रास’ देकर सम्मानित करती थी। ‘वीर-ए-हिन्द’ की उपाधि तीन सैनिकों को मिली थी - 1. जाट पदमसिंह 2. इशाक 3. अल्लावर खां। भारत आजाद होने पर जो नेताजी के नाम पर डाक टिकट वहां जारी होनी थी वह पहले ही जर्मनी में तैयार कर ली गई थी।

जर्मन सेना के साथ मिलकर नेताजी की आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेज सेनाओं के विरुद्ध कई स्थानों पर युद्ध किए। जर्मनी में रहते हुए नेताजी ने फिलिस्तीन के क्रान्तिकारी नेता मुफ्ती-ए-आजम, हाजी अमीर उलहुसनी (यरुशलम) और इराक के क्रान्तिकारी नेता रशीद अली गिलानी से मेलजोल किया। नेताजी का लक्ष्य शस्त्र बल पर भारत को आजाद कराना था।

जब नेताजी सन् 1941 में जर्मनी पहुंचे थे तो उन्होंने वहां एक आस्ट्रिया की राजधानी वियेना की रहने वाली सुन्दरी एवं गुणवान लड़की कुमारी एमिली शैंकल (Emilie Schenkl) के साथ हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर लिया। जर्मनी की अदालत में शादी की रजिस्ट्री कराई गई। उनके यहां अनीता बोस नामक पुत्री ने जन्म लिया। उधर पूर्व में जापान की सहायता से सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज की स्थापना दिसम्बर 1941 में हो चुकी थी जिसका संचालन कैप्टन मोहनसिंह कर रहे थे। यह कार्य मन्द पड़ने के कारण श्री रासबिहारी बोस ने जापान सरकार द्वारा नेताजी को जर्मनी से जापान बुलाया। नेताजी ने वहां जाना स्वीकार कर लिया और जाने से पहले वहां के ‘आजाद हिन्द संघ’ का संचालन एक योग्य कमांडर श्री एन० जी० गनपुले (N.G. Ganpuley) को नियुक्त कर दिया। जर्मनी से जाते समय नेताजी यह व्यवस्था कर गये थे कि आजाद हिन्द फौज को जर्मनी से हटाकर हालैण्ड स्थानान्तरित कर दिया जाए। 5 महीने तक हालैण्ड में तटरक्षा के प्रशिक्षण के बाद आज़ाद हिन्द फौज को फ्रांस के तट पर भेजा गया। अटलांटिक तट की रक्षा किलेबन्दी का निरीक्षण जब जर्मनी के फील्ड मार्शल रोमेल ने किया तो उन्होंने भारतीय आजाद फौजियों की बड़ी प्रशंसा की और उनमें इस प्रकार की भावना भर देने का श्रेय नेताजी को दिया। फ्रांस की भूमि से हमारी आजाद हिन्द फौज को इटली के मोर्चों पर भेजा गया। वहां उनका ब्रिटिश भारतीय सेनाओं के साथ प्रचारात्मक युद्ध हुआ। काफी पर्चे तोपों द्वारा दाग कर या वायुयानों से ब्रिटेन की ओर से लड़ने वाली भारतीय सेना पर फैंके गए। आज़ाद हिन्द फौज की ओर से इन पर्चों पर लिखा गया था कि “भारतीय भाइयो, हमारे शत्रु अंग्रेज हैं, न कि जर्मनी आदि। इन अंग्रेजों को मारकर अपने देश भारत को आजाद कराओ। आप हमसे युद्ध क्यों कर रहे हो, हम तो आपके भाई हैं। अच्छा तो यह होगा कि आप भी अंग्रेजों का साथ छोड़कर हमारी आज़ाद हिन्द फौज में सम्मिलित हो जाओ।” इसका प्रभाव यह हुआ कि बहुत बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक अंग्रेज सेना से टूटकर आजाद हिन्द फौज में मिल गये। दूसरे भारतीय सैनिकों को जब भी ठीक अवसर मिला तो उन्होंने गोरी सेना पर गोलाबारी की। इसके उदाहरण अगले प्रकरण में लिखे जायेंगे।

इस तरह यहां की आजाद हिन्द फौज की बड़ी संख्या हो गई थी। याद रहे कि इनमें जाट सैनिक बहुत थे।

जब नेताजी जर्मनी से चले तब उनकी पुत्री अनीता बोस केवल दो महीने की थी। 8 फरवरी


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1943 को नेताजी ने जर्मनी की कील बन्दरगाह से एक जर्मन पनडुब्बी (Submarine) द्वारा अपनी यात्रा आरम्भ की। उनके साथी आबिद हसन इस पनडुब्बी में जापान तक आए थे। पनडुब्बी के कप्तान और चालकों को सख्त हिदायत दी गई थी कि लम्बी एवं खतरनाक समुद्री यात्रा में नेताजी सुरक्षित रहें।

नेताजी को लिये हुए जर्मन पनडुब्बी ग्रेट ब्रिटेन के समुद्र के तट का चक्कर लगाकर और अफ्रीका के समुद्र में से निकलकर गुडहोप अन्तरीप होती हुई दक्षिण मदगास्कर से लगभग 400 मील किसी स्थान पर 28 अप्रैल 1943 ई० को पहुंची। निश्चित योजना के अनुसार जापानी पनडुब्बी भी वहां पहुंच गई। नेताजी एवं उनके साथी उस जापानी पनडुब्बी में बड़ी कठिनाई से जाकर बैठ गये और टोकियो पहुंच गये।

टोकियो में प्रधानमन्त्री जनरल तोजो ने नेताजी का स्वागत किया।

श्री तोजो ने कहा कि “अब एशिया, एशिया निवासियों का है।”

नेताजी ने कहा कि “हमने किसी भी कीमत पर भारत को आज़ाद कराना है।”

आकाशवाणी टोकियो से 21 जून 1943 को नेताजी ने अपना पहला भाषण प्रसारित करते हुए कहा - “हमारी आजादी के लिए किसी समझौते की गुंजाइश नहीं है। जो लोग वास्तव में आजादी चाहते हैं, उन्हें इसके लिए लड़ना चाहिए और अपने खून से उसकी कीमत चुकानी चाहिए। हमें चाहिए कि हम अडिग विश्वास के साथ लड़ाई तब तक चालू रखें जब तक अंग्रेजी साम्राज्यवाद का नाश न हो जाए और उसकी राख में से एक स्वाधीन राष्ट्र का उदय न हो जाए। इस संघर्ष में पीछे हटने या लड़खड़ाने का प्रश्न ही नहीं उठता। हम आगे ही बढ़ते जायें जब तक विजय प्राप्त न हो जाये और आजादी की मंजिल न मिल जाए।”

यह पहले लिख दिया गया है कि देशभक्त क्रांतिकारी श्री रासबिहारी बोस भारतवर्ष से विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ जहाज द्वारा जून 1915 में जापान पहुंच गये थे। वहां एक जापानी महिला से विवाह करके जापान देश की नागरिकता प्राप्त कर ली थी।

जब इंग्लैंड और जापान के बीच 8 दिसम्बर 1941 को युद्ध छिड़ गया तो श्री रासबिहारी बोस ने भारत की आज़ादी के लिए “आज़ाद हिन्द संघ” की स्थापना की। वे स्वयं इसके अध्यक्ष बने थे। इस युद्ध में सिक्ख जाट कैप्टन मोहनसिंह अपनी 14वीं पंजाब रेजीमेन्ट की प्रथम बटालियन के साथ मलाया पहुंचे। वहां इनकी बटालियन जापानियों के साथ युद्ध में छिन्न-भिन्न हो गई और बन्दी बना लिये गये। बैंकाक के ज्ञानी प्रीतमसिंह ने इनकी भेंट जापानी मेजर फूजीवारा से करा दी। उसने इनको जापानी सेनापति से मिलाया। I.N.A. (आज़ाद हिन्द फौज) के निर्माण की बातें हुईं। कैप्टन मोहनसिंह ने कुछ शर्तें रखीं जो स्वीकार की गईं। इस तरह रासबिहारी बोस तथा अन्य प्रवासी भारतीयों के प्रयत्न से दिसम्बर 1941 में आजाद हिन्द फौज का निर्माण हो गया और कैप्टन मोहनसिंह को जनरल-आफिसर-कमांडिंग नियुक्त किया गया। दफ्तर सिंगापुर रहा। युद्ध परिषद् का गठन किया गया। कैप्टन मोहनसिंह को जनरल के पद पर पदोन्नत किया गया।


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जनरल मोहनसिंह के कहने के अनुसार उसकी आज़ाद हिन्द फौज की संख्या 20,000 सैनिकों की थी, जिनमें तीसरे हिस्से के सिक्ख सैनिक थे।1 (यानी 6666 सिख सैनिक)।

यहां पर एक बात समझ लेने की है कि भारतीय सेना में जितनी भी सिक्ख बटालियनें हैं, उन में लगभग सभी सिक्ख जाट हैं। इनके अतिरिक्त जनरल मोहनसिंह की आज़ाद हिन्द फौज में हिन्दू जाट भी लगभग सिक्ख सैनिकों जितने ही थे। सो स्पष्ट है कि इस सेना में जाटों की संख्या आधी अवश्य थी।

जापान सरकार ने जनरल मोहनसिंह के साथ आज़ाद हिन्द फौज के संचालन के लिए जो शर्तें स्वीकार की थीं, उनको जापान सरकार ने ठीक तरह से नहीं निभाया जिससे आज़ाद हिन्द फौज की गति मन्द पड़ गई और एक तरह से ठप्प पड़ गई। इसी कारण श्री रासबिहारी बोस ने नेताजी को योग्य समझकर जर्मनी से जापान बुलाया था।

2 जुलाई, 1943 को सिंगापुर की भूमि पर भारत की मुक्तिवाहिनी आज़ाद हिन्द फौज ने नेताजी का स्वागत किया। उनके साथ मेजर जनरल जगन्नाथ राव भोंसले और महान् क्रांतिकारी श्री रासबिहारी बोस भी थे। रासबिहारी बोस ने वहां ‘इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग’ और ‘इण्डियन नेशनल एसोसिएशन’ नाम के संगठनों की स्थापना की थी। बाद में ‘इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग’ ने ही आजाद हिन्द संघ का रूप धारण कर लिया। इस संघ के अध्यक्ष रासबिहारी बोस स्वयं ही थे। इस संघ की शाखायें मलाया, फिलीपीन्स, थाईलैंड, डच ईस्ट-इण्डीज, फ्रैंच इण्डोचीन, शंघाई, बर्मा, कोरिया और मंचूरिया में भी स्थापित की गईं थीं।

सिंगापुर में श्री रासबिहारी बोस ने घोषणा की - “मैं अपने पद का त्याग करता हूं और देश सेवक सुभाषचन्द्र बोस को पूर्व एशिया के ‘आजाद हिन्द संघ’ के अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित करता हूं। आज से ये आपके सभापति हैं, आपके नेता हैं।”

4 जुलाई, 1943 को नेताजी ने अध्यक्ष-पद सम्भाल लिया और कहा -

“हम लोग अपनी आज़ादी की कीमत अपने खून से चुकायेंगे और ऐसा करके हम राष्ट्रीय एकता की आधारशिला रखेंगे। यदि हम अपने बलिदानों और खून से आज़ादी अर्जित करेंगे तो हम उसकी रक्षा भी कर सकेंगे।” उनका निश्चय था कि वे देश के लिए जीयेंगे और देश के लिए मरेंगे।

5 जुलाई, 1943 को नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज का निरीक्षण किया और घोषणा की - “भारत को आज़ाद कराने वाली फौज खड़ी हो गई है।”

6 जुलाई 1943 को जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदैकी तोजो सिंगापुर पहुंचे। उनके सम्मान में आज़ाद हिन्द फौज की परेड आयोजित की गई।

9 जुलाई 1943 को सिंगापुर के नगर भवन के सामने एक विशाल सभा हुई। लगभग 60 हजार फौजी और नागरिक इसमें सम्मिलित हुए। इनमें 25000 महिलायें थीं।

इस विशाल सभा को नेताजी ने अपने प्रभावशाली भाषण में कहा कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। चलो दिल्ली।” उन्होंने यह भी कहा कि अभी से आप एक हो। अपनी जाति-पाति को भूल जाओ। तुम सब हिन्दुस्तानी हो और हिन्दुस्तानी तुम्हारी जाति एवं धर्म है।


1. Amritsar Mrs. Gandhi's Last Battle, P. 34. Mark Tully and Satish Jacob.


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पारस्परिक अभिवादन के लिए ‘जय हिन्द’ का प्रयोग करो। उसी दिन से अनेक धर्मों के भारतीय सैनिकों का खान-पान एक हो गया और ‘जय हिन्द’ का प्रयोग आरम्भ हो गया। आज़ाद हिन्द फौज का रणघोष (Battle Cry) “भारत माता की जय, नेताजी की जय” बन गया। नेताजी एवं भारतवर्ष से आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक इतने प्रभावित हो गये कि युद्ध में या बीमारी से मरने वाले सैनिक अपने साथियों को यही कहते थे कि नेताजी को मेरा ‘जय हिन्द’ का संदेश पहुंचा देना। इसके अतिरिक्त वे अपने परिवार तथा रिश्तेदारों को भी भूल गये थे।

12 जुलाई 1943 को सिंगापुर में आजाद हिन्द संघ के महिला विभाग की स्थापना की गई। इसका नाम रानी झांसी रेजीमेंट रखा गया। 22 अक्तूबर, 1943 को कर्नल लक्ष्मी स्वामीनाथन को इस रानी झांसी रेजीमेंट की कमांडर नियुक्त कर दिया गया।

26 सितम्बर, 1943 को नेताजी अपने फौजी अधिकारियों के साथ बर्मा गये और उन्होंने रंगून में स्थित भारत के अन्तिम मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह जफर की समाधि पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। फूल चढ़ाकर नेताजी ने कहा - “हम आपका बदला चुकायेंगे। हम भूले नहीं हैं दिल्ली के वे लाल दिन।” नेताजी ने सम्राट् की समाधि की अच्छी तरह मरम्मत भी कराई।

21 अक्तूबर, 1943 को सिंगापुर में नेताजी ने भारत की अस्थायी आज़ाद हिन्द सरकार (Interim Government) की स्थापना कर दी। नेताजी ने इस अन्तरिम सरकार के राष्ट्राध्यक्ष और प्रधानमन्त्री पद की शपथ ग्रहण की। श्री रासबिहारी बोस ने कहा - “आज मेरा दूसरा भाई बोस, उम्र में मुझसे छोटा, पर हौंसले में मुझ से आगे, मसीहा बनकर इन्सानियत पर लगे घावों को आजादी के फाहे (मरहम पट्टी) से ठीक करने आया है। हम 30 लाख नंगे भूखे प्रवासी भारत की आज़ादी के पैगम्बर का स्वागत करते हैं।” नेताजी ने अन्तरिम आज़ाद हिन्द सरकार और आज़ाद हिन्द फौज का संगठन किया तथा अपने मन्त्रिमण्डल का निर्माण करके विभागों का वितरण कर दिया। सेना के विभागों के कमांडर भी नियुक्त कर दिये। ब्यौरा इस प्रकार है -

अन्तरिम आज़ाद हिन्द सरकार

आजाद हिन्द फौज - 1. प्रथम डिविजन 2. द्वितीय डिविजन 3. तृतीय डिविजन 4. कमांड ट्रुप्स 5. आफीसर ट्रेनिंग स्कूल 6. रानी झांसी रेजीमेंट 7. बाल सेना ।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - 1. राष्ट्राध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री, 2. आजाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमांडर 3. अध्यक्ष ।

विभाग - 1. मन्त्रालय 2. युद्ध 3. वित्त 4. राजस्व 5. वैदेशिक 6. जनशक्ति 7. विधान 8. प्रचार-प्रसार 9. नारी कल्याण*

  • नारी कल्याण विभाग लैफ्टिनेन्ट कर्नल डा० लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया।

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क्षेत्रीय शाखायें - 1. थाईलैंड 2. इण्डोचीन 3. चीन 4. मंचूरिया 5. जावा 6. सुमात्रा 7. बोर्नियो 8. फिलिपीन्स 9. जापान ।

समाचार पत्र, सं सूचनायें, आकाशवाणी केन्द्र - 1. रंगून 2. बैंकाक 3. सिंगापुर 4. साईगोन 5. टोकियो। आजाद हिन्द संघ के 24 विभाग थे जैसे जांच, जासूसी, सूचनाएं, शिक्षा, श्रम, निर्माण, नेताजी कोष समिति आदि-आदि।

कुछ ही दिनों में जापान, जर्मनी, इटली, बर्मा, थाईलैंड, राष्ट्रवादी चीन, फिलिपीन्स, मंचूरिया आदि देशों ने आज़ाद हिन्द सरकार को मान्यता दे दी।

24 अक्तूबर 1943 रात्रि के 12 बजकर 5 मिनट पर सिंगापुर रेडियो से ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गई। आज़ाद हिन्द फौज के सभी सैनिकों और सरकार के सभी मन्त्रियों ने इस घोषणा का स्वागत किया। युद्ध की घोषणा का निर्णय उनके मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक में सर्वसम्मति से लिया गया था।

यह सूचना बिजली की तरह सभी देशों में फैल गई। इससे अंग्रेज व अमेरिका घबरा गये परन्तु भारतीय जनता तथा अंग्रेजी भारतीय सेनाओं में अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा और देश को आज़ाद कराने की भावना जोर पकड़ गई।

नेताजी ने बालकों का दल मेजर जनरल लोकनाथन के नेतृत्व में युद्ध प्रशिक्षण के लिए टोकियो भेजा था। इस दल ने बड़े साहस के साथ जल सेना और वायु सेना आदि का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। 5 और 6 नवम्बर 1943 को बृहत्तर एशिया सम्मेलन में नेताजी एशिया के सभी राजनीतिज्ञों पर छा गये थे। इस सम्मेलन में नेताजी के 30 मिनट के दिए गए भाषण से सब बड़े प्रभावित हुए। वहां सभी मान गये कि आज के युग में नेताजी के तुल्य, बुद्धिमान्, राजनीतिज्ञ, साहसी वीर, निडर योद्धा, कुशल कार्यकर्त्ता, दूरदर्शी, दूसरा कोई मनुष्य नहीं है।

नेताजी के भाषण के समाप्त होते ही, प्रधानमन्त्री तोजो एकदम खड़े हो गये और जापान सरकार की ओर से उन्होंने अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह, आज़ाद हिन्द सरकार को सौंप देने की घोषणा कर दी। यह सुनकर सभी को हर्ष हुआ। जनरल तोजो ने जब यह कहा कि भारत शीघ्र ही स्वाधीन होगा और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस स्वतन्त्र भारत के सर्वेसर्वा होंगे, तो नेताजी ने कहा कि “मि० तोजो! आपको यह नहीं कहना चाहिए कि मैं स्वाधीन भारत का सर्वेसर्वा बनूंगा। जब भारत आज़ाद हो जाएगा तो इसका निर्णय तो भारतवासी ही करेंगे कि स्वाधीन भारत में मेरी स्थिति क्या होगी।”

इस सम्मेलन के पश्चात् नेताजी को, जापान के धर्मगुरु, सम्राट् हिरोहितो से मिलाने राजमहल में ले गये। यह सम्मान जापान के इतिहास में इने-गिने लोगों (very vew people) को मिला है। जापान के सम्राट् ने नेताजी को एक तलवार भेंट में दी।

आज़ाद हिन्द फौज की संख्या 60,0001 सैनिकों की थी जो कि ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिक


1. हरयाणा का इतिहास, पृ० 192, लेखक के. सी. यादव; नेताजी सुभाष दर्शन, पृ० 187, लेखक श्रीकृष्ण ‘सरल’।


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सिंगापुर, मलाया, बर्मा आदि में जापान ने बन्दी बना लिये थे। नेताजी की इस आज़ाद हिन्द फौज में आधे से भी कुछ अधिक संख्या जाट सैनिकों की थी1 जिनमें हिन्दू जाट अधिक एवं सिक्ख जाट भी शामिल थे। स्थान के अभाव के कारण यह लिखना कठिन है कि इस आज़ाद हिन्द फौज में किस-किस जाट एवं सिक्ख जाट यूनिटों के सैनिक थे। वैसे भी यह बात किसी भी भारतीय सैनिक तथा भारतीय जनता से छिपी हुई नहीं है। इसमें तो कोई सन्देह है ही नहीं कि इस आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक, किसानों के बेटे एवं युद्धवीर (लड़ाका) जाति के वीर थे जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेजों से युद्ध करके अपने खून की बलि दी।

रानी झांसी रेजीमेन्ट इन सैनिकों के अलावा थी, जो प्रवासी महिलाओं ने अपनी इच्छा से सेना में भरती होकर बनाई थी। इस रानी झांसी रेजीमेन्ट में जाट गोत्री युवतियों की बड़ी संख्या थी। यह पहले अध्याय में लिखा गया है कि भारतवर्ष से आर्य एवं क्षत्रिय जाट पूर्व एशिया देशों में भी जाकर आबाद हुए। इनमें आज भी जाट गोत्र के लोगों की बड़ी संख्या है। हो सकता है कि ये लोग आज इस बात को भूल गये हैं, यह एक खोज का विषय है कि इन देशों में आज जाटों की कितनी संख्या है।

आजाद हिन्द फौज युद्ध मोर्चों पर

नेताजी ने अपनी आज़ाद हिन्द फौज को अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए भारत की पूर्वी सीमा की ओर, अलग-अलग मार्गों से कूच करने का आदेश दिया।

29 दिसम्बर 1943 को स्वयं नेताजी अपने कुछ सैनिकों के साथ अण्डमान द्वीप समूह के मुख्यालय पोर्ट ब्लेयर पहुंचे और अपनी मातृभूमि को बड़े प्रेम से देखा। इस द्वीप समूह को सबसे पहले आज़ाद होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां पहुंचने पर जापान के एडमिरल ने नेताजी का अभिवादन किया और उनको अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के शासन की बागडोर सौंप दी। नेताजी ने उसी दिन पोर्ट ब्लेयर के मुख्यालय पर अपने करकमलों से राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा फहराया। नेताजी ने अण्डमान द्वीप समूह का नाम शहीद द्वीप रखा और निकोबार का नाम स्वराज्य द्वीप रखा। 30 दिसम्बर 1943 को पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में नेताजी ने वहां की जनता को भाषण दिया। यह मैदान नेताजी मैदान कहा जाता है।

इस द्वीप समूह पर नेताजी का शासन होने पर उनकी अंतरिम आज़ाद हिन्द सरकार अब वास्तव में एक राष्ट्रीय सरकार बन गई क्योंकि यह द्वीप भारत देश का ही भाग था। नेताजी अण्डमान के आज़ाद हिन्द संघ के अध्यक्ष श्री रामकृष्ण से मिले और वहां श्री दुर्गाप्रसाद से भी मिले। नेताजी ने अपने मन्त्री-मण्डल के एक सदस्य मेजर-जनरल लोकनाथन को अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह का गवर्नर नियुक्त कर दिया।

7 जनवरी 1944 को नेताजी अपने मन्त्री-मण्डल सहित बर्मा की राजधानी रंगून पहुंचे। वहां विमान-स्थल पर नेताजी का स्वागत बर्मा के राष्ट्रपति डॉ० बा० मॉ (Dr. Ba. Maw) ने अपने पूरे मन्त्री-मण्डल के साथ किया। नेताजी ने इस बार रंगून में आज़ाद हिन्द सरकार, आज़ाद हिन्द संघ और आज़ाद हिन्द फौज के मुख्यालय स्थापित किए।


1. सुधारक बलिदान विशेषांक, पृ० 336, लेखक श्री भगवान्देव आचार्य, आज़ाद हिन्द फौज के भूतपूर्व सैनिकों की जुबानी।


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आजाद हिन्द फौज ने बर्मा भूमि को ब्रिटिश सरकार पर झपटकर आक्रमण करने का केन्द्र बनाया। इस युद्ध के दौरान नेताजी आवश्यकता के अनुसार हवाई जहाज से भी अनेक स्थानों पर जाते रहते थे। युद्ध जोरों पर था।

6 जुलाई, 1944 को नेताजी ने सिंगापुर के आजाद हिन्द रेडियो से महात्मा गांधी के नाम एक भाषण प्रसारित करते हुये कहा था - “हे राष्ट्रपिता! आजादी के इस पावन युद्ध में हम आपके आशीर्वाद की आकांक्षा करते हैं।” बापू महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (‘Father of Nation)’ सबसे पहले नेताजी ने 6 जुलाई, 1944 को कहा। उसी दिन से वे राष्ट्रपिता कहे जाने लगे।


आजाद हिन्द फौज के जाट सैनिकों की वीरता

4 फरवरी 1944 को अराकान (बर्मा में, मणिपुर की सीमा के साथ) के मोर्चे पर स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया, जिसमें आजाद हिन्द फौज का पलड़ा भारी रहा। वहां से अंग्रेज सेना को पीछे धकेल दिया गया। 18 मार्च 1944 को ‘आजाद हिन्द फौज’ ने पहली बार सीमा पार कर भारत भूमि पर कदम रखा। मोर्चे के समीप अपने मुख्यालय पर नेताजी ‘रानी झांसी रेज़ीमेण्ट’ की एक पूर्ण प्रशिक्षित टुकड़ी भी ले गए थे। इस टुकड़ी ने सप्लाई, जनशक्ति, राजस्व, बैंकिंग, चिकित्सा आदि कई विभाग सम्भाल लिए। इम्फाल के मैदानों में और कोहिमा के निकट आठ मोर्चों पर आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों से लोहा लिया।

1. कैप्टन सूरजमल जाटमणिपुर की धरती पर सबसे पहले राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा फहराने वाले हरयाणा के कैप्टन सूरजमल थे जिन्होंने अपनी कम्पनी के साथ भारतीय सीमा में प्रवेश किया था और अंग्रेज सेना से युद्ध करके भारत भूमि के कुछ भाग को स्वाधीन करवाया था।

मोडक विजय - आजाद हिन्द फौज ने भारत भूमि में प्रवेश करके कई अंग्रेज चौकियों पर अधिकार कर लिया। एक महत्त्वपूर्ण चौकी ‘मोडक’ (कलेदन घाटी में) पर कैप्टन सूरजमल का कब्जा हो गया। अंग्रेजी सेना ने इस क्षेत्र को वापिस लेने के लिए इतने जोरदार हमले किये कि जापानी सेना को वहां से हटना पड़ा और उसने आजाद हिन्द फौज को भी ऐसा ही परामर्श दिया। कैप्टन सूरजमल ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया। जापानी वहां अपने कुछ सैनिक दल कैप्टन सूरजमल की कमांड में छोड़ गये। जापानी इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी विदेशी अफसर ने इनकी कमांड सम्भाली हो। कैप्टन सूरजमल और उनके बहादुर सैनिकों ने मई से सितम्बर 1944 तक अपनी जान पर खेलकर सम्पूर्ण मोडक क्षेत्र की रक्षा की। इस बीच अंग्रेज सेना ने उन पर कई भयंकर आक्रमण किए पर हर बार मुंह की खानी पड़ी।

2. सेकिण्ड लेफ्टिनेण्ट अमरसिंह जाट - आप अब्बा चौकी की रक्षा कर रहे थे। इनके पास केवल 20 सैनिक थे। एक दिन अंग्रेजी सेना के 150 सैनिकों ने इस पर जबरदस्त आक्रमण कर दिया और भारी तोपों से गोले बरसाए। जब शत्रु सैनिक मोर्चे के निकट आए तो I.N.A. के जवान उन पर शेर की तरह झपट पड़े। शत्रु भारी संख्या में लाशें छोड़कर भाग गया। शत्रु ने दूसरा आक्रमण उससे भी जोरदार कर दिया। इस बार भी भारी हानि उठाकर शत्रु को पीठ दिखानी पड़ी। सायंकाल शत्रु ने सबसे भयंकर तीसरी बार धावा किया। भारी तोपों से


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गोलाबारी की। शत्रु यह समझकर कि I.N.A. के सभी जवान मर गए होंगे, मोर्चों के निकट पहुंच गए। तब I.N.A. के जवानों ने मोर्चों से बाहर कूदकर शत्रु पर जोरदार आक्रमण कर दिया जिसमें शत्रु लाशें छोड़कर भाग गया। इस तरह से शत्रु के तीनों आक्रमण विफल कर दिए गए। कैप्टन सूरजमल को जब यह सूचना मिली तो वह अपने साथ 50 जवान लेकर शत्रु के मोर्चों के निकट पहुंच गये और ‘जय हिन्द’ - ‘नेताजी की जय’ के गगनभेदी नारे लगाते हुए अंग्रेजी सेना पर टूट पड़े। इस आश्चर्यजनक आक्रमण से शत्रु घबराकर इधर-उधर भाग गये। उनके काफी जवान मारे गये और काफी सामान समेत मोर्चा कैप्टन सूरजमल के हाथ आया। कैप्टन सूरजमल का इतना आतंक छा गया कि बहुत दिन तक अंग्रेज सेना का I.N.A. पर धावा करने का साहस न रहा।

कर्नल पी० एस० रतूरी ने कैप्टन सूरजमल और सैकिण्ड लैफ्टिनेण्ट अमर को बधाई संदेश भेजा। नेताजी ने कर्नल रतूरी और कैप्टन सूरजमल को ‘सरदार-ए-जंग’ की उपाधि दी।

3. लेफ्टिनेण्ट मनसुखलाल जाट की वीरता - आजाद हिन्द फौज के नं० 1 डिविजन के तीन ब्रिगेड - सुभाष, गांधी और आजाद ब्रिगेड इम्फाल के मोर्चों पर लगे हुए थे। मेजर जनरल शाहनवाज खान नं० 1 डिविजन की कमांड कर रहे थे। बाद में नं० 2 डिविजन के कमांडर भी रहे। कर्नल गुलजारा सिंह सिक्ख जाट इस इम्फाल युद्ध में आजाद ब्रिगेड की कमांड कर रहे थे। इस आजाद हिन्द फौज के डिविजन ने इम्फाल को चारों ओर से घेर लिया था। इस घेरे में ब्रिटिश सेना का एक डिविजन एक महीने से भी अधिक समय तक घिरा रहा था। कर्नल इनायत जान कियानी (Col. I.J. Kiani) गांधी ब्रिगेड के कमांडर थे। इस गांधी ब्रिगेड ने अंग्रेज सेना को बुरी तरह से हराया था। अंग्रेजों को इस हार का कांटा खटक रहा था। एक दिन अंग्रेज सेना ने गांधी ब्रिगेड पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सेना के 3,000 और I.N.A. के केवल 600 सैनिक थे। अंग्रेज सेना ने I.N.A. के इन सैनिकों को घेर लिया, जिनके साथ ब्रिगेड कमांडर कर्नल आई० जे० कियानी भी थे, वे भी घेरे में आ गए। कप्तान राव की कम्पनी तो पूरी तरह घिर गई थी। कर्नल कियानी ने लेफ्टिनेण्ट मनसुखलाल को आदेश दिया कि पास की एक पहाड़ी को शत्रु से छीनकर उस पर कब्जा करो। यह आदेश मिलते ही मनसुखलाल ने अपनी प्लाटून के केवल 30 जवानों के साथ पहाड़ी पर चढ़ना शुरु कर दिया। जब उनकी प्लाटून पहाड़ी की चोटी के निकट पहुंची तो शत्रु ने उन पर फायर खोल दिया। वे भी फायर करते हुए चोटी की तरफ बढ़े। उनमें से कुछ वीरगति को प्राप्त हुए। स्वयं ले० मनसुखलाल को 13 गोलियां लगीं। काफी खून निकल गया और वे गिर पड़े। यह देखकर उनके सैनिक उनको सम्भालने के लिए उनकी तरफ बढ़े। उनको देखकर वीर मनसुखलाल गरज पड़े - “मेरी चिन्ता छोड़ो और लपक कर पहाड़ी की चोटी पर कब्जा करो। मैं न बच सका तो क्या! पहाड़ी पर कब्जा होने से पूरा ब्रिगेड बच जाएगा।” यह सुनकर जवानों का मनोबल बढ़ गया। वे जोश से आगे बढ़े। ले० मनसुखलाल हौंसला देते हुए घिसट-घिसट कर साथ हो लिए। जवानों ने ‘जय हिन्द’ और ‘नेताजी की जय’ के रणघोष के साथ शत्रु को अपनी संगीनों से मारना शुरु कर दिया। शत्रु पीठ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। पहाड़ी पर मनसुखलाल के सैनिकों का कब्जा हो गया, जिससे शेष साथियों की रक्षा के लिए एक अच्छा स्थान मिल गया। शत्रु का घेरा तोड़ा गया, उसके 250 गोरे सैनिक मारे गए और बाकी भाग गये।


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4. कर्नल मलिक (जाट गठवाला गोत्र) - आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों से विष्णुपुर क्षेत्र छीन कर मुक्त करा लिया था। कर्नल मलिक को इस विष्णुपुर क्षेत्र का गवर्नर (शासक) नियुक्त किया गया था। विष्णुपुर - टिड्डिम से उत्तर को सड़क विष्णुपुर जाती है। फिर इससे थोड़ा आगे उत्तर में इम्फाल है और उससे उत्तर में कोहिमा है।

भारत भूमि के पूर्वी सीमा के प्रान्त मणिपुर (इम्फाल) तथा नागालैंड (कोहिमा) क्षेत्रों में आजाद हिंद फौज ने अंग्रेज सेना को हराकर अनेक स्थानों पर अपना अधिकार कर लिया था। इस से अंग्रेजों का साहस टूट गया तथा उनके मन में हार के विचार उत्पन्न होने लगे। अंग्रेज सेना के भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों को मारकर भारत को आजाद कराने की भावना उत्पन्न हुई और वे उचित समय आने का अवसर देखने लगे। इन सीमाओं पर अंग्रेज सेना की कई भारतीय सैनिक यूनिटें आजाद हिन्द फौज में जा मिलीं। भारतीय जनता का मनोबल बहुत बढ़ गया था। प्रत्येक नागरिक को यह उमंग हो गई थी कि हमारा राज्य बहुत जल्दी ही आयेगा। अतः भारत के जनता अंग्रेजों के विरुद्ध बड़े साहस से स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जुट गई। परन्तु भाग्य ने पल्टा खाया। आजाद हिन्द फौज आगे को बढ़ती जा रही थी। इसके इम्फाल विजय में कुछ ही घण्टे की देरी थी कि इम्फाल से तीन मील दूर प्रगति रुक गई। भारी वर्षा के कारण आजाद हिंद फौज की बर्मा से स्पलाई-व्यवस्था बिगड़ गई, जबकि ब्रिटिश फौज को हवाई जहाजों से कुमुक और रसद पहुंचाई जा रही थी। यह स्थिति देख नेताजी ने अपनी फौज को पीछे हटने का हुक्म दिया ताकि इम्फाल पर अगले हमले की तैयारी की जा सके। फिर भी स्थिति नहीं सुधरी तो अंग्रेजों के लिए रंगून की ओर बढ़ने की राह खुल गई। बर्मा की भूमि में बढ़ती हुई ब्रिटिश सेनाओं का आजाद हिन्द फौज ने बड़ी वीरता से मुकाबिला किया। इनमें इरावदी (इर्रावड्डी) संग्राम अतिप्रसिद्ध है।

5. कैप्टन चन्द्रभान जाट का आतंक - सन् 1945, फरवरी 13 और 14 की रात को अंग्रेजी सेना ने इरावदी नदी को पार करने का प्रयत्न किया। INA पर तोपों से भारी गोलाबारी की और मोटर-बोटों द्वारा इरावदी नदी पार करने का प्रयत्न किया। सबसे अधिक भयंकर लड़ाई पागन मोर्चे पर हुई। वहां कैप्टन चन्द्रभान ने बहुत अच्छी स्थिति पर अपनी मशीनगनें जमा रखी थीं। अंग्रेजी सेना लंकाशायर (इंगलैण्ड) के टॉमी लोगों की थी। कैप्टन चन्द्रभान ने टॉमी लोगों की सेना के मोटर-बोटों को इरावदी नदी में अपने निकट आने दिया। ठीक मार में आने पर अचानक मशीनगनों का फायर खोल दिया। नावों में बैठे टॉमी सैनिक होलों की तरह भून दिये। शत्रु सेना से भरी हुई 20 नावें तो इरावदी नदी में डूब गईं। कुछ नावों ने भागकर प्राण बचाये, परन्तु अधिकतर मारे गये। फरवरी 14 की सुबह अंग्रेज सेना ने अपनी पिटाई का बदला लेने के लिए वायुसेना से I.N.A. पर भारी बम्ब वर्षा की तथा तोपों के गोले भी बरसाए। आजाद हिन्द फौज के वीरों ने अपने मोर्चों से रायफलों से गोलियां चलाकर कुछ ब्रिटिश वायुयान मार गिराये। लज्जित हुई शत्रु सेना ने I.N.A. को छोड़कर जापानी सेना पर हमला बोल दिया और उससे एक चौकी छीनकर वहां अपना अड्डा जमा लिया। इसके सहारे बहुत बड़ी संख्या में शत्रु सेना ने इरावदी नदी पार कर ली।

कैप्टन चन्द्रभान नेहरू ब्रिगेड की नं० 9 बटालियन के कमाण्डर थे।

6. कर्नल गुरुबख्शसिंह ढिल्लों सिख जाट - आप नेहरू ब्रिगेड की कमाण्ड कर रहे थे। आपकी


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सेना ने इरावदी नदी पर शत्रु सेना से कई मुठभेड़ें कीं। उनसे शत्रु सेना को हार खाकर पीछे हटना पड़ा था।

7. लेफ्टिनेण्ट हरीराम जाट - आप नेहरू ब्रिगेड की नं० 7 बटालियन के कमाण्डर थे। कर्नल ढ़िल्लों ने आपकी बटालियन को न्यांगू पर तैनात किया था जहां पर आपने शत्रु सेना को मारकर पीछे धकेल दिया था।

8. मेजर टीकाराम जाट - आप गुरिल्ला रेजीमेंट के कमांडर रहे और शत्रु के मोर्चों पर आपने महत्त्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त कीं।

9. मेजर खजानसिंह जाट - मेजर खजानसिंह बर्मा मोर्चे पर ट्रांसपोर्ट कम्पनी की कमांड संभाल रहे थे। उन्होंने एक ब्रिटिश फौजी अधिकारी को गिरफ्तार किया, जो उस समय का विख्यात गुरिल्ला था। उस ब्रिटिश गुरिल्ला का नाम था “कैप्टन ब्राउन”। ब्राउन के पकड़े जाने से उस मोर्चे पर ब्रिटिश आर्मी को काफी हानि उठानी पड़ी। मेजर खजानसिंह की इस महत्त्वपूर्ण सफलता पर नेताजी ने उन्हें ‘सरदारे जंग’ की पदवी से अलंकृत किया।

10. कैप्टन रणपतसिंह जाट - आपने शत्रु से बड़े साहस व वीरता से युद्ध किया और रणक्षेत्र में ही वीरगति पा गये थे। आपको ‘शेरे जंग’ की पदवी से अलंकृत किया गया था।

11. लांसनायक मोलड़सिंह जाट - आप शत्रु से वीरता से युद्ध लड़ते-लड़ते शहीद हो गये थे। आपको ‘शहीदे भारत’ के सर्वोच्च पदक से अलंकृत किया गया था।

12. कर्नल गुलजारासिंह सिक्ख जाट - नं० 1 डिविजन के आजाद ब्रिगेड की कमांड इम्फाल युद्ध में कर रहे थे और बर्मा में लौट आने तक इसी के कमांडर रहे।

13. मेजर मेहरचन्द जाट - आप आजाद ब्रिगेड में गुरिल्ला बटालियन के इन्चार्ज थे।

14. लेफ्टिनेण्ट कर्नल रणसिंह जाट - आप सुभाष ब्रिगेड की एक बटालियन की कमांड कर रहे थे और सैनिक अभियान में आपने महत्त्वपूर्ण काम किया था।

15. लेफ्टिनेण्ट कर्नल रामस्वरूप जाट - आप इन्टेलीजैंस के इन्चार्ज थे। आपने अराकान के मोर्चों पर महत्त्वपूर्ण सफलतायें प्राप्त की थीं।

16. कर्नल दिलसुख मान जाट - हरयाणा के सबसे वरिष्ठ सैनिक अधिकारी थे, जिनको आजाद हिन्द फौज में ‘डिप्टी कवार्टर मास्टर जनरल’ के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया था।

17. मेजर अमीरसिंह जाट - आप पहले मिलिट्री स्टोर्ज़ के इन्चार्ज रहे और बाद में उन्हें पैराशूट बटालियन का कमांडर नियुक्त किया गया।

18. कैप्टन महताबसिंह जाट - आप पहले असिस्टैंट डायरेक्टर सप्लाइज और ट्रांसपोर्ट रहे तथा बाद में उन्हें स्टाफ कैप्टन नियुक्त किया गया।

19. कैप्टन प्रीतसिंह जाट - आप इन्टैलीजैंस ग्रुप में महत्त्वपूर्ण सेवा करते रहे। एक दिन जब वह पनडुब्बी द्वारा भारत की ओर आ रहे थे तो विस्फोट हो जाने के कारण उनका चेहरा बुरी तरह झुलस गया। इसके बाद उन्हें आई० एन० ए० अकादमी में नियुक्त कर दिया गया।


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20. कैप्टन कन्हैया सिंह, 21. कैप्टन गणेशीलाल, 22. कैप्टन जीतराम, 23. मेजर बलवन्तसिंह - सब जाट - ये चारों अफसर हरयाणा निवासी थे। इन्होंने भारतीय नागरिकों को प्रशिक्षण देने में बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया।

24. मेजर संगारासिंह, 25. लेफ्टिनेन्ट अजायबसिंह दोनों सिक्ख जाट - ये दोनों कई मोर्चों पर शत्रु से बड़ी वीरता से लड़े।

26. लेफ्टिनेण्ट रणजोधसिंह सिक्ख जाट - आपने बड़ी वीरता से शत्रु का मुकाबिला करके क्लंक-क्लंक चौकी की रक्षा की थी।

27. कैप्टन गुरबख्शसिंह सिक्ख जाट - आप आजाद ब्रिगेड की एक बटालियन में थे। आपने इम्फाल युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई थी।

28. लेफ्टिनेन्ट ज्ञानसिंह जाट - आपने 17 मार्च, 1945 को बर्मा में टॉगजिन के युद्ध में शत्रु से बड़ी वीरता से लड़ते-लड़ते कुर्बानी दी थी।

29. कैप्टन बागरी जाट - आपने 30 मार्च, 1945 को बर्मा में इरावदी नदी क्षेत्र में शत्रु से बड़ी वीरता से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

27. कैप्टन अमरीक सिंह सिक्ख जाट - आपने अपने सैनिकों के साथ शत्रु से युद्ध करके क्लंक-क्लंक चौकी पर कब्जा कर लिया, परन्तु वहीं पर अमर शहीद हुए।

यदि आज़ाद हिन्द फौज के इतिहास की गहराई से खोज की जाये तो बड़ी संख्या में जाट सैनिकों के युद्धों में वीरता के कारनामे मिलेंगे। खेद है इस विषय में अधिक सामग्री प्राप्त न हो सकी। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों ने वीरता के कार्य करके नेताजी द्वारा जितने तमगे एवं उपाधियां प्राप्त कीं उनमें से आधी से अधिक जाटवीर सैनिकों ने प्राप्त कीं।

आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों की देशभक्ति, देश को आज़ाद कराने की सत्य लगन, युद्ध में साहस, वीरता एवं कुर्बानी देने आदि के उदाहरण अद्वितीय थे जो उस समय अन्य किसी भी देश के सैनिक उनके तुल्य नहीं थे। इसका श्रेय नेताजी को जाता है।

आजाद हिन्द फौज की रंगून से वापसी

दुर्भाग्य से युद्ध का पासा पलट गया। जापानी सेना ने बर्मा छोड़ने का निश्चय कर लिया था। अब नेताजी का रंगून में रहना खतरे से खाली नहीं था। सैनिक मलेरिया और पेचिस से पीड़ित और फटेहाल थे। स्थानीय नागरिकों की भारी सेवायें भी मिलनी बन्द हो गईं।

इन हालात में आज़ाद हिन्द मन्त्रिमंडल ने निर्णय लिया कि आज़ाद हिन्द सरकार और सेना के मुख्यालय रंगून से हटाए जायें। आजाद हिन्द फौज ने हथियार नहीं डाले, पर उसे स्वयं लड़ाई बन्द करनी पड़ी। नेताजी ने रंगून छोड़ने से पहले रानी झांसी रेजीमेंट की उन लड़कियों को अपने घरों पर पहुंचाया जो बर्मा और आस-पास के देशों की थीं। नेताजी ने मेजर-जनरल लोकनाथन को अपने प्रशासनिक अधिकार देकर रंगून में छोड़ा। उनकी कमांड में वहां I.N.A. ने 5000 सैनिक व अफसर छोड़े। इस दल ने भारत के प्रवासियों और बर्मा के नागरिकों की डाकुओं से रक्षा की। बर्मा छोड़ने से पहले 24 अप्रैल, 1945 को नेताजी ने एक संदेश प्रसारित कर बर्मा की सरकार एवं जनता को सहयोग के लिए धन्यवाद दिया। आपने अपनी सेना को संदेश प्रसारित किया कि वे जन्मजात आशावादी हैं और भारत की आजादी के लिए वे जीवनभर लड़ेंगे। उसी दिन


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नेताजी रानी झांसी रेजीमेन्ट की लड़कियों तथा अपने शेष सैनिकों को लेकर रंगून से बैंकाक के लिए लारियों में चले। कुछ ही दूर चलने पर लारियां दलदल में धंस गईं। शेष सारा रास्ता पैदल चल कर पार करना पड़ा। रास्ते में शत्रु की बमवर्षा और भोजन न मिलने से काफी कष्ट उठाने पड़े। निरन्तर 3 हफ्तों की पदयात्रा के बाद आप अपने साथियों समेत सकुशल बैंकाक पहुंच गए। नेताजी जो सेना रंगून में छोड़ आए थे, वे गिरफ्तार कर लिए गए थे। जनरल शाहनवाज, कर्नल ढिल्लों, कर्नल प्रेमकुमार सहगल, कर्नल लक्ष्मी स्वामीनाथन, जनरल जगन्नाथ राव भोंसले आदि अंग्रेजों द्वारा बन्दी बना लिए गए थे। बाल सेना के बालवीरों ने अंग्रेजी सेना को बहुत तंग किया। अनेक बालवीरों ने अपनी कुर्बानी देकर शत्रु के टैंक तोड़े थे। रानी झांसी रेजीमेण्ट को किसी युद्ध में लड़ने का अवसर न मिल सका।

नेताजी को यह स्पष्ट हो चुका था कि जापान अधिक दिन तक युद्ध में नहीं टिक सकता। उधर यूरोप के मोर्चों पर जर्मनी की पराजय हो चुकी थी। भारत की आजादी के लिए नया आधार खोजने के लिए नेताजी रूस जाना चाहते थे परन्तु जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जनरल कोइसो और उनकी सरकार ने सहयोग देने से साफ इन्कार कर दिया। नेताजी ने 4 जुलाई 1943 को I.N.A. की स्थापना सिंगापुर में की थी तथा 4 जुलाई 1945 को वे सिंगापुर में पहुंच गए। नेताजी ने 8 जुलाई 1945 को आजाद हिन्द फौज के वीर शहीदों की याद में सिंगापुर के समुद्र तट पर अपने करकमलों द्वारा “शहीद स्मारक” का शिलान्यास किया। यह कर्नल स्ट्रेसी और कैप्टन मलिक ने बहुत जल्दी तैयार करवा दिया। जब अंग्रेजों ने सिंगापुर पर अधिकार कर लिया तो उन जालिम व अन्यायियों ने उस “शहीद स्मारक” को बरबाद कर दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध का अन्त बड़े नाटकीय ढंग से हुआ। अमेरिका ने जापान के शहर हिरोशिमा पर 6 अगस्त, 1945 को अणु बम पटक दिया और दूसरा 9 अगस्त 1945 को नागासाकी पर डाल दिया। लाखों लोगों की मृत्यु हो गई और भारी हानि हुई। जापान ने अगले दिन हथियार डाल दिये।

यह घटना सुनकर नेताजी ने कहा था कि “मैं हार मानने वाला नहीं हूं। आजाद हिन्द फौज हार मानने वाली नहीं है।” उन्होंने भयानक आपत्ति को हंसी में उड़ा दिया।

नेताजी ने सिंगापुर से रानी झांसी रेजीमेण्ट की शेष लड़कियों को उनके घरों को भेज दिया।

नेताजी की अन्तिम यात्रा - नेताजी अपने कुछ चुने हुए साथियों के साथ सिंगापुर से 16 अगस्त 1945 को प्रातः 10 बजे वायुयान द्वारा प्रस्थान हुए और उसी दिन 3 बजे बैंकाक पहुंच गए। 17 अगस्त को प्रातः 8 बजे नेताजी का वायुयान बैंकाक से सैगोन के लिए उड़ा और उसी दिन सैगोन पहुंच गया। सैगोन से नेताजी एवं कर्नल हबीबुर्रहमान एक जापानी फौजी बमवर्षक विमान द्वारा 17 अगस्त 1945 को सायं 5-15 पर बैठकर चले और उसी संध्या को टूरेन (इण्डोचीन) पहुंच गए। वहां रात्री को विश्राम किया। 18 अगस्त को नेताजी का विमान टूरेन से उड़ा और अपराह्ण में ताईहोकू (फॉर्मोसा) में उतरा। थोड़ी देर में उनका विमान ताईहोकू से उड़ा और कुछ ही मिनट पश्चात् वह विमान-स्थल से बाहरी भाग पर गिर पड़ा। नेताजी और हबीब दोनों ही घायल हो गये। जनरल शीदी की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई।

नेताजी और हबीब को तुरन्त अस्पताल पहुंचाया गया परन्तु नेताजी का स्वर्गवास हो गया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-860


और कर्नल हबीब बच गये। इस तरह से नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को रात्रि के 9 बजे फार्मोसा द्वीप के ताईहोकू स्थान पर वायुयान दुर्घटना द्वारा हो गई।

आई० एन० ए० के बन्दी सैनिकों के साथ अंग्रेजों का दुर्व्यवहार तथा उनकी प्रतिक्रिया -

देशभक्त मेजर जयपालसिंह मलिक इत इतिहास के पन्नों से -

सन् 1943-44 में कैप्टन (उस समय) जयपालसिंह अपनी एयर सप्लाई यूनिट के साथ बर्मा में काम कर रहे थे। 6 महीने के भीतर आप के यूनिट को त्रिपुरा, चटगांव, जोरहाट और मणिपुर के इलाकों में जाना पड़ा था। यहां लड़ाई में फंसे ब्रिटिश डिवीजनों तथा जापान एवं आई० एन० ए० से इम्फाल में घिरे अपने सैनिकों को रसद गिरानी पड़ती थी। उन दिनों कोहिमा को जापानी ले चुके थे। मणिपुर के इलाके पर हमला प्रारम्भ कर दिया था और नागा-हिल्स में भयंकर युद्ध हो रहा था। आई० एन० एम० भी जापानियों के साथ मिलकर लड़ रहे थे। अंग्रेज आई० एन० ए० को जिफ्स के नाम से पुकारते थे और भारतीय सैनिकों तथा अफसरों को इनके बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता था क्योंकि भारतीयों को यह बात बताने में अंग्रेज डरते थे। लेकिन जिफ्स के बारे में जयपालसिंह अस्वस्थ होते हुए भी दीमापुर गये और वहां पर एक देशभक्त अफसर कैप्टन खन्ना से मिले। कैप्टन खन्ना ने कैप्टन जयपालसिंह को बताया - “नेताजी की आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक इन मोर्चों पर हैं। परन्तु यह खबर पूरी तरह गुप्त रखी जा रही है। किसी को बन्दी नहीं बनाया जा रहा है। 33वीं कोर के कमांडर ने फील्ड कमांडरों को आदेश दे रखा है कि जापानी मोर्चों पर लड़ रहे भारतीय फौजी जब पकड़े जायें तो उन्हें गोली मार दी जाए। हजारों को गोली मार दी गई है।”

इस घटना ने कै० जयपालसिंह को अधिक क्षुब्ध किया। वह चाहते थे कि उनके साथ, अंग्रेज युद्धबन्दियों की तरह आचरण करें। वे सब सैनिक वर्दी में लड़ रहे थे और यह उनका हक था। लेकिन अंग्रेज कौम ने कभी किसी के हक तथा अधिकार की रक्षा कब की थी?

अंग्रेजों की इस बेईमानी के प्रति मेजर जयपालसिंह के मन में गहरा रोष पैदा होता जा रहा था। मेजर जयपालसिंह को यह सब पता लगने के बाद उनकी टुकड़ी ने छिपकर वे रेडियो प्रसारण सुनने शुरु कर दिए जिन पर अंग्रेजों ने सख्त पाबन्दी लगा रखी थी और यह खबर कि आज़ाद हिन्द फौज मोर्चों पर लड़ रही है, उन पर्चों के जरिये फैलाई जाने लगी जिन्हें ब्रिटिश भारतीय सेना के देशभक्त अफसर और जवान आपस में गुप्त रूप से बांटा करते थे। मेजर जयपालसिंह की सिगनल कोर की टुकड़ियों का यह नियमित काम हो गया था कि वे शीनान (1) रेडियो और आज़ाद हिन्द फौज के अन्य बेतार केन्द्रों की खबरें सुनें और भारतीय सेनाओं में उसे प्रचारित करें। उन्होंने सेना की देशभक्त टोलियों को यह गुप्त संदेश पहुंचा दिया था कि सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज अंग्रेजों से इक्के-दुक्की टुकड़ियों में नहीं बल्कि, पूरी सेना के रूप में जूझ रही है। यह जानकर भारतीय सैनिकों को बड़ी खुशी हुई और अंग्रेजों के प्रति घृणा पैदा हो गई थी।

एक दिन (1944-1945) मेजर जयपाल अराकान पहाड़ियों पर रसद गिराने की मुहिम पर जाते समय पटंगा (चटगांव) पहुंचे। वहां आप ने देखा कि एक सी०-47 जहाज भारतीय सैनिकों से भरा ठीक उसी समय वहां उतरा था। ये सब आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक थे। उनकी सैनिक वर्दियां उतरवा ली गईं थीं और उन्हें जबरन नागरिक लिबास पहनाया गया था। अंग्रेज यह भेद खुलने


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नहीं देना चाहते थे कि बर्मा में बाकायद एक भारतीय फौज ने उनका विरोध किया था। लड़ाई के मोर्चों पर लकड़े गये इन भारतीय सैनिकों को जापानियों के साथ सहयोग करने वाले जासूस, गैर फौजी भारतीय बताया जा रहा था। अंग्रेजों की दृष्टि में ये ‘गद्दार’ थे। इन लोगों को पिंजरे-नुमा झोंपड़ों में बन्द कर दिया गया था। जयपालसिंह ने देखा कि अमेरिकी सिपाही उन पर पहरा दे रहा था। उनसे बातें करके आप बंदियों के पास पहुंचे। उनसे बातें करने पर मालूम हुआ कि वे आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक थे, जिनको इम्फाल से बन्दी बनाकर लाया गया था। इनमें हरयाणा के लोग भी थे। उनमें 4/19 हैदराबाद रेजिमेन्ट के जवान भी थे। रोहतक जिले का एक जाट नेकीराम भी इनमें था। उन्होंने बताया कि आज़ाद हिन्द फौज की कमान नेताजी के हाथ में है। उन्होंने शाहनवाज, कियानी तथा अन्य नेताओं का भी जिक्र किया। यह भी बताया कि हमारे हथियार और वर्दियां छीन की गयीं, हम सैनिक हैं। मेजर जयपालसिंह के अनुसार अमेरिकी और अंग्रेज सैनिकों ने भारत में विशेषतः मणिपुर और वर्तमान नागालैंड में, स्त्रियों पर बुरे अनाचार किये थे1

लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर इतिहास प्रसिद्ध मुकद्दमा

आजाद हिन्द फौज चाहे अपने ‘चलो दिल्ली’ के महामंत्र को साकार नहीं कर पाई परन्तु जो उद्घोष भारत की सीमाओं पर आई० एन० ए० के सैनिकों ने दिया, वह राष्ट्र की वाणी बनकर विराट् रूप हो गया। 10 अगस्त 1945 को जापान ने हथियार डाल दिये। आज़ाद हिन्द फौज के अफसरों व जवानों को हजारों की संख्या में बन्दी बना लिया गया। उस वक्त भी अंग्रेजों ने आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को युद्धबन्दी नहीं माना। यह सुनकर सम्पूर्ण राष्ट्र एक आवाज में बोला “देश इन वीर सैनिकों का पक्ष लेगा, इनका बाल बांका नहीं होने देगा।” और हुआ भी ऐसा ही। श्री भोला भाई देसाई के नेतृत्व में राष्ट्र के शीर्षस्थ वकील सैनिकों के पक्ष में खड़े थे। राष्ट्रनायक श्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं एक वकील के रूप में देशभक्त सैनिकों के पक्ष में सैनिक अदालत में आ खड़े हुए थे। पूरे विश्व का ध्यान फिर एक बार भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन पर केन्द्रित हुआ। राष्ट्र के नेताओं ने समस्त संसार के स्वाधीनता प्रेमियों की सहानुभूति और सदभावना प्राप्त की। उधर आजाद हिन्द फौज के वीर सैनिक जिन्होंने जीवन और मृत्यु का खेल खेला था, अपने राष्ट्रनेताओं का ऐसा जोरदार समर्थन पाकर बड़े प्रसन्न थे। सैनिकों की रिहाई हुई। पूरा राष्ट्र हर्ष और उल्लास से भाव विभोर हो उठा। आज़ाद हिन्द सैनिक अपने घरों को लौटे। वे चुपचाप नहीं बैठे। देखते-देखते वही सैनिक राष्ट्रभक्ति के संदेशवाहक बने। हरयाणा के सैनिक बहुत बड़ी संख्या में आजाद हिन्द फौज से आए थे। अतः हरयाणा के गांव-गांव, खेत-खलिहान ‘जय हिन्द’ के नारों से गूंज उठे। हरयाणा में देशभक्ति क्रान्ति जोर पकड़ गई। (स्वाधीनता संग्राम और हरयाणा, पृ० 272-273, लेखक देवीशंकर प्रभाकर)।

आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की रिहाई के दो मुख्य कारण ये थे -

  • (1) आजाद हिन्द सरकार 8 देशों से मान्यता प्राप्त सरकार थी जिसकी यह सेना थी।

1. गौरव गाथा (तृतीय पुष्प), लेखक डॉ नत्थनसिंह (बड़ौत), मेजर जयपालसिंह प्रकरण, पृ० 122-123; दैनिक ट्रिब्यून, बुधवार, 19 अगस्त 1987, आजाद हिन्द फौज पर अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी।


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  • (2) आजाद हिन्द फौज का अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे अंग्रेजों को मारने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। साथ ही भारतीय सेना की कई यूनिटों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह हो चुके थे, जिनका वर्णन अगले पृष्ठों पर लिखा जाएगा। अंग्रेज समझ गये थे कि यह ‘1857’ नहीं है, अब की बार एक को भी जीवित नहीं छोड़ेंगे। इस दबाव से चुपचाप राज्य सौंपकर चलते बने।

देश की आज़ादी के लिए तीसरा मोर्चा भारतीय सेना का सशस्त्र विद्रोह

1. ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में आर्यसमाज - अंग्रेजों की दृष्टि में प्रारम्भ से ही आर्यसमाज को शंका से देखा जाता रहा है। अंग्रेज शासक आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती को शक्तिशाली राष्ट्रवादी समझने लगे और आर्यसमाज को उसका एक शक्तिशाली दल। एक अंग्रेज लार्ड ने तो स्वामी दयानन्द को “एक बागी फकीर” बताया था। अंग्रेज आर्यसमाज के स्वतन्त्र विचारों को, आत्मविश्वास उत्पन्न करने की भावना को और आर्य राष्ट्र के विचारों को कुचलने की सोचने लगे। उनके मन में यह भावना घर कर गई कि आर्यसमाज के प्रसार का यह अभिप्राय होगा कि उनकी अपनी सत्ता भारत में कम होती जाएगी। क्योंकि आर्यसमाज तो अपने पूर्वजों की महत्ता का प्रतिपादन करके भारतवासियों में स्वाभिमान की भावना उत्पन्न कर रहा है। इसके अतिरिक्त प्राचीन शिक्षा प्रणाली को उत्तम बताकर, जातिभेद को कम करके और स्त्री-शिक्षा का समर्थक बनकर आर्यसमाज राष्ट्र में एक नवीन चेतना का प्रसार कर रहा है। यद्यपि आर्यसमाज ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई आन्दोलन नहीं चलाया था, तथापि अंग्रेज शासक आर्यसमाज को राजनैतिक दल समझने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाज के सामाजिक कार्यकर्त्ता भी भयंकर विद्रोही रूप में देखे जाने लगे और आर्यसमाज को राजनीति में बलपूर्वक प्रविष्ट कराने के प्रयास भी होने लगे। मिस्टर सी० जे० स्टेवनशन मोरे की रिपोर्ट को आधार मानकर सरकार ने आर्यसमाज को राजनैतिक दल सिद्ध करने में निम्न कारण दिए -

  1. रावलपिण्डी के सन् 1907 के दंगों में अग्रगण्य नेता आर्यसमाजी थे। मिस्टर डेनजिल इब्वस्टन ने “पंजाब अनरेस्ट” की रिपोर्ट देते समय लिखा कि “आर्यसमाज राजद्रोह का केन्द्र है।”
  2. दयानन्द भारत को पुनः आर्यावर्त बनाना चाहता था। उसके होठों पर देशभक्ति और राष्ट्रीयता के शब्द रहते थे। उसने एक बार एक पादरी को कहा कि आर्यों के पतन के समान तुम्हारे पतन के दिन आ रहे हैं।
  3. सन् 1897 में पंजाब के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने लार्ड एलगिन को एक पत्र लिखा जिसमें कहा था कि समाचार पत्रों के अतिरिक्त अन्य एक इकाई आर्यसमाज भी है जो कि लोगों को सरकार के विरुद्ध भड़काती है।

इसके प्रतिफल में तत्कालीन भारत के अंग्रेज शासकों ने पंजाब और हरयाणा में आर्यसमाज से सम्बन्धित व्यक्तियों को परेशान करना आरम्भ कर दिया। आर्यसमाज से सम्बन्धित पुस्तकों,


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पत्र-पत्रिकाओं को जब्त करना तथा जलाने का कार्य किया और यज्ञोपवीत (जनेऊ) उतरवाने का कुकर्म करने लगे। इस प्रकार की अनेक घटनायें हुईं।

सेना में भरती करते समय जवान को यह प्रमाणित करना पड़ता था कि वह आर्यसमाजी तो नहीं है। जाट तो सभी हैं ही आर्यसमाजी जो यज्ञोपवीत भी पहनते थे। सेना में भरती हो जाने के पश्चात् जो जाट सिपाही जनेऊ पहन लेते थे उनके जनेऊ बलपूर्वक उतरवा दिये जाते थे। अंग्रेज सरकार की दृष्टि में आर्यसमाजी होना विद्रोही होना था। परन्तु वैदिक धर्म के सच्चे मतवाले कहां रुकने वाले थे। वे अपने धर्म पर सेना में भी अडिग रहे। जाटों ने मांस खाने और जनेऊ उतारने से इन्कार कर दिया। (हरयाणा के आर्यसमाज का इतिहास, पृ० 24-26, लेखक डॉ० रणजीतसिंह प्रिंसिपल)।

2. 10-नम्बर जाट पलटन का विद्रोह - 10 नम्बर जाट पलटन में रोहतक तथा हिसार जिलों के जाट अधिक थे। ये जाट सैनिक सब के सब आर्यसमाजी थे और उनके हृदयों में स्वाभिमान तथा राष्ट्र प्रेम की गहरी आस्था थी। स्वामी दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ने उनमें यह भावनाएं और भी तीव्र कर दी थीं। इसके अलावा वहां ‘जाट समाचार’, ‘जाट हितकारी’ तथा ‘केसरी’ सरीखे समाचार पत्रों से क्रांति की पृष्ठभूमि पूरी तरह तैयार हो रही थी। सैनिकों की ये क्रांतिकारी गतिविधियां बनारस में सन् 1898 से नियमित रूप से चल रही थीं। उस वर्ष पलटन में ‘आर्यसमाज’ का निर्माण भी हो गया था, जिसके तत्त्वाधान में हर रविवार को भाषण होते थे। सन् 1904 में जब यह पलटन कानपुर में थी तो सिपाही सुरजन ने वहां स्वदेशी आंदोलन का प्रचार किया। वह शहर में हुई स्वदेशी मीटिंगों में भी भाग लेता था। इसके अतिरिक्त 1906 में इस पलटन ने ‘हडसन हार्स’ (रिसाला) के साथ मिलकर कितने ही राजनीतिक विषयों पर विचार विनिमय किया। कानपुर में 1908 में इस पलटन के बहुत से सैनिक लाला लाजपत राय का भाषण सुनने गये। इस घटना का पता चलने पर कमांडिंग अफसर ने कई नान-कमीशंड सैनिकों (N.C.O's) को सजा दी। उसी वर्ष पलटन अलीपुर चली गई। वहां सैनिकों की क्रांतिकारी गतिविधियां अपनी चरम सीमा पर पहुंच गईं। इनका नेता सूबेदार हरीराम था और नायक जोतराम, सिपाही सुरजन तथा जोगराम उसके विशेष सहायक थे। सूबेदार हरीराम ने बंगाल के क्रांतिकारियों से सीधा सम्बन्ध स्थापित कर लिया था। वह प्रसिद्ध क्रांतिकारी विपिनचन्द्र से भी उसके निवास स्थान पर मिला था। उसका सहायक सिपाही सुरजन जब छुट्टी पर अपने घर गया तो वह नरेन्द्रनाथ चटर्जी बंगाली क्रांतिकारी को अपने गांव ले गया। वहां उसने ग्रामीण जनता में दूर-दूर तक प्रचार किया। पलटन के बहुत सिपाहियों ने कलकत्ता के क्रांतिकारियों के घर जाना जारी रखा। छाजूराम नामक आर्यसमाज के एक प्रचारक ने जवानों की बैरकों में आकर उन्हें देशभक्ति के उपदेश दिये तथा उन्हें बताया कि “अलीपुर जेल जिसकी वे निगरानी करते हैं, वहां उनके देशभक्त भाई कैद हैं।”

जब पलटन इन्हीं दिनों ट्रेनिंग के लिए मिदनापुर गई तो बहुत से जाट सैनिक शहीद खुदीराम बोस के घर को “पवित्र मंदिर” मानकर वहां गये और उस वीर क्रांतिकारी को उन्होंने श्रद्धांजलियां अर्पित कीं। मिदनापुर के राजा, जो क्रांति के कई संगीन केसों में उलझे हुए थे, के घर भी कई सैनिक गये थे। 10 जाट पलटन के लगभग 145 सैनिक गुप्त क्रांतिकारी सभा के


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सदस्य बन गये थे। इस सभा के नेता, नोनी गोपाल सेनगुप्त, भुवन मुखर्जी, डा० शरद मित्र, सुरेश मित्र, नरेन्द्रनाथ चटर्जी आदि थे। सभा के सदस्य बनने से पूर्व जाट सैनिकों ने तलवार तथा पांच पिस्तौल के कारतूस, गीता और गंगाजल को हाथ में लेकर निम्नलिखित शपथ ली थी -

मैं आज से इस सभा का सदस्य हूं और जब तक मेरी मातृभूमि स्वतंत्र नहीं होती तब तक इसका सदस्य बना रहूंगा। मैं अपने देश के हित में काम करते हुए देश को आजाद और अपने शत्रुओं को बिल्कुल समाप्त करके ही दम लूँगा।

गुप्त सभा के सदस्यों ने जाट सैनिकों की सहायता से कलकत्ता के डायमंड हार्बर पर स्थित सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई। जाट सैनिकों के जिम्मे हथियार लाना, तथा पैसा और रसद बंगाली क्रान्तिकारियों के जिम्मे था। किन्तु दुर्भाग्यवश ललितमोहन चक्रवर्ती नामक गुप्त सभा के एक सभासद ने सरकार को इस योजना का भेद समय से पूर्व ही दे दिया। धरपकड़ शुरु हुई। सूबेदार हरीराम, हवलदार चुनीलाल, नायक जोतराम, सिपाही सुरजन, जोगराम तथा उनके अन्य साथी भी पकड़े गये। उन्हें अलीपुर जेल में बन्द कर दिया गया। भारतीय दंड संहिता की धारा 131 अर्थात् कर्त्तव्यविमुख होकर राजभक्ति त्यागने के अपराध में उन पर मुकदमे चले। निम्नलिखित व्यक्तियों को इस प्रकार सजाएं दी गईं -

सूबेदार हरीराम1, हवलदार चुनीलाल, सिपाही सुरजन और जोगराम को एक-एक वर्ष का कठोर कारावास तथा सेना से बर्खास्त कर दिया गया। 23 नान-कमीशंड अफसर (NCO's) तथा जवानों को सेना से निकाल दिया। पलटन के सूबेदार-मेजर तथा सब सूबेदारों को जबरदस्ती पैंशन पर भेज दिया गया। इसके अतिरिक्त पलटन को सेनापति के आदेश पर अलीपुर से हैदराबाद सिन्ध में भेज दिया गया जहां उसे कड़ी निगरानी में रखने का आदेश हुआ और भविष्य में पलटन में हरयाणा के जाटों की बजाए राजस्थान और उत्तरप्रदेश के जाटों की भर्ती करने का आदेश दे दिया गया। इस प्रकार एक क्रांतिकारी आयोजन विफल हुआ। (हरयाणा का इतिहास भाग-3, पृ० 133-135, लेखक के० सी० यादव; हरयाणा के आर्यसमाज का इतिहास, पृ० 28-30, लेखक डॉ० रणजीतसिंह प्रिंसिपल)।

इसके अतिरिक्त इस 10 न० जाट पलटन के साथ एक विचित्र घटना और हुई। ब्रिटिश सरकार ने इस सारी पलटन को बागी मानकर सबको समुद्र में डुबो देने का विचार कर लिया। किन्तु सारी सेना में एवं देश में विद्रोह उठने के भय से यह योजना रद्द करके इस पलटन को अति कठोर दण्ड देने का निर्णय किया गया। उस समय अंग्रेज, बलोच पलटन को सबसे शक्तिशाली मानते थे। अतः 10-जाट का मुकाबिला उस बलोच पलटन से करवाया। यह इस तरह से हुआ कि छावनी से 80 मील पर एक पहाड़ की चोटी पर जाना था। उस पहाड़ पर चढ़ने से पहले उसके पास से चौड़ा व गहरे पानी का नाला बहता था। सख्त गरमी के दिन थे। दोनों पलटनों का उस पहाड़ की चोटी पर जाने का मुकाबिला हुआ। अंग्रेज अधिकारियों ने 10-जाट पर शर्त यह लगाई कि यदि वह पलटन, बलोच पलटन से हार गई तो अगले हुक्म तक उसे कठोर दण्ड देना जारी रखा जाएगा और यदि जीत गई तो अगले दण्ड माफ कर दिए जायेंगे। दोनों पलटनों को रात्रि के समय


1. सूबेदार हरीराम देशवाल, गांव बलियाना जिला रोहतक।


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एक साथ रवाना किया। ये सैनिक सरकारी वर्दी एवं साज-ओ-सामान के साथ थे। प्रत्येक सैनिक के पास पानी डालने की केवल एक ही बोतल (Water bottle) थी। जाटों ने उस बोतल में पानी की बजाय ‘घी’ भर लिया जिसके पीने से प्यास व भूख नहीं लगती और शरीर को शक्ति भी मिलती है। इस मुकाबिले के लिए डिविजन कमांडर, ब्रिगेड कमांडर तथा अंग्रेज बड़े-बड़े अफसर पंच (Umpire) थे जो घोड़ों पर सवार थे। पहाड़ की चोटी पर भी अंग्रेज पंच बैठे हुए थे। रात्रि के समय दोनों पलटनों को छवनी से उस पहाड़ पर पहुंचने के लिए एक साथ रवाना होने का आदेश मिला। आदेश मिलते ही भगदड़ मच गई। सारा सफर दौड़कर ही पूरा किया। सूर्य निकलने पर उस नाले पर पहुंचे और तैरकर उसे पार किया। फिर पहाड़ की चोटी पर पहुंच गये। अंग्रेज पंच अफसरों की रिपोर्ट के अनुसार “उस नाले तक बलोच पलटन के केवल 20-25 जवान ही पहुंच पाए, शेष रास्ते में ही थककर गिर पड़े तथा जाट पलटन के केवल 20-25 जवान पीछे रह गये, शेष सारी पलटन वहां पहुंच गई।”

पहाड़ की चोटी पर जाटों ने अपना झण्डा पहले गाड़ा और उनके सभी सैनिक चोटी पर पहुंच गए, केवल 20-25 ही नहीं पहुंच सके। बलोच पलटन के कुल 20-25 सैनिक ही चोटी पर पहुंच पाए, बाकी उनकी सारी पलटन थककर गिर पड़ी।

इस कठोर मुकाबिले में जाटों की भारी जीत हुई। यह एक अद्भुत एवं अद्वितीय घटना थी। अंग्रेज अफसरों ने इस पलटन के अगले देनेवाले दण्ड माफ कर दिये तथा इस पलटन को ब्रिटिश सेना की सबसे शक्तिशाली पलटन मान लिया गया। [यह घटना हवलदार गंगाराम गांव डीघल जिला रोहतक (लेखक का चाचा) की बताई हुई है, जो उस समय इस मुकाबिले में 10 जाट पलटन में शामिल था]।

पाठकों को याद दिलाया जाता है कि इसी 10 जाट पलटन का नाम बदलकर 3/9 जाट रेजीमेंट (3 जाट पलटन) हो गया था, जिसने 22/23 सितम्बर 1965 को पाकिस्तान के लगभग एक ब्रिगेड को युद्ध में हराकर उनसे डोगराई (इच्छोगिल नहर के इस पार) शहर जीतकर अपना अधिकार कर लिया था।

3. दूसरी बटालियन छटी जाट लाइट इन्फेंटरी का विद्रोह - यह पलटन 1917 ई० में आगरा में खड़ी की गई थी। श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी भी इसी पलटन में एक सिपाही थे। यह नं० 35 सिक्ख पलटन से एक जाट कम्पनी, जिसकी संख्या 376 थी, के साथ पेशावर से बदलकर आगरा इस दूसरी बटालियन छटी जाट लाइट इन्फेंटरी में आ गये थे। कर्नल हार्डी ने जगदेवसिंह की योग्यता से प्रसन्न होकर इसको क्वार्टरमास्टर का हैडक्लर्क नियुक्त कर दिया। उसी समय इसको लांस नायक बना दिया। कुछ दिन के बाद इस पलटन को मैसोपोटामिया (ईराक) के युद्ध मोर्चों पर समुद्री जहाज द्वारा भेज दिया गया। इस पलटन के साथ वहां पर 14 नं० रिसाला, तोपखाना और सफरमैना भी थे।

जगदेवसिंह आर्यसमाजी थे जो प्रतिदिन सन्ध्या-हवन कराते तथा जवानों को सत्यार्थप्रकाश सुनाते थे। एक दिन वहां पर एक विशेष आदेश निकाला गया कि सब जवानों को मांस अवश्य खाना पड़ेगा। भारतीय अफसर अंग्रेजों से दबते थे, उन्होंने मांस खाना स्वीकार कर लिया और इसके लिए जवानों पर भी दबाव देने लगे। परन्तु जगदेवसिंह के नेतृत्व में आर्यसमाजी जवानों ने मांस खाने से


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इनकार कर दिया। इन्हें अंडर-अरेस्ट (कैद) कर दिया गया और एक अंग्रेज ब्रिगेडियर के अधीन कोर्टमार्शल (फौजी अदालत) बैठाया गया। ब्रिगेडियर ने जगदेवसिंह को तलब किया और बाइबिल हाथ में देकर कहा कि इसको चूमकर शपथ लो। जगदेवसिंह ने कहा कि यह तो ईसाइयों की पुस्तक है, मैं इसे नहीं चूम सकता।

हमारा धर्म ग्रंथ वेद है, हम उसी को मानते हैं। वहां वेद नहीं था। तब विवश होकर ब्रिगेडियर ने कहा कि अच्छा! यही शपथ लो कि मैं जो कुछ कहूंगा, सच कहूंगा। जगदेवसिंह ने यह कह दिया और उसके पूछने पर कहा कि मांस खाना हमारे धर्म के विरुद्ध है, इसलिए हम मांस हरगिज नहीं खायेंगे। ब्रिगेडियर ने कोर्ट भंग कर दिया और कोर्टमार्शल को वापिस लेकर कहा कि किसी के साथ मांस खाने के लिये जबरदस्ती न की जाए।

फिर इन सबको छोड़ दिया। आर्य सैनिकों की इस विजय पर सारी रेजिमेंट में हर्ष की लहर दौड़ गई और मांस खाना बन्द हो गया। इसके बाद जगदेवसिंह के नेतृत्व में वहां कैम्प में सब आर्यसमाजियों ने एक लकड़ी का अस्थिर आर्य मन्दिर खड़ा किया। वहां वे प्रतिदिन सन्ध्या-हवन कराते और सत्यार्थप्रकाश सुनाते थे। पंजाब रेजिमेंट और जाट पलटन के जवान वहां एक जगह रहते थे, मांस कोई नहीं खाता था। वहां पर जगदेवसिंह जी पलटन के क्वार्टर-मास्टर साहब के दफ्तर में हैडक्लर्क थे।

स्वदेश लौटने पर शानदार प्रदर्शन - यह जाट पलटन नदी के द्वारा अग्निबोटों द्वारा बसरा पहुंच गई और वहां से समुद्री जहाज में बैठकर बम्बई बन्दरगाह पर वापिस आ गई। बम्बई से स्पेशल ट्रेन द्वारा आगरा छावनी स्टेशन पर उतरी। पलटन में 5 कम्पनियां थीं। सबसे आगे हैडक्वार्टर कम्पनी ने मार्च किया। इसी कम्पनी की अग्रिम पंक्ति में जगदेवसिंह भी चल रहे थे। सभी कम्पनियों के आर्यसमाजियों ने परस्पर विचार करके निश्चय किया था कि जो भी कम्पनी चले, रास्ते में “वैदिक धर्म की जय” तथा “महर्षि दयानन्द की जय” के नारे लगाती चले। इन सब कम्पनियों के सैनिक आगरा के बाज़ारों में मार्च करते हुए ये नारे लगा रहे थे। सारा शहर जय के नारों की गूंज से स्तब्ध था और रास्ते भर जनता की भीड़ आश्चर्य के साथ देख रही थी। हथियारबन्द सेना का ऐसा प्रदर्शन अंग्रेजी शासन के उस युग में असाधारण कौतुक था। युवक आर्य जगदेवसिंह के नेतृत्व में सेना का यह जयघोष इतिहास की अपूर्व घटना थी। अंग्रेज अफसर इस प्रदर्शन से मन-मन में कुढ़ रहे थे, परन्तु ऐसे अदम्य नेतृत्व तथा संगठन के सामने अवाक् ही रह गये।

युद्ध समाप्ति के पश्चात् इस पलटन को तोड़ने का आदेश हुआ। रेजीमेंट के टूटने पर सब जवान अपने घरों को लौट गए। जगदेवसिंह से कर्नल हार्डी ने कहा कि मैं तुम्हें सिविल सर्विस में कोई अच्छी नौकरी दिला दूंगा, परन्तु उन्होंने कर्नल को धन्यवाद देते हुये कहा कि अब मैं किसी भी प्रकार की सरकारी नौकरी नहीं करना चाहता हूं। मैं तो संस्कृत पढ़ना चाहता हूं। फिर उन्होंने संस्कृत, वेद आदि का अध्ययन किया और वेदों के महान् विद्वान् बने।

श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी सन् 1917 के आरम्भ से 1921 के अन्त तक लगभग 4½ वर्ष सैनिक सेवा में रहे, जिसमें सन् 1919 के आरम्भ से सन् 1921 के अन्त तक लगभग 2½ वर्ष


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मैसोपोटामिया (इराक) आदि में युद्ध के मोर्चे पर रहे। (जगदेवसिंह सिद्धान्ती अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 8-15, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री)।

नोट
यह पलटन मैसोपोटामिया में अरबों के विद्रोह को दबाने के लिये भेजी गई थी, इसके लिये इस पलटन का बड़ा योगदान था। यह पलटन तोड़कर ट्रेनिंग बटालियन बना दी गई और बाद में जाट रेजिमेंटल सैंटर बन गई।

4. 21 नं० रिसाले (C.I.H.) के सिक्ख स्क्वॉड्रन का विद्रोह - द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन् 1940 में सैन्ट्रल इण्डिया हॉर्स (नं० 21 रिसाला) के एक सिक्ख स्क्वॉड्रन को समुद्र पार भेजने के लिये रेलगाड़ी द्वारा बम्बई पहुंचाया गया। वहां पर उन्हें 24 घण्टे तक रुकना पड़ा। उनमें से कई जवानों ने शहर में एक सभा में किसानों के साथ अन्याय करने तथा उनका शोषण करने, देश को आजाद कराने आदि के विषय में भड़काने वाले भाषण सुने। उन्होंने आकर अपने साथी जवानों को अंग्रेजों के विरुद्ध उपद्रव करने के लिए साहस दिलाया। अतः इस सिक्ख स्क्वॉड्रन ने देशभक्ति के जोश में आकर समुद्र पार जाने से इन्कार कर दिया। इस सिक्ख स्क्वॉड्रन को अंग्रेज अफसरों ने कोर्ट मार्शल लेकर इसके कमांडरों को काला पानी अण्डमान भेज दिया और इस स्क्वॉड्रन को तोड़ दिया। ये लगभग सभी सिक्ख जाट जवान थे। इस घटना से आर्मी हैडक्वार्टर को गम्भीर ठेस पहुंची और वहां सब सिक्ख यूनिटों को तोड़ने का विचार किया गया परन्तु ऐसा न कर सके। (Amritsar Mrs. Gandhi's Last Battle - Mark Tully and Satish Jacob, P. 34)।

5. 4/19 हैदराबाद रेजिमेंट का विद्रोह - द्वितीय विश्वयुद्ध जबकि पूरे जोरों पर था, उस समय सन् 1940 में हैदराबाद रेजिमेंट सिंगापुर में थी। इस रेजिमेंट में एक कम्पनी अहीरों की और एक कम्पनी जाटों की थी। ये दोनों कम्पनियां आर्यसमाज से प्रभावित तथा देशभक्ति की भावना रखती थीं। इन दोनों कम्पनियों के सैनिक हरयाणा के थे। अहीर कम्पनी में जहीरखां नामक एक मुसलमान अफसर था जो पक्का राष्ट्रवादी तथा अंग्रेज-विरोधी विचारधारा का व्यक्ति था। वह सिपाहियों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काता रहता था। किसी ने इन सब बातों की सूचना अंग्रेजों को दे दी और उन्होंने अहीर कम्पनी पर कड़ी निगरानी रखनी शुरु कर दी। जहीर के बहुत से पत्र, जिनमें अंग्रेजों के विरुद्ध जहर उगला गया था, अंग्रेजों ने पकड़ लिये। इन्हीं दिनों अहीर कम्पनी कैम्प से बाहर जंगल ट्रेनिंग के लिए चली गई और जहीर ही इस कम्पनी का सीनियर कमांडर था। थोड़े दिन बाद एक जर्मन लेडी, जो कि जासूस भी थी, जहीर से आ मिली। सारी जानकारी प्राप्त होने के बाद जर्मन लेडी ने जहीर को अवसर का पूरा लाभ उठाने का मशवरा दिया। एक दिन सुबह की परेड पर, वह जर्मन लेडी जहीर के साथ आई और प्रत्येक अहीर सिपाही से उसने हाथ मिलाया। जहीर ने बताया कि आज़ादी का विचार हमारे दिमागों में है, इससे हमारी यह इज्जत हुई है कि यह ‘ट्यूटानिक1 सुन्दरी हमसे हाथ मिला रही है और अगर कहीं सचमुच आज़ाद हों तो हमारा स्वागत सर्वत्र हो। वस्तुतः गुलामी बहुत बड़ा पाप है।

शीघ्र ही यह सब बातें अंग्रेज अफसरों को मालूम हो गईं और वे बौखला उठे। उन्होंने


1. ट्यूटानिक - यह जाट वंश के लोग हैं। ट्यूटानिक वंश को प्रमाणों द्वारा जाट वंश सिद्ध किया गया है। पूरी जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, यूरोप में जाटों के भिन्न-भिन्न नाम, प्रकरण।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-868


कम्पनी को तुरन्त सिंगापुर बुला लिया और जहीर को पदमुक्त कर दिया। सिपाहियों को यह अपमान बुरी तरह चुभ गया। उन्होंने अपनी बैरकों से बाहर निकलकर ऊंचे-ऊंचे नारे लगाने आरम्भ कर दिये। सब जगह हलचल मच गई, अफसर दौड़े-दौड़े आए। उनसे पूछा कि क्या बात है? जवानों ने जवाब दिया कि जहीर साहब के साथ जो अन्याय किया है, हम उसके विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं। रेजिमेंट के कमांडिंग अफसर ने टेलीफोन द्वारा चारों तरफ संदेश भिजवा दिए कि ‘हैदराबाद रेजिमेंट की अहीर कम्पनी विद्रोह कर रही है।’ तुरन्त गार्डन हाईलैंडर्स (यूरोपीय) आ पहुंचे। इसी कम्पनी की एक टुकड़ी क्वार्टर गार्द ड्यूटी पर थे, उसे फौरन स्काटिश गार्द से तब्दील करवा दिया गया। कोत (शस्त्रग्रह) को ताला लगवा कर कमांडिंग अफसर ने खुद चाबी ली; और चारों तरफ से सैनिकों के निवास स्थान को सशस्त्र सेनाओं ने घेर लिया। जवानों ने अब अपनी बैरक के आगे ही बैठकर भूख हड़ताल शुरु कर दी। उन्होंने कहा कि वे न तो बैरकों को छोड़ेंगे, न किसी का हुक्म मानेंगे और न ही खाना खायेंगे। इसी रेजिमेंट की जाट कम्पनी भी अपने भाई अहीरों की सहानुभूति में उनके साथ भूख हड़ताल में शामिल हो गई। अब तो स्थिति और भी खतरनाक हो गई। अंग्रेज अफसर घबरा उठे। शहर में भी आतंक छा गया, क्योंकि उन्हें अब तक याद था कि पिछले विश्वयुद्ध के दौरान ऐसे ही एक भारतीय कम्पनी ने विद्रोह किया था और उसने शहर में बड़ा नुकसान कर दिया था।

भारत के भावी सेनापति थिमैया इन दिनों हैदराबाद रेजिमेंट की ही एक ‘मिश्रित कम्पनी’ की कमान संभाले हुए थे। इस कम्पनी के अहीर व जाट भी बाग़ी हो गये थे। चार दिन तक सिपाहियों की हड़ताल जारी रही किन्तु चौथे दिन कमांडिंग अफसर ने अहीर तथा जाट सैनिकों को ‘कैदी कैम्प’ में मार्च कराने का हुक्म दिया। सैनिकों ने जवाब दिया कि हम यहां से तिल भर नहीं हिलेंगे। अब तो स्थिति और भी बिगड़ी। अब केवल एक चारा था। कमांडिंग अफसर ने थिमैया साहब को बुलाकर समझौते की बात चलाने के लिए कहा। थिमैया ने कमांडिंग अफसर से कहा कि जो कुछ भी समझौता मैं सिपाहियों के साथ करूंगा वह आपको मान्य होगा। कमांडिंग अफसर ने ‘हां’ कर दी।

थिमैया हड़ताली जवानों के पास गया और उनके बीच में बैठ गया। उनके लिए हुक्का मंगवाया और उसे पीने के लिए कहा। फिर उसने हरयाणा के गांवों और क्षेत्रों का जिक्र किया जिनको उन्होंने पहले देखा था। इस तरह बातचीत शुरु हो गई। कुछ घण्टों में थिमैया ने उन सिपाहियों का दिल जीत लिया। उन्होंने सिपाहियों से कहा कि तुम्हारा ‘स्टैंड’ बिल्कुल ठीक है, किन्तु इससे तुम्हारा कोई फायदा नहीं होगा, उल्टा नुकसान ही होगा। तुम्हें पता है कि अब युद्ध चल रहा है और तुम्हारी इस कार्रवाई को विद्रोह कहकर तुम सबको अंग्रेज गोली से उड़ा देंगे या फांसी दे देंगे। उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? अभी विद्रोह का ठीक समय नहीं आया है। अब तुम मेरी बात मान लो और हड़ताल समाप्त कर दो। जो कुछ हो गया, सो हो गया। थिमैया ने वादा किया कि तुम्हारे द्वारा की गई विद्रोही गतिविधियों के कारण किसी का भी बाल बांका नहीं होने दिया जाएगा। सैनिकों ने थिमैया की बात मान ली और झगड़ा समाप्त हो गया। उसी दिन उन्हें शस्त्र आदि दिए गए और सामान्य जीवन हो गया। इस घटना ने तथा ऐसी ही अनेक घटनाओं ने अंग्रेजों की आंखें खोल दी थीं कि राष्ट्रवादी


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आन्दोलन अब फौजों में भी फैल गया है और यदि वह व्यापक बन गया तो सन् 1857 दोहराया जा सकता है, किन्तु अबकी बार एक भी अंग्रेज जीवित नहीं छोड़ा जायेगा। वस्तुतः यह घटना हमारे स्वाधीनता के इतिहास का एक सुनहरा अध्याय है। (हरयाणा का इतिहास, भाग-3, पृ० 188-190, लेखक के० सी० यादव)।

6. केवलरी के सैनिकों द्वारा विद्रोह की योजना - सन् 1942 में “अंग्रेजो भारत छोड़ो” आन्दोलन के समय 47 केवलरी सियालकोट छावनी में थी। इस केवलरी के एक ट्रुप का कमांडर दफेदार सदाराम ब्रह्मचारी था जिसका गांव लुहारहेड़ी (जिला रोहतक) है। इस क्रांति में शामिल होने के लिए ट्रुप दफेदार सदाराम ने अपने देशभक्त सैनिकों की बड़ी टोली तैयार कर ली थी। रेजिमेंट की फौलादी गाड़ियां, हथियारों एवं अमुनेशन से पूरी तरह लैस हर समय तैयार रहती थीं। दफेदार सदाराम के इस क्रान्ति दल के सैनिक सभी जाट थे जिनमें अधिकतर जिला रोहतक के थे। ये सैनिक इस इन्तजार में तैयार बैठे थे कि यह क्रान्ति पंजाब से आगे बढ़े और ये सशस्त्र विद्रोह कर दें। इनका लक्ष्य पंजाब से अंग्रेजों का सफाया करके वहां भारतीय शासन स्थापित करना था और फिर दिल्ली की ओर बढ़ना था। परन्तु दुर्भाग्य से यह क्रान्ति पंजाब में उस तरफ आगे नहीं बढ़ी। इसलिए इन सैनिकों को यह सशस्त्र विद्रोह करने का अवसर नहीं मिल सका।

कुछ समय पश्चात् यह 47 नम्बर केवलरी फिरोजपुर छावनी में चली गई। वहां पर देशभक्त दफेदार सदाराम ने अपने विश्वस्त सैनिकों की गुप्त मीटिंग की, जिसमें देश को आज़ाद कराने का कार्यक्रम निश्चित किया गया। इन वीरों का निर्णय यह था कि जब नेताजी की आई० एन० ए० का अंग्रेजी सेना के साथ कड़ा मुकाबला शुरु हो जाये तभी विद्रोह शुरु कर दो। पहले छावनी से, और फिर सिविल में अंग्रेजों का सफाया कर दो। ऐसा करने से सारे देश में सेना और जनता अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर देगी। यह देश के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि जापानी सेना एवं आजाद हिन्द फौज को पीछे हटना पड़ा और 47 कैवलरी के सैनिकों को सशस्त्र विद्रोह करने का अवसर न मिल सका। वरना सन् 1944 में ही भारत आज़ाद हो जाता तथा दो कौमों के नाम पर देश का विभाजन और हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक रक्तपात कभी न होता। क्योंकि उस समय देश में दो ऐसे महापुरुष मौजूद थे जिन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों का निवाला प्याला एक कर दिया था। वे थे चौ० सर छोटूराम और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस*

इसी तरह से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने हेतु भारतीय सैनिकों के अनेक संगठन बन चुके थे।

7. देशभक्त एवं महान् क्रान्तिकारी मेजर जयपालसिंह मलिक

1. अम्बाला में “सैनिक क्रांतिकारी संगठन” - मेजर जयपालसिंह मलिक, जो एयर सप्लाई यूनिट में उस समय लेफ्टिनेन्ट थे, ने गुप्त रूप से अम्बाला में यह संगठन बनाया। यहां पर आपने दो महीने के भीतर 300 भारतीय कमांडिंग अफसरों को अपने संगठन का अंग बना लिया, जिनका प्रभाव 10,000 सैनिकों पर था। इनका इरादा सशस्त्र विद्रोह करके अंग्रेजों को भारत से निकाल फैंकने का था।


(*) - पुस्तक “एक देशभक्त” लेखक योगिराज सदाराम जी ब्रह्मचारी।


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अंग्रेजों के विरुद्ध इश्तिहार छापकर भारतीय सैनिकों तक पहुंचाए गये। अम्बाला में इंडियन एयर फोर्स के प्रशिक्षण लेने वाले भारतीय पायलट इन इश्तिहारों के बंडलों को रात के समय सैनिक छावनी के निकट गिरा दिया करते थे। इस प्रकार जयपालसिंह मलिक एक भयानक खेल बहादुरी तथा चतुराई के साथ खेलते रहे।

2. लीबिया के रेगिस्तान में भारतीय सैनिक ड्राइवरों की बग़ावत - द्वितीय महायुद्ध के दौरान सन् 1942 ई० में लीबिया के रेगिस्तान में सैनिक मोटर गाड़ियों के चालक भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध बग़ावत का झण्डा खड़ा कर दिया था। इसका कारण यह था कि अंग्रेज ड्राइवरों के समान भारतीय ड्राइवरों को सुविधा प्राप्त न थी बल्कि अंग्रेज आफिसर उनके साथ अन्याय एवं कठोरता का बर्ताव करते थे। विद्रोह करने वाले हजारों भारतीय सैनिकों को कैद कर लिया गया और बहुतों को गोलियों से उड़ा दिया गया। उस समय भारतीय तथा अंग्रेज सैनिकों के बीच गोलियां भी चलीं। सन् 1857 के बाद यह बहुत बड़ी घटना थी। इस घटना से अंग्रेजों के कान खड़े हुए और उनको भारतीय सैनिक विद्रोह का भय हुआ। अंग्रेज इस घटना को गुप्त रखना चाहते थे परन्तु मेजर जयपालसिंह मलिक के विद्रोही संगठन ने इस घटना का जमकर प्रचार किया था।

3. 25 अगस्त 1942 को सैनिक क्रांतिकारी संगठन की दिल्ली में बैठक - 25 अगस्त 1942 को सैनिक क्रांतिकारी आर्गेनाईजिंग कौंसिल की बैठक दिल्ली में फ्रंटियर हिन्दू होटल में हुई। जयपालसिंह मलिक ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि “जब तक सेना और जनता एकजुट होकर किसी क्रांतिकारी संगठन के नीचे बगावत नहीं करते, तब तक परिणाम की दृष्टि से घटिया होते हुये भी अंग्रेज गुण में श्रेष्ठ बने रहेंगे।” इसी विचार से प्रेरित होने के कारण आपके संगठन ने सन् 1942 के आंदोलन में जनता की हथियार तथा धनराशि से सहायता की। लगभग 3000 हथियार सेना से इन क्रांतिकारियों को दिए गए। इससे सिद्ध होता है कि भारतीय सेना आजादी की लड़ाई में गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन से कम महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं कर रही थी।

इसके प्रमाण यह भी हैं कि मेरठ में पैदल सेना की एक यूनिट ने मोर्चे पर जाने से इन्कार कर दिया, बम्बई में एक यूनिट ने अंग्रेजों पर गोली चलाई थी, चन्द्रसिंह गढ़वाली की यूनिट ने सत्याग्रहियों पर गोली चलाने से साफ इन्कार कर दिया था और बम्बई का नाविक विद्रोह तो मशहूर है ही, जिसका वर्णन अगले पृष्ठों पर किया जायेगा।

4. इंडियन सोलजर्स लीग - मेजर जयपालसिंह मलिक को सन् 1943 में चकलाला (रावलपिंडी) में नियुक्त कर दिया गया। वहां पहुंचने पर आपको पता चला कि रावलपिंडी में अंग्रेज विरोधी एक दूसरा संगठन है जिसका नाम ‘इण्डियन सोलजर्स लीग’ था। यह संगठन गैर कमीशन आफीसर्स (NCO's) तथा सिपाहियों का था। आप ने इस संगठन के साथ मेल मिलाप कर समझौता कर लिया था।

7 जनवरी 1946 को मेजर जयपालसिंह ने मरी (पाकिस्तान) में आर्गेनाइजिंग कमेटी की मीटिंग बुलाई। इस मीटिंग में मार्च 1946 में सशस्त्र विद्रोह करने का निर्णय लिया गया। अंग्रेजों


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को इस विद्रोह का पता लग गया। उन्होंने वहां कई यूनिटों के हथियार जमा करवा लिये। वायरलैस केन्द्रों से भारतीय ऑपरेटर हटाकर अंग्रेज ऑपरेटर लगा दिए गये।

मेजर जयपालसिंह कलकत्ता से अक्तूबर 1946 में भूमिगत हो गये।

5. भूमिगत होने से पूर्व पं० नेहरु जी को खतरे से बचाना - पं० नेहरू जी का प्रोग्राम नेफा पर उड़ान भरने का था। मेजर जयपालसिंह कांग्रेस की आंदोलन नीति से असन्तुष्ट थे। इसी कारण कर्नल एगिल्स ने मेजर जयपालसिंह को बता दिया कि बहुत सम्भव है कि अंग्रेजों की कोई गुप्त योजना है कि पं० नेहरू जी पर हमला किया जाए और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के कर्णधार को खत्म कर दिया जाए। आपको राय ने भी बताया और एक अमेरिकन अफसर ने भी कि नेफा में पं० नेहरू को खतरा होगा। इससे साफ है कि अंग्रेजों की नेहरू को मारने की योजना थी। मेजर जयपालसिंह ने तुरन्त अपना एक आदमी कलकत्ता भेजा जिसके द्वारा आपने एक बेनामी पत्र नेहरू जी के लिए भेजा। उस पत्र में आपने नेहरू जी को उसकी नेफा यात्रा को रद्द करने की प्रार्थना की थी। नेहरू जी ने अपनी यह यात्रा रद्द कर दी। मेजर जयपालसिंह का यह एक प्रशंसनीय तथा महान् कार्य था।

8. 6 नम्बर रिसाले का विद्रोह

द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 नम्बर रिसाला के जवान इटली में युद्ध कर रहे थे। उस समय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने जर्मनी में “आजाद हिन्द संघ” की स्थापना कर दी थी। जर्मनी ने इटली तथा अन्य मोर्चों पर उनके विरुद्ध लड़ने वाले भारतीय सैनिकों पर इश्तिहार गिराये, जिन पर लिखा था - “तुम्हारी आजाद हिन्द फौज बन चुकी है जिसकी स्थापना सुभाषचन्द्र बोस ने की है। भारत में आपके सब नेता अंग्रेजों ने कैद में डाल दिये हैं। आप हमारी तरफ आ जाओ या मोर्चों से दूर हट जाओ। अपने देश को अंग्रेजों से आज़ाद कराओ।”

वहां पर 6 नम्बर रिसाला के जवानों का दरबार करके अंग्रेज अफसर उनसे पूछते थे कि “यदि हिटलर पकड़ा जाये तो उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए?” जवानों का उत्तर होता था कि “जैसा एक सम्राट् को दूसरे सम्राट् के साथ करना चाहिए?” उनके कहने का अर्थ था कि उसको छोड़ देना चाहिए। इस तरह की बातों से अंग्रेजों ने भांप लिया था कि भारतीय सैनिकों में अपने देश को आजाद कराने की भावना आ गई है। इटली के मोर्चों पर नम्बर 6 रिसाला के जवानों में अपने देश को आजाद कराने की इतनी भावना आ चुकी थी कि जब भी ठीक अवसर मिला, तभी उन्होंने अपने टैंकों से अंग्रेज सेना (गोरा पलटन) पर फायर किये। जर्मनी के युद्ध में हारने के बाद 6 नम्बर रिसाला 27 जुलाई, 1944 को इटली से समुद्री जहाज में बैठकर चला और 11 अगस्त, 1944 को कराची बन्दरगाह पर उतरा। 6 नम्बर रिसाला में एक स्क्वॉड्रन जाट, दूसरा सिक्ख, तीसरा पंजाबी मुसलमान और हैड क्वार्टर तीनों का मिला-जुला था। इसमें जाट 225 और सिक्ख जाट 225 यानी जाटों की कुल संख्या 450 की थी। इसके साथ जहाज में आने वाली कई पलटनें भी थीं, जिनमें काफी जाट जवान थे। ये सब जवान विदेशों में रहकर देशभक्ति की भावना तथा अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा अपने साथ लाये थे। रास्ते में जहाज में जवानों को नं० 6 रिसाला के एक सवार अमीरसिंह सुहाग, गांव मातनहेल जि० रोहतक ने देश की आजादी प्राप्ति एवं अंग्रेजों के


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विरुद्ध भड़कानेवाले भाषण दिये। यह भी निश्चय किया गया कि कराची की बन्दरगाह पर एक अंग्रेजी हैट (Hat) को इंग्लैंड की ओर ठोकर मारी जायेगी और सब बोलेंगे कि “अंग्रेज भारत से इंग्लैंड जाओ।” कराची की बन्दरगाह पर इन सैनिकों का भारी स्वागत तथा खाने का प्रबन्ध किया गया था। परन्तु जहाज यात्रा में ही अंग्रेज अफसरों को इन सब बातों की सूचना मिल गई थी। अतः उन्होंने कराची में यह सन्देश भेज दिया। अतः वहां से सब स्वागत प्रबन्ध हटा दिये गये और 6 नम्बर रिसाला के लिए स्पैशल ट्रेन लगा दी गई। जहाज से सब सैनिक कराची बन्दरगाह पर उतर गये।

पूर्व योजना के अनुसार नं० 6 रिसाले के सवार अमीरसिंह जाट ने हैट को भूमि पर रखकर उसे इंग्लैंड की ओर जोर से ठोकर मारी और ऊंचे स्वर से कहा - “अंग्रेज भारत से इंग्लैंड जाओ।” इसके साथ ही 6 नम्बर रिसाले के जवानों तथा अन्य यूनिटों के सैनिकों ने भी जोर-जोर से यही शब्द कहे और जयहिन्द, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, भारत माता की जय आदि के नारे लगाये। कराची के नागरिक यह सुनकर दंग रह गये और अंग्रेजों को भारी ठेस पहुंची। नं० 6 रिसाले के सैनिकों को तुरन्त स्पेशल ट्रेन में बैठाकर फिरोजपुर रेजिमेंटल सैंटर में भेज दिया और उसी दिन सबको दो-दो महीने की छुट्टी पर भेज दिया गया।

10 अगस्त, 1945 को जापान ने हथियार डाल दिये थे। उसकी हार के बाद फिरोजपुर में कर्नल साहब ने नं० 6 रिसाले के जवानों का दरबार किया। उस दरबार में कर्नल साहब ने जवानों से दो बातें पूछीं - (1) कोई नया सुझाव दो, (2) आई० एन० ए० के सैनिकों के साथ क्या व्यवहार किया जाये? इस पर सवार अमीरसिंह सुहाग ने कर्नल से पूछा कि “आपने युद्ध क्यों लड़ा?” कर्नल ने जवाब दिया कि अपने देश की आजादी के लिए।

सवार अमीरसिंह ने कहा कि आई० एन० ए० ने भी अपने देश को आजाद कराने के लिए युद्ध लड़ा, यह उनका अधिकार था। इसलिए उनको किसी प्रकार की सज़ा देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अतः उनको भारत का राज्य मिलना चाहिए।

सवार अमीरसिंह ने कर्नल से पूछा कि आपने अपनी आज़ादी के लिए हमको युद्ध में क्यों घसीटा। हमको आप लोगों ने क्या दिया? हमको गुलाम ही रखना चाहते हो। अमीरसिंह ने निडरता व दृढ़ता से कर्नल को कहा कि “अंग्रेजों को चाहिए कि हमारे देश को आजादी देकर यहां से बाहर निकल जायें।” कर्नल ने उत्तर दिया कि हम तुम्हारी बात वायसराय व चर्चिल को लिखेंगे।

सब जवानों के देश की आजादी के जोश को देखकर अंग्रेज सवार अमीरसिंह का कुछ नहीं कर सके। इन घटनाओं से अंग्रेज जान गए थे कि सेना में किसी समय भी बड़ा विद्रोह भड़क सकता है। (जबानी बताया - (1) नायब दफेदार खजानसिंह अहलावत गांव गोच्छी, जिला रोहतक, (2) सवार अमीरसिंह सुहाग गांव मातनहेल, जि० रोहतक। ये दोनों 6 रिसाले में इन सब घटनाओं में हाजिर थे और अब दोनों जीवित हैं)।

9. 8-9 फरवरी 1946 को भारतीय जलसेना के जवानों का जल विद्रोह

नेवी के जल-विद्रोह का कारण - भारतीय जनजीवन से दूर विदेशों एवं समुद्रों में रहते हुए


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-873


भी राष्ट्र के स्वाधीनता आंदोलन और आजाद हिन्द फौज के कारनामों ने उन भारतीय देशभक्त जल सैनिकों को भी देश के स्वाधीनता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। एक ओर उनके भीतर राजनैतिक चेतना जागी तो दूसरी ओर अंग्रेज अधिकारियों का रवैया घृणास्पद ही बना रहा। भारतीय जवानों को घटिया तरह का भोजन दिया जाता था, उन्हें अपमानित किया जाता था और उनसे पशु की तरह काम लिया जाता था। आखिर इस अपमानजनक बर्ताव को वे कब तक सहन करते। इन कारणों से जल सैनिकों ने ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौती दी और स्वाधीनता की बलिवेदी पर अपनी कुर्बानी देने के लिए वे तैयार हुए।

द्वितीय महायुद्ध में भारतीय नेवी के जवानों ने दूर देशों तक अपनी वीरता की जो धाक बिठाई थी, वह जग जाहिर थी। वे जर्मनी, इटली और जापान के साथ भयंकर युद्ध लड़ चुके थे और उन्हें अपने पर असीम आत्म-विश्वास था। द्वितीय महायुद्ध के मध्य उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के सम्मान की रक्षा हेतु इस आशा पर कुर्बानियां दी थीं कि युद्ध के बाद भारत को स्वाधीनता दे दी जायेगी। युद्ध समाप्त हो चुका था। इसी बीच आजाद हिन्द फौज की गौरव गाथा उन्हें सुनने को मिली थी, जिससे उनके हृदयों में राष्ट्रीय भावनाओं का उदय और भी तेजी से हुआ था। दूर देशों में जाकर उन्होंने स्थान-स्थान पर स्वाधीनता के क्रांति नाद सुने थे। इसी बीच नेवी की भर्ती में हजारों नये जवान युद्धकाल में भर्ती हुए थे, जिन्होंने भारत के स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप को अपनी आंखों से देखा था। उधर युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेज और भी घमण्डी हो गये थे। वे सैनिकों की कुछ भी चिन्ता नहीं करते थे।

नेवी के जल-सैनिकों का विदोह - नेवी के उन रण-बांकुरों का लक्ष्य था युद्धपोत ‘तलवार’। 8 फरवरी, 1946 को इसी युद्धपोत के ऊपर से ही तो बगावत का झण्डा बुलन्द हुआ था। उस विख्यात युद्धपोत ‘तलवार’ पर यूनियन जैक की जगह राष्ट्रीय तिरंगा, हरा और लाल - तीन झण्डे फहरा दिये गये। देखते-देखते बम्बई में स्थित नेवी के 20,000 युवकों ने अपने आपको संघर्ष में झोंक दिया था, बिना यह सोचे कि इस बगावत का परिणाम क्या निकलेगा। वे अंग्रेजों के विरुद्ध पूरी तरह मर-मिटने को तैयार थे। दो दिन के बाद ही कलकत्ता, कराची और देश की अन्य बन्दरगाहों पर जल-विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी थी। इसके अतिरिक्त जो भारतीय जल-सेना के जवान समुद्री जहाजों से दूर देशों में तथा समुद्र के बीच में थे, सभी ने विद्रोह कर दिया जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश नेवी का कार्य पूरी तरह ठप्प हो गया। 9 फरवरी 1946 को बम्बई की बोरी-बन्दर की ओर नेवी के हजारों जवान ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए बढ़ते जा रहे थे। बम्बई के असंख्य नागरिक अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आ गये थे। वे एक अभूतपूर्व घटना को बड़े विस्मय के साथ देख रहे थे। इन नागरिकों की पूरी सहानुभूति नेवी के जवानों के साथ थी।

बम्बई के इतिहास में सचमुच ही पहला अवसर जबकि नेवी के भारतीय जवानों को इस रूप में लोगों ने देखा था। जुलूस के आगे कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डों को फहराते हुए जवान नारा बुलन्द कर रहे थे - ‘कांग्रेस-लीग एक हो’, ‘हिन्दू-मुस्लिम एक हों’, ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’। इस रोमांचपूर्ण दृश्य को देखकर असंख्य नागरिक देशभक्ति की भावनाओं से प्रभावित हो जुलूस में शामिल हो गए। मार्ग में अमेरिकन पुस्तकालय पर फहराते ब्रिटिश और अमेरिकन झण्डों को जवानों ने आग लगा दी थी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-874


वायुसेना का सहयोग - जलसेना की इस क्रान्ति में वायुसेना के भारतीय जवानों ने भी साथ दिया। संघर्ष के दिनों में बम्बई और दूसरे स्थानों पर भारतीय वायु-सैनिक, नेवी-सैनिकों की सहानुभूति में हड़ताल पर रहे। जिस समय नेवी के जवानों को गोलियों से उड़ाया जा रहा था तो बम्बई के बाजारों में वायुसैनिक सफेद झण्डों पर खून के दाग लिए नारे लगाते हुए घूम रहे थे और जनता को अपने भाइयों की रक्षा के लिए प्रेरित कर रहे थे। न केवल बम्बई में अपितु कलकत्ता में स्थित वायु-सैनिकों ने भी अपने जल-सैनिकों का साथ दिया था।

पैदल सेना की योजना - यह पिछले पृष्ठों पर मेजर जयपालसिंह के प्रसंग में लिखा गया है कि - 7 जनवरी 1946 को मरी में मेजर जयपालसिंह की अध्यक्षता में उनकी आर्गनाइजिंग कमेटी की मीटिंग हुई जिसमें सर्वसम्मति से सन् 1946 के मार्च महीने में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करने पर सहमति हो गई थी। 8-9 फरवरी 1946 को नेवी के जवानों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया जिसकी जानकारी सारी भारतीय सेना में फैल गई। इस पर सेना में निश्चित हो गया कि ज्यों ही अंग्रेज हमारी नौसेना के जहाजों पर फायर करें, सेना के हमारे सभी संगठनों को बग़ावत कर देनी चाहिये और मार्च महीने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये।

नेवी के इस विद्रोह का का स्वरूप विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय था। ऐसे अवसर पर जब कि मिस्टर जिन्ना देश में साम्प्रदायिकता की आग भड़का रहे थे, नेवी के वीर सैनिकों ने भारत की बन्दरगाहों से ‘हिन्दू-मुस्लिम एक हों’ और ‘कांग्रेस-लीग एक हो’ का नारा बुलन्द किया था। वे साहसी युवक हिन्दू-मुसलमान न होकर पूरी तरह हिन्दुस्तानी बनकर संघर्षरत हुए थे। उनकी एक प्रमुख मांग यह भी थी कि आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को रिहा किया जाए। नेवी की केन्द्रीय संघर्ष समिति ने राष्ट्र की जनता को अन्तिम संदेश इस प्रकार दिया था -

हमारी हड़ताल हमारे राष्ट्र के जीवन में एक ऐतिहासिक घटना है। पहली बार भारतीय सरकारी कर्मचारियों और साधारण जनता का रक्त एक सम्मिलित ध्येय के लिए इकट्ठा बहा है। हम नौकरी में काम करने वाले साथी इसे कभी नहीं भूल सकते। हम यह भी जानते हैं कि हमारे भाई और बहिन भी हमें नहीं भूलेंगे।

नेवी का यह विद्रोह, जिसके साथ वायु सेना तथा पैदल सेना भी थी, जोर पकड़ता जा रहा था और शीघ्र ही 1857 ई० से भी भयंकर रूप धारण कर लेता। इससे ब्रिटिश सैन्य नियंत्रण पूरी तरह डगमगा गया था और न केवल भारत का बल्कि लन्दन का ब्रिटिश सिंहासन हिल गया था। ऐसे नाजुक समय में कांग्रेसी नेताओं ने इस विद्रोह को दबाने का विचार किया। यह नहीं कहा जा सकता क्यों ऐसा किया? अरुणा आसफअली और जयप्रकाश नारायण विद्रोही सैनिकों का समर्थन कर रहे थे, पर गांधीजी के हस्तक्षेप से मौन हो गये। अन्य चोटी के कांग्रेसी नेताओं ने सरदार पटेल को नौसैनिकों की हड़ताल वापस करवाने के लिए नियुक्त किया। सरदार पटेल और सेनापति जनरल ऑकिनलेक दोनों बम्बई गये। परन्तु सरदार पटेल के समझाने पर ही नौसैनिकों ने अपनी हड़ताल वापस ले ली। सेना का यह विद्रोह राष्ट्रीय नेताओं के हस्तक्षेप से शांत हो गया जिससे अंग्रेजों को अगस्त 1946 में व्यापक पैमाने पर हिन्दू-मुस्लिम झगड़े कराने का मौका मिल गया।


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नेवी के सैनिकों पर अंग्रेजों के अत्याचार -

नेवी के इस विद्रोह के समय जलसेना के भारतीय जवानों ने प्रत्येक स्थान पर उन समुद्री जहाजों पर अपना पूरा अधिकार कर लिया था जिन पर वे कार्य कर रहे थे। उन्होंने उन जहाजों के अंग्रेज अफसरों को मार दिया था तथा उनके सेवक भारतीय अफसरों को बन्दी बना लिया था। इस जल-विद्रोह के कारण ब्रिटिश सैन्य नियंत्रण पूरी तरह डगमगा गया था। ऐसी भयंकर स्थिति में ब्रिटिश सैन्य-संगठन ने इस विद्रोह को कुचल देने के लिए ऐसा दमन-चक्र चलाया कि जिसे याद करके रोंगटे खड़े हो जायें। विद्रोह की घटनाओं को पूरी तरह छिपाकर रखने के प्रयत्न हुए। भारतीय नेवी के जहाजों पर जो समुद्र में किनारों से दूर खड़े थे, अन्धा-धुन्ध आग बरसाई गई। नेवी के हजारों जवानों को गोलियों से भून दिया और यह प्रयत्न किया गया कि जितनी जल्दी हो सके इस विद्रोह की ज्वाला को हर हालत में बुझा दिया जाये। दूर देशों में गए भारतीय जलसैनिकों पर भी इसी प्रकार के भयंकर अत्याचार किए गये। अंग्रेजों ने इन सब घटनाओं को पूरी तरह छिपाकर रखा। ब्रिटिश अधिकारी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि यदि यह विद्रोह और फैला तो ऐसी भयंकर आग का रूप धारण कर लेगा कि जिसमें स्वयं ब्रिटिश शासन ही भस्म हो जायेगा। इस भयंकर आग से अंग्रेजों को, हमारे कांग्रेसी नेताओं ने नेवी हड़ताल बन्द करवाकर बचा दिया।

जलसेना के इस संघर्ष में असंख्य भारतीय वीर शहीद हुए थे। दुर्भाग्य की बात है कि ब्रिटिश अधिकारियों ने उन सब घटनाओं पर पर्दा डाले रखा और वे असंख्य शहीद अनजाने ही रहे। आज तक भी वे अनजाने हैं क्योंकि न उन पर कोई मुकदमा चला और न ही राजनैतिक स्तर पर उनके बारे में कोई चर्चा ही हुई। नेवी के उन जवानों में बहुत बड़ी संख्या पंजाब और हरयाणा के जवानों की भी थी जिनमें अधिकतर जाट जवान थे। हरयाणा प्रदेश के अनेक देशभक्त सैनिकों ने इस विद्रोह में भाग लिया और अपनी बलि दी। वे आज भी हम सब के लिए अनजाने ही हैं। देश के लिए नामरहित रहकर बलिदान देने की यह घटना अपने आप में अपूर्व है, विलक्षण है और गौरवपूर्ण भी है।

राजनैतिक प्रभाव - आजाद हिन्द की सैनिक क्रान्ति के पश्चात् जलसेना और वायुसेना की इस क्रान्ति ने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया था। जलसैनिकों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता का नारा बुलन्द करके अंग्रेजों की फूट-नीति का पर्दाफाश किया था। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की घटनाओं को अंग्रेज भूले नहीं थे। वे अच्छी तरह जान गये कि इस सैनिक-विद्रोह का परिणाम सन् 1857 के सैनिक विद्रोह से बहुत अधिक भयंकर होगा जिससे अबकी बार अंग्रेजों का पूरी तरह सफाया कर दिया जायेगा। अतः अंग्रेजों के लिये यह आवश्यक हो गया था कि जितनी जल्दी हो सके, वे सत्ता का हस्तांतरण करके इस देश को सम्मान के साथ छोड़ दें। (स्वाधीनता संग्राम और हरयाणा पृ० 273-376, लेखक देवीशंकर प्रभाकर)। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध तीन मोर्चों पर युद्ध लड़ा।

1. कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन 2. आज़ाद हिन्द सेना क सशस्त्र युद्ध 3. भारतीय सैनिकों का सशस्त्र विद्रोह इनके विषय में इसी अध्याय में पिछले पृष्ठों पर विस्तार से वर्णन किया गया है। इनके पढ़ने से परिणाम स्पष्ट यह निकलता है कि केवल कांग्रेस के अहिंसक


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आंदोलनों से अंग्रेज इस देश को आसानी से आज़ाद नहीं करते और कई वर्षों तक असत्य आश्वासन देते रहते और नये-नये उपाय निकाल कर राज्य सत्ता अपने पास रखने के प्रयत्न करते रहते। आई० एन० ए० के संघर्ष और भारतीय सैनिकों के सशस्त्र विद्रोह से ब्रिटिश शासन का सिंहासन दहल गया तथा इनके डर एवं दबाव से अंग्रेज भारतवर्ष को आज़ाद करके यहां से चुपचाप सम्मान के साथ निकल गये।

पाठक समझ गए होंगे कि कांग्रेस आंदोलनों में जाटों का बड़ा योगदान रहा तथा गैर कांग्रेसी जाटों ने भी भारत की आजादी के लिए बलिदान दिए। आजाद हिन्द फौज और भारतीय सैनिकों के सशस्त्र विद्रोह में तो जाटों की संख्या सबसे अधिक थी। आई० एन० ए० तथा सैनिक तो सब के सब लड़ाका जातियों के थे और किसानों के बेटे थे। इससे स्पष्ट होता है कि भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में जाटों का बड़ा भारी योगदान रहा है।

भारत को स्वतन्त्रता प्राप्ति

सन् 1945 में इंग्लैंड में चुनाव हुए जिसमें मजदूर दल विजयी हुआ था तथा चर्चिल का शासन खत्म हो गया। इस मजदूर दल के अधिकांश सदस्य भारत को स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में थे। इस मजदूर दल के नेता मि० एटली इंग्लैंड के प्रधानमन्त्री बने। मुस्लिम लीग देश के विभाजन पर तुली हुई थी और कांग्रेस देश को संगठित रखना चाहती थी। 26 अगस्त 1946 को केन्द्र में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों का सम्मिलित मंत्रीमण्डल बनाया गया। इस अन्तरिम सरकार (Interim Government) के जवाहरलाल नेहरू प्रधानमन्त्री बने परन्तु दोनों दलों में कड़ा मतभेद था। अतः नये विधान के बनाने में मुस्लिम लीग ने पग-पग पर विरोध करना प्रारम्भ किया। सरकार चलाना कठिन हो गया। अब मुस्लिम लीग ने बलपूर्वक पाकिस्तान प्राप्त करने का प्रयत्न आरम्भ किया। ब्रिटिश सरकार को भारत में अपनी सत्ता बनाये रखना असम्भव हो गया था। सब परिस्थितियों पर विचार करके 20 फरवरी 1947 को इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एम० आर० एटली ने घोषणा की कि जून 1948 से पहले ब्रिटेन भारत को छोड़ देगा। कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता न होने तथा तथा एटली की घोषणा के कारण बंगाल, बिहार और पंजाब में साम्प्रदायिकता की ज्वाला प्रज्वलित हो गई। लाखों मनुष्य मौत के घाट उतारे गये।

मार्च 1947 में लार्ड माऊण्टबेटन वायसराय नियुक्त होकर भारत आया। वह कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से बातचीत करके इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि देश का विभाजन करके ही कांग्रेस और लीग को सन्तुष्ट किया जा सकता है। कांग्रेस के नेताओं ने देश के विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1947 को दो देश भारत और पाकिस्तान स्वतन्त्र हुए। असंख्य देशभक्तों के बलिदानों और त्याग ने सफलता पाई, उनके स्वतन्त्र भारत का स्वप्न साकार हुआ। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने 14/15 अगस्त की रात के 12 बजे के बाद लाल किले पर से ब्रिटिश यूनियन जैक को उतारकर अपने करकमलों द्वारा उसके स्थान पर राष्ट्रीय तिरंगा झण्डा फहरा दिया। 15 अगस्त प्रतिवर्ष भारत में स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है।

ब्रिटिश सरकार ने भारतीय देशी रियासतों के साथ की गई समस्त संधियां समाप्त कर लीं। भारत सरकार के प्रथम गृह मन्त्री सरदार पटेल ने लगभग 600 रियासतों को भारत सरकार में


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मिला लिया। स्वतन्त्र भारत का पहला गवर्नर जनरल लार्ड माऊण्टबेटन को बनाया गया। 21 जून, 1948 को स्वतन्त्र भारत के पहले और अन्तिम गवर्नर जनरल श्री राजगोपालाचार्य (राजाजी) बने। 26 जनवरी 1950 ई० को भारतीय संविधान भारत में लागू हुआ। उसी दिन से गणराज्य भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रप्रसाद घोषित किए गये और राजाजी अपना पद छोड़ गये। भारत में हर 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

देश का विभाजन होने पर भारत और पाकिस्तान के नागरिकों को एक देश से दूसरे देश में जाना पड़ा। इन दोनों देशों में हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे पर पाश्विक अत्याचार करने में लगे हुए थे। लाखों नर-नारी तथा बालकों की हत्या कर दी गई और भयंकर अत्याचार किए गए। ऐसी दुखान्त स्थिति में महात्मा गांधी जी देश के लोगों को अहिंसा, सत्य और प्रेम का सन्देश देते हुए स्थान-स्थान पर भ्रमण कर रहे थे। 30 जनवरी, 1948 को एक धर्मान्ध हिन्दू नत्थूराम गोडसे ने उनको गोली मार दी जिससे उसका स्वर्गवास हो गया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने अपने देश के लिए बलिदान दिया। वे सदा के लिए अमर रहेंगे।

दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम

आधुनिक युग में दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम को अपने समय का भामाशाह, कुबेर का अवतार, हरिश्चन्द्र, दधीचि ऋषि और हरयाणा का कोहेनूर हीरा की उपमा दी गई है।

जननी जने तो भक्त जने या दाता या शूर।
नहीं तो जननी बांझ रहे, काहे गंवावै नूर॥

महाकवि कालिदास ने महाराजा रघु के जन्म के विषय में अपने महाकाव्य रघुवंश में लिखा है - “भवो हि लोकाभ्युदयाय दादृशाम्” अर्थात् रघु जैसे महापुरुषों का जन्म संसार के कल्याण के लिए होता है। ठीक इसी प्रकार लोक कल्याण के लिए ही हमारे चरित नायक दानवीर सेठ चौधरी सर छाजूराम का जन्म सन् 1861 ई० में जाट लाम्बा वंश में अलखपुरा गांव (जिला भिवानी), त० बवानी खेड़ा में हुआ था। सूर्यवंशी मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के ज्येष्ठ पुत्र लव से इस लाम्बा जाटवंश का प्रचलन हुआ था। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, लाम्बा सूर्यवंशी-लववंशी, प्रकरण)।

आपके पिता जी का नाम सालिगराम था। आपके पूर्वज झुझुनूं के निकटवर्ती गोठड़ा से आकर यहां पर आबाद हुए थे। वहां से चलकर ढाणी माहू में बसे। ये लोग एक अंग्रेज की जमींदारी में सामान्य जीवन बिताते थे। आपके परदादा चौ० थानाराम इसी गांव ढाणी माहू (भिवानी) में रहे थे। आपके दादा चौ० मनीराम ढाणी माहू को छोड़कर सरसा में जा बसे। लेकिन कुछ दिनों बाद आपके पिता चौ० सालिगराम सरसा से नारनौंद जिला जींद में आकर बस गए। किसी कारणवश सन् 1860 में आपके पिताजी नारनौंद छोड़कर अलखपुरा गांव में आकर बस गये।

आपके पिता साधारण स्थिति के किसान थे। आपका बचपन माता-पिता के साथ ही अलखपुरा के ग्रामीण वातावरण में बीता। आपने प्रारम्भिक शिक्षा बवानी खेड़ा के स्कूल में प्राप्त की और छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे। भिवानी स्कूल से मिडल पास के बाद आपको रिवाड़ी के हाई स्कूल में दाखिल करवा दिया गया। दूसरे विषयों के अतिरिक्त आप संस्कृत, अंग्रेजी, महाजनी, हिन्दी, उर्दू में बहुत प्रवीण थे। परन्तु पारिवारिक परिस्थितियों वश दसवीं से आगे न पढ़ सके और शिक्षा यहीं पर रुक गई।


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सेठ चौ० छाजूराम का हजारीबाग कलकत्ता को प्रस्थान - भिवानी में पढ़ते हुए आपका सम्पर्क यहां के आर्यसमाजी इंजीनियर श्री राय साहब शिवनाथ राय से हो गया जो आपकी मेहनत से खुश थे। अतः वे अपने साथ आपको हजारीबाग कलकत्ता ले गये। आप घर रहकर इंजीनियर साहब के बच्चों को पढ़ाते रहे। उस समय आपकी आयु 20-22 वर्ष की थी। कुछ समय में ही आपका सम्पर्क यहां राजगढ़ के सेठ के साथ हो गया। आप उस सेठ साहब के बच्चों को भी पढ़ाते रहे। उन दिनों कलकत्ता में अधिकांश व्यापार पर मारवाड़ी सेठों का कब्जा था। मारवाड़ी लोग अंग्रेजी भाषा बहुत कम जानते थे। छाजूराम समय निकाल कर उन्हीं सेठों की व्यापार सम्बन्धी चिट्ठी आदि अंग्रेजी में लिख दिया करते थे। इस समय आपको सभी मुंशी जी तथा मास्टर जी के नामों से जानते थे। कलकत्ता में व्यापारसम्बन्धी लोगों की चिट्ठियां लिखते रहने के कारण आपको कुछ व्यापार सम्बन्धी बातों की विशेष जानकारी हो गई। कलकत्ता में रहते हुए आप दलालों के साथ बाजार में चले जाते थे। उनकी बातचीत तथा कार्य व्यवहार बड़े ध्यान से देखते थे और कुशाग्र बुद्धि होने के कारण आपने दलालों की सब बातें समझ लीं।

व्यापार में प्रवेश - प्रभु की कृपा का विश्वास करके आपने पुरानी बोरियों का काम शुरु किया। दिन रात के कठोर परिश्रम के कारण आय में विशेष वृद्धि होने लगी। कुछ समय के बाद नई बोरियों की दलाली तथा क्रय-विक्रय आरम्भ कर दिया। इस प्रकार आपने काफी धन कमाया और शीघ्र ही बड़े दलालों में गिनती होने लगी। कुछ समय बाद ही आपको Andre Wyule and Company (एण्डरुयूल एण्ड कम्पनी) में दलालों का काम मिल गया। इस कम्पनी से आपको 75 प्रतिशत दलाली मिलती थी। जबकि दूसरे दलालों को केवल 25 प्रतिशत ही दलाली मिलती थी। यह अंग्रेज कम्पनी थी जिसमें जूट का कारोबार था।

जिस समय आपने दलाली का काम शुरु किया, आप एक ब्राह्मण के ढाबे पर रोटी खाते थे तथा उसका महीना भर में हिसाब कर देते थे। सामाजिक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि ब्राह्मण और महाजन साहूकार ही सब कुछ थे। उनके विरुद्ध बोलने की तथा सत्य कहने की भी किसी में हिम्मत नहीं होती थी। हरिजन आदि की तो बात क्या, जाट को भी अछूत समझा जाता था। जिस ब्राह्मण ढाबे पर आप रोटी खाते थे, वहीं पर भोजन करने वाले महाजनों और ब्राह्मणों ने उस ढाबे के स्वामी को मिलकर कहा कि एक जाट का लड़का हमारे साथ बैठकर भोजन करे, यह हमें स्वीकार नहीं। या तो आप इस जाट युवक को यहां भोजन खिलाना बन्द कर दें अन्यथा हम सब तुम्हारे ढाबे से भोजन करना स्वयं ही छोड़ देंगे। ढाबे के मालिक ने अगले रोज युवक छाजूराम को सब बातें बताईं और भोजन खिलाने में असमर्थता प्रकट की। युवक छाजूराम सब समझ गये। बहुत ऊँचा उठने का दृढ़ संकल्प किया। एक लखपति करोड़पति सेठ महाजन से तथा ब्राह्मण से भी ऊँचा सम्मान पाने की तथा अपनी जाति को ऊपर उठाने की तीव्र लालसा जाग उठी। युवक छाजूराम ने अन्य किसी ढाबे पर भोजन का प्रबन्ध कर लिया।

आप धीरे-धीरे कलकत्ता में कम्पनियों के हिस्से (Share) खरीदते रहे और बड़े-बड़े व्यापारियों की गिनती में आ गये। कुछ ही समय बाद आपने कलकत्ता में जूट का कारोबार पूर्ण रूप से अपने हाथ में ले लिया। कलकत्ता की मार्केट में आप ‘Jute King’ (पटसन का बादशाह) के नाम से


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विख्यात हो गये। देश के बड़े करोड़पतियों में आपकी गणना होने लगी। आप कलकत्ता की 24 कम्पनियों के सबसे बड़े शेयर होल्डर (Share Holder) हिस्सेदार थे। जिसमें से दस एण्डरुयल एण्ड कम्पनी, दो ओबाराहर्टा, दस बर्ड एण्ड कम्पनी और दो जार्डन एण्ड कम्पनी की थीं। एण्डरुयल एण्ड कम्पनी की 10 और बिड़ला ब्रदर्स की कुल 12 कम्पनियों (मिलों) के आप निर्देशक (Director) थे। आप पंजाब नेशनल बैंक के निर्देशक भी बने परन्तु बाद में त्यागपत्र दे दिया। आपको इन हिस्सों के कारण 16 लाख रुपये प्रतिवर्ष लाभांश (Dividend) भाग मिलता था। आपका व्यापार चरम सीमा तक पहुंच गया था। करोड़ों रुपया बैंकों में जमा था। 24 कम्पनियों के 75 प्रतिशत हिस्से (Share) आपके थे। हिसार में 5 सम्पूर्ण गांव आपके थे। अलखपुरा और शेखपुरा में दो शानदार महल खड़े हैं। कलकत्ता में आलीशान कोठियों के अतिरिक्त शानदार वैभवयुक्त दर्शनीय एक अतिथि भवन था जो उन दिनों 5 लाख रुपये की लागत से बना था।

आपने लाखों रुपयों में कई गांवों की जमींदारी का विशाल भू-भाग खरीदकर विशाल जमींदारी अलखपुरा पैतृक जन्म स्थान के आसपास बनाई।

आपकी विशाल जमींदारी को लोग अलखपुरा रियासत तक कह दिया करते थे। आपकी गणना भारतवर्ष के बड़े-बड़े करोड़पति सेठों में की जाती थी। आपके पास वैसे तो अनेकों बहुमूल्य वस्तुएं थीं किन्तु एक कार जिसका नाम “रोल्स-रॉयस” था वह उन दिनों में एक लाख रुपये की खरीदी थी। कलकत्ता में सबसे पहले इस कीमती कार को आपके सुपुत्र श्री सज्जनकुमार ही लाए थे। वे ही इस कार में बैठकर प्राय: बाहर जाया करते थे। किन्तु आप तो अपनी साधारण कार में ही बाहर जाया करते थे। कलकत्ता आपकी सब प्रकार की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। व्यापार की सफलता और दानशीलता ने आपका मान और प्रतिष्ठा बढ़ा दी। आप कलकत्ता में ही नहीं अपितु भारतवर्ष के गणमान्य व्यक्तियों की कतार में आ खड़े हुए। आप एक आदर्श व्यापारी थे। आपकी सफलता का कारण आपकी निष्ठा और व्यापार व उद्योग को स्वस्थरूप से बढ़ाना था।

आपने अद्वितीय ख्याति एक प्रबुद्ध ईमानदार और सफल व्यापारी तथा उच्चकोटि के दानी के रूप में प्राप्त की। आपने ईमानदारी व नेक नियति से कमाई हुई अतुल धन दौलत का दिल खोलकर उदारता से दान भी किया। आप जितना अधिक दान दिया करते थे, उससे कई गुना अधिक लाभ भगवान् आपको देता था। आप ईश्वर सत्ता में दृढ़ विश्वास (आस्तिक होना) रखते थे।

यौवन काल, विवाह तथा सन्तति - आप नवयुवक होकर भी चंचलता रहित रहे। जब चरित नायक दानवीर सेठ सर चौ० छाजूराम ने यौवन में प्रवेश किया तब उनका प्रत्येक सुन्दर अंग और भी सुन्दरता से पूर्ण हो गया था। आपका शरीर प्रकृति से ही सुन्दर था और यौवनावस्था में प्रवेश करके तो अत्यधिक अंगलावण्य से निखर उठा और सुन्दरता, चेहरे पर लालिमा बड़ी आयु होने पर बुढ़ापे तक भी झलकती थी।

यौवनकाल के बसन्तकाल में आपने भी प्राचीन ग्रामप्रथा के अनुसार गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। आपका विवाह डोहकी (दादरी तहसील) ग्राम की सुन्दर कन्या से हुआ। विवाह के कुछ दिनों के बाद हैजे की बीमारी के कारण उसका स्वर्गवास हो गया और उससे कोई सन्तान नहीं हुई।


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तत्पश्चात् दूसरा विवाह विलावल (भिवानी) गांव की बुद्धिमती कन्या लक्ष्मीदेवी से सन् 1890 के आसपास हुआ। आप साक्षात् ही लक्ष्मी का रूप बनकर आई। उसका स्वर्गवास 19 मार्च 1973 को हुआ। इस दिव्य दम्पती से जाट क्षत्रिय जाति को 6 सन्तानें प्राप्त हुईं। सबसे बड़ा पुत्र सज्जन कुमार जो युवावस्था में ही स्वर्ग सिधार गया। उससे छोटा पुत्र भी छोटी आयु में ही गुजर गया। कमला देवी लड़की बचपन में ही स्वर्गधाम चली गई। आपने जिसकी याद में “लेडी हैली हास्पिटल” (Lady Haily Hospital) भिवानी में बनवाया था1। दो लड़के महेन्द्रकुमार तथा प्रद्युम्नकुमार आजकल दिल्ली, कलकत्ता, अलखपुरा और शेखपुरा की कोठियों में रहते हैं। उनकी दूसरी पुत्री सावित्रीदेवी भारतवर्ष के प्रसिद्ध डा० भूपालसिंह मेरठ निवासी के सुपुत्र डा० नौनिहालसिंह से विवाही गई थी। जीवन्त पर्यन्त सर छाजूराम ने गृहस्थ धर्म का पालन किया। घर पर आने वाले मेहमानों की भीड़ लगी रहती थी जिनकी अच्छी खातिरदारी होती थी। ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा निर्दिष्ट गृहस्थ आश्रम के कर्म-काण्ड पांच महायज्ञ प्रतिदिन किये जाते थे। जब कभी कोई दुखिया आता था तो वह द्वार से खाली हाथ न लौटता था। धार्मिक विद्वानों तथा आर्य संन्यासियों को आपका बड़ा सहारा था।

वैदिक धर्म की शिक्षाओं तथा आर्यसमाज के सिद्धान्तों का आपके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा जो जीवन भर बना रहा। आर्यसमाज और सर छाजूराम में चोली-दामन का सा गहरा सम्बन्ध रहा है।

दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम की दान योग्यता

  • 1. आपने आर्यसमाज की सैंकड़ों संस्थाओं में दान दिया। आर्यसमाज के उच्चकोटि के त्यागी तपस्वी सन्त स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गंगा के किनारे हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। सेठ चौ० छाजूराम ने उस गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के भवन बनवाने में काफी धनराशि दान में दी।
  • 2. कर्मवीर डॉ० संसारसिंह जी ने कन्या गुरुकुल कनखल की स्थापना की। इनकी संस्था में भी आपने कन्या शिक्षा प्रसार हेतु सबसे बड़ी धनराशि भवन निर्माणार्थ दान में दी।
  • 3. गुरुकुल वृन्दावन, वोलपुर आदि शिक्षण संस्थाओं में भी आप द्वारा दी गई दानार्थ धनराशि आज भी पत्थरों पर अंकित है। आप द्वारा दिया गया दान भारतवर्ष के विभिन्न भागों में उच्चकोटि की शिक्षण संस्थाओं के रूप में फल-फूल रहा है।
  • 4. बंगाल में आर्यसमाज का विस्तार करने के लिए दानवीर सेठ छाजूराम ने आर्यसमाज के प्रचारार्थ अतुल धनराशि तो खर्च की ही थी तथा आर्य कन्या विद्यालय बनवाने में 50,000 की धनराशि भी दान दी। कलकत्ता में आर्यसमाज कार्नवालिस स्ट्रीट और आर्य महाविद्यालय के लिए 50,000 रुपये दान दिये। कलकत्ता में आप आर्यसमाज के उत्सवों कार्यक्रमों में सक्रिय भाग लेते थे। वहां महात्मा हंसराज, स्वामी श्रद्धानन्द जैसे अनेक त्यागी तपस्वी आर्यनेताओं से आपका गहरा सम्पर्क व मित्रता हो गई।
  • 5. जिन दिनों डी० ए० वी० कॉलिज लाहौर आर्थिक संकट से गुजर रहा था, उन दिनों सेठ

1. जिसके बनाने में 5 लाख रुपये की धनराशि सेठ चौ० छाजूराम ने लगाई थी।


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छाजूराम के पास कलकत्ता में उनके मित्र श्री लखपतराय एडवोकेट, बाबू चूड़ामणि, डॉ० रामजीलाल आदि महात्मा हंसराज जी के परामर्श के बाद पहुंचे। इस मित्रमण्डली को आया देखकर आप अत्यधिक प्रसन्न हुए। इन्होंने पहले सेठ छाजूराम से 21 हजार और फिर 31 हजार रुपये मांगने का विचार किया। धन्य है दानवीर सेठ छाजूराम जिसने 31 हजार की मांग पर भी 50 हजार रुपये डी० ए० वी० कॉलिज लाहौर के लिए इस मित्रमण्डली को दानार्थ दिये।

  • 6. सन् 1916 में सेठ चन्दूलाल जी का स्वर्गवास हो गया। मित्रमण्डली ने निश्चय किया कि सेठ चन्दूलाल की स्मृति में एक संस्था कायम की जाये। प्रमुख व्यक्तियों ने सन् 1918 में उनकी स्मृति में सी० ए० वी० हाई स्कूल संस्था विधिवत् प्रारम्भ कर दी। सेठ छाजूराम ने इसी संस्था के छात्रावास (बोर्डिंग हाउस) के लिए 67,000 रुपये की राशि देकर अपने ही इंजीनियरों की देख-रेख में बनवाया। इसके अतिरिक्त आपने 60,000 रुपये छात्रों को छात्रवृत्ति के लिए तथा 25,000 रुपये स्कूल भवन के लिए दान दिये। इस प्रकार कुल डेढ़ लाख रुपये अकेले इस दानवीर ने दानार्थ दिये।
  • 7. एक बार किसी राजनैतिक उद्देश्य से लाला लाजपतराय कलकत्ता में चन्दा इकट्ठा करने हेतु पहुंचे और सदा की तरह सेठ छाजूराम की कोठी में उनके साथ ठहरे। सभा का आयोजन किया गया और उस सभा में दान की अपील की गई। लाला लाजपतराय ने अपनी इच्छा से बाबूजी के नाम से 200 रुपये दान सुना दिया। सेठ छाजूराम खड़े होकर बोले कि सम्माननीय ला० लाजपतराय जी आपने जो मेरे नाम से 200 रुपये सुनाये हैं वह ठीक नहीं, क्योंकि मैं 2000 का संकल्प करके रुपये लेकर सभा में आया हूं। सेठ जी ने 2000 रुपये दान देकर अपना संकल्प पूरा किया।
  • 8. जिस प्रकार प्रथम महायुद्ध में गांधीजी ने अंग्रेजों को सहायता देने का वचन दिया था, उसी तरह सेठ चौ० छाजूराम ने प्रथम महायुद्ध सन् 1914 में सरकार को ‘युद्ध फंड’ (War Fund) में 1,40,000 रुपये का योगदान दिया और सरकार को ‘युद्ध ऋण’ (War Loan) में कई हजार रुपये देकर मदद के और स्वयं के प्रति तथा कुछ अंश में आर्यसमाज के प्रति सरकार के शक को ठीक नीति से दूर करके यह सिद्ध कर दिया कि आर्य “वसुधैव कुटुम्बकम्” पर विश्वास करते हैं।
  • 9. आपने अतिथि भवन कलकत्ता में सैण्ट्रल ऐवन्यू पर 5 लाख रुपये की लागत से बनाया था जहां पर दीन-दुखियों अथवा प्रेमी मित्रों का शानदार स्वागत होता था।
  • 10. आपने अलखपुरा में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के संगठन के माध्यम से गांवों के गरीब मज़दूर किसानों को भ्रातृभाव से रहने और आर्य बनने की प्रेरणा दी जिसके लिए अपने बड़े धनराशि खर्च की। जिसका प्रभाव यह हुआ कि आज तक भी कभी अलखपुरा गांव में सांग नहीं हो सका है।
  • 11. आप जाट महासभा तथा आर्यसमाज के नियमों का पालन किया करते। आपने दहेज-प्रथा का डटकर विरोध किया। अपनी सुपुत्री सावित्रीदेवी के शुभ विवाह पर केवल 101 रुपया दान दिया तथा कन्यादान में किसी भी व्यक्ति से एक रुपये से अधिक दान नहीं लिया।
  • 12. सेठ चौ० छाजूराम की मित्रता अंग्रेजों की झूठी पत्तल चाटने वाले अंग्रेजों के दासों से नहीं थी अपितु देशभक्त, आंदोलनकारी, विद्रोही, क्रांतिकारी आर्य पुरुषों से थी। इसका एक ठोस प्रमाण

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यह भी है कि जब देशभक्त वीर भगतसिंह सिन्धु गोत्री सिक्ख जाट ने 17 दिसम्बर 1928 ई० को सांडर्स को अपने रिवाल्वर की गोली से मारकर लाला लाजपतराय की मौत का बदला ले लिया, तब वह वीर पुलिस की आंखों में धूल झोंककर लाहौर से रेलगाड़ी द्वारा कलकत्ता पहुंचा और वहां वह सीधा सेठ चौ० छाजूराम के पास चला गया। ऐसे संकटकाल में आपने वीर भगतसिंह को ढ़ाई-तीन महीने तक अपनी कोठी में ऊपरवाली मंजिल में छिपाकर रखा।

  • 13. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और पं० मोतीलाल नेहरु का स्वागत - सेठ चौ० छाजूराम पंजाब में जमींदार लीग की ओर से सन् 1926 में एम० एल० सी० बनकर राष्ट्रीय नेताओं से अधिक निकट सम्पर्क में आ चुके थे। सन् 1928 में पण्डित मोतीलाल नेहरू कांग्रेस दल के प्रधान बनाये गये थे। वे कलकत्ता में पधारे और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से मिले। उस समय सेठ छाजूराम के नेताजी से अच्छे सम्बन्ध बन चुके थे। कांग्रेस पार्टी की सहायता के लिए नेताजी ने पं० मोतीलाल नेहरू को कुछ धनराशि भी जनता की ओर से भेंट की। इस अवसर पर सेठ छाजूराम जी ने पं० मोतीलाल नेहरु का हार्दिक स्वागत किया और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को कांग्रेस पार्टी के चन्दे में अपनी तरफ से 5,000 रुपये दान के रूप में दिये। इसके बाद तो नेताजी से सेठ छाजूराम जी के सम्बन्ध और अधिक घनिष्ठ बन गये। अन्य ऐसे अवसरों पर जब भी कभी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं० मदनमोहन मालवीय, गांधी जी, जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल, राजगोपालाचार्य, कृपलानी, जितेन्द्रमोहनसेन गुप्त (मेयर कलकत्ता) तथा उनकी श्रीमती नेलीसेन गुप्ता आदि अनेक गणमान्य व्यक्तियों एवं नेताओं को किसी देशहित अथवा समाज कल्याण के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता हुई तो सहायता चाहने पर सेठजी ने दिली इच्छा से धनराशि दानार्थ दी। सेठजी के जीवन पर्यन्त इन सबसे अच्छे सम्बन्ध बने रहे।
  • 14. महात्मा हंसराज के शिष्य नवयुवक भानीराम1 रोहतक जिले में जाट हाई स्कूल खोलने का निश्चय कर चुके थे। किन्तु वे चेचक की बीमारी से अचानक चल बसे और यह कार्य प्राण त्यागते समय अपने मित्र चौ० बलदेवसिंह2 को सौंप गये। चौ० बलदेवसिंह भी डी० ए० वी० कॉलिज लाहौर में पढ़े थे। उन्होंने इस कार्य के लिए जीवन दान करने की घोषणा की और असंख्य जाटों ने धन से सहयोग दिया। सेठ जी ने स्वयं भी जीवनपर्यन्त इस संस्था की सहायता की। सेठ जी के मित्र हिसार के डा० रामजीलाल और उनके भाई चौ० मातुराम (गांव सांघी जिला रोहतक) तथा चौ० छोटूराम आदि के प्रयत्नों से 26 मार्च, सन् 1913 में जाट हाई स्कूल रोहतक की नींव रखी गई। सन् 1913 से 1921 ई० तक चौ० छोटूराम इसकी प्रबन्धकर्तृ सभा के सचिव रहे। सैनिकों से धन मांगने में चौ० छोटूराम ने बहुत प्रयत्न किया और उनसे काफी धनराशि प्राप्त की और गांव-गांव घूमकर खूब चन्दा इकट्ठा किया। सन् 1916 में इसी जाट हाई स्कूल रोहतक का वार्षिक उत्सव हुआ।
इस अवसर पर सेठ छाजूराम जी को भी निमन्त्रित किया गया था। उस समय स्कूल की सहायता के लिए आम जनता से अपील की गई। जब लोग अपनी शक्ति के अनुसार 5-5, 10-10 रुपये बढ़ चढ़कर देने लगे तो सेठ चौ० छाजूराम ने खड़े होकर अपनी ओर से 61 हजार

1. चौ० भानीराम गंगाना गांव (जि० सोनीपत) के निवासी थे।
2. चौ० बलदेवसिंह का गांव हुमायूंपुर (जि० रोहतक) और आप धनखड़ गोत्र के जाट थे।


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रुपये दान देने की घोषणा की। इसके साथ ही यह भी ऐलान किया कि जाट हाई स्कूल रोहतक का जो भी छात्र दसवीं कक्षा की परीक्षा में प्रथम नम्बर पर आयेगा उसे एक सोने का मैडल उनकी तरफ से भेंट किया जाएगा। मैडल के अतिरिक्त आगे कॉलिज में पढ़ने के लिये 12 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी देने के लिए कहा। उसी वर्ष होने वाली हाई स्कूल की परीक्षा में सूरजमल नामक होनहार छात्र प्रथम नम्बर पर आया और सोने का मैडल प्राप्त करने में सफल रहा। वह मैडल आज भी उनके पास मौजूद है। यह सूरजमल गांव खांडा जिला हिसार निवासी थे जो निरन्तर कई वर्षों तक संयुक्त पंजाब की विधान सभा के सदस्य तथा मन्त्री पद पर जमींदार पार्टी की ओर से रहे। इसके अतिरिक्त वह कई वर्षों तक महाराजा भरतपुर के प्रधान मन्त्री भी रहे।

  • 15. दानवीर सेठ छाजूराम ने जाट स्कूल खेड़ा गढ़ी (दिल्ली) के आधे से ज्यादा भवन अपने सात्विक दान से बनाए जिसका प्रमाण आज भी उन भवनों की दीवारों पर अंकित पत्थर पर है।
  • 16. इण्टर कॉलिज बड़ौत (मेरठ) को आपने बहुत बड़ी राशि सहायतार्थ प्रदान की थी।
  • 17. जिन दिनों पं० मदनमोहन मालवीय जी ने बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की, उन दिनों वे धन इकट्ठा करने हेतु कलकत्ता पहुंचे। वे सेठ छाजूराम जी के पास भी गए। सेठजी ने उन्हें बड़े सम्मान के साथ 11,000 रुपये दान दिया। अब तक कलकत्ता में इतनी बड़ी धनराशि उन्हें किसी से भी न मिली थी।
  • 18. सेठ चौ० छाजूराम जी ने इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय में 50,000 रुपये दानार्थ दिये।
  • 19. स्वामी केशवानन्द (जन्म ढाका गोत्री जाट परिवार में) द्वारा संचालित जाट हाई स्कूल संगरिया को 50,000 रुपये की धनराशि सेठ छाजूराम ने दान में दी। इसके अतिरिक्त एक अन्य अवसर पर 15,000 रुपये दानार्थ देकर आप ने इस स्कूल में विशाल कूप बावड़ी का निर्माण करवाया जिससे पीने के पानी की समस्या का समुचित प्रबन्ध हो गया।
  • 20. सन् 1924-25 में जाट हाई स्कूल हिसार की स्थापना के लिए 4 लाख रुपये दान देकर स्कूल की शिक्षा के लिए विशाल भवन बनवाये। साथ ही छात्रों की सुविधा के लिए शानदार छात्रावास का भी निर्माण करवाया।
  • 21. अखिल भारतीय जाट महासभा की स्थापना सन् 1906 में मुजफ्फरनगर (उत्तरप्रदेश) में हुई। इस जाट महासभा ने देश की स्वतन्त्रता के लिए क्षत्रिय जाट जाति में देशव्यापी कार्यक्रमों द्वारा नवचेतना व स्फूर्ति प्रदान पैदा की। दानवीर सेठ छाजूराम ने एक बार तत्कालीन अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा के अधिवेशन का 10,000 रुपये सम्पूर्ण व्यय स्वयं दिया था।
  • 22. सन् 1925 में अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा के पुष्कर अधिवेशन पर जिसके सभापति जाट महाराजा श्रीकृष्णसिंह भरतपुर नरेश थे, उसका सभी व्यय लगभग 5000 रुपये सेठ चौ० छाजूराम जी ने दिया। इस सम्मेलन में दिल्ली जाट कुमार सभा के प्रधान युवक लाजपतराय तथा अन्य सदस्य जो उन दिनों कॉलिजों में पढ़ा करते वे सभी नवयुवक सम्मिलित

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हुए थे। अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा की शाखाएं आगे चलकर उत्तरप्रदेश, हरयाणा, पंजाब तथा राजस्थान में फैल गई थीं।

दिल्ली जाट कुमार सभा के सदस्य कॉलिज के छात्रों ने एक बार दिल्ली में सेठ चौ० छाजूराम जी का शानदार स्वागत एक होटल में प्रीतिभोज देकर किया। उस समय भी जाट कुमार सभा के खर्च के लिए 2,500 रुपये सेठ जी ने दानार्थ दिए तथा युवकों को देश व जाति सेवा की प्रेरणा दी। इस प्रकार के संगठनों द्वारा पैदा की गई चेतना का नतीजा यह निकला कि अगले कुछ वर्षों में ही जाटबहुल प्रत्येक जिले में जाटों के हाई स्कूल और छात्रावास स्थापित हो गए जिनकी स्थापना में सेठ जी दान देने में किसी से पीछे न रहे। अनेक स्थानों में स्वयं भी छात्रावास स्थापित किए। उदाहरणार्थ पिलानी में स्वयं एक विशाल छात्रावास बनवाया ताकि निर्धन छात्र सुव्यवस्थित ढंग से निःशुल्क शिक्षा प्राप्त कर सकें।

  • 23. रवीन्द्रनाथ टैगोर चकित रह गए - जिन दिनों रवीन्द्रनाथ टैगोर अपने शान्ति निकेतन विद्यालय का वार्षिक उत्सव मना रहे थे, उन दिनों कलकत्ता के बड़े-बड़े सेठों को उत्सव में पधारने के लिए निमन्त्रण दिया। परन्तु सेठ चौ० छाजूराम को शायद छोटा व्यापारी समझकर निमन्त्रण नहीं दिया। सेठ छाजूराम अपने घनिष्ठ मित्र सेठ बिड़ला जी के कहने पर उनके साथ इस शुभ कार्य के अवसर पर चले गए। उत्सव में कुछ सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रमों के बाद ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर झोली बनाकर चन्दा, दान मांगने के लिए सबके आगे घूमे। बड़े-बड़े सेठों ने कागज पर धनराशि लिखकर उनकी झोली में भेंट कर दी। सबसे बाद में टैगोर साहब आपके पास भी गये। तब आपने टैगोर जी से नम्रता से कहा कि इनमें से जो सबसे अधिक दान वाली पर्ची है उसे निकालने की कृपा करें। पर्चियां देखी गईं, जिनमें सबसे अधिक राशि वाली पर्ची सेठ बिड़ला जी की 5,000 रुपये की थी। देखते ही दानवीर सेठ चौ० छाजूराम ने 20,000 रुपये की राशि भेंट कर दी और सब पर्चियां वापिस करवा दीं तथा स्वयं खड़े होकर उन सबसे दुगुनी धनराशि मांगी। यह सब देखकर टैगोर जी चकित रह गये। तत्पश्चात् वहीं पर ही आपकी टैगोर जी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की।
  • 24. महात्मा गांधी जी को आशा से अधिक दान दिया - कलकत्ता में श्री चित्तरंजनदास की स्मृति में एक स्मारक बनाने के लिए धनराशि एकत्रित की जा रही थी। स्वयं महात्मा गांधी भी इसके लिए प्रयास कर रहे थे। जब गांधी जी कलकत्ता में बड़े-बड़े धनिक लोगों से दान मांग रहे थे तो उसी समय चन्दा इकट्ठा करने वाली दूसरी पार्टी वाले व्यक्ति सेठ छाजूराम जी के पास भी गए। सेठ जी ने उन्हें 11,000 रुपये चन्दा रूप में दिए। महात्मा गांधी जी जितना धन कलकत्ता से एकत्रित करना चाहते थे उसमें अभी 10,000 रुपये की कमी रहती थी। गांधी जी ने यह चर्चा सेठ बिड़ला जी के सामने की। वह तो पहले ही काफी बड़ी धनराशि चन्दे के रूप में दे चुके थे। सेठ बिड़ला ने गांधी जी को बताया कि केवल सेठ चौ० छाजूराम जी इस कमी को पूरा कर सकते हैं। महात्मा गांधी उनके पास पहुंचे और उनको बताया कि केवल कलकत्ता से पांच लाख तथा अन्य दूसरे नगरों से पांच लाख, कुल दस लाख रुपए की धनराशि मिली है और दस हजार रुपए की कमी बतलाई। दानवीर सेठ चौ० छाजूराम ने सुनते ही 10,000 रुपये नकद गांधी जी को भेंट कर

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दिए। बात कर ही रहे थे कि सेठ जी अपनी कोठी के अन्दर गए और बाहर आकर 5,000 रुपये की और अतिरिक्त धनराशि महात्मा जी की सेवा में यह कहते हुए अर्पित कर दी कि आपने यहां पधार पर मेरे निवास स्थान को पवित्र किया है। इस प्रकार कुल 26,000 रुपये सेठ छाजूराम जी ने उस स्मारक के लिए दान दिए जो कलकत्ता में एक व्यक्ति की दानार्थ दी गई सबसे बड़ी धनराशि थी।

इसके अतिरिक्त भी इस दानवीर ने गांधी जी की अपीलों पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के उद्देश्य से चलाए गए गांधी जी के सत्याग्रहों, आंदोलनों तथा जनहित के अन्य कार्यों में अनेक अवसरों पर सहायतार्थ दान देकर सहयोग किया।

  • 25. सेठ चौ० छाजूराम ने अपनी पुत्री कमला की स्मृति में जो कि बाल्यावस्था में ही प्रभु को प्यारी हो गई थी, भिवानी में पांच लाख रुपए की लागत से लेडी हेली हॉस्पिटल (Lady Hailly Hospital) बनवाया। इस हस्पताल के बनने से भिवानी तथा आस-पास के इलाके के सभी लोगों को विशेषकर गरीब लोगों को बड़ा लाभ हुआ। सेठ जी इस हस्पताल का सारा खर्च स्वयं अपनी ओर से देते थे। यहां किसी भी प्रकार के मरीज से दवाओं के लिए कोई भी पैसा नहीं लिया जाता था। जहां कहीं भी धर्मार्थ हस्पताल का निर्माण हुआ और सेठ जी को पता चलता, उसके लिए यथाशक्ति धन से सहायता करते थे।
  • 26. मिराण गांव में विशाल जलकुण्ड का निर्माण - हरयाणा में मिराण गांव तोशाम से सिवानी मार्ग पर स्थित है। इस गांव के निवासी पीने का पानी ऊंटों पर कई-कई कोस से लाया करते थे। वर्षा का इकट्ठा किया हुआ पानी बहुत जल्दी सूख जाता था। इस गांव के कुछ व्यक्ति सेठ चौधरी छाजूराम जी के पास पहुंचे और यह सारा कष्ट सुनाया। सेठ जी ने शीघ्र ही कई हजार रुपये की लागत से मिराण गांव में एक विशाल पक्का जलकुण्ड (जलगृह) का निर्माण करवा दिया जिससे हजारों मनुष्यों, पशु पक्षियों के जीवन की रक्षा हुई। यह जलकुण्ड आज भी सेठ जी की स्मृति को ताजा कर रहा है।
  • 27. वैदिक एवं लौकिक साहित्य के प्रति जागरूक - महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने जीवन में चारों वेदों का भाष्य करना चाहते थे किन्तु अधूरा छोड़कर स्वर्गवासी हो गए। दानवीर सेठ छाजूराम ने वैदिक वाङ्मय के विद्वान् आर्य जाति के विख्यात संन्यासी आर्य मुनि जी को वेदों का भाष्य लिखने को कहा। आर्य मुनि जी ने सन् 1910 के आसपास वेदों का भाष्य अजमेर में लिखना आरम्भ किया। वेदों के भाष्य को प्रकाशित करने के लिए धन की आवश्यकता थी। सेठ छाजूराम जी ने स्वेच्छा से वेदों के भाष्य की छपाई आदि का सम्पूर्ण व्यय आर्य मुनि जी को दिया।

डा० कालिकारंजन कानूनगो ने जाट इतिहास अंग्रेजी भाषा में लिखा जिसका प्रकाशन 30 अप्रैल सन् 1925 में किया गया था। इसका सम्पूर्ण व्यय सेठ चौधरी छाजूराम ने दिया था। इससे उनका लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को सहयोग देना प्रकट होता है और यह भी पता चलता है कि सेठ जी को क्षत्रिय जाट जाति के इतिहास के प्रचार व प्रसार में भी विशेष दिलचस्पी थी।


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युवक छोटूराम भी मेरठ के रास्ते से लाहौर जाने के लिए उसी रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। उन्हें पता चला कि छोटूराम ने एफ० ए० की परीक्षा दे रखी है और आगे पढ़ने के लिए पैसे की कमी के कारण असमर्थ है। यह भी पता चला कि छोटूराम पढ़ने में बड़ा प्रवीण है। दानवीर सेठ छाजूराम ने स्वयं ही युवक छोटूराम को कहा कि अगर संस्कृत लेकर बी० ए० करना चाहो और डी० ए० वी० कॉलिज लाहौर में दाखिल होने को तैयार हो तो मैं तुम्हारी पढ़ाई का खर्च देता रहूंगा। छोटूराम ने बड़ी खुशी से कृतज्ञतापूर्ण स्वर में सेठ जी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

जब एफ० ए० परीक्षा का नतीजा आया तो छोटूराम अच्छे अङ्क प्राप्त करके पास हो गये। तब उसने सेठ जी को लिखा, मैं संस्कृत लेकर ही बी० ए० में प्रविष्ट हो रहा हूं किन्तु लाहौर की अपेक्षा दिल्ली में पढ़ने में मुझे सहूलियत रहेगी, क्योंकि यहां जिला बोर्ड से भी छात्रवृत्ति मिलने की सम्भावना है। उचित आदेश से सूचित करें। सेठ छाजूराम जी ने लिख दिया कि मेरी सहायता तुम्हें दिल्ली में भी मिलती रहेगी। छोटूराम ने सन् 1905 में संस्कृत विषय लेकर बी० ए० पास किया और वे संस्कृत में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर रहे। सेठ छाजूराम ने युवक छोटूराम की धन से भरपूर सहायता की। चौधरी छोटूराम ने सेठ छाजूराम को अपना धर्मपिता मान लिया और सदा उनको धर्मपिता कहकर पुकारते थे। सेठ छाजूराम ने बाद में चौधरी सर छोटूराम के लिए रोहतक में एक विशाल कोठी भी रहने के लिए बनवाई जो आगे चलकर नीली कोठी के नाम से प्रसिद्ध हुई। एक समय आया जब रोहतक में नीली कोठी को वह महत्त्व प्राप्त हो गया जो दिल्ली में बिड़ला भवन, इलाहाबाद में आनन्द भवन तथा गुजरात में साबरमती आश्रम को प्राप्त हुआ।

  • 29. राजनीति में प्रवेश - पंजाब में 1926 ई० का चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं था। इस चुनाव में शहरी नेता जिनमें कुछ आर्यसमाजी और सिख भी शामिल थे, यह प्रतिज्ञा कर चुके थे कि इस चुनाव में चौधरी छोटूराम और उनके समर्थकों को नहीं जीतने देना है, चाहे जितना धन बहाना पड़े। सर छोटूराम एवं उनके हितैषी मित्र सेठ चौधरी छाजूराम के पास पहुंचे और सारी स्थिति बताकर आप को चुनाव लड़ने के लिए कहा गया। उनके कहने पर आपने जमींदार लीग की ओर से चुनाव लड़ना पड़ा जिसमें आप राय साहब लाजपतराय को हराकर भारी बहुमत से एम० एल० सी० चुने गए। आप एम० एल० सी० रहते हुए गन्दी राजनीति से सदा बचे रहे।

जनहित के कार्यों को दृष्टिगत रखते हुए उनके द्वारा किए गए जनहित के कार्यों को देखते हुए सन् 1931 में सरकार ने बाबू छाजूराम को सी० आई० ई० (C.I.E.) की उपाधि से विभूषित किया तथा कुछ समय बाद 'सर' की उपाधि भी प्रदान की।

  • 30. अकाल पीड़ितों व बाढ़ पीड़ितों की सहायता - सन् 1899 ई० (संवत् 1956 वि०) में देश भर में भयंकर अकाल पड़ा। यह छप्पना अकाल के नाम से प्रसिद्ध है। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच रही थी। चारे के अभाव में पशु तथा अन्न आदि खाद्य पदार्थों के अभाव में मनुष्य कराल काल के मुंह में जा रहे थे। हालात इतने बुरे थे कि श्मशान भूमि ठंडी न होने पाती थी। धन्य है! कर्मवीर उदार दानी सेठ छाजूराम जी को जिसने अनेक नर-नारियों तथा मूक पशुओं को मौत के मुंह से बचाया। सेठ जी ने ऐसे समय में देश के अनेक भागों में अन्न, चारा, वस्त्र तथा पैसे बांट कर अनेक परिवारों को घोर अकाल की लपेट से बचाकर महान् उपकार किया। इस छप्पना अकाल

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के बाद भी जब कभी ऐसी नौबत आई तब सेठ जी जनता की सहायता में तत्पर दिखाई दिये। इसी छप्पना अकाल के समय सन् 1899 ई० में सेठ छाजूराम ने भिवानी में अनाथालय भी प्रारम्भ कर दिया था।

सन् 1930 (सम्वत् 1987) में देश के कुछ भागों में पुनः अकाल पड़ा। इस समय आर्थिक मन्दा (World Depression) भी चल रहा था। इस अकाल का कुप्रभाव वैसे तो देशव्यापी था, पर हरयाणा में हांसी, भिवानी, तोशाम के क्षेत्रों में इसका अधिक कुप्रभाव रहा। यहां भी अन्न च चारे के अभाव में मनुष्य, पशु, काल का ग्रास बन रहे थे। सेठ चौधरी छाजूराम ने अपनी तरफ से दान सहायता केन्द्र खोल दिये, जिनका मुख्य केन्द्र बवानीखेड़ा था। इस इलाके के जन जीवन को अकाल से बचाने के लिए सेठ छाजूराम की ओर से लगभग 1,50,000 रुपये का अन्न तथा चारा जनहित में बांटा गया।

सन् 1928 ई० में भिवानी शहर में पीने के पानी के लिए लोगों को बड़ा भारी कष्ट था। भिवानी में तत्कालीन तहसीलदार चौधरी घासीराम, पण्डित नेकीराम शर्मा, श्री श्रीदत्त वैद्य आदि एक डेपुटेशन बनाकर कलकत्ता सेठ छाजूराम के पास गए तथा उनसे भिवानी शहर वालों के पानी का कष्ट दूर करने की प्रार्थना की। सेठ छाजूराम जी ने उनको कलकत्ता से 2,50,000 रुपये चन्दा दानार्थ दिलवाया और स्वयं 50,000 रुपये पानी के लगवाने हेतु दानार्थ दिये।

सन् 1914 में दामोदर घाटी (बिहारपश्चिमी बंगाल) में भयंकर बाढ़ आई। चारों ओर दूर-दूर तक तबाही मच रही थी जिसमें अनेक नर-नारियों तथा पशुओं की जान जा रही थी। सेठ चौ० छाजूराम कलकत्ता से प्रतिदिन रेल द्वारा बाढ़ पीड़ितों को धन, अन्न, वस्त्र, कपड़े बांटने जाया करते थे। इस प्रकार लगभग 30-35 हजार रुपये खर्च करके बाढ़ पीड़ितों की सहायता की।

  • 31. बीमारी में रोगियों की सहायता - सन् 1909 (संवत् 1966) में सारे देश में प्लेग की महामारी फैल गई थी। कोई भी गांव अथवा नगर इस महामारी से अछूता न बचा था। सब ओर हाहाकार मचा हुआ था। सारा भारत प्लेग की भीषण ज्वाला में धधक रहा था। ऐसे भीषण तथा संकटकाल में दुखियों की, रोगियों की सहायता करना धीर वीर दानी व्यक्ति का ही काम था।

उस समय सेठ चौ० छाजूराम जी ने अन्न, धन, दवा, वस्त्र आदि से अपने देश में विभिन्न केन्द्रों पर बने संगठनों को दानार्थ लाखों रुपये देकर दीन दुखियों की सेवा की। कोई भी ऐसा समय दृष्टिगोचर नहीं होता कि जब देश में दैवी आपत्ति आई और आपने दान देकर सहयोग नहीं किया हो।

सन् 1918 (संवत् 1975) में देश भर में एक अन्य प्रकार की महामारी, जिसे एन्फ्लुएन्जा (Influenza) (यानी एक प्रकार का शीतप्रधान छूत से फैलने वाला ज्वर) का नाम दिया जाता है, फैल गई। इसे कार्तिक वाली बीमारी के नाम से भी पुकारा जाता है। इससे असंख्य नर-नारियां काल का ग्रास बन गये। देश में इस बीमारी से अनेक भागों में 10 प्रतिशत व्यक्ति नष्ट हो गये थे जिनमें स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक बताई जाती है। ऐसे महाविनाश के अवसर पर दानवीर सेठ चौ० छाजूराम जी ने बहुत अधिक धनराशि अनेक स्थानों पर सेवा के लिए दानार्थ दी। उन


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दिनों भिवानी में एक सेवक दल संगठित हुआ था। सेठ जी ने इस संगठन को बहुत बड़ी धनराशि, अन्न, दवा, वस्त्र आदि दानार्थ दिये। सेठ जी ने केवल भिवानी, बवानीखेड़ा, हांसी, तोशाम, हिसार, रिवाड़ी आदि हरयाणा के ही इलाकों में सहायतार्थ धन नहीं दिया अपितु कलकत्ता जैसे देश के विभिन्न बड़े-बड़े नगरों, कस्बों, गांवों में भी समाजसेवी संस्थाओं, समाजसुधारकों को धन देकर देश के अनेक भागों में सेवार्थ भेजा।

  • 32. गौ सेवक - आप धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे। गऊ को आप पवित्रतम प्राणी मानते थे। महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित गोकरुणानिधि पुस्तक पढ़ने के बाद तो आप पर विशेष प्रभाव पड़ा। आपने गोरक्षा हेतु गोशालाएं खोलने का विचार बनाया और कई गोशालाओं के निर्माणार्थ बहुत बड़ी धनराशि दान दी। कलकत्ता में गोशाला के निर्माण का फैसला आपकी इच्छा से हुआ जिसके निर्माण में आपने इस गोशाला के लिए सबसे बड़ी धनराशि स्वयं दान में दी तथा दूसरे लोगों को इसके निर्माण हेतु धन से सहायता करने की प्रेरणा दी।

इसके अतिरिक्त आपने एक लाख रुपये की धनराशि से भिवानी में एक आदर्श गोशाला बनवाई। जब भी किसी व्यक्ति ने गोशाला के लिए सहायता मांगी तो दानवीर सेठ चौ० छाजूराम ने गोमाता की सेवा तथा रक्षा के लिए सदा ही खुश होकर धन दिया।

  • 33. गांव में भवन निर्माण - आपके पूर्वज मुजारे के रूप में खेती करने वाले साधारण किसान थे। इसलिए अधिक आमदनी न होने के कारण गांव में अपना रहने के लिए कोई पक्का सुन्दर मकान न बना सके। जब सेठ छाजूराम जी का व्यापार अच्छा खासा चल गया और उनके पास बहुत बड़ी धनराशि जमा हो गई, तब कलकत्ता में कई शानदार कोठियां खरीदीं तथा कई शानदार कोठियां स्वयं भी बनवाईं। आपने अपने गांव में भी भवन बनाना चाहा। इससे पहले 1913 ई० में गांव अलखपुरा में एक कुंआ बनवाना था। उस समय स्कीनर स्टेट की जमींदारी के अधीन होने के कारण तथा मुजारे होने के कारण कुंआ बनाने पर मालकान ने नाराजगी प्रकट की। जब सन् 1916 में आपने अपने गांव अलखपुरा में ही पक्का मकान बनाना शुरु किया तब स्टेट के मालिक ने मकान बनाना बन्द कर दिया। इस पर सेठ जी को विवश होकर मुकदमा लड़ना पड़ा। यह मुकदमा प्रिवी कौंसिल लन्दन तक चला। इस मुकदमे में जीत बाबू छाजूराम जी की हुई। इसके बाद आपने अपने गांव में अपनी शानदार तीन मंजिली विशाल हवेली बनाई। इसके अतिरिक्त हांसी से 4 मील दूर शेखपुरा (अलिपुरा) में लाखों रुपये की शानदार कोठी बनाई।

आपने अपनी निजी जमींदारी बनाकर अलग स्टेट बनाने का विचार किया। इसी उद्देश्य से अतुल धनराशि लगाकर शेखपुरा, अलिपुरा, अलखपुरा, कुम्हारों की ढ़ाणी, कागसर, जामणी, मोठ गढी आदि गांवों की जमींदारी का विशाल भू-भाग खरीदकर विशाल जमींदारी बनाई। जामणी गांव खाण्डा खेड़ी से दो मील पर स्थित है। यहां 2600 बीघे जमीन सेठ छाजूराम जी ने खरीदी थी। इसका मालिक हिस्टानली नामक अंग्रेज था। यह ठेके का गांव था।

सेठ चौ० छाजूराम जी ने अपनी जामणी की जमीन की पैदावार को सम्भालने के लिए खाण्डा खेड़ी में ही एक कोठी बनाई जो बाद में आर्य कन्या पाठशाला के लिए दानार्थ दे दी तथा सन् 1916 से लेकर आज तक यह आर्य कन्या पाठशाला इसी कोठी में चली आ रही है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-889


  • 34. भरतपुराधीश महाराजा कृष्णसिंह जी की सहायता - उन दिनों महाराजा भरतपुर कृष्णसिंह तेजस्वी राजाओं में गिने जाते थे। तमाम भारत के जाट उनको अपना नेता मानते थे। सेठ चौ० छाजूराम और सर छोटूराम का उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध व मित्रता थी। पंजाब के प्रतिष्ठित नेता चौ० लालचन्द भी महाराजा के यहां राजस्व मन्त्री बन चुके थे। सन् 1926 के आस-पास महाराजा भरतपुर अंग्रेज सरकार के कर्जदार हो गये थे। महाराजा भरतपुर ने ऐसे संकटकाल में चौधरी लालचन्द को ही सहायतार्थ सेठ छाजूराम जी के पास भेजा। सेठ जी ने बड़ी उदारता के साथ महाराजा भरतपुर की सहायतार्थ दो लाख रुपये कर्ज के रूप में दिये।
  • 35. सेठ घनश्यामदास जी बिड़ला से मित्रता - हमारे चरित नायक स्वयं कलकत्ता के जूट के बादशाह कहलाते थे। कलकत्ता के सभी बड़े-बड़े लखपति करोड़पति सेठों से आपकी मित्रता थी। किन्तु बिड़ला जी से विशेष सम्पर्क व मित्रता थी क्योंकि आप दोनों की विचारधारा एक जैसी ही थी। यद्यपि सेठ छाजूराम जी कट्टर आर्यसमाजी थे तथा बिड़ला जी सनातन धर्मी थे परन्तु फिर भी शिक्षा तथा समाज कल्याण के कार्यों में दान के विषय में दोनों ही सुधारक थे। साहस और उत्साह के साथ शिक्षण संस्थाओं में दान देते थे।

सेठ घनश्यामदास जी जो बिड़ला बन्धुओं में तीसरे भाई थे, उनका विवाह सेठ महादेव चिड़ावा वाले की सुपुत्री दुर्गादेवी से हुआ। सेठ घनश्यामदास बिड़ला की सन्तान आपको सदा नाना ही कहती रही। वास्तव में आप दोनों में आदर्श मित्रता थी। सेठ चौ० छाजूराम जी के महाप्रयाण के अवसर पर कलकत्ता के सभी सेठों के साथ श्री घनश्यामदास जी बिड़ला तथा जुगलकिशोर जी बिड़ला आदि सेठ छाजूराम की शवयात्रा और दाह संस्कार में सम्मिलित हुए तथा अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की।

  • 36. स्वभाव तथा चरित्र - सर सेठ चौ० छाजूराम जी ने अपनी कष्ट एवं ईमानदारी की कमाई में से करोड़ों रुपया मानव जाति के कल्याणार्थ दान किया था। वास्तव में दानवीर सेठ सर छाजूराम को क्षत्रिय जाट जाति का भामाशाह कह दिया जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी। सेठ सर छाजूराम जी किसी वार्त्ता के प्रसंग में कह दिया करते कि “मैंने दरिद्रता की चरम सीमा अपने जीवन में देखी है जबकि आज लोग मुझे करोड़पति कह देते हैं।” “मैंने एक ऐसी जाति (जाट) में जन्म लिया है जहां व्यापार किसी ने नहीं किया, मैं वही काम करता हूं।” “जिस प्रभु ने मुझ पर इतनी कृपा की उसके नाम पर जो दान करूं वही थोड़ा है।” “जितना मैं दान देता हूं उतना ही अधिक भगवान् मुझे लाभ दे देता है।” “मेरी इच्छा रुपया कमाकर गरीबों का उद्दार, शिक्षा और समाज कल्याण के कार्य करने की थी। वह भगवान् की दया से लगभग पूरी हो गई। अब बेशक मैं परमपिता परमात्मा को प्यारा हो जाऊँ। मेरी कोई विशेष इच्छा शेष नहीं है।”

इतना धन होने की दशा में मनुष्य को जो दुर्व्यसन लग जाते हैं सो उनसे आप को आर्यसमाज के संसर्ग ने बचा लिया। जीवन पर्यन्त उनके चरित्र पर किसी प्रकार का कभी धब्बा नहीं लगा। ईमानदारी, कठोर परिश्रम तथा प्रभु का विश्वास - ये ही हर काम में सफलता प्राप्त करने के आपके मूलमन्त्र थे। वे एक साधारण कुल में पैदा होकर इतने उंचे उठे, महान् बने, इसमें उनकी सतत लग्न

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और कार्यशीलता ही मुख्य आधार थे। उनमें वे सभी गुण विद्यमान थे जो एक अच्छे व्यक्ति में होते हैं। वे सबके दुःख दूर करनेवाले, कुल का नाम उज्जवल करनेवाले, दानी, शूरवीर, अच्छे विचारों वाले, सत्यवक्ता, समान व्यवहार करनेवाले, प्रेमी, परोपकारी, गुणी और धर्मात्मा थे। जीवन में आपने कभी भी कुमार्ग पर पैर न रखा। उनका आहार अतुल धन सम्पत्ति का स्वामी होते हुये शुद्ध सात्विक तथा निरामिष होता था। वे शुद्ध खादी के स्वदेशी वस्त्र पहनते थे और सिर पर गोल सुन्दर केसरिया रंग की पगड़ी धारण करते थे। आपका चरित्र आदर्श तथा स्वभाव विनम्र, दयालु एवं उदार था। इतने श्रेष्ठ एवं देवता पुरुष से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए।

  • 37. स्वर्गवास - लगभग 4 मास की लम्बी बीमारी के बाद 7 अप्रैल 1943 ई० को 82 वर्ष की आयु में क्षत्रिय जाट जाति का दानवीर कर्ण, अपने समय के भामाशाह का स्वर्गवास हो गया। आपके महान् गुणों से भावी सन्तति प्रेरणा लेती रहेगी। वे अपनी ललित कीर्ति और कमनीय कारनामों के कारण सदैव के लिए अमर हो गये। जब तक भारत की वीराग्रगण्य क्षत्रिय जाति का इस धरा धाम पर नामोनिशान है, दानवीर सेठ छाजूराम जी तब तक हम क्षत्रिय जनों के लिए तो जीवित जागृत पूजनीय हैं।

दानवीर सेठ चौ० छाजूराम के स्वर्गवास की सूचना मिलने पर दीनबन्धु सर चौ० छोटूराम ने आंखों में आंसू भरकर उनको श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए कहा था -

“भारतवर्ष का महान् दानवीर गरीबों और अनाथों का धनवान् पिता पतितोद्धारक तथा मेरे धर्मपिता आज अमर होकर हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन गये। मैं अपने धर्मपिता के महाप्रयाण पर श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूं और उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं के अनुसार कार्य करने का संकल्प लेता हूं।”

दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम

विशेषताएं - दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम बड़े बुद्धिमान्, विद्वान्, प्रवीण, राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, ऋषि दयानन्द सरस्वती के सच्चे शिष्य, कर्मयोगी, ईमानदार, निपुण कार्यकर्त्ता, चरित्रवान्, समाज सुधारक, सिद्धान्तों के धनी, दलितों एवं मजदूरों के हितकारी एवं रक्षक, किसानों के मसीहा, निडर नेता, उदार हृदय, साहसी वीर, सच्चे देशभक्त और अंग्रेजों के विरोधी थे।

19वीं शताब्दी में भारतवर्ष में बड़े-बड़े महान् नेता महर्षि दयानन्द सरस्वती, गोपाल-कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, स्वामी विवेकानन्द जी, ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि पैदा हुए जिन्होंने अपने-अपने ढंग से भारतवर्ष की आजादी, समाज सुधार, सच्चे धर्म की प्रेरणा और मानव जाति की उन्नति के लिए महान् कार्य किये। इसी शताब्दी में पैदा होने वाले चौ० सर छोटूराम जी भी इन्हीं प्रसिद्ध महान् व्यक्तियों की मण्डली में एक योग्य नेता के रूप में समानता रखते हैं। प्रत्येक नेता देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपने ढ़ंग से कार्य कर गया। महर्षि दयानन्द जी का देश की सच्ची स्वतन्त्रता का लक्ष्य था, भारतवर्ष में धार्मिक एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करके देश के नागरिकों को वैदिक धर्मी बनाकर अंग्रेजों को यहां से


1. अलखपुरा से कलकत्ता (दानवीर चौ० छाजूराम जीवन चरित) लेखक: प्रतापसिंह शास्त्री
2. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष, लेखक कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री


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खदेड़ कर आज़ादी प्राप्त करना। महात्मा गांधी तथा उनके साथियों का लक्ष्य था भारतवर्ष को अहिंसक आंदोलनों द्वारा, अंग्रेजों को यहां से निकालकर, आज़ाद करवाना। इसमें वे सफल हुए, परन्तु देश के दो भाग करके।

आज के युग में दो ही महान् नेता ऐसे थे जो देश को संयुक्त रखकर स्वतन्त्रता प्राप्त करते तथा देश को अखण्ड रखते। वे थे दीनबन्धु चौ० छोटूराम और दूसरे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस। खेद है तथा यह देश का दुर्भाग्य था कि वे दोनों ही आज़ादी मिलने से पूर्व ही शहीद हो गये। देश को अखण्ड रखने में चौ० सर छोटूराम इन तमाम उच्च कोटि के कांग्रेसी नेताओं से बहुत महान् एवं सच्चे देशभक्त थे।

चौ० छोटूराम सच्चे अर्थों में राजर्षि थे। जो व्यक्ति राजगद्दी पर बैठकर भी तपस्वियों का जीवन व्यतीत करे अर्थात् राजा बनकर भी फकीर बना रहे वही ‘राजर्षि’ कहलाता है। वास्तव में वे एक राजर्षि थे।

चौ० छोटूराम जी की जो विशेषताएं लिख दी गई हैं उन सब का प्रमाण उनकी इस जीवनी के वर्णन में उचित स्थान पर लिख दिया जायेगा।

दीनबन्धु चौ० सर छोटूराम में सबसे अद्भुत विशेषता यह थी कि उन्होंने बिना मांगे ही अपनी बुद्धि द्वारा किसानों की आर्थिक, सामाजिक, कष्टपूर्ण जीवन तथा अशिक्षित दशा को सुधार कर उनकी चौमुखी उन्नति की। इसी कारण तो आपको किसानों का ‘मसीहा’ कहा गया है। इस आधुनिक युग में संयुक्त पंजाब के शोषित तथा असहाय किसानों को चौ० छोटूराम ने हर पहलू से उन्नत किया, जिसकी बराबरी अन्य कोई नहीं कर सका है। सर चौ० छोटूराम ने किसानों की जो उन्नति की उसी से प्रेरणा लेकर आज भारतवर्ष के राजनीतिज्ञ नेताओं ने किसानों की ओर ध्यान देना आरम्भ किया है।

सर चौ० छोटूराम ने अखण्ड पंजाब के मजदूरों, हरिजनों, दरिद्रों, पिछड़े वर्ग तथा दुःखियों की सहायता की, जिससे आपको दीनबन्धु कहा जाता है।

आपका जीवन निर्धनता और समृद्धि ने मानो आधा-आधा ही बांट लिया है। जन्म सन् 1881 से 1913 ई० तक का 31-32 वर्षों का समय निर्धनता का था और उसी में आपने अपने जीवन का निर्माण किया। सन् 1913 से 1945 (देहांत 9 जनवरी, 1945) तक लगभग उतने ही वर्षों का समय समृद्धि एवं शान शौकत का कहा जा सकता है। जीवन के ये दोनों समय अन्धकार एवं प्रकाश के रूप में भी विकसित किये जा सकते हैं। इन्हें फकीरी और राजसी भी कह सकते हैं। परन्तु इस दिव्य जीवन की दोनों विशेषताएं सदा बनी रहीं। फकीरी में राजसी ओज और राजसी दशा में फकीरी सादगी सदैव झलकती रही। राजसी ओज का प्रतिनिधित्व उनकी अदम्य स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान की भावना सदा करती रही। जो किसी भी अवस्था में नहीं दबी, बल्कि समय-समय पर प्रत्येक अपेक्षित प्रसंग में उभरकर अपना वास्तविक रूप दिखाती रही। इनके प्रमाण अगले पृष्ठों पर लिखित घटनाओं से ज्ञात हो जायेंगे।

चौ० सर छोटूराम के जीवन काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है।

1. जन्म, बाल्यकाल और शिक्षा। 2. नौकरी तथा वकालत। 3. राजनीति।


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1. जन्म, बाल्यकाल और शिक्षा

चौ० छोटूराम जी का जन्म माघ सुदी संवत् 1938 विक्रमी तदनुसार 24 नवम्बर सन् 1881 के दिन गढ़ी सांपला गांव (जि० रोहतक) में ओहलान गोत्र (जो अहलावत गोत्र का शाखा गोत्र है) के एक साधारण जाट किसान चौ० सुखीराम के कच्चे घर में हुआ था। आपकी माता जी का नाम श्रीमती सिरयांदेवी था। दादा श्री रामदास और परदादा श्री रामरत्न थे। आपका नाम रामरिछपाल रखा गया। दो भाइयों, नेकीराम और रामस्वरूप से छोटा होने के कारण, घर के लोग रामरिछपाल को लाड-प्यार में छोटू कहने लगे। आगे चलकर वह छोटू से छोटूराम कहलाने लगे।

आपके पिता चौ० सुखीराम एक साधारण किसान थे जिनके पास खेती करने के लिए कामचलाऊ भूमि थी। वे कुछ रूई का लेन-देन भी करते थे जिसमें उनको काफी नुकसान हो गया। फलस्वरूप उनके जिम्मे कुछ कर्ज़ा हो गया। उनका देहान्त 1905 ई० में हो गया और उनका छोड़ा हुआ कर्जा चौ० छोटूराम ने अपनी वकालत से पैसा कमाकर सन् 1913 में चुकाया।

छोटूराम बचपन में बड़े नटखट थे। गली-पड़ौस के बच्चों से मारपीट करना उनके लिए मामूली बात थी। प्रकृति का यह नियम है कि बचपन में कुछ विशेषतायें रखने वाले बालक ही भविष्य में महापुरुष हुए हैं। दूसरे बालकों के साथ मारपीट या झगड़ा करने से तंग आकर उसके चाचा चौ० राजेराम ने छोटू को जनवरी 1, 1891 ई० को सांपला पाठशाला में दाखिल करा दिया। मास्टर मोहनलाल ने उनका नाम रजिस्टर में छोटूराम लिख लिया। सन् 1895 में प्राइमरी परीक्षा में छोटूराम जिले में प्रथम आया और वजीफा प्राप्त किया।

बाल विवाह - यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रारम्भिक शिक्षा के समय ही लगभग 10-11 वर्ष की आयु में छोटूराम का विवाह 5 जून 1893 को श्रीमती ज्ञानोदेवी के साथ सम्पन्न हो गया था। श्रीमती ज्ञानोदेवी के पिता का नाम चौ० नान्हासिंह गुलिया गोत्र का जाट था, जिसका गांव बादली के निकट खेड़ीजट था। बालविवाह के बावजूद भी छोटूराम अपनी पढ़ाई में जुटे रहे।

माध्यमिक शिक्षा (मिडल) प्राप्त करने के लिए छोटूराम को झज्जर के मिडल स्कूल में दाखिल होना पड़ा। उन दिनों झज्जर के लिए कोई सड़क नहीं थी, पैदल ही आवागमन होता था। छात्रावास भी नहीं होते थे। घर से ही खाने-पीने की चीजें महीने या पन्द्रह दिन के लिए पीठ या सिर पर लादकर ले जानी होती थीं।

अमेरिका के प्रेसीडेण्ट श्री विल्सन भी एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वे नित्य ग्यारह मील पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। हमारे भूतपूर्व भारत के प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री जी निर्धन होने के कारण गंगा पार करने के लिये किश्ती वाले को केवल छः पैसे देने में भी असमर्थ थे। अतः अपनी पाठशाला जाने के लिए प्रतिदिन अपनेसामान के साथ पढ़ने जाने व आने के लिए गंगा नदी को स्वयं तैर कर पार करते थे। यही दशा छोटूराम की भी थी। वे अपने गांव से 20-22 मील दूर झज्जर तक कभी पन्द्रह दिन का, कभी महीने भर का आटा, घी, दाल आदि सामान अपने सिर पर रखकर पैदल जाते थे।

उन दिनों पंजाब में मिडल की परीक्षा यूनिवर्सिटी की होती थी। उस वर्ष यानी सन्


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1899 में मिडल की परीक्षा में पंजाब भर से जो हजारों विद्यार्थी बैठे थे, उनमें सबसे अधिक नम्बर श्री महताब राय के, दूसरे नम्बर पर चौ० छोटूराम थे और तीसरे नम्बर पर एक बंगाली युवक किशोरी मोहन आये थे। छोटूराम ने वजीफा प्राप्त किया।

सांपले में सेठ घासीराम के पास आर्थिक सहायता के लिये जाना - छोटूराम को मिडल पास करने पर विद्या का चस्का लग गया। उसने अपने पिताजी को दिल्ली जाकर आगे पढ़ने की अपनी इच्छा प्रकट की। उनके पिता जी कर्जे से दबे हुये थे। अतः उन्होंने अपने बेटे को कह दिया कि घर में टोटा है, पढ़ाई का खर्च कहां से लाऊं। जब छोटूराम ने बहुत जिद्द की तो पिता जी छोटूराम को साथ लेकर सेठ घासीराम के पास सांपला पहुंचे। वहां पर पहुंचते ही सेठ घासीराम ने बालक छोटूराम के पिता को अपना पंखा खींचने का आदेश दिया। इस पर स्वाभिमान के संस्कारी छोटूराम की आत्मा तिलमिला उठी और उसने लाला जी को फटकारते हुए कहा कि “तुम्हें लज्जा नहीं आती कि अपने पुत्र दयाराम के बैठे हुए तुम पंखा खींचने के लिए उसे न कहकर मेरे आदरणीय वृद्ध पिता से पंखा खिंचवाते हो। मैं यह सहन नहीं कर सकता।” इस पर लाला बहुत लज्जित हुआ और उसने विवश होकर पास बैठे अपने पुत्र को पंखा खींचने के लिये कहा।

प्रायः महापुरुषों के जीवन को मोड़ देने का श्रेय इसी प्रकार की घटनाओं को होता है। महात्मा बुद्ध को एक बूढ़े आदमी की दयनीय दशा ने दयालु बनाया और मृतक को देखकर वे मोक्ष-मार्ग के पथिक बने। महर्षि दयानन्द को शिव की मूर्ति पर चढ़े चूहे ने सच्चे ईश्वर एवं धर्म तत्त्व की खोज के लिए गृह-त्याग की प्रेरणा दी और उन्होंने अपना यह लक्ष्य पूर्ण किया। इसी प्रकार हजारी बाग कलकत्ता में सेठ चौ० छाजूराम को एक ब्राह्मण ढाबे में खाना खाने से महाजनों व ब्राह्मणों ने, जो उसी ढाबे में खाना खाते थे, ढाबे के मालिक से यह कहकर बन्द करवा दिया कि एक जाट का लड़का (जाट को अछूत समझते थे) हमारे साथ बैठकर भोजन करे, हमें स्वीकार नहीं है। युवक छाजूराम को गहरी ठेस लगी। अतः उसने बहुत ऊंचा उठने का दृढ़ संकल्प किया। एक करोड़पति महाजन तथा ब्राह्मण से भी ऊंचा आदर्श सम्मान पाने की तथा अपनी जात जाति को उपर उठाने की लालसा जाग उठी। ईश्वर की कृपा से वह अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुआ।

ठीक इसी प्रकार चौ० छोटूराम के जीवन को इस घटना ने एक विशेष मोड़ दिया। उन्होंने महाजनों एवं साहूकारों द्वारा सदियों से चले आ रहे ग्रामीण कृषकों तथा गरीबों के शोषण एवं उत्पीड़न को समाप्त करने का तथा उनके खूंखार पंजों से छुड़ाने का दृढ़ संकल्प किया। उनका सारा जीवन इसी पृष्ठभूमि की प्रतिक्रियास्वरूप बना। आप अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में सफल हुए जो कि संसार में विशेषकर भारतवर्ष में एक अद्वितीय आदर्श उदाहरण है।

उस समय की मनोवृत्ति के अनुसार महाजन यह पसन्द नहीं करते थे कि जाट का लड़का अधिक पढ़ जाये। इसलिये सांपले वाले उस लाला जी ने चौ० सुखीराम जी से साफ कह दिया कि जाट का बेटा इतना पढ़ गया तो क्या थोड़ा है, इब इससे या तो खेती कराओ या फौज-पुलिस में नौकर करा दो और हां, यह पटवारी भी तो हो सकता है। छोटूराम का मन तो आगे पढ़ने का था जो आगे चलकर लाखों पटवारियों के भाग्य का विधाता अर्थात् पंजाब का माल मन्त्री बना।


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छोटूराम के पिता के पास पैसा न होने के कारण उसके चाचा राजेराम ने उनकी आगे पढ़ाई का खर्च देना स्वीकार किया और 40 रुपये छोटूराम को उसी समय दे दिये। छोटूराम ने दिल्ली के प्रसिद्ध मिशन हाई स्कूल में दाखला ले लिया। उसी स्कूल में उनके दो उत्कृष्ट साथी महताबराय और किशोरीमोहन भी भर्ती हो गये थे। हाई स्कूल में दाखिल होने के कुछ ही समय पश्चात् छोटूराम को छः रुपया मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी और किसान होने के कारण उनकी स्कूल फीस भी माफ हो गई। नवमी श्रेणी की सालाना परीक्षा में छोटूराम ने महताबराय से अधिक अंक प्राप्त किये, परन्तु दसवीं श्रेणी में पढ़ते समय बीमार होने के कारण वह मैट्रिक परीक्षा (1901 ई०) में फर्स्ट डिविजन तो प्राप्त कर सके परन्तु सर्वोपरि स्थान न पा सके।

छोटूराम का स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति उसके आगे पढ़ने में रुकावट थी। कालिज के वाइस प्रिंसिपल मि० रुद्रा ने छोटूराम का इलाज करवाया और इसका सब खर्च कालिज से दिया गया। कालिज के प्रिंसिपल मिस्टर राइट ने छोटूराम को दिल्ली बोर्ड से छात्रवृत्ति दिलाई। छात्रवृत्ति मिलने तक कालिज से ही उनके लिए खर्च किया गया। कालिज फीस भी पूरे वर्ष की माफ कर दी गई। इस प्रकार कालिज का पहला वर्ष बीत गया और प्रथम वर्ष की परीक्षा भी पास कर ली। जब एफ० ए० परीक्षा के लिए फार्म भरे तो छोटूराम ने धर्म के खाने में हिन्दू न लिखकर ‘वैदिक’ शब्द लिखा था।

एफ० ए० के द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने के बाद छोटूराम को यह चिन्ता हुई कि आगे किस प्रकार पढ़ाई जारी रहेगी। परमात्मा ने उनकी इस चिन्ता को भी दूर किया। सेठ चौ० छाजूराम से उनकी भेंट गाजियाबाद स्टेशन पर हुई। सारी बातें पूछने पर सेठ छाजूराम जी ने बी० ए० पास करने की पढ़ाई का सब खर्च छोटूराम को देना स्वीकार कर लिया। सन् 1905 में छोटूराम ने दिल्ली कालिज से बी० ए० परीक्षा पास की और संस्कृत विषय में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान पर रहे। सेठ छाजूराम ने युवक छोटूराम की धन से भरपूर सहायता की। चौ० छोटूराम अन्तिम समय तक सेठ चौ० छाजूराम को अपना धर्मपिता कहते थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो इसी अध्याय में दानवीर सेठ चौधरी छाजूराम प्रकरण, दीनबन्धु चौ० सर छोटूराम का सम्पर्क में आना)।

जब चौधरी छोटूराम अपनी बी० ए० की परीक्षा लाहौर देकर अपने घर आये तब अपने पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर उनको बड़ा सदमा लगा। घरवालों को कहा कि मुझे खबर भेजकर बुलाया क्यों नहीं। बी० ए० की परीक्षा तो मैं अगले वर्ष भी दे सकता था। छोटूराम एम० ए० में प्रवेश करना चाहते थे किन्तु पिता की मृत्यु और परिवार के कर्जे में दबा होना उन्हें शूल की भांति हर समय खटकता था। अतः आगे की पढ़ाई बन्द हो गई।

2. नौकरी तथा वकालत (कालाकंकर में नौकरी सन् 1905)

चौधरी छोटूराम ने एक दिन अखबार में विज्ञापन पढ़ा - कालाकंकर के राजा रामपालसिंह को निजी सचिव के लिए एक योग्य ग्रेजुएट की जरूरत है। चौधरी छोटूराम ने प्रार्थनापत्र दिया। कालाकंकर उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में गंगा के किनारे एक छोटी सी रियासत थी। बुलावा आते ही चौधरी छोटूराम रेलगाड़ी द्वारा वहां पहुंच गये। उनको बारादरी में एक कमरा मिल गया जिसे तीन ओर से गंगाजल धोता था। सभी सुविधाओं के साथ उनको 40 रुपये वेतन भी मिलता था। राजा जी


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उदारवादी और राष्ट्रवादी थे। हिन्दी और अंग्रेजी में ‘हिन्दुस्तान’ अखबार निकालते थे। छोटूराम जी अंग्रेजी ‘हिन्दुस्तान’ के लिए लेख लिखने लग गये। उनमें निबन्ध लिखने की योग्यता तो पहले से ही थी, राजा साहब को उनके लेख बहुत पसन्द आये। राजा साहब हर बात में चौधरी छोटूराम से सलाह लेते थे, उनका मान करते थे। यहां तक कि उनको भोजन भी अपने साथ खिलाते थे। एक दिन राजा रामपालसिंह ने छोटूराम की प्रतीक्षा किए बिना दोपहर का भोजन करना शुरु कर दिया। इसमें स्वाभिमानी युवक छोटूराम ने अपना अनादर समझा और नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। राजा साहब ने बहुत समझाया, परन्तु व्यर्थ। केवल छः महीने ही रहे।

यहां से छोटूराम भरतपुर पहुंचे। भरतपुर तथा डीग के किले, महल, तालाब आदि देखकर वह चकित रह गये। उन्हें यह जानकर बहुत दुःख हुआ कि जाट रियासत पर गैर-जाट राज्य कर रहे थे। महाराजा रामसिंह निर्वासित थे और महाराजा कृष्णसिंह मेयो कालिज अजमेर में पढ़ रहे थे। कौंसिल के सदस्यों से नौकरी मांगने पर राव बहादुर दामोदरदास, राव बहादुर गिरधारीलाल और धाऊ रघुबीरसिंह ने उत्तर दिया - “कोई जगह खाली नहीं है। खाली थी, लेकिन भर गई।” चौधरी छोटूराम निराश घर लौट आये।

सन् 1906 में मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) में सर चौधरी छोटूराम की अध्यक्षता में अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा की स्थापना हुई। इस अवसर पर बड़े-बड़े विद्वान् जाट सज्जन उपस्थित थे1। 26 जनवरी 1918 ई० को मेरठ में अखिल भारतीय जाट महासभा के महोत्सव पर आप प्रधान मन्त्री चुने गये। सन् 1927 ई० में आगरा वार्षिक महोत्सव के दो बार प्रसिडेण्ट चुने गये। इनके अतिरिक्त जब भी कहीं अखिल भारतीय जाट महासभा के सम्मेलन हुए वहीं आप या तो प्रधान या संचालक रहे।

लाहौर लॉ कालिज में दाखिला तथा वहां से पुनः कालाकंकर - चौ० छोटूराम ने आगे पढ़ने का निश्चय किया। लॉ कालिज लाहौर में दाखिला ले लिया और रंगमहल हाई स्कूल में 50 रुपये मासिक वेतन पर अध्यापक लग गये। परन्तु यहां से भी जल्दी लौटना पड़ा। सन् 1907 में प्लेग फूट पड़ा। गांव और दिल्ली में भी इसका भयानक प्रकोप हो गया। कालाकंकर से राजा रामपाल सिंह का फिर एक पत्र मिला कि आप एक बार फिर हमारे यहां कुछ समय दें। चौधरी छोटूराम वहां पर चले गये और उनकी इच्छा अनुसार राजा साहब ने उन्हें रियासत में शिक्षा विभाग का सुपरिण्टेंडेंट पद दे दिया। वहां पर वह स्कूलों की देखभाल के अलावा राजा साहब के अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान का भी सम्पादन करने लगे और सेक्रेटरी की अनुपस्थिति में राजा साहब के राजनैतिक कार्यों में भी सहयोग देते थे। राजा साहब उनके खान-पान और रहन-सहन के खर्चों के अतिरिक्त 60 रुपये मासिक वेतन भी उन्हें देते थे। परन्तु उनका दिल वहां नहीं लगा। अतः एक साल वहां रहकर राजा साहब से छुट्टी लेकर आ गये।

आगरा लॉ कालिज में दाखिला - 1909 में चौधरी छोटूराम ने आगरा लॉ कालिज में दाखिला ले लिया। यहां पर सेण्ट जॉन हाई स्कूल में अध्यापक लग गये। इससे खर्च चलता रहा। यहां पर मथुरा-आगरा जिले के जाटों के प्रयत्न से एक जाट बोर्डिंग हाउस बनाया हुआ था। उसमें


1. कंवर हुकमसिंह (आँगई), मामराजसिंह (शामली), तेजसिंह (बाहपुर), कल्याणसिंह (बरकातपुर), शादीराम, नत्थुसिंह परदेशी (हरयाणा) आदि ।


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जाट लड़कों के लिए मुफ्त आवास का प्रबन्ध था। आप उसमें रहने लगे। पढ़ने पर पूरा ध्यान लगाया। फलस्वरूप 1911 ई० में आपने फस्ट डिविजन में एल. एल. बी. पास कर लिया। आगरा जाटबहुल इलाका है। शिक्षा काल में उनकी आगरा के सभी शिक्षित और प्रतिष्ठित लोगों से जानकारी हो गई थी। इसलिए जब वकालत पास कर ली तो वहीं वकालत की प्रेक्टिस शुरु कर दी। आपको वकालत में आशातीत सफलता प्राप्त हुई और आप वकील हाईकोर्ट हो गये। आप ने लोगों से 8,000 रुपये एकत्रित करके जाट बोर्डिंग हाउस में कुछ नये कमरों का निर्माण कराया और उसके सुपरिण्टेंडेंट रहे।

आगरा में वकालत के समय मुकदमे - दो भाई चौ० छोटूराम के पास एक मुकदमा लाए। उनका दफा 110 में चालान हुआ था। चौधरी साहब ने जोरदार बहस करके दोनों को बरी करा दिया।

दूसरे मुकदमे में एक डाके के अभियोग में 27 अभियुक्त थे जिनमें से 3 सरकारी गवाह बन गए थे। मजिस्ट्रेट ने प्राथमिक सुनवाई करके मामला सैशन कोर्ट में भेज दिया जहां चौ० छोटूराम ने इतनी सफाई के साथ बहस की कि सभी अभियुक्त बरी हो गए। आपकी आगरा, मथुरा, अलीगढ़, भरतपुर आदि जिलों में ख्याति फैल गई। वहां के लोग विशेषकर जाट आपको अपना शुभचिंतक मानते थे।

आगरा से रोहतक - सन् 1911 में ब्रिटिश सम्राट् जार्ज पंचम का दरबार लगा और कलकत्ता की बजाय दिल्ली भारत की राजधानी बनाई गई। सोनीपत तहसील दिल्ली से निकालकर रोहतक जिले में शामिल कर दी गई। चौ० छोटूराम को रोहतक में अपना भविष्य अधिक उज्जवल दिखाई दिया।

वे अक्तूबर 1912 में रोहतक पहुंच गये। चौ० लालचन्द, चौ० नवलसिंह, और चौ० रामचन्द्र यहां पहले से ही वकालत करते थे। आप एक मकान किराये पर लेकर उसमें रहने लगे और रोहतक में वकालत शुरु कर दी।

चौ० छोटूराम ने चौ० लालचन्द के साथ फरवरी 1913 ई० में साझली वकालत आरम्भ कर दी जो आठ वर्ष तक चली। तहसीलदार के लम्बे अनुभव के कारण चौ० लालचन्द माल के मुकदमों की और चौ० छोटूराम दीवानी तथा फौजदारी के मुकदमों की पैरवी करते थे। चौ० छोटूराम केवल एक वकील ही नहीं थे, उनमें एक महान् नेता और वक्ता के गुण भी विद्यमान थे जिनको विकसित करने का अवसर, स्थान, समय और शोषित वर्ग मिला। अन्य वकीलों की तरह साधारण आदमी से दूर रहने की बजाय छोटूराम उनके निकट सम्पर्क में आने लगे। यहां तक कि जाट मुवक्किलों के साथ बैठकर हुक्का भी पीने लगे। उनके ठहरने का प्रबन्ध करते; हुक्का पानी, खाट बिस्तर और भोजन तक का प्रबन्ध करने लगे। इससे अन्य जाति के वकीलों में घृणा एवं हलचल मच गई।

एक दिन चौ० छोटूराम अपने गांव के लोगों के साथ कचहरी में, उनकी बिछाई हुई चादर पर बैठकर उनके साथ हुक्का पीने लगे। इस पर अन्य वकील तिलमिला उठे और बड़बड़ाने लगे कि इस छोटूराम ने तो हमारी प्रतिष्ठा एवं सम्मान को मिट्टी में मिला दिया। एक वकील होकर गंवार व जंगली देहाती किसानों के साथ जमीन पर बैठकर हुक्का पी रहा है। वकीलों ने चौधरी साहब को समझाने


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के लिए चौ० रामचन्द्र और श्री बिसिया कायस्थ वकील को भेजा। ये दोनों वकील चौधरी साहब के पास गये और उनसे कहा कि चौधरी साहब! वकीलों का जो स्तर है आप उसे गिरावें नहीं।

चौ० छोटूराम ने बिसिया साहब को जवाब दिया कि “मुझे बड़ा आश्चर्य है कि मजदूर अपने मालिक से अपने आपको ऊँचा समझकर उससे घृणा करे। मुवक्किल हमें फीस देते हैं जिससे हमारा गुजारा चलता है इसलिए वे मालिक और वकील उनके मजदूर हैं। अतः वे आदर के पात्र हैं। जिनसे हम मुंहमांगी मजदूरी लेते हैं उनके साथ अच्छा व्यवहार भी न करें और उन्हें अनादर का पात्र समझें, क्या यह अन्याय और अनर्थ नहीं है? दूसरी बात उनके साथ हुक्का पीने की है। ये लोग मेरे गोत्र के, जाति के और समान समाज के हैं। जब मैं इनके साथ हुक्का न पिऊँ तो और किसके साथ पिऊँ? मैं जाट हूं तो जाटों के साथ हुक्का अवश्य पिऊँगा। मैं तो चाहता हूँ कि सबका हुक्का-पानी एक हो; किन्तु आप लोग तो बहुत ऊँचे मीनारों पर चढ़े बैठे हो।”

ये दोनों प्रतिनिधि अपना-सा मुंह लेकर चले गये और उन्होंने सभी वकीलों को उनकी ये स्पष्ट बातें बता दीं। वकीलों ने समझ लिया कि जहां छोटूराम काबिल है वहां सिद्धान्ती भी है। यह केवल वकालत का ही उद्देश्य नहीं रखता है, इसके इरादे अपनी जाति और किसानों को ऊँचा उठाने का प्रोग्राम भी शामिल है।

जाट हाई स्कूल रोहतक की स्थापना - डी० ए० वी० कालिज लाहौर के विद्यार्थी चौ० भानीराम गंगाना निवासी (जि० सोनीपत) ने रोहतक में जाट स्कूल खोलने का प्रण किया परन्तु वे चेचक की बीमारी से अचानक चल बसे। मरते समय उन्होंने अपने मित्र चौ० बलदेवसिंह (धनखड़ गोत्री जाट गांव हुमायूंपुर जि० रोहतक) से, जो कि सैंट्रल ट्रेनिंग कालिज में बी० टी० कर रहे थे, अपनी इच्छा पूरी करने का वचन लिया। चौ० बलदेवसिंह, जो महात्मा हंसराज के शिष्य रहने के कारण दृढ़ आर्यसमाजी थे, ने इस स्कूल के लिए अपना जीवनदान दिया और उन्होंने 26 मार्च सन् 1913 ई० को रोहतक में जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल की नींव रखी। हिसार में डॉ० रामजीलाल तथा उनके भाई चौ० मातुराम (हुड्डा जाट गांव सांघी जि० रोहतक) ने इस संस्था की स्थापना में पूरा सहयोग दिया। किन्तु रोहतक के वकील इससे उदासीन ही रहे। इसका मुख्य कारण यह था कि रोहतक के डिप्टी कमिश्नर किलवर्ट साहब ने कहा यदि उनकी इच्छानुसार स्कूल चलाया जाये तो वे इसे 400 बीघे जमीन तथा 50,000 रुपया शुरु में सरकार से दिला देंगे और फिर 10,000 रुपया वार्षिक सहायता दिलवाते रहेंगे। किन्तु चौ० बलदेवसिंह संस्था को सरकारी प्रभाव से अछूता रखना चाहते थे। दूसरा कारण यह भी था कि जाट स्कूल की स्थापना करने वाले लोग आर्यसमाजी थे। मिस्टर किलवर्ट की यह भी इच्छा थी कि उनका नाम इस स्कूल के साथ जोड़ा जाए। परन्तु आर्यसमाजी जाटों को यह किसी भी मूल्य पर स्वीकार न था। अतः डी० सी० किलवर्ट की बात को ठुकरा दिया गया।

चौ० छोटूराम भी आर्यसमाजी थे। उन्होंने ग्रेजुएट सनातनी वकीलों – चौ० लालचन्द, चौ० रामचन्द्र और चौ० नवलसिंह से भी 100-100 रुपए फीस लेकर समिति के सदस्य बना लिए। मुनसिफ चौ० अमीरसिंह रईस बादली भी सदस्य बने।

चौ० छोटूराम को सर्वसम्मति से प्रबन्धकारिणी का महामन्त्री चुना गया। वे इस पद पर सन्


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1921 तक रहे। वार्षिक उत्सव कराते रहे और सैनिक छावनियों में जाकर तथा अफसरों को अपील भेजकर चन्दा करते। चौ० छोटूराम गांव-गांव घूमकर भी चन्दा करते थे।

महात्मा गांधी तथा कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन के प्रस्तावों को, चौ० छोटूराम ने 6 नवम्बर, 1920 को रोहतक में हुए कांग्रेस के जलसे के अवसर पर, अस्वीकार कर दिया और कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। आप सन् 1916 से 1920 तक जिला रोहतक कांग्रेस कमेटी के प्रधान रहे थे। आपने पंजाब में जमींदार लीग की स्थापना कर ली। परन्तु चौ० बलदेवसिंह ने इस अवसर पर कांग्रेस का साथ दिया और असहयोग आन्दोलन प्रस्ताव के अनुसार दिसम्बर 1920 में “जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल” का सम्बन्ध यूनिवर्सिटी से तोड़ लिया और इस जाट हाई स्कूल का राष्ट्रीयकरण घोषित कर दिया। शिक्षा विभाग के नियंत्रण से हटाकर, इसमें शिक्षा भी कांग्रेस द्वारा निश्चित योजना के अनुसार दी जानी निश्चित कर ली गयी। इस मीटिंग में चौ० छोटूराम और चौ० लालचन्द उपस्थित नहीं थे। उनके होते हुए भी निर्णय यही होना था क्योंकि शिक्षा के मामले में उन दिनों चौ० बलदेवसिंह हरयाणा के महात्मा हंसराज समझे जाते थे। उनका त्याग भी उच्चकोटि का था। केवल निर्वाह मात्र लेकर स्कूल के प्रधानाध्यापक और प्रबन्धक का काम करते थे। उनकी भूख हड़ताल ने जाट स्कूल का सम्बन्ध यूनिवर्सिटी से तोड़ने का निर्णय करने में बहुत प्रयास दिखाया। इस घटना से विरोधी कैम्पों में बड़ी खुशी हुई। समझा जाने लगा कि रोहतक की ग्रामीण जनता अब छोटूराम के साथ नहीं रही। चौ० छोटूराम ने देहात के समझदार लोगों को बुलाया और उनकी सलाह से अप्रैल सन् 1921 में मुकाबले में जाट हीरोज़ मेमोरियल हाई स्कूल नाम से एक नये स्कूल की स्थापना गवर्नमेंट नॉरमल ट्रेनिंग स्कूल की बिल्डिंग में कर दी जिसका स्थान रोहतक नगर पालिका समिति कार्यालय के सामने वाले मैदान में था, जहां पर बाद में महिला विद्यालय स्थापित हुआ था।

इस कार्य में चौ० लालचन्द जी ने भी पूर्ण सहयोग दिया। सैनिकों और ग्रामीण किसानों ने काफी धनराशि चन्दे के रूप में दी। तीन-चार वर्ष में ही इस हाई स्कूल ने इतनी उन्नति की कि 600-700 विद्यार्थी इसमें हो गये और पहले वाले स्कूल में केवल 60-70 ही रह गये।

अन्त में जाट ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल को भी जाट हीरोज मेमोरियल हाई स्कूल में मिलना पड़ा और उसका नाम जाट हीरोज मेमोरियल ऐंग्लो संस्कृत हाई स्कूल पड़ा।

ये दोनों जाट स्कूल अप्रैल सन् 1926 में मिलकर एक हो गये। सन् 1925 में अखिल भारतीय जाट महासभा का अधिवेशन महाराजा श्री कृष्णसिंह भरतपुर नरेश की अध्यक्षता में पुष्कर के स्थान पर हुआ था। वहां पर कई लाख जाट उपस्थित हुए थे। चौ० सर सेठ छाजूराम, चौ० सर छोटूराम तथा चौ० बलदेवसिंह भी पधारे थे। कहा जाता है कि महाराजा के कहने पर चौ० छोटूराम और चौ० बलदेवसिंह आपसी मतभेद बुलाकर दोनों स्कूलों को एक करने में सहमत हो गये थे।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) - श्री किलवर्ट (1912-14) की जगह श्री हरकोर्ट (1914-19) रोहतक के डिप्टी कमिश्नर नियुक्त हो गये थे। उसने चौ० छोटूराम को सहकारी समितियों का सेक्रेटरी बना दिया तथा जिले की भ्रष्टाचार विरोधी समिति का मन्त्री भी बना दिया। चौ० साहब ने वीर योद्धा जाट नौजवानों को सेना में दबादब भर्ती कराया ताकि बाहर की दुनिया को देखें, अनुशासन सीखें, दूसरे देशों को देखकर देश की स्वतन्त्रता प्राप्ति की भावना पैदा करें और घर की


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गरीबी दूर करें। याद रहे कि महात्मा गांधी जी ने इस युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के लिए भारतीयों को कहा था। श्री हरकोर्ट ने चौ० साहब को जिला रिकरूटिंग कमेटी का सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया था। सन् 1917 में सरकार ने उनको ‘राव साहब’ की उपाधि दी और 100 एकड़ भूमि मिण्टगुमरी (अब पाकिस्तान) नई बस्ती में दी। यह उन्हें अंग्रेजों को युद्ध में सहायता देने के बदले में दी गई1

इस पर सर छोटूराम ने कहा कि -

“मैंने उपाधि या किसी और लालच में भर्ती नहीं कराई बल्कि देश के लिए अपना कर्त्तव्य पूरा करने के लिए कराई है ताकि अंग्रेज की जगह कोई दूसरा देश भारत को गुलाम न बना सके। अंग्रेज तो फिर भी लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं। मेरा विश्वास है कि युद्ध के बाद अंग्रेज भारत की कुर्बानियों का बदला जरूर देंगे।”

कमिश्नर महोदय उनकी बात को सुनकर दंग रह गये। आपने कमिश्नर से यह भी कहा कि इनाम के रूप में जमीन या नकदी जो कुछ मिले, वह उन लोगों को मिले जो युद्ध में गए हैं अथवा उनके घर वालों को।

1916 ई० में पंजाब में जमींदार एसोसिएशन की स्थापना - सन् 1916 में पंजाब में जमींदार एसोशिएशन की स्थापना हो गई। इसका कारण यह था कि किसान के लिए तुरन्त फायदे के सवाल को लेकर चौ० छोटूराम तथा पंजाब कांग्रेस में मतभेद हो चुका था। कांग्रेस में शहरी वर्ग का प्रभाव बढ़ रहा था और वे भीतर से किसान विरोधी नीति अपनाये हुए थे। छोटूराम जी किसानों को अलग से संगठित करने के पक्ष में थे। अतः इस जमींदार एसोसिएशन की स्थापना की गई। लाहौर में इसका आफिस था। सरदार कृपालसिंह मान इसके अध्यक्ष तथा सरदार खड़कसिंह ढिल्लों B.A.L.L.B. सेक्रेट्री थे। इसमें उस समय तक सिक्ख और हिन्दू जमींदार ही सम्मिलित हुए थे। उन दिनों पंजाब में किसान को ही जमींदार कहा जाता था। गैर-किसान वर्ग के सिक्खों तथा हिन्दुओं ने इसका बड़ा विरोध किया। ‘लायलपुर गजट’ इस एसोसिएशन को पंथ के लिए खतरा कह रहा था। चौ० छोटूराम ने ‘जाट गजट’ और दूसरे अखबारों द्वारा कई लेख लिखकर ‘लायलपुर गजट’ की गलतफहमियों को दूर किया। फलतः आप हिन्दू तथा सिक्खों में समान रूप से किसानहितैषी के रूप में लोकप्रिय होते गये।

मांटेग्यू कमीशन से भेंट - भारत में अंग्रेजों का विरोध निरन्तर बढ़ रहा था। जलियांवाला बाग के हत्याकांड को लेकर पूरा देश क्षुब्ध और विद्रोही हो रहा था और कांग्रेस निरन्तर उत्तरदायी शासन की मांग कर रही थी। अंग्रेजों ने भारत के जन-विरोध को शान्त करने के लिए, कमीशन का निर्माण किया जिसने इंग्लैण्ड की सरकार को भारत में किए जाने वाले प्रशासनिक सुधारों के रूप में, परामर्श देना था। यह कमीशन मांटेग्यू कमीशन नाम से जाना गया था। युद्ध के पश्चात् की परिस्थितियों में भारत में क्या राजनैतिक सुधार किये जायें, इस सम्बन्ध में तत्कालीन भारत मन्त्री मांटेग्यू की अध्यक्षता में एक कमीशन भारत आया था। इस कमीशन के सामने पंजाब जमींदार एशोसिएशन की तरफ से चौ० छोटूराम के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल उपस्थित हुआ जिसमें कई बड़े सिक्ख नेता एवं फौजी अफसर भी शामिल थे। प्रतिनिधि मंडल की ओर से चौ०


1. Handing over Notes, H.A. Casson Commissioner Ambala Division 1919, Confidential Files from Commissioner's Office.


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छोटूराम की सलाह पर चौ० लालचन्द ने निम्नलिखित तीन प्रस्ताव कमीशन के सामने रखे -

  1. देहाती तथा शहरी इलाके अलग-अलग हों।
  2. जनसंख्या और करों की वसूली की दृष्टि से 90 प्रतिशत सीटें देहातों की हों और दस प्रतिशत शहरों की।
  3. देहाती क्षेत्र से देहात के उम्मीदवार ही खड़े किए जाएं।

कमीशन ने तीनों प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार कांग्रेस के शहरी नेताओं तथा देहात के समर्थक चौ० छोटूराम में मतभेद गहरे होते गए।

इस कमीशन की रिपोर्ट के पश्चात् जो सुधार किए गए वे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना के नाम से भारतीय राजनैतिक इतिहास में प्रसिद्ध हैं। (Chelmsford- Viceroy of India 1916-21)

यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यदि चौ० छोटूराम तथा चौ० लालचन्द आदि ने पंजाब में देहात की सीटें, देहात के लोगों के लिए सुरक्षित न कराई होतीं, तो कांग्रेस के निशान पर शहर के लोग वहां से चुने जाते और विधान सभाओं में बैठकर किसान समर्थक या हितकारी कानूनों को पास न होने देते। आप देखेंगे कि जब पंजाब-असेम्बली में किसान के हितों के बिल पेश हुए तो कांग्रेस प्रतिनिधियों ने उनका विरोध किया। उनके विरोध के बावजूद बिल पास इसलिए हुए कि वहां देहाती क्षेत्रों के प्रतिनिधि काफी थे।

बात बड़ी साफ है कि चौ० छोटूराम की नजर किसान और देहात पर लगी थी। उनके सामने देशभक्ति की एक ही कसौटी थी ‘किसानहित’। जो देहात की जनता का जितना हितैषी, उनकी नजर में वह उतना ही देशभक्त। यही उनकी चेतना का मूलमन्त्र था। कांग्रेस सैद्धान्तिक स्तर पर किसान-हितैषिणी तो थी, पर उसका सिद्धांत व्यावहारिक नहीं था।

सन् 1916 में उर्दू साप्ताहिक ‘जाट गजट - स्कूलों के अतिरिक्त चौ० छोटूराम ने अखबार तथा लेखों के माध्यम से किसानों में जागृति लाने का काम भी किया। इस उद्देश्य से ‘जाट गजट’ नामक समाचार-पत्र निकाला गया। खर्च के लिए 1500 रुपये गांव मातनहेल के रायबहादुर चौधरी कन्हैयालाल ने पहले प्रकाशन के लिए दिए और ‘जाट गजट’ उर्दू साप्ताहिक चल पड़ा।

‘जाट गजट’ के पहले सम्पादक पं० सुदर्शन जी, दूसरे पं० श्रीराम शर्मा के पिता पं० बिशम्भरनाथ शर्मा झज्जर वाले, तीसरे चौ० मोलड़सिंह जो बहुत जोशीले हुए थे। सन् 1924 में चौ० शादीराम यात्री सम्पादक बने और फिर चौ० छोटूराम दलाल गांव छाहरा और 1971 ई० से धर्मसिंह सांपलवाल एडवोकेट सम्पादक हैं।

चौ० छोटूराम ने भ्रष्ट सरकारी अफसरों और सूदखोर महाजनों के शोषण के विपरीत अनेक लेख लिखे। ‘ठग्गी के बाजार की सैर’, ‘बेचार जमींदार’, ‘जाट नौजवानों के लिए जिन्दगी के नुस्खे’ और ‘पाकिस्तान’ आदि लेखों द्वारा किसानों में राजनैतिक चेतना, स्वाभिमानी भावना तथा देशभक्ति की भावना पैदा करने का प्रयास किया। इन लेखों द्वारा किसान को धूल से उठाकर उनकी शान बढ़ाई। महाजन और साहूकार ही नहीं, अंग्रेज अफसरों के विरुद्ध भी चौ० छोटूराम जनता में राष्ट्रीय चेतना जगाते थे। अंग्रेजों द्वारा बेगार लेने और किसानों की गाड़ियां मांगने की प्रवृत्ति के विरोध में आपने जनमत तैयार किया था। गुड़गांव जिले के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर कर्नल इलियस्टर


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मोरों का शिकार करते थे। लोगों ने उसे रोकना चाहा परन्तु ‘साहब’ ने परवाह नहीं की। जब उनकी शिकायत चौ० छोटूराम तक पहुंची तो आपने जाट गजट में जोरदार लेख छापे जिनमें अन्धे, बहरे, निर्दयी अंग्रेज के खिलाफ लोगों का क्रोध व्यक्त किया गया। मिस्टर इलियस्टर ने कमिश्नर और गवर्नर से शिकायत की। जब ऊपर से माफी मांगने का दबाव पड़ा तो चौ० छोटूराम ने झुकने से इन्कार कर दिया। अपने चारों ओर आतंक, रोष, असन्तोष और विद्रोह उठता देख दोषी डी.सी. घबरा उठा और प्रायश्चित के साथ वक्तव्य दिया कि वह इस बात से अनभिज्ञ था कि “हिन्दू मोर-हत्या को पाप मानते हैं”। अन्त में अंग्रेज अधिकारी द्वारा खेद व्यक्त करने तथा भविष्य में मोर का शिकार न करने के आश्वासन पर ही चौ० छोटूराम शांत हुए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्त्ता तथा कांग्रेस से त्यागपत्र -

कुछ समय तक चौ० छोटूराम कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्त्ता थे। वह सन् 1916 में कांग्रेस के सदस्य बने। रोहतक कांग्रेस-कमेटी के प्रथम अध्यक्ष बने और इस पद पर 6 नवम्बर 1920 ई० तक रहे। लाला श्यामलाल मन्त्री रहे।

सितम्बर 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। दिसम्बर सन् 1920 में इसकी पुष्टि नागपुर अधिवेशन में हुई। हरयाणा प्रान्त में असहयोग आंदोलन के विषय में कई स्थानों पर सम्मेलन हुए जिनमें चोटी के कांग्रेसी नेताओं ने भाषण दिये। 6 नवम्बर 1920 को रोहतक में भी एक कांफ्रेंस हुई। इस अवसर पर अन्य मुख्य नेताओं के साथ चौ० छोटूराम भी उपस्थित थे। असहयोग के प्रस्ताव के अनुमोदन की बात चली। चौ० छोटूराम ने इसका विरोध किया। वह कुछ धाराओं को मानने के पक्ष में तो थे परन्तु जो बातें किसानों व देहातियों का शोषण करने तथा उनको एकदम से बेघर करने वाली थीं, उनके मानने के विरुद्ध थे। आपने कहा भी कि इन बातों को प्रस्ताव से निकाल दो तो मैं भी सहमत हो जाऊंगा। परन्तु कांग्रेसी नेताओं ने उनकी बात न मानी। चौ० छोटूराम ने कहा कि फिर ऐसे काम क्यों किए जाएं जिसमें असफलता ही हाथ लगे। चौ० साहब के कथनानुसार यह आंदोलन असफल हुआ। यहां एक स्मरणीय तथ्य यह भी है कि गांधी जी के इस अहिंसक आंदोलन का विरोध करने वालों में केवल चौ० छोटूराम ही नहीं थे, बल्कि पं० मदनमोहन मालवीय जी, सर एड्रूज, विपिनचन्द्र पाल तथा जिन्ना जैसे विचारक भी थे। बाद में मालवीय जी के आग्रह पर ही गांधी जी ने इस आंदोलन को फरवरी 5, 1922 को वापिस लेने की घोषणा कर दी। सर छोटूराम ने कहा कि “इस प्रस्ताव के अनुसार कुछ बातें जैसे भूमिकर न देना, पैन्शन न लेना, सैनिक तथा पुलिस का शस्त्र फेंक देना तथा सरकारी पदों पर लगे लोगों का त्यागपत्र दे देना आदि बातें किसानों को बेघर करने तथा उनका शोषण करने वाली हैं। वे खायेंगे कहां से? मैं किसानों के विरोध वाले प्रस्ताव को अस्वीकार करता हूं। अतः कांग्रेस से अपना त्यागपत्र देता हूँ।” (अधिक जानकारी के लिए देखो इसी अध्याय में खिलाफत तथा असहयोग आंदोलन, हरयाणा प्रांत में कांग्रेस तथा असहयोग आंदोलन का प्रभाव, हरयाणा में असहयोग आंदोलन, प्रकरण)।


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3. राजनीति में प्रवेश

चौधरी छोटूराम जी ने 6 नवम्बर 1920 को कांग्रेस छोड़ दी। इसके पश्चात् उन्होंने पंजाब के प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मियां सर फजले हुसैन से मिलकर संयुक्त राष्ट्रवादी दल (यूनियनिस्ट नेशनल पार्टी) यानी जमींदार लीग बनाई। चौधरी छोटूराम यह समझते थे कि महाजन, साहूकार और हिन्दू महासभा के गुप्त समर्थक कांग्रेसी नेताओं के किसान विरोधी गठबन्धन को चुनौती, बिना किसी सबल संगठन के देना, आसान नहीं है। अतः आप ने किसानों अर्थात् जमींदार के नाम पर सिख, मुसलमान तथा जाटों को संगठित किया। इस जमींदार लीग का उद्देश्य था देहात के किसानों और पिछड़े हुए गरीब लोगों का उद्धार करना। कांग्रेस अब देहात में पूरी तरह नहीं पहुंच पाई थी। जमींदार पार्टी ने वह किया जो कांग्रेस आज तक भी नहीं कर पाई है। देहात को उसने अपने साथ लगा लिया।

कांग्रेस छोड़कर जमींदार लीग बनाने पर कांग्रेसी तथा ईर्ष्यालु लोगों ने चौधरी छोटूराम को अंग्रेजों का दास, पिट्ठू, टोडी, देशद्रोही, गद्दार और विश्वासघाती बताया और कहते रहे। आज भी कुछ ईर्ष्यालु एवं अज्ञानी लोगों की बुद्धि से कुछ ऐसे विचार दूर नहीं हुये हैं। पहले इसी के बारे में स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है। चौधरी छोटूराम तथा उनकी जमींदार लीग ने अंग्रेज सरकार से मिलकर पंजाब के किसानों तथा गरीबों की हर पहलू में उद्धार एवं उन्नति की। जहां तक किसानों तथा देश के हित का प्रश्न हुआ तो सर छोटूराम ने अवश्य ही अंग्रेज सरकार से मिलकर सहायता ली। किन्तु जहां पर अंग्रेजों ने देश, किसानों तथा छोटूराम के विरुद्ध अपने हितों की बात करनी चाही वहीं पर चौधरी छोटूराम ने निडरता से उनकी बात को ठुकरा दिया और डटकर टक्कर ली। वे सच्चे देशभक्त, अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने के पक्ष में तथा किसानों के सच्ची हितकारी एवं ‘मसीहा’ थे।

चौधरी छोटूराम एक सच्चे देशभक्त तथा अंग्रेज सरकार के विरोधी थे - इसके कुछ प्रमाण इसी दशम अध्याय के शुरु के पृष्ठों पर लिख दिए गए हैं जो कि निम्न प्रकार से हैं -

  1. रोहतक के डी० सी० मि० वोल्सटर को नीचा दिखाना।
  2. देश की परतन्त्रता उन्हें कांटे की तरह चुभती थी।
  3. गवर्नर मालकम हेली के निर्णय को बदल देना, गेहूं का भाव लार्ड वेवल ने 6 रुपये मन लेने का आदेश दिया परन्तु चौधरी छोटूराम ने उससे कड़ी टक्कार लेकर 11 रुपये मन सरकार को दिया।
  4. 23 दिसम्बर, 1943 को जाट रेजिमैण्टल सैन्टर बरेली में ऐतिहासिक दरबार में अंग्रेज अफसरों को फटकारना।
  5. 29 नवम्बर 1942 को दिल्ली के तीस हजारी मैदान में अखिल भारतीय जाट महासभा का विशाल सम्मेलन कराया और चौधरी साहब ने वहां अपने भाषण में कहा कि जाट चाहते हैं कि भारत शीघ्र अतिशीघ्र आजाद हो।
  6. सन् 1942 में अम्बाला छावनी में ब्रिगेडियर चर्चिल को कहा कि यदि अंग्रेज हम को आजादी नहीं देंगे तो मैं भारत की स्वतन्त्रता के लिए तलवार हाथ में लेकर लड़ूंगा।
  7. पीरागढ़ी (दिल्ली) के एक विशाल जलसे में एक उच्च अधिकारी अंग्रेज अफसर को खूब डांट लगाई।
  8. चौधरी छोटूराम की स्वतन्त्रता प्राप्ति की गुप्त योजना।
  9. चौधरी छोटूराम अखंड भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति चाहते थे।
  10. सन् 1944 में मि० जिन्ना को कान पकड़कर पंजाब से बाहर निकालना। (देखो इसी अध्याय के शुरु के पृष्ठों पर)।

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इनके अतिरिक्त कुछ और भी उदाहरण हैं जो सिद्ध करते हैं कि सर चौधरी छोटूराम एक सच्चे देशभक्त, किसान-गरीबों के हितकारी तथा अंग्रेजों के विरोधी थे। ये निम्न प्रकार से हैं -

  • 1. सर छोटूराम ने देखा कि किसानों की पैदावार के भाव काफी गिर गए हैं और उनकी खूब लुटाई हो रही है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई है तथा वे बहुत दुर्गति का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तब उन्होंने किसानों की इस बिगड़ी स्थिति को सुधारने के कार्य आरम्भ किये। इसके लिये उन्होंने अपने ‘जाट गजट’ तथा जमींदार लीग का उपयोग किया। चौधरी छोटूराम के इस कार्य के विषय में रोहतक के डी.सी. जमाँ मेंहदीखान मलिक (1929-31) ने पंजाब सरकार के मुख्य सचिव सी.सी. गारबेट (C.C. Garbelt) को सितम्बर 1931 में एक पत्र लिखा -
“मैं आपको वास्तविक स्थिति की सूचना देता हूँ। जैसे कि आप सचेत होंगे, चौधरी छोटूराम की जमींदार लीग और कांग्रेस में अब थोड़ा ही अन्तर है। उनका ‘जाट गजट’ अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ऐसा ही प्रचार कर रहा है जैसा कि कांग्रेस।” (Confidential Files from the Deputy Commissioner's Office, Rohtak 11/39, see letter 21 Sept. 1931).
  • 2. रोहतक जिले के डी.सी. लिंकन (Lincoln E.H.I.C.S - 6 Nov. 1931 to 4 April 1933; 31 Oct. 1933 to 22 March 1934) ने सन् 1933 में ‘जाट गजट’ के लेखों के विषय में एक लेख की ओर ध्यान दिलाया - “राव बहादुर चौधरी छोटूराम ने जाट जाति के उत्थान के लिये जाट गजट प्रचलित किया था। किन्तु यह तो जमींदार पार्टी का कट्टर समर्थक बन गया है और सरकारी कर्मचारियों पर दोष लगाकर उनको लज्जित कर रहा है, प्रायः यह कांग्रेस के अभिप्राय जैसे विचार प्रकट करता है।” (C.F.D.C. Rohtak, 12/40, M.R. Sachdev to Sheepshanks, Comm. Ambala Div. 16 Sept. 1933)
  • 3. चौ० सर छोटूराम ने नवम्बर सन् 1929 को रोहतक में अपने भाषण में कहा था कि “हम गोरे बनियों का शासन बदल कर काले बनियों का राज्य नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष में किसान-मजदूर का राज्य हो।” (जाट गजट, 27 नवम्बर 1929, पृ० 4)
  • 4. सन् 1937 में जमींदार लीग के चुनाव में जीतने के पश्चात् सर छोटूराम ने पंजाब के लाखों लोगों की ओर से सन् 1938 में एक विशाल किसान सभा में कहा कि “देहाती जमींदारों, गरीब किसानों और मजदूरों के लिए काले महाजनों (साहूकारों) एवं गोरे महाजनों कें कोई अन्तर नहीं है। हम नहीं चाहते कि ब्रिटिश सरकार, जो कि व्यापारियों की सरकार है, के स्थान पर भारतीय बनियों की सरकार बने। किसान यह बिल्कुल नहीं चाहते कि वे एक बनिया से आजाद होकर इसी प्रकार के दूसरे बनिया के अधीन हो जायें।” (जाट गजट, 26 जनवरी 1938, पृ० 8)
  • 5. चौ० छोटूराम ने 1933 में ‘जाट गजट’ में अपने एक लेख द्वारा मूल सिद्धान्तों के आधार पर अंग्रेज सरकार को यह कहने पर कि वह भूमि की मालिक है, चुनौती दी थी और कहा कि “मुझे क्षमा करना। सरकार मुझे यह बताये कि वह भूमि की मालिक किस तरह है और हम आपके मुजारे क्यों हैं।” (“बेचारा जमींदार”, जाट गजट, 19 जुलाई, 1933)
  • 6. 9 अगस्त 1933 को ‘जाट गजट’ में चौ० छोटूराम ने एक लेख में तर्क दिया कि अंग्रेज सरकार किसानों की उन्नति के लिए कोई सहायता नहीं दे रही है और वह केवल गैर किसानों तथा

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शहरी लोगों को सहायता देने में रुचि रखती है। अन्त में उन्होंने कहा कि किसानों को जागृत होना पड़ेगा तथा अपनी तत्कालीन कठिनाइयों से छुटकारा पाने के लिए कोई उपाय करना होगा। इसके लिए केवल एक ही साधन है कि किसानों को सच्चे दिल से कदम उठाना चाहिए और अन्य कार्यों से अधिक महत्त्व अपना संगठन बनाने को देना चाहिए। (जाट गजट 9 अगस्त 1933, पृ० 3-4)।
  • 7. 2 मार्च, 1931 को जाट गजट में दो साहित्यिक लेख छपे। उनमें से एक में भारत में ब्रिटिश राज्य के विरुद्ध सरकार के भ्रष्टाचारों से सूचित किया और दूसरे में सरकार की दबाने वाली राजशासन पद्धति पर दोष लगाया कि यह नाड़ी तो काट देती है किन्तु उस पर कोई औषधि नहीं लगाती।
यह लेख चौ० छोटूराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध कितनी निडरता से लिखे पाठक इसका अनुमान लगा सकते थे।
  • 8. एक बार चौ० छोटूराम ने अदालत में एक मुकदमे के समय पुलिस को झूठ बोलने में निपुण कहा। और यह भी कहा कि “अगर पुलिस का यही हाल रहा तो इस सरकार का तख्ता उलट जायेगा।” (C.F.D.C. Rohtak, A.D.M. to C Rohtak 18 Oct. 1932). चौ० छोटूराम का जनता के सामने पुलिस पर अधिक दोष लगाना, स्वयं सरकार पर ही ‘यथार्थ दोष’ लगाना समझा जाता है। चौ० छोटूराम न्याय पद्धति, जिसको भारत में ब्रिटिश अधिकारी चलाते थे, का खुलकर विरोध करते थे। वे बार-बार जनता के सामने यह कहते थे कि यह विद्वान् शहरी वर्ग के हित के लिए कार्य करते हैं और अनपढ़ किसानों के विरुद्ध हैं। (जाट गजट, 5 जनवरी 1921, पृ० 7; 14 मार्च 1923, पृ० 4; 16 सितम्बर, 1931, पृ० 4-5)। चौ० छोटूराम ने अपनी व्याख्या में न्यायालय की समग्र रूप से निन्दा की है और वे महात्मा गांधी की ऐंठकर बोलने की भांति अदालत में बोलना शुरु कर देते थे। (Chhotu Ram to Harcourt, 13 April 1924, in H. Harcourt opcit)।
  • 9. मई 1943 में लाहौर छावनी में चमारों का एक सामाजिक सम्मेलन हुआ। इस अवसर पर चौ० छोटूराम ने उनको खुलकर उपदेश दिया कि चमारो! स्वराज्य प्राप्ति के रास्ते में रुकावट मत डालो। भारत आजाद होने पर सब जातियों को अपने विचार प्रकट करने तथा वर्णन करने का अधिक अवसर मिलेगा। चमारों को उनकी जनसंख्या के अनुसार स्वतन्त्र भारत में अधिकार मिलेगा। चौ० छोटूराम के चमारों को दिये गये इस उपदेश से ब्रिटिश अधिकारी घबरा गये तथा उनको भारी धक्का लगा। (Civil and Military Gazette, 13 May 1943, P. 2, Also Tribune, 17 May 1943, P. 6)।
  • 10. फरवरी 2, 1938 ई० को एक विशाल जलसे में चौ० छोटूराम ने कहा था कि “मैं न कभी अंग्रेजों का खुशामदी था और न कभी हूंगा। शेर पिंजरे में भी शेर ही रहता है, गीदड़ नहीं बन सकता।” यदि चौ० छोटूराम ही गद्दार थे तो हरयाणा और पंजाब में शायद ही कोई देशभक्त रहा है। वस्तुतः उनका कांग्रेस से हट जाना या विरोध करना न तो देश के साथ गद्दारी थी और न ही विद्रोह। क्या सुभाषचन्द्र बोस और न जाने कितने ही सम्माननीय राष्ट्रवादियों ने ऐसा नहीं किया था? चौ० छोटूराम ने भारत की स्वतन्त्रता के प्रश्न पर कभी भी अंग्रेजों से समझौता नहीं किया।

कांग्रेस से अलग होकर भी छोटूराम उसे बर्बाद हुआ नहीं देखना चाहते थे। उनके अपने शब्दों


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में -

“मैं अपने जिले का पहला व्यक्ति हूं जो सर्वप्रथम कांग्रेस में शामिल हुआ और प्रेजीडेण्ट बना। और इस पद पर तब तक रहा, जब तक कि लगानबन्दी के कांग्रेस के निश्चय से मतभेद होने पर मैंने कांग्रेस न छोड़ दी। कांग्रेस के कानून भंग और करबन्दी आंदोलन का मैंने सदैव विरोध किया है और आगे भी करता रहूंगा, पर यह सब कुछ होते हुए भी मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो कांग्रेस के विनाश या पतन की कामनायें रखते हैं।” (चौधरी छोटूराम जीवन-चरित, पृ० 386, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री

कांग्रेस से अलग होने पर चौ० छोटूराम की दशा बड़ी विचित्र हो गई। उन्होंने सोचा क्या केवल जाटों का नेता बनकर रोहतक जिले तक ही अपने को सीमित रखा जाये? क्या आर्यसमाज का काम किया जाये? पर यहां राजनीतिक, आर्थिक प्रोग्राम के बिना सामाजिक सुधार सम्भव नहीं, यह मान्यता आगे आ गई। क्या सरकार से मिलकर सुखमय जीवन व्यतीत किया जाये? यह छोटूराम के लिए अप्रिय बात थी। काफी समय तक सोच-विचार करने के बाद छोटूराम जी को अपनी समस्या का समाधान मिला, जिससे उन्हें पूरी तरह से तसल्ली हो गई। उनके ही शब्दों में वह समाधान निम्नलिखित था -

  1. धर्म को राजनीति से पूर्णतया अलग रखना चाहिए। राजनीतिक संगठन का आधार आर्थिक होना चाहिए। इन दोनों बातों को सामने रखकर मैंने धर्म को व्यक्ति के जीवन में सही स्थान पर रखने का निर्णय लिया।
  2. “मेरे जीवन में गरीबों की सेवा और गिरे हुए लोगों का उत्थान मानव के कर्त्तव्य का निष्कर्ष है। खेती करने वाला वर्ग भारतीय समाज में सर्वाधिक संख्या रखता है। साथ ही उसका शोषण भी होता है। वे कम से कम पंजाब में एक अत्यधिक मजबूत सुसंगत, राजनीतिक संगठन का अच्छा आधार बन सकते हैं। यदि उनके आर्थिक हितों को दृष्टि में रखते हुए संगठित किया जाये तो वे पहले पंजाब में और फिर अपने उदाहरण से सारे देश में सद्भावनापूर्ण वातावरण को पनपायेंगे और इस प्रकार देश के राजनीतिक कल्याण की नींव पड़ सकेगी। उनका यह संगठन देश के उस बहुत बड़े वर्ग को पूरी तरह लाभान्वित करेगा जो निर्धन और बेसहारा हैं और जिसमें जाट भी शामिल हैं। इस प्रकार संगठित होकर वे सब शोषित वर्गों के हितों के रक्षक के रूप में खड़े हो सकेंगे। कृषक वर्गों का यह संगठन भले ही कुछ संकुचित रूप रखता हो, पर सही मायनों में यह मेरे प्रिय वर्गों के और राष्ट्र के हितों की सेवा करेगा।”

किसानों की दुर्दशा -

अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व यहां कृषि और औद्योगीकरण में एक अच्छा खासा सन्तुलन था। पर अंग्रेजों ने यहां आकर यहां के उद्योगों को नष्ट कर दिया, जिसके फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। इसका कुप्रभाव किसानों पर पड़ा। बढ़ती हुई जनसंख्या का कृषि क्षेत्र से कहीं और दिशा में स्थानांतरण न होने के कारण भूमि पर जनभार बढ़ गया। साथ ही अपने औपनिवेशिक धर्म से प्रभावित होकर सरकार लगान में बराबर वृद्धि करती रही, जिससे कृषि विकास के लिए कृषक वर्ग पूंजी संचय करने में असमर्थ रहा। इस प्रकार अंग्रेजी राज्य में कई सदियों तक कृषि का कोई विकास नहीं हो पाया। परिणामतः बेचारा कृषक और खेतीहर मजदूर खून-पसीना बहाकर भी कभी भी भरपेट रोटी खाने की स्थिति में न रह पाया।


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हरयाणा प्रदेश में स्थिति इससे भी शोचनीय थी। यहां का किसान सरकार के शोषण से बुरी तरह से पीडित था। उसकी छोटी-छोटी अनार्थिक जोतें, जिसमें वह परम्परागत ढंग से खेती में जुटा रहता था, बहुधा उसे इतना भी नहीं दे पाती थी कि सरकार की मालगुजारी तो दे सके। फलतः उसे कई बार सरकारी डर से खड़ी फसलों को छोड़कर अपने पुरुखों के बसाये हुए गांव को ही छोड़ना पड़ता था। 19वीं सदी के प्रथम चरण के माल के कागजात को देखने से यहां के किसानों की दुर्दशा के सही दर्शन हो सकते हैं। वहां जगह-जगह ऐसे वाक्य लिखे देखे जा सकते हैं - “यह गांव पूर्णतया खाली हो गया, भूमिकर एकत्र नहीं किया जा सका।” “इस गांव के आधे कृषक गांव छोड़कर अन्यत्र चले गये।” “इस गांव के 70 में से केवल 5 घर ही आबाद हैं, शेष उजड़े पड़े हैं” आदि-आदि।

आधुनिक शिक्षा मुख्य रूप से नगरों तक ही सीमित रही। हरयाणा की 90 प्रतिशत जनता जो गांव में बसती थी, इस समय तक इस वर्ग के विकास में सरकार न के बराबर योगदान दे पाई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि शहरों और कस्बों की जनता में चेतना के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। वहां स्थानीय और प्रांतीय स्तर के संगठन बनने लगे और लोग अपने दुःख-दर्द, अभाव, घुटन और विपत्तियों के विषय में बोलने लगे। पर बेचारी ग्रामीण जनता अब भी गूंगी भेड़ बनी फिर रही थी। उन्हें संगठित करके वाणी देने के लिए चौ० छोटूराम सरीखे नेताओं के आने का इन्तजार हो रहा था।

चौ० छोटूराम ने 1926 लेकर 1936 तक कौंसिल में और कौंसिल से बाहर जमींदारों में जागृति लाने, उनका संगठन मजबूत करने और उनको उनके अधिकार दिलाने के लिए घोर संघर्ष किया। वे एक ही समय में वकील, राजनीतिज्ञ कार्यकर्ता, वक्ता, संगठनकर्ता और लेखक थे। ‘जाट गजट’ में उनकी ‘बेचारा जमींदार’ लेखमाला पाठकों को इतनी पसन्द आई कि उनके आग्रह पर एक पुस्तिका ‘बेचारा जमींदार’ अलग छपवा दी जिसके दो भाग हैं।

यह पुस्तक कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित कम्युनिष्ट मैन्यूफेस्टो (साम्यवादी घोषणा सन् 1848) जैसी क्रांतिकारी है। जैसे मार्क्स ने पूंजीपति के हाथों मजदूर को शोषित देखकर कहा था - “ऐ दुनियां के मजदूरो, एक हो जाओ। पूंजीपतियों ने तुम्हारे पास दासता की जंजीरों के इलावा कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है।” इसी प्रकार चौ० छोटूराम ने साहूकारों द्वारा शोषित, सरकार द्वारा चूसित एवं उपेक्षित और प्रकृति द्वारा पीड़ित देखकर किसान को अपनी शक्ति पहचानकर अपना राज्य बनाने का आह्वान दिया। मजहबी अफीम से सावधान किया। हीन भावना, संतोष, शान्ति, कायरता, मूर्खता और आपसी द्वेष छोड़कर एकजुट होने का पैगाम दिया।

चौ० छोटूराम के लेख इस ‘बेचारा जमींदार’ पुस्तक में लिखे हैं। उनमें से कुछ का वर्णन किया जाएगा।

  • “हमारी कैसी सरकार है जिसको यह पता भी नहीं कि किसान के आर्थिक जीवन के सारे चशमें सूख चुके हैं। मगर पता भी कैसे लगे, यह कागजी हकूमत है, कागजी घोड़े दौड़ाती है, कागज का पेट भर दिया जाता है। बड़े अफसरों को पुलिस की रिपोर्टें और चुगलखोरों की बातें सुनने से फुरसत नहीं मिलती। टेनिस, ब्रज के खेलों में मन बहलाते हैं। गलत बातों पर डी० सी० की मोहर लगते ही वह गलत-सलत सब कुछ वेदमन्त्र का दर्जा ले लेते हैं।”
  • “किसान के पास तन ढ़कने को कपड़ा नहीं; पेट भरने को टुकड़ा नहीं, परन्तु ये अफसर और शहरी लोग ऐश उड़ाते हैं। भाई किसान! तेरा अल्लाह ही बेली है। तेरा न कोई अखबार, तेरी

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न कोई सरकार। तू कुम्भकरण की नींद सोया पड़ा है। इस बावले कुन्बे को जगाता हूं तो मौलवी, पण्डित, ग्रंथी तुझे मजहब की किलोरोफार्म सुंघा देते हैं। सावधान!”
  • “किसान साहूकारों के फंदे में जकड़ा हुआ है। कानून साहूकारों का साथ देता है। सरकार के आंखें नहीं होती; केवल कान होते हैं, परन्तु किसान ने सरकार के कानों का कोई प्रबन्ध नहीं किया।”
  • “किसान सदाचारी, सद्गुणी, नेकनीयत और हाथ का सखी है। केवल देने के लिए ही उसका हाथ फैलता है। मगर फिर भी दुखी है। बेचारे किसान की एक नन्हीं सी जान और हजार इसके दुश्मन। क्या चक्रव्यूह में फंसा है। खेत के बाढ़, सूखा, रौली, पाला, ओले, टिड्डी, कातरा, चूहे, गीदड़, खरगोश आदि अनेक कुदरती दुश्मन हैं। मण्डी में जाए तो ठग, बाजार में जाए तो ठग आगे मिलते हैं। सरकारी तक़ाजे अलग, साहूकार की डिग्री अलग। सबके सब समाज के इस सेवक और पालक को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।”
  • “किसान ने कुछ ऐसी अनछनी भंग पी हुई है कि इसे होश नहीं। दुःख की पोट है, बेबसी का नमूना है। परन्तु किसी को अपना दुःख बताने में अपनी तोहीन समझता है। इसके घावों में मुँह नहीं, मुंह है तो मुंह में जबान नहीं। जिस दिन इन घावों में मुंह पैदा हो गया और मुंह में जबान हो गई उसी दिन किसान की आह एवं पुकार से जमीन लरजने लगेगी; आसमान कांप उठेगा; एक भयानक हलचल मच जाएगी। तब सरकार की नींद हराम हो जाएगी। खुशामदी, मक्कार, दुराचारी, भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी माथा पकड़कर रोयेंगे।”

चौ० छोटूराम चाहते थे कि किसान जमाने के साथ बदले। नई हवा को पहचाने और संगठित होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़े। शहरी लोग संगठित हैं। इसीलिए वे सरकार से सारी सुविधायें हासिल कर लेते हैं और किसान असंगठित होकर शोषण का शिकार होता रहता है। उन्होंने लिखा -

  • “यदि शहर वालों को थोड़ी सी तकलीफ होती है तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं, अखबारों में शोर मच जाता है, प्लेटफार्मों से धुआंधार भाषण होने लगते हैं। इससे सरकार का सिंहासन हिल उठता है और तुरन्त शिकायतों को, चाहे वे बनावटी ही क्यों न हों, दूर करने का फिक्र होने लगता है। उनको तसल्ली देने का इन्तजाम किया जाता है।”
  • “मगर किसान भूखा है, कर्ज के बोझ में इसकी कमर टूटी जा रही है, मगर इसकी तरफ कोई ध्यान देने की तकलीफ गवारा करने के लिए तैयार ही नहीं।”
ऐसी स्थिति देखकर चौ० छोटूराम ने किसान को कहा था -
  • “क्या तूने सोचा है कि तेरी इस कदर बेकदरी क्यों है? तू इस कदर गरीबी की हालत में क्यों है? बतलाऊं? तूने अपनी शक्ति को नहीं पहचाना। तूने अपने सामर्थ्य से काम नहीं लिया। तूने आज तक अपने आपको कमजोर और हीन समझा है। दूसरे भी तुझे ऐसा ही समझ रहे हैं। तू उठ, अपने को संगठित कर, अपनी शक्ति को पहचान और हीन तथा निर्बल भावना से अपना दामन छुड़ा। फिर देख क्या होता है।”
किसानों की बदहाली और शोषण देखकर छोटूराम रो उठता है -
  • “किसान कमाता है, गैर किसान आराम और सुख भोगता है। किसान से रुपया बटोरा जाता है और गैर-किसान एवं

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शहरियों के लिए खर्च किया जाता है। नंगे पांव और खाली पेट काम करके किसान दौलत पैदा करता है जिससे साहूकार की खत्ती तथा सरकारी खजाने भरते हैं।”
अतः छोटूराम किसानों में चिंगारी फूंककर उसे अशान्त होने का उपदेश देता है -
  • “ऐ किसान! आज तक तुझे शांति और सन्तोष का ही उपदेश दिया गया है। पर मैं तुझे असन्तोष का पाठ पढ़ाना चाहता हूँ। शांति और संतोष पुरुषार्थ के शत्रु हैं। मैं तुझे कर्म से जूझता देखना चाहता हूं। यदि तू जीवित है और जीवित रहते हुए कब्र में बन्द नहीं होना चाहता तो शांति का जादू तोड़ दे। सिर से पैर तक आवाज बन जा। अपने भीतर नदी का शोर पैदा कर, समुद्र का ज्वारभाटा पैदा कर, शेर की दहाड़ सीख, अपने तन की रक्षा कर, इसका सम्राट् बनकर रह।”
उन्होंने किसान को उसकी शक्ति की याद दिलाते हुए कहा -
  • “ऐसा न समझ कि तू कुछ भी नहीं है। तेरे भीतर पहाड़ की मजबूती है, तूफान की तेजी वास करती है और बाढ़ की ताकत छुपी हुई है, नदी का वेग छिपा हुआ है और सूरज का प्रकाश लुका हुआ है। तू ही पीर और मुरीद, गुरु और चेला, मालिक और बन्दा, स्वामी और दास, शासक और शासित सब कुछ है। पर तेरी हीन भावना ने तेरा बेड़ा गर्क कर रखा है।”
छोटूराम बार-बार किसान को जगाता है। वह किसान का चौकीदार बनता है जगाने के लिए उसे गुदगुदाता है। चोंटकी भरता है और तब भी न उठने पर चारपाई से घसीटकर नीचे गिराने की धमकी देता है -
  • “चल उठ, जल्दी उठ। मैं बहुत इन्तजार कर चुका, काफी सब्र कर चुका। अगर तूने अब भी उठने में सुस्ती की तो याद रख तेरी टांग पकड़कर पलंग से नीचे गिरा दूंगा। अब तक मैंने ऐसा इसलिये नहीं किया था कि कभी तू मेरे इस कार्य को शत्रुओं के बहकावे में आकर मेरी दीवानगी का सबूत न समझ बैठे।”
  • “तू मेरी दो बातें मान ले - एक बोलना सीख ले, दूसरी दुश्मन को पहचान ले। अपने हितों व न्याय के लिए जबान खोल तथा जो तेरे साथ अन्याय करते हैं, तेरे को लूटते हैं उन दुश्मनों को पहचानकर उनका निडरता से डटकर मुकाबिला कर, फिर देख क्या होता है।”

इस प्रकार दीनबन्धु चौ० छोटूराम ने किसानों को संगठित होकर अपनी समस्याओं के समाधान का मूलमंत्र दिया। उन्हें पक्का विश्वास था कि किसान अपनी शक्ति को पहचान ले और संगठित हो जाए तो संसार की कोई ताकत नहीं जो उसका शोषण कर सके और उसे आगे बढ़ने से रोक सके।

पाठक समझ गए होंगे कि राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक दोनों ही रूपों में चौ० छोटूराम अपने युग में बेमिशाल थे। उनकी राजनीति का उद्देश्य समाज कल्याण था और समाज कल्याण से उनकी राजनीति को बल मिलता था। उनकी राजनीति स्वार्थसाधन और कुर्सी की राजनीति न होकर दरिद्र का दुःख हरने वाली अचूक औषध थी। राजनैतिक सत्ता पाकर किसान वर्ग का जितना हितसाधन उन्होंने किया उसकी मिशाल इतिहास में नहीं मिलती। वास्तव में वे किसानों के ‘मसीहा’ थे।

किसान पर अन्य संकट -

चौ० छोटूराम ने अपनी पुस्तक ‘बेचारा किसान’ के प्रथम खण्ड में लिखा है - अनेक आफतों के अतिरिक्त जिनका शिकार किसान हमेशा रहता है, वे मुसीबत हैं -


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1. सरकारी माल की वसूली। 2. साहूकार की ‘इजरा-डिग्री’ की कार्यवाही।

1. सरकारी माल जिस सख्ती से वसूल किया जाता है उससे किसान भयभीत रहता है। माल की अदायगी न करने के भयंकर परिणामों से डरकर किसान पैसा प्राप्त करने के लिए कहीं तक भी जाता है। यदि उसे कहीं से भी पैसा न मिले तो गल्ला, चारा, पशु, जेवर आदि बेचकर वह उसे चुकाता है। जमीन भी गिरवी रखकर वह सरकारी माल देता है।

2. किसान के खेत में कुछ पैदा होता नहीं, परिवार का गुजारा नहीं हो पाता, साहूकार के कर्जे की अदायगी नहीं होती, ऊपर से कर्जा का मूल्य बढ़ गया है, पहले का एक सौ रुपया अब तीन-चार सौ रुपये के बराबर है। जिस कर्जे को पहले 300 मन गेहूं बेचकर अदा किया जा सकता था, आज वह कर्जा 400 मन गेहूं से कम में न चुकता होगा। इस प्रकार कर्जे के तीन-तीन रुपये अब चार-चार रुपयों के बराबर हो गए। साहूकार डिग्री लेता है और जारी कराता है। अदालतें आंख मींच कर कुर्की और गिरफ्तारी के वारण्ट तुरन्त जारी कर देती हैं। किसान की जो चीजें जाब्ता दिवानी की रूह से कुर्क नहीं हो सकतीं उनको भी अब बड़ी मुश्किल से छोड़ा जाता है। एक विधवा है, उसका घर कुर्क इसलिए कर लिया जाता है क्योंकि वह अपने हाथ से खेती नहीं करती और वह इस प्रकार किसान नहीं गिनी जा सकती, अतः दफा 60 का लाभ नहीं उठा सकती। इसी प्रकार यदि किसी के पास दो मकान हों तो अदालतें कहती हैं कि एक मकान काफी है, अतः दूसरा कुर्क कर लिया जाता है। अगर एक ही मकान है तो यह आधा कुर्क कर लिया जाता है। खानगी सामान, जैसे चक्की, चारपाई, बर्तन, दोहर, चादर, दोतई, दरी, रिजाई आदि भी कुर्क होने से नहीं बचते। खड़ी फसलें भी कुर्क कर ली जाती हैं।

देखिये, कितनी आश्चर्य की बात है जो भूमि राज्यों से पहले अस्तित्व में आई, उसका राज्य सरकार द्वारा किराया मांगा जाता है और जो किसान राज्य सरकार से हजारों लाखों वर्ष पहले अस्तित्व में आया उसको राज्य का किरायेदार बताया जाता है। जिस भूमि को हमारे बुजुर्गों ने अपनी हाथ की शक्ति से अधिकृत किया उसको सरकार की मल्कियत बताया जाता है। राजा और राज्य, बादशाह और बादशाहत, हाकिम और हकूमत, ये तो भूमि और किसान के अस्तित्व में आने के बहुत बाद अस्तित्व में आए हैं। हिन्दू परम्परा के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद, चौथे मनु के समय में राज्य की सत्ता अस्तित्व में आई1। इसलिए यह कहना कि किसान को भूमि के स्वामित्व का अधिकार राज्य सरकार द्वारा दिया गया है, बिल्कुल गलत है2

किसानों को कहा जाता है कि यदि किराये से छुटकारा पाना चाहते हो तो भूमि को छोड़ दो। किसान कहते हैं कि भूमि हमारी है, हमारे बाप-दादा की है, न यह हमें किसी राजा ने दी है, न किसी बादशाह ने और न ही अंग्रेज सरकार ने। कर लगाने वाले आम सिद्धान्तों से हटकर हम पर जो भारी बोझ डाला गया है, वह अन्याय है। हमें अन्याय से बचाया जाए। परन्तु किसानों की सुनवाई नहीं होती। अकृषक भाई, दुकानदार आदि भी सरकार का इस विषय में समर्थन करते


1. इससे पहले (राज्य सरकार बनने से पहले) सब काम स्थानीय पंचायत द्वारा होते थे।
2. एक बार विधान सभा में डॉ० गोकुलचन्द नारंग ने भी यही बात कही थी कि भूमि तो सरकार की है, किसान तो उसका किरायेदार है। उसका उत्तर चौ० छोटूराम जी ने उपर्युक्त ही दिया था जिसको सुनकर सभी चकित रह गये।


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हैं। वे समझते हैं कि किसानों का वजन हल्का किया जाएगा तो बचा हुआ बोझ अकृषकों पर आ जाएगा। इसलिए वे अपने कन्धों को हल्का रखने के लिए सरकार की हां में हां मिलाते हैं। इस विषय में कसूर सारे का सारा किसानों का है। वे संगठनरहित हैं, कमजोर हैं। राजनीति की दुनिया में कमजोर होना अभिशाप है। कहावत है - “हीणे की जोरू सब की भाभी” अर्थात् निर्बल व्यक्ति की पत्नी को हर आदमी अपनी भाभी समझता है।

“ऐ किसान! तू शेर होते हुए भी अपने को गीदड़ समझता है। अपने असली गुणों और सिफत को न भूल और अपनी वास्तविकता से दूर न हो। जो वास्तव में है तू वही बन जा, फिर तुझे किसी से डरने की आवश्यकता नहीं। तू एक सोई हुई शक्ति है, जाग, आंख खोल, उठकर बैठ और देख कि तुझे दूसरों से कितने खतरे हैं।”

किसानों पर कर्जे का भार तथा साहूकारों द्वारा उनकी लुटाई -

पंजाब में कर्जे की स्थिति भयानक और खतरनाक हो चुकी थी। सन् 1929 में पंजाब बैंकिंग इन्क्वारी कमेटी ने बताया कि सन् 1921 में कृषि ऋण 90 करोड़ था जो 1929 में 135 करोड़ हो गया और 1932 में 200 करोड़ हो गया था। 200 करोड़ रु० पर 1½ रु० सैंकड़ा प्रति मास की दर पर सूद एक वर्ष में 36 करोड़ रु० हो जाता है। वार्षिक लैंड रेवेन्यू (मालगुजारी) 4 करोड़ रु० है और आबयाना 6½ करोड़ है, ये दोनों 1936-37 में कुल 10 करोड़ 44 लाख (1044 लाख) थे। यानी अकेला सूद बोझ लैंड रेवेन्यू से 9 गुणा और आबयाने से 5½ गुणा था। और दोनों से 3½ गुणा था। इसी कमेटी ने बताया कि 5 जिलों में 1407 तराजुओं में 69% गलत (कानी डांडी) मिलीं और 5907 बाटों में 29% गलत पाए। 2777 बाटों में 1164 (45%) गलत, 2½ सेर वाले बाट 75% गलत, 763 तखड़ियों में 65% गलत मिलीं। दोहरे बाट और तराजू भी पकड़े गये। साहूकार गलत बाट और गलत कानी डांडी वाली तराजू रखते थे। किसानों से लेने की चीजों के लिये भारी वजन के बाट और अपनी दुकान से जनता को चीजें देने वाले हल्के बाट रखते थे। किसान की पैदावार की कीमतें 1918 की निस्बत 1931-32 में काफी गिरी जैसे गुड़, कपास, गेहूं, सरसों और बाजरे की कीमत क्रमशः 56%, 65%, 65%, 56% और 71% घटीं। इस तरह जो कर्जा 1918-19 में 100 मन कपास या 30 मन गेहूं देकर उतर सकता था वह 1931-32 में 300 मन कपास या 86 मन गेहूं देकर उतरेगा। किसानों की कुल आय 50 करोड़ रु० थी। 12½ करोड़ भूमि लगान और सिंचाई रेट देकर 37½ करोड़ बची। यदि 2 आने प्रति आदमी प्रतिदिन अति आवश्यक चीजों के लिए चाहिएं तो भी कम से कम 85.77 करोड़ चाहिएं और बचे कुल 37½ करोड़ यानी 48.27 करोड़ कम। कर्जदारों में 70 लाख हिन्दुओं में 90% यानी 63 लाख हिन्दू जमींदार कर्जदार थे। हिन्दू, ईसाई, सिक्ख, मुसलमान सब कर्जे में फंसे पड़े थे। 40,000 साहूकारों में महाजन, खत्री, अरोड़े तो थे ही, जाट, ब्राह्मण, सैनी, राजपूत, पठान और खोजे आदि व्यापारी भी थे।

किसान को लगान तो हर समय पर हर हालत में पूरा देना ही पड़ता है, परन्तु साहूकार अपने ढ़ंग से अपनी आसामी को चूसता रहता है। कपास, गुड़, सरसों, गेहूं और अन्य कृषि पैदावार उसकी दुकान में चली जाती है। चारा, ईंधन, दूध, साग व निजी सेवा मुफ्त लेता है। सदा जोंक की तरह खून चूसने व लूटने में लगा रहता है। जब किसान अपना अन्न पैर (खलिहान) में निकाल लेता है


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तो साहूकार वहीं से सारे को तोलकर ले जाता है। बाजार भाव से कम भाव लगाता है और भारी बाटों और कानी तराजू से तोलता है। किसान की बजाय स्वयं तोलता है। वह एक धड़ी (5 सेर) में एक पाव (4 छटांक) अधिक तोलता है। ऐसे तोलने वाले को अन्य साहूकार चतुर कहते हैं। इस तरह से वह सौ मन अनाज की बजाय 105 मन तोलता है और कीमत केवल 100 मन की ही लगाता है। इस अनाज को किसान की बैलगाड़ी में अपनी दुकान तक बिना किराए ले जाता है और उसी से उतरवाता है। अगले ही दिन उस अन्न को अपनी दुकान से उसी किसान को अधिक भाव लगाकर और हल्के बाटों से तोलकर देना शुरु कर देता है और इस तरह एक धड़ी में एक पाव कम कर देता है। मगर वाह रे किसान! तेरी बोलने तक की भी हिम्मत नहीं। जो कुछ साहूकार करता है उसे चुपचाप मान लेता है।

साहूकार किसी त्यौहार या सगाई-विवाह के अवसर पर आसामी के घर कुर्की ले जाता है और उसके रिश्तेदारों के सामने उसके पशु, घर का सामान, अनाज आदि कुर्क कराता है। वह अपने साथ सरकारी अमीन या कुर्क अमीन (baillif) को साथ ले जाता है और धमकी देने का दोष लगाकर कर्जदार पर फौजदारी का मुकदमा तक चलाता है।

मंडियों में किसान की लुटाई

चौ० छोटूराम ने एक बार असेम्बली में बताया कि किसान अपने खेत में जो बोता है वह उसका मालिक है। बोने, काटने और माल तैयार करने तक तो उसकी मिल्कियत रहती है, किन्तु ज्यों ही उसका माल मंडी में पहुंचा, उसकी मिल्कियत समाप्त हो जाती है। किसान की फसल मण्डी में पहुंचते ही फेरों के बाद लाडो की तरह पराई हो जाती है। वहां पर उसके मालिक हो जाते हैं - दलाल, माप तोल करने वाले और खरीददार। किसान गैर की भांति टुक-टुक देखता रहता है। न उसके हाथ भाव है और न तोलना-मापना। उसका माल मनमर्जी भाव से लिया जाता है। कई बार तो ऐसा होता है कि उसको भाव बताकर तुलाई शुरु कर दी जाती है और फिर कह दिया जाता है कि हापुड़ से फोन आ गया, भाव बन्द हो गया। किसान को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि उसको पैसों की सख्त जरूरत है, तभी तो वह अपना माल मण्डी में लाया है। अब उसका माल भारी बाटों से तोला जाता है और कानी डण्डी वाली तराजू से। इस तरह से उसकी हजामत की जाती है। इसके अतिरिक्त माल खरीदने वाले ग्राहक से जो रुपया आता है उसमें से एक रुपये में से साढ़े छः आने भराई-तुलाई, दलाली, धर्मादा और कमीशन में हड़प लिए जाते हैं। यानी किसान को एक रुपये की बजाय साढ़े नौ आने ही मिलते हैं। इस तरह से उसको 100 रुपये के बिक्री माल के केवल 59 रुपये 6 आने मिल पाते हैं। किसान के साथ कितनी ठग्गी और अन्याय किया जाता है। चौ० छोटूराम ने कहा कि इस लूट-पाट को रोकने के लिए कानून बनाया गया है, जिसका नाम ‘पंजाब कृषि-उत्पादन बाजार कानून’ (The Punjab Agricultural Produce Marketing Bill) और इसको 7 जुलाई 1938 को असेम्बली में पेश करते हुये चौधरी छोटूराम ने उपर्युक्त भाषण दिया और इसे पास करवा लिया।

किसानों का, अदालतों में न्याय न मिलने से शोषण -

अदालती कानून किसानों के विरुद्ध तथा साहूकारों के हक में होते थे। जज तो कानून के


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अनुसार ही अपने फैसले देते थे। वकीलों और जजों की मनोवृत्ति शहरी थी। बेचारा किसान न्याय के लिये भटकता फिरता था। किसान कर्जों के नीचे दबे हुए थे। प्रतिदिन कुर्कियों के लिए डिगरियां दी जाती थीं। कोई आंसू पोंछनेवाला नहीं मिलता था।

इसके उदाहरण निम्न प्रकार से हैं -

*1. इन्तकाल अराज़ी कानून (Land Alienation Act) के तहत एक बनिया ने एक जाट की 200 बीघे जमीन रहन की। 12 वर्ष के बाद उसके लिए कोई अपील भी नहीं हो सकी।

*2. इसी प्रकार सन् 1882 में एक बनिये ने 300 रुपये एक जाट किसान को 25 प्रतिशत मासिक दर पर कर्जा दिया और 200 रुपये अलग और देकर उसकी 300 कनाल जमीन रहन कर ली। जाट के पौते ने जमीन छुड़ानी चाही तो लोअर कोर्ट ने यही फैसला दिया कि 2,10,000 रुपये1 देकर ही जमीन छुड़ाई जा सकती है। हाई कोर्ट ने यही फैसला कायम रख दिया।

*3. एक बार एक जाट किसान बैठा सोच रहा था कि इस बार ईश्वर की कृपा से फसल अच्छी है, अतः मैं साहूकार का कर्जा हल्का कर दूंगा और लड़की सियानी हो चुकी है उसका भी विवाह कर दूंगा। परन्तु टिड्डियां आईं और तमाम फसल को चट कर गईं। साहूकार ने कर्जा वापिस मांगा।

किसान ने किश्तों के लिए अदालत में अर्जी दी, पर अर्जी की कोई सुनवाई न हुई। अतः डिग्री जारी हो गई - साथ ही कुर्की, साथ ही गिरफ्तारी। किसान बेचारा हैरान, परेशान, क्या करे? क्या कहे? किस से कहे? नौ बच्चों का बाप। एक ठण्डी आह भरी और कुर्की अमीन के साथ हो लिया। किसान पत्नी का दिल भर आया, वह फूट-फूटकर रोने लगी। कहने लगी “मेरे नन्हें-नन्हें बच्चों का अब क्या होगा? अरे बणिये तेरे पूत मरें।”
किसान ने पत्नी को समझाया और साहूकार से माफी मांगी, लाली जी, यह कम समझ स्त्री है, इसकी बात का बुरा न मानें। तुम्हारे रुपये असली, एक-एक कौड़ी दूंगा और अपनी हड्डी तक बेचकर दूंगा। साहूकार, जिसे कुर्की अमीन की मौजूदगी से साहस था, बोला कि “चौधरी, तेरी हड्डियों का कुछ नहीं उठता, अपनी लड़की भरपाई को बेचने की सोच। खासी सियानी है, अच्छे दाम लग जायेंगे।” यह सुनकर किसान साहूकार पर झपटा और उसकी गर्दन पकड़ी, सिर पर उठाया और जोर से जमीन पर पटक दिया। साहूकार का एक पत्थर पर सिर लगा और खोपड़ी फट गई। वह वहीं पर मर गया। मामला पुलिस के पास गया और किसान का चालान हो गया। किसान को हाई कोर्ट ने काले पानी की सजा दी। सजा मिलने के तीन महीने बाद किसान मर गया। असल डिग्रीदार मर गया; किसान भी मर गया, पर इजरा-डिग्री की कार्यवाही जारी रही। 3700 रुपये की डिग्री थी। किसान के पास 300 बीघे जमीन नहरी थी। साहूकर के उत्तराधिकारी ने सारी जमीन को मुताज़री (अस्थायी कब्जा) में लेने की दरख्वास्त दी। पटवारी और स्थानीय अफसरों से मिलकर डिग्रीदार ने आमदनी का ऐसा नक्शा तैयार करवाया कि जिससे सारी

1. बनिया का कितना अधर्म और अन्याय है। मनुस्मृति (1/90) में वैश्य के लिए लिखा है - एक सैंकड़े में चार, छः, आठ, बारह, सोलह या बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना न देना, ये वैश्य के कर्म हैं।


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जमीन की आमदनी से 20 वर्ष में भी डिग्री का रुपया पूरा न हो। सब कागजात कलक्टर साहब के पास भेज दिए गए।

तहसीलदार ने रिपोर्ट की कि किसान परिवार के पास गुजारे के लिए और कोई साधन नहीं है; घर में एक विधवा है, चार छोटे लड़के और पांच लड़कियां हैं। कलक्टर ने रिपोर्ट की कि चौथाई जमीन गुजारे के लिए छोड़कर शेष सब जमीन 20 वर्ष के लिए मुताजरी में दे दी जाये। अब कागजात दीवानी अदालत में पहुंचे। सीनियर सब-जज की अदालत में पेशी हुई। बुढ़िया (किसान की विधवा पत्नी) भी पहुंच गई। डिग्रीदार ने कहा, मुझे कम जमीन लेनी मंजूर नहीं और चूंकि मेरा हिसाब पूरा नहीं होता, अतः मुझे कम जमीन लेने पर बाध्य नहीं किया जा सकता। बुढ़िया ने अपने पक्ष में अर्जीनवीस से लिखवाकर दरख्वास्त दी थी। आखिर सीनियर सब-जज साहब ने हुक्म दिया-

जज साहब - माई! तेरी दरख्वास्त नामंजूर। तेरी सारी जमीन 20 वर्ष के लिए डिग्रीदार को दे दी जाएगी।

बुढ़िया - हजूर! मेरे बच्चे जो सबके सब याणे (नाबालिग़) हैं, ये सब कहां जायेंगे?

जज साहब - हमें पता नहीं, ये सब कहां जायेंगे।

बुढ़िया - हजूर! तू तो हाकिम है, दोनों तरफ देख। ऐसा एक तरफ का होकर मत बैठ।

जज साहब - माई! यह कानून की बात है, हम कुछ नहीं कर सकते।

बुढ़िया - हजूर! कानून प्रजा की रक्षा के लिए होता है, प्रजा के नाश के लिए नहीं। यह कौन सा कानून है जो हमें हमारी पैतृक भूमि से देश निकाला देता है।

जज साहब - देख माई! हमने तुझे समझा दिया, अब तुम जाओ।

बुढ़िया - हजूर समझा क्या दिया, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया। मैं इन बच्चों को कहां ले जाऊं। मेरी सारी 300 बीघे जमीन बनिया को दे दी; मेरे बच्चे गलियों में फिरेंगे। तू हाकिम है, आखिर तेरे बच्चे भी होंगे, अगर तेरे साथ ऐसी बीते तो क्या हो?

जज साहब- चपरासी, इस औरत को कमरे से बाहिर निकालो।

बुढ़िया - अच्छा मैं तो जाती हूँ। लेकिन ईश्वर तेरा भला कैसे करेगा। यह तूने क्या न्याय किया? तू भी शायद बनिया ही होगा?

यह कहकर किसान पत्नी बड़बड़ाती हुई चली गई। परन्तु वह सच्ची थी। अब न्याय इन्साफ का कोई ख्याल नहीं है। किसान बेचारे को तो चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है। थानेदार इसकी खाल खींचता है, जिलेदार इसकी चमड़ी उधेड़ता है, साहूकार इसकी ऊन उतारता है और सरकार इस पर हाथ साफ करती है। अदालत में जाओ तो वहां औपचारिक न्याय, अफसरों के पास जाओ तो वहां झूठी तसल्ली और सरकार मददगार नहीं। चौ० छोटूराम कहते हैं - “ऐ दुनियां के न्याय से अपरिचित किसान! सुन, ईश्वर भी उसी की मदद करता है, जो स्वयं अपनी मदद करता है। सरकार के आंखें नहीं होती, केवल कान होते हैं। तूने सरकार के कानों तक अपनी बात पहुंचाने का क्या इंतजाम किया है?”

“ऐ किसान! जरा सोचकर देख, तूं इतने भूतों से कैसे बचेगा? निश्चेष्टा और गूंगेपन से



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नहीं, बल्कि बोलकर; शिथिलता से नहीं, बल्कि गतिशीलता से; चिन्तन से नहीं, बल्कि कर्म से; कमजोरी से नहीं, बल्कि शक्ति से; बेबसी से नहीं, बल्कि आंदोलन से। अब तू गफलत की निद्रा से जाग, करवट बदल, उठ मुंह धो, कर्मण्यता एवं आंदोलन से शस्त्र उठा, समरांगण में कूद पड़ और अपने शत्रुओं के छक्के छुड़ा दे।” चौ० छोटूराम ने यह किसान को उसी लहजे में कहा, जो श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को युद्धक्षेत्र में कहा था -

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥ गीता 2/37॥

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥2/37॥

चौ० छोटूराम की सन् 1920 में हुए पहले चुनाव में असफलता -

चौ० छोटूराम ने ग्रामीण गरीबों एवं किसानों की दुर्दशा तथा शोषण की बड़ी गहराई से जानकारी प्राप्त की। वे इस परिणाम पर पहुंचे कि जब तक किसानों के हितकारी कानून न बनेंगे तब तक इनका शोषण ऐसे ही होता रहेगा। कानून तब बदले जा सकते हैं जबकि किसानों की सरकार बने। अतः उन्होंने यह निश्चय किया कि चुनाव लड़कर किसानों की सरकार बनायें।

सन् 1920 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार चुनाव हुए। इन सुधारों के अनुसार प्रत्येक प्रान्त में एक असेम्बली (विधान परिषद) बननी थी और उस असेम्बली में गवर्नर को अपने मन्त्री नामजद करने थे। चौ० छोटूराम को अपने जीतने की तो उम्मीद थी, किन्तु मिनिस्टर होने की नहीं क्योंकि जिले के तमाम अफसर उनके खिलाफ थे। उन्होंने गवर्नर को भड़का रखा था कि यह जिले के प्रत्येक सरकार विरोधी आदमी से अधिक खतरनाक है। हां, चौ० लालचन्द के रसूख जिले के अधिकारियों और गवर्नर से अच्छे थे। जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) में हजारों बेगुनाह लोगों की हत्या जनरल डायर ने गोलियां चलवाकर की थी। जिसको ऐसा करने का अधिकार पंजाब के गवर्नर माईकल ओडवायर ने दिया था और उसी ने इस हत्याकांड को ठीक बताया था। फिर भी उस हत्यारे गवर्नर माईकेल ओडवायर को, राजा नरेन्द्रनाथ, बख्शी टेकचन्द, लाला रामशरणदास, लाला शादीलाल ने अभिनन्दन पत्र भेंट किया और दावत दी। चौ० लालचन्द भी उसमें सम्मिलित हुए थे।1

चौ० छोटूराम ने चौ० लालचन्द को सैशन जज बनने का लालच छुड़वाकर चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया ताकि मन्त्री बन सके, परन्तु लाला लाजपतराय ने चौ० लालचन्द को घृणित व्यक्ति समझकर कांग्रेस में भी नहीं मिलाया। चौ० छोटूराम स्वयं झज्जर सोनीपत हल्के से खड़े हुये और चौ० लालचन्द को रोहतक गोहाना हल्के से खड़ा किया और चौ० पीरूसिंह तथा चौ० जुगलाल जेलदार जैसे कट्टर आर्यसमाजियों से भी, उनकी चौ० लालचन्द के प्रति भ्रांतियां दूर करके और समझा बुझाकर मदद कराई। उनके विरोधी उम्मीदवार का पर्चा ही खारिज हो गया। अतः


1. चौ० छोटूराम जीवन चरित, पृ० 98-99, लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री; दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जीवन चरित, पृ० 21, लेखक प्रो० हरीसिंह खेड़ी जट, रोहतक; गौरव-गाथा (प्रथम पुष्प) पृ० 77, लेखक डा० नत्थनसिंह


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चौ० लालचन्द निर्विरोध चुने गए। चौ० छोटूराम के खिलाफ बादली के रिसलदार सरूपसिंह खड़े हुए थे। साल्हावास गांव के एक धनी सेठ ने पोलिंग से पहली रात को सब तरफ ऊंटों पर अपने आदमी भेजकर यह मशहूर करा दिया कि गुलिया चौबीसी खाप की पंचायत ने फैसला रिसलदार साहब के हक में किया है। पंचायत का ढोंग भी रचकर विरोधी भाई से रिसलदार के समर्थन का फैसला भी सुनवा दिया। षड्यंत्र को जानते हुए भी चौ० छोटूराम ने कहा, ‘पंचों की आज्ञा सिर माथे पर’। इसके बाद वे चुनाव मैदान से लौट आये, अपने कार्यकर्त्ताओं तथा पोलिंग एजेंटों को भी वापिस बुला लिया। फिर भी सालहावास के पोलिंग स्टेशन तक 202 मतों से आगे पहुंचे, परन्तु सालहावास आकर 22 मतों से रिसलदार सरूपसिंह जीत गये।

उधर चौ० लालचन्द जीत तो गये परन्तु उनके प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार श्री गोरधनदास ने चुनाव याचिका दायर की जो सफल हो गई। उपचुनाव में गोरधनदास के मुकाबले चौ० दादा घासीराम को खड़ा करके उसको जितवा दिया।

चौ० लालचन्द से गवर्नर बहुत प्रसन्न था। इसलिए उसने गवर्नर जनरल से सिफारिश करके उसे केन्द्र की कौंसिल ऑफ स्टेट्स का मेम्बर बनवा दिया। साथ ही सरकार ने उसे आनरेरी लेफ्टिनेण्ट भी बना दिया। गवर्नर ने ऐसे लोगों को मिनिस्टर बनाया जो विचारों से कांग्रेसी थे, परन्तु सरकार के साथ मिलकर काम करने को तैयार थे। इसी नीति के अन्तर्गत सर मियां फजलेहुसैन और लाला हरकिशनलाल गाबा को मन्त्री बनाया गया। इसे चौ० छोटूराम ने 12 जनवरी 1921 को ‘जाट गजट’ में देहातियों का अनादर बताया, क्योंकि ये दोनों मन्त्री स्पेशल चुनाव क्षेत्रों से जीते थे।

चौ० छोटूराम ने अपने जीवन संघर्ष का मार्ग तलाश कर लिया था। इसलिए उन्होंने अपनी सारी शक्ति फिरकापरस्त और शहरी राजनीति से हटाकर किसान संगठन में झोंक दी। उन्होंने न कांग्रेस की परवाह की, न अंग्रेजों की। उनका मत था कि जो कुछ अंग्रेज देता जाए उसे लेकर देहाती नेतृत्व मजबूत किया जाए, सरकारी नौकरियों में घुसा जाए और कांग्रेस की अन्धाधुन्ध रौ में न बहकर कम से कम पंजाब में आर्थिक आधार पर एक नई राजनीतिक पार्टी खड़ी की जाए जो न अंग्रेज की पिट्ठू हो और न कांग्रेस की पिछलग्गू।

चौ० छोटूराम की सन् 1923 में दूसरे चुनाव में जीत तथा जमींदार लीग की स्थापना -

मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार प्रति तीसरे वर्ष कौंसिल के चुनावों की व्यवस्था थी। सन् 1923 में फिर चुनाव हुआ जिसमें चौ० छोटूराम सोनीपत झज्जर से अपने प्रतिद्वन्द्वियों रिसलदार सरूपसिंह के सुपुत्र रिसलदार रणधीरसिंह (बादली) और पं० फूलकुंवार शर्मा माछरौली निवासी को हराकर कई हजार मतों से विजयी हुए। चूंकि वे चौ० लालचन्द को वजीर बनाना चाहते थे, इसलिए उनसे कौंसिल ऑफ स्टेट्स से त्यागपत्र दिलवाकर उन्हें रोहतक गोहाना हल्के से चुनाव लड़ने के लिए तैयार कर लिया। उनके मुकाबले में शहरी लोगों ने चौ० मातुराम सांघी निवासी को खड़ा कर दिया। चौ० लालचन्द जी 600-700 मतों से विजयी हुये। गवर्नर सर मालकम हेली ने चौ० लालचन्द को कृषि मन्त्री बना दिया और मियां फजलेहुसैन को मुख्यमंत्री


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बना दिया। चौ० छोटूराम जी ने मुख्यमन्त्री मियां फजलेहुसैन, जो कि भट्टी राजपूत थे, से मिलकर सन् 1923 में “नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी” यानी जमींदार लीग की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य मजहब को राजनीति से अलग रखकर पंजाब के पिछड़े वर्गों के लोगों तथा किसानों की प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करना था।

पंजाब के हालात में अंग्रेज अफसरशाही, हिन्दू-सिक्ख-मुस्लिम-ईसाई साम्प्रदायिकता और साहूकारों के घोर शोषण और क्रूर लूट के खिलाफ यह ठोस कदम था और था गरीब शोषित जनता की सेवा का माध्यम। यह भारत की राजनीति में एक उच्चकोटि का शानदार प्रयोग था। एक तरफ जाटों में चौ० बलदेव सिंह और चौ० देवीसिंह ने चौ० मातुराम का साथ दिया, दूसरी ओर लाला श्यामलाल, ला० रामशरणदास और लाला लाजपतराय ने चन्दा दिया। चौ० लालचन्द को हराने के लिए गैर-जमींदार हिन्दू, विशेषकर महाजन लोग, बहुत उतावले थे। चुनाव याचिका सुनने के लिए सेशन जज श्री भिड़े नियुक्त किये गये। जस्टिस सर शादीलाल जाटों के खिलाफ थे और श्री भिड़े सर शादीलाल के खास आदमी थे। चौ० छोटूराम और लाला भगतराम ने चौ० लालचन्द की वकालत की परन्तु ट्रिब्यूनल ने चौ० लालचन्द की सदस्यता खत्म कर दी और साथ ही उनको पांच वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। चौ० छोटूराम ने भरतपुर नरेश कृष्णसिंह महाराज से कहकर उनके मंत्रिमंडल में चौ० लालचन्द को माल मन्त्री नियुक्त करवा दिया।

उप चुनाव में चौ० मातुराम के मुकाबिले में चौ० छोटूराम ने चौ० टेकराम खिडवाली निवासी को खड़ा किया और जितवा दिया। दुर्भाग्य से अगस्त 1926 में चौ० टेकराम को रोहतक में प्रेम निवास (भगवान चौक) चौराहे पर उनके शत्रुओं ने कत्ल कर दिया।

चौ० छोटूराम 22 सितम्बर 1924 से 26 दिसम्बर 1926 तक मन्त्री रहे तथा उनके कार्य -

चौ० लालचन्द की चुनाव जीत रद्द होने पर जो मन्त्री पद खाली हुआ उसे भरने के लिए भागदौड़ शुरु हुई। चौ० छोटूराम की राजनीतिक दूरदर्शिता, उनका किसान समर्थन एवं गैर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण इतना विख्यात हो गया था कि सर फजलेहुसैन को ऐसा प्रतीत होने लगा कि छोटूराम उनके भीतर की आवाज है। अतः वह जमींदार वर्ग की सीट पर चौ० छोटूराम को ही मन्त्रिमण्डल में लाना चाहते थे। अब असेम्बली के अन्य जमींदार सदस्यों ने भी चौ० छोटूराम के पक्ष की बात कही तो वह बोले कि मेरी इच्छा तो उनको ही मन्त्री बनाने की है पर गवर्नर राजा नरेन्द्रनाथ के पक्ष में है। इस पर जमींदार वर्ग एकत्र हुआ। उसने ऐसी स्थिति तथा लोकमत उत्पन्न कर दिया कि छोटूराम के निर्भीक तथा स्पष्ट विचारों का विरोध होने पर भी गवर्नर सर मालकम हेली ने, चौ० लालचन्द वाली जगह पर, चौ० छोटूराम को मन्त्रिमण्डल में शामिल कर लिया। 22 सितम्बर 1924 को वह कृषिमन्त्री बनाये गये। दफ्तरशाही में हलचल मच गई। चूंकि कृषि, शिक्षा, व्यापार, उद्योग धन्धे और स्वास्थ्य सुरक्षित विषय थे, इसलिए चौ० साहब का उत्तरदायित्व कौंसिल के प्रति था। सर फजलेहुसैन मालमन्त्री थे। माल और अर्थ सुरक्षित विषय थे।


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इस प्रकार सर फजले हुसैन और चौ० छोटूराम को मौका मिला कि मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के अधीन मिले राजनीतिक अधिकारों को पूर्ण योग्यता से प्रयोग करके यह सिद्ध किया जाए कि भारतीय लोग जिम्मेदारी से राज्य करने में पूर्णतः योग्य हैं ताकि अंग्रेजों का यह बहाना खत्म हो जाए कि हिन्दू-मुसलमानों में फूट है और हिन्दुस्तानी जिम्मेदार सरकार चलाने के अयोग्य हैं। इस प्रकार ये दोनों नेता अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति को पंजाब में फेल करने चले, अतः इसमें वे सफल हुए।

चौ० छोटूराम ने कृषिमन्त्री के रूप में मण्डी (हिमाचल प्रदेश) जल विद्युत योजना आरम्भ की और इसके लिए 1,64,83,000 रुपये की मांग की। डॉ० गोकलचन्द नारंग, राय साहब गोपालदास, प्रो० रुचिराम साहनी आदि के विरोध के बाद भी पास कराके इसे चालू कराया।

कृषि को पहला और उद्योग को दूसरा स्थान दिलाया। पंजाब में चमड़ा रंगने के धंधे के लिए 91,300 रुपये मंजूर किये। निजी उद्योगों के साथ सहानुभूति प्रकट करते हुए उनको सलाह देने के लिए एक कमेटी का गठन किया। 6 मई 1925 को चौ० छोटूराम ने सहकारी समितियों के लिए निरीक्षक रखने के लिए 5,23,141 रुपये की मांग रखी। डॉ० गोकलचन्द नारंग, राय बहादुर लाला सेवकराम ने चाहा कि निरीक्षण कार्य बाहर के आदमी करें और समितियों की नौकरियां जमींदार के लिए ही सुरक्षित न हों। चौ० छोटूराम ने स्पष्ट किया कि सहकारी समितियां तो ग्रामवासियों की अपनी संस्थायें हैं। सरकार तो यह देखती है कि जो उनको ऋण या अन्य सुविधायें सरकार द्वारा दी जाती हैं उनका दुरुपयोग तो नहीं होता है। चूंकि सहकारी समितियां गांवों में हैं, इसलिए सम्भवतः जमींदार अफसर ही उनकी उन्नति में अधिक रुचि ले सकते हैं।

वर्षा के पानी से ही अधिक पैदावार लेने के लिए गुरुदासपुर के अतिरिक्त अन्य कई स्थान परीक्षण के लिए चुने गए। 6 मई 1925 को सड़कों के लिए 50,000 रुपये मंजूर कराये। लाहौर के डी० ए० वी० तथा इस्लामिक कालेजों में आयुर्वैदिक तथा यूनानी चिकित्सा पद्धति की कक्षायें खुलवाईं। भाखड़ा बांध योजना को मंजूरी दिलाई, गांवों में पशु चिकित्सालय तथा औषधालय खुलवाये, सरकारी विभागों में किसानों को नौकरियां दिलाईं, रसूल इन्जिनियरिंग स्कूल में किसानों के बालकों के लिए 50 प्रतिशत दाखिले सुरक्षित कराये, गांवों में प्राईमरी व मिडल स्कूलों की संख्या बढ़ाई और पुस्तकालयों के लिए धनराशि प्रदान की। कई नये हाई स्कूल व कालिज खुलवाये। आर्यसमाज की शिक्षासंस्थाओं को सरकारी अनुदान दिलाया। लाहौर डी० ए० वी० कालिज की ग्रांट 12 हजार से बढ़ाकर 20,000 वार्षिक कर दी। मैडिकल कालिजों में मुसलमान और सिख छात्रों को जो रियायतें दे रखी थीं वे रियायतें जमींदार छात्रों को भी मिलने लगीं। सनातन धर्म कालिज, दयानन्द कालिज और जैन कालिज को इस्लामियां कालिज और सिख नेशनल कालिज की भांति सरकारी सहायता मिलने लगी। गवर्नर से सलाह लेकर श्री एस्टवरी चीफ इन्जीनियर से पंजाब में रुड़की इन्जीनियरिंग कालिज जैसा कालिज खोलने के लिए रिपोर्ट मांगी। सन् 1924 में घाटे की पूर्ति के लिए सिंचाई कर में 75 लाख रुपये की बढ़ोतरी कर दी थी, जिसे सन् 1925 में 61 लाख रुपये तक सिंचाई कर कम करा दिया।

सेहत की बढ़ोतरी के लिए देहाती कोम्युनिटी कौंसिल और लाहौर में सेनेट्री बोर्ड स्थापित किये। सहकारी विभाग में जमींदार असिस्टेंट रजिस्ट्रारों की संख्या बढ़ाई। पशुओं की नसल बढ़ाने


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के लिए रुपया मंजूर कराया। प्रांतीय सिविल सर्विस में भी हिन्दू जमींदार लगवाये। एक को तो एक्स्ट्रा कमिश्नर बनाया। सरदार जोगेन्द्रसिंह को कृषि विभाग का चार्ज देकर जब आप शिक्षामन्त्री बने तो झज्जर और बहादुरगढ़ के स्कूलों को सफल किया। जालन्धर डिवीजन के निरीक्षक सरदार विशनसिंह के विरोध के बावजूद राधाकृष्ण आर्य उच्च विद्यालय जगरांव को मान्यता दी, क्योंकि श्री राधाकृष्ण लाला लाजपतराय के पिता थे। पंजाब सरकार ने सन् 1921 में पंजाब पंचायत एक्ट बनाया था और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और नगरपालिकायें खोलीं। डिस्ट्रिक्ट बोर्डों के चेयरमैन डी० सी० होते थे। सन् 1925 में इनके चेयरमैन भी गैर-सरकारी व्यक्ति चुनाव से बनने लगे। पंचायत अफसर जमींदार नियुक्त किये गये।

पंजाब के गवर्नर सर मालकम हेली (1924-1928) के साथ संघर्ष -

मांटेग्यू चेम्सफोर्ड के सुधारों के अनुसार सन् 1925 में कौंसिल का अध्यक्ष पहली बार सदस्यों द्वारा चुना जाना था, इससे पहले गवर्नर नामजद करता था। पंजाब के गवर्नर ने इस बार भी चाहा कि वह मि० केशन को नियुक्त करा ले। राजा नरेन्द्रनाथ इस मामले पर गवर्नर के साथ थे, किन्तु सर फजले हुसैन तथा चौ० छोटूराम विधान द्वारा दिये गये अपने अधिकार का प्रयोग करके अध्यक्ष निर्वाचित करने के पक्ष में थे। डा० गोकुलचन्द नारंग और पं० नानकचन्द चाहते थे कि कोई हिन्दू चुना जाये, लेकिन चौ० छोटूराम बहुमत द्वारा अध्यक्ष चुने जाने के पक्ष में थे। इस पद के लिए यूनियनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी श्री अब्दुलकादिर के मुकाबिले में गैर-किसान वर्ग के डा० गोकुलचन्द नारंग सामने आये। गवर्नर ने बहुत चाहा कि चौ० छोटूराम तथा सर फजले हुसैन मि० केशन को अपना समर्थन दें, लेकिन इन दोनों का तर्क था कि विधान में मिले अधिकारों का प्रयोग न करके हम अपनी जनता को क्या मुंह दिखायेंगे? गवर्नर को अपनी जिद छोड़नी पड़ी और यूनियनिस्ट पार्टी का प्रत्याशी श्री अब्दुलकादिर सफल हुआ और डा० गोकुलचन्द नारंग हार गये।

उपाध्यक्ष पद के लिए श्री मोहनलाल आर्यसमाजी ने किसी हिन्दू या सिक्ख को बनाने के लिए चौ० छोटूराम से प्रार्थना की। यूनियनिस्ट उम्मीदवार जाट सिक्ख सरदार महेन्द्रसिंह था, जिसने पं० नानकचन्द को हराया। गवर्नर ने दोनों बार ही सरकार द्वारा नामजद मेम्बरों से वोट डा० नारंग और पं० नानकचन्द के पक्ष में डलवाये। इस प्रकार यूनियनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीयता और शक्ति का परिचय मिला।

चौ० छोटूराम की इस कार्यवाही से यह नतीजा निकलता है कि उनके सामने किसानों के भले का सवाल पहले था, अंग्रेज अफसर, कांग्रेस तथा हिन्दू जाति या हिन्दू धर्म का बाद में। वे किसानों के हित में तीनों से लड़ने के लिए तैयार थे। उनकी स्पष्ट नीति थी कि देश के सवाल पर वे देशभक्त थे, जब सवाल खेतिहर किसान का उठता था तो उसका समर्थन करते थे और जब पार्टी हित का सवाल पेश होता था, तब वे उस व्यक्ति का समर्थन करते थे जो पार्टी का हितैषी होता था। उनका यह सिद्धांत श्री शाहनिवाज खां के मुकाबिले श्री शाहबुद्दीन के चुनाव का समर्थन करने तथा उनको जिताने से सिद्ध होता है। शाहनिवाज खां का समर्थन किसान वर्ग कर रहा था।


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पण्डित मदनमोहन मालवीय से सम्पर्क -

चौ० छोटूराम के इस पहले मन्त्रित्व के समय जब पं० मदनमोहन मालवीय लाहौर पधारे तो पंजाब हिन्दू नेताओं ने चौ० छोटूराम के आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के समर्थक विचारों को हिन्दू विरोधी कहकर मालवीय जी से शिकायत की। पण्डित मालवीय जी ने चौधरी साहब के पास मिलने के लिए संदेश भेजा। चौधरी साहब मालवीय जी से मिले और पहले तो उन्होंने पंजाब के किसानों की दयनीय स्थिति बताई और फिर किसानों को ऊंचा उठाने के लिए जो उद्देश्य और कार्यक्रम यूनियनिस्ट पार्टी ने निर्धारित किये थे उन पर विस्तार से प्रकाश डाला। साथ ही पंजाब के हिन्दू नेताओं के संकुचित दृष्टिकोण का भी दिग्दर्शन कराया। उनकी समस्त बातें सुनकर मालवीय जी बहुत सन्तुष्ट हुए और कहा कि जो भी जाति अथवा वर्ग आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गये हैं, उनको उठाने के प्रयत्न अवश्य ही होने चाहियें और आप ठीक ही कर रहे हो। मैं यहां के हिन्दू नेताओं को समझाऊंगा कि वे भी अपने दृष्टिकोण में सुधार करें। चौ० छोटूराम जी के कार्यों और बुद्धिमत्ता की प्रशंसा अब पंजाब से बाहर भी फैल चुकी थी। सरकारी नौकरियों में भारतीयों को और भी अधिक हिस्सा देने के लिए पब्लिक सर्विस कमीशन स्थापित करने तथा अन्य उपयोगी सुझाव देने के लिए सरकार ने ‘ली’ कमीशन की स्थापना की। उस ‘ली’ कमीशन ने जो रिपोर्ट तैयार की उस पर तथा सर्विस कमीशन के मुद्दों पर भारत सरकार ने चौ० छोटूराम जी का अभिमत मांगा। चौधरी साहब ने बड़ी योग्यता से नोट तैयार किये। उनके नोटों का सारांश यह था कि इन सुधारों का लाभ सीमित न रहे, अधिक लोग इनसे लाभ उठावें। प्रतियोगिता में बैठने के लिए एक सम्पन्न एवं शहरी विद्यार्थी की योग्यता यदि बी० ए० हो तो एक साधनहीन और देहाती उम्मीदवार की योग्यता इण्टर होनी चाहिए। पुलिस और फौज में योग्यता की अपेक्षा शारीरिक बल और स्वास्थ्य को प्रधानता दी जाये। इसी प्रकार इस नोट में तर्कों के साथ यही मत प्रकट किया गया था कि सभी वर्गों के साथ न्याय और समान स्तर लाने का प्रयत्न किया जाये। सरदार सुन्दरसिंह जी के आग्रह पर जब पं० मालवीय जी ने चौ० छोटूराम जी के इन नोटों को पढ़ा तो उन्होंने चौधरी साहब की योग्यता, देशभक्ति तथा पिछड़ा वर्ग समर्थक आर्थिक नीति से अत्यधिक प्रभावित होकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

चौ० छोटूराम की सन् 1926 में हुए तीसरे चुनाव में जीत परन्तु मन्त्री नहीं बने -

सन् 1926 में हुए चुनाव में चौ० छोटूराम को हराने के लिए हिन्दू सभा, आर्यसमाज और कांग्रेस उनके खिलाफ थे। चौ० लालचन्द के चाचा भक्त हरद्वारी, चौ० पीरूसिंह आर्य के पुत्र चौ० महासुख, चौ० लालचन्द के मुन्शी नेकीराम आदि ने मिलकर चौ० शेरसिंह (गांव बोहर) को चौ० छोटूराम के विरुद्ध खड़ा कर दिया। भक्त फूलसिंह ने जाटों को एक करने के लिए भूख हड़ताल कर दी और सब उम्मीदवारों से लिखवाकर ले लिया कि जिन-जिन को भक्तजी कहें, वही चुनाव लड़ें। झज्जर सोनीपत के हल्के से चौ० छोटूराम को उम्मेदवार घोषित कर दिया, परन्तु चौ० शेरसिंह नहीं बैठे, क्योंकि उनको तो गैर-जमींदारों ने बड़ी धनराशि दे रखी थी। विरोधियों ने रिश्वत देकर चौ० शेरसिंह को बिठाने की बात छारा वाले चौ० केहरीसिंह तक ने कही। परन्तु चौ० छोटूराम ने


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ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया, क्योंकि वे तो रिश्वतखोरी के कट्टर विरोधी थे। सब ओर से खिलाफत होने पर भी चौ० छोटूराम भारी बहुमत से जीते।

चौधरी छोटूराम तथा उनकी यूनियनिस्ट पार्टी सन् 1926 के चुनाव में विजयी हुई। गवर्नर ने 2 जनवरी, 1927 को चौधरी छोटूराम को एक निजी गोपनीय पत्र लिखा जिसमें उन्हें वजीर बनाने में अपनी विवशता प्रकट की और फिरोज खां नून को मन्त्री बना दिया। चौधरी साहब मियां फजले हुसैन से मिलने उनके गांव बुचियाना गये और गवर्नर का पत्र उनको दिखलाया। उसको पढ़कर वे एकदम बबकारे “मक्कार कहीं का, हम को बेवकूफ बनाता है। मेरी सलाह तक न ली।” चौधरी छोटूराम ने कहा “हमने अपने देश का भला देखना है। मैं अपनी सारी शक्ति और समय किसानों में प्रचार करने और उन्हें संगठित करने में लगा दूंगा।” गवर्नर ने उनकी जगह लाला मनोहरलाल को मन्त्री बना दिया।

कश्मीर का प्रधानमंत्री बनने से इनकार -

गवर्नर मालकम हेली ने चौधरी छोटूराम को एक सफल संगठनकर्त्ता और कुशल प्रशासक के रूप में देखा था। परन्तु वे जमींदार लीग को पंजाब में उभरती देखना नहीं चाहते थे। हिन्दू, सिख, मुस्लिम एकता को वे अपने साम्राज्य के लिए खतरा समझते थे। वे छोटूराम को देहाती किसान वर्ग के नेता के रूप में उभरता देखना नहीं चाहते थे। अतः गवर्नर ने वाइसराय को राजी कर लिया कि चौधरी छोटूराम को पंजाब से बाहर रखने के लिए उसे कश्मीर का प्रधानमन्त्री बना दिया जाए।

गवर्नर ने चौधरी छोटूराम को कश्मीर का प्रधानमन्त्री बनने को कहा। चौधरी साहब ने इससे साफ इनकार कर दिया और कहा कि “मेरा उद्देश्य नौकरी करना और धन कमाना नहीं है। मैं तो पंजाब के देहाती लोगों को आज़ादी मिलने तक जागृत और संगठित करना चाहता हूं ताकि आजाद भारत में वे अपने अधिकार ले सकें। मैं यूनियनिस्ट पार्टी में रहकर पंजाब में हिन्दू-मुस्लिम-सिख एकता कायम करूंगा जो स्वराज्य प्राप्ति का पहला लक्ष्य है।” चौधरी छोटूराम ने कौंसिल हिला दी। जिस प्रकार से वे कौंसिल से बाहर रिश्वतखोरी, साहूकारों द्वारा किसानों की लुटाई और मजहबी अफीम के खिलाफ तथा किसान संगठन के पक्ष में संघर्ष चालू कर रहे थे, उसी प्रकार कौंसिल के अन्दर भी किसानों के हक में बजटों पर बहस करते, लाभदायक देहाती संस्थाओं को खुलवाने और देहातियों को राहत देने के लिए कानून बनवाने के लिए संघर्ष करते थे। इनके अनेक उदाहरण हैं।

सन् 1926 से 1936 तक चौधरी छोटूराम ने कौंसिल में और कौंसिल से बाहर किसानों में जागृति लाने, उनका संगठन मजबूत करने और उनको उनके अधिकार दिलाने के लिए घोर संघर्ष किया। उन्होंने अपने ‘जाट गजट’, ‘बेचारा जमींदार’ और ‘ठग्गी की सैर’ अपनी लिखित पुस्तकों के माध्यम से किसानों में जागृति तथा संगठन बनाने की प्रेरणा दी। ये पिछले पृष्ठों पर विस्तार से लिख दी गई है।

मिया सर फजले हुसैन और सर सिकन्दर हयात खां -

गवर्नर मालकम हेली यूनियनिस्ट पार्टी को कमजोर बनाना चाहते थे। उन्होंने मुस्लिम शक्ति को प्रोत्साहन दिया, सिखों को उत्साहित किया, हिन्दुओं की पीठ थपथपाई। किन्तु उनकी नीति


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में सन् 1924 से 1926 तक पूर्ण सफल होने में बाधक रहे चौधरी छोटूराम। इसलिए सन् 1927 में बनने वाले मन्त्रीमण्डल में चौधरी छोटूराम को शामिल न किया और उनको पंजाब से बाहर करने के लिए कश्मीर के प्रधानमन्त्री का पद पेश किया, जिसे चौधरी साहब ने ठुकरा दिया। गवर्नर हेली साहब ने सर फजले हुसैन को भी कुछ दिन के लिए केन्द्र की कौंसिल ऑफ स्टेट्स का मेम्बर बनवा कर दिल्ली भिजवा दिया।

सर फजले हुसैन की अनुपस्थिति में यूनियनिस्ट पार्टी बिखरने लगी। मालकम हेली के स्थान पर पंजाब का गवर्नर सर हर्बर्ट इमरसन (सन् 1933-38) आया। वे मदारी की भांति राजनीतिज्ञों को एक दूसरे के खिलाफ नचाने लगे। चौधरी शहाबुद्दीन, मेहर शाह, सर फिरोज़ खां नून, जफरुल्ला खां और अहमद यार खां दौलताना एक दूसरे की टांग खींचने लगे। सर सिकन्दर हयात खां राजस्व मन्त्री बने। लाला मनोहरलाल की जगह चौधरी छोटूराम को मन्त्री न बनाकर डा० गोकलचन्द नारंग को मन्त्री बनाया गया। सिखों में से सर जोगेन्द्रसिंह को लिया गया। सर सिकन्दर हयात खां यद्यपि यूनियनिस्ट पार्टी के अंग थे, फिर भी पार्टी नीतियों के साथ सर फजले हुसैन के समान प्रतिबद्ध नहीं थे। गवर्नर के बीमार होने पर कुछ दिन के लिए वे कार्यवाहक गवर्नर होने पर, इंग्लैंड में उन अंग्रेज अफसरों की बड़ी प्रशंसाएं की थीं, जो भारत में काम कर रहे थे। चौधरी छोटूराम को उनकी यह देशभक्ति अच्छी नहीं लगी। अतः वे एक ओर तो सिकन्दर हयात खां का विरोध करने लगे, दूसरी ओर भारतीयों को आपस में लड़ाने वाले अंग्रेज गवर्नर हर्बर्ट इमरसन का, तीसरे ओर फिरोज खां नून तथा सर शहाबुद्दीन के स्वार्थमूलक परस्पर झगड़े का, चौथी ओर हिन्दू साम्प्रदायिकता के सिरमौर और साहूकार वर्ग के डा० गोकुलचन्द नारंग का जो नगरपालिका कार्यकारी एक्ट और पंजाब नगरपालिका संशोधन एक्ट पास कराके स्थानीय स्वराज्य के अधिकार को धूल में मिलाने का प्रयास कर रहे थे।

सन् 1935 के इण्डिया एक्ट के अनुसार प्रदेशों में राष्ट्रीय सरकारें बनाने का प्रश्न भारतीयों के सामने था। पंजाब में तीनों वर्ग, पहला - शहरी साहूकारों द्वारा समर्थित कांग्रेस, दूसरा - मुस्लिम साम्प्रदायिकता से समर्थित मुस्लिम लीग और तीसरा - अंग्रेज सरकार की चाटुकारिता करने वाले साहूकारों का दल। चौधरी छोटूराम की जमींदार लीग भी मैदान में थी और उक्त तीनों दलों को मैदान में पछाड़ने की योजना कर रही थी।

12 अप्रैल, 1936 को पार्टी के नये कार्यालय का उद्घाटन हुआ और पार्टी का नाम पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी रख दिया गया। चौधरी छोटूराम ने इस अवसर पर सैद्धान्तिक भाषण दिया और पार्टी की नीतियां बताईं। उन्होंने पार्टी के उद्देश्यों में कहा कि पार्टी का उद्देश्य औपनिविशेक स्वराज्य प्राप्त करना है। दूसरे देशों में रहने वाले भारतीयों को सम्मान दिलाना है। जाति और मजहब को छोड़कर शोषित, उपेक्षित और पिछड़े वर्गों का आर्थिक विकास करना है और शहर तथा गांव का अन्तर किए बिना समस्त पिछड़े वर्ग को तरक्की देना है। इन नीतियों के धुआंधार प्रचार को लेकर चुनाव लड़ा।

इस चुनाव के बीच में ही चौधरी छोटूराम कौंसिल के अध्यक्ष बन गये थे। नवाब मुजफ्फर हयात खां ने रेवेन्यू मेम्बरी से त्यागपत्र दे दिया तो उनके स्थान पर गवर्नर ने सिकन्दर हयात खां को रिजर्व बैंक की गवर्नरी से इस्तीफा दिलाकर रेवेन्यू मेम्बर बना दिया। सर शहाबुद्दीन को शिक्षा


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मन्त्री बनाया गया। इस प्रकार कौंसिल की अध्यक्षता की जगह खाली हो गई। उसमें चौधरी छोटूराम जी शहरियों के प्रतिनिधि सरदार बूटासिंह को हराकर अध्यक्ष बन गये और फिर चुनावों में समस्त पंजाब में खासकर हरयाणा में वही लोग जीते जो चौधरी छोटूराम ने खड़े किये थे। सोनीपत क्षेत्र से चौधरी टीकाराम, रोहतक क्षेत्र से चौधरी रामस्वरूप (गांव खिडवाली), झज्जर से स्वयं चौधरी साहब जीते थे। चौधरी रामस्वरूप ने चौधरी बलदेवसिंह को हराया था।

नोट - सन् 1930 के चुनाव में रोहतक क्षेत्र से चौधरी रामस्वरूप ने चौधरी लालचन्द (गांव भालोठ) को हराया था।

चौ० छोटूराम, सर फजले हुसैन तथा उनकी पार्टी के कार्यकर्त्ता चुनाव प्रचार में दिन-रात लगे रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि सन् 1936 के चुनाव में इनकी यूनियनिस्ट पार्टी को 101 सीटें प्राप्त हुईं जबकि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग को केवल दो-दो सीटें मिल सकीं। चुनाव का परिणाम चौ० छोटूराम और सर फजले हुसैन की जन-हितैषी नीतियों का प्रमाण प्रस्तुत करता है, साथ ही बताता है कि कांग्रेस नेता लाला लाजपतराय तथा मुस्लिम लीग के नेता श्री जिन्ना की अपेक्षा, किसानों तथा गरीबों के हिमायती ये दोनों यूनियनिस्ट नेता अधिक लोकप्रिय थे।

मियां सर फजले हुसैन की सेहत शुरु से ही नाजुक थी। चुनाव के तूफानी दौरों से वे बीमार पड़ गए। अतः 9 जुलाई 1936 को वे अचानक स्वर्गलोक चले गये। उस दिन चौ० छोटूराम रोहतक में अपनी ‘प्रेम निवास’ कोठी में थे। यह भयानक खबर सुनते ही बोले, “मेरा दायां हाथ टूट गया और पार्टी को बड़ा धक्का लगा है।”

चौ० छोटूराम को सर की उपाधि

अंग्रेज सरकार चौ० छोटूराम की लोकप्रियता, सिद्धान्तप्रियता, दबंग व्यक्तित्व और सैकूलर कार्यक्रम से इतनी प्रभावित हुई कि उनके द्वारा अंग्रेजों की उपेक्षाओं के करने पर भी, मार्च 1937 में उनको ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। सर चौ० छोटूराम कहा करते थे “अंग्रेज जो भी दें, ले लेना चाहिये; परन्तु अपनी राष्ट्रीयता, धर्मनिर्पेक्षता, स्वाभिमान और जनसेवा कार्यक्रम कायम रखने चाहिएं। झुकना गिरावट है। सिर ऊंचा करके चलने में शान है।” ‘सर’ की उपाधि प्राप्त करने पर भी चौ० छोटूराम ने अंग्रेजपरस्ती कभी नहीं की।

मुस्लिम लीग ने पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी से और भारत में कांग्रेस पार्टी से टक्कर लेने की योजना बनाई। नारा था “इस्लाम खतरे में है।” चौ० छोटूराम ने अपने आर्थिक कार्यक्रम से पंजाब के मुस्लिम किसानों के दिल को जीत लिया। इसलिए मुस्लिम लीग की वहां दाल न गली। सर चौ० छोटूराम का नारा था कि “मजहब बदल सकता है परन्तु खून का नाता तो एक रहता है, जो बदल नहीं सकता।” इस पर सब धर्मों के जाट जैसे हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान तथा ईसाई जिनमें किसानों की संख्या अधिक थी, चौ० छोटूराम की ‘जमींदार लीग’ के झण्डे के नीचे आ गये और उनको अपना प्रिय नेता मान लिया। चौ० छोटूराम ने अपनी राजनीति को मजहब से अलग रखा। इसीलिए अंग्रेजों की “फूट डालो और राज करो” की नीति भी पंजाब में फेल हो गई। इसी प्रकार कांग्रेस पार्टी भी पंजाब में अपने पांव जमाने में पूर्ण असफल रही।

चौ० छोटूराम एक चतुर, मजबूत राजनीतिज्ञ थे। वे समय और स्थिति के अनुसार अमल


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करते थे। वे ध्येय और सिद्धांत सामने रखते थे। यही कारण थे कि उनके मरने तक (9 जनवरी, 1945) उनकी ‘जमींदार लीग’ का पंजाब में दृढ़ और कुशल शासन रहा। चौ० छोटूराम को अंग्रेजों का साथी (Collaborator) कहने वाले अज्ञानी, मूर्ख तथा ईर्ष्यालु हैं।

अप्रैल सन् 1937 में चौ० छोटूराम मन्त्रीमण्डल में -

चुनाव जीतने के बाद अप्रैल 1937 में पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी का मन्त्रीमण्डल बना। सर सिकन्दर हयात खां इसके प्रीमियर (प्रधानमंत्री); चौधरी छोटूराम विकास मन्त्री, मियां अब्दुल हई शिक्षा मन्त्री; लाला मनोहरलाल वित्त मन्त्री; मलिक खिज्र हयात खां टिवाना लोक निर्माण मन्त्री, सरदार सुन्दरसिंह मजीठिया राजस्व मन्त्री बने। स्पीकर चौ० शहाबुद्दीन ही चुने गये। सर चौ० छोटूराम पंजाब के इस पार्टी मन्त्रीमण्डल में अप्रैल 1937 से 9 जनवरी 1945 (मृत्यु) तक रहे। इस जमींदार पार्टी के संचालक एवं अगवानी नेता चौ० छोटूराम थे और अन्त तक रहे।

सुनहरी कानून

सन् 1936 के चुनाव के समय पंजाब में 57% मुस्लिम, 28% हिन्दू, 13% सिक्ख और 2% ईसाई थे। इस जनसंख्या का 90% भाग किसानों का था, जिनमें से 80% किसान कर्जदार थे। यूनियनिस्ट पार्टी व्यावहारिक स्तर पर 90% आबादी के हितों की रक्षक थी। कांग्रेस के नेता भी 90% किसानों के हितों की बात तो करते थे, लेकिन कानून साहूकारों के हितों में बनाते थे। यही कारण है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के चोटी के नेताओं के प्रचार करने के बाद भी उनकी हार हुई। मन्त्रीमण्डल बनते ही चौ० छोटूराम ने विकास का कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए जो कानून बनाए गए उनको किसानों ने ‘सुनहरी कानून’ बताया और शहरियों एवं साहूकारों ने ‘काले कानून’ का नाम दिया। इन कानूनों से पंजाब में गरीबों को बड़ी राहत मिली। शोषकों पर कमरतोड़ हमले किए गए।

इस उद्देश्य से, जिन कानूनों का निर्माण किया गया, उनकी सूची इस प्रकार है -

1.
पंजाब इन्तकाल अराज़ी एक्ट (Land Alienation Act) - इसमें संशोधन किए गये, जिनके आधार पर खेती करने वाले साहूकारों को भी गैर जमींदार साहूकारों की सूची में रख दिया गया। रहनशुदा भूमि की ज़रखेज़ी (अन्न पैदा करने की शक्ति) को खराब नहीं किया जा सकता।
2.
बंधक भूमि वापिस एक्ट (The Punjab Restitution of Mortgaged Land Act, 1938) - इसके द्वारा 8 जून, 1901 से पहले की रहनशुदा जमीनों को इनके असली मालिकों को वापिस करा दिया गया। इस कानून से 365000 किसानों को फायदा हुआ और 835000 एकड़ जमीन इन किसानों को वापिस मुफ्त मिल गई।
3.
पंजाब कृषि-उत्पादन मार्केटिंग एक्ट (The Punjab Agricultural Produce Marketting Bill 1938) - इस एक्ट के फलस्वरूप मंडियों का पंजीकरण किया गया। महाजनों को लाइसेंस लेना जरूरी कर दिया। मंडी मार्केटिंग कमेटी में 2/3 प्रतिनिधि किसानों के और 1/3 महाजनों के निर्धारित किए गये। इस बिल को डा० गोकुलचन्द नारंग ने मारकूट अथवा माईटिंग (शक्तिमान्) बिल कहा। और भी कई गैर किसानों ने

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कहा कि इस बिल से हमारा सर्वनाश हो जायेगा। उत्तर में चौ० छोटूराम जी ने कहा - “मुझे दुःख है कि गरीबों की हिमायत करने वाली कांग्रेस के प्रतिनिधि भी इस बिल का विरोध करते हैं। वे कांग्रेस के उद्देश्य और हिदायतों को ताक में रखकर अपने नंगे रूप में हमारे सामने आ गये हैं। उन्हें लज्जा आनी चाहिए थी।” डा० गोकुलचन्द नारंग ने कहा कि “इस बिल के पास होने पर रोहतक का दो धेले का जाट लखपति बनिया के बराबर मार्केटिंग कमेटी में बैठेगा।” चौ० छोटूराम ने उसके उत्तर में कहा कि “मैं डाक्टर साहब से कहना चाहता हूं कि जाट एक अरोड़े से किसी भी भांति कम आदर का पात्र नहीं है। और यह वही जाट है जिसके लिए हरयाणा की हिन्दू कान्फ्रेंस में डाक्टर साहब ने कहा था कि जाट समस्त हिन्दू जाति के संरक्षक हैं। वह समय आ रहा है जब धन के गुलाम लोगों को परिश्रमी धनी जाट बहुत पीछे छोड़ देगा।”
4.
दी पंजाब वेट्स एण्ड मैजर्स एक्ट (माप तौल कानून 1941) के अनुसार व्यापारियों के बांटों को तोलने और उनकी जांच का कार्य प्रारम्भ हुआ। डण्डी वाली तखड़ी के स्थान पर कांटे वाली तराजू नियुक्त की गई। इनकी जांच पड़ताल के लिए इंस्पेक्टर नियुक्त किए गये। फलतः खरीददारों को निर्धारित मात्रा से कम तोलकर देने और विक्रेताओं से अधिक तोलकर लेने की आदत पर रोक लगी।
5.
पंजाब रजिस्ट्रेशन ऑफ मनीलैंडर्ज एक्ट (1938) - इस एक्ट के आधार पर ब्याज पर रुपया देने का धंधा करने वाले महाजनों व साहूकारों को नियंत्रित किया गया। इससे अनाप-सनाप ब्याज लेने की योजना घट गई। इस बिल के अनुसार साहूकार लाइसैंस लेकर ही कोई व्यापार (बनज) कर सकेगा।
6.
पंजाब ट्रेड एम्पलाईज एक्ट (1940) - इस एक्ट के अनुसार सप्ताह में, कामगारों, मुनीमों और मजदूरों की, एक दिन की वैतनिक छुट्टी होने लगी। काम करने के घण्टे निश्चित किए गए। किसी को नौकरी से हटाने के लिए एक मास का नोटिस देना आवश्यक हो गया।
7.
मसहलती बोर्ड (Conciliation Board) की नियुक्ति की गई। इसके अनुसार कर्जदार आठ आने की कोर्ट फीस भरकर अपने कर्जे को घटाने की दरखास्त दे सकता है, जो पहले ऐसी व्यवस्था नहीं थी।
8.
बेनामी भूमि ट्रांसैक्शन एक्ट (1938) - इस एक्ट के आधार पर तमाम बेनामी जमीनों को वापिस उनके मालिक किसानों को दिलवाया गया। इसके लिए 5 तहसीलदार नियुक्त किए गए थे जिन्होंने अकेले गुरुदासपुर जिले में 44 लाख रुपये की बेनामी को पकड़ा था। यही हाल सब जिलों में था।
9.
कृषक सहायक कोष चालू किया जिसमें किसानों की सहायता के लिए 55 लाख रुपये डाले गये ताकि ओले, टिड्डी, बाढ़ तथा सूखा द्वारा की गई हानि की स्थिति में किसानों की सहायता की जा सके।
10.
शुद्ध घी में वनस्पति घी न मिलाया जा सके, अतः वनस्पति घी में रंग डालने का कानून बनाया।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-925


11.
गांवों में उद्योग धन्धे खोले गए, ताकि ग्रामीण क्षेत्र की आर्थिक उन्नति हो और शहरों तथा कस्बों में आबादी का दबाव न बढ़े।
12.
किसानों के लिए नौकरियों में सुविधायें दी गईं। पहले कमिश्नर लोग भी लाला लोगों की ही बात सुनते थे। जमींदारों का उनके पास पहुंचना ही मुश्किल था।
13.
किसानों के हित के लिए बिक्री टैक्स और जायदाद टैक्स कानून बनाये। जायदाद से होने वाली आमदनी पर 20 फीसदी टैक्स लगाया गया। किराया वही रहा जो अब से दो वर्ष पहले लिया जाता था, अतः वह बढ़ाया न जाए। लेकिन रहने के मकान टैक्स से बरी रहेंगे। बिक्री पर 5,000 रुपये तक कोई टैक्स नहीं होगा। पांच से दस हजार तक यह टैक्स दो आने प्रति सैंकड़ा, किन्तु किसान जो अनाज या खेत की पैदावार बाजार में बेचने जायेगा उस पर कोई टैक्स नहीं लगेगा।
14.
इन टैक्सों के अतिरिक्त साहूकारों पर छः करोड़ सालाना की आमदनी के टैक्स लगाये गये। उस आमदनी से देहातों में पानी, दवा और शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया गया।
15.
पंजाब कर्जदार रक्षक कानून (The Punjab Debtors Protection Act 1936) पास करके किसानों की जमीनों की रक्षा कर दी गई।
16.
पंजाब मलकियत अधिकार कानून 1934 व तीसरा संशोधन 1940 - इसके अनुसार जमींदार सरकार ने पंजाब के किसानों की आर्थिक गुलामी के जुए को उतार फेंका। इस कानून द्वारा किसानों को निम्न प्रकार की सुविधायें मिलीं।
  1. कोई साहूकार जमींदार को कैद नहीं करा सकता।
  2. किसान के रहने के घर तथा नौहरे कुर्क नहीं किये जा सकते।
  3. खेत में काम आने वाले औजार जैसे हल, कस्सी, कसोला, गाड़ी आदि तथा बैल, दुधारू पशु और फसल कुर्क नहीं हो सकती।
  4. किसानों के बैल तथा पशु बांधने के स्थान, कूड़ा डालने का स्थान (खाद की कुर्ड़ी), चारा एवं चारा रखने का स्थान तथा उपले पाथने का स्थान (गितवाड़ व बिटोड़ा) भी कुर्क नहीं हो सकते।
  5. घर में प्रयोग आने वाला सामान, फसल की पैदावार का एक-तिहाई कुर्क नहीं हो सकता और यदि वह एक-तिहाई आसानी से छः महीने के गुजारे के लिए काफी नहीं है तो उतना हिस्सा कुर्क नहीं होगा जो छः महीने के लिए काफी हो। खेती के पेड़ भी कुर्क नहीं हो सकते। इस कानून के अनुसार, चाचा, ताऊ की मौत के साथ ही साहूकार का कर्जा भी मर जाता है।

सर चौ० छोटूराम गरीब किसानों के लिए कितना दर्द रखते थे यह उनके निम्न शब्दों से मापा जा सकता है जो कि उन्होंने 17 नवम्बर 1940 को रावलपिंडी के स्थान पर कहे -

“यदि संघीय न्यायालय ने यह फैसला कर दिया कि पंजाब विधान सभा ‘बेनामी’ और ‘रहन विधायक उन्मुक्ति’ एक्टों को पास करने का अधिकार नहीं रखती तो मैं पंजाब के इस कोने से लेकर उस कोने तक एक अभूतपूर्व आंदोलन छेड़ दूंगा। यदि जरूरत पड़ी तो मैं अपने मन्त्री पद और विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देकर किसानों को संगठित करके एक झण्डे के नीचे खड़ा कर दूंगा और तभी चैन लूँगा जबकि पंजाब सरकार को ऐसे कानून पास करने का अधिकार मिल जायेगा। यद्यपि मैं अब वृद्ध और दुर्बल हूं, पर आपको विश्वास दिलाता हूं कि यमराज भी मुझे अपने कार्य से हटाने में तब

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-926


तक बुरी तरह से असफल रहेगा जब तक कि मैं पंजाब के किसानों के दुःखों को दूर न कर दूं। मैं तब तक आराम नहीं करूंगा जब तक कि किसानों को यूनियनिस्ट सरकार द्वारा पारित कानूनों से सब लाभ प्राप्त न हो जाएं।” टीकाराम, “सर छोटूराम”, पृ० 40-41.

विधानसभा को यह अधिकार मिल गये और सर छोटूराम ने कानून पास करके किसानों को सब लाभ प्राप्त करा दिए।

इन कानूनों के अलावा किसानों तथा गरीबों की हालत सुधारने के लिए कुछ कदम चौ० छोटूराम ने और उठाए। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं -

  • 1. स्थानीय स्वराज्य के विकास के लिए पंचायत कानून पास किया। जिसके अनुसार देहातों में पंचायतों का जाल बिछा दिया गया और सच्चे देहाती स्वराज्य की नींव पड़ गई।
  • 2. पंजाब में सबसे अधिक सड़कें बनवाईं। पुरानी सड़कों की मरम्मत कराई।
  • 3. बिजली द्वारा सिंचाई का क्षेत्र बढ़ाने के लिए मण्डी हाइड्रो इलैक्ट्रिक स्कीम चालू की। इसके अतिरिक्त हवेली प्रोजेक्ट ढाई वर्ष में पूरा कर लिया गया जिस पर चार-पांच करोड़ खर्च आया। इन दोनों स्कीमों से लाखों बीघे जमीन की सिंचाई होने लगी।
  • 4. दक्षिण-पूर्वी पंजाब के सूखे इलाकों में सिंचाई करने के लिए तीन योजनायें बनाई गईं - (1) नलकूपों से (2) भाखड़ा बांध (3) व्यास नदी पर बांध। इन तीनों के पूरा हो जाने पर पंजाब का हर कोना-कोना हरा-भरा बन जायेगा। (4) सन् 1937 में बाढ़ से जो हानि हुई उसके लिए 37 लाख रुपये की सरकारी सहायता कराई। गुरुद्वारा शहीदगंज के साम्प्रदायिक केस का न्याययुक्त लोकप्रिय निर्णय कराया। दस लाख एकड़ भूमि की सिंचाई के लिए एक नहर बहुत शीघ्र बनवाई, जिसमें बजट से डेढ़ करोड़ रुपया कम खर्च किया। हरयाणा के अकाल (संवत् 1995-1996 का अकाल) पर अप्रैल 1941 ई० तक तीन करोड़ रुपये व्यय किये गये। 15 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई के लिये नहर स्थल की खुदाई प्रारम्भ की, जिस पर डेढ़ करोड़ रुपये खर्च हुए। सवा करोड़ की लागत से हरयाणा में (रोहतक-हिसार जिले) एक और फसली (बरसाती) नहर निकाली जो बाद में बारहमासी कर दी गई।
  • 5. स्टोरों की स्थापना की गई, जिनमें किसान अपना माल अच्छे दाम मिलते तक जमा कर सकें और काम चलाने के लिये अपने माल की लगभग तिहाई कीमत पेशगी प्राप्त कर सकें।
  • 6. किसानों को उत्तम बीज देने के लिये 2 करोड़ 77 लाख रुपये का प्रावधान किया गया। हजारों स्थानों पर किसानों की एकत्रित सभाओं में उन्नत खेती के तरीके बताये जाते थे। कई तरह के कपास और गेहूं के बीजों का अनुसंधान लायलपुर के कृषि कालिज में किया गया।
  • 7. सारे भारत में पंजाब ही एक ऐसा प्रान्त था जहां चकबन्दी की गई। प्रतिवर्ष एक लाख एकड़ भूमि की चकबन्दी होती रही थी।
  • 8. पशु-चिकित्सा के मामले में तो कोई सूबा पंजाब की बराबरी नहीं कर सका। शुरु में

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1200 प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र स्थापित किये गये और 79 डिस्पैन्सरियां चालू कीं। हिसार में पशु फार्म की स्थापना की गई। पशुओं, बकरियों और भेड़ों को उन्नत बनाने का कार्य शुरु किया गया।
  • 9. पंजाब प्रान्त में उद्योग-धन्धों की उन्नति की गई। अधिक से अधिक कारीगर प्राप्त करने के लिये स्कूलों में टैक्नीकल और व्यावहारिक शिक्षा का प्रबन्ध किया गया।

27 दिसम्बर 1938 को लाहौर में औद्योगिक प्रदर्शनी जिसको अन्य प्रान्तों के मिनिस्टरों ने देखकर भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्होंने अपने प्रान्तों में भी ऐसा ही करने का विचार किया। मिट्टी के बर्तनों और रेशम की कारीगरी को उन्नत करने के लिए 60 हजार रुपये वार्षिक का प्रावधान किया गया। जुलाहों के गरीबी को दूर करने के लिए उनकी औद्योगिक को-आपरेटिव सोसाइटियां बनाईं गईं। उन्हें ठीक दाम पर सूत प्राप्त करने का प्रबन्ध किया गया। उद्योग-धन्धों की खोज के लिए भी एक विशेष विभाग स्थापित किया गया।

पटना, दिल्ली और कराची की प्रदर्शिनियों में पंजाब की कारीगरी की चीजों पर अनेक पुरस्कार मिले। चूंकि उद्योग विभाग चौ० सर छोटूराम के पास था, इसलिए इसकी यह कीर्ति उन्हीं की है।

मजदूर हितों की रक्षा

चौ० छोटूराम को जिस भांति किसानों की चिन्ता रहती थी, उसी भांति मजदूरों के भले के लिए भी वे चिन्तित थे। सन् 1935 के शासन-सुधारों के बाद बनी मिनिस्ट्री में विकास के अतिरिक्त उद्योग विभाग भी उन्हीं के पास था। उद्योगों की उन्नति का प्रमाण इन आंकड़ों से मिलता है - सन् 1936 में 71 कारखानों का रजिस्ट्रेशन हुआ। सन् 1937 में 98, सन् 1938 में 48 और सन् 1939 में 81 कारखाने रजिस्टर्ड हुए। अर्थात् चार वर्षों में 298 नये कारखाने खुले। कारखानों की कुल संख्या 800 हो गई। सन् 1936 की अपेक्षा सन् 1939 तक इन कारखानों पर 13 लाख से 24 लाख खर्च होने लग गया था। हजारों मजदूर इन कारखानों में काम करते थे किन्तु उनकी सुविधा के लिए कारखानों के मालिक कुछ भी ध्यान नहीं देते थे। चौ० छोटूराम ने एक मजदूर सुविधा बिल पास कराया, जिसके अनुसार प्रत्येक मजदूर को दो हफ्ते में एक दिन की छुट्टी वेतन सहित और दिन में 8 घण्टे काम करने के नियत किये गये। काम करते हुए यदि कोई अंग भंग हो जाय तो उसके लिए मुआवजा देने का प्रावधान किया गया। पंजाब की भांति फिर तो सारे भारत में ही यह कानून पास कर दिया गया। चौ० छोटूराम किसानों की भांति ही मजदूरों के शोषण को भी समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील थे।

चौ० सर छोटूराम जी की जमींदारों के लिए एक विशेष सूचना

चौ० छोटूराम ने किसानों, गरीबों तथा मजदूरों के हित के लिए कानून पास करवा कर उनको साहूकारों के शोषण से बचा लिया। इससे साहूकार वर्ग एवं कांग्रेसी नेता उनसे जलने लगे और उनके विरुद्ध जहर उगलने लगे। पंजाब के कांग्रेसी नेताओं में सबसे अधिक जहर उगलते थे जिला रोहतक के पं० श्रीराम शर्मा। उर्दू दैनिक पत्र ‘मिलाप’ और ‘प्रताप’, कांग्रेसी नेता तथा साहूकार बनिये उन्हें ‘छोटूखां’ कहने लगे जबकि पंजाब के किसान खासकर मुसलमान उन्हें ‘छोटा राम’ कहा करते थे और किसानों का ‘मसीहा’ नाम प्रसिद्ध कर दिया। इतना होने पर भी


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चौ० छोटूराम ने कभी सरकारी सत्ता का अपने विरोधियों पर इस्तेमाल नहीं किया। वे अपने विरोधियों की गाली-गलौच का उत्तर किन शब्दों में देते थे, उसका एक नमूना उनके सोनीपत के जमींदार जलसे में किये गये भाषण में मिलता है। उन्होंने कहा था कि “मैं आप (जमींदारों) के हित के लिए कोई काम करता हूं या नहीं, इसका अन्दाजा आप इससे लगाते रहना कि ये शहरी नेता और अखबार मुझे जितनी ही कड़वी गाली दें, आप समझना कि छोटूराम हमारे लिए कोई इतना ही बड़ा काम कर रहा है। जिस दिन ये गाली देना बन्द कर दें आप समझ लेना कि अब छोटूराम बदल गया है और हमारे हितों के कामों की ओर से ढीला हो गया है।”

स्वराज्य का अर्थ

एक कांग्रेसी जाट वकील ने चौ० छोटूराम से कहा कि ‘स्वराज्य’ आने पर किसानों के संकट तो अपने आप मिट जायेंगे। चौ० छोटूराम ने उत्तर दिया कि स्वराज्य का अर्थ यदि हिन्दुस्तानियों के हाथ राज्य आ जाने से है तो देशी राज्यों को क्यों छेड़ा जाता है? और यदि स्वराज्य का अर्थ जनता का राज्य है तो हमारा और आपका कर्त्तव्य है कि हम जनता को इतना समर्थ और समझदार बना लें कि स्वराज्य कुछ चोटी के लोगों तक ही सीमित न रह जाए। बहुसंख्यकों पर अल्पसंख्यक राज्य न करते रहें। वकील साहब, मुझे ऐसा लगता है कि स्वराज्य के मिलने पर आपकी कांग्रेस भी यही कहेगी कि स्वराज्य हमारी कुर्बानियों से मिला है, अतः राज्य करने का अधिकार हमारा ही है। मैं यह चाहता हूं कि स्वराज्य हर भारतवासी की सम्पत्ति है और वह केवल कांग्रेस की ही सम्पत्ति न बन जाए। कोटि-कोटि जनता जिसके लिए स्वराज्य होगा, उसका उसमें समुचित भाग हो। यह तभी हो सकता है जब पिछली कतार अधिक सबल और सजग हो जाय। इसीलिए मैंने पंजाब में देहातियों की एक मजबूत पार्टी का संगठन किया है जो राष्ट्रीय संयुक्त पार्टी (Nationalist Unionist Party) कहलाती है।

कांग्रेसी वकील ने फिर चौ० छोटूराम से पूछा कि आप किसान नौजवानों को सरकारी नौकरियों में प्रविष्ट होने के लिए क्यों उत्साहित करते हैं? चौ० साहब ने उस वकील को बताया कि कुछ दिन पहले एक गरीब किसान परिवार का मुखिया अपंग हो गया। उसके अबोध बाल-बच्चे अपने हाथ से खेती नहीं कर सकते थे। साहूकार ने उस पर अपने कर्जे का दावा किया।

‘कर्जदार राहत’ कानून के अनुसार किसान के खेत व मकान व खेती करने के उपकरण और तिहाई अन्न कुर्क नहीं हो सकते थे। किन्तु लाला जयदयाल ने कृषक की परिभाषा यह कर दी कि किसान वह है जो अपने हाथ से खेती करता हो। अदालत दीवानी ने हाईकोर्ट के जज के इस रूलिंग के अनुसार उस किसान और उसके परिवार को गैर काश्तकार करार दे दिया। लाला जयदयाल के स्थान पर किसान चीफ जज होता तो वह यह फैसला करता कि “किसान वह है जिसकी जीविका का मुख्य आधार खेती है।” और अब हम ‘कर्जदार राहत’ कानून में संशोधन करके कृषक की यही परिभाषा प्रविष्ट करा रहे हैं। चौधरी साहब ने यह संशोधन पास करा दिया। सर छोटूराम ने आगे कहा कि सरकार के दो वर्ग हैं। एक वर्ग जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का होता है जो कानून बनाता है। दूसरा वर्ग नौकरों का होता है जो कानूनों के अनुसार देश का प्रबन्ध करता है अथवा स्कीमों की पूर्ति करता है। जब तक दोनों वर्ग समान विचारधारा के न हों, कल्याणकारी राज्य नहीं बन सकता। अब सरकार किसानों की है तो किसानों के शिक्षित युवक


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इस सरकार के नौकरशाही वर्ग में अधिकाधिक प्रविष्ट हो जायें जिससे सरकार के कानूनों का सद्भावना और उत्साह से पालन हो सके। चौ० छोटूराम किसान की दृष्टि से उसी ही स्वराज्य मानते थे जिसमें विधान सभा तथा सरकारी दफ्तर इन दोनों में किसानों का बहुमत हो।

Sir Chhotu Ram stated in 1940, “The Lord of plough is also the Lord of Province”. (Sunday Reading, by B.R. Malik). अर्थात् सन् 1940 में सर छोटूराम ने कहा था कि “हलपति एक राज्यपति भी है।”

चौ० छोटूराम द्वारा अछूतोद्धार का कार्य

पहले महायुद्ध के पश्चात् जब अंग्रेज सरकार ने हरयाणा के जमींदारों को उनकी सैनिक सेवाओं के उपलक्ष्य में मुरब्बे (जमीनें) दिए तो चौधरी साहब के प्रयत्न से अछूतों को भी उनकी जनसंख्या के अनुपात से वे जमीनें मिलीं। चौधरी साहब जब गांवों में जाते थे तो अछूतों से भी उसी प्रकार मिलते थे जिस प्रकार वे अपने जातीय बन्धु किसानों से मिलते थे। पंजाब में सरकारी सर्विसों में हरिजनों को प्रविष्ट कराने का श्रेय चौधरी साहब को ही है। उन्होंने ही सबसे पहले कुछ हरिजन युवकों को सर्विस में भिजवाया।

एक अनोखी घटना सन् 1932 की है। डहरी पाना (रोहतक) का एक सीसराम नामक चमार रोहतक रेलवे रोड पर स्थित एक कुएं पर अपने मटके में पानी लेने के लिए चढ़ गया। निकट के महाजन हिन्दू दुकानदारों ने उसे धक्के देकर कुएं से उतार दिया और उसका मटका भी फोड़ दिया। साथ ही उस कुएं को अपवित्र कर दिया समझकर उसके ऊपरी भाग को मिट्टी व पानी से धोया। सीसराम चमार मुसलमान धर्मी बनकर दो-तीन दिन बाद फिर उसी कुएं से पानी भरने लगा और सब को ललकार कर कहा कि “अब मैं वही चमार हूं तथा मुसलमान बन गया हूं। किसी का साहस है तो आओ, मुझे कुएं से उतारो।” किसी की हिम्मत उतारने की न हुई। यह सूचना मिलने पर चौ० छोटूराम लाहौर से रोहतक पधारे और उस सीसराम तथा सभी हरिजनों की शुद्धि करने के लिए रेलवे रोड पर स्थित एक मन्दिर में एक भोज का प्रबन्ध कराया। उस मन्दिर में रविवार के दिन इस अवसर पर कई सौ आदमी पहुंचे जिनमें अधिकतर जाट थे। चौ० छोटूराम जी भी उपस्थित थे। हरिजन (बाल्मीकी, चमार, धानक) बड़ी संख्या में थे जिन्होंने अपने हाथों से वहां पहुंचे लोगों को भोजन खिलाया। उस वर्ष मैं वैश्य हाई स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ता था। मैं भी इस भोज में शामिल हुआ था। (लेखक)

चौ० साहब ने सीसराम को हिन्दू धर्मी बनाया और अपने भाषण में कहा कि किसी हरिजन को अछूत न समझा जाए, यह हमारे भाई और हिन्दू धर्मी हैं। इनमें और अन्य हिन्दुओं में कोई अन्तर नहीं है। हरिजनों को अपना हिन्दू धर्म त्यागकर दूसरे अन्य किसी धर्म का अनुयायी न बनने की शिक्षा दी। सर छोटूराम द्वारा हरिजनों की इस शुद्धि की जाने के प्रभाव से आज तक भी किसी हरिजन ने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया है। यह चौ० छोटूराम की हरिजनों के प्रति कितनी महान् उदारता व सहानुभूति थी, पाठक इसका स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।

जिला मुल्तान में ‘आर्य नगर’ नामक गांव की सारी जमीन को सन् 1923-1924 में ‘मेघ उद्धार सभा स्यालकोट’ ने सरकार से सस्ते दामों में खरीद करके मेघ जाति के हरिजनों को उसका


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-930


मुजारा (काश्तकार) बनाकर आबाद किया था। कई वर्षों का सरकारी लगान और मुरब्बों की किश्तें अदा न करने के कारण सरकार ने उस गांव की सारी जमीन जब्त कर ली थी और फैसला कर दिया था कि इस जमीन को खुले बाजार में नीलाम करके लगान की रकम के साथ-साथ जमीन की कीमत वसूल की जाए। सरकार ने मेघ उद्धार सभा जिसके कर्ता-धर्ता हिन्दू साहूकार व वकील थे, के पदाधिकारियों को नोटिस दिए कि वे बकाया रकम अदा करें। किन्तु मेघ उद्धार सभा ने ऐसा नहीं किया। यूनियनिस्ट सरकार के समय में चौधरी साहब ने हरिजन काश्तकारों को जमीन बांटने का फैसला कर दिया और मेघ उद्धार सभा का दखल समाप्त करके इस सारे गांव के यह मुरब्बे मेघ जाति के हरिजनों में बांट दिए। जो काश्तकार जिस-जिस मुरब्बे को काश्त करते चले आ रहे थे वही उसके मालिक बना दिए गए और लगान का बकाया आदि उनसे सस्ती किश्तों में वसूल किया गया। चौधरी साहब ने अपने एक प्राइवेट पार्लियामेण्ट सेक्रेटरी को हुक्म दिया कि जिस-जिस मुरब्बे पर मेघ (हरिजन) काश्तकार चला आ रहा है, वह मुरब्बा उसके नाम पर मुन्तकिल (पक्का) कर दिया जाए। इससे बढ़कर चौ० छोटूराम की हरिजनों के प्रति सहानुभूति और क्या हो सकती थी।

चौधरी साहब ने पंजाब के किसानों को कानून बनाकर साहूकारों के जुल्म से बचाकर कर्जों से मुक्त किया, उसी तरह पंजाब के हरिजनों और कुर्मियों पर उन कानूनों को लागू करके उनके माल, पशु, घर और सम्पत्ति को साहूकारों के कर्जे की डिग्री-कुर्की से बचाया।

चौधरी छोटूराम का एक पत्र

उच्च चरित्र के सम्बन्ध में चौ० छोटूराम ने गांव के तमाम अफसरों के पास 8 जुलाई, 1936 को यह पत्र भेजा था -

प्रिय,
आपको यह पत्र मैं सरकारी हैसियत से लिख रहा हूं। यदि आप में ये दोष न हों, जिनका जिक्र इस पत्र में है, तो बुरा न मानना।
किसान कौम को मैं हृदय से प्यार करता हूं, लेकिन मुझे दुःख है कि इस समाचार को सुनने से कि गांव के लोग जो उच्च पदों पर हैं उनमें से कुछ शराब पीने, रिश्वत लेने आदि दुर्गुणों में फंसते जा रहे हैं। उनके इन गलत कामों से सारी कौम बदनाम हो जायेगी। मैं तो यह चाहता हूं कि आप लोग अच्छा खायें, अच्छा पहनें, किन्तु यह कतई नहीं चाहता कि फैशन और चाट में पैसे बरबाद करें। मैं आपको यह याद दिलाता हूं कि हम उन लोगों की सन्तान हैं जो बेझड़ ज्वार-बाजरे की रोटी दही व प्याज से खाते थे और हमसे अधिक तन्दुरुस्त थे। मनोरंजन भी कोई बुरी चीज नहीं है। किन्तु जिस मनोरंजन से चरित्र बिगड़ता है उसे मैं पसन्द नहीं करता हूं।
शराब पीना एक ऐसा दुर्व्यसन है जिसने बड़ी-बड़ी सल्तनतों व मालिकों को नष्ट कर दिया। कोई भी धर्म शराब पीने के पक्ष में नहीं है, न कोई नीतिशास्त्र ही शराब पीने को अच्छा मानता है। साधारण समझ के लोग भी इसकी निन्दा करते हैं। अनुभवी लोगों ने इसके दुष्परिणामों से हमेशा सचेत किया।
चरित्र में जरा-सी ढिलाई से जीवन पतन की ओर ढलने लगता है। दुर्व्यसनों में एक बार

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-931


फंसने पर उनसे निकलना कठिन हो जाता है। भोगों को भोगने से कभी भी तृप्ति नहीं होती है। संयम ही उच्च-चरित्र को कायम रखता है।
रिश्वत के सम्बन्ध में क्या हमें यह नहीं दिखता है कि जिनसे रिश्वत ले रहे हैं, उनकी सामर्थ्य तो इतनी भी नहीं है कि भली प्रकार से बाल-बच्चों का पोषण कर सकें। प्रायः ऐसे ही लोगों से रिश्वत ली जाती है। क्या हम हृदयहीन हैं कि यह तथ्य हमारी आंख से ओझल हो जाता है।
विशिष्ट पुरुषों एवं अधिकारियों की गोष्ठियों में मैं जब सुनता हूं कि जाट मुलाजिम भी इन दुर्गुणों की ओर बहने लगे हैं तो मेरा सिर शर्म से झुक जाता है। किसी आदमी के चरित्र से पूरी कौम के चरित्र की जांच होती है। उच्च जाति में ये गुण होने आवश्यक हैं -
सादा जीवन, उच्च विचार, अच्छा चरित्र, ईमानदारी और पारस्परिक एकता।
आपका, ‘छोटूराम’

वे किसानों को बार-बार कहा करते थे कि “बोलना ले सीख और दुश्मन को पहचान ले।”

हीरक जयन्ती समारोह

मार्च 1, सन् 1942 को जाट हीरोज मेमोरियल एंगलो संस्कृत हाई स्कूल रोहतक के विशाल प्रांगण में चौ० छोटूराम के 61वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हीरक जयन्ती समारोह मनाया गया। इस अवसर पर पंजाब, दिल्ली, जोधपुर, भरतपुर, धौलपुर, मेवात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों से दो लाख से भी अधिक किसान व गरीब देहाती मजदूर एकत्रित हुए। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई अपने मजहबी भेदभाव भूलकर एक प्लेटफार्म पर एकत्रित हो गये। इस समारोह के अवसर पर महाराजा ब्रिजेन्द्रसिंह भरतपुर नरेश, दानवीर चौ० सेठ छाजूराम और पंजाब प्रीमियर सर सिकन्दर हयात खां तथा उनके मन्त्री-मण्डल के मिनिस्टर भी पधारे थे। जलसे के अध्यक्ष प्रीमियर सिकन्दर हयात खां बनाये गये। चौ० छोटूराम के सम्मान में उनको 61,000 रुपये की थैली भेंट की गई। चारों ओर से रुपये इस प्रकार बरस रहे थे कि लेने वालों को सम्भालने का होश न था। इस दृश्य को देखने वालों का कहना था कि इससे पहले इतनी उमंग लिए हुए इतनी बड़ी भीड़ उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी। चारों ओर से जनता सम्मान एवं श्रद्धा से ऊंचे स्वर में ‘सर छोटूराम की जय’ बोल रही थी। अपने नेता के दर्शन पाकर स्त्री-पुरुष बड़े प्रसन्नचित्त थे। इस अवसर पर कुछ महापुरुषों के भाषणों के कुछ अंश निम्न प्रकार हैं -

1.
चौ० सर छोटूराम हमारी उस महान् जाति के, जिसमें हमें भी पैदा होने का सौभाग्य प्राप्त है, एक रत्न हैं। जनता के लिए की गईं उनकी सेवाएं सराहनीय हैं। इस शुभ अवसर पर हम परमात्मा से उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं। -हिज हाईनेस श्री महाराजा साहब सवाई ब्रजेन्द्रसिंह बहादुर भरतपुर नरेश
2.
भारत की एक प्रमुख जाट रियासत के दीवान की हैसियत से मुझे आदरणीय राय बहादुर चौ० सर छोटूराम को उनकी हीरक जयन्ती के शुभ अवसर पर बधाई देने में हार्दिक प्रसन्नता है। पंजाब और विशेषतः जाट कौम की जो अमूल्य सेवायें उन्होंने अपनी महान् योग्यता से की हैं, उनका वर्णन मेरी सामर्थ्य से बाहर है, लेकिन मैं यह कह

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सकता हूं कि जो भी व्यक्ति उनके सम्पर्क में आता है उसके दिमाग पर उनकी विशिष्टता की छाप पड़ जाती है। के० पी० एस० मेनन, आई० सी० एस०, प्राइम मिनिस्टर भरतपुर
नोट - श्री के० पी० एस० मेनन, स्वतन्त्र भारत के चीन व रूस में यशस्वी राजदूत रहे हैं।
3.
पंजाब विधानसभा के अध्यक्ष चौ० सर शहाबुद्दीन ने उनको गुदड़ी का लाल और पंजाब का शेर बताया और कहा कि उनकी योग्यता और कार्यशीलता से उनके विरोधी भी प्रभावित हैं।
4.
पंजाब विधानसभा के उपाध्यक्ष सरदार दसौधासिंह ने कहा कि चौ० साहब ने पंजाब के किसानों के लिए जो सेवायें की हैं उनके वे इतने कृतज्ञ हैं कि छोटूराम उनके लिए दूसरा खुदा है और अक्सर वे उन्हें छोटा राम भी कहते रहते हैं।
5.
चौधरी छोटूराम इस युग की उन जिन्दादिल विभूतियों में से हैं जिन्होंने उत्तरी भारत की बिखरी हुई क्षत्रिय जातियों का संगठन करके क्षत्रिय जातियों की गणना संसार की जीवित जातियों में की है। राव कृष्णपाल सिंह, आवागढ़ राज्य (उत्तरप्रदेश)
6.
पहले पहल मैंने सर छोटूराम को सन् 1925 में पुष्कर के जाट महोत्सव में देखा था। मैं महाराजाधिराज सर नाहरसिंह जी शाहपुराधीश के साथ इस महोत्सव में शामिल हुआ था। चौधरी साहब एक ऐसी विभूति हैं जिन पर हम सभी लोगों को गौरव हासिल है। राव गोपालसिंह राष्ट्रवर खरवा नरेश (राजस्थान)
7.
पंजाब की दलित जाति के नेताओं से मैंने चौधरी छोटूराम जी के सम्बन्ध में बहुत सी प्रशंसा योग्य बातें सुनी हैं, उनसे मुझे बहुत संतोष हुआ है। उन्होंने अनेक जाट युवकों को ऊंचे-ऊंचे ओहदे देकर अपनी उदारता और दलितों के प्रति सौहार्द का परिचय दिया है। उन्होंने स्वयं एक गांव में जा अछूतों को कुएं पर चढ़ाया है। हम उनके दीर्घ जीवन की परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। डाक्टर मानकचन्द एम.एल.ए., मन्त्री, अखंड भारत संघ, उत्तरप्रदेश ब्रांच, वीर भवन आगरा
8.
सैनिक जातियों तथा देहाती लोगों में जिस महान् विभूति के कारण नवजीवन प्राप्त हुआ है, उन चौधरी सर छोटूराम के लिए जीवेम शरदः शतम् की प्रार्थना भगवान् से करते हैं। कुंवर यतीन्द्र कुमार, मन्त्री, अ० भा० गुर्जर महासभा, लंढौरा हाउस, सहारनपुर।

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9.
इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस समय उत्तर भारत के किसान में जो जागृति है, उसका प्रकाश-स्तम्भ चौधरी सर छोटूराम साहब हैं। किसी भी संकट के समय वे सब उनकी ओर आशाभरी दृष्टि से देखते हैं। बलदेव राम मिर्धा, अध्यक्ष, किसान सभा, जोधपुर।
10.
पंजाब के प्रधानमन्त्री सर सिकन्दर हयात खां ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था - “सर चौधरी छोटूराम जी पंजाब में उन महापुरुषों में हैं जो युगों के बाद कोई नवीन परिवर्तन लाने और सुन्दर भविष्य की रचना करने के लिए आया करते हैं। चौ० सर छोटूराम न केवल जाट और जमींदारों के उद्धारक हैं बल्कि समस्त पंजाब और भारत के सच्चे सपूत हैं। वे एक महान् नेता हैं, उन जैसी नेतृत्व शक्ति बिरले ही नेताओं में पाई जाती है। जब जिस तरह की आवश्यकता हो, भगवान् अवतार भेजा करते हैं। आर्थिक सन्तुलन के लिए भगवान् ने छोटूराम जी को अवतार के रूप में हमारे बीच भेजा है। अब कई शताब्दियों तक हमें अवतार की जरूरत नहीं है। हमारी अनेकों पीढ़ियां इन्हें अपने ‘मसीहा’ के तौर पर याद रखेंगी, इनके उपकारों से उपकृत रहेंगी तथा इनके सिद्धान्तों पर चलकर सुखी रहेंगी। एक दिन चौ० सर छोटूराम नहीं रहेंगे किन्तु उनका नाम और सिद्धान्त बहुत समय तक अमर रहेगा।”
11.
चौधरी सर छोटूराम जी के भाषण का सारांश निम्नलिखित है -
मैं देहाती वायुमण्डल में उत्पन्न हुआ और पला, इसलिए मुझे देहाती लोगों के अभाव, सन्तापों, कष्टों, कठिनाइयों एवं दीन स्थिति का पूरा-पूरा साक्षात् अनुभव है। इसी अनुभव ने मेरे सारे जीवन तथा मानसिक व नैतिक प्रवृत्तियों को प्रभावित किया है। आपने एक श्लोक बताया जिसका भाव यह है कि “इस परिवर्तनशील संसार में मर कर जन्म तो सभी लेते हैं, परन्तु जन्म उसी का सार्थक है जिसके जन्म लेने से उसका वंश उन्नति को प्राप्त हो।”
यह श्लोक मानो मेरे जीवन का एक मन्त्र बन गया जिससे मेरे हृदय में अपनी जाति को शिक्षा, सामाजिक सम्मान, आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से सम्मुन्नत करने की उत्कृष्ट अभिलाषा पैदा हो गई। मैंने सोचा कि पंजाब में धर्म और जाति के भेदभाव को छोड़कर सब जमींदार लोगों को एकसूत्र में बांधकर उनकी उन्नति का मार्ग उत्तम किया जाये। मैं एक कट्टर आर्यसमाजी एवं कांग्रेस का सक्रिय कार्यकर्त्ता भी था। कांग्रेस का असहयोग आन्दोलन जमींदारों का शोषण करने वाला था। अतः मैंने जमींदारों के हितों की रक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने किसानों की उन्नति की समस्या का समाधान ढूंढ लिया जो निम्न प्रकार के हैं -
1. धर्म को राजनीति से बिलकुल अलग रखा जाये। राजनीति और राजनैतिक संगठन विशुद्ध आर्थिक हितों के आधार पर चलाये जायें।
2. निर्बलों की सेवा, शोषितों की रक्षा और गिरे हुओं को उठाना ही मेरी समझ में मानवीय

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कर्त्तव्य का वास्तविक तत्त्व है। हमारे देश में कृषक जातियों की संख्या 85 प्रतिशत से अधिक है और आश्चर्य यह है कि वे ही सबसे अधिक क्रूरतापूर्वक पीड़ित और शोषित हैं। कम से कम पंजाब में तो इस समय ऐसी स्थिति है कि उन्हें एक शक्तिशाली रूप में इस आर्थिक शोषण एवं सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लोहा लेने को खड़ा किया जा सकता है। पंजाब में सफलता मिलने पर इसी नीति एवं कार्यक्रम को शेष सारे भारत में फैलाया जा सकता है। इस प्रकार संगठित किए हुए खेतीपेशा लोग समस्त शोषित एवं दलित जातियों के अग्रगामी युद्ध का काम करेंगे। कृषक जातियों का यह संगठन धार्मिक दृष्टि से ऊपर से तो एक फिरकाबन्दी सी दिखाई देता है, परन्तु वस्तुतः यह एक संगठित राष्ट्रवाद का प्रयोजन पूरा करेगा, क्योंकि मेरी यह मान्यता है कि समान आर्थिक आधार पर कृषक जातियों का भाईचारा ही वास्तविक राष्ट्र है। मेरी राजनीति का मुख्य आधार आर्थिक है। हमारे राष्ट्र को सबसे अधिक कमजोर करने वाला रोग साम्प्रदायिकता है। इसने राष्ट्रोन्नति के सब विचारों तथा कार्यों को पीछे धकेल दिया है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस रोग की रामबाण औषधि यह आर्थिक हितों के आधार पर किया गया कृषकों का संगठन ही है। इसका सबसे प्रबल प्रमाण तब मिला जबकि हमारी सरकार द्वारा जमींदारों के हितों की रक्षा के लिये बनाये कुछ कानूनों का विरोध करते हुए शहरों में व्यापक हड़तालें हुईं। इन हड़तालों में धर्म एवं जाति का भेद भुलाकर सभी व्यापारियॊं ने एक जैसे उत्साह से भाग लिया। यदि इसी प्रकार सब खेतीपेशा लोग अपने हितों के कार्यों में एकत्र होकर सहयोग दें तो फिर क्यों शोर मचाया जाता है? हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान व्यापारी एक साथ मिलकर काम करें तो भी उनकी असम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रवादिता अक्षुण्ण रहती है और खेतीपेशा लोग इकट्ठे हो जायें तो वे साम्प्रदायिक और राष्ट्रद्रोही पुकारे जाते हैं। यह एक विशिष्ट प्रकार की और विशिष्ट स्वार्थों की प्रवृत्ति है, जिसका हमें सामना करना है और उत्तर देना है। मैंने इस पवित्र कार्य के लिए अपना जीवन लगाया है।
अन्त में उन्होंने फिर वही अपनी जिह्वा पर चढ़ कवि इकबाल का पद्य बोला -
खुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तकदीर से पहले
खुद बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है!

पाठक समझ गये होंगे कि चौ० सर छोटूराम ने धर्म और साम्प्रदायिकता से अलग रहकर आर्थिक आधार पर पंजाब के किसानों व मजदूरों का संगठन बनाया और उनकी चहुंमुखी उन्नति की। उनका लक्ष्य पंजाब के देहातियों को हर तरह से उन्नत करके फिर पूरे भारतवर्ष में ऐसा ही करने का था। वे संयुक्त भारत की स्वतन्त्रता चाहते थे और स्वतन्त्र भारत में किसान-मजदूर शासन चाहते थे।

अकाली दल द्वारा पेश की गई योजना का विरोध

चौ० सर छोटूराम ने अकाली दल द्वारा पेश की गई आजाद पंजाब योजना का विरोध किया। इस योजना द्वारा अम्बाला, जालन्धर और लाहौर डिवीजन को मिलाकर आजाद पंजाब बनाने की मांग की गई थी। इस योजना के विरोध में आपने यह कहा था कि यदि मेरा बस चलेगा तो देश का विभाजन नहीं होने दूंगा।

सर सिकन्दर हयात खां की मृत्यु

पंजाब के प्रधानमंत्री सर फजले हुसैन का स्वर्गवास जुलाई 1936 में हो गया था। उनके बाद


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जमींदार लीग ने भारी सफलता प्राप्त की और अपनी वजारत बनाई, जिसके नेता (प्रधानमन्त्री) सर सिकन्दर हयात खां बनाये गये। उनका 26 दिसम्बर सन् 1942 को अचानक देहान्त हो गया। अंग्रेज अफसरों ने समझा कि अब यूनियनिस्ट पार्टी बिखर जायेगी और पंजाब में मुस्लिम लीग की सरकार बन जायेगी। किन्तु अब भी यूनियनिस्ट पार्टी की ही सरकार बनी। इस सरकार का प्रधानमन्त्री चौ० छोटूराम का रक्त भतीजा मेजर सर खिजर हयात खां तिवाना बनाया गया। सर सिकन्दर की सरकार में खिजर साहब निर्माण मन्त्री थे, अब प्रधानमन्त्री हो गये।

नोट - मेजर खिजर गठवाला मलिक गोत्र के जाट मुसलमान थे। वे चौ० छोटूराम को चाचा कहा करते थे।

चौ० सर छोटूराम को रहबरे आजम का सत्कार

मि० जिन्ना को भारतवर्ष के मुसलमानों ने अपना नेता मान लिया था और ब्रिटिश सरकार पाकिस्तान बनाने के लिए उसकी कमर थपका रही थी। यह साफ नजर आ रहा था कि पंजाब के अतिरिक्त कोई दूसरा प्रान्त अलग मुस्लिम राज्य नहीं बन सकता। अतः जिन्ना ने पंजाब से यूनियनिस्ट पार्टी के शासन को समाप्त करके मुस्लिम लीग का राज्य बनाने की ठानी। वह अप्रैल 1944 को इस उद्देश्य से लाहौर पहुंचा। परन्तु वहां उसकी दाल सर छोटूराम ने न गलने दी और उसे 24 घण्टे के अन्दर पंजाब से बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। अतः 24 मार्च 1944 को जिन्ना को कान पकड़कर पंजाब से बाहर निकाल दिया। किसान व मजदूर सर छोटूराम को दिल से अपना नेता मान चुके थे। इस घटना के बाद किसानों की एक विशाल सभा लायलपुर में स्थापित हुई, जिसमें प्रधानमंत्री खिजर हयात, सर छोटूराम तथा उनका मन्त्रिमण्डल उपस्थित था। सर छोटूराम ने जिन्ना को पंजाब में मुस्लिम लीग का राज्य स्थापित न होने दिया, इस खुशी में वहां उस विशाल जनसभा के मुसलमानों ने चौ० छोटूराम को रहबरे आजम का खिताब देकर उनका सत्कार किया और यही शब्द बोलकर उनके सम्मान में नारे लगाये।

यह खिताब चौ० साहब को, जिन्ना को कायदे आजम मुस्लिम लीग द्वारा कहे जाने के मुकाबिले में दिया गया था। पंजाब के किसान व मजदूर तो आमतौर पर सर छोटूराम को ‘छोटा राम’ कहा करते थे।

सर छोटूराम की लार्ड वेवल को चुनौती, जिन्ना से टक्कार, अखण्ड भारत की आजादी, महात्मा गांधी को एक ऐतिहासिक पत्र आदि का वर्णन, इसी दशम अध्याय के आरम्भ में, “चौ० छोटूराम एक सच्चे देशभक्त तथा अंग्रेज सरकार के विरोधी” प्रकरण में कर दिया गया है। अतः दोबारा लिखने की आवश्यकता नहीं है।

दीनबन्धु चौ० सर छोटूराम प्रभु की गोद में

भाखड़ा बांध योजना चौ० सर छोटूराम के दिमाग की ही उपज थी। उन्होंने चीफ इंजीनियर के साथ भाखड़ा बांध स्थल का निरीक्षण करके अन्तिम रूप देकर पंजाब असेम्बली से पास करवा लिया था। भाखड़ा बांध जहां बना है, सतलुज नदी का यह नाका तो पंजाब की सीमा में है, शेष 60 मील लम्बी सारी झील जो आज गोविन्द सागर के नाम से विख्यात है, बिलासपुर रियासत की सीमा में थी। चौधरी साहब ने महाराजा बिलासपुर से समझौता किया कि उनकी जितनी भूमि गोविन्द


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सागर में आयेगी उतनी भूमि उन्हें नीलीबार (पंजाब) में दे दी जाएगी। सिन्ध की कुछ नहरें सतलुज नदी के पानी के भरोसे पर ही बरसात में चलती थीं। उन्हें कामचलाऊ बनाने के लिए 6 करोड़ रुपये की लागत आंकी गई। चौ० साहब ने यह 6 करोड़ रुपया सिन्ध को दिलाकर यह अड़चन भी दूर कर दी। बताया जाता है कि मृत्युशय्या पर पड़े हुए ही चौधरी साहब ने अपने देहान्त से कुछ ही दिन पहले इस सारी योजना की अन्तिम स्वीकृति नियमपूर्वक करा दी थी और एक इंजीनियर को इसी हेतु अमेरिका भेज दिया था। अब भी भाखड़ा बांध देखने जाने वाले लोगों के समक्ष पंजाब सरकार के इंजीनियर बड़ी श्रद्धा से इस योजना के प्रवर्तक चौ० सर छोटूराम जी की यशोगाथा कहते हैं।

चौधरी सर छोटूराम ने 8 जनवरी 1945 को ‘शक्ति भवन’ लाहौर में बतौर राजस्व मन्त्री भाखड़ा बांध योजना पर अपने हस्ताक्षर कर दिए, जो उनके अन्तिम हस्ताक्षर सिद्ध हुए।

मुस्लिम लीग को दबाने के लिये चौ० सर छोटूराम दिन-रात घोर परिश्रम करते थे और अपने तूफानी दौरे दूर-दूर तक करते थे। नवम्बर सन् 1944 के आरम्भ की बात है कि वे झंग की एक सभा में बुखार चढ़े रहने पर भी लगातार तीन घण्टे तक बोले। बस यह उनका अन्तिम सार्वजनिक भाषण था।

बुखार तथा पेट दर्द की बीमारी ने भारी आक्रमण कर दिया और इस क्रूर रोग ने उनके फौलादी शरीर को जर्जर कर दिया। झंग से वे शाम को लाहौर आये। उनकी बीमारी बढ़ती ही गई। उनके पारिवारिक चिकित्सक डाक्टर नंदलाल जी को रोहतक से बुलाया गया। खिजर महोदय भी उनके पास पहूंच गये और उन्होंने लाहौर के अच्छे-अच्छे डाक्टरों को इलाज के लिये नियुक्त किया।

11 नवम्बर को यह स्पष्ट हो गया कि चौधरी साहब भयंकर रोग से आक्रान्त हैं। उनको तीक्ष्ण हृदय रोग हो गया। साथ ही मलेरिया और पेचिश भी शुरु हो गये। 17 व 24 नवम्बर को फिर आक्रमण हुआ। परन्तु इस भयंकर बीमारी में भी आपने पूर्ण रूप से काम बन्द न रखा। 4 दिसम्बर 1944 को पंजाब असेम्बली का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। चौधरी साहब उसमें भाग लेने के लिये बहुत उत्सुक थे। परन्तु डाक्टरों ने उन्हें पूर्ण विश्राम करने की सलाह दी। चौधरी साहब को प्रसन्नता तब हुई जब उनको 7 दिसम्बर 1944 को बताया गया कि अविश्वास के प्रस्ताव पर असेम्बली में यूनियनिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग को हरा दिया है।

8 जनवरी 1945 को दोपहर बाद चौ० साहब ने यह इच्छा प्रगट की, उनको कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दिया जाए। सब डाक्टरों और अन्य सभी को अपने कमरे से हटा दिया। पंजाब से मुस्लिम लीग को मार भगाने के लिए जो तीव्र इच्छा उनके दिल में थी, उसे पूरा करने के लिए वे जल्दी से जल्दी स्वस्थ होना चाहते थे। अतः उन्होंने उठने का प्रयत्न किया जिससे वे गिर पड़े। आध घण्टे के बाद डाक्टर नन्दलाल उनके कमरे में प्रविष्ट हुए तो देखा कि चौधरी साहब पसीने में लथपथ पड़े हैं और बहुत थके मालूम होते हैं। उस दिन का संकट टल गया। अगले दिन 9 जनवरी 1945 को वे सदा की भांति उठे, हाथ-मुंह धोकर अखबार पढ़े, मिलने वालों के साथ बातें भी करते रहे। परन्तु 10 बजे उनको हृदय में पीड़ा होने लगी और गला घुटने लगा। प्रधान मन्त्री सर खिजर हयात खां को बुला लिया गया। डा० नन्दलाल ने जान लिया कि चौधरी


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साहब का अन्त आ गया है। प्राण त्यागते समय चौधरी साहब ने भुजायें फैलाकर खिजर हयात खां का आलिंगन किया और धीरे-धीरे कहा “हम तो चलते हैं, भगवान् सब की सहायता करे।” हिन्दू-मुसलमान एकता की यह सच्ची तस्वीर थी। ‘शक्ति भवन’ सूना हो गया। पंजाब एवं भारत सूना हो गया। चौधरी साहब की दोनों पुत्री भगवानी, रामप्यारी तथा माई जी रो रहीं थीं। भतीजा लछमन बेहोश हो गया। खिजर साहब की आंखों से आंसुओं की धार बह निकली। चौधरी साहब के स्वर्गवास की सूचना सुनकर हजारों लोग जिनमें हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान, ईसाई सब थे, ‘शक्ति भवन’ पहुंच गये। सब ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और सभी का यह कहना था, “ऐसा लीडर अब नहीं होना”। पंजाब के गवर्नर ग्लैंसी ने हैट उतारकर श्रद्धांजलि दी। सब ने फूल चढ़ाए। लाहौर नगर द्रवित हो उठा और सारा पंजाब शोकसागर में डूब गया। सरकारी झण्डे झुका दिए गये। सब की जबान पर यही शब्द थे कि सर छोटूराम पंजाब की नैया मंझधार में छोड़ कर चले गये। गायत्री मन्त्र के उच्चारण के साथ हल-तलवार के निशान वाले झण्डे में लिपटा हुआ उनका शरीर कमरे से बाहर निकाल कर कार में स्थापित किया। सैनिकों ने बन्दूकें उल्टी झुकाकर सलामी दी। मृत शरीर ‘शक्ति भवन’ से ‘प्रेम निवास’ रोहतक लाया गया। हजारों स्त्री-पुरुष फूट-फूट कर रोने लगे। सभी ने उनके पैर छूकर तथा उनके सामने नतमस्तक होकर अपनी श्रद्धांजलि भेंट की। ‘प्रेम निवास’ में जिला रोहतक कांग्रेस कमेटी की ओर से पं० श्रीराम शर्मा ने तिरंगा झण्डा पेश किया जो हल-तलवार वाले झण्डे पर लपेटा गया।

पंजाब के गवर्नर ग्लैंसी तथा प्रधान मन्त्री श्री खिजर हयात खां के साथ सभी मन्त्री शव के साथ लाहौर से रोहतक आए थे। इनके अतिरिक्त पंजाब के अन्य भी अनेक गणमान्य नेता इस अवसर पर सम्मिलित हुए। चौ० सर छोटूराम का दाहसंस्कार जाट हीरोज़ मेमोरियल हाई स्कूल रोह्तक की सेठ चौ० छाजूराम बिल्डिंग के सामने किया गया। प्रेम निवास से जाट हाई स्कूल तक जलूस के तौर पर उनके शव को ले जाया गया। जलूस का अगला सिरा जाट हाई स्कूल में पहुंच गया था जबकि पिछला सिरा ‘प्रेम निवास’ में ही था। दाह कर्म में 15000 से अधिक स्त्री-पुरुष उपस्थित थे1 जिनमें सब जाति के लोग शामिल थे। सब अपने-अपने सामर्थ्य अनुसार घी लाये थे। देहाती लोग इन शब्दों में अपनी भक्ति प्रकट कर रहे थे कि “हमारा राजा मर गया।”

खिजर ने अपने चाचा को रेशमी दुशाला उढ़ाया था। शव को चिता पर रखा गया और अग्नि देवता की भेंट कर दिया गया। उनका दाह संस्कार एक वेदी बनाकर वैदिक रीति से चन्दन तथा अन्य पवित्र काष्ठ समिधाओं की चिता बनाकर किया गया जिसमें वेद मन्त्रों से पंडितों ने घी और सामग्री की आहुतियां देकर इस संस्कार को सम्पन्न किया। लगभग 5 मन घी और कई मन चन्दन तथा अन्य काष्ठ समिधाओं से उस महापुरुष के शरीर को भस्मीभूत किया गया। 11 बजे प्रातः दाहकर्म की आहुतियां पड़नी आरम्भ हुईं और 5 बजे तक निरन्तर 6 घण्टे घृत की आहुतियां पड़ती रहीं। मन्दिरों, गुरुद्वारों तथा मस्जिदों में शोक मनाया गया।

21 जनवरी 1945 को 12 बजे जाट हाई स्कूल के विशाल मैदान में सर खिजर हयात की अध्यक्षता में ‘तेहरामी’ हुई। आंखों को पोंछते हुए पंजाब के प्रीमियर खिजर ने कहा कि “पंजाब


1. दाह संस्कार शुरु होने के बाद सायंकाल तक आने वालों का तांता लगा रहा। इस अवसर पर लाखों नर-नारी आये थे।


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से सबसे बड़ा आदमी चला गया। मैं उन्हें ‘चाचा’ कहता था। मैं उनके बताए हुए रास्ते पर चलता रहूंगा।”

आधार पुस्तकें - 1. चौ० छोटूराम जीवन चरित लेखक रघुवीरसिंह शास्त्री। 2. दीनबन्धु चौधरी सर छोटूराम जीवन चरित, लेखक प्रो० हरीसिंह खेड़ी जट, रोहतक। 3. गौरव-गाथा (प्रथम पुष्प) सम्पादक डा० नत्थनसिंह। 4. जाटों का उत्कर्ष, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री। 5. बेचारा किसान - सम्पादक के० सी० यादव। जाट गजट - अनेक स्मारिकायें तथा समाचार पत्रों के लेख।

चौ० सर छोटूराम की यादगार में स्मारक (Memorials)

To commemorate the memory of this great son of India several colleges, institutes, places, trust, mission, scholarship society, academic chairs, memorial lectures etc. have been started on the name of Sir Chhotu Ram. Important memorials are:

  1. Chhotu Ram College of Education, Rohtak.
  2. Chhotu Ram Polytechnic, Rohtak.
  3. Chhotu Ram Trust (Chhotu Ram Park), Rohtak.
  4. Chhotu Ram Kisan College, Jind.
  5. Ch. Chhotu Ram Mission, Kheri Jat, Rohtak.
  6. Ch. Chhotu Ram (CCR) Post-graduate College, Muzaffarnagar (U.P.).
  7. Ch. Chhotu Ram Memorial Museum, Gram Uthan Vidya Peeth, Sangaria, distt. Ganganagar (Rajasthan).
  8. Chhotu Ram Scholarship Society, Chandigarh.
  9. Chhotu Ram College of Engineering, Murthal, Distt. Sonepat.
  10. Chhotu Ram Rural Institute of Engineering and Technology, Kanjhawala, New Delhi.
  11. Chhotu Ram Arya College, Sonepat.

Haryana Government created Sir Chhotu Ram Chair (Professor of Eminence in Agri. Economics) in H.A.U. Hissar on his birthcentenary.

Sh. L.D. Kataria, I.A.S., Vice Chancellor, H.A.U. Hissar, instituted Sir Chhotu Ram Memorial Lecture, an annual series of Rural Development in 1985, and an annual award in the name of Sir Chhotu Ram for the outstanding work on rural development.


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चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरणसिंह

चौ० चरणसिंह बड़े बुद्धिमान्, विद्वान्, अर्थशास्त्रज्ञ, प्रवीण राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, कर्मयोगी, निडर एवं ईमानदार, निपुण कार्यकर्त्ता, सिद्धान्तों के धनी, स्वाभिमानी, सत्य के पुजारी, भ्रष्टाचार व अन्याय के विरोधी, सरदार पटेल की भांति लोहपुरुष, महर्षि दयानन्द सरस्वती के धार्मिक शिष्य, सच्चे गांधीवादी, भारतवर्ष के किसानों के वास्तविक नेता तथा मजदूरों व गरीबों के मसीहा, महान् देशभक्त एवं भारत माता के सच्चे सपूत थे। वे अपने देश की भलाई में रुचि रखते थे और उनकी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति श्रद्धा थी। बड़े-बड़े पदों पर रहते हुए भी सरकारी साधनों के व्यक्तिगत प्रयोग के कट्टर दुश्मन रहे। सरकारी विभागों में खर्च की कमी को व्यावहारिक रूप देते रहे, पूंजीपतियों से चन्दा लेने के पक्ष में कभी नहीं रहे। मार्क्सवादी न होते हुए भी मार्क्स के इस कथन के समर्थक रहे कि पूंजी के साथ प्रभाव भी ग्रहण करना पड़ता है। अतः चुनाव प्रचार के लिए धन का अभाव होते हुए भी मिल मालिकों से चन्दा लेने के विरोधी रहे। सिम्पिल लिविंग और हाई थिंकिंग के साक्षात् अवतार, गृहमन्त्री एवं प्रधानमंत्री होते हुए भी अपने बंगले में भी एक कमरे में कालीन बिछाकर बैठते और सामने छोटी मेज रखकर लिखते थे। चौधरी साहब एक साधारण ग्रामीण की भांति खद्दर की धोती, कुर्ता, सिर पर गांधी टोपी और सादी जूती पहनते थे।

चौधरी चरणसिंह जी का वंश परिचय

राजा नाहरसिंह, बल्लबगढ़

चन्द्रवंश में शिवि गोत्र वैदिक कालीन जाट गोत्र है। इसी शिवि गोत्र के जाट भटिण्डा क्षेत्र में आबाद थे। इसी शिवि गोत्र का एक जाट सरदार गोपालसिंह जो कि भटिंडा के निकट गांव तिब्बत (तिरपत) के रहने वाले थे, अपने वंशजों के साथ वहां से चलकर सन् 1705 में बल्लबगढ़ के उत्तर में 3 मील की दूरी पर Sihi गांव में आकर आबाद हो गया। सरदार गोपालसिंह अपनी शक्ति के बल पर बल्लभगढ़ को अपनी राजधानी बनाकर उस क्षेत्र का राजा बन बैठा। राजा गोपालसिंह तथा उसके वंशजों ने यहां आकर अपने शिवि गोत्र के स्थान पर अपने को तिब्बत (तिरपत) गांव के नाम पर तेवतिया प्रसिद्ध कर दिया। फरीदाबाद में उस समय मुग़लों की ओर से मुर्तिज़ा खां हाकिम था। उसने भयभीत होकर गोपालसिंह को फरीदाबाद परगने का चौधरी बना दिया। राजा गोपालसिंह की मृत्यु होने के बाद उसका पुत्र चरनदास इस रियासत का राजा बना और फिर उसका पुत्र बलराम, महाराजा सूरजमल भरतपुर नरेश की सहायता से बल्लबगढ़ परगने का शासक हुआ। यह घटना सन् 1747 ई० की है। बलराम ने बल्लबगढ़ में एक सुदृढ़ किला बनाया और अपने राज्य की शक्ति को बढ़ाया। उसी राजा बलराम के नाम से यह बल्लबगढ़ प्रसिद्ध हुआ। 29 नवम्बर, 1753 में राजा बलराम तेवतिया की मृत्यु हो गई। महाराजा सूरजमल ने उसके पुत्र बिशनसिंह और किशनसिंह को बल्लबगढ़ का शासक बना दिया। वे 1774 तक यहां पर शासक रहे। इसी वंश में वीर योद्धा राजा नाहरसिंह बल्लबगढ़ का नरेश हुआ। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध, जो अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया, के समय राजा नाहरसिंह की शक्तिशाली सेना ने दिल्ली के दक्षिण तथा पूर्व की ओर से अंग्रेजी सेना को दिल्ली में प्रवेश नहीं होने दिया। अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। इस पर अंग्रेज सेनापति ने भी कहा “दिल्ली के दक्षिण पूर्वी भाग में राजा नाहरसिंह की जाट सेना के मोर्चे लोहगढ़ हैं, जिनको तोड़ना असम्भव है।” अंग्रेजों ने इस वीर योद्धा राजा नाहरसिंह को


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धोखे से पकड़ लिया और चांदनी चौक में फांसी पर लटका दिया। (पूरी जानकारी के लिए देखो, सप्तम अध्याय, सन् 1858 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में जाटों का योगदान, प्रकरण।)

राजा नाहरसिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने बल्लबगढ़ पर अधिकार कर लिया और यहां से तेवतिया जाटों का राज्य समाप्त कर दिया। बल्लबगढ़ से जाकर तेवतिया जाटों ने भटौना गांव में भटौना नाम की एक नई रियासत की स्थापना की। यह भटौना गांव जिला बुलन्दशहर में है। इस भटौना से तेवतिया जाटों ने चारों ओर जाकर अपनी वंश वृद्धि की। अब ये जाट तेवतिया के साथ भटौनिया नाम से कहे जाते हैं। क्योंकि इनके 60-70 गांव भटौना गांव से निकल कर बसे थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो, नवम अध्याय, तेवतिया/भटौनिया जाटों का बल्लबगढ़ एवं भटौना राज्य, प्रकरण)।

चौधरी चरणसिंह के पिता श्री मीरसिंह और माता श्रीमती नेत्रकौर

चौधरी चरणसिंह के दादाजी बदामसिंह इसी तेवतिया जाट राज्य घराने के थे जो भटौना गांव में बसे थे। इनका परिवार भटौना में कई वर्ष तक रहा। चौ० बदामसिंह के पांच पुत्र थे जिनके नाम - लखपतिसिंह सब से बड़ा, बूटासिंह, गोपालसिंह, रघुवीरसिंह और मीरसिंह सबसे छोटा था। चौ० मीरसिंह अपने परिवार वालों के साथ भटौना से नूरपुर गांव जिला मेरठ में जाकर आबाद हो गया। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष की थी। इसी गांव नूरपुर में 23 दिसम्बर 1902 को चौ० मीरसिंह के यहां एक नूर का जन्म हुआ जिसका नाम चरणसिंह रखा गया1। चौ० मीरसिंह एक गरीब किसान था, जो मकान बनाने में असमर्थ होने के कारण एक छप्पर में रहता था। जब बालक चरणसिंह की आयु 6 वर्ष की थी तब उनके पिता चौ० मीरसिंह को गांव भूपगढ़ी जिला मेरठ में जाना पड़ा। यहां पर चौ० मीरसिंह के यहां चार बच्चे और हुए जिनके नाम - श्यामसिंह, मानसिंह, पुत्री रामदेवी और रिसालकौर थे। ये चौ० चरणसिंह के दो भाई और दो बहनें थीं। इन बच्चों के जन्म के बाद चौ० मीरसिंह को पुनः स्थान बदलना पड़ा और वे अपने परिवार के साथ मेरठ के ही ग्राम भदौला में आ बसे। यह चौ० मीरसिंह की अन्तिम निवास यात्रा थी। इसी गांव भदौला में चौ० मीरसिंह के भाई आबाद थे, वे इनके साथ मिलकर रहने लगे।

चौ० मीरसिंह के पास इस गांव में केवल 15 एकड़ जमीन (मेरठ के एक सौ बीघे) थी, जिसमें से 5 एकड़ जमीन चौ० मीरसिंह के हिस्से में आती थी। यह सामान्य किसान परिवार में पले। अतः गरीबी को और ग्रामीण किसान जीवन को निकट से परखा। बाल्यकाल से पिता के साथ खेती में कार्य किया अतः मिट्टी में लिपटे हाथ और पसीने की कीमत भलीभांति पहचानी।

चौधरी चरणसिंह की शिक्षा प्राप्ति

चौ० चरणसिंह के ताऊ जी लखपतिसिंह इनसे बहुत प्यार रखते थे। अतः इन्होंने ही चौ० चरणसिंह की उच्च शिक्षा का सब खर्च अपने पास से दिया। इनके गांव में स्कूल न होने के कारण इनको निकट के गांव जानी के स्कूल में दाखिल करवा दिया। प्रतिदिन घर जाते तथा कृषि कार्यों में पिताजी के साथ हाथ बंटाते। उस स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पास करने पर चौ० चरणसिंह को गवर्नमेन्ट कालिज मेरठ में दाखिल कराया गया। आपने वहां से 1919 में मैट्रिक तथा 1921 में इण्टर की


1. चौ० चरणसिंह की माता जी का नाम श्रीमती नेत्रीदेवी था।


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परीक्षा पास की। सन् 1923 में आगरा कॉलिज से बी० एस० सी० तथा 1925 में एम० ए० (इतिहास) की उपाधि प्राप्त की। तथा एल० एल० बी० की सन् 1926 में उपाधि प्राप्त की।

चौ० चरणसिंह को गरीबों और किसानों के उत्थान एवं उन्नति का ध्यान सदा रहता था। अतः इसी हेतु उन्होंने सन् 1928 में गाजियाबाद में वकालत आरम्भ कर दी। यहां पर आपने किसानों के मुकदमों के फैसले कराये, उनको आपस में लड़ाई झगड़ा न करने और झगड़ों को आपसी बातचीत तथा पंचायती तौर से सुलझाने की शिक्षा दी। उनका किसानहित की दिशा में यह पहला कदम था। यही कार्य चौ० सर छोटूराम जी ने पंजाब में करके किसानों को समृद्ध बनाया।

चौ० चरणसिंह का विवाह व सन्तान

चौधरी चरणसिंह और पत्नी श्रीमती गायत्रीदेवी

हरयाणा प्रान्त के जिला सोनीपत में ग्राम कुण्डलगढ़ी में एक प्रतिष्ठित जटराणा गोत्र के जाट परिवार में चौ० गंगारामजी की पुत्री गायत्री देवी के साथ, 4 जून 1925 को, जब वह एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे, चौ० चरणसिंह का विवाह कर दिया गया। श्रीमती गायत्री देवी जालन्धर कन्या विद्यालय की मैट्रिक पास अत्यन्त मृदुभाषी, सुशील और चतुर महिला है। वह चौ० चरणसिंह के गांव में रहकर परिवार का कृषि आदि का प्रत्येक कार्य देखती रही। पढ़े लिखेपन का बनावटीपन उनमें लेशमात्र भी नहीं है। ग्रामीण किसानों की हर समस्या को सुनना और उनके उचित निराकरण का प्रयास करना उनके स्वभाव में निहित है। जब देश के कोने-कोने से आये दल के कार्यकर्त्ता चौधरी साहब से मुलाकात नहीं कर पाते या किसी कारण निराश होकर जाते तो मात्र माताजी गायत्री देवी ही उनकी आशा का केन्द्र होती थी। वह अब तक भी कार्यकर्त्ताओं के बीच घिरी देखी जा सकती हैं। वह अनेकों की समस्याओं को सुलझाती हैं और अनेकों को धैर्य व साहस का पाठ पढ़ाती हैं।

माताजी अपने जीवन में दो बार विधान सभा की सदस्या क्रमशः ईंगलास (जिला अलीगढ़]] और गोकुल (जिला मथुरा) से चुनी गयीं। फिर कैराना (मुजफ्फरनगर) से लोकसभा की सदस्या चुनी गई।

श्रीमती गायत्री देवी ने चौधरी चरणसिंह को ऊंचे पद तक पहुंचाने में अपना आवश्यक योगदान दिया। जीवन के साथी होने के नाते वह अपने पति को प्रामाणिक आवश्यकता पड़ने पर सूचित करती थीं। दो अवसरों पर गायत्री देवी ने चौधरी साहब पर उचित समय पर, उचित निर्णय लेने के लिए, अपना प्रभाव डाला। पहला, जब सन् 1965 में चौ० साहब ने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दिया। दूसरे, जब वे देसाई सरकार में वरिष्ठ उपप्रधानमन्त्री एवं आर्थिक (Finance) मन्त्री थे, देसाई सरकार से त्यागपत्र दिया। गायत्री देवी केवल चौधरी साहब की भक्तिपूर्वक पत्नी ही न थी बल्कि उनके प्रधानमन्त्री कार्यों में अपना बड़ा सहयोग प्रदान किया। उसने सदा अपने पति के स्वास्थ्य का ध्यान रखा।

यदि चौधरी चरणसिंह और गायत्री देवी की तुलना महाराजा सूरजमलमहारानी किशोरी से की जाए तो उचित होगा।

श्रीमती गायत्री देवी ने अपनी कोख से चौ० चरणसिंह के घर पांच पुत्रियों और एक पुत्र को जन्म दिया जो सभी शादीशुदा हैं। चौ० चरणसिंह ने अपने आर्यसमाजी सिद्धान्तों के अनुसार अपनी दो पुत्रियों की अन्तर्जातीय शादी कराकर आर्यसमाजी कट्टरपन का परिचय दिया है। स्वयं


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को कभी जातिवाद के घेरे में कैद नहीं किया और अपनी ईमानदारी और नेकनीयती के समक्ष जाति या धर्म को आड़े नहीं आने दिया। यद्यपि देश के कुछ कुत्सित मनोवृत्ति के लोग और निकृष्ट प्रकार के राजनीतिज्ञ उनके ऊपर जातिवाद का आरोप थोपने का पूर्णतया निष्फल प्रयास करते रहे हैं। चौधरी साहब जब गाजियाबाद में वकालत कर रहे तो उनके घर का रसोइया एक सामान्य हरिजन था। वे कहा करते थे कि मुझे जाट जाति में जन्म लेने का गौरव है लेकिन यह मेरी इच्छा से नहीं हुआ। बल्कि ईश्वर की कृपा से हुआ है। मेरे लिए भारतवर्ष में निवास करने वाले सभी जातियों के मनुष्य एक समान हैं। चौधरी साहब को जाट परिवारों से कहीं अधिक यादव, राजपूत, लोधे, कुर्मी, गुर्जर, मुसलमान और पिछड़े वर्ग में अधिक सम्मान प्राप्त था। माताजी गायत्री देवी को सन् 1978 में यादव महासभा के अखिल भारतीय सम्मेलन बम्बई में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था। यही नहीं, अनेक ब्राह्मण एवं वैश्य परिवारों में जहां जातीय कट्टरपन नहीं है, चरणसिंह जी की एक आदर्शवादी सिद्धान्तनिष्ठ नेता और विचारशील तथा संघर्षशील, राजनैतिक व्यक्ति के रूप में मानो पूजा होती थी।

चौ० चरणसिंह की सबसे बड़ी पुत्री सत्या का विवाह एक विद्वान् प्रो० गुरुदत्तसिंह सोलंकी के साथ हुआ। वह आगरा के पास कस्बा कागारौल के मूल निवासी थे। वह खेरागढ विधान सभा क्षेत्र (जिला आगरा) से उत्तर प्रदेश विधानसभा के एम० एल० ए० चुने गये और इसी सदस्य के रूप में ही उनका मार्च 1984 ई० में निधन हो गया।

डॉ जयपाल सिंह और पत्नी वेदवती, पुत्री चौधरी चरणसिंह, 1959

दूसरी पुत्री वेद का विवाह, राम मनोहर लोहिया हस्पताल के एक योग्य डाक्टर जे० पी० सिंह के साथ हुआ। तीसरी पुत्री ज्ञान, जो मेडिकल ग्रेजुएट है, सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर जेनोआ में अपने पति के पास चली गई। वह आई० पी० एस० अफसर है। चौथी पुत्री सरोज का विवाह श्री एस० पी० वर्मा के साथ हुआ है जो कि उत्तरप्रदेश में गन्ना विभाग में अफसर है। इनका यह अन्तर्जातीय विवाह है।

अजीतसिंह

चौ० चरणसिंह का एक ही पुत्र अजीतसिंह है जिसने यन्त्रशास्त्र विश्वविद्यालय की उपाधि धारण की है। वह अमेरिका में नौकरी करते थे। वहां से त्यागपत्र देकर भारत आ गये और लोकदल के प्रमुख मन्त्री (General Secretary) चुने गये। आप लोकसभा के सदस्य भी हैं।

चौ० चरणसिंह लोकदल के अध्यक्ष थे और हेमवती नन्दन बहुगुणा उपाध्यक्ष थे। चौ० चरणसिंह की भयंकर बीमारी के समय चौ० अजीतसिंह और बहुगुणा के मध्य मतभेद हो गया जिससे लोकदल के दो धड़े हो गये। चौ० चरणसिंह के स्वर्गवास होने पर बहुगुणा को लोकदल अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु अजीतसिंह ने अपना अलग लोकदल बना लिया। इस तरह लोकदल दो भागों में विभाजित हो गया। एक का नाम लोकदल (ब) है जिसका अध्यक्ष बहुगुणा है और दूसरे का नाम लोकदल (अ) है जिसका अध्यक्ष चौ० अजीतसिंह है। चौ० अजीतसिंह किसानों का एक नेता है, विशेषकर उत्तरप्रदेश में। उनके भारत के किसानों के योग्य नेता बनने की सम्भावना है।

चौ० अजीतसिंह का विवाह राधिका से हुआ जिनके तीन बच्चे हैं।

चौ० चरणसिंह का राजनीति में प्रवेश

चौ० चरणसिंह ने सन् 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरु की और वहां से सन् 1939 में


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मेरठ आ गये। चौ० साहब सन् 1929 से 1939 तक गाजियाबाद नगर कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे और कई अन्य सेवायें भी कीं। आप सन् 1930 में गोपीनाथ ‘अमन’ के साथ नमक सत्याग्रह में शामिल हो गये और एक बड़े समुदाय का नेतृत्व करते हुये पकड़े गये। यह आपकी प्रथम जेल यात्रा थी जिसमें 6 माह की सजा हुई। जेल में रहकर आपने “मंडी बिल” व “कर्जा कानून” नामक पुस्तकें लिखीं। बाहर आने पर “भारत की गरीबी व उसका निराकरण” नामक बहुचर्चित पुस्तक लिखी। “जमींदारी नाशन कानून” जो लागू हुये, इन्हीं की देन है। उसी समय पंजाब के प्रसिद्ध माल व कृषि मन्त्री चौ० सर छोटूराम आपके सम्पर्क में आये, जिन्होंने इन पुस्तकों के अध्ययन व चरणसिंह जी से विचार मंथन किया तथा अपने मंत्रित्वकाल में कर्जा व मंडी कानून लागू किये। आप सन् 1939 में मेरठ गये और वहां जिला बोर्ड के चेयरमैन चुन लिये गये। उस समय आपने अपने ग्रामीण-क्षेत्रों की सड़कें तथा स्कूलों की हालत ठीक कराई, अनुचित भत्ता लेने वाली प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया, कार्यालय के बाबुओं को समय पर आने के लिये विवश किया और चपरासियों से निजी काम लेने की आदत को छुड़ाया। सारांश यह है कि इस काल में, किसान तथा आम आदमी का भला करना, कार्य प्रणाली में ईमानदारी तथा निष्ठा भावना का समावेश करना, आपके दो विशेष गुण रहे हैं, जिनके लिये वे हमेशा याद किए जायेंगे।

आपने सन् 1939 से 1948 तक मेरठ जिला कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष, महामन्त्री व अध्यक्ष पदों पर रहकर कार्य किया। उस समय आपकी जिले की राजनीति पर धाक थी। अतः पं० गोविन्द वल्लभ पंत के सम्पर्क में आये और उनके काफी नजदीक आ गये।

चौ० चरणसिंह ने गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता की लड़ाई प्रारम्भ की। आप द्वितीय महायुद्ध के आरम्भ में मेरठ सत्याग्रह समिति के मन्त्री चुने गये थे इसीलिए आप समस्त मण्डल के गांवों के दौरे पर निकल पड़े और किसानों को स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के लिये उत्साहित किया। 28 अक्तूबर 1940 को किसानों के एक जत्थे के साथ जिलाधीश निवास पर धरना दिया जिसमें आपको गिरफ्तार किया गया और डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा दी तथा जुर्माना किया गया।

अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन में स्वतन्त्रता प्राप्ति में सक्रिय योगदान दिया, जिसके कारण आपको 8 अगस्त 1942 में 2 वर्ष की सजा मिली और सन् 1944 में छोड़ दिया गया। सन् 1944 में चौधरी साहब के भाई श्यामसिंह व भांजे गोविन्दसिंह को बम केस में गिरफ्तार कर लिया गया। अदालत में मुकदमा चला जिसमें गोविन्दसिंह रिहा हो गया और श्यामसिंह को पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली। चौ० चरणसिंह अपने कार्य तथा लग्नशीलता एवं लोकप्रियता के कारण सन् 1936, 1946, 1952, 1957, 1962, 1968, 1974 में लगातार छपरौली से विधानसभा के लिए चुने गये। 1977 में पहली बार बागपत क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गये तथा अन्तिम समय तक इसी क्षेत्र से चुने जाते रहे। आप प्रान्तीय सरकार से लेकर केन्द्रीय सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे।

प्रान्तीय सरकार में संसदीय सचिव, सन् 1951 में सूचना तथा न्याय मन्त्री, सन् 1952 में कृषि एवं राजस्व मन्त्री, 1959 में राजस्व एवं परिवहन मंत्री, 1960 में गृह तथा कृषि मंत्री, 1962 में कृषि तथा वन मन्त्री, 1966 में स्थानीय निकाय प्रभारी रहे। किसानों के लिए खून पसीना बहाने


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वाले किसानों के ‘मसीहा’ ने कांग्रेस की किसान विरोधी नीतियों के कारण कांग्रेस से सन् 1967 में त्यागपत्र दे दिया। 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। मध्यवर्ती चुनाव के बाद पुनः सन् 1969 में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। सन् 1977 से 1978 तक केन्द्र में गृहमंत्री, वित्तमंत्री तथा वरिष्ठ उपप्रधानमंत्री रहे। 28 जुलाई 1979 को केन्द्र में आपके नेतृत्व में साझा सरकार ने शपथ ग्रहण की और इस प्रकार चौधरी साहब देश के पांचवें प्रधानमंत्री बने।

चौ० चरणसिंह किसानों के लिए पैदा हुए, उन्हीं के लिए जिये तथा अन्त में उन्हीं के लिए समर्पित हो गये। उन्होंने किसानों के लिए जमींदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार कानून बनाकर उन्हें शोषण से मुक्त कराया। सहकारी खेती का विरोध किया एवं चकबन्दी की लाभकारी योजना प्रदान की।

इन सब घटनाओं का अगले पृष्ठों पर विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

चौधरी चरणसिंह का सक्रिय राजनीतिक जीवन

सन् 1936 में जब अंग्रेजों ने परिषद् के चुनाव कराये तो चौ० चरणसिंह, खेकड़े के एक बड़े जमींदार चौधरी दलेराम, जो अंग्रेज समर्थित था, के विरुद्ध छपरौली (जिला मेरठ) चुनाव क्षेत्र से मैदान में उतरे तथा अपने विरोधी की जमानत जब्त कराकर विजयी हुये। आप इसी क्षेत्र से लगातार सन् 1977 तक 40 वर्ष उत्तर प्रदेश असेम्बली के सदस्य रहे और इस तरह से भारतवर्ष में एक रिकार्ड स्थापित किया। सन् 1936 के चुनाव में भारतवर्ष के कई प्रान्तों में कांग्रेस सरकार स्थापित हुई, किन्तु अंग्रेजों के विरोध के फलस्वरूप तमाम कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफे दे दिये।आप सन् 1936 में विधान मंडल के गैर सरकारी सदस्य के रूप से उत्तर प्रदेश के राजनैतिक रंगमंच पर उतरे। सन् 1946 में धारा सभाओं के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पं० गोविन्द वल्लभ पंत ने श्री चन्द्रभान गुप्त, सुचेता कृपलानी, लालबहादुर शास्त्री के साथ चौ० चरणसिंह को भी सचिव बनाया। चौधरी साहब सन् 1948 से 1956 तक प्रान्तीय कांग्रेस पार्टी के जनरल सेक्रेट्री रहे और 1946 से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे और 1946 से 1951 तक स्टेट पार्लियामेन्ट्री बोर्ड के सदस्य रहे। चूंकि 1950 में चरणसिंह जी अपनी समस्त योग्यताओं तथा क्षमता के बावजूद भी केवल अपनी ईमानदारी व स्वाभिमान के कारण स्थापित नहीं हो पा रहे थे, उस समय प्रदेश की राजनीति श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन तथा उनके अनुयायियों चन्द्रभानु गुप्त तथा मोहनलाल गौतम के हाथ में थी, जिनके नाम को जनता ईमानदारी के साथ भूल से भी नहीं जोड़ सकती थी, अतः चौधरी साहब की उनसे पटरी बैठाने की उम्मीद करना भी गलत था।

सन् 1951 में चौ० चरणसिंह को प्रथम बार सूचना व न्याय मंत्री के रूप में मंत्रीमण्डल में आने का अवसर प्राप्त हुआ। जब 1952 में भारतीय गणराज्य के प्रथम चुनाव हुये और नया मंत्रिमण्डल बना तो श्री पंत केन्द्र में गृहमंत्री होकर चले गए और डा० सम्पूर्णानन्द उ० प्र० के मुख्यमंत्री बनाये गये तो चौ० चरणसिंह को कृषि एवं राजस्व मंत्रालय दिया गया। किन्तु वह निर्भीक स्पष्टवादी व स्वाभिमानी होने के कारण डा० सम्पूर्णानन्द जैसे सबल अहमयुक्त व्यक्ति के कतिपय विचारों से सहमत न हो सके और कुछ समय के बाद मंत्रीमण्डल से त्यागपत्र दे दिया।

सन् 1957 में चुनाव हुए। आपके विरोध में आपके खानदानी भतीजे चौ० विजयपालसिंह


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एडवोकेट को खड़ा कर दिया गया जो जाटों के बड़े प्रिय और पुराने एम० एल० ए० थे। किन्तु विजय चौधरी जी की हुई। चन्द्रभानु गुप्त मंत्रीमण्डल में 1959 में आपको राजस्व एवं परिवहन मंत्री, 1960 में गृह तथा कृषि मंत्री मनाया गया सन् 1962 में चौ० चरणसिंह सुचेता कृपलानी मंत्रिमण्डल में कृषि तथा वन मंत्री रहे। लेकिन इसी दौरान में अपने व्यक्तित्व के कुछ गुणों के कारण जनवरी 1959 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू जी से किसानों के हित में संघर्ष कर बैठे तथा सहकारी खेती प्रस्ताव को पास न होने दिया। वापिस आकर त्यागपत्र दे दिया। लगभग डेढ़ वर्ष तक मंत्रीमण्डल से पृथक् रहे।

चौधरी चरणसिंह राज्यपाल विश्वनाथदास से मुख्य मंत्री की शपथ गृहण करते हुये, 3.4.1967

सन् 1967 में जब सारे देश में कांग्रेस का बुरा हाल हो गया तब उत्तरप्रदेश में भी मात्र बहुमत प्राप्त कर सकी थी। उसी नेता पद के चुनाव हेतु चन्द्रभानु गुप्त के विरोध में चौ० चरणसिंह मैदान में जम गये किन्तु कांग्रेस हाईकमांड के अनुरोध पर अपना नाम वापिस ले लिया, किन्तु कुछ ऐसे चेहरों को मंत्रीमण्डल में शामिल न करने की शर्त रखी जो उस समय जनता की निगाह में भ्रष्ट तथा बेईमान साबित हो चुके थे। उनमें से अधिकांश मुख्यमंत्री श्री गुप्त के दाएं-बाएं हाथ थे, अतः बाद में उन्हें मंत्रीमंडल में स्थान दिया गया और चौ० चरणसिंह की शर्त को महत्त्व न दिया। इस प्रकार स्वाभिमानी नेता ने जब यह अनुभव किया कि अब प्रदेश कांग्रेस भ्रष्टाचारियों, कालाबाजरियों और उनके चाटुकारों के हाथों की कठपुतली बनती जा रही है तथा केन्द्रीय स्तर पर भी कोई ऐसा नेता नहीं जो सत्य को सत्य कहने का साहस करे। अतः चौ० चरणसिंह ने अप्रैल 1967 में कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया। सौभाग्य से उस समय समस्त विरोधी दलों ने संगठित होकर चौधरी साहब से नेतृत्व करने का अनुरोध किया, तभी 16 अन्य वरिष्ठ कांग्रेस विधायक कांग्रेस से त्यागपत्र देकर चौधरी साहब के साथ जुड़ गये और कांग्रेस के गुप्ता मंत्रीमण्डल का पतन हो गया। चौ० चरणसिंह को प्रथम बार प्रदेश का मुख्यमंत्री 3 अप्रैल 1967 को बनाया गया। किन्तु अपने स्वाभिमान के गुणों को वह छुपा न सके और दलों की आपसी खींचातानी से तंग आकर अपना तथा मंत्रीमण्डल का त्यागपत्र राज्यपाल को 17 फरवरी 1968 को प्रस्तुत करते हुए नये चुनाव कराये जाने की सिफारिश की।

अप्रैल 1967 में ही कांग्रेस से त्यागपत्र देकर अपने एक नये दल जन कांग्रेस की स्थापना की जिसमें 16 विधायक थे। किन्तु आपकी सिफारिश पर जब 1969 में मध्यावधि चुनाव कराये गये उससे पूर्व ही आपने जन कांग्रेस से भारतीय क्रांति दल (BKD) नामक संगठन को जन्म दिया और आपकी प्रतिभा के संबल पर ही इस दल को विधान सभा में 101 स्थान प्राप्त हुए। यह उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का ज्वलंत उदाहरण था। इस समय कांग्रेस दो धड़ों ‘इण्डीकेट’ व “सिण्डीकेट” में बंट गयी और मौकापरस्त तथा पूंजीपतियों के एजेण्ट चन्द्रभानु गुप्त के अनेक अनुरोधों तथा चालों के बावजूद भी चौधरी साहब ने उनके साथ सरकार नहीं बनाई। अतः आपने इंदिरा गुट के साथ मिलकर सरकार बनाई। उस सरकार के मुख्यमंत्री तथा गृहमंत्री भी आप ही थे। अतः इंदिरा गुट के प्रदेश के नेता कमलापति त्रिपाठी के पुत्र लोकपति द्वारा एक नाबालिग हरिजन कन्या रजिया (12 वर्षीय) के साथ बलात्कार करने के बाद जब उसे कत्ल करा दिया गया और उस केस को दबाने के लिए चौधरी साहब पर दबाव डाला गया तो वह स्वाभिमानी व्यक्तित्व मंत्रीमंडल को दुत्कार कर अलग हो गये। इस प्रकार अगस्त 1970 में चौ० चरणसिंह के मुख्यमन्त्री पद से त्यागपत्र के साथ ही यह संयुक्त मंत्रीमंडल भंग हो गया।


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चौ० चरणसिंह ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन को देश से उखाड़ फेंकने का विचार किया जिससे देश का उत्थान हो सके। इसी उद्देश्य के मातहत आपने अपने राजनैतिक ध्रुवीकरण के चक्र को आगे बढ़ाया और इसी के प्रतिफलस्वरूप 29 अगस्त, 1974 को आपका स्वप्न कुछ अंशों में पूरा हुआ जब भारतीय क्रांति दल में स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा, उत्कल कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल, किसान मजदूर पार्टी तथा पंजाब खेतीबाड़ी यूनियन, इन सात दलों को मिलाकर भारतीय लोकदल नामक दल को जन्म दिया। चौधरी साहब को सर्वसम्मति से इस दल का अध्यक्ष बनाया गया तथा श्री पीलू मोदी, राजनारायण, बलराज मधोक, रामसेवक यादव, बीजू पटनायक, चौधरी देवीलाल, चौ० चांदराम, प्रकाशवीर शास्त्री, कुम्भाराम आर्य, रविराय और कर्पूरी ठाकुर जैसे जंगजू और जुझारू नेता इस दल के साथ जुड़ गये। इसके बाद चौधरी साहब विरोधी दल के नेता के रूप में विधान सभा की गरिमा बढ़ाते रहे और आपकी लोकप्रियता उत्तर प्रदेश के कोने-कोने के बाद हरयाणा, पंजाब, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, जम्मू कश्मीर से लेकर समग्र भारत में फैलती गयी और देश के किसान आपके व्यक्तित्व से जुड़ते चले गये और आप ही किसानों के सच्चे नेता माने गये।

जब गुजरात से नौजवान विद्यार्थियों ने एक आंदोलन को जन्म दिया और यह प्रलय की ज्वाला बिहार से लेकर सारे देश में फैली तो भारतीय लोकदल (भालोद) ने अपनी अग्रणी भूमिका का पालन किया। उत्तर भारत में बाबू जयप्रकाशनारायण के बाद दूसरा चौ० चरणसिंह का ही नाम था जो इस आन्दोलन में हर व्यक्ति की जबान पर था। यदि सच पूछा जाये तो आज तक के परिवर्तन के सूत्रपात करने का श्रेय मात्र भालोद और उसके नेता चौधरी चरणसिंह को ही प्राप्त है। क्योंकि यदि जब श्री चरणसिंह, राजनारायण को बल देकर राजनीति के आसन पर न बिठाते तो हाईकोर्ट में इन्दिरा का पिटीशन भी न जाता और इन्दिरा पिटीशन न हारती तो आपात स्थिति भी लागू न होती और वह लागू न होती तो जनता पार्टी के गठन के लिए परिस्थितियां पैदा न होतीं, न ही सरकार बनने की यह स्थिति पैदा होती। अतः चौधरी चरणसिंह का व्यक्तित्व और राजनारायण का कृत्य आज तक हुए परिवर्तन के जनक हैं। इसी प्रकार जनता पार्टी के गठन के लिए चौ० चरणसिंह ने अपने दल का हर बलिदान स्वीकार करके तथा अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा करके भी भूमिका तैयार की और उसे पूरा कराया।

चौ० चरणसिंह की सन् 1937 से 1967 तक जनता की सेवायें

चौ० चरणसिंह 1937 में विधानसभा के लिये निर्वाचित हुए और 1967 तक कांग्रेस में रहे। इस दौरान आपने उत्तर प्रदेश में अनेक विभागों में कार्य किया और जनसेवा को अपना प्रमुख लक्ष्य माना। आपकी विभिन्न विभागों में रहकर की गयी सेवाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -

(क) कृषि एवं राजस्व मन्त्री

  • 1. चौधरी साहब ने सन् 1939 में ऋण विमोचन विधेयक पास कराया, जिससे किसानों के खेतों की नीलामी बच गई और सरकार के ऋणों से किसानों को मुक्ति मिली।
चौधरी सर छोटूराम ने पंजाब में ऐसा ही कानून बनाकर लाखों किसानों को लाभ पहुंचाया। सर छोटूराम ने साहूकारों के ऋणों से पंजाब के किसानों व गरीबों को मुक्त

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कराया और उनकी प्रत्येक सम्पत्ति को कुर्क होने से बचाया तथा अन्य कई प्रकार के लाभ किसानों को कानून द्वारा दिये।
  • 2. सन् 1939 में ही चौ० चरणसिंह ने किसान सन्तान को सरकारी नौकरियों में 50% आरक्षण दिलाने के पक्ष में लेख लिखे; कांग्रेस दल की बैठकों में प्रस्ताव रखा, लेकिन तथाकथित राष्ट्रवादी कांग्रेसियों के विरोध के कारण, इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। वे निरन्तर किसान के हित में सोचते थे। उनका “आर्थिक दर्शन” (पुस्तक) इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है।
नोट - सन् 1961 में की गई जांच के अनुसार भारतवर्ष में कुल 1347 आई. सी. एस. (ICS) और आई. ए. एस. (IAS) में केवल 155 यानी 11.5% किसान वर्ग के थे।
  • 3. सन् 1939 में ही चौधरी साहब ने कांग्रेस विधायक दल के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि सरकारी नौकरी के लिए साक्षात्कार के समय हिन्दू उम्मीदवारों से जाति न पूछी जाय, केवल पूछा जाय कि वह अनुसूचित जाति का है अथवा नहीं? आपका यह कार्य इस बात का प्रतीक है कि वे हरिजन तथा अनुसूचित जाति के लोगों की उन्नति के प्रश्न पर केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं, वरन् व्यावहारिक स्तर पर सोचते रहे हैं। हिन्दुओं में ऊंच-नीच के भेद मिटाने के उद्देश्य से, आपने पं० नेहरू को पत्र लिखा था और इसकी व्यवस्था करने का आग्रह किया था कि सरकारी सेवाओं में प्रवेश की एक शर्त हरिजन कन्या से विवाह करना लगाई जाए।
  • 4. दिसम्बर 1939 में आपने भूमि उपयोग बिल तैयार किया जिसके अन्तर्गत प्रदेश के किसानों को इज़ाफा लगान तथा बेदखली के अभिशाप से मुक्त करने का; कृषि जोतों के स्वामित्व का अधिकार ऐसे काश्तकारों या किसानों को दिये जाने का प्रस्ताव रखा गया, जो सरकारी कोष में वार्षिक लगान के दस गुने के बराबर की रकम अपने भूस्वामी के नाम जमा करने के लिये तैयार थे। धारा सभा के सदस्यों में उसे वितरित कराया। सभा में पेश करने का नोटिस भी दिया गया। बाद में यही प्रस्ताव भूमि सुधार कार्यक्रम का आधार बना। यह उद्देश्य 1939 में पूरा न होकर सन् 1952 में हुआ जब “जमींदारी उन्मूलन अधिनियम” पास कराने में सफल हुए थे। “जमींदारी उन्मूलन” से उत्तर प्रदेश के किसानों को अनुमान से भी अधिक लाभ चौधरी साहब की कृपा से हुआ।
  • 5. सन् 1939 में ही चौधरी चरणसिंह ने एक प्राईवेट मेम्बर के तौर पर विधान सभा में एक “कृषि उत्पादन मार्केटिंग बिल” (Agriculture Produce Marketing Bill) प्रवेश किया। उन्होंने एक लेख जिसका नाम “Agriculture Marketing” था, लिखा, जो कि 31 मार्च, 1932 के Hindustan Times of Delhi में छपा था। इसका उद्देश्य किसानों की पैदावार को व्यापारियों (महाजनों) द्वारा की जाने वाली मनमानी लूट से बचाना था। यह सभी प्रान्तों ने अपना लिया। परन्तु सर छोटूराम ने पंजाब में यह सबसे पहले लागू किया। उत्तर प्रदेश में यह कानून सन् 1964 में चौधरी साहब के प्रयत्न से लागू हुआ। इस उपाय का, जो कि किसानों के लिए लाभदायक था, व्यापारी वर्ग तथा

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शहरी तत्त्वों ने यह दलील देकर दृढ़ता से विरोध किया, कि चूँकि किसान धनवान एवं शिक्षित हैं, अतः वे व्यापारियों के विपरीत स्वयं अपना बचाव कर सकते हैं इसलिए यह उपाय अनावश्यक है।

भूमि सुधार के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश ने सारे राष्ट्र को मार्ग दिखाया इस सन्दर्भ में सभी उपलब्धि जो चौधरी साहब के द्वारा हासिल की गई, की विस्तृत विवेचना करना सम्भव नहीं किन्तु संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है –
  • 6. 1 जुलाई 1952 को कानून संग्रह में शामिल “जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार अधिनियम” के अन्तर्गत, हालांकि उत्तर प्रदेश के सभी मैदानी भागों की सब भूमि का स्वामित्व सरकार के हाथों चला गया, फिर भी सभी पुराने भू-स्वामियों या जमींदारों को भूमिधर घोषित किया गया। तदनुसार उन्हें स्वयं करने वाली खेती तथा उससे सम्बद्ध कुंआं, वृक्ष, मकान आदि पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार सभी काश्तकारों को उन जोतों का “सीरदार” घोषित किया जिन्हें वे जोत रहे थे। उन्हें कृषि कार्यों बागवानी तथा पशुपालन के लिए भूमि उपयोग का पूरा अधिकार दिया गया, किन्तु हस्तान्तरण का अधिकार सीरदारों को नहीं मिला, किन्तु अपने लगान का दस गुना के बराबर की रकम सरकारी खाते में जमा कर दी थी, उनको लगान में 50% कटौती का हकदार बनाया गया और उनकी तरक्की करके “भूमिधर” का दर्जा दिया गया। यह योजना राष्ट्रीय स्तर पर अपना ली गई।
  • 7. ऐसे सभी ग्रामवासियों को जो काश्तकार थे, श्रमिक, शिल्पी थे, को अपने मकानों, कुओं तथा आबादी में अपने वृक्षों से संलग्न भूमि का स्वामी घोषित किया गया, जिसकी कोई कीमत उन्हें नहीं देनी पड़ी। इस योजना से तमाम गरीब खेतीहर मजदूर व हरिजन, जमींदारों के बेदखली के डण्डे से बच गये। कृषि योग्य भूमि को छोड़कर शेष भूमि सरकार ने अपने नियन्त्रण में लेकर ग्राम पंचायतों को उनका विकास व प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी सौंप दी तथा “ग्राम समाज पुस्तिका” प्रकाशित करके ग्राम पंचायतों के अधिकार, कर्त्तव्य भी व्यवस्थित कर दिए। इस प्रकार सामन्तवाद के सभी बन्धनों से ग्रामों को मुक्त कर दिया गया। यह क्रान्तिकारी परिवर्तन देश के लिए कम्युनिज्म के समान एक नया चमत्कार था, जो चौ० चरणसिंह द्वारा किया गया था।
  • 8. पुनः अपनी गहन अध्ययनशीलता के आधार पर चौ० चरणसिंह जी को यह महसूस हुआ कि पुराने जमींदार पुनः जमीन खरीदकर या अन्य गलत तरीकों से अपने पास संग्रहीत कर लेंगे। अतः यह प्रावधान किया कि भविष्य में किसी भी परिवार के पास (पति-पत्नी व नाबालिग बच्चे) 12.5 एकड़ से अधिक भूमि नहीं रखी जायेगी तथा जब भी किसी विभाजन के मुकदमे में कचहरी के समक्ष रखी गई जोत का आकार 3¼ एकड़ से अधिक न होगा, कचहरी उसे विभाजित करने की बजाय उसे बेचकर उसकी आय का बंटवारा करने को निर्देशित करेगी।
  • 9. कारखाने, स्कूल, अस्पताल या अन्य सार्वजनिक स्थान के आधे मील की परिधि में कोई जोत के अयोग्य भूमि उपलब्ध है तो कृषि योग्य भूमि को अधिगृहीत नहीं किया जा सकेगा। लगभग 15 वर्ष बाद भारत सरकार ने भी इस नियम का अनुसरण किया।

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  • 10. शहरी क्षेत्रों में जर-ए-चहरूम की प्रथा भी चौधरी साहब ने ही समाप्त की, तदनुसार भू-स्वामी या पट्टादाता क्रेता या विक्रेता से उसकी कीमत का एक-चौथाई भाग वसूल करता था, समाप्त हो गया।
  • 11. जमींदारी उन्मूलन तथा भू-स्वामी काश्तकार सम्बन्धों की समाप्ति और सारे राज्य में कृषि की समानता लाये जाने से अब जोतों की चकबन्दी का कार्य आसान हो गया था। अतः चौधरी साहब ने अविलम्ब इसके लिये कानून बना दिया और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था कर दी किन्तु कुछ समाजवादियों व कांग्रेसियों ने इसका डटकर विरोध किया तथा 1959 में चौ० चरणसिंह के त्यागपत्र के बाद मुख्यमन्त्री सम्पूर्णानन्द ने इसे रद्द कर दिया। किन्तु एक माह के बाद ही राष्ट्रीय योजना आयोग ने इस योजना को स्वीकार किया और सारे देश में लागू कर दिया। 1948 के कृषि आयकर अधिनियम को चौधरी साहब ने रद्द कर दिया। इसके स्थान पर बड़ी कृषि जोतों के कराधान का अधिनियम बनाया जो कि किसानों के लिये वरदान सिद्ध हुआ क्योंकि भ्रष्टाचार व परेशानी से वे बच गये तथा बेईमान बड़े किसानों के लिए आयकर चोरी का रास्ता बन्द हो गया। इस प्रणाली में बागवानी आदि को मुक्त कर वृक्षारोपण का रास्ता खुला रखा गया।
  • 12. एक ओर जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार अधिनियम लागू किया जा रहा था, दूसरी तरफ प्रदेश के 28,000 पटवारी जो मालगुजारी प्रशासन की आवश्यक कड़ी थे, वेतन वृद्धि तथा अन्य सुविधाओं के लिये आन्दोलन कर रहे थे। चौ० चरणसिंह ने उन्हें सलाह दी कि जनहित में कुछ समय के लिए आन्दोलन वापिस ले लें या त्यागपत्र दे दें। इस पर जनवरी 1953 में सभी पटवारियों ने सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया। चौधरी जी ने स्थिति से निपटने के लिए त्यागपत्र स्वीकार कर लिये और ‘लेखपाल’ नाम से नयी नियुक्तियां कर दीं जिसके लिए उन्हें अनेकों विरोधों का सामना करना पड़ा। किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि आगामी 13 वर्ष तक प्रदेश में कोई सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर नहीं गया।
  • 13. 1954 में कानून संग्रह में भूमि संरक्षण अधिनियम को शामिल किया तथा कानपुर के राजकीय कृषि महाविद्यालय के दो वर्ष के स्नाकोत्तर पाठ्यक्रम में एक पृथक् विषय के रूप में शुरु कर चौधरी साहब पुनः देश के अगुआ बने।

उत्तर प्रदेश में किये गये क्रांतिकारी भूमि सुधारों की सफलता का मूल्यांकन विख्यात कृषि विशेषज्ञ श्री वुल्फ लेजेन्सकी, जिन्हें फोर्ड फाउण्डेशन ने भारत के गहन कृषि कार्यक्रम वाले जिलों का अध्ययन करने भारत भेजा था, के इन शब्दों से किया जा सकता है-

“भूमि सम्बन्धी नियम केवल उत्तर प्रदेश में ही सुस्पष्ट और विस्तृत बनाये गये हैं और प्रभावकारी तरीके से इन्हें लागू किया गया है। वहां लाखों काश्तकारों और उप काश्तकारों को स्वामी बना दिया गया और हजारों ऐसे लोगों को जिन्हें बेदखल कर दिया गया था, उनके अधिकार वापस दिलाये गये।” (पृष्ठ 3 रिपोर्ट प्रेषित योजना आयोग 1963)|

प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरु के सहकारी कृषि प्रस्ताव का विरोध

जनवरी, 1959 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का वार्षिक अधिवेशन नागपुर में स्थापित


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हुआ। उस अवसर पर पं० जवाहरलाल नेहरू ने सहकारी कृषि योजना एवं खाद्यान्न का सरकारी व्यापार का प्रस्ताव रखा। उस अधिवेशन में चौ० चरणसिंह, जो उस समय उत्तरप्रदेश के कांग्रेस मंत्रीमण्डल में राजस्व एवं परिवहन मन्त्री थे, भी उपस्थित थे। चौधरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े साहस से तर्कानुसार जोरदार शब्दों में खण्डन करके प्रधानमन्त्री नेहरू को हिला दिया। नागपुर कांग्रेस के इस ऐतिहासिक अधिवेशन की इस घटना की सूचना चौ० चरणसिंह के विषय में पहली बार राष्ट्रीय समाचार पत्रों के शीर्षक में छपी थी। चौ० चरणसिंह ने सहकारी कृषि करने तथा खाद्यान्न का सरकारी व्यापार के विषय में इस कांग्रेस अधिवेशन में दलील देकर एक जोरदार भाषण दिया जिसने नेहरू और उसी जैसे विचार वाले कांग्रेसियों के इस प्रयत्न को नकारा कर दिया। चौधरी साहब ने वहां पर उपस्थित कांग्रेसी प्रतिनिधियों को सूचित किया कि भूमि को इकट्ठा करने और मजदूरों द्वारा खेती करवाने से पैदावार नहीं बढ़ेगी। अतः यह दोनों योजना हमारे प्रजातन्त्रीय जीवन के विरुद्ध दुष्कर और असफल हैं।

पहले वाली योजना से पैदावार घटेगी और दूसरी से जनता के पैसे की फजूल बरबादी एवं भ्रष्टाचार होगा। नेहरू की उपस्थिति में चौ० चरणसिंह के इस मत तथा साहसी एवं स्पष्ट वर्णन के कारण उनको 1959 में उत्तरप्रदेश मन्त्रीमण्डल से त्यागपत्र देना पड़ा था। लेकिन वे देश एवं किसानों की भलाई के लिए यह ठोस कदम उठाने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाए। यह चौ० चरणसिंह की ही निडरता तथा योग्यता थी कि जिसके सामने बोलने तक की किसी की हिम्मत नहीं थी। नेहरू के उस प्रस्ताव को पास नहीं होने दिया जिससे भारतवर्ष के किसानों की भूमि को उनके पास से छीनी जाने से बचा दिया, जिसके वे मालिक थे। ऐसा करने से चौ० चरणसिंह किसानों के ‘मसीहा’ कहे जाने लगे तथा राष्ट्रीय स्तर के चोटी के नेताओं की श्रेणी में आ गये।

सहकारी कृषि योजना के अनुसार भूमि के वास्तविक मालिक किसान, मजदूरों के तौर पर कृषि कार्य करते और उनके ऊपर सरकारी प्रबन्धकर्त्ता गैर किसान विद्वान् अफसर होते। खेती की पैदावार सरकार के हाथों में आ जाती। समय के अनुसार किसानों की भूमि सरकार के अधीन हो जाती।

सन् 1959 के बाद कई प्रधानमन्त्री, खाद्य मन्त्री तथा कृषि मन्त्री भारत सरकार में रहे, किन्तु आज तक भी देश में सहकारी कृषि एवं अन्न का सरकारी व्यापार का कार्य लागू नहीं हो सका है। इसका श्रेय चौ० चरणसिंह को है।

चौ० चरणसिंह ने भूमि सुधार के विषय में देश को मार्ग दिखाया तथा अग्रसर रहे। वे भूमि सुधार कानूनों के विषय में उत्पादक थे तथा उत्तरप्रदेश में जमींदारी समाप्त कानून बनाने में अपूर्व बुद्धि के मनुष्य थे और उन्होंने इनकी इतनी चतुराई से रूपरेखा तैयार की कि न्यायाधीशों द्वारा एक भी नियम अयोग्य नहीं ठहराया गया। चौधरी साहब हड़तालों के विरुद्ध थे तथा चाहते थे कि प्रत्येक कर्मचारी कारखानों में या बाहर मेहनत से काम करे और धर्मनिष्ठा से अपने कर्त्तव्य का पालन करे। वे सरकारी कर्मचारियों के उपद्रव तथा अनुशासनहीनता को सहन नहीं कर सकते थे। ऐसी हालत में वे कठोरता से व्यवहार करते थे। उनके लम्बे समय तक राजनीतिक पद पर रहने के दौरान में कोई भी व्यक्ति या उनका विरोधी भी उनको दोषी नहीं बता सकता, यह उनके उच्च चरित्र के लिए कितना बड़ा उपहार है।

चौ० चरणसिंह की जनता व बुद्धिमानों में बड़ी प्रसिद्धि है। इसका प्रमाण फरवरी 1967 में


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हुए उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में उनकी बड़ी भारी जीत है जिसमें उन्होंने अपने समीप प्रतिद्वन्द्वी को 52,000 से भी अधिक मतों से हराया। यह भारतवर्ष में अब तक हुए चार विधानसभा के चुनावों में सबसे अधिक मतों वाली विजय थी।

चौ० चरणसिंह द्वारा जनता सरकार में केन्द्रीय गृहमन्त्री रहकर ग्रामीण विकास

चौ० चरणसिंह, केन्द्रीय गृहमन्त्री होते हुए भी, ग्रामीण विकास के प्रधान उद्देश्य से पृथक् नहीं रहे। अगली पंचवर्षीय योजना का प्रारूप तैयार कराने में चौधरी साहब ने विशेष रुचि दिखाई और 33% गांवों के लिए बजट में व्यवस्था कराई। किसानों के लिए हर सम्भव लड़ाई, मन्त्रीमण्डल में रहकर भी वे लड़ते रहे और मात्र इन्हीं सवालों पर मतभेद के कारण मन्त्रीमण्डल से पृथक् होना पड़ा। सन् 1977 में जनता पार्टी के विधिवत् गठन के बाद, जिसके अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर बनाये गये थे, प्रथम बैठक में चौ० चरणसिंह ने देश विदेश की कृषि व्यवस्था का गहन अध्ययन कर एक 66 पृष्ठ का नोट तैयार कर, जनता पार्टी कार्य समिति के समक्ष प्रस्तुत किया, हिसका संक्षिप्तस्वरूप इस प्रकार था -

  1. भारत के लिए सहकारी खेती अनुपयोगी है। अधिक उपज लेने और अधिक रोजगार देने के लिए स्वतन्त्र वैयक्तिक कृषि व्यवस्था को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  2. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने और प्रति एकड़ श्रमिकों की संख्या घटाने की आवश्यकता है, शेष लोगों को अन्य लघु उद्योगों में लगाया जाए।
  3. हमारे यहां जमीन कम है अतः वैज्ञानिक उपकरणों से पैदावार बढ़ाई जाए।
  4. खेती की चकबन्दी अनिवार्य है, अतः मध्यम किस्म के फार्म बनाये जायें। एक व्यक्ति के पास 2.5 एकड़ से छोटी और 27 एकड़ से बड़ी जोत नहीं होनी चाहिए।
  5. भूमि सुधार सख्ती से लागू किए जायें और बड़े भूपतियों को समाप्त किया जाए।
  6. औद्योगीकरण के आइने में पहले कुटीर उद्योग फिर लघु उद्योग और अंततः भारी उद्योग को स्थान मिलना चाहिए।
  7. सम्पूर्ण बजट का 33% कृषि पर व्यय किया जाए
  8. कुल बिजली का 50% गांवों में दिया जाए तथा बिजलीघर शहर व गांव दोनों में समान समान हों।
  9. प्रति 10,000 की जनसंख्या पर गांवों में अनाज गोदाम तैयार किये जायें तथा इन सुरक्षित अन्न भण्डारों के आधार पर 80% तक ऋण दिया जाए, साथ ही बाजार में अन्न्की कीमतें बढ़ने पर, अन्न निकालकर बेचने की स्वतन्त्रता हो।

इसी आधार पर चौधरी साहब ने गांवों में बिजली, पेयजल, सड़क निर्माण आदि कार्यों के लिए मन्त्रीमण्डल में रहकर प्रधानमन्त्री की इच्छा के विपरीत भी अनेक निर्णय कराये और ग्रामीण किसानों व मजदूरों के हित में अनेक निर्णय कराये।

केन्द्रीय वित्त मन्त्री के रूप में भी चौधरी साहब ने ऐसा बजट प्रस्तुत किया कि बड़े उद्योगों पर बड़े-बड़े टैक्स लगाकर और कुटीर व लघु उद्योगों के टैक्स घटाकर सही समाजवादी दिशा में


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देश को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। वह एक ऐतिहासिक घटना थी जब केन्द्रीय वित्तमन्त्री एवं उपप्रधानमंत्री चौ० चरणसिंह पूंजीपतियों से टक्कर लेने के लिए सीधे मैदान में उतर आए। इसके पीछे उनकी ईमानदारी, आदर्शवादिता और बेबाक निर्णय लेने की अटूट क्षमता ही काम आई। सारे देश के पूंजीपति अपने पर हुए इस हमले से तिलमिला गए और बजट को घोर प्रतिक्रियावादी, जनविरोधी आदि अनेक अलंकारों से अभिहित किया। किन्तु उसके व्यापक प्रभाव हुए और गरीबों तथा किसानों को राहत प्राप्त हुई, क्योंकि उनके उपयोग की खेती एवं किसानों की वस्तुओं पर टैक्स घटा दिए गए थे। इस प्रकार केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रहकर भी चौधरी साहब ने देहात और गरीब की बात को आगे बढ़ाने का कार्य किया।

इसी प्रकार चौ० चरणसिंह केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में गृहमन्त्री, वित्तमन्त्री और प्रधानमन्त्री के रूप में भी देश में सर्वाधिक चर्चित नेताओं में माने जाने लगे थे। साथ ही उनकी ख्याति एक विचारक किसान नेता और कुशल प्रशासक के रूप में सदैव बनी रही है। यद्यपि राष्ट्रीय रंगमंच पर उतरने के बाद ही उनके यह गुण अधिक प्रखर हुए और सामान्य जन के समक्ष आये।

(ख) चौ० चरणसिंह का उत्तरप्रदेश में गृहमन्त्री रहकर कार्य

चौ० चरणसिंह सन् 1960 में उत्तरप्रदेश कांग्रेस सरकार में 15 माह तक गृहमन्त्री रहे। इस अवधि में आपने पुलिस विभाग के भ्रष्टाचार को कम करने, उसकी कार्यकुशलता को बढ़ाने तथा पुलिस की आन्तरिक समस्याओं को सुलझाने में आपका अपूर्व योगदान रहा है, जो निम्न प्रकार से है -

  • 1. आपने कार्यभार संभालते ही तुरन्त एक आई० जी० को सेवामुक्त कर दिया जो 5 वर्ष से अधिक इस पद पर था जो कि नियम के विरुद्ध था। तथा एक अत्यधिक ईमानदार डी० आई० जी० शरतचन्द्र मिश्रा को गुप्तचर विभाग में अतिरिक्त आई० जी० के पद पर नियुक्त किया।
  • 2. आपने पुलिस विभाग को यह खुला आश्वासन दिया कि सरकारी कार्य में किसी प्रकार का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करें जिसके फलस्वरूप पुलिस के मनोबल व कार्यक्षमता दोनों में वृद्धि हुई और प्रशासन में सुधार हुआ। इस संदर्भ में एक उदाहरण बहुत दिलचस्प है - लखनऊ में हजरतगंज चौराहे पर ट्रेफिक पुलिस ने कुछ छात्रों का चालान नियमों की अवज्ञा तथा सिपाही के साथ अशिष्टता के आरोप में कर दिया। उनमें से एक छात्र राजपत्रित सेवा के लिए चुना गया था जिसके चरित्र की पूर्व जांच पुलिस कर रही थी। तभी उस छात्र को माफ करने के लिए चौधरी साहब के सहयोगियों व अधिकारियों ने भी सिफारिश की, कारण वह एक अनाथ विधवा का पुत्र था। चौधरी साहब का विवेकपूर्ण उत्तर था कि “मैं अपने उन सिपाहियों के पास इसे भेजता हूं जिनके साथ इस छात्र ने हरकत की है। यदि वह सिपाही इसे माफ कर दें तो इसे माफ समझा जायेगा।”
  • 3. दिसम्बर 1961 में पुलिस सप्ताह के सन्दर्भ में बुलाई गई पुलिस अधिकारियों की एक बैठक में चौधरी साहब ने घोषणा की कि वे भविष्य में ऐसा आदेश जारी कर रहे हैं जिससे कचहरियों में पुलिस को झूठी गवाही नहीं देनी होगी तथा पुलिस के सभी उच्च अधिकारियों को आदेश दिया है कि वे किसी थाने का निरीक्षण करने जायें तो अपने

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खर्च को थानेदारों को वहन न करने दें, साथ ही अपने घरों में सिपाहियों द्वारा काम कराने या नियम विरुद्ध कोई सेवा लेने पर भी कड़ी रोक लगा दी है।
  • 4. सभी महानगरों में रेडियो यंत्रयुक्त गश्ती पुलिस की व्यवस्था भी आपने ही कराई जो सर्वप्रथम लखनऊकानपुर से शुरु हुई। इससे नागरिक सुरक्षा में वृद्धि हुई। सब-इन्सपेक्टरों की नियुक्ति के नियमों में भी आपने इस प्रकार परिवर्तन किया कि योग्य व गरीब परिवारों के युवकों को मौका मिल सका। इसी सन्दर्भ में ट्रेनिंग कालिज मुरादाबाद में प्रशिक्षणार्थियों द्वारा जमा करने वाली राशि 1000/- रुपया को रद्द करके मासिक व्यय के लिए 80/- रुपये की व्यवस्था सरकारी स्तर पर कर दी गई।
  • 5. मार्च 1962 में पुलिस बजट प्रस्तुत करते हुए घोषणा की कि अराजपत्रित पुलिस कर्मचारियों के मुठभेड़ में मारे जाने या अन्यत्र कार्यपालन में मृत्यु होने पर उनके उत्तरजीवियों को उसकी पूरी आय (मासिक वेतन वृद्धि सहित) दी जाती रहेगी तथा पेन्शन भी दी जायेगी।
  • 6. आपने थानों में सही रिपोर्ट दर्ज कराने और रिपोर्ट के आधार पर थाने की कुशलता आंकने की व्यवस्था की, जिससे अपराधों की सही स्थिति ज्ञात हो सकी। इसी प्रकार की गलतियों पर बड़े अधिकारियों को अधिक दण्ड देने का प्रावधान किया तथा तरक्की, नियुक्ति व तबादले के सन्दर्भ में किसी भी सिफारिश को पूर्णतः नजरअंदाज करने के लिए कहा। प्रतिफलस्वरूप 1961 में सब-इन्स्पेक्टरों की नियुक्ति के सन्दर्भ में स्वयं आई० जी० पुलिस ने घोषणा की कि इस वर्ष एक भी सिफारिश प्राप्त नहीं हुई।
  • 7. सन् 1962 में मेरठ के एक कांग्रेसी पर मुकदमा चलाने के आरोप में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (जो पूर्णतया उचित था) का स्थानांतरण मुख्यमन्त्री ने कर दिया। बाद में गुप्तचर विभाग ने उस कांग्रेसी को दोषी ठहराया तो मुख्यमण्त्री के निर्णय के विरोध में चौधरी चरणसिंह ने गृहमन्त्रालय से त्यागपत्र दे दिया तथा कहा कि यदि कर्त्तव्यपालन में संलग्न किसी अधिकारी को मैं संरक्षण नहीं दे सकता तो इस पद पर रहने का मेरा कोई औचित्य नहीं है।

(ग) चौ० चरणसिंह द्वारा अन्य विविध विभागों में रहकर कार्य

  • 1. पशुपालन विभाग में रहकर चौ० चरणसिंह ने 1954 में मवेशी अतिक्रमण अधिनियम 1955 को संशोधित किया। उत्तरप्रदेश में गोहत्या निवारण अधिनियम की तैयारी कर उसे 1955 में अधिनियम का रूप दिया। प्रदेश गोशाला अधिनियम तथा 1964 का मवेशी सुधार अधिनियम बनना भी चौ० साहब की उपलब्धि थी। 1953-54 में मवेशी मंडियों के नियन्त्रण के लिए एक विशेष विधेयक तैयार कराया, जो देश के स्तर पर पहला कदम था, किन्तु पंत जी दिल्ली चले गये, चौधरी साहब का विभाग बदल गया, फिर इसे अन्तिम रूप न मिल सका।
  • 2. आपने परिवहन विभाग में रहकर बसों तथा सार्वजनिक वाहनों के संचालन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अनेक कार्य किये। एक से अधिक परमिट देने पर रोक लगा दी गई। नाबालिग स्त्री, अपंग व विधवाओं को उपरोक्त स्थितियों में छूट दी गई।

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  • 3. सन् 1958 में वित्त विभाग संभालने पर आप ने सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोकने के कारगर उपाय किए। खाद्यान्न व्यापारियों पर लगाये जाने वाले विक्रय की पुरानी प्रणाली को पूर्णतया संशोधित किया।
  • 4. सन् 1958-59 में चार माह के लिए सिंचाई व ऊर्जा विभाग देखा। जब इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की जांच शुरु की तो आप से विभाग वापिस लिया गया। इसका कारण यह भी था कि चौधरी साहब ने रिहन्ध बांध परियोजना से प्राप्त समस्त विद्युत शक्ति के आधे से अधिक बिजली, बिड़ला परिवारों को अल्यूमिनियम कारखाने के लिए देने का कड़ा विरोध किया, जो मुख्यमन्त्री डा० सम्पूर्णानन्द को अखर गया। जलमार्गों के निर्माण कार्य भी, जिसके कारण करोड़ों रुपये के नलकूप कई वर्ष से बेकार खड़े थे, आप की विशेष उपलब्धि है।
  • 5. आपने वन विभाग में रहकर वनभूमि पर अनधिकृत कब्जे सख्ती से रोके और बेदखली कानून सरल किया। निजी वनभूमि के असंख्य टुकड़े मालिकों को दे दिये तथा प्रशासन योग्य क्षेत्र ही अपने पास रखे। लगभग 1600 वर्गमील जंगल जो कि जिला के प्रशासन से सम्बद्ध थे तथा बेकार हो गये थे, वन विभाग में शामिल कर दिये गये। यमुना, चम्बल की घाटियों को जंगल बनाने की योजना तैयार की, जिसने तमाम उपजाऊ भूमि के कटाव को रोकने तथा अपार वनसम्पदा देने का कार्य किया। 1966 में वन विभाग ने स्वयं सड़कों पर वृक्षारोपण का कार्य किया। जमींदारों के लिये वनों के विकास को द्रुतगामी गति प्रदान की तथा टेहरी क्षेत्र में प्राप्त वनों के संरक्षण का असाध्य प्रश्न जो 15 वर्ष से अनिर्णीत पड़ा था, एक अधिनियम द्वारा हल कर दिया गया।
  • 6. सन् 1970 में चौ० चरणसिंह ने अपने भारतीय क्रान्ति दल (BKD) के साथ इन्दिरा कांग्रेस को मिलाकर उत्तरप्रदेश में संयुक्त मन्त्रिमण्डल बनाया जिसके आप मुख्यमन्त्री थे। उस समय आपने अध्यादेश द्वारा घोषणा की कि शिक्षा संस्थाओं में विवश विद्यार्थी संघ नहीं होगा। ये सब संघ इच्छापूर्वक प्रकार से होंगे। इसके फलस्वरूप कोई हड़ताल न हुई, नकलें न हुईं, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ बन्द हो गई और इसके बाद पहली बार शिक्षा संस्थाओं में आजादी से पढ़ाई होने लगी तथा उपस्थिति में वृद्धि हुई। चौ० चरणसिंह को संस्थाओं के अध्यक्षों की ओर से बड़ी संख्या में तार व पत्र मिले जिनमें लिखा गया था कि आपके इस उपाय से विद्यार्थी संघ तथा अध्यापकों के लिये बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है।
  • 7. चौ० साहब ने इसी तरह से गुण्डा नियंत्रण अधिनियम बनाया। यह एक्ट पास भी न हुआ था, केवल इस अधिनियम की सरकार द्वारा विचार करने की सूचना सुनकर, गुण्डे जो अपने पास चाकू लिये सड़कों पर एकत्र हो जाते थे, सब अदृश्य हो गये और कहीं भी दिखाई नहीं दिये। ऐसे उदाहरण अवश्य थे कि माता-पिता अपने बच्चों को विशेषकर लड़कियों को बाहर नहीं जाने देते थे, किन्तु यह अध्यादेश जारी होने पर वे अपने बच्चों को शिक्षा संस्थाओं में भेजने लगे।

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  • 8. गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और मध्यप्रदेश प्रान्तों में भयंकर कौमी उपद्रव हुए किन्तु चौ० चरणसिंह के शासनकाल में उत्तरप्रदेश में, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है, इस तरह का कौमी झगड़ा एक भी न हुआ। जितने समय चौ० चरणसिंह सरकार में रहे, किसी कारखाने में या सरकारी कर्मचारियों द्वारा पूरे उत्तरप्रदेश में एक भी हड़ताल नहीं हुई।
  • 9. चौ० चरणसिंह ने मंत्रियों के सादा जीवन के लिए सदा आवाज़ उठाई, मंत्रियों का वेतन घटाकर 1000/- रुपये प्रति मास, प्रयोग के लिए छोटी अम्बेसेडर कार, ट्रेन यात्रा में पी० ए० सी० गार्द की समाप्ति के निर्णय आपने ही कराये। प्रधानमंत्रित्व काल में भी श्यामनंदन मिश्र के संयोजकत्व में एक समिति गठित की, जो मंत्रियों के भारी व्यय पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से गठित की गई थी।

चौ० चरणसिंह द्वारा जनहित के लिए दिए गए त्यागपत्र

चौ० चरणसिंह ने अपने मंत्रीपद को सदैव जनसेवा का अवसर मानकर कार्य किया और त्यागपत्र सदैव साथ लेकर चले और जब भी जनहित के विरुद्ध प्रश्न उठा, त्यागपत्र दे दिया। महत्त्वपूर्ण त्यागपत्र इस कालान्तर में क्रमशः मार्च 1947, जनवरी 1948, अगस्त 1948, मार्च 1950, जनवरी 1951, नवम्बर 1957, अप्रैल 1959 तथा अगस्त 1963 में दिए। इसी प्रकार केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से 1977-1978 में तीन बार त्यागपत्र दिए। प्रधानमन्त्री के रूप में चौ० चरणसिंह स्वयं एक छोटे से बंगले में रहे जो उनको सांसद के रूप में मिला था। प्रधानमंत्री की सभी शान शौकत उन्हें छू तक नहीं गई थी। उन जैसी सादगी देश के दूसरे नेता में देखने को नहीं मिलती। यद्यपि वे अपने लम्बे जीवन में काफी समय तक मन्त्रिमण्डल में रहे हैं किन्तु सत्ता का नशा, भ्रष्टाचार, ऐशो-आराम व अय्याशी के वे प्रबल विरोधी रहे हैं। यही कारण है कि वह सामान्य गरीब जनता के हित में सोचते और यथाशक्ति उन पर निर्णय भी कराते रहे हैं।

जनता पार्टी की उत्पत्ति

डॉ० राममनोहर लोहिया ने सन् 1967 में कांग्रेस विरोधी मोर्चे का गठन कर आठ प्रदेशों से कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया था। इसके पीछे उनकी मात्र धारणा यही थी कि देश के कुल मतों के एक-तिहाई द्वारा कांग्रेस शासन करती है और दो-तिहाई वाला विरोधी पक्ष टुकड़े-टुकड़े होकर विपक्ष में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता। यदि सभी विपक्षी दल संगठित होकर कांग्रेस का विकल्प प्रस्तुत करें तो एक क्षण भी कांग्रेस सत्ता में नहीं रह सकती। सन् 1967 के गठबन्धन के बाद में विपक्षी एकता टूट गई और 10 वर्ष तक फिर कांग्रेस शासन करती रही। लेकिन चौ० चरणसिंह जो समय की गति को ठीक तरह देखना जानते थे, एकमात्र वह व्यक्ति थे जो कांग्रेस त्यागने के बाद ही डॉ० लोहिया की आधारशिला पर महल खड़ा करने का सपना दिल में संजोये राजनैतिक पथ पर बढ़ते जा रहे थे।

चौधरी साहब कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांतिदल, संयुक्त विधायक दल और भारतीय लोकदल (भालोद) बनाकर कांग्रेस के विकल्प का बीजारोपण करने में सफल हो गये। आप ही जनता पार्टी के संस्थापक हैं। आपके सहयोगी राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू पटनायक, कर्पूरी ठाकुर,


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चौधरी देवीलाल, रविराय आदि योग्य नेता थे। इन सबके सहयोग से चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, हरयाणा, राजस्थानगुजरात तक अपना सबल अस्तित्व बना लिया।

तभी देशव्यापी असन्तोष, आसमान छूती हुई कीमतें, सिर तक डूबा हुआ भ्रष्टाचार, अभाव और अव्यवस्था के कारण प्रस्फुटित हुआ और गुजरात से आन्दोलन के रूप में छात्रों और नौजवानों ने शासन के विरुद्ध बगावत का झण्डा उठाया। उनकी मांग विधान सभा भंग करने की थी जो पूरी हुई। इस प्रकार देश को एक नई दिशा मिली और शनैः शनैः यह आंदोलन बिहार से लेकर सारे देश को हिलाने लगा। यह आन्दोलन युवा पीढ़ी ने उठाया था और पूर्णतया गैर राजनैतिक सीमाओं में रखने क निर्णय लिया गया था किन्तु पूर्णतया राजनैतिक बनता चला गया। इसका नेतृत्व बाबू जयप्रकाश को सौंपा गया जो आन्दोलन के राष्ट्रीयस्वरूप और दलविहीन लोकतंत्र के लिए चिंतित थे, वहीं दूसरी ओर चौधरी चरणसिंह आन्दोलन की अव्यावहारिकता बताते हुए विपक्षी राजनीति को एक मंच पर खड़ा करने को आतुर थे। इस प्रकार आपातकाल के एक वर्ष पूर्व की स्थिति में देश में दो विचारधाराओं का साथ-साथ प्रादुर्भाव हुआ। अन्त में जे० पी० को चौधरी साहब के विचारों का होना पड़ा।

चौ० चरणसिंह ने जे० पी० से अनुरोध किया कि वह संगठन कांग्रेस, जनसंघ एवं सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर हमारे भारतीय लोकदल का नेतृत्व करें ताकि कांग्रेस को पराजित किया जा सके। किन्तु इस बात से जे० पी० सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि सभी प्रजातांत्रिक दलों को मिलाकर एक संघीय दल का गठन किया जाना चाहिए। किन्तु जब गुजरात के विधान सभा चुनावों में यह प्रयोग (संयुक्त मोर्चा रूप) असफल हो गया तो नए दल के गठन के पक्ष में वातावरण तैयार हुआ। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि कांग्रेस विकल्प के लिए नये दल के गठन के पक्ष में प्रारम्भ से यदि कोई प्रयत्नशील था तो वह भारतीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी चरणसिंह का दूरदर्शी व्यक्तित्व था। बीजू पटनायक का कहना था -

“जितने पूर्वाग्रहों, संकोचों, हिचकिचाहटों तथा जानी अनजानी भयंकर प्रसव पीड़ाओं को भोगने के बाद जनता पार्टी का जन्म संभव हुआ था। विलय की उन समस्त प्रतिक्रियाओं की जब जब याद आती है, तो अनायास ही मेरा मन चौ० चरणसिंह जी के प्रति आदर, श्रद्धा एवं उपकार भावना से जुड़ जाता है। यदि चौधरी साहब कांग्रेस के विकल्प की सिद्धि के प्रति इतने समर्पित, भावुक और प्रतिबद्ध नहीं होते तो क्या देश तानाशाही के शिकंजे से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकता था?”

आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक (21 माह)

सभी दलों के एकीकरण सम्बन्धी चौधरी साहब के प्रस्ताव के लिए सभी दलों की बैठक बुलाई जाने वाली थी तभी 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और इस प्रयास को एक बार झकझोर दिया।

इंदिरा गांधी सरकार ने चौ० चरणसिंह को 25 जून रात्रि, 1975 को तिहाड़ जेल में बन्द कर दिया। जयप्रकाश, मोरारजी, राज नारायण, देवीलाल आदि हरयाणा में कैद थे। तभी नानाजी देशमुख और सत्यपाल मलिक देश भर के विपक्षी दलों के कार्यकर्त्ताओं के नाम परिपत्र भेजकर


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गिरफ्तारी देने और जेल भरो आन्दोलन तथा भूमिगत आन्दोलन को सक्रिय बनाने के लिए संलग्न थे। इस दौरान में चौधरी साहब जेल से प्रकाशसिंह बादल के साथ वार्ता कर विलय के प्रश्न को आगे बढ़ाने के उत्सुक थे तथा अपने मिलने वालों से इस व्याकुलता को उजागर करते थे। वे तिहाड़ जेल से ही एक ही विपक्षी राजनैतिक पार्टी बनाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे। नवम्बर 1975 में बाबू जयप्रकाश को मरणासन्न स्थिति में पैरोल दी गई कि कहीं जेल में ही उनका जीवन समाप्त न हो जाये। लेकिन जे० पी० अपने इलाज के लिए सीधे अस्पताल में गये अतः विशेष प्रगति इस दिशा में संभव न हुई। पुनः मार्च 1976 में चौ० साहब को रिहा कर दिया गया। कैद से छूटने पर चौधरी साहब ने इंदिरा की तानाशाही सरकार के विरुद्ध अपना कार्य जोरों से चालू किया। आपने 23 मार्च 1976 को विपक्षी नेता के तौर पर उत्तरप्रदेश विधान सभा में गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाला भाषण दिया, जिससे कांग्रेसियों का दिल दहल गया। इस भाषण को प्रजातन्त्र के प्रेमी सदा याद रखेंगे।

चौ० चरणसिंह ने बम्बई में, बाहर रहने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की, एक बैठक अपने निर्देशन में बुलाई, जिसमें एक समिति का गठन इस विलय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने हेतु किया गया। इस समिति के सर्वश्री एन० जी० गौरे संयोजक तथा एच० एम० पटेल, शांतिभूषण और ओ० पी० त्यागी सदस्य थे। इस समिति को जयप्रकाश जी का भी आशीर्वाद प्राप्त था। चौधरी साहब ने इसके तुरन्त बाद 4-5 अप्रैल को भालोद की राष्ट्रीय समिति की बैठक बुलाई। जिसमें इस समिति के महत्त्व की समीक्षा करते हुए कांग्रेस का विकल्प तैयार करने हेतु भालोद द्वारा अपना सर्वस्व त्याग कर आगे आने की पेशकश की गयी और निर्णय से संयोजक समन्वय समिति को अवगत करा दिया गया। इसके पश्चात् विलय के विषय में अनेक बैठकें हुईं।

18 जनवरी 1977 को अचानक इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषणा कर विपक्ष को संकट में डाल दिया। 19 जनवरी को मोरारजी देसाई जेल से रिहा हुए। रात को मोरारजी के निवास पर सभी दलों के नेताओं की बैठक हुई जिसमें चरणसिंह, अटलबिहारी, सुरन्द्रमोहन, पीलू मोदी, नानाजी देशमुख,एन० जी० गोरेअशोक मेहता शामिल हुए और देसाई ने अध्यक्षता की। बैठक में गतिरोध पैदा हो गया। पहले मुरारजी ने मोर्चे की पेशकश की तब चौधरी व गोरे ने इस पर उत्तेजित होकर कड़ा रुख अपनाया तो वह अध्यक्ष पद के लिए अड़ गए, बात आगे बढ़ गई। जे० पी० को दिल्ली फिर बुलाया गया, उन्होंने फैसला कर दिया - “यदि विलय करके एक दल नहीं बनाया जाता तो मैं चुनाव प्रचार नहीं करूंगा।” इस पर मोरारजी झुके किन्तु अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार न थे। अतः जे० पी० ने निर्णय दिया कि “मोरारजी अध्यक्ष, चौ० चरणसिंह एकमात्र उपाध्यक्ष हैं और क्योंकि चौधरी का उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रभाव है अतः चुनाव प्रचार, प्रत्याशियों का चयन और समस्त रणनीति वही तैयार करेंगे।” भालोद और उसके नेता चौ० चरणसिंह ने अपने एक-सूत्रीय कार्यक्रम को पूरा होते देखा तो सब कुछ समर्पित कर जे० पी० से सहमति व्यक्त कर दी। 23 जनवरी 1977 को देसाई के 5 डूप्ले रोड स्थित निवास पर जनता पार्टी के गठन की घोषणा के साथ चौधरी के 3 वर्ष पुराने भागीरथ प्रयास सफल हो गए। 21 माह तक आपातकाल स्थिति रहने के बाद 1977 में देश में आम चुनाव हुए।

यह चुनाव भालोद के नामांकन पत्र व सदस्यता पर ही लड़ा गया क्योंकि चुनाव आयोग ने जनता पार्टी को मान्यता नहीं दी थी। साथ ही इस चुनाव का नेतृत्व एकमात्र चौधरी चरणसिंह


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ने किया और अभूतपूर्व सफलता दिलाई जिसके परिणामस्वरूप 23 मार्च, 1977 को जनता पार्टी शासन की स्थापना हुई और कांग्रेस का विकल्प देश के सामने आया। इन्दिरा गांधी ने 21 मार्च, 1977 को आपातकाल उठाने की घोषणा कर दी।

जयप्रकाश बाबू और आचार्य कृपलानी ने जनता सरकार का प्रथम प्रधानमन्त्री मोरारजी भाई को घोषित कर दिया। चौ० चरणसिंह को गृहमन्त्री नियुक्त किया गया। मोरारजी ने अपने मन्त्रिमण्डल में कई मन्त्रियों को शामिल करके उनको भिन्न-भिन्न विभाग सौंप दिये।

सरदार पटेल के बाद दूसरा फौलादी पुरुष चौ० चरणसिंह

सरदार पटेल भारत की एकता और अखण्डता के निर्माता थे। साढ़े चार वर्ष की वह अवधि जिसमें सरदार पटेल भारत के उपप्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री रहे, एक राजनीतिज्ञ के नाते उनकी अनेक उपलब्धियों के लिए उल्लेखनीय है। उन्होंने लगभग 500 देशी रियासतों को भारत में मिलाकर देश की एकता और अखण्डता के निर्माता की उपाधि प्राप्त की। इसी कारण वह लोह पुरुष और सरदार की ख्याति अर्जित कर पाये। यद्यपि बारदोली सत्याग्रह के दौरान साहसिक नेतृत्व देने के कारण उन्हें सरदार की उपाधि मिली, परन्तु वे केवल बारदोली के सरदार न रहकर देश के सरदार कहलाए। किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि जिसे इस देश का सरदार मान लिया गया उसे अपने से 14 वर्ष छोटे और प्रत्येक क्षेत्र में कम योग्यता व कुशलता वाले व्यक्ति पं० जवाहरलाल नेहरू का नेतृत्व स्वीकार करना पड़ा। यह महात्मा गांधी के एकपक्षीय निर्णय और नेहरू परिवार की भव्यता के सामने, किसान परिवार के पटेल के ऊपर थोंपी गई राय थी। महात्मा जी ने अपने मस्तिष्क को संतुलित न बनाकर नेहरू के बड़प्पन के समक्ष स्वयं को समर्पित करते हुए सरदार पटेल जैसे कुशल व्यक्ति को नाजायज दबाकर नेहरू के हाथों देश को सौंप दिया, जिसका परिणाम आज देशवासी भोग रहे हैं। यदि संसद सदस्यों की राय ली जाती तो पटेल की बहुत मतों से विजय होती और वे प्रधानमन्त्री बनते।

चौ० चरणसिंह के साथ भी यही हुआ, चौधरी की सादगी, ईमानदारी और दृढ़ता से जो लोग कायल थे उन्होंने जयप्रकाश बाबू को दबाकर मोरारजी भाई का नाम उछाला। जयप्रकाश जी ने मोरारजी को देश का प्रधानमन्त्री नियुक्त कर दिया। इस तरह लोकतन्त्र की आज़ादी के बाद देश का नेतृत्व दूसरी बार एक पूंजीपतियों के रहनुमा के हाथों में सौंप दिया गया। चौ० चरणसिंह की भालोद के एम० पी० बड़ी संख्या में थे, उनके अतिरिक्त अन्य बहुत से एम० पी० उनकी ओर थे। चुनाव होने पर चौधरी साहब की विजय अवश्य होती और वे देश के प्रधानमन्त्री बनते। इस तरह देश का नक्शा दूसरा ही होता। चौधरी जी ने भी पटेल की भांति जयप्रकाश जी की बात मान ली। गांधी जी व जे० पी० दोनों की यह बहुत बड़ी गलती थी।

नेहरू जी सत्य को अंततः सत्य मान लिया करते थे और प्रतिद्वन्द्वी को सम्मान दिया करते थे किन्तु मोरारजी क्रूर एवं जिद्दी साबित हुए, जिनको इन्सानीयत छू तक नहीं गयी थी। यही कारण था कि उन्हें बेइज्जत होकर जल्द ही घर वापिस जाना पड़ा। इसके बावजूद भी चौधरी ने उनको सदैव सम्मान दिया। देश के उत्थान के प्रश्न पर चौधरी का मस्तिष्क जितना साफ था उतना भारतीय राजनीति में सरदार पटेल के अतिरिक्त किसी का नहीं माना जा सकता।

चौधरी साहब अपने चरित्र के बल पर ही वर्तमान व्यक्तित्व प्राप्त कर सके। समस्त


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गृहमन्त्रियों के व्यक्तित्व देखने के बाद ज्ञात होता है कि सरदार पटेल के बाद दूसरा लोह पुरुष यदि गृहमन्त्रालय में आया तो वह था चौधरी चरणसिंह। उनका व्यक्तित्व एक ऐसे लोह धातु से बना हुआ था जो अपनी अडिगता से टूट सकता था परन्तु झुकना पसन्द नहीं करता था। जिसमें अपने विचारों को रखने और उन पर अडिग रहने की क्षमता होगी, केवल वही कुशल प्रशासक हो सकता है।

सारे देश से जो चीत्कार सुनाई दिया वह एकमात्र यही था कि चौधरी साहब पटेल के बाद दूसरे आदमी हैं जो प्रशासनिक दूरदृष्टि में उनसे मेल खाते हैं। आपातकाल की लड़ाई के बाद यदि चौधरी चरणसिंह जैसा गृहमन्त्री न मिला होता तो स्थिति क्या होती, यह हमारी कल्पना से परे की बात है। चौधरी साहब की प्रसिद्धि एक ऐसे शक्तिशाली और दृढ़ प्रशासक के रूप में हो गई थी कि लोकतन्त्र के दुश्मन 30 वर्ष से सत्ता के अन्धकार में पले देश के शत्रु, पस्तहिम्मत हो गये। सारे विश्व की निगाहें भारत की ओर थीं। ईर्ष्यालु लोग आशंका व्यक्त कर रहे थे कि नेहरू परिवार के शासन के बाद वहां शासन दे पाना किसी के वश की बात नहीं है, लेकिन चौधरी साहब ने वह आशंका निर्मूल कर दी।

आम लोगों की मान्यता है कि पं० नेहरू कुशल प्रशासक नहीं थे, चिंतक, विचारक, स्वप्नद्रष्टा अधिक थे। यही बात चौ० चरणसिंह के लिए भी कही जाती है कि जनता सरकार के प्रथम प्रधानमन्त्री मोरारजी न होकर चरणसिंह रहे होते तो इन तीन वर्षों में ही देश की तस्वीर बदली नजर आती। चौधरी साहब ने गृहमन्त्री के रूप में जिस दृढ़ता का परिचय देते हुए आपातकाल के कारनामों के लिए आयोगों की नियुक्ति की और इन्दिरा जी को जेल के सींकचों के दर्शन कराये, उसके बाद तो मानो उनका नाम शेर की भांति भयानकता के साथ लिया जाने लगा और लोग उन्हें विनोद में ‘कमीशन सिंह’ के नाम से सम्बोधित करने लगे थे। इससे पूर्व प्रत्येक भारतीय घनघोर निराशा के वातावरण में पड़ा सिसक रहा था। भय, आतंक और अनियमितता के जितने भी घिनोने रूप हो सकते थे वह सब श्रीमती इन्दिरा गांधी, संजय गांधी और उनकी चांडाल चौकड़ी ने देश के समक्ष प्रस्तुत कर दिए थे। पुलिस के आतंक से जनता भयभीत तथा तंग थी।

स्वार्थियों, आततायियों व लंपटों की जो निरंकुश फौज मां-बेटे ने मिलकर खड़ी की थी वह जनता सरकार के समक्ष एक गम्भीर चुनौती थी। इस भयाक्रांत स्थिति से देश को बाहर निकाल कर एक स्वतन्त्र रूप में कानून के आधार पर जिस भारत की प्रतिष्ठा चौधरी साहब ने रखी, वह केवल इस देश के लिए नहीं वरन् जनतंत्रप्रेमी किसी भी देश के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। तुरन्त बाद 8 राज्यों में विधान सभा भंग कर नए चुनाव कराने के लिए उन्होंने दूसरा महत्त्वपूर्ण लाभकारी निर्णय लिया था जिसके सारे विरोध, पार्टी के बाहर और अन्दर से होते रहे।

यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता तो आज देश का नक्शा दूसरा ही होता, देश के अधिकतर कठिन प्रश्न हल हो गये होते और जो कुछ विवाद विषय रह जाते वह अद्भुत परिणाम ग्रहण न करते, जैसे कि किये हुए हैं। उस समय में जो नए विवाद विषय जिनका निर्माण नेहरू


(पटेल व चरणसिंह दो फौलादी पुरुष “चौधरी चरणसिंह व्यक्तित्व एवं विचारधारा” पृ० 7-12 लेखक डा० के. एस. राणा)।


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द्वारा किया गया, वह न होने पाते। पटेल हमको ऐसा प्रधानमन्त्री मिलता जिसका सम्बन्ध भूमि से था, जो अभ्यासी था तथा गरीबों एवं किसानों का आदर करता था। सरदार पटेल वास्तविक भारत को जानता था। (होमर ए, जैक (सम्पादक) ‘दि गांधी रीडर’, पृ० 128)।

चौ० चरणसिंह अपने भाषणों में कहा करते थे कि “महात्मा गांधी मेरे राजनैतिक गुरु थे परन्तु उनकी एक बड़ी भारी भूल यह थी कि उन्होंने सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री न बनाकर नेहरू जी को बना दिया।”

23 मार्च 1977 को जनता पार्टी शासन स्थापित होने के बाद की घटनायें

प्रधानमन्त्री मोरारजी ने मन्त्रिमण्डल के गठन में अपने 7 केबिनेट मन्त्री लेकर तथा जनसंघभालोद को 3-3 स्थान देकर समानुपात के नियम को तोड़ दिया, फिर राज्यपालों और राजदूतों के चयन में घोर पक्षपात किया। इस प्रकार लोकदल घाटे में रह गया। सर्वाधिक लाभ संगठन कांग्रेस को मिला जबकि चौधरी साहब ने उत्तर भारत में टिकट वितरण के समय अपने को घाटे में रखकर भी अन्य घटकों को सन्तुष्ट किया था। फिर विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव और इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी को लेकर भी चौधरी-देसाई विवाद खुलकर सामने आ गये।

गृहमन्त्री चौ० चरणसिंह ने उत्तर भारत के राज्यों में जून 1977 में मध्यावधि चुनाव कराये, जिनमें कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई तथा जनता पार्टी का राज्य स्थापित हुआ। चौधरी साहब ने जनसंघ से समझौता करके मुख्यमन्त्रित्व पद निर्धारित कर दिये। लेकिन जब संगठन के चुनाव की बात की गई तो जनसंघ ने अपने आर० एस० एस० द्वारा अधिक सदस्यता बनाकर तथा पूंजीपतियों से चन्दा एकत्र कर सारे संगठन पर अपना शिकंजा कड़ा करने और नानाजी देशमुख को अध्यक्ष बना लेने की सारी योजना तैयार कर ली थी। इससे एक ओर चौ० चरणसिंह को उनकी नेकनियती पर अविश्वास पैदा हुआ वहीं अध्यक्ष चन्द्रशेखर ने इसका लाभ उठाया और भारतीय लोकदल को अलग-थलग करने की योजनाओं पर विचार विनिमय राष्ट्रीय स्तर पर शुरु हो गया। चन्द्रशेखर का अध्यक्ष पद का कार्य पूर्णतया भालोद विरोधी बनता चला गया। किसी भी प्रदेश में, केवल हरयाणा को छोड़कर, चरणसिंह गुट का प्रदेश जनता अध्यक्ष नहीं बनाया गया, न ही चुनाव पेनल में भालोद को स्थान दिया गया। बंगाल, बिहार, राजस्थान में संगठन कांग्रेस, दिल्ली, पंजाब, मध्यप्रदेश में जनसंघ तथा शेष राज्यों में समाजवादी प्रदेश अध्यक्ष बनाये गये। जिला तदर्थ समितियों में जहां भालोद के मुख्य-मंत्री थे, जानबूझकर अव्यवस्था और अनुशासनहीनता फैलाकर अस्थिरता का वातावरण तैयार किया गया। प्रत्येक 6 माह बाद मुखमन्त्रियों को विश्वास का मत हासिल करने के निर्देश राष्ट्रीय पार्लिमेंटरी द्वारा दिये जा रहे थे। इस प्रकार इन समस्त कारणों से चौ० चरणसिंह परेशान थे किन्तु वे अन्तिम दम तक पार्टी की एकता को बनाये रखने के पक्षधर थे।

किसान शक्ति

23 दिसम्बर, 1977 को चौ० चरणसिंह का 76वां जन्मदिवस मनाने हेतु बोट क्लब दिल्ली में किसानों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ, जिसमें सारे भारत के कोने-कोने से आकर किसानों ने भाग लिया। इस अवसर पर किसानों की बड़ी भारी संख्या उपस्थित थी। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने, जो


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तिहाड़ जेल से छूटकर आई ही थी, इस बड़े भारी संख्या वाले किसान सम्मेलन को चौ० चरणसिंह की अत्यधिक सफलता बताया और कहा कि इससे प्रमाणित हो गया है कि चरणसिंह के साथ उत्तर भारत के सब किसान हैं। यह किसान सम्मेलन राजनैतिक नहीं था, बल्कि चौधरी साहब का जन्मदिन मनाने के लिए था। नानाजी देशमुख, जो कि चौ० चरणसिंह के नेतृत्व में किसानों के इतने बड़े संगठन को देखकर स्पष्ट रूप से उलट थे, ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की। अपने भाषण में उन्होंने इस अवसर पर कहा कि “चौधरी साहब भारत के किसानों के नेता हैं।”

विदेशमन्त्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी किसान सम्मेलन को सम्बोधित किया। जनता पार्टी अध्यक्ष चन्द्रशेखर को भी निमन्त्रण दिया गया था किन्तु वह बहाना बनाकर इस सम्मेलन में नहीं आया। इसके बाद चन्द्रशेखर और चौधरी साहब के विचार अलग-अलग हो गये।

चौ० चरणसिंह के किसानों की उन्नति के लिए विचार

चौधरी साहब के अनुसार देश की आर्थिक दिशा में असफलता के दो बड़े कारण हैं - खेती बाड़ी और कारखानों के बीच आर्थिक खर्च का गलत बटवारा और बड़े-बड़े यन्त्र (मशीनें) स्थापित करने में धनराशि लगाना। अतः इसके लिए दो बड़े उपाय हैं - 1. बड़ी भारी मशीनों में धनराशि कम लगाई जाये। 2. कारखानों की बजाये खेती बाड़ी के लिए अधिक धनराशि लगाई जाए। किसानों की धीमी गति से उन्नति हुई है। चौधरी साहब ने देस का दौरा करने का निर्णय लिया जिसका तात्पर्य किसानों की आवश्यकता को बल देना तथा प्रान्तों में अखिल भारतीय किसान सम्मेलन की शाखायें स्थापित करना था।

उनका विवाद इस बात पर था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति से आज तक ग्रामीण उन्नति मन्दगति से हुई है। आज तक भी 1,16,000 गांवों में पीने का पानी नहीं है। खेतों में काम करने वाले किसानों को शहरी क्लर्कों से घटिया इलाज दिया जाता है। आई० ए० एस० अफसर अधिक संख्या में शहरी हैं, जिनके कारण देहात में सामाजिक व आर्थिक पिछड़ापन है क्योंकि वे देहातियों की कठिनाइयों को समझते नहीं। केवल 14 प्रतिशत अफसर देहाती हैं। उन्होंने खेद प्रकट किया कि गांवों की विद्या, स्वास्थ्य, सड़कें और वाहनों की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया है। यह बड़े शर्म की बात है कि गांवों में औरतों के लिए संडास का प्रबन्ध भी नहीं किया गया है। उन्होंने बताया कि अभी हाल में दिल्ली में यू० एन० कांफ्रेंस के लिए 16 करोड़ रुपये खर्च करने का प्रस्ताव पास किया गया था। इस राशि में से 1.83 करोड़ रुपया विज्ञान भवन, जहां पर कांफ्रेंस होनी थी, के रंगरोगन व उद्धार के लिए खर्च होना था। क्या यह धनराशि गांवों के नलकूपों के लिए नहीं लगाई जा सकती थी, जिनकी किसानों को सख्त जरूरत है?

23 दिसम्बर, 1978 को दूसरा किसान सम्मेलन

चौ० चरणसिंह अपने गृहमन्त्रालय का कार्य स्वतन्त्र रूप से करना चाहते थे, परन्तु प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई व उनका मन्त्रिमण्डल तथा चन्द्रशेखर उनके रास्ते में रोड़े अटकाते रहे। मोरारजी के इस विवाद से चौधरी साहब सदा बेचैन रहते थे। जून 1978 में चौधरी साहब को पक्षाघात का दौरा पड़ा। अतः वे इलाज के लिए दिल्ली के बड़े अस्पताल में दाखिल हो गये। इस समय मोरारजी ने चन्द्रशेखर से सांठ-गांठ करके राजनारायण व चौधरी साहब से त्याग-पत्र मांग लिए, बस पार्टी के


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पतन का बीजारोपण आरम्भ हो गया। राजनारायण पर झूठा दोष लगाकर त्याग-पत्र मांग लिया और उसे जून 1978 में मन्त्रिमण्डल से बाहर कर दिया।

प्रधानमंत्री ने 26 जून, 1978 को प्रेस कांफ्रेंस में राजनारायण के जनता पार्टी से त्याग-पत्र के विषय में कहा कि यदि पहले वाले भालोद के अन्य मेम्बर भी अपना त्याग-पत्र दे दें तो भी मेरी सरकार की स्थिरता में कुछ अन्तर नहीं होगा (Blitz weekly, August 4, 1979)।

चौ० चरणसिंह ने 30 जून 1978 को अपने गृहमन्त्री पद से त्याग-पत्र दे दिया। मोरारजी ने अपने स्वार्थ के लिए चौधरी साहब को उनके पद से हटाकर उन पर एक घातक धक्का लगाया। वास्तव में उनका यह त्याग-पत्र नहीं था, बल्कि उनको नीचा दिखाना था। प्रधानमन्त्री ने चौधरी साहब को पत्र भेजकर त्याग-पत्र मांगा था, जिसमें चौधरी साहब पर मिथ्या व बनावटी आरोप लगाये गये थे। चौ० चरणसिंह इलाज के बाद अपनी धर्मपत्नी गायत्री देवी सहित सूरज कुण्ड में जाकर आराम करने लगे।

अनेक मन्त्रियों, राजनैतिक व विद्वानों के कहने पर भी प्रधानमन्त्री मोरारजी ने चौधरी साहब को वापिस अपने मन्त्रिमण्डल में नहीं लिया।

30 जून 1978 को चौ० चरणसिंह के मन्त्रिमण्डल से त्यागपत्र देने के बाद उनकी भारतीय लोकदल पार्टी, अन्य पार्टियों के नेता तथा भारतवर्ष के किसानों में बड़ा रोष हो गया। मोरारजी पर दबाव डालने के लिए किसान रैली करने की तैयारियां होने लगीं। चौ० चरणसिंह के जन्मदिन पर 23 दिसम्बर 1978 को यह दूसरी बड़ी किसान रैली वोट क्लब पर सम्पन्न हुई, जिसमें सारे भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत से किसानों ने अपने खर्चे पर अपनी इच्छा से आकर भाग लिया तथा चौधरी साहब के 77वें जन्मदिन पर उनको 77 लाख रुपये की थैली भेंट की। यह एक ऐतिहासिक किसान रैली थी, जिससे यह प्रमाणित हो गया कि भारतवर्ष के किसान चौ० चरणसिंह को अपना वास्तविक नेता मान चुके हैं। इस रैली की संख्या का लगभग 40 लाख का अनुमान लगाया गया था। इस रैली पर समाचारपत्रों की व्याख्या इस प्रकार है -

  1. The Guardian (Manchester, England); Peter Niesewand लिखता है कि “23 दिसम्बर, 1978 को चौ० चरणसिंह के 77वें जन्मदिन पर उनके सहायक किसानों की रैली दिल्ली में हुई, सबसे बड़ी थी।”
  2. Far Eastern Economic Review (Hong Kong) लिखता है कि “23 दिसम्बर को चौ० चरणसिंह के सहायक किसानों की रैली की संख्या 10,00,000 अवश्य थी। इस किसान रैली से यह सिद्ध हो गया कि जैसे चौ० चरणसिंह के नेतृत्व में इतनी बड़ी संख्या किसानों की है, जिससे उनकी बड़ी प्रसिद्धि है। इस भांति का और कोई दूसरा नेता नहीं है।”
  3. The Fortnight (New Delhi) ने लिखा कि “अब तक इतनी बड़ी रैली कोई नहीं हुई और इससे भारतीय राजनीति में एक अति आवश्यक संगठन की उत्पत्ति हुई।”
  4. The Tribune (Chandigarh) ने इसको “संसार की सबसे बड़ी रैली” बताया।
  5. The Sunday Statesman (Delhi) ने उसे “अति शांति वाली रैली” बताया।

23 दिसम्बर, 1978 की इस ऐतिहासिक रैली ने चौ० चरणसिंह को विश्व के रंगमंच पर एक


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लोकप्रिय नेता और किसानों का ‘मसीहा’ के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। इस जनशक्ति से भयभीत होकर ही मोरारजी देसाई व चन्द्रशेखर ने चौधरी साहब से मन्त्रिमण्डल में शामिल होने का बार-बार अनुरोध किया। वस्तुतः चौधरी साहब स्वयं मानसिक रूप से मन्त्रिमण्डल में जाने को तैयार न थे किन्तु उनके ऊपर पार्टी की एकता को बनाये रखने हेतु अत्यधिक दबाव पड़ रहा था, जिसके सामने झुकना पड़ा। यद्यपि इससे उन्हें घाटा उठाना पड़ा, क्योंकि वह मन्त्रिमण्डल में न जाकर, बाहर से किसान मजदूरों के लिए संघर्ष का मार्ग अपनाते तो शायद विश्व के पैमाने पर माओ-त्से-तुंग के बाद दूसरे महान् किसान संघर्षों के नेता कहलाते। यह टिप्पणी बी० बी० सी० लन्दन रेडियो के संवाददाता की है और मैं स्वयं भी इस बात से सहमत हूँ। चौ० चरणसिंह ने मन्त्रिमण्डल से 6 मास 24 दिन बाहर रहकर 24 जनवरी 1979 को उपप्रधानमन्त्री के रूप में शपथ ली और उन्हें वित्त विभाग भी सौंपा गया। बाबू जगजीवनराम को नं० 2 उपप्रधानमन्त्री बनाया। चौधरी साहब के उपप्रधानमन्त्री बनने के बाद संघर्ष का रूप बदल गया। वे मूकदर्शक बनकर बैठ गये और उनके सहायक नेता राजनारायण बाहर से साम्प्रदायिक दंगों में आर. एस. एस. की साजिश को बेनकाब करने खुले मंच पर आ गये। मधुलिमये भी राजनारायण के साथ हो लिये। मधुजी अपने ढ़ंग से एच० एन० बहुगुणा, जार्ज फर्नांडीज आदि को भी चरणसिंह के खेमे में ले आये। इसी दौरान प्रधानमन्त्री मोरारजी ने चन्द्रशेखर से सांठ-गांठ करके भालोद के तीन मुख्यमंत्री – चौ. देवीलाल, रामनरेश यादव और कर्पूरी ठाकुर - को उनके पद से हटा दिया। दूसरी ओर राजनारायण को अनुशासन कार्यवाही का ढ़ोंग रचकर कार्य समिति से भी पृथक् कर दिया गया। इतने प्रहारों के बाद भालोद घटक पूर्णतया क्रोध में पागल था। चौ. देवीलाल 9 जुलाई 1979 को चौ. चरणसिंह के निवास पर पहुंचे और वहां देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, श्यामनन्दन मिश्र, मधु लिमये ने गोपनीय बैठक कर चौधरी साहब को पार्टी छोड़ने के लिए तैयार कर लिया और समानान्तर जनता पार्टी का गठन कर मोरारजी का तख्ता पलटनी की योजना बनाकर अगुवाई करने के लिए राजनारायण को जिम्मेदारी सौंपी गई। 15 मन्त्रियों के त्यागपत्र प्राप्त कर लिए गए। इसी क्रम में 13 संसद सदस्यों ने 9 जुलाई को और अन्य सदस्यों ने 10 जुलाई 1979 ई० को त्यागपत्र दे दिए और विरोधी दल के नेता यशवन्तराव चव्हाण ने अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया। अतः 11 जुलाई 1979 ई० को अन्य सांसदों से त्यागपत्र दिलाकर सरकार को अल्पमत में खड़ा कर दिया गया। 15 जुलाई तक त्यागपत्रों की संख्या 100 पर पहूंच गई और मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देने पर बाध्य होना पड़ा। इस तरह मोरारजी 2 वर्ष 115 दिन प्रधानमन्त्री रहे और फिर मन्त्रिमण्डल में नहीं लिये गये। अन्त में चौधरी साहब भी बाहर आ गये और समानान्तर जनता पार्टी के सर्वसम्मति से नेता चुन लिए गए तथा समर्थन प्राप्त करके प्रधानमन्त्री बनने में भी सफल हुए।

प्रजातन्त्र भारत का पहला किसान प्रधानमन्त्री

महामहिम राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी द्वारा चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का न्योता दिया, 20.7.1979

जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अल्पमत होने के कारण 15 जुलाई 1979 को अपना त्यागपत्र देना पड़ा। अब इस पार्टी का दूसरा नेता चुनने की दौड़-धूप शुरु हो गई। राष्ट्रपति संजीव रेड्डी ने कांग्रेस के नेता वाई० बी० चव्हाण को अपना बहुमत सिद्ध करने को कहा परन्तु वह असफल रहा। अब मैदान में चौ० चरणसिंह व मोरारजी देसाई थे जो पार्टी के नेता बनने के प्रयत्न


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कर रहे थे। दोनों ने अपने-अपने लोकसभा सदस्यों की सूची राष्ट्रपति को दी। राष्ट्रपति ने उन सदस्यों से पूछकर अच्छी तरह से जांच करके पता लगाया कि मोरारजी के साथ 236 सदस्य थे जबकि चौ० चरणसिंह के साथ 262 थे, जिनमें इन्दिरा कांग्रेस के 72 सदस्य भी शामिल थे। श्रीमती इन्दिरा ने इस अवसर पर चौधरी साहब का बिना शर्त साथ दिया परन्तु यह कहकर कि मेरी पार्टी का कोई सदस्य आपके मन्त्रिमण्डल में शामिल नहीं होगा। लोकसभा के 538 सदस्यों की संख्या में चौ० चरणसिंह का बहुमत न था जो कि 270 तो होना ही चाहिये था।

चूंकि चौ० चरणसिंह के सदस्यों की संख्या अधिक थी इसीलिए राष्ट्रपति ने उनको 28 जुलाई 1979, बृहस्पतिवार को 5.35 सायंकाल, प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। साथ ही उनको राष्ट्रपति ने यह आदेश भी दिया कि वे अगस्त 1979 के तीसरे सप्ताह में लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करेंगे।

प्रधानमन्त्री की शपथ लेकर चौ० चरणसिंह नं० 1 सफदरजंग रोड कोठी में आ गये। उन्होंने अपना मन्त्रिमण्डल बनाया।

प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह का राष्ट्र के नाम रेडियो द्वारा पहला भाषण

महामहिम राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी चौधरी चरणसिंह को देश के 5वें प्रधान मंत्री के रूप में शपथ दिलाते हुये, 28.7.1979

28 जुलाई 1979 को प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह ने राष्ट्र के नाम अपना भाषण दिया जिसमें अपनी सरकार की नीति का विस्तार से ब्यौरा दिया। संक्षिप्त में कुछ अंश निम्न प्रकार से हैं - “गरीबी, बेरोजगारी और आय व धन सम्पत्ति के अन्तर को दूर करने को पहल दी जायेगी। छोटे उद्योग धन्धों को बढ़ावा दिया जायेगा। जरूरी कारखानों को रखा जायेगा तथा आवश्यकता के अनुसार उनको देहात में भी स्थापित किया जायेगा। तमाम पिछड़ी जातियों, गरीब वर्ग, अल्पसंख्यक और हरिजन तथा जनजातियों की रक्षा तथा उन्नति की जायेगी।”

चौधरी साहब ने कहा कि मैं आपका (जनता) सेवक हूं। मैं और मेरी सरकार राष्ट्र हित में ईमानदारी व धर्मनिष्ठा से कार्य करेगी। देहात व किसानों की उन्नति की जायेगी आदि-आदि।

स्वतन्त्रता दिवस पर प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह का भाषण

15 अगस्त 1979 को प्रधानमंत्री चौ० चरणसिंह ने दिल्ली लालकिले पर राष्ट्रीय पताका फहराई और लालकिले की दीवार पर से राष्ट्र को अपना भाषण दिया। इस अवसर पर कई लाख आदमी लाल किले के सामने उपस्थित थे। उनके लम्बे भाषण के कुछ अंश निम्न प्रकार से हैं -

आज हम अपनी स्वतन्त्रता का 32वां वार्षिकोत्सव मना रहे हैं। इस दिन महात्मा गांधी और अन्य नेताओं के बलिदान के कारण, 200 वर्ष से चला आ रहा ब्रिटिश शासन का अन्त हुआ तथा देश को आजादी मिली। इस अवसर पर हम राष्ट्रपिता एवं अन्य देशभक्तों को श्रद्धांजलि देते हैं।
आज देश के सामने अनेक समस्यायें हैं जिनमें सबसे गम्भीर गरीबी है। संसार के 125 देशों में से गरीबी में हमारा 111वां नम्बर है, अतः 110 देश हमारे देश से अधिक धनाढ्य हैं। तीन वर्ष पूर्व हमारा स्थान 104वां था, आज 111वां है। इसका अर्थ हम और भी गरीब हो गये हैं। दूसरी समस्या बेरोजगारी है जो बढ़ती जा रही है। तीसरी समस्या अमीर और गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। चीजों की कीमतें बढ़ती जा रही हैं। इसी तरह अन्य कई समस्याओं का वर्णन किया और बताया कि हमने यह मसले हल करने हैं। हमारा पड़ौसी देश पाकिस्तान जो हमारा ही अंग था,

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अणु बम बनाने का प्रयत्न कर रहा है, जैसे कि हमको सूचना मिली है। वह किसके विरुद्ध बना रहा है? चीन से उसकी मित्रता है, रूस से उसका कोई झगड़ा नहीं, अफगानिस्तान एक छोटा देश है और उसके साथ भी उसका कोई झगड़ा नहीं है। अतः यह साफ है कि वह यह अणु बम हमारे देश भारत के विरुद्ध बना रहा है। हमारा निर्णय है कि हम अणु बम नहीं बनायेंगे और न ही हम इस दौड़ में भाग लेंगे। लेकिन यदि पाकिस्तान अणु बम बनाना जारी रखेगा तो हमको भी मजबूर होकर अपना इस ओर पुनर्विचार करना होगा।
प्रधान मंत्री चौधरी चरणसिंह ने लालकिला जाने से पहले राजघाट पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए, 30.7.1979

नोट - लालकिले पर राष्ट्रीय झण्डा फहराने से पहले प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह राजघाट पर गये और वहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि पर फूलमालायें चढ़ाकर उनको श्रद्धांजलि अर्पित की।

चौ० चरणसिंह व उनके मन्त्रिमण्डल का त्यागपत्र

सोमवार 20 अगस्त 1979 को प्रधानमन्त्री चौ० चरणसिंह को लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध करना था। शनिवार 8 अगस्त को श्री राजनारायण के साथ बातचीत में इन्दिरा गांधी व संजय गांधी ने चौ० चरणसिंह को सहायता देने हेतु अपना अविश्वास प्रकट कर दिया। संजय गांधी ने यह साफ तौर से कह दिया कि इस नई सरकार के, मेरी माता व इसकी पार्टी के साथ गलत व्यवहार से मैं अप्रसन्न हूं। इन्दिरा गांधी की कांग्रेस का हाव-भाव भी चौ० साहब के विरुद्ध था। उनका आम मत यह था कि जब तक नई सरकार इन्दिरा के साथ शान्ति भाव न बना ले तब तक उनकी सहायता का कोई जिम्मा नहीं है। (तात्पर्य, इन्दिरा व संजय के आरोपों की जांच बन्द करना था)। इसी समय चौ० चरणसिंह किसी प्रकार का इन्दिरा गांधी से समझौता न करने के लिए और भी दृढ़ होते जा रहे थे। बीजू पटनायक और एच० एन० बहुगुणा ने रविवार की शाम तथा रात चौधरी साहब को इन्दिरा से मदद लेने के लिए, समझाने में लगा दी। राज नारायण भी इस हक में था कि पूरा बहुमत का विश्वास लिया जाए। परन्तु जाट वज्र बना रहा। इन्दिरा जी ने फोन पर बात करनी चाही किन्तु चौधरी ने ऐसा भी न किया। इन्दिरा कांग्रेस के 72 एम० पी० थे।

कमलापति त्रिपाठी, सी० एम० स्टीफन, बी० पी० मौर्य, एस० एन० मिश्रा, देवीलाल, बनारसीदास आदि नेता भी समझौता प्रयासों में जुटे रहे किन्तु खाली हाथ वापिस आये। चौधरी साहब का एक ही उत्तर था - “सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकता, विश्वास मत से पूर्व वार्ता करना तो झुकना और आत्मसमर्पण करना है, अतः मैं वार्ता नहीं करूंगा वरन् त्यागपत्र दे सकता हूं।” सोमवार 20 अगस्त को सुबह 9-30 बजे चौ० चरणसिंह के निवास स्थान पर बीजू पटनायक का टेलीफोन आया जिसने बताया कि इन्दिरा गांधी ने सरकार के विरुद्ध अपना वोट देने का निर्णय लिया है। इस समय बहुगुणा और एस० एन० मिश्रा चौधरी साहब के साथ थे।

उसी समय चौधरी साहब ने अपना त्यागपत्र लिखना शुरु कर दिया। सोमवार को सुबह 10 बजे मन्त्रिमण्डल की बैठक बुलाई गई। एक प्रस्ताव पास करके चौ० चरणसिंह को यह अधिकार दिया गया कि वह मन्त्रिमण्डल के त्यागपत्र राष्ट्रपति को प्रस्तुत कर दे तथा लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव की घोषणा करें। तब चौधरी साहब, जो 24 दिन प्रधानमन्त्री पद पर रहे, राष्ट्रपति भवन में गये और 10-30 बजे त्यागपत्र राष्ट्रपति को सौंप दिये। राष्ट्रपति के साथ 10 मिनट बात करके चौधरी साहब अपने निवास स्थान पर आ गये, संसद भवन में नहीं गए। संसद


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भवन में सब सदस्य पहुंचे हुए थे और देखने वालों की बड़ी संख्या थी। चौधरी चरणसिंह व उसके मन्त्रिमण्डल का इन्तजार हो रहा था। उधर राष्ट्रपति ने मन्त्रिमण्डल का त्यागपत्र स्वीकार करके लोकसभा को भंग कर दिया और मध्यवर्ती चुनाव के आदेश जारी कर दिए। लोकसभा के स्पीकर ने यह सूचना संसद में सुना दी। राजनारायण ने बड़ी प्रसन्नता से वहां भारी भीड़ में सुनाया कि “चौ० चरणसिंह की हार नहीं, परन्तु जीत हुई है।”

एस० एन० मिश्र ने कहा कि “चौ० चरणसिंह के त्यागपत्र से यह प्रमाणित हो गया कि केवल वही एक शुद्ध और प्रजातन्त्रीय प्रधानमन्त्री है जो देश में कुछ ही ऐसे हुए हैं।”

समस्त परिस्थितियों पर जो प्रकाश डाला गया है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जनता पार्टी विघटन के लिए चौ० चरणसिंह नहीं, वरन् मोरारजी देसाई एवं उनकी कुटिल मण्डली दोषी थी।

इस तरह जनता पार्टी की सरकार का राज्य 23 मार्च 1977 से 20 अगस्त 1979 तक लगभग 2½ वर्ष तक रहकर समाप्त हो गया।

दिसम्बर 1977 में जब आप भारत के गृहमन्त्री थे, उसी समय आपको महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा अजमेर का सर्वसम्मति से तीन वर्ष के लिए प्रधान चुना गया। इससे पूर्व आप 1947 ई० से अनेक वर्ष तक भारतवर्षीय आर्यकुमार परिषद् अजमेर के भी प्रधान रहे।

लोकसभा भंग होने के बाद की घटनायें

चौ० चरणसिंह 20 अगस्त 1979 से लोकसभा के चुनाव तक, जो कि 4 जनवरी 1980 को हुए, देश के कार्यकारी प्रधानमन्त्री रहे। इस चुनाव में इन्दिरा कांग्रेस पार्टी की भारी जीत हुई तथा श्रीमती इन्दिरा गांधी दोबारा देश की प्रधानमन्त्री बनी। चौ० चरणसिंह की लोकदल पार्टी देश में दूसरे नम्बर पर विजयी रही। स्वयं चौधरी साहब बागपत क्षेत्र से भारी मतों से विजयी रहे। चौ० देवीलाल सोनीपत संसदीय क्षेत्र से जीतकर एम० पी० बने।

31 अक्तूबर 1984 को प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की अपनी ही कोठी में उसी के दो सिख अंगरक्षकों ने गोलियां मारकर हत्या कर दी। उस दिन इन्दिरा जी के पुत्र राजीव गांधी जी को राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह द्वारा प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिला दी गई।

सन् 1984 में हेमवतीनन्दन बहुगुणा अपनी पार्टी के साथियों समेत चौ० चरणसिंह के लोक दल में मिल गये। पार्टी का नाम बदलकर दलित मजदूर किसान पार्टी रखा गया जिसके अध्यक्ष चौ० चरणसिंह तथा उपाध्यक्ष चौ० देवीलाल व मीर कासिम नियुक्त किये गये।


आधार पुस्तकें - 1. चौधरी चरणसिंह व्यक्तित्व एवं विचारधारा - लेखक डा. के. एस. राणा। 2. प्रोफाइल ऑफ चौधरी चरणसिंह - लेखक प्रो. सुखवीरसिंह गोयल। 3. मैन ऑफ दी मासिज चौधरी चरणसिंह - लेखक आर. के. हुड्डा। 4. प्रथम विश्व युवा जाट सम्मेलन स्मारिका कंझावला, 4-5 अक्तूबर, 1986 पृष्ठ 25-27; भारतीय इतिहास की एक अमूल्य विरासत, चौधरी चरणसिंह - लेखक [[Natthan Singh|डा. नत्थनसिंह। 5. जाटों का उत्कर्ष, पृष्ठ 647-649 - लेखक [[Yogendrapal Shastri|योगेन्द्रपाल शास्त्री। 6. क्षत्रियों का इतिहास, पृष्ठ 228-229 - लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री। 7. समाचार पत्रों से।


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24 दिसम्बर 1984 को देश में लोकसभा के आम चुनाव हुये। इन्दिरा गांधी कांग्रेस (इ) की सहानुभूति लहर के कारण कांग्रेस (इ) की भारी विजय हुई और श्री राजीव गांधी जी देश के प्रधानमन्त्री बने। चौ० चरणसिंह की दलित मजदूर किसान पार्टी की बुरी तरह से हार हुई। इनको थोड़ी सी सीटें मिल पाईं। चौ० चरणसिंह बागपत क्षेत्र से विजयी हुए। इस चुनाव के बाद चौ० साहब ने अपनी पार्टी का नाम लोकदल ही रख लिया। बहुगुणा को लोकदल का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। दिसम्बर 1985 में चौ० चरणसिंह दुर्भाग्य से पक्षाघात (लकवा) के शिकार हुए और उनकी शारीरिक असमर्थता बढ़ती चली गई। इन परिस्थितियों में लोकदल संसदीय बोर्ड ने श्री बहुगुणा को कार्यकारी अध्यक्ष मनोनीत कर दिया। याद रहे कि लोकदल की कोई कार्यकारिणी समिति नहीं थी। चौ० चरणसिंह की सक्रियता से लेकर बीमार होने तक केवल संसदीय बोर्ड ही काम कर रहा था। इन्हीं दिनों चौ० अजीतसिंह को चौ० चरणसिंह का सुपुत्र होने के नाते राजनीति में लाया गया तथा संसदीय बोर्ड के आदेश से चौ० अजीतसिंह को तत्कालीन लोकदल का महामन्त्री, राज्य सभा का सदस्य, संसदीय बोर्ड का मेम्बर, इन्चार्ज युवा लोकदल, उपाध्यक्ष किसान ट्रस्ट आदि पदों पर नियुक्त किया गया।

17 जून 1987 में हरयाणा के विधानसभा चुनाव से पहले 5 मार्च 1987 को चौ० अजीतसिंह ने अपने नाम से लोकदल (अ) अलग बना लिया, जिसके आप स्वयं अध्यक्ष हैं। दूसरा बहुगुणा के नाम से लोकदल (ब) बन गया, जिसके वे अध्यक्ष हैं। चौ० देवीलाल लोकदल (ब) के हरयाणा में अध्यक्ष हैं। इस तरह से हरयाणा में चुनाव से कुछ ही दिन पहले लोकदल के दो धड़े हो गये। 5 मार्च 1988 को चौ० अजीतसिंह जनता पार्टी में मिल गये और इस पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष बने।

चौधरी चरणसिंह का देहान्त

अंतिम विदाई - 29.5.1987 - 12 तुगलक रोड नई दिल्ली - पूर्व प्रधान मंत्री चरणसिंह के पार्थिव शरीर को श्रद्धांजलि देते हुये उनके पुत्र अजित सिंह, सुपुत्रियाँ, दामाद तथा एमएलसी जगत सिंह

चौ० चरणसिंह दिसम्बर 1985 में पक्षाघात के शिकार होने के बाद चलने-फिरने तथा उठने-बैठने में भी असमर्थ होते गये। उनको राममनोहर लोहिया हस्पताल दिल्ली में इलाज के लिए दाखिल किया गया। उनकी बोलने की तथा विचारशक्ति समाप्त होती गई। कई महीनों के बाद उनको इस हस्पताल से सरकारी खर्च पर इलाज के लिए अमेरिका भेजा गया। वहां पर लगभग आपको डेढ़ महीना रखा गया, परन्तु कोई आराम नहीं हुआ। चौ० चरणसिंह की इच्छा अनुसार आपको वापिस दिल्ली लाया गया। लगभग डेढ़ वर्ष तक बीमार रहने के बाद 29 मई 1987 को भारतवर्ष के किसानों के मसीहा तथा संसार के चोटी के राजनैतिक नेताओं की गणना वाले महान् नेता चौ० चरणसिंह का स्वर्गवास हो गया।

यह सूचना मिलते ही सारे भारत देश में शोक छा गया। देश-विदेशों से शोक सन्देश आये तथा श्रद्धांजलियां अर्पित की गईं। भारतवर्ष में सरकार की ओर से 3 दिन तक शोक मनाने का आदेश मिला। 3 दिन तक राष्ट्रीय झण्डे झुके रहे। चौधरी साहब के मृत शरीर के दर्शन करने लाखों मनुष्य आये और उन्होंने फूलमालायें चढ़ाईं। आपका दाह संस्कार 31 मई 1987 को राष्ट्रीय सम्मान के साथ राजघाट के निकट किया गया। आपके निवास स्थान पर आपके मृत शरीर को राष्ट्रीय तिरंगे झण्डे में लपेटकर अर्थी को तीनों आर्मी, नेवी, एयरफोर्स के चीफों ने कन्धा देकर एक सेना की खुली गाड़ी पर रखा। लोगों ने आपके शरीर को फूलों की मालाओं से ढ़ांप दिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-968


सरकारी बैंड बाजे बजते चले। कई लाख लोग पीछे-पीछे चले। दाह संस्कार पर प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी तथा उनके अनेक मन्त्री भी उपस्थित हुए। चिता में अग्नि उनके पुत्र चौ० अजीतसिंह ने दी। वेद मन्त्रों के उच्चारण से कई मन घी व सामग्री चिता में डाली गई।

बाद में उस दाह संस्कार के स्थान का नाम किसान घाट रखा गया जिसको सरकार ने भी स्वीकार कर लिया।

चौधरी देवीलाल

विशेषताएं -चौधरी देवीलाल का कद 6 फुट 3 इंच लम्बा, सुन्दर गोल भूरा चेहरा, घने बाल, लम्बी गर्दन, लम्बी सुथरी नाक, काली बड़ी-बड़ी आंखें, लम्बी भुजायें, चौड़ी छाती, लम्बी मजबूत टांगें तथा रौबीली चाल ढाल है। आप स्वाभिमानी, ईमानदार, सत्य के प्रेमी, दयालु, अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले, भ्रष्टाचार विरोधी, निपुण कार्यकर्त्ता, कुशल शासक एवं प्रवीण राजनीतिज्ञ, साहसी व निडर योद्धा, देशभक्त तथा किसान व मजदूरों के वास्तविक हितकारी नेता हैं।

जन्म, बाल्यकाल और शिक्षा

चौधरी देवीलाल का जन्म 25 सितम्बर 1914 में गांव तेजा खेड़ा, जिला सिरसा (हरयाणा) के एक जागीरदार, सुसंस्कृत एवं समृद्ध परिवार में चौ० लेखराम, सिहाग1 गोत्री जाट के घर हुआ था। आपकी छोटी आयु में ही आपकी माता जी का देहान्त हो गया था। आपके बड़े भाई का नाम साहबसिंह है। आपके पिताजी ने दूसरा विवाह करवा लिया था, अतः सौतेली मां का व्यवहार आपके साथ इतना अच्छा नहीं था। 1919 में आपके पिता चौ० लेखराम अपने परिवार सहित तेजाखेड़ा से निकट के गांव चौटाला में रहने लगे।

चौटाला के दो तरफ बसे तेजाखेड़ा, आसाखेड़ा तथा भारुखेड़ा इत्यादि कई गांवों का लगभग 52 हजार बीघे रकबा चौटाला गांव के जाटों के तीन गोत्रों गोदारा, सिहाग और सहारन की सम्पत्ति था।

उस समय चौटाला सबसे बड़ा गांव था। इस गांव की 1000 से भी अधिक आबादी में जमींदारा श्रेणी के कुल 28 घर थे जिनमें से चौ० लेखराम भी एक थे। शेष सभी भूमिहीन अथवा छोटे किसानों की श्रेणी में ही आते थे। गांव के छूत-अछूत सभी जातियों के लोगों को भूमि की जोत पर ही निर्भर करना पड़ता था। मालिक जिसको चाहते उसी को जमीन देते थे तथा इच्छा अनुसार कभी भी छुड़वाकर दूसरे मुज़ारे को देने का अधिकार उनके पास सुरक्षित रहता था। मुजारे पूरे तौर से जमींदारों के गुलाम थे। उनके घरेलू कामकाज ये तथा इनकी औरतें व बच्चे करते थे। किसी की पुकार करने की हिम्मत नहीं थी और न ही कोई उनकी दुःखभरी आवाज सुनता था। इन बातों का प्रभाव देवीलाल पर छोटी आयु में ही पड़ने लग गया था।

बालक देवीलाल की आरम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। प्राइमरी शिक्षा के बाद मिडल (आठवीं) कक्षा इन्होंने मंडी डबवाली से उत्तीर्ण की तथा मोगा उच्च विद्यालय में आगे की शिक्षा


1. इस सिहाग या सुहाग गोत्र का गणराज्य महाभारत काल में था। अधिक जानकारी के लिए देखें तृतीय अध्याय (सिहाग-सुहाग गोत्र, प्रकरण)।


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पाई। बाल अवस्था से ही आप अपने हाथों से खेत में काम करते थे। स्कूलों की छुट्टियों में भी कृषि कार्य में लगे रहते थे। सन् 1930 से 1940 के बीच आपको पहलवानी का बड़ा शौक था। पंजाब भर के पहलवानों से इनका सम्पर्क था।

चौ० देवीलाल का राजनीति में प्रवेश

चौ० देवीलाल युवावस्था के शुरु में ही राजनैतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लग गये थे। जब सारे देश में असंतोष छाया हुआ था और युवा अपने सिर धड़ की बाजी लगाकर देश से अंग्रेजों को खदेड़ रहे थे तो चौ० देवीलाल भी इस संघर्ष में कूद पड़े। आप एक स्वयंसेवक के रूप में कांग्रेस के लिए कार्य करने लग गये। चौ० देवीलाल ने, सामन्तवादी (जमींदारों), अत्याचारों से पीड़ित किसानों एवं मजदूरों को उनका हक दिलाने हेतु, सामन्तशाही एवं अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाया तथा तत्परता से अपने सद् उद्देश्यों की पूर्ति हेतु जुट गये।

आपने अपने इस लक्ष्य के लिए पहले कांग्रेस पार्टी में शरीक होकर कार्य शुरु किया। आपने इस संघर्ष के लिए कई राजनैतिक पार्टियां बदलीं, पंजाब व हरयाणा के कई मुख्यमंत्री बनवाये और हटवाये, कई चुनावों में हार व जीत हुई, स्वयं भी मुख्यमंत्री बने और हटे। आज हरयाणा के मुख्यमन्त्री पद पर विराजमान हैं, परन्तु इस संघर्षी जीवन में आप अपने उद्देश्यों पर अडिग रहे। देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेते रहे और किसान मजदूरों को अपमान-जनक शोषण से मुक्ति दिलाने हेतु प्रयास करते रहे। इसी के फलस्वरूप आप देशभक्त एवं देश के किसान, मजदूरों के प्रसिद्ध नेता माने जाते हैं।

सक्रिय राजनीति में पहला कदम

31 दिसम्बर, 1929 के दिन लाहौर में रावी नदी के किनारे अखिल भारतीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन शुरु हुआ। इस अधिवेशन के अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल नेहरू थे। इस अधिवेशन में भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता का ऐलान कर दिया। देवीलाल की आयु उस समय लगभग 15 वर्ष की थी और मोगा शहर के स्कूल में पढ़ते थे। इनके मन में देश की स्वतन्त्रता की तीव्र लालसा उठी। अतः वह स्कूल छोड़कर कांग्रेस के स्वयंसेवक बनकर इस अधिवेशन में शामिल हो गये। सक्रिय राजनीति में यह इनका पहला कदम था।

सन् 1930 में चौ० देवीलाल को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। इससे उनका हौंसला दुगुना हो गया। सन् 1932 में इनके भाई साहबसिंह को भी अन्य कांग्रेसियों की भांति गिरफ्तार कर लिया। 1932 के बाद देवीलाल अपने इलाके के बड़े-बड़े जमींदारों के विरुद्ध किसानों का आन्दोलन खड़ा करने में रुचि लेने लगे। बड़े-बड़े जमींदार अपने खेतों पर काम करने वाले भूमिहीन किसानों को खेतों से निकाल देते थे। ऐसे किसान इनकी सहायता से अपनी खोई हुई भूमि प्राप्त करने में सफल होते थे।

1937 में पंजाब विधानसभा की सिरसा सीट पर अपने बड़े भाई साहबसिंह को चुनाव जितवाकर उन्होंने अंग्रेजी शासन में प्रथम सेंधमारी की और सक्रिय राजनीति में बहुत गहरे उतर गये। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान चौ० देवीलाल को एक वर्ष की कैद हुई और उनको मुलतान जेल भेजा गया। कैद से छूटने के बाद चौ० देवीलाल मुलतान जेल से सीधे चौटाला


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आए। आते ही किसानों के काम में जुट गये। इसी समय चौ० छोटूराम पंजाब का दौरा करते हुए चौटाला भी आये। युवा देवीलाल ने 5000 किसानों की गगनभेदी आवाज में ‘बेदखली बन्द करो’ के नारे के साथ उनका स्वागत किया। सर छोटूराम ने उनकी बात सुनना मंजूर किया। पाण्डाल से किसानों के नारे “चौ० छोटूराम जिन्दाबाद”, “बेदखली बन्द करो”, लगने लगे। चौ० छोटूराम ने चौ० देवीलाल को अपने बराबर बैठने को कहा परन्तु देवीलाल ने जमींदार लीग के स्टेज पर बैठने से इन्कार कर दिया। जब सर छोटूराम मांगों का जवाब देने के लिये उठे तो आसमान एक बार फिर से “बेदखलियां बन्द करो”, “जमींदारा सिस्टम खत्म करो”, “चौ० छोटूराम की जय” के नारों से गूंज उठा।

चौ० छोटूराम का भाषण - चौ० छोटूराम जमींदारों को सम्बोधित करते हुए बोले - “मुझे मालूम है कि तुम किस प्रकार मुजारों के खेतों को उजाड़कर उन गरीबों से सूद-दर-सूद ब्याज लेते हो। बीज के बतौर अनाज का कर्ज़ देकर, उनसे सवाई राशि वसूल करते हो। इसके अलावा खुदकाश्त पर रात-दिन बेगार लेते हो। अगर वक्त के मुताबिक तुमने अपने आपको नहीं बदला तो याद रखो, तुम्हारे खिलाफ भी वही कानूनी डण्डा इस्तेमाल किया जाएगा, जो व्यापारियों की धांधली को खत्म करने के लिए बनाया गया है।” बीच-बीच में “छोटूराम जिन्दाबाद”, “बेदखली बन्द करो”, “मालगुजारी खत्म करो”, के नारे गूंजते रहे। यदि चौ० सर छोटूराम जीवित रहते तो बड़े-बड़े जागीरदारों-सेठ-साहूकारों की जमीनें किश्तों पर मुज़ारों को अवश्य मिलतीं। किसान नेता चौ० देवीलाल ने अपनी डायरी में लिखा है कि, “दरअसल चौ० छोटूराम के सहारे से मैं अपने दबे हुए मुजारों को उभारना चाहता था और हुआ भी ऐसा ही। जिला फिरोजपुर और हिसार के किसान खुलकर मेरे साथ आने लगे। जागीरदारों का डर दूर होने लगा।”1

15 अगस्त 1947 की आधी रात को भारतवर्ष को गुलामी से छुटकारा मिला। श्री गोपीचन्द भार्गव स्वतन्त्र संयुक्त पंजाब के पहले मुख्यमंत्री बने। मुजारों के आंदोलन से पंजाब की स्वदेशी कांग्रेस सरकार के जमींदार लॉबी के तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार स्वर्णसिंह ने दफ़ा 307 के तहत चौ० देवीलाल को हवालात में बन्द करवा दिया। मुजारों के हकों के लिए लड़ने की प्रशंसा में अपनी सरकार की ओर से आपको यह पहला इनाम मिला। आखिर भार्गव वजारत खत्म हुई। 13 अप्रैल, 1950 को श्री भीमसेन सच्चर पंजाब के नये मुख्यमन्त्री बने। 4 दिन बाद 17 अप्रैल 1950 को 307 का मुकदमा नई सरकार ने वापिस लिया और चौ० देवीलाल जेल से रिहा हुए। भीमसैन सच्चर ने किसानों से खुश होकर बेदखली बन्द करने के फैसले का ऐलान कर दिया। किन्तु शिमला पहुंचने तक भार्गव साहब तथा विधान सभा के मालगुजार सदस्यों के कारण सच्चर साहब का इरादा कानून बनने से पहले ही टूट गया। हालात इतने बिगड़ गये कि सच्चर साहब को जाना पड़ा।

18 अगस्त 1950 को भार्गव साहब पुनः पंजाब के मुख्यमन्त्री बने और 20 जून, 1951 तक इस पद पर बने रहे। पंजाब सरकार ने 1950 में एक ऐसा अध्यादेश जारी कर दिया, जिससे


1. चौटाला से चण्डीगढ़, पृ० 27-28, लेखक डा० राजाराम


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को लाभ के स्थान पर हानि हुई। इस अध्यादेश ने एक सौ स्टैण्डर्ड एकड़ तक की सीमा वाले जमींदारों को बेदखली का हक प्रदान कर दिया।1

चौ० देवीलाल ने भार्गव सरकार तुड़वाने का निश्चय किया। कुछ ही दिनों बाद चौ० साहब के प्रयत्नों से सरदार गुरमुखसिंह मुसाफिर की अध्यक्षता में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक दिल्ली में बुलाई गई। इस बैठक में भार्गव मन्त्रिमण्डल की जनता-विरोधी नीतियों के कारण मन्त्रिमण्डल के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास करवाकर, सब सदस्यों सहित नेहरू जी से मिले और उन्हें भार्गव साहब के कारनामों से परिचित करवाया। श्री देवीलाल के प्रयत्नों तथा दूसरे साथियों के सहयोग से, भार्गव के सत्ताधारी दल को यह करारी चोट पड़ी। 20 जून, 1951 को भार्गव शासन समाप्त हो गया और पंजाब पर राज्यपाल का शासन लागू हो गया।

सन् 1952 में चौ० देवीलाल के पिता चौ० लेखराम जी का देहान्त हो गया।

सन् 1952 में देश में आम चुनाव हुए। चौ० देवीलाल कांग्रेस के टिकट पर सिरसा क्षेत्र से चौ० शिवकरणसिंह गोदारा (गांव चौटाला) को हराकर पंजाब विधानसभा के एम० एल० ए० बने। इस चुनाव के बाद हाई कमाण्ड की सहायता से भीमसैन सच्चर पुनः 1952 में पंजाब के मुख्यमन्त्री बन गये। प्रतापसिंह कैरों विधायकों के बहुमत के बावजूद भी दौड़ में पिछड़ गये। परन्तु इसी दिन से पंजाब-हरयाणा का सवाल जोरों से चल पड़ा।

कैरों भी पंजाब प्रान्त की प्रगति में सच्चर का साथ देने लगे। कैरों महकमा माल के वजीर थे। विधानसभा के हिन्दू सदस्यों में बहुमत हरयाणा के लोगों का था। मन्त्रिमण्डल में इनकी ओर से चौ० लहरीसिंह तथा पण्डित श्रीराम शर्मा दो को ही लिया गया। शेष सभी मन्त्री पंजाब के थे। चौ० देवीलाल ने 1952 में एम० एल० ए० बनते ही यह स्पष्ट कर दिया कि हरयाणा प्रदेश के प्रति बिजली, सड़क, पानी, स्कूल सम्बन्धी निर्माण कार्यों से लेकर राजनैतिक प्रतिनिधित्व तक किसी भी किस्म के सौतेले बर्ताव को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।

प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू के नाराज होने पर सन् 1956 में लाला भीमसैन सच्चर को इस्तीफा देना पड़ा और सरदार प्रतापसिंह कैरों पंजाब के मुख्यमन्त्री बने। कैरों ने अपने मन्त्रिमण्डल में हरयाणा प्रदेश के प्रोफेसर शेरसिंह को उप मुख्यमन्त्री नियुक्त किया और लाला मूलचन्द जैन, चौ० चान्दराम, बक्शी प्रतापसिंह, चौ० दलवीरसिंह इत्यादि हरयाणा प्रदेश के विधायकों को अपने मन्त्रिमण्डल में स्थान दिया। चौ० देवीलाल उसी समय कैरों मन्त्रिमण्डल में मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त हुए। श्री स्वरूपसिंह को उपाध्यक्ष के पद पर सुशोभित किया। चौ० देवीलाल के कहने पर कैरों ने राव वीरेन्द्रसिंह को उपमन्त्री बना दिया।

सन् 1957 के आम चुनाव में चौ० देवीलाल को टिकट नहीं मिला। 1959 के उपचुनाव में सिरसा से विधानसभा के लिये भारी बहुमत से चुने गये।

सन् 1962 में आम चुनाव हुये। चौ० देवीलाल ने कांग्रेस के विरुद्ध अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम हरयाणा लोक समिति रखा गया जिसका चुनाव निशान ‘सूर्य’ का था। चौ०


1. चौटाला से चण्डीगढ़, पृ० 35, 38-40, लेखक डा० राजाराम


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देवीलाल फतेहाबाद के क्षेत्र से विधानसभा के लिये भारी मतों से विजयी हुए। आप की पार्टी के सब उम्मीदवार कामयाब हुए और वहां के कांग्रेसी उम्मीदवार हार गये। रोहतक जिले के बेरी हल्के से आपकी पार्टी के उम्मीदवार प्रोफेसर शेरसिंह कांग्रेस के उम्मीदवार पं० भगवतदयाल से हार गये थे। अतः विधानसभा के पहले सत्र के शुरु होते ही, चौधरी देवीलाल, विरोधी पक्ष के सदस्यों की सहायता से, प्रो० शेरसिंह को पंजाब विधान परिषद् का सदस्य चुनने में कामयाब हो गये। चौ० देवीलाल ने कैरों के खिलाफ यह बड़ी कामयाबी ली जिससे चौधरी साहब की जनता में मान्यता एवं लोकप्रियता प्रसिद्ध हो गई।

हरयाणा राज्य का निर्माण तथा राजनीति

चौ० देवीलाल से हरयाणा की उपेक्षा सहन नहीं हुई। इसी कारण से उसको पृथक् राज्य बनाने हेतु ये कष्टकारी आंदोलनों से जूझते रहे। आखिर उनकी जीत हुई और प्रथम नवम्बर 1966 को भारतीय संघ के सत्रहवें राज्य के रूप में हरयाणा का निर्माण हुआ। प्राचीनकाल से हरयाणा प्रदेश का नाम चला आता है जिसकी सीमा मौटे तौर पर दिल्ली के चारों ओर 200-250 मील रही है और दिल्ली इसकी राजधानी रही है। परन्तु सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध में अंग्रेजों की जीत हुई और उन्होंने हरयाणा का नाम नक्शों पर से हटा दिया। इसके जिलों को तोड़कर पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि प्रान्तों में मिला दिया गया था। इसके पश्चात् 109 वर्ष के बाद फिर छोटी सीमा का प्रदेश हरयाणा का निर्माण हुआ तथा भारत के नक्शे पर दिखाया जाने लगा। इस महान् कार्य का श्रेय चौ० देवीलाल को है।

हरयाणा प्रान्त के मुख्यमन्त्री

1 नवम्बर 1966 को हरयाणा प्रान्त का निर्माण होने पर इसी दिन पं० भगवतदयाल शर्मा केन्द्रीय नेताओं के साथ अपनी सांठ-गांठ तथा भूतपूर्व पंजाब प्रदेश की कांग्रेस के अध्यक्ष होने की स्थिति का लाभ उठाते हुए, हरयाणा के प्रथम मुख्यमन्त्री बन बैठे। वह तो पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष के नाते हरयाणा राज्य के निर्माण का विरोध करते आ रहे थे। इस स्थिति परिवर्तन से हरयाणा के अधिकारों के लिए पिछले कई वर्षों से लड़ाई लड़ने वाले चौ० देवीलाल का मुख्यमन्त्री बनने का वास्तविक अधिकार था। पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों से हरयाणा के हकों के लिए लड़ाई लड़कर कष्ट झेलने वालों में देवीलाल के अतिरिक्त किसी और का नाम खोजने पर भी नहीं मिलता।

चौ० देवीलाल हरयाणा के बनते ही हरयाणा के हितों तथा स्वाभिमान की रक्षा के लिए सन् 1962 में स्वेच्छा से छोड़ी कांग्रेस में अपने अनुयायियों समेत पुनः मिल गये थे। श्री भगवतदयाल शर्मा राज्य की राजनैतिक स्थिति का लाभ उठाते हुए देवीलाल के प्रभाव को शून्य कर देना चाहते थे। अपनी स्थिति और सुदृढ़ करने के लिए 18 नवम्बर 1966 को श्री रामकिशन गुप्ता को राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित करवा लिया।

सन् 1967 के आम चुनाव में चौ० देवीलाल ने विपरीत दिशा को देखकर कांग्रेस टिकट का प्रत्याशी बनना ठीक नहीं समझा। कुल 81 सदस्यों के सदन में 48 स्थान प्राप्त करके 7 सदस्यों के बहुमत से पं० भगवतदयाल शर्मा दूसरी बार मार्च 10, 1967 को हरयाणा के मुख्यमन्त्री निर्वाचित हुए। उन्होंने 11 सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में ले लिया। मुख्यमन्त्री बनते ही पण्डित जी ने जात-पात का भेदभाव पैदा कर दिया। उन्होंने एक सम्मेलन में, जो रोहतक अनाज मण्डी में हुआ था, अपने


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भाषण में खुले तौर पर कहा कि “अब मैं इन चौधरियों की नहीं चलने दूंगा। इनके डोगे (लाठी या बैंत) खूंटियों पर रखवा दूंगा आदि आदि।” इनका तात्पर्य जाटों से था। इससे हरयाणा की जाट जाति एवं एम० एल० ए० सभी मुख्यमन्त्री से नाराज हो गये। मन्त्रिमण्डल के गठन के बाद 17 मार्च 1967 को स्पीकर के चुनाव के अवसर पर पंडित जी के प्रतिनिधि श्री दयाकिशन को विरोधी पक्ष के उम्मीदवार राव वीरेन्द्रसिंह के मुकाबले में 3 मत कम मिले। भगवतदयाल के विरुद्ध विद्रोह की यह योजना गुप्त रूप से दिल्ली में तैयार की गई थी।

इस आकस्मिक नाटक के सूत्रधार चौ० देवीलाल उस समय विधानसभा की दीर्घा में बैठे थे। चौधरी साहब के छोटे पुत्र श्री प्रतापसिंह पहली बार जिला सिरसा के रोड़ी निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर हरयाणा के विधायकों की श्रेणी में शामिल हुए थे। उस दिन अपने दल के नेता भगवतदयाल के विरुद्ध विद्रोह का झंडा ऊंचा करने वाले 12 कांग्रेसी विधायकों में से यह भी एक थे।

पं० भगवतदयाल 17 मार्च के दिन विधानसभा सदन में अपने मन्त्रिमण्डल की निर्णायक हार के बाद मन्त्रिमण्डल की बागडोर चौ० हरद्वारी लाल को सौंपकर स्वयं केन्द्रीय नेताओं से विचारविमर्श करने दिल्ली चले गये। केन्द्रीय नेताओं ने कांग्रेस दल के इस अपमान के लिए पण्डित जी को ही उत्तरदायी ठहराया। इधर चण्डीगढ़ में संयुक्त मोर्चे का विधिवत् गठन हो चुका था। संयुक्त मोर्चे के नेताओं ने तत्कालीन उपमुख्यमन्त्री चौ० हरद्वारीलाल को अपने यहां मन्त्री पद का प्रलोभन देकर फुसला लिया। चौ० हरद्वारीलाल ने पहले तो मन्त्रिमण्डल के अन्य सदस्यों से यह कहा कि दिल्ली से पण्डित जी का फोन आया है कि मेरे हाथ मजबूत करने के लिए सब लोग अपना त्यागपत्र लिखकर मेरे पास दिल्ली भिजवा दें। जब सबके त्यागपत्र उनके कब्जे में आ गये तो राज्य के गवर्नर को पेश करके पण्डित जी का मन्त्रिमण्डल भंग करवा दिया। अब पण्डित जी को त्यागपत्र देने के सिवाय अन्य कोई रास्ता नहीं रह गया था। अतः उन्होंने 22 मार्च, 1967 को अपना त्यागपत्र राज्यपाल के पास भिजवा दिया। इस तरह से पं० भगवतदयाल का शासन तेरहवें दिन समाप्त हो गया। इसके पश्चात् वे हरयाणा के मन्त्रिमण्डल में नहीं आ सके।

24 मार्च 1967 को राव वीरेन्द्रसिंह हरयाणा के दूसरे मुख्यमन्त्री बने। उनके नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे के 15 सदस्यों ने मन्त्री पद की शपथ ली1। इस मन्त्रिमण्डल में चौधरी साहब की अनुपस्थिति सबको खटक रही थी। राव साहब ने चौधरी साहब के पुत्र प्रतापसिंह को अपने मन्त्रिमण्डल में शामिल करने की स्वीकृति मांगी, जिसे चौधरी साहब ने अस्वीकार कर दिया। राव साहब के साथ भी चौधरी साहब की पटड़ी नहीं बैठी। राव साहब का लक्ष्य विशाल हरयाणा बनाने का था। अतः इसके संयुक्त मोर्चे को विशाल हरयाणा पार्टी के नाम से भी बोला जाता था।

राव साहब ने जल्दी ही अपने अभिमानी स्वभाव का परिचय देना शुरु कर दिया। संयुक्त मोर्चे की निर्धारित नीतियों का उल्लंघन होने लगा। चौधरी साहब ने 13 जुलाई 1967 को राव के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया। 21 नवम्बर 1967 के दिन राव मन्त्रिमण्डल भंग हो गया। इस तरह राव साहब का मन्त्रिमण्डल 8 महीने रहा।

राव मन्त्रिमण्डल के भंग होते ही हरयाणा पर राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। राष्ट्रपति शासन


1. राव मन्त्रिमण्डल में चौ० श्रीचन्द स्पीकर बने, जो कि इस पद पर बड़े योग्य साबित हुए।


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के 6 मास बाद 1968 में हरयाणा विधानसभा के मध्यावधि चुनाव हुये। चौ० देवीलाल ने राज्य कांग्रेस के मामलों में अपने ढंग का महत्त्व स्वीकार करवा लिया था। एक बार पुनः राज्य कांग्रेस के सशक्त धड़े की बागडोर इनके सुगठित हाथों में थी। चौधरी साहब ने रोहतक की एक विशाल सभा में यह ऐलान कर दिया कि मैं आने वाले चुनाव में कांग्रेस दल का प्रत्याशी नहीं हूंगा। चौधरी साहब के बड़े पुत्र ओमप्रकाश को सिरसा तहसील के ऐलनाबाद निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस का प्रत्याशी बना दिया परन्तु वह चुनाव हार गये।

चौ० बंसीलाल ने 1967 में चुनाव लड़ा, वे जीतकर एम० एल० ए० बने परन्तु मन्त्रिमण्डल में नहीं लिये गये। 1968 के इस मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस टिकट पर चौ० बंसीलाल हरयाणा विधानसभा के लिये विजयी हुए। चौ० देवीलाल ने इनको मुख्यमन्त्री बनवाने में भरपूर प्रयत्न किया।

21 मई, 1968 के दिन कांग्रेस पार्टी के नेता का चुनाव हुआ। चौ० बंसीलाल को सर्वसम्मति से नेता चुन लिया गया। आप हरयाणा के तीसरे मुख्यमन्त्री बने।

चौ० देवीलाल, चौ० मुख्त्यारसिंह एम० पी० और चौ० चांदराम की सहायता से चौ० बंसीलाल ने पं० भगवद्दयाल को हरयाणा प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनने दिया। इसीलिये पंडित जी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। इनके साथ 22 कांग्रेसी विधायक भी कांग्रेस से त्यागपत्र देने वाले थे परन्तु चौ० देवीलाल के प्रयत्न से वे सब भगवतदयाल से टूटकर बंसीलाल के खेमे में आ गये। चौ० बंसीलाल ने चौ० देवीलाल को खादी बोर्ड का चेयरमैन बना दिया।

चौ० देवीलाल के कहने पर मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल ने भजनलाल को अपने मन्त्रिमण्डल में शामिल कर लिया।

ऐलनाबाद के चुनाव में चौ० ओमप्रकाश हारे थे। अब उन्होंने पैटीशन जीत लिया। उस क्षेत्र में मध्यावधि चुनाव मई, 1969 में हुआ जिसमें ओमप्रकाश भारी बहुमत से जीत गया।

चौ० देवीलाल ने 1-1-1971 को खादी बोर्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। इसका कारण मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल का लोगों के साथ कड़ा व्यवहार एवं चौ० देवीलाल के साथ संघर्ष था। साथ ही उनके साथी मनीराम बागड़ी जैसे कहने लग गये थे कि आपका जनता में सम्मान है। किसानों और मुजारों के लिये आपने अपने जीवन के बेहतरीन दिन संघर्ष में बिताये हैं। अब उन्हें लाभ पहुंचाने की स्थिति में आकर आप खद्दर की दुकान पर जा बैठे हैं। यह काम आप जैसे प्रभावशाली राजनैतिक व्यक्ति को शोभा नहीं देता।

उन दिनों उत्तरप्रदेश में चौ० चरणसिंह के भारतीय क्रान्ति दल की धूम थी। राजस्थान भी इस बी. के. डी. के प्रचार और प्रसार में यू० पी० का मुकाबला कर रहा था। 3-1-71 को इस बी. के. डी. का वार्षिक अधिवेशन रोहतक में आयोजित हुआ। इस अधिवेशन के स्वागतमन्त्री श्री रामेश्वर नादान थे। अन्य प्रबन्धकर्त्ताओं में राजस्थान के कुम्भाराम आर्य, दिल्ली और यू० पी० से प्रकाशवीर शास्त्री, रघुवीर सिंह शास्त्री और हरयाणा के श्रीराम शर्मा, महन्त श्रियोनाथ तथा कोकचन्द शास्त्री थे। चौ० चरणसिंह ने इस सम्मेलन का उद्घाटन किया।

चौ० देवीलाल भी इस अवसर पर मंच पर उपस्थित थे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और


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बी० के० डी० में शामिल हो गये। इसके पश्चात् आज तक कांग्रेस में शामिल न होकर इसके विरोधी हैं। सम्पूर्ण भारत में लोकसभा के चुनावों के साथ-साथ कुछ प्रान्तों में विधानसभा के चुनाव भी होने जा रहे थे। हरयाणा इनमें से एक प्रान्त था। चौ० देवीलाल ने विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस के दो महारथियों को ललकारा। मुख्यमन्त्री बंसीलाल को तोशाम हल्के से, सिंचाई एवं बिजली मन्त्री चौ० भजनलाल को आदमपुर से। इस चुनाव में चौ० देवीलाल दोनों ही स्थानों पर हार गये। इस 1971 के चुनाव में हरयाणा प्रदेश में विरोधी पक्ष की स्थिति 1968 के मुकाबले में सुधरी थी। 1968 में विरोधी दलों को केवल 19 स्थान मिले थे जबकि 1971 में इनकी संख्या 29 हो गई थी। राज्यसभा के 2 स्थान खाली थे। विरोधी सदस्यों ने चौ० साहब को कहा कि हमारे पास कम से कम 29 मत हैं और राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए 27 मतों की जरूरत है। इसलिए आप राज्यसभा का चुनाव लड़िए, हम आपकी जीत का विश्वास दिलाते हैं। चौ० साहब मान गये। जब परिणाम निकला तो इन्हें केवल 19 मत मिले। लगातार्दो बार की हार से इतनी मायूसी हुई कि अपने घर जा बैठे। सन् 1972 में पूरे वर्ष अपने गांव चौटाला में बैठे रहे और अपनी खेती-बाड़ी की देखभाल करते रहे।

श्री प्रकाशसिंह बादल चौधरी साहब के पास चौटाला पहुंचे और उन्होंने चौ० देवीलाल को किसान आन्दोलन में अकाली दल का सहयोग देने का वचन दिया। बादल के कहने पर आप फिर से मैदान में आ गए। उस समय स्वामी इन्द्रवेश जी ने किसान आन्दोलन का भार उठा रखा था तथा वे हरयाणा के किसानों की संघर्ष समिति के प्रधान थे।

दिल्ली में किसान सम्मेलन में डेढ़ लाख किसान चौ० देवीलाल व श्री बादल के भाषण सुनने आये। चौ० देवीलाल को किसान संघर्ष समिति का प्रधान चुन लिया गया। उन्होंने अपनी कार्यकारिणी समिति का निर्माण किया। 29-5-73 को सिरसा से शुरु करके 5 जून, 1973 तक रिवाड़ी में समाप्त होने वाले 7 जलसे लगातार करने का निश्चय किया।

चौ० देवीलाल की मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल द्वारा कराई गई गिरफ्तारियां

29-5-73 को सिरसा में किसान सम्मेलन में स्वामी इन्द्रवेश व चौ० देवीलाल ने अपने भाषण दिये। भाषण के बाद पुलिस द्वारा चौ० देवीलाल को गिरफ्तार करके सिरसा से हिसार लाया गया। उसी हिसार जेल में मनीराम बागड़ी. डा० मंगलसैन, सरदार प्रकाशसिंह बादल इत्यादि नेताओं को भी लाया गया था। वहां से बागड़ी को रोहतक जेल में तथा देवीलाल को अम्बाला जेल में लाया गया।

चौ० बंसीलाल ने चौ० देवीलाल को ‘सी’ क्लास जेल दिलाई। उनके पुत्र ओमप्रकाश को ‘बी’ क्लास जेल दी गई। चौधरी साहब ने कहा था कि बड़ी हैरानगी की बात है कि बाप को ‘सी’ क्लास और बेटे को ‘बी’ क्लास जेल में रखा गया है।

चौ० बंसीलाल के आदेश से तारीखों पर चौ० देवीलाल को अम्बाला जेल से सिरसा तक साधारण कैदी की तरह हथकड़ियां लगाकर बस में ले जाया जाता था। 30 मई सन् 1973 से 4 अक्तूबर


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1973 तक यही क्रम चलता रहा। 4 अक्तूबर को पंजाब-हरयाणा के उच्च न्यायालय ने देवीलाल तथा उनके सब साथियों को रिहा कर दिया।

जेल से रिहा होते ही हिसार जिले के भट्टू गांव में एक विशाल किसान सम्मेलन किया गया जिसमें श्री मनीराम बागड़ी, शिवराम वर्मा, स्वामी इन्द्रवेश और चौ० देवीलाल ने भाषण दिये। किसान संघर्ष समिति करनाल के नाम से एक मोर्चे का आयोजन हो चुका था।

मोहनसिंह तुड़ और प्रकाशसिंह बादल के नेतृत्व में पंजाब के 500 किसानों का एक मजबूत जत्था करनाल पहुंचा। उनके साथ चौ० देवीलाल एवं उनके साथी भी शामिल हो गये। करनाल स्टेशन पर पहुंचते ही इस जत्थे को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भारी संख्या में पुलिस तैयार थी। जनता की काफी भीड़ जमा हो गई। जत्था इस जनता में शामिल होकर शहर में जुलूस निकालना चाहता था। इसके लिए पुलिस और जत्थे में काफी देर झड़पें होती रहीं। धारा 144 लगी हुई थी। अन्त में पुलिस ने इन सब सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया। सरदार मोहनसिंह तुड़ को रोहतक जेल में भेजा और चौ० देवीलाल, श्री शिवराम वर्मा, कर्नल पी० एस० गिल आदि को महेन्द्रगढ़ जेल में भेज दिया।

करनाल मोर्चे में गिरफ्तार लोगों पर मुकदमा शुरु हो गया। दो अढ़ाई माह तक मुकदमों की सुनवाई होती रही। न्यायाधीश ने चौ० देवीलाल और उनके साथियों को 7 से 15 दिन तक की सजा सुनाई। चौ० साहब ने अपने साथियों के साथ सज़ा के दिन रोहतक जेल में काटे।

रोड़ी हल्के के कांग्रेसी विधायक श्री हरकिशनसिंह की मृत्यु के कारण यहां का उपचुनाव हुआ। सब दलों ने मिलकर चौ० देवीलाल को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। कांग्रेस के उम्मीदवार चौ० बंसीलाल के रिश्तेदार चौ० इन्द्राजसिंह थे। कांग्रेस का पूरा जोर लगाने के बावजूद भी चौ० देवीलाल 17,000 मतों से विजयी हुए। गुजरात में मध्यावधि चुनाव हुए जिसमें विरोधी पक्ष की जीत हुई और वहां पर उनकी सरकार बनी। यह बात 11 जून 1975 की है। 25 जून 1975 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। उसी दिन सब बड़े-बड़े विरोधी दल के नेताओं को कैद कर लिया गया। चौ० देवीलाल को उसी दिन सोहना में गिरफ्तार कर लिया गया। वहां से आपको हिसार जेल में लाया गया और 10 दिन के बाद वहां से महेन्द्रगढ़ जेल में भेज दिया गया। जुलाई महीने में आपको चर्मरोग एग्जीमा सारे शरीर में फैल गया। इलाज के लिए मैडीकल रोहतक में लाया गया। अस्पताल में दाखिल न करके रोहतक जेल में रखा गया। वहां पर आप अन्य नेताओं से मिले। 2 माह यहां रहने के बाद आपको गुड़गांव जेल में भेजा गया। 26 जनवरी, 1977 को चौधरी देवीलाल को रिहा कर दिया गया। आपने 19 माह तक जेल में रहकर काफी कष्ट सहन किये।

चौधरी देवीलाल हरयाणा के मुख्यमन्त्री के पद पर

चौधरी चरणसिंहजयप्रकाश नारायण के प्रयत्नों से कई पार्टियों का विलय करके जनता पार्टी का गठन 23 जनवरी, 1977 को हो गया था। आपातकाल स्थिति 21 माह तक रहकर देश में लोकसभा के आम चुनाव मार्च 1977 में हुए जिसमें जनता पार्टी की महान् विजय हुई। उत्तरी भारत में तो कांग्रेस का पूरा सफाया हो गया, यहां से कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार कामयाब न हो सका।


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देश में 23 मार्च 1977 को जनता पार्टी का शासन स्थापित हो गया। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमन्त्री बने और चौ० चरणसिंह गृहमन्त्री बने।

गृहमन्त्री चौ० चरणसिंह ने भारत के 8 प्रान्तों में जून 1977 में मध्यावधि चुनाव कराये। उन प्रान्तों में से एक हरयाणा प्रान्त भी था। इन आठ प्रान्तों में से एक हरयाणा प्रान्त भी था। इन आठ प्रान्तों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई। जनता पार्टी की भारी विजय हुई। इन सब प्रान्तों में जनता पार्टी का शासन स्थापित हुआ। हरयाणा प्रान्त में जनता पार्टी को 90 में से 75 सीटें प्राप्त हुईं। 21 जून 1977 के दिन चौ० देवीलाल हरयाणा विधान सभा की जनता पार्टी के नेता निर्वाचित होकर हरयाणा प्रान्त के पांचवें मुख्यमन्त्री बने। याद रहे कि चौ० बंसीलाल हरयाणा प्रान्त के तीसरे मुख्यमन्त्री 21 मई 1968 से दिसम्बर 1975 तक रहे और दिसम्बर 1975 में भारत के रक्षामन्त्री बने। दिसम्बर 1975 में कांग्रेस पार्टी के हरयाणा के चौथे मुख्यमन्त्री श्री बनारसीदास गुप्ता बने जो 20 जून 1977 तक रहे।

चौ० देवीलाल ने अपना मन्त्रिमण्डल बनाया और ब्रिगेडियर रणसिंह अहलावत, जो बेरी हल्के से विजयी हुए थे, को स्पीकर चुना गया। फिर चौ० देवीलाल ने उनको कृषि मन्त्री नियुक्त किया। वह चौधरी साहब के अच्छे सलाहकार व सहायक रहे।

मुख्यमन्त्री चौ० देवीलाल के कारनामे

मुख्यमंत्री बनने के बाद चौ० देवीलाल ने हरयाणा की जनता की भलाई के लिए निम्नलिखित कार्य किए -

  • 1. भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्त कदम उठाया।
  • 2. 6¼ एकड़ भूमि पर सारा मालिया माफ कर दिया।
  • 3. मजदूर-किसानों को राहत देने के लिए “काम के बदले अनाज” की योजना चलाई।
  • 4. किसानों के ट्रेक्टरों पर लगे टोकन टैक्स माफ कर दिये और लोगों को बारात या जलसों में ट्रेक्टरों में बैठकर जाने की अनुमति दी।
  • 5. विकास के कामों को तेज करने के लिए मैचिंग ग्रांट की योजना चालू की। यानि गांव की पंचायत किसी कार्य के लिए जितनी राशि सरकार में जमा करेगी, उतनी ही राशि सरकार उसे और देगी, जिससे वह राशि दुगुनी हो जाएगी।
  • 6. चौधरी साहब के शासनकाल में औले पड़ने से गेहूं, चने की फसल को काफी हानि पहुंची, इसके लिए आपने 300 रुपये एकड़ के हिसाब से किसानों को मुआवजा दिलवाया। भारतवर्ष में यह पहली मिसाल है।
  • 7. हर गांव में हरिजनों की चौपालें सरकारी खर्च पर बनवाईं।
  • 8. 5 जुलाई 1977 को जिलाधिकारियों द्वारा चन्दे व फण्ड एकत्रित करने बन्द कर दिये।
  • 9. पिछड़ी जातियों के लिए 2% की बजाए 5% सीटें सुरक्षित कराईं।
  • 10. बैंकों द्वारा किसानों को दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज की दर 14% से घटकर 11% कराई गई, जिससे किसानों को 3% ब्याज का लाभ हुआ।
  • 11. किसानों के गन्ने का मूल्य बढ़ाया गया।
  • 12. बेरोजगारों को काम देने के लिए ग्राम उद्योगों की योजना चालू की।
  • 13. सितम्बर 1977 में अचानक बाढ़ आयी। साहबी नदी ने 200 गांव डुबो दिये। चौ०

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देवीलाल ने इन गांवों को बचाने के लिए 5 मीटर चौड़ा बांध बनवाने की योजना बनायी और प्रधानमन्त्री से मिलकर एक मास्टर प्लान तैयार करवाई। बाढ़ पीड़ित गांव के लिए रिंग बांध बांधने की स्कीम का उद्घाटन किया।
  • 14. चौ० सर छोटूराम के जन्मदिन पर बसन्त पंचमी के दिन हरयाणा प्रान्त में छुट्टी की घोषणा की।
  • 15. हरयाणा के अनेक देहाती प्राइमरी, मिडल, हाई स्कूलों की ऊंची श्रेणी की।

प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई द्वारा देवीलाल सरकार को हटाने की पहला षड्यन्त्र

प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई और जनता पार्टी अध्यक्ष चन्द्रशेखर ने देवीलाल की सरकार को तुड़वाने का षड्यन्त्र चौ० भजनलाल के द्वारा किया। भजनलाल ने अपना अलग गुट बना लिया और चौ० देवीलाल के विरुद्ध स्वयं सरकार बनाने का ऐलान कर दिया। शक्ति परीक्षण के लिए दोनों गुटों को प्रधानमन्त्री ने दिल्ली बुलाया। चन्द्रशेखर की अध्यक्षता में मीटिंग हुई। प्रधानमन्त्री भी वहां उपस्थित थे। दोनों धड़ों के एम० एल० ए० की गिनती की गई। 75 एम० एल० ए० में से चौ० भजनलाल की तरफ 38 तथा चौ० देवीलाल की ओर 37 थे। स्पीकर ब्रिगेडियर रणसिंह साहब भी वहीं पर थे। प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने उनसे कहा कि आप स्पीकर हैं, आपका पार्टी के आपसी झगड़ों में भाग लेना गलत है अतः आप बाहर जायें। यदि आप वोटिंग में भाग लेना चाहते हो तो स्पीकर पद से अपना त्यागपत्र दे दो। उन्होंने स्पीकर पद से त्यागपत्र देकर अपना वोट चौ० देवीलाल को दिया, जिससे दोनों धड़ों की संख्या बराबर-बराबर हो गई। इस तरह से देवीलाल सरकार टूटने से बच गई। फिर शक्ति परीक्षण के लिए 7 दिन और दिये गये। इस बार शक्तिपरीक्षण में देवीलाल को 40 मत मिले तथा वे 40 मतों से विजयी हुए। इसके लिए बड़ी संख्या में पार्टी कार्यकर्त्ता चौ० देवीलाल को धन्यवाद देने आये। चौ० देवीलाल ने बड़ी प्रसन्नता से उनको कहा कि आप ब्रिगेडियर रणसिंह को धन्यवाद दो, जिन्होंने स्पीकर पद से अपना त्यागपत्र देकर मेरी सरकार को बचा लिया। यह घटना जून 1979 की है। इसके बाद चौ० देवीलाल की सरकार एक वर्ष तक और चलती रही1

मई 1979 ई० में चौ० भजनलाल अपने साथ लगभग 50 एम० एल० ए० को लेकर भारत दर्शन पर गये। इन्हीं दिनों हरयाणा कृषि मन्त्री ब्रिगेडियर रणसिंह अहलावत दिल्ली हरयाणा भवन में ठहरे हुए थे। मई मास की एक रात्रि को राजा दिनेशसिंह मे अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को भेजकर ब्रिगेडियर साहब को बुलाया। आप उसकी कार में बाबू जगजीवनराम जी की कोठी पर गए जहां पर राजा दिनेशसिंह भी मौजूद थे। बाबूजी ने ब्रिगेडियर साहब से कहा कि “आप हमारे गुट में आ जाओ, हम आपको हरयाणा का मुख्यमंत्री बनायेंगे।” ब्रिगेडियर साहब ने इस बत को यह कर कर अस्वीकार कर दिया कि हरयाणा में किसान सरकार है और मैं भी एक किसान हूं, अतः ऐसा करना मेरे को शोभा नहीं देता। आपने चौ० चरणसिंह व चौ० देवीलाल के गुट को नहीं छोड़ा। आपने वापस आकर ये सब बातें श्रीमती चन्द्रावती देवी को बतला दीं। उसने दिन निकलते ही इन सब बातों से चौ० चरणसिंह को अवगत कराया। चौ० चरणसिंह बड़े खुश हुए और उन्होंने ब्रिगेडियर साहब की बड़ी प्रशंसा की2


1, 2. लेख ब्रिगेडियर रणसिंह अहलावत।


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चौधरी देवीलाल की जगह चौ० भजनलाल मुख्यमंत्री

चौ० देवीलाल ने अपने मन्त्रिमण्डल में चौ० भजनलाल को मंत्री बनाकर बड़ा धोखा खाया। 8 मई सन् 1982 को हरयाणा विधान सभा के चुनाव प्रचार में भालोठ गांव (जि० रोहतक) के जलसे में चौ० चरणसिंह ने अपने भाषण में कहा था कि “मैंने चौ० देवीलाल को कहा था कि चौ० भजनलाल को अपने मन्त्रिमण्डल में मत लो क्योंकि यह कभी भी धोखा दे सकता है। और उसने ऐसा ही किया।” यह घटना इस तरह से हुई। जब प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई और चन्द्रशेखर ने सांठ-गांठ करके चौ० चरणसिंह का उनके गृहमन्त्री पद से इस्तीफा मांग लिया, तो भारतवर्ष के किसानों को बड़ा भारी खेद हुआ। भारत के किसानों ने अपनी शक्ति चौ० चरणसिंह के साथ दिखाने के लिए उनके 77वें जन्मदिन 23 दिसम्बर 1978 को दिल्ली बोट क्लब पर एक विशाल किसान रैली का आयोजन किया। यह संसार की सबसे बड़ी रैली ती जिसमें भारत के 40 लाख किसानों ने भाग लिया और चौ० चरणसिंह को 77 लाख रुपये की थैली भेंट की। चौ० देवीलाल मुख्यमन्त्री हरयाणा के प्रयत्नों से उस रैली में हरयाणा के किसान सबसे अधिक संख्या में पहुंचे और आपने हरयाणा की ओर से 52 लाख रुपये इस 77 लाख की थैली में शामिल किये।

इस भारी किसान रैली से डरकर मोरारजी देसाई ने चौ० चरणसिंह को उपप्रधानमन्त्री तथा वित्तमन्त्री का पद दे दिया। परन्तु दिल में द्वेष बढ़ता गया। मोरारजी ने चौ० देवीलाल को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिये चौ० भजनलाल को दोबारा उकसाया और हरयाणा विधान सभा के 75 जनता पार्टी सदस्यों के दो धड़े करवा दिये। जब देखा कि भजनलाल ने एम० एल० ए० खरीद कर अपना धड़ा मजबूत कर लिया है तब सब सदस्यों को दिल्ली बुलाकर शक्ति परीक्षण करवा दिया जिसमें चौ० भजनलाल विजयी हुए। इस तरह से चौ० भजनलाल हरयाणा प्रान्त के छठे मुख्यमन्त्री बन गए। यह घटना जून 1979 की है। चौ० देवीलाल दो वर्ष तक हरयाणा के मुख्यमन्त्री रहे। 4 जनवरी 1980 को भारत में लोकसभा के आम चुनाव हुए जिसमें इंदिरा कांग्रेस की जीत हुई और जनवरी 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी फिर देश की प्रधानमन्त्री बनी। चौ० भजनलाल ने इंदिरा जी को सबसे पहले मुबारिकबाद दी और अपने जनता पार्टी तथा अन्य विधायकों समेत दल बदलकर इंदिरा कांग्रेस में शामिल हो गया। इस तरह से चौ० भजनलाल ने आयाराम गयाराम का एक विश्व रिकार्ड रख दिया। लोकसभा के इस चुनाव में चौ० देवीलाल सोनीपत संसदीय क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुन लिए गए।

19 मई 1982 को हरयाणा विधान सभा के चुनाव

अब हरयाणा विधान सभा के चुनाव 1982 में हुये। चौ० चरणसिंह भारतीय लोकदल के प्रधान थे। चौ० देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, बीजू पटनायक, कुम्भाराम आर्य आदि चौ० चरणसिंह से नाराज होकर उनकी सलाह के विरुद्ध जनता पार्टी के सम्मेलन में पहुंच गये। चन्द्रशेखर की अध्यक्षता में यह सम्मेलन 12 अप्रैल 1982 को हुआ था। वहां उन्होंने जनता पार्टी में शामिल होने का ऐलान कर दिया। चुनाव 19 मई 1982 को होने थे, इससे कुछ ही दिन पहले यह घटना हुई। परन्तु जनता पार्टी में कोई लाभ न होने के कारण ये नेता फिर चौ० चरणसिंह की पार्टी में चुनाव से पहले वापिस आ गए। चौ० देवीलाल व डा० स्वरूपसिंह ने हरयाणा में टिकटों का फैसला


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किया। 19 मई 1982 को चुनाव हुए जिनमें चौ० देवीलाल की लोकदल पार्टी तथा भारतीय जनता पार्टी जिसके हरयाणा के अध्यक्ष डॉ० मंगलसेन थे, ने मिलकर चुनाव लड़ा तथा सीटों का बटवारा मिलकर किया। चौ० देवीलाल को 90 में से 48 सदस्यों का, जिसमें कुछ भारतीय जनता पार्टी के भी शामिल थे, समर्थन था। चौ० देवीलाल एवं डॉ० मंगलसेन 48 सदस्यों के हस्ताक्षर करवाकर तत्कालीन राज्यपाल श्री जी० डी० तपासे के पास शनिवार 22 मई को पहुंचे और चौ० देवीलाल ने अपना बहुमत राज्यपाल को बताया। राज्यपाल ने चौ० देवीलाल को 24 मई सोमवार को 10 बजे सुबह राजभवन में अपने साथियों सहित उपस्थित होकर मुख्यमन्त्री की शपथ लेने के लिए बुलाया। परन्तु श्रीमती इन्दिरा गांधी के संकेत पर राज्यपाल ने रविवार 23 मई 1982 के दिन चौ० भजनलाल को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला दी जबकि उनकी पार्टी अल्पसंख्यक थी। राज्यपाल ने चौ० भजनलाल को 30 जून 1982 को विधानसभा में अपनी पार्टी का बहुमत सिद्ध करने के लिए मौका दिया। इस दौरान में चौ० भजनलाल ने अन्य कई विधायकों को खरीद लिया।

सुना जाता है कि यह खरीद 20-20 लाख रुपये देकर तथा अन्य प्रलोभन देकर की गई। 30 जून को चौ० भजनलाल ने अपना बहुमत सिद्ध कर दिया और वे दोबारा हरयाणा प्रान्त के मुख्यमन्त्री बन गये। यह इन्दिरा गांधी, राज्यपाल तपासे तथा चौ० भजनलाल का जानबूझकर किया गया षड्यंत्र, अन्याय, भ्रष्टाचार और कांग्रेस (ई) की खुले तौर पर अवैधानिक कार्रवाई थी। चौ० भजनलाल को 23 मई को मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिलाने के अगले दिन चौ० देवीलाल अपने 48 साथियों सहित राज्यपाल तपासे के राजभवन में पहुंचे और वहां जाकर उसके द्वारा किये गये अन्याय पर उसको बुरी तरह धमकाया तथा लज्जित किया।

31 अक्तूबर 1984 को प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की अपनी कोठी में अपने ही दो अंगरक्षकों ने गोलियां मारकर हत्या कर दी। उसी दिन उसके पुत्र राजीव गांधी को राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह द्वारा प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिला दी गई। देश के लोकसभा के आम चुनाव 24 दिसम्बर 1984 को हुये जिसमें कांग्रेस (इ) भारी बहुमत से विजयी हुई। इसका कारण इन्दिरा सहानुभूति - इन्दिरा लहर था। हरयाणा के चौ० देवीलाल की दलित मजदूर किसान पार्टी1 के सभी 10 उम्मीदवार हार गये और चौ० साहब भी स्वयं सोनीपत हल्के से चौ० धर्मपालसिंह मलिक कांग्रेस उम्मीदवार से हार गए। परन्तु इतनी बुरी हार के पश्चात् भी साहसी वीर चौ० देवीलाल ने अपने संघर्ष के लक्ष्य को जारी रखा।

24 जुलाई 1985 को श्री राजीव गांधी ने उग्रवादियों से डरकर संत हरचन्दसिंह लोंगोवाल के साथ पंजाब समझौता कर लिया जिसकी 9 व 7 धाराएं हरयाणा के खिलाफ जाती हैं। इस समझौता के लिए चौ० भजनलाल और बंसीलाल से पूछा तक भी नहीं गया।

इस समझौते का मुख्यमन्त्री चौ० भजनलाल, चौ० बंसीलाल ने स्वागत किया। हरयाणा के किसी भी कांग्रेसी नेता ने इसका विरोध नहीं किया। चौ० देवीलाल ने इसका डटकर विरोध किया


1. नोट - 1983 में लोकदल में बहुगुणा तथा उसकी पार्टी का विलय हो गया। उस समय इस पार्टी का नाम दलित मजदूर किसान पार्टी रखा गया जिसके अध्यक्ष चौ० चरणसिंह थे। 24 दिसम्बर 1984 के लोकसभा चुनाव के बाद फिर इस पार्टी का नाम लोकदल ही रखा गया।


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और इस समझौते को हरयाणा के किसानों तथा जनता के साथ अन्याय बताया और इसको मानने से इन्कार कर दिया।

संघर्ष समिति का गठन तथा उसके आन्दोलन

चौ० देवीलाल ने पंजाब समझौते में हरयाणा के हितों की अवहेलना के विरुद्ध रोष प्रकट करने हेतु संघर्ष समिति का गठन किया जिसमें हरयाणा की सभी जातियां शामिल हुईं। चौ० देवीलाल हरयाणा लोकदल एवं हरयाणा संघर्ष समिति के अध्यक्ष बने। इस संघर्ष समिति में मुख्य नेता यह थे -

श्री बनारसीदास गुप्ता, मास्टर हुकमसिंह, हीरानन्द आर्य श्रीमती चन्द्रावती देवी, बलवन्त राय तायल, कृपाराम पूनिया, राव वीरेन्द्र के पुत्र राव अजीतसिंह, मूलचन्द जैन, चौ० वीरेन्द्रसिंह, डा० मंगलसेन, श्री सूरजभान, खुर्शीद अहमद, राव रामनारायण। भगवतदयाल शर्मा (जो चुनाव से कुछ दिन पहले कांग्रेस में मिल गये), प्रोफेसर सम्पतसिंह आदि। चौ० देवीलाल ने चुनाव लड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी से समझौता किया।

14 अगस्त 1985 को देवीलाल तथा उनके साथियों सहित 19 विधायकों ने अपने त्यागपत्र दे दिये।

1. 5 दिसम्बर 1985 को संघर्ष समिति की न्याय-यात्रा हिसार से शुरु हुई जो पैदल चलकर 19 दिसम्बर 1985 को दिल्ली बोट क्लब पहुंची। बड़ी भारी संख्या में जनता वहां पहुंच गई थी। संसद का घेराव करने के लिए भीड़ आगे को बढ़ती जा रही थी। पुलिस ने लोगों को रोका, 25,000 कार्यकर्त्ताओं ने गिरफ्तारियां दीं। न्याय यात्रा पूरे तौर से सफल रही। दिल्ली की सरकार घबरा गई।
2. 23 जनवरी 1986 को ‘हरयाणा बन्द’ हुआ। पूरे हरयाणा में सब दुकानें बन्द रहीं। सब पहिये जाम हो गये। कोई रहड़ी, मोटर साईकल, गाड़ी, साईकल तक भी न चली। दिल्ली सरकार ने हरयाणा से होकर जाने वाली रेलगाड़ियां, बसें आदि रोक दीं। कहरावर (जि० रोहतक) के स्टेशन पर पंजाब मेल को रोक लिया। उसमें सिक्ख यात्री भी बहुत थे। इस गांव के लोगों ने उन यात्रियों को खाना, दूध, चाय आदि दिया तथा उनके साथ अच्छा सलूक किया। परन्तु उनकी गाड़ी को शाम तक रोके रखा।
इस दिन पुलिस की गोलियों से धर्मवीरसिंह गांव प्योदा (कुरुक्षेत्र), लाट गांव (जि० सोनीपत) के सरपंच बलवीरसिंह और ओमप्रकाश गोयल पानीवाला मोटा (जिला सिरसा) शहीद हुये और सैंकड़ों लोग घायल हुये। 26 जनवरी 1986 को प्रधानमन्त्री ने चण्डीगढ़ पंजाब को भेंट करना था, परन्तु 23 जनवरी के ‘हरयाणा बन्द’ को देखकर उनका ऐसा करने का साहस न हुआ। चौ० देवीलाल ने इन तीनों शहीदों के परिवारों को एक-एक लाख रुपये दिये।
3. 23 मार्च 1986 को जींद में समस्त ‘हरयाणा सम्मेलन’ हुआ जिसमें लोगों की कई लाख की संख्या थी।
4. 23 मई 1986 को चौधरी भजनलाल मुख्यमन्त्री हरयाणा के खिलाफ असहयोग आंदोलन

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चल पड़ा। चौ० भजनलाल तथा उसके किसी मंत्री की शहर व गांव में जाकर जलसा करने की हिम्मत न पड़ी। यही कहावत प्रसिद्ध हो गई कि हरयाणा की जनता मुख्यमंत्री भजनलाल के आदेश को न मानकर अपने नेता देवीलाल के ही आदेश का पालन करती है। प्रधानमंत्री ने भजनलाल को दिल्ली बुला लिया और उसकी जगह चौ० बंसीलाल का रेलमंत्री पद से इस्तीफा मांगकर उसे हरयाणा का मुख्यमन्त्री नियुक्त कर दिया। चौ० बंसीलाल 4 जून 1986 को दोबारा हरयाणा के मुख्यमंत्री बने।
5. चौ० बंसीलाल ने देवीलाल आंधी को रोकने के लिए सरकारी रैलियां शुरु कीं, परन्तु 21 जून 1986 के हरयाणा बन्द ने फिर भारी भूकम्पी झटका दिया।
6. चौ० बंसीलाल ने 9 जुलाई 1986 ई० को रोहतक अनाज मण्डी में अपना जलसा रखा। चौ० देवीलाल ने उसी दिन रोहतक में ही अपना जलसा रखा। चौ० बंसीलाल के आदेश पर 7-8 जुलाई 1986 ई० को लोकदल भाजपा के सब नेता और सक्रिय कार्यकर्त्ता गिरफ्तार कर लिए गये। चौ० देवीलाल को 8 जुलाई 1986 को रोहतक में गिरफ्तार किया गया। रोहतक शहर में धारा 144 लगाई गई, परन्तु चौ० बंसीलाल ने खुद अपना जलसा बन्द नहीं किया। सरकारी ट्रकों में लोगों को लाया गया किन्तु वे चौ० देवीलाल की जय बोलते आये। पुलिस ने देवीलाल के समर्थकों के ट्रेक्टरों को रोकना चाहा मगर वे रुक न सके।
7. 23 जनवरी 1987 को उन तीन शहीदों की पहली बरसी पर रोहतक जाट हाई स्कूल के विशाल मैदान में शहीदी रैली हुई जिसमें लगभग 10-12 लाख लोगों ने भाग लिया। इस अवसर पर चौ० अजीतसिंह, पं० भगवतदयाल तथा दूसरे प्रान्तों से आये कई नेताओं ने चौ० देवीलाल के समर्थन में भाषण दिये। लोकदल उपाध्यक्ष बहुगुणा ने भी अपना भाषण दिया।

पं० भगवतदयाल के भाषण के कुछ अंश -

“मैंने आज तक इतनी बड़ी रैली नहीं देखी है। इसमें भाग लेने के लिए दूर-दूर से लोग यहां अपने खर्चे से तथा अपनी इच्छा से आये हैं। देवीलाल हरयाणा के मुख्यमन्त्री तो बन गये इसमें कोई शक नहीं है, परन्तु हमने तो इनको भारत के नेता बनाना है जिससे ये इस भ्रष्ट कांग्रेस सरकार को दिल्ले से भी उखाड़ फेंकें। मैं अपना समर्थन चौ० देवीलाल को देता हूं और इस पर अटल रहूंगा। मेरे अन्दर कुछ कमियां हैं लेकिन मैं जबान का पक्का हूं। मैं ब्राह्मण हूं जिसकी जबान कभी भी बदल नहीं सकती।”

मगर बड़े आश्चर्य की बात है कि चुनाव से ही कुछ दिन पहले, प्रधानमन्त्री द्वारा दिये जाने वाले प्रलोभन से पण्डित जी, जबान पर कायम न रहकर, कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये।

इस विशाल रैली तथा देवीलाल की संघर्ष समिति के बढ़ते प्रभाव को देखकर चौ० बंसीलाल तथा केन्द्रीय सरकार घबरा गई। उन नेताओं को डर हुआ कि यदि 23 मार्च 1987 को केरल, बंगाल और जम्मू-कश्मीर के साथ हरयाणा के चुनाव करा दिये तो कांग्रेस की करारी हार होगी और हरयाणा में कांग्रेस की हार हो जाने पर उत्तरी भारत में कांग्रेस का सफाया हो जाएगा। अतः केन्द्रीय सरकार के चुनाव आयोग पर दबाव देकर हरयाणा के चुनाव 23 मार्च को नहीं होने दिये तथा यहां पर चुनाव की तारीख 17 जून रख दी गई।


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चौधरी चरण सिंह महीनों के लकवे की बीमारी के कारण बोल नहीं सकते थे। उनका इलाज राममनोहर लोहिया हस्पताल में चल रहा था, फिर अमेरिका ले जाया गया। वहां पर इलाज न होने के कारण वापिस भारत लाया गया तथा 29 मई 1987 को भारत के महान् नेता का स्वर्गवास हो गया। 5 मार्च 1987 को चौ० अजीतसिंह ने अपने नाम से लोकदल (अ) अलग बना लिया। दूसरा बहुगुणा के नाम से लोकदल (ब) बन गया। इस तरह चुनाव के कुछ ही दिन पहले लोकदल के दो धड़े हो गये जिसका लाभ कांग्रेस को और हानि लोकदल की होनी थी। चौ० अजीतसिंह ने चौधरी देवीलाल के मुकाबिले में अपने 54 उम्मीदवार खड़े किये। 90 सीटों के लिए चौधरी देवीलाल का लोकदल (ब) और भारतीय जनता पार्टी ने सीटों का बटवारा करके मिलकर चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने सब 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये। लोकसभा के लिए भिवानी से लोकदल (ब) के उम्मीदवार चौ० रामनारायण I.A.S. और कांग्रेस के चौ० दयानन्द थे। रोहतक से लोकसभा के लिए लोकदल (ब) के उम्मीदवार सन्त हरद्वारी लाल, कांग्रेस के प्रो० शेरसिंह लोकदल (अ) की श्रीमती गायत्री देवी थी।

17 जून 1987 को चुनाव हुआ जिसमें देवीलाल की आंधी ने कांग्रेस का सफाया कर दिया जिसका नतीजा इस प्रकार है -

विधानसभा की 90 सीटों में से लोकदल (ब) 59 पर विजयी हुआ। कांग्रेस केवल 5 पर, भारतीय जनता पार्टी 18 सीटों पर विजयी हुई, आजाद 6 पर, सी.पी.एम. 1 सी.पी.आई. 1 - इन सबको देवीलाल ने अपना समर्थन दिया था। लोकदल (अ) सब स्थानों पर हार गया। इस दल के 53 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई। केवल एक चौ० ओमप्रकाश बेरी हारकर अपनी जमानत बचा सके। लोकसभा के लिए सन्त हरद्वारीलाल व चौ० रामनारायण विजयी हुए, बाकी सबकी जमानत जब्त हुई। तोशाम विधानसभा क्षेत्र से चौ० धर्मवीर ने चौ० बंसीलाल को हराया। इस तरह से न्याय युद्ध की बड़ी भारी जीत हुई। 18 जून 1977 को चौ० बंसीलाल ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया। हरयाणा के राज्यपाल एस० एम० एच० बर्नी ने चौ० देवीलाल को 20 जून 1987 को हरयाना के मुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला दी। चौ० देवीलाल ने अपना मन्त्रीमण्डल बनाया।

मुख्यमन्त्री बनते ही चौ० देवीलाल द्वारा किए गए जन-कल्याण कार्य

  • 1. 227.51 करोड़ रुपये के ऋण माफ कर दिये हैं। इसमें 7.48 लाख छोटे किसानों, भूमिहीन मजदूरों, छोटे दुकानदारों, दस्तकारों, अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों को लाभ होगा।
  • 2. खेत के बिल्कुल साथ लगती वन विभाग के वृक्षों के एक पंक्ति की बिक्री से होने वाली आय की 50 प्रतिशत राशि खेत के मालिक को दी जाएगी ताकि इस प्रकार के वृक्षारोपण से होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति हो सके।
  • 3. शिक्षित बेरोजगार युवकों के लिए साक्षात्कार पर जाने हेतु हरयाणा रोडवेज की बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा दी गई है।
  • 4. 17 जून 1987 को 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने वाले या इससे अधिक आयु वाले वृद्ध व्यक्तियों को 100 रुपये प्रति मास की दर से वृद्धावस्था पेंशन दी गई है। जिनकी संख्या 6 लाख 25 हजार है।

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  • 5. किसानों को उनके उत्पादन का लाभदायक मूल्य सुनिश्चित किया जाएगा ताकि उनके आर्थिक स्तर में सुधार हो सके।
  • 6. खेतों तथा कारखानों में उत्पादन बढ़ाने के लिए बिजली और जल आपूर्ति में वृद्धि करने के प्रयास किए जाएंगे
  • 7. सतलुज-यमुना योजक नहर के निर्माण को शीघ्र पूरा करवाने के लिए कदम उठाए जायेंगे ताकि हम अपने हिस्से के पानी का अत्यधिक उपयोग कर सकें।
  • 8. लोगों की शिकायतों को तत्परता से दूर किया जाएगा। यह भी ध्यान रखा जाएगा कि उन्हें कोई असुविधा न हो।
  • 9. किसानों को रबी के बीजों, उर्वरकों, खरपतवार नाशक तथा कीटनाशक दवाइयों पर अनुदान देने के लिए सात करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं।
  • 10. सूखा प्रभावित क्षेत्रों में तकावी तथा आबियाना की वसूली स्थगित कर दी गई है।
  • 11. सूखे से प्रभावित किसानों को राहत पहुंचाने के लिए किसानों द्वारा लिए गए अल्पकालीन ऋणों को मध्यम कालीन ऋणों में बदल दिया गया है।
  • 12. राज्य के समृद्ध लोगों तथा राज्य से बाहर बसे हरयाणवियों को स्कूल भवनों, हस्पताल तथा धर्मशालाओं जैसी सामाजिक उपयोगिता की परियोजनाओं के लिए दान देने हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिए मैचिंग ग्रांट दी जाएगी।*

राष्ट्र की विपक्षी पार्टियों को संगठित करने में चौ० देवीलाल का योगदान

चौ० देवीलाल ने, हरयाणा के मुख्यमन्त्री बनते ही, भारतवर्ष में द्विदलीय शासन प्रणाली की स्थापना के प्रयास आरम्भ कर दिये। इस शृंखला में चौ० देवीलाल ने 23 सितम्बर 1987 ई० को बड़खल झील सूरजकुण्ड (हरयाणा) में भारत के विपक्षी दलों की सर्वप्रथम एक सभा बुलाई। इस सभा में भारत में कांग्रेस (इ) के विकल्प के रूप में एक संगठित दल बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। इस सभा में देश की लगभग सभी विपक्षी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने भाग लिया। इसी सिलसिले में चौ० देवीलाल ने 23 नवम्बर, 1987 ई० को शामली (उत्तरप्रदेश) में एक विशाल सभा का आयोजन किया। इसके पश्चात् सभी विपक्षी पार्टियों को तोड़कर ‘आमलेट’ सिद्धान्त का नारा चौ० देवीलाल द्वारा किया गया। इसका पालन करने हेतु 11 अक्टूबर 1988 ई० को बंगलोर में विपक्षी पार्टियों के संगठन “जनता दल” नामक पार्टी का विधिवत् उद्घाटन किया गया। इस “जनता दल” नामक पार्टी का अध्यक्ष विश्वनाथ प्रतापसिंह को बनाया गया। 15 नवम्बर, 1988 ई० को चौ० देवीलाल की अध्यक्षता में लोकदल को तथा 17 नवम्बर, 1988 को चौ० अजीतसिंह की अध्यक्षता में जनता पार्टी को, विधिवत् सम्मेलन करके, “जनता दल” में विलीन कर दिया गया।


(*) - आधार पुस्तकें - 1. चौटाला से चण्डीगढ़ (किसान नेता चौ० देवीलाल की संघर्ष भरी जीवन कहानी) लेखक डॉ० राजाराम। 2. “रहबरे आजम चौ० छोटूराम स्मारिका” का ‘चौ० देवीलाल विजय विशेषांक’, बसंत पंचमी 23 जनवरी, 1988। 3. समाचारपत्रों से।


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श्री विश्वनाथ प्रतापसिंह की अध्यक्षता में “जन मोर्चा” पहले ही 2 अक्टूबर, 1988 ई० को “जनता दल” में विलीन हो चुका था।

16 अक्टूबर, 1988 ई० को मद्रास के “मरीना बीच” पर विपक्षी पार्टियों की एक विशाल सभा का आयोजन किया गया तथा 16 नवम्बर, 1988 ई० को आगरा में दूसरी विशाल जनसभा करके जनजागरण अभियान आरम्भ कर दिया गया। भारतवर्ष में बहुदलीय पार्टी शासन की अपेक्षा द्विदलीय शासन प्रणाली स्थापित करने में चौ० देवीलाल सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं तथा आज सारे देश की राजनीति चौ० देवीलाल के चारों ओर चक्कर काटती नजर आ रही है। इस प्रकार चौ० देवीलाल राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष के एक शक्तिमान तथा सक्रिय भूमिका अदा करनेवाले नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। सभी की निगाहें आप पर टिकी हुई हैं।

उपप्रधानमंत्री चौ० देवीलाल

नौवीं लोकसभा के चुनाव 22, 24, 26 नवम्बर 1989 ई० को सम्पन्न हुए। जनता दल और राष्ट्रीय मोर्चा ने मिलकर चुनाव लड़ा तथा भारतीय जनता पार्टी से सीटों का तालमेल किया गया। इस चुनाव में चौ० देवीलाल की भूमिका व योगदान सबसे श्रेष्ठ रहा। 525 सीटों पर चुनाव हुए जिसका नतीजा यह रहा। जनता दल को मिले -141, भाजपा-88, माकपा-32, भाकपा-12, अन्नाद्रुमक-11, तेलगुदेशम-2, कांग्रेस (इ)-193 आदि। चौ० देवीलाल ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा। सीकर से पूर्व-स्पीकर चौ० बलराम जाखड़ को लाखों वोटों से हराकर तथा रोहतक से संत हरद्वारीलाल को लगभग दो लाख वोटों से हराकर विजयी हुए। परन्तु फिरोजपुर से थोड़े अन्तर से हार गए। जनता दलराष्ट्रीय मोर्चा को सरकार बनाने के लिए भाजपा, माकपा तथा भाकपा पार्टियों ने बाहर रहकर अपना समर्थन देने का वचन दिया।

1 दिसम्बर 1989 ई० को जनता दल व राष्ट्रीय मोर्चा संसदीय दल के नेता का चुनाव हुआ। प्रो० मधु दण्डवते ने सदस्यों से कहा कि वे नेता पद के लिए नाम का प्रस्ताव करें। फौरन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा कि इस दल को बनाने में चौ० देवीलाल का योगदान सबसे ज्यादा है। मैं उनके नाम का प्रस्ताव रखता हूं। चन्द्रशेखर जी ने प्रस्ताव का समर्थन किया। प्रो० दण्डवते ने पूछा कि क्या कोई दूसरा नाम भी है? कोई नाम नहीं आया। प्रो० दंडवते ने घोषणा की कि चौ० देवीलाल सर्वसम्मति से नेता चुने गए। चौ० देवीलाल खड़े हुए, उन्होंने कहा कि मैं आप सबका शुक्रगुजार हूं, विशेषकर विश्वनाथ प्रताप सिंह का। हमारी इच्छा पूरी हुई। लम्बी लड़ाई लड़कर हमने भ्रष्ट कांग्रेस सरकार को हराया है। मुझे इसका अहसास है कि देश ने हम पर जो जिम्मेदारी डाली है, उसे विश्वनाथ प्रताप सिंह बेहतर तरीके से निभाएंगे। मैं समझता हूं मेरा ताऊ का रोल रहना चाहिए। मैं अपनी तरफ से वी० पी० सिंह का नाम प्रस्तावित करता हूं। लोग मेजें थपथपाकर अपनी खुशी और देवीलाल की ऐतिहासिक भूमिका की प्रशंसा कर रहे थे। प्रो० मधु दण्डवते ने वी० पी० सिंह को सर्वसम्मति से पार्टी का नेता चुने जाने पर सदस्यों का धन्यवाद किया।

चौ० देवीलाल का यह एक अद्वितीय ऐतिहासिक त्याग है। उन्होंने अपने सिर पर रखा हुआ ताज उतारकर वी० पी० सिंह के सिर पर रख दिया, राजनीति में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। चौ० देवीलाल के प्रयत्न से बना जनता दल तथा उसकी विजय तथा उनके इस ऐतिहासिक त्याग के


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फलस्वरूप लोगों ने इन्हें ताऊ नाम से सम्बोधित करना शुरु कर दिया। पूरे भारतवर्ष में चौ० देवीलाल ‘ताऊ’ के नाम से ही विख्यात हैं। 2 दिसम्बर 1989 को श्री वी० पी० सिंह ने प्रधानमंत्री की तथा चौ० देवीलाल ने उपप्रधानमंत्री की शपथ ग्रहण की। वी० पी० सिंह ने 5 दिसम्बर 1989 को मन्त्रिमण्डल को शपथ ग्रहण करवाई। चौ० देवीलाल को कृषि केबीनेट मंत्री का विभाग भी दिया गया।

1 अगस्त 1990 ई० की रात्रि को प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने उपप्रधानमन्त्री एवं कृषि मन्त्री चौ० देवीलाल को बर्खास्त कर दिया। आरोप जाली पत्र। इस जाली पत्र का स्पष्टीकरण देने का अवसर भी चौ० देवीलाल को नहीं दिया गया। ताऊ जी के प्रति वी० पी० सिंह का यह कार्य बड़ा अहसानफरामोश तथा निन्दनीय है। वास्तव में ताऊ जी का किसानों के हितों का अधिक पक्ष लेने के कारण ऐसा हुआ।

चौ० देवीलाल ने बोट क्लब पर किसान रैली 9 अगस्त 1990 को आयोजित करने की घोषणा की। इस रैली को विफल करने के लिए प्रधानमन्त्री वी० पी० सिंह ने जल्दबाजी में 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की घोषणा कर दी। फिर भी 9 अगस्त को बोट क्लब पर किसान रैली में लगभग 20 लाख लोगों ने भाग लिया। पूरे भारतवर्ष् के कोने-कोने से आकर किसानों ने इस रैली में भाग लिया। इस अवसर पर प्रसिद्ध नेताओं ने भाषण दिए। चौ० देवीलाल के भाषण के कुछ अंश -

किसानों का 10 हजार रुपये तक का कर्ज माफ करने और योजना आयोग का अध्यक्ष गांव के किसी व्यक्ति को बनाने की तथा इसके ज्यादा सदस्य गांव के होने की मांग की। चौ० देवीलाल ने चेतावनी दी कि प्रधानमन्त्री ने घोषणा पत्र के मुताबिक किसानों और गांव की बेहतरी के लिए शीघ्र कदम नहीं उठाए तो सरकार के खिलाफ अभियान तेज किया जाएगा। जिस तरह किसानों के लिए हदबंदी कानून लागू है वैसे ही शहरी और औद्योगिक सम्पत्ति पर भी हदबंदी लगाई जाए। गांव व शहर के बीच विकास की खाई को समाप्त कर समानता लाई जाए। भूतपूर्व सैनिकों के लिए ‘एक रैंक एक पेन्शन’ की शीघ्र घोषणा की जाए।
चौ० देवीलाल ने घोषणा की कि “किसानों के साथ अन्याय के खिलाफ देशभर में जनजागरण किया जाएगा।”

भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने राम जन्मभूमि अयोध्या में 30-10-90 को कार सेवा में शामिल होने के लिए सोमनाथ से रथ यात्रा आरम्भ की। 21-10-90 को उन्हें बिहार में कैद कर लिया गया। उसी दिन भाजपा ने वी० पी० सिंह सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। जनता दल सरकार अल्पमत में रह गई। 5-11-90 को चौ० देवीलाल की कोठी पर 68 सांसदों की बैठक हुई। चौ० देवीलाल ने श्री चन्द्रशेखर को प्रधानमन्त्री चुन लिया तथा वी० पी० सिंह को इस पद से हटा दिया। पार्टी का नाम जनता दल (स) रखा गया। 7-11-90 को लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव पर बहस हुई जिसमें वी० पी० सिंह की सरकार गिर गई। चन्द्रशेखर ने राष्ट्रपति के सामने 280 सदस्यों का समर्थन घोषित किया। 10-11-90 को श्री चन्द्रशेखर ने राष्ट्रपति भवन में प्रधानमन्त्री पद की शपथ ग्रहण की। 16-11-90 को प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर ने लोकसभा में विश्वास मत प्राप्त कर अपना बहुमत सिद्ध कर दिया। चन्द्रशेखर को मत प्राप्त हुए - जनता दल (स) 68, कांग्रेस (इ) 195,


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अन्य 17 - कुल 280 मिले और विरोध में कुल 214 मत पड़े। प्रधानमन्त्री ने अपने मन्त्रिमण्डल को दिनांक 21-11-90 को शपथ दिलवाई। चौ० देवीलाल को उप-प्रधानमन्त्री के अतिरिक्त कृषि एवं पर्यटन के विभाग भी सौंपे गए।

लोकसभा तथा राज्यसभा का सेशन चालू हुआ। भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्री राजीव गांधी के आदेश से कांग्रेस (इ) पार्टी ने इस सेशन का बहिष्कार कर दिया। 14-3-91 को प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने राष्ट्रपति से लोकसभा भंग करने तथा चुनाव कराने की सिफारिश की। इसी दिन यह नौंवीं लोकसभा भंग कर दी गई। 10वीं लोकसभा के चुनाव 20 मई, 12 जून व 15 जून 1991 को सम्पन्न हुए। 20-5-91 को भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी अपने चुनावी दौरे पर मद्रास से 50 कि० मी० दूरी पर श्रीपेरूम्बदूर में सभा को भाषण देने के लिए मंच पर चढ़ने ही वाले थे कि रात्रि के 10.20 बजे एक शक्तिशाली बम विस्फोट में उनकी मृत्यु हो गई। इससे कांग्रेस (इ) को सहानुभूति वोट मिली और यह इस चुनाव में 227 सीट जीत कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई। भाजपा को छोड़कर अन्य कई पार्टियों के बाहरी समर्थन से कांग्रेस (इ) की सरकार बनी जिसका नेता व प्रधानमंत्री पी० वी० नरसिंहराव बना। उसने 22 जून को प्रधानमंत्री की शपथ ग्रहण की तथा अपना मन्त्रिमण्डल बनाया। चौ० देवीलाल इस चुनाव में रोहतक लोकसभा सीट से तथा घिराय (हिसार) से विधान सीट से षड्यन्त्र द्वारा कुछ वोटों से हार गए। समय की बात है, जैसे - जाटां (आभीर गोत्र के) लूटी जाटणी (गोपनी), अर्जुन जाट के खाली बाण। ऐसा ही ‘ताऊ’ के साथ हुआ।

उपप्रधानमंत्री चौ० देवीलाल द्वारा ग्रामीणों के उत्थान के लिए कार्य

हरयाणा के मुख्यमंत्री रहते हुए चौ० देवीलाल ने हरयाणा की जनता की भलाई के लिए किए गए कारनामे पृ० 980-981 पर लिखे गए हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कार्य निम्न प्रकार से हैं -

  1. केन्द्रीय बजट का 50% भाग ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए प्रावधान किया।
  2. किसानों के खेत की पैदावार के पर्याप्त भाव बढ़वाए जिससे किसान समुदाय को बड़ा लाभ हुआ।
  3. कृषि को उद्योग का दर्जा देने का प्रयास किया।
  4. केन्द्रीय सरकारी हर प्रकार की नौकरियों व पदों पर 80% अनुपात के अनुसार किसानों व ग्रामीणों को नियुक्त करने पर जोर दिया।
  5. घुमन्तु जाति के बालकों को पाठशाला जाने हेतु प्रोत्साहन देने के लिए एक रुपया प्रतिदिन हाज़री पुरस्कार देना आरम्भ किया।
  6. हरिजन महिलाओं को पहले दो बच्चे पैदा होने पर प्रसूति लाभ के तौर पर 300 रुपये प्रति बालक मंजूर किए।

यह सर्वविदित है कि आज के राजनीतिज्ञ नेताओं में भारतीय किसान व ग्रामीन जनता के सच्चे हितैषी चौ० देवीलाल ही हैं। यदि ‘ताऊ जी’ को आज के भारत के किसानों का मसीहा कहा जाए तो बजा होगा। आप एक साहसी, निडर, प्रवीण राजनीतिज्ञ हैं और अत्याचार व अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। आशा हैकि आप अपनी पार्टी को शीघ्र ही राजशक्ति में फिर से ले आएंगे।


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चौधरी बंसीलाल

विशेषतायें - चौधरी बंसीलाल का कद लम्बा है। शरीर पतला होते हुए भी पुष्ट, सरल प्रकृति के तथा कठोर परिश्रमी हैं। आप का सादा पहनावा है, केवल खद्दर का ढीला कुर्ता-पाजामा तथा सिर पर गांधी कैप पहनते हैं। आप धर्मनिरपेक्ष एवं योग्य प्रशासक नेता हैं। आप कठिन समस्या को शीघ्रता से हल करने वाले एक अद्भुत नेता हैं। आप अपने आदेशों का पालन बड़ी कठोरता से करवाते हैं। राज्य के राजनैतिक विषय में अस्थिरता करने वालों के विरुद्ध आपने निडरता, दृढ़ता तथा कठोरता से कार्य किए। आप हरयाणा प्रान्त की हर पहलू में उन्नति करके इसको चमकाने वाले पहले मुख्यमन्त्री हैं। आप सन् 1949 से आज तक कांग्रेस पार्टी में हैं, आपने किसी अन्य पार्टी में प्रवेश नहीं किया है।

जन्म, शिक्षा तथा व्यवसाय - चौ० बंसीलाल का जन्म सन् 1927 में जिला भिवानी के एक गांव गोलागढ़ में लेघा जाट गोत्र के एक निर्धन किसान जाट चौ० मोहरसिंह के घर हुआ। इनका पालन-पोषण साधारण जाट घरानों के बालकों की भांति हुआ। अपनी शिक्षा प्राप्ति के साथ-साथ अपने खेतों तथा घरेलू धन्धों में अपने पिता का हाथ बंटाते थे। चौ० बंसीलाल ने पंजाब विश्वविद्यालय से बी० ए०, एल-एल-बी पास करके भिवानी में वकालत शुरु की।

लोहारू केवल 60 गांवों की एक छोटी सी रियासत जिला हिसार में थी जिसका शासक नवाब अमीनुद्दीन था। इस रियासत की 95% हिन्दू आबादी थी जिसमें जाट किसान अधिकतर थे। नवाब ने हिन्दुओं पर भारी कर, बेगार लगाये तथा धार्मिक स्वतन्त्रता पर रोक लगा दी। 1935 में जनता में जनजागृति पैदा करने में आर्यसमाज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन प्रचारकों के ठिकानों में गोलागढ़ भी एक खास केन्द्र था। जनता ने नवाब के विरुद्ध आन्दोलन शुरु कर दिया। 8 अगस्त 1935 को जनता पर गोलियां चलवा दीं जिससे 22 देशभक्त शहीद हो गये और बहुत लोग घायल हो गये। सर छोटूराम की अध्यक्षता में 17 नेताओं की एक रिलीफ कमेटी बनी जिसमें श्री ठाकुरदास भार्गव भी थे। यह गोलीकांड गांव सिंघाणी में हुआ। यह सभी सूचनायें सूबेदार दिलसुख द्वारा वायसराय तक पहुंचाई गईं। वायसराय के आदेश पर नवाब ने सूबेदार दिलसुख और उनके साथ किसानों से समझौता किया तथा टैक्सों में भी छूट दी। इस कांड का चौ० बंसीलाल पर बड़ा प्रभाव पड़ा। कुछ वर्षों के बाद नवाब ने अपनी वही क्रूर व कठोर नीति जनता के लिए अपनाई। इसके विरुद्ध जनता ने प्रजामण्डल आंदोलन शुरू किया जिसमें विद्यार्थियों व विद्वान् युवकों ने भी भाग लिया। इस अवसर पर चौ० बंसीलाल भी इस आन्दोलन में कूद पड़े और सन् 1943 में इस प्रजामण्डल आन्दोलन के सेक्रेटरी (मन्त्री) नियुक्त किए गए। आपने नवाब के विरुद्ध जनता को बड़ा सहयोग दिया। प्रजामण्डल के नेताओं तथा अन्य कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं ने रियासत में शान्ति बनाए रखनी की अंत तक चेष्टा की। आखिर सत्य और अहिंसा के मार्ग के इन पथिकों की विजय हुई। स्वतन्त्रता के बाद रियासत का विलय हिसार जिले में कर दिया गया।

चौधरी बंसीलाल का राजनीति में प्रवेश

आप स्वतन्त्रता प्राप्ति के दो वर्ष पश्चात् सन् 1949 में कुराल मंडल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए। इसके पश्चात् आपका राजनैतिक जीवन चालू रहा। आप संयुक्त पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। सन् 1960 में आपको सरदार प्रतापसिंह कैरों सरकार ने राज्यसभा का


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सदस्य चुनकर दिल्ली भेज दिया। उस समय आपकी आयु केवल 33 वर्ष की थी। वहां पर आपका मिलाप बड़े-बड़े राजनीतिक नेताओं से हो गया। वृद्ध कांग्रेसी नेता श्री गुलजारीलाल नन्दा आपकी कार्य योग्यता तथा दृढ़ विचारों से चकित रह गए और सदा इनके सहायक रहे।

चौधरी बंसीलाल हरयाणा मुख्यमन्त्री पद पर

हरयाणा की स्थापना 1 नवम्बर 1966 को होने पर हरयाणा के पहले मुख्यमन्त्री पं० भगवतदयाल शर्मा नियुक्त हुए जो 4 महीने 9 दिन तक इस पद पर रहे। फिर 1967 में आम चुनाव हुए। मार्च 10, 1967 को पं० भगवतदयाल शर्मा दोबारा हरयाणा प्रांत के मुख्यमन्त्री बने। परन्तु इनका बहुमत न होने पर इनको 22 मार्च के दिन त्यागपत्र देना पड़ा, यह केवल 13 दिन इस पद पर रह सके। 1967 के इस चुनाव में बंसीलाल जीत गए थे। श्री गुलजारीलाल नन्दा ने पं० भगवतदयाल से, चौ० बंसीलाल को अपने मन्त्रिमण्डल में उपमन्त्री बनाने की सिफारिश की थी, परन्तु इनको नहीं बनाया गया। 24 मार्च 1967 को हरयाणा के दूसरे मुख्यमन्त्री राव वीरेन्द्रसिंह बने, जिनकी पार्टी का नाम विशाल हरयाणा पार्टी था। 21 नवम्बर 1967 को 8 महीने के बाद राव वीरेन्द्रसिंह मन्त्रिमण्डल भंग हो गया। इसी दिन से हरयाणा प्रान्त में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। (देखो, पिछले पृष्ठों पर चौ० देवीलाल प्रकरण)।

श्री वीरेन्द्रनारायण चक्रवर्ती 22 नवम्बर 1967 से 20 मई 1968 तक राष्ट्रपति की तरफ से हरयाणा प्रांत के शासक रहे। 6 महीने बाद 12-14 मई 1968 को हरयाणा प्रान्त में मध्यावधि चुनाव हुए। यह पहला अवसर था कि हरयाणा के कांग्रेसी उम्मीदवारों ने केन्द्रीय कांग्रेस हाई कमांड के आदेश अनुसार चुनाव लड़ा। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी 81 सीटों में से 48 सीट प्राप्त करके विजयी हुई। 1967 के आम चुनाव में भी कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटें जीती थीं। चौ० बंसीलाल विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए। अब कांग्रेस सदस्यों के नेता का चुनाव होना था। ब्रिगेडियर रणसिंह भी अपने प्रतिद्वन्द्वी संयुक्त विधायक दल के भूतपूर्व मन्त्री चौ० प्रतापसिंह दौलता को बेरी हल्के से हराकर 20,000 मतों की बढ़त लेकर विजयी हुए थे। मुख्यमंत्री पद के कई उम्मीदवार थे, जिनमें से प्रसिद्ध व्यक्ति निम्न प्रकार से थे - 1. पं० भगवतदयाल शर्मा, 2. ओमप्रभा जैन, 3. ब्रिगेडियर रणसिंह, 4. चौ० देवीलाल, 5. चौ० रणवीरसिंह, 6. श्री रामकिशन गुप्ता, 7. केन्द्र में राज्य शिक्षामन्त्री प्रो० शेरसिंह। परन्तु कांग्रेस हाई कमांड ने चौ० बंसीलाल को नेता बनाने का निश्चय किया तथा 21 मई 1968 को 41 वर्षीय चौ० बंसीलाल को सर्वसम्मति से निर्विरोध नेता चुनकर हरयाणा राज्य का मुख्यमन्त्री बनाया गया। आप हरयाणा के तीसरे मुख्यमण्त्री बने। आप 21 मई 1968 से 14 मार्च 1972 तक हरयाणा राज्य के मुख्यमन्त्री रहे।1

मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल ने अपना मन्त्रिमण्डल बनाया और ब्रिगेडियर रणसिंह साहब को स्पीकर नियुक्त किया, जो हरयाणा विधानसभा के चौथे स्पीकर बने, जो 16 जुलाई 1968 से 3 अप्रैल 1972 तक रहे। इनके पश्चात् बनारसीदास गुप्ता 4 अप्रैल 1972 से दिसम्बर 1975 तक स्पीकर रहे।2

चौ० बंसीलाल की सरकार के विरुद्ध अक्तूबर 1968 में पं० भगवतदयाल शर्मा ने अपना धड़ा


1. हरयाणा ऑन हाई रोड टू प्रॉसपेरीटी, पृ० 20-21, लेखक मुनीलाल।
2. हरयाणा ऑन हाई रोड टू प्रॉसपेरीटी, पृ० 36, लेखक मुनीलाल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-990


अलग बनाना शुरु कर दिया। भगवतदयाल शर्मा हरयाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रधान बनना चाहते थे। मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल ने यह जान लिया था कि पं० भगवतदयाल शर्मा इस पद पर आ गए तो उनकी सरकार को गिरा देंगे। इसलिए चौ० बन्सीलाल ने उसका दृढ़ता से विरोध किया। श्री गुलजारीलाल नन्दा भगवतदयाल को कांग्रेस प्रधान बनाना चाहते थे, जबकि केन्द्रीय कांग्रेस प्रधान श्री निजलिंगप्पा ने चौ० बंसीलाल की जोरदार सहायता की। अतः भगवतदयाल को हरयाणा कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष नहीं बनाया गया।

इसके बाद भगवतदयाल ने बन्सीलाल सरकार को गिराने के लिए एम० एल० ए० की तोड़-फोड़ शुरु की। उसने दावा किया कि उसकी ओर 48 कांग्रेस विधायकों में से 19 हैं और राव वीरेन्द्रसिंह का संयुक्त मोर्चा तथा जनसंघ जिसके नेता चौ० मुखत्यारसिंह हैं, उसकी तरफ हैं। चौ० चांदराम भी भगवतदयाल की ओर हो गये। बन्सीलाल जी ने केन्द्रीय हाई कमांड को सूचित किया कि उसकी सरकार को कोई खतरा नहीं है।

9 दिसम्बर 1968 को 41 विधानसभा के सदस्यों ने, जिनमें 16 कांग्रेसी भी शामिल थे, गवर्नर चक्रवर्ती को सूचना दी कि हमने संयुक्त मोर्चा बना लिया है, जिसके नेता भगवतदयाल शर्मा हैं। हमारी मांग है कि बंसीलाल त्यागपत्र दें क्योंकि वह अपना बहुमत खो बैठे हैं। यद्यपि बाहर से उनका बहुमत दीख रहा था, परन्तु गवर्नर ने यह सोचकर कि यह मोर्चा हरयाणा में स्थायी सरकार नहीं रख सकेगा, उनकी बात पर विश्वास नहीं किया।1

28 जनवरी 1969 को विधानसभा का अधिवेशन बैठा। इससे पहले चौ० रिजकराम, चांदराम, मुखत्यारसिंह, रणबीरसिंह आदि स्पीकर ब्रिगेडियर रणसिंह से मिले और उनसे कहा कि हम आपको मुख्यमन्त्री बनाना चाहते हैं, परन्तु उन्होंने चौ० बंसीलाल के विरुद्ध ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद स्वयं पं० भगवतदयाल ब्रिगेडियर से मिले और कहा कि आप अपना वोट बंसीलाल के विरुद्ध मेरे को दे दो। ब्रिगेडियर साहब ने उनसे भी ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अधिवेशन के समय विरोधी दल ने चौ० बंसीलाल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखना था, परन्तु उनको बहुमत के लिए केवल 4 या 5 विधायकों की आवश्यकता थी, जो कि वे ऐसा करने में सफल हो जाते। विरोधी नेताओं ने स्पीकर ब्रिगेडियर रणसिंह से निवेदन किया कि वह इस अविश्वास प्रस्ताव को बहस के लिए 5-6 दिन बाद लायें, ताकि हम अपना बहुमत बना सकें। परन्तु स्पीकर जी ने उनकी बात को नहीं माना तथा उनको यह समय न देकर अधिवेशन को समाप्त कर दिया। इस तरह से ब्रिगेडियर रणसिंह ने बंसीलाल सरकार को बचा लिया2

प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी चौ० बंसीलाल की पूरी सहायक थी। उसने चौ० बंसीलाल को अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए उचित कार्य करने का अधिकार दे दिया। केन्द्रीय कांग्रेस संसद बोर्ड ने पं० भगवतदयाल को कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया। चौ० नेकीराम, चौ० माड़ूसिंह, पं० रामधारी गौड़, महावीरसिंह, खुर्शीद अहमद इत्यादि बहुत से सदस्य पं० भगवतदयाल को छोड़कर चौ० बंसीलाल के साथ आ गये। इसके बाद चौ० बंसीलाल सरकार बहुमत में आ गई।

27 फरवरी 1970 को चौ० बंसीलाल को हटाने का एक और षड्यन्त्र पुराने कांग्रेस सदस्य चौ० रणबीरसिंह द्वारा रचा गया। उन्होंने विरोधी पार्टी के सदस्यों तथा 5 या 6 कांग्रेस सदस्यों से


1. हरयाणा ऑन हाई रोड टू प्रॉसपेरीटी, पृ० 22-23, लेखक मुनीलाल।
2. ब्रिगेडियर रणसिंह का लेख।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-991


मिलाप करके अपनी ओर कर लिया। परन्तु इसका भेद मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल को ठीक समय पर लग गया तथा उन्होंने इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। इसके बाद किसी ने सिर नहीं उठाया।

दिसम्बर 1972 में हरयाणा विधान सभा के चुनाव फिर हुए। इसमें कांग्रेस पार्टी का बहुमत रहा। कांग्रेस सदस्यों ने सर्वसम्मति से चौ० बंसीलाल को अपना नेता चुन लिया और वे हरयाणा के फिर मुख्यमन्त्री बने, जो दिसम्बर 1975 तक इस पद पर रहे1

मुख्यमन्त्री चौ० बंसीलाल ने अपने शासनकाल में हरयाणा में निम्न क्षेत्रों में विशेष उन्नति की - 1. कृषि 2. सिंचाई, 3. उद्योग, 4. बिजली, 5. शिक्षा, 6. स्वास्थ्य सेवायें, 7. परिवार नियोजन, 8. सड़कें, 9. यातायात, 10. गृह निर्माण तथा आवास, 11. पंचायतें, 12. सफेद क्रांति अर्थात् दुग्ध उत्पादन में वृद्धि, 13. हरिजनों की सहायता, 14. सामाजिक सेवायें, 15. खेल-कूद 16. पर्यटन स्थान।

सन् 1966 में हरयाणा के जिलों में खेलों की शिक्षा देने के केवल 13 केन्द्र थे। इनमें खेलों का थोड़ा-सा सामान था। चौ० बंसीलाल ने 4 वर्ष में 34 केन्द्र स्थापित किये और खिलाड़ियों को अच्छी शिक्षा दी जाने लगी। भारतीय सरकार ने 1972 में पटियाला में और 1973 में दिल्ली में पूरे भारतीय देहाती खेलों के मुकाबिले का आयोजन किया। उनमें दोनों स्थानों पर हरयाणा ने दूसरे नम्बर पर विजय प्राप्त की। चौ० बंसीलाल ने राई (जि० सोनीपत) में पं० मोतीलाल नेहरू के नाम पर खेल स्कूल बनवाया, जहां पर खिलाड़ियों को ऊंचे स्तर पर सिखलाई दी जाती है। 1966 में हरयाणा में पर्यटकों के देखने के स्थान नाममात्र के थे। चौ० बंसीलाल ने अपने शासनकाल में हरयाणा को इस क्षेत्र में शिखर पर पहुंचा दिया। आपने निम्नलिखित स्थान बनवाये -

1. दिल्ली से 32 किलोमीटर दूर बड़खल झील जि० फरीदाबाद 2. कुरुक्षेत्र की झीलों पर स्नान घाट तथा विश्रामगृहों का निर्माण, 3. करनाल के निकट उचाना झील 4. सुलतानपुर जि० गुड़गांव में पक्षी विहार तथा 110 एकड़ की झील बनवाई, जहां सैंकड़ों प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं। वहां पर विश्रामगृह तथा पक्षी अजायबघर भी है। चौ० बंसीलाल ने हरयाणा में उन्नति हर पहलू में की। चार वर्ष के भीतर ही हरयाणा की प्रति व्यक्ति आय भारत के सारे प्रान्तों में दूसरे स्थान पर पहुंच गई। चौ० बंसीलाल के विरोधी एवं ईर्ष्यालु लोगों को भी आपकी प्रशंसा करनी पड़ी। इस 41 वर्षीय सबसे नौजवान मुख्यमन्त्री ने उस समय के थोड़े समय के नये बने हरयाणा राज्य को इतना उन्नत व समृद्ध बना दिया कि उनके विरोधी नेता मुंह ताकते रह गये।

सामान्य शहरी व ग्रामीण जनता पहले की तुलना में अधिक धनवान हो गई। शहरों व गांवों में पक्की व कच्ची नौकरियां मिलने लगीं। गांवों को पक्की सड़कों से जोड़ा गया। छोटे-बड़े गांव में जहां लगातार कई वर्षों से वर्षा न होने के कारण पीने का पानी 10-15 कोस से सिर पर या ऊंटों पर लाया जाता था, पीने के पानी के नल पहुंचा दिये और उनके खेतों में नहरों का पानी पहुंचा दिया गया। गांव-गांव में स्कूल खोले गये। दूरदराज के क्षेत्रों में चल चिकित्सालय पहुंचाये गये। हरयाणा के कुछ ही शहरों में बिजली की सुविधायें उपलब्ध थीं। चौ० बंसीलाल के प्रयत्नों से हरयाणा के प्रत्येक छोटे-बड़े गांव में बिजली पहुंचाई गई, जिससे हरयाणा इस क्षेत्र में भारत में सब


1. हरयाणा ऑन हाई रोड टू प्रॉसपेरीटी, पृ० 23-24, लेखक मुनीलाल।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-992


से प्रथम स्थान पर पहुंच गया। कहावत है कि बंसीलाल ने तो रेतीले टीबों पर खड़ी जांटियों में भी बिजली के लट्टू लगवा दिये। कृषि और औद्योगिक पैदावार में अत्यधिक बढ़ोतरी हुई, जो राज्य में पहले कभी इतनी अच्छी नहीं हुई थी। राज्य की जनता द्वेष व विचारों के कारण परम्परागत जातियों व उप-जातियों में बंटी हुई है, उन सभी ने एकमत होकर बंसीलाल को अपना नेता मान लिया। बंसीलाल ने कहा कि “मैं श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में किये जा रहे विकास कार्यों को जारी रखूंगा।”

चौ० बंसीलाल ने अपने विरोधियों को मनाने में अपना समय बर्बाद नहीं किया, बल्कि उनको निरुत्साहित कर दिया और उनकी कठिन स्थिति कर दी। इस हद तक वह जरूर कठोर हैं।

चौ० बंसीलाल की अन्य घटनायें

चौ० बंसीलाल 21 मई 1968 से दिसम्बर 1975 तक लगभग 7 वर्ष 7 मास तक हरयाणा के मुख्यमन्त्री रहे। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने देश में 25 जून सन् 1975 को आपातकाल की घोषणा की थी जो उसी ने 21 मार्च 1977 को समाप्त कर दी थी। चौ० बंसीलाल को श्रीमती इन्दिरा गांधी ने दिसम्बर सन् 1975 में देश का रक्षामन्त्री बना दिया जो इस पद पर 17 मार्च 1977 तक रहे। आपकी जगह हरयाणा प्रदेश के मुख्यमन्त्री दिसम्बर सन् 1975 में बनारसी दास गुप्ता बनाये गये जो इस पद पर 20 जून 1977 तक रहे। देश में मार्च 1977 में लोकसभा के आम चुनाव हुये जिनमें उत्तरी भारत में तो कांग्रेस पार्टी का एक भी उम्मीदवार न जीता। 23 मार्च, 1977 को देश में जनता पार्टी का शासन स्थापित हुआ। चौ० बंसीलाल मार्च 1977 के लोकसभा चुनाव में भिवानी क्षेत्र से श्रीमती चन्द्रावती से बहुत मतों से हार गये। आप पर शाह आयोग द्वारा मुकदमा चला परन्तु आप दोषी प्रमाणित न हो सके।

हरयाणा में 8 प्रान्तों के साथ जून 1977 में मध्यावधि चुनाव कराये गए जिसमें जनता पार्टी को 90 में से 75 सीटें प्राप्त हुईं। कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई। श्री बनारसीदास गुप्ता भी चुनाव हार गए। हरयाणा में जनता पार्टी का राज्य स्थापित हुआ और 21 जून 1977 को चौ० देवीलाल मुख्यमन्त्री बने जो जून 1979 तक रहे। इसके बाद हरयाणा के चौ० भजनलाल मुख्यमन्त्री बने जो इस पद पर 3 जून, 1986 तक 7 वर्ष रहे। 20 अगस्त, 1979 को जनता पार्टी का शासन समाप्त होने के बाद 4 जनवरी, 1980 को देश में लोकसभा के चुनाव हुए जिनमें इन्दिरा कांग्रेस की भारी जीत हुई और वे देश की प्रधानमन्त्री दोबारा बनी। चौ० बंसीलाल 4 जनवरी, 1980 के लोक सभा चुनाव में भिवानी से विजयी हुए परन्तु इन्दिरा जी ने इनको अपने मन्त्रिमण्डल में नहीं लिया। वे केवल एम० पी० ही रहे।

31अक्तूबर, 1984 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की हत्या होने पर उसके पुत्र राजीव गांधी को देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 24 दिसम्बर, 1984 को देश में लोकसभा के आम चुनाव कराये, जिसमें कांग्रेस (इ) की भारी जीत हुई और श्री राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने।

इस चुनाव में चौ० बंसीलाल भिवानी क्षेत्र से जीतकर एम० पी० बने। प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने चौ० बंसीलाल को 31 दिसम्बर, 1984 को भारत का रेल मन्त्री बना दिया। आप इस पद पर 3 जून, 1986 तक रहे। आपने रेलवे पदाधिकारियों तथा कर्मचारियों से दृढ़ता से काम लिया


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-993


जिसके फलस्वरूप रेलवे दुर्घटनायें बहुत ही कम हो गईं तथा रेलवे की आय से सरकार को काफी लाभ हुआ।

जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है, चौ० देवीलाल ने हरयाणा संघर्ष समिति का गठन करके आंदोलन शुरु कर दिये। 23 मार्च, 1986 को मुख्यमन्त्री भजनलाल के विरुद्ध आंदोलन शुरु कर दिया जिस पर काबू करने के लिए चौ० भजनलाल असफल रहे। अतः इस स्थिति को देखकर प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने चौ० भजनलाल को दिल्ली बुला लिया। 3 जून, 1986 को चौ० भजनलाल से मुख्यमन्त्री पद से त्यागपत्र मांग लिया और उसी दिन चौ० बंसीलाल से रेल मन्त्री पद से त्यागपत्र मांग कर उनको हरयाणा का मुख्यमन्त्री नियुक्त कर दिया। चौ० बंसीलाल 4 जून, 1986 से दोबारा हरयाणा के मुख्यमन्त्री बने और इस पद पर 17 जून, 1987 तक रहे। इस दौरान में चौ० बंसीलाल ने निम्नलिखित कार्य किए -

  1. हरयाणा में किसानों की सारी भूमि का लगान (मालिया) माफ कर दिया।
  2. पक्के खालों (नहरी पानी के दहाने) का खर्च जो कि किसानों से किश्तों पर लिया जाता था, उसको समाप्त कर दिया तथा इनको सरकारी खर्च पर बनवाने का फैसला किया।
  3. 17 जून, 1987 को हरयाणा में विधानसभा के आम चुनाव हुए। उस चुनाव प्रचार में आपने पलवल जलसे में, प्रधानमन्त्री से, हरयाणा की उन्नति के लिए 4.03 अरब रुपये देने का एलान करवा दिया। परन्तु यह धनराशि अभी तक हरयाणा को मिली नहीं है।
  4. राज्य सभा की दो सीटों के लिए अपने पुत्र चौ० सुरेन्द्रसिंह तथा चौ० भजनलाल को निर्वाचित किया।

17 जून 1987 के चुनाव में चौ० देवीलाल की आंधी ने कांग्रेस का सफाया कर दिया। इन चुनावों में कांग्रेस को केवल 5 सीटें मिलीं। चौ० बंसीलाल को तोशाम हल्के से चौधरी धर्मवीर ने हरा दिया। 18 जून 1987 को चौ० बंसीलाल ने मुख्यमन्त्री पद से त्यागपत्र दे दिया।

चौ० बंसीलाल ने दिनांक 20-5-90 को हरयाणा विकास मंच की स्थापना कर दी। कांग्रेस हाई कमाण्ड ने दिनांक 20-3-91 को चौ० बंसीलाल को कांग्रेस पार्टी से 6 वर्ष के लिए निष्कासित कर दिया। 20-5-91 को लोकसभा के साथ हरयाणा विधानसभा के चुनाव हुए जिसका नतीजा यह रहा -

(1) कांग्रेस पार्टी = 51, (2) समाजवादी जनता पार्टी = 16, (3) हरयाणा विकास पार्टी = 12, (4) जनता दल = 3, (5) भाजपा = 2, (6) निर्दलीय = 5, बहुजन समाज पार्टी = 1.

चौ० बंसीलाल तोशाम (जि० भिवानी) हल्का से बहुमत से विजयी हुए। आप अपनी पार्टी की उन्नति के लिए संघर्षशील हैं।


आधार पुस्तकें-

1. हरयाणा ऑन हाई रोड टू प्रॉसपेरीटी, - लेखक, मुनीलाल।
2. चौटाला से चंडीगढ़ (किसान नेता चौ० देवीलाल की संघर्षभरी जीवक कहानी) - लेखक डा० राजाराम।
3. समाचार पत्रों से।


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दशम अध्याय समाप्त


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