Jat Prachin Shasak/Aryon Ke Sath Sambandh

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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आर्यों के साथ सम्बन्ध

अब इस तथ्य पर आम सहमति है कि आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य एशिया था। सम्भवतः उन का मूल नाम ऐल (Aila) था और उन के देश को ऐलावर्त कहा जाता था। ये लोग वहां से विभिन्‍न दिशाओं की ओर फैलते चले गए और इन में से अन्ततः जो लोग भारत पहुंचे, वे सर्वप्रथम सप्त सिंधु कहे जाने वाले क्षेत्र अर्थात्‌ पंजाब, सिंध, काबुल घाटी, बलूचिस्तान के भौगोलिक क्षेत्र में आकर बसे। इस संदर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि आर्यों की प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में पूर्वीय छोर पर स्थित जिस नदी का उल्लेख हुआ है, वह यमुना है। बाद में जब ये लोग गंगा के मैदानी क्षेत्रों में फैल गए तो उन्होंने उपजाऊ प्रदेश को मध्यदेश का नाम दिया और तदांतर काल में यह स्वर्णिम क्षेत्र इन लोगों के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। आर्यों के भारत आगमन के बाद ही आर्य नाम अधिक लोक प्रचलित हुआ।1
भारत में उन की गतिविधियों का उल्लेख वैदिक साहित्य में परिलक्षित होता है। 'शतपथ ब्राह्मण' के अनुसार उस विशेष काल में मग्ध तो एक ओर रहा, अभी कौशल और विदेह प्रदेशों का भी पूर्ण रूप से ब्राह्मणीकरण नहीं हुआ था।2
यही शतपथ ब्राह्मण आगे चल कर उस यज्ञ अग्नि का भी उल्लेख करता है, जो विदेघ माधव अथवा विदेह माधव द्वारा विदेह प्रदेश में प्रज्जवलित की गई। भारत के आर्यकरण के इस विवरण में बताया गया है कि राजा ने वैश्वानर से पवित्र आग्नि प्राप्त की, जिस के बल पर वह भूमि को जलाता चला गया। वह सरस्वती से शुरू हो कर उस सीमा तक भूमि को जलाता चला गया जब तक कि वह सदानीरा नदी तक नहीं पहुंच गया। सदानीरा को ही गण्डक नदी कहा गया है। पूर्ववर्ती कालों में ब्राह्मणों ने इस नदी को यह मानते हुए पार नहीं किया था क्योंकि यह क्षेत्र वैश्वानर अग्नि द्वारा जलाया नहीं गया था। फिर भी आजकल (शतपथ ब्राह्मण काल में) कई ब्राह्मण इस नदी के पूर्वी भाग में रह रहे थे। तब विधेग माधव ने इस अग्नि देव से पूछा था, "मैं कहां निवास करूं?" उस ने उत्तर देते हुए कहा, "इस नदी के पूर्व भाग में तुम्हारा निवास हो।"3 बी.सी. ला भी इस सम्बन्ध में डॉक्टर वेबर (Dr. Webar) के विचारों का उल्लेख करते हैं जो यही अर्थ लिये हैं।4

1. Bhavishya Purana called the Jats as Aryans.
2. B.C. Law, Tribes in Ancient India, p. 196.
3. Satapatha Brahmana, Tr. Eggeling, XIII, pp. 104-196
4. op. cit., p. 235.

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मध्य एशिया में स्थित अपने मूल निवास "आर्यनाम वीजो" अथवा आर्यन बीज (यह नाम इस क्षेत्र को ईरानियों द्वारा दिया गया या अर्थात्‌ आर्यों की बीज भूमि) से आर्य लोग एक लहर के बाद दूसरी लहर का रूप धारण करते हुए भारत में फैलते चले गए। सम्भवतः इसी काल में वे प्रख्यात एवं परम्परागत 14 देवासुर संग्राम हुए। ये युद्ध उन आर्यों में, जो भारत आ चुके थे और उन आर्यों में, जो अपने मूल स्थान ईरान आदि में रह गए थे, के बीच लड़े गए। प्राचीन इतिहास के इन राजनीतिक युद्धों का ही यह परिणाम था कि आर्यों के दो दल भारतीय और ईरानी आपस में शत्रु बन गए। ईरानीयों के देवता भारतीयों के लिये शत्रु देव बन गए और इसी तरह भारतीयों के देवता ईरानियों के लिये शत्रु देव बन गये। भारतीयों के देवता जिन्हें देव कहा जाता था, वे ईरानियों के देवता, जिन्हें असुर कहा जाता था के शत्रु माने जाने लगे। इस गृह युद्ध का यह परिणाम था कि जरतुश्त की गाथा, जिस का उल्लेख महान दारा (Darius) द्वारा एक अभिलेख में किया गया है, में यह अंकित पाया गया हैं।

"मैं असुर का अनुयायी हूं,
मैं असुर की पूजा करता हूं,
मैं देवों से घृणा करता हूं।
मैं देवों की पूजा करने वालों से घृणा करता हूं।"

प्राचीन भारतीय गाथाएं एवं परम्पराएं भी यह बात मानती हैं कि देव और असुर दोनों ही प्रजापति से उत्पन्न हुए और बाद में राजनीतिक सत्ता के लिये दोनो में प्रीतिद्वंदता होने लगी। इस के लिये बाद में जो युद्ध होते रहे, उन में कभी देव विजयी रहे और कभी असुर विजयी रहे। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार "देवताओं ने उद्घोष किया, हम से जान बचाने के लिये वे (असुर) उत्तर की ओर भाग गए।" बाद में दस राजाओं के प्रख्यात युद्ध के बाद जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है, पूरु और द्रुहयु भारत छोड़ गए और पश्चिमी देशों की ओर प्रस्थान कर गए। वहां उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये। मध्य एशिया के ये आर्य लोग भी भारत आने वाले आर्यों की ही तरह यायाचरी वृत्ति के लोग थे। उन का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशु पालन और युद्ध ही था। वेन्दीदाद (फरगर्द-II) ईरानी लोगों की उत्तरी छोर की ओर यात्राओं का उल्लेख करते हुए कहता है कि उन की ये यात्राएं उस स्थान पर पहुंचने तक जारी रहीं, जहां सूर्य वर्ष में केवल एक बार ही दिखाई देता है। सम्भवतः इसी कारण बालं गंगाधर तिलक और पेंका (Penka) इस परिणाम पर पहुंचे कि आर्यों का मूल निवास स्थान उत्तरीय ध्रुव का क्षेत्र था। डाक्टर वाडेल (Waddel) अपनी कृति Sumer Aryan Dictionary में लिखते हैं कि सुमेरियन अर्थात्‌ सुमेर के लोग शारीरिक एवं भाषाई दृष्टि से प्राचीन काल के आर्य ही थे। उस ने आर्य शब्द की व्युत्पत्ति अर शब्द से मानी जिस का अर्थ है हल की फाल। इन लोगों के बारे में यह अनुमान लगाया जाता है कि उन्होंने कृषि का आविष्कार किया। बाद में


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आर्य शब्द उच्चता एवं श्रेष्ठता का प्रतीक बन गया क्योंकि इन लोगों ने कृषि में बहुत बड़ा योगदान दिया था। भारतीय आरण्यानों के अनुसार शुक्राचार्य भार्गव था, और वह भृगु जो कि अग्नि के उपासक थे, का वशंज था। वे उन अंगिरसो के समान थे, जो अग्नि पूजकों का ही एक अन्य वर्ग था। इस भारतीय अवधारणा का समर्थन थुसीदीद (Thusidides) भी करता है, जिस के अनुसार क्षरक्षिस (अर्थात्‌ क्षय अर्श, जिस का अर्थ है आस्था का आवास स्थल) का एक प्रभुत्व परामर्दाता था, जिस का नाम उसानस था। (यूनानी में इसे Oesainas लिखा गया हे।) अब उसानस शुक्राचार्य का भी एक नाम है, जो असुर राजा वृष पर्व का पुरोहित था। शुक्राचार्य की एक बेटी और वृषपर्व की एक बेटी का विवाह नहुष के पुत्र ययाति के साथ हुआ था। शुक्र को भृगु के तीन पुत्रों में एक कहा गया है, शेष दो के नाम अत्री तथा च्यवन बताये गये हैं। इसी वंशावली में आगे चल कर जमदग्नि और परशुराम पैदा हुए। ऋग्वेद के अनुसार वशिष्ठ और विश्वमित्र में जो युद्ध हुए, उन में यवनों, पहलवियों तथा शकों ने विश्वमित्र की और से युद्ध किया।
ईरानी लोग यम के नेतृत्व में 1000 ई.पू. के आसपास एरियान बीजो से उत्तरी ध्रुव की ओर गए। "अवेस्ता" में ऐसी अनेक गाधाएं हैं, जिन में इन लोगों के सुदूर उत्तर तक लम्बे भ्रमणों का उल्लेख किया गया है। इन भ्रमणों के दौरान इन लोगों ने उन क्षेत्रों में बस्तियां बसाई जो कृषि एवं पशु पालन के लिये उपयुक्त थे।
"अवेस्ता" में इससे भी महत्वपूर्ण एक और तथ्य का उल्लेख मिलता है जिस के अनुसार यम के अनुयायी एक और दिशा की ओर भी गए। भ्रमण की पहली गतिविधि उत्तर के थोड़ी पश्‍चिम की ओर थी किन्तु बाद में यह दिशा बदल कर उत्तर के थोड़ा पूर्व हो गई अर्थात्‌ मंगोलिया की ओर ये लोग गए। यह घटनाक्रम कुछ इतिहासकारों के मत में लगभग 1000 ई.पू. के बाद हुआ होगा जबकि बड़ी संख्या में ईरानी आर्य उस क्षेत्र की ओर निकल गए जिसे आज बाह्य मंगोलिया कहा जाता है। इस बात का प्रमाण कि उत्तरी ईरान व अन्य क्षेत्र के आर्य जाति के लोग भ्रमण करते हुए बाह्य मंगोलिया तक गए और वहीं बस गए, मंगोल लोगों की भाषा से मिलता है, जोकि अपने पड़ोसियों की भाषा से भिन्न है। इस भाषा में ऐसे शब्द बहुसंख्या में हैं जो या तो पुरानी फारसी अथवा संस्कृत से विकसित हुए है। पुरातत्व खोजें जो बाह्य मंगोल की सीमा से 50 मील दूर गोर्वी अलतई में की गई हैं वहां भूमिगत मकबरे मिले हैं। उन से भी सिद्ध होता है कि जो स्थानांतरण हुआ, वह 1000 ई.पू. या इस के कुछ समय बाद हुआ। इन मकबरों में जो अवशेष मिले उनमें विशेष मसाले के लेप से सुरक्षित रखी गई मानवीय दम्पतियों की अस्थियां हैं, जिन के समीप खाने का सामान, कुर्रियां, मेज़, तकिये, कढ़ाई किये हुए कपड़े, हथियार, सवारी करने तथा खींचने में प्रयुक्त किये जाने वाले घोड़े का साज, एक दर्जन घोड़े भी पाए गए हैं। इस के अतिरिक्‍त पहियों वाला रथ, जिस में आरा भी लगा हुआ है और जो दो घोड़ों द्वारा खींचा जाता है, भी प्राप्त हुआ। यह निश्चित रूप से


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मध्य एशिया मूल का है। 80 ई. पूर्व के ईरानी नमूनों के गलीचे भी मिले हैं। ईरानी मूल के दीवारों पर लगाने वाले चित्रमय पर्दे (Tapesteries) आदि मिले हैं, उन पर "अवेस्ता" में वर्णित कई घटनाएं हैं।
अन्य स्थलों पर भी जो उत्खनन कार्य हुए हैं उन से भी इन लोगों के नख शिख आर्यों की तरह ही पाए गए हैं। एल्ला और परसी साईक लिखते हैं कि पूर्वी तुर्कीस्तान (जो आजकल चीन का सिनक्यांग प्रान्त है) में लोगों की शारीरिक संरचना में आर्य रक्‍त होने का पुष्ट प्रमाण मिलता है।4a
यह भी उल्लेखनीय है कि हियूंग-नू (हूण) आर्यों जैसा नख शिख रखते थे। इस का प्रमाण हूणों के वे चित्र हैं, जिन में उन्हें (हूण सैनिकों को) चीनी सैनिकों के घोड़ों के नीचे कुचलता दिखाया गया है। इन हूण सैनिको की आंखें सीधी एवं साफ हैं, सुन्दर तीखी नाक है, उन के शरीर पर भरपूर बाल हैं, उन की दाढी घनी है। यदि हूण मंगोल नस्ल के होते तो निश्चित रूप से उन का चेहरा मोहरा इस तरह का न होता। यह भी उल्लेखनीय है कि अटिल्ला के हूणों के कुलार तथा उटार के परवर्ती वंशजों को बल कहा है लेकिन यह सही नहीं हो सकता क्योकि ये तीनो ही भिन्न-भिन्न कबीलों के नाम हैं तथा ये आज भी भारतीय जाटों में पाए जाते हैं। इन्हें कुलार, उटार तथा बलहर के नामों से आजकल जाना जाता है। वास्तव में हुआ यह होगा कि युद्ध कुलारोंउटारों द्वारा शुरू किया गया होगा और बाद में बलहर कबीला सत्ता में आ गया होगा तथा उस ने अपना नाम बुल्गारिया को दिया होगा।5 इन तथ्यों का उल्लेख करने का हमारा मन्तव्य केवल इतना ही है कि इन सभी तीनों कबीलों को हण ही कहा जाता है और वे निश्चित रूप मै 378 ई. में बलमीर से उल्द (400 ई.) रोइलस (425 ई.) रूगुल (433 ई.) तथा अतिला (मृत्यु 454 ई.) के नेतृत्व में ये लोग एक बड़े रेले के रूप में मध्य एशिया से यूरोप गए। यद्यपि इन लोगों को हूण कहा गया पर वे निश्चित रूप में इण्डो यूरोपीय जाति के ही थे क्योंकि वही लोग भारत में जाटों के बीच आज भी विद्यमान है। नेसफील्ड (Nesfield) के शब्दों में, "यदि आकृति का कुछ महत्त्व है तो जाट आर्यों के अतिरिक्त कुछ और हो नहीं सकते।"5a डॉक्टर ट्रम्प (Dr. Trump) तथा बीमस (Bemeas)5b भी यही सिद्ध करते हैं कि जाट विशुद्ध रूप से आर्य हैं। कर्नल टाड भी यही दृष्टिकोण रखते हैं और उन्होंने यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि भारतीय जाट, रोम साम्राज्य के गोथ (Goths) तथा जटलैण्ड के जूट (Jutes) आपस में भाई बन्धु ही थे। एच. रिसले (H. Risley) कहते है कि जाट और गुज्जर विशुद्ध रूप से आर्य ही है और उन की नाक तो ईरानियों से भी अधिक तीखी हैं।6

4a. Ella & Perey Sykes "Through Deserts and Oasis of Central Asia".
5. J.J. Modi in JBBRAS, Vol. XXIV, 1914. p. 548.
5a. JKI, p. 120.
5b. Qanungo, op. cit., p. 43.
6. Census Report, 1901, p. 548.

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भाषा वैज्ञानिकों ने इस आधार पर इस समानता का विरोध किया कि जाटों की भाषा हिन्दी की ही एक बोली है, लेकिन अब वैज्ञानिक रूप में यह सिद्ध हो चुका है कि भाषा किसी जाति का प्रमाण नहीं होती। पंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि शक महिलाएं अपनी सुन्दरता के लिये भारत में विशेष रूप से विख्यात थीं। भारतीय वैद्य उन की सुन्दरता का कारण उन के प्याज़ खाने की आदत मानते हैं।7 राहुल जी ने अपने उपरोक्त कथन के प्रसंग में "अष्टांग हृदय" के रचनाकार वाग भट्ट को उद्धृत किया जिस के अनुसार :—

"यस्योपयोगेन शकान् गणानाम लावण्यसारादि विनीर्मयानाम्।"

हमारा मन्तव्य जाट महिलाओं की सुन्दरता का वर्णन करना नहीं है अपितु उन की भाषा पर प्रकाश डालना है। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि उन का प्रमुख देवता सूर्य था। यह बात केवल यूनानी लेखकों से ही प्रमाणित नहीं होती बल्कि भारत में मिली शकों की उन सूर्य मूर्तियों से भी सिद्ध होती है, जिन में उन्हें लम्बे बूट पहने हुए दिखाया गया है। ऐसे ही बूट रूसी लोग अब भी पहनते हैं तथा पुराने रूसी ईसायत में धर्म परिवर्तित होने से पूर्व सूर्य के ही उपासक थे। कुछ देवताओं के नाम जिन की ये लोग पूजा उपासना करते थे, हम ने Maki से लिये हैं और वे इस प्रकार हैं :—

अंग्रेज़ी नाम
संस्कृत नाम
शकनाम
टिप्पणी

सन् (Sun)
सूर्य
स्वर्यू/स्तलीयु
सूर्य देवता
जेयस (Zeus)
द्यौ
दिवु
आकाश देवता/पिता
अर्थ (Earth)
आप्या
आपीया
द्यावापृथ्वी
बग (Baga, ईरानी)
भग (भगवान से/का)
पक
बोग (रूसी)
मून (Moon)
अर्थीपति/वीरपति
अरतिमपत/विरोपति

उन के मुखिया अथवा राजा को पक पुहर=भगपुत्र (भगवान का पुत्र) कहा जाता था। उन के राजा के लिये एक और नाम भी था कंग। उस से बड़े राजा को महाकंग कहा जाता था, जो संस्कृत शब्द महाराजा के तुल्य है। मन, आत्मा तथा बुद्धि के लिये शक शब्द मन था,8 जो संस्कृत भाषा में प्रयुक्त मन के समरूप है। गोथ (जाट) इतिहास से हम यह जानकारी प्राप्त करते हैं कि दो भाइयों, होरा और हेंगिस्त ने, जटलैण्ड से एक काफिले का नेतृत्व करते हुए केंट नाम के राज्य की स्थापना की। यह केंट शब्द, जिस का अर्थ समुद्री तट होता हैं, संस्कृत का कंठी है तथा गोथों में इसे कण्ठा कहा गया है।

7. MAKI, Vol. I, p. 70.
8. E.S. Drower, in JRAS, 1954, p. 152.

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भारतीय जाटों में यह शब्द आज भी विद्यमान है जिसे काण्ठा बोलते हैं अर्थात पानी का किनारा अथवा तट। गांव के जौहड़ के किनारे बैठ अपने भैंसों की देखभाल करता हुआ एक जाट हमारे ग्रामीण परिवेश का एक आम दृश्य है। यह भी उल्लेखनीय है कि जो कायदे कानून उन्होंने शुरू किये, विशेष रूप में सम्पत्ति पर सभी पुत्रों का समान अधिकार, आज तक भी प्रचलित हैं और ये विशुद्ध रूप से शक मूल लिये है और यह व्यवस्था मूल गोथों द्वारा जक्सरति नदी के क्षेत्र से मध्य एशिया में लाई गई थी। जब जाट कुशानों के नेतृत्व में भारत सीमा में आए तो वे उस समय कसून, सकंदो, कुमारों, महासेनों तथा बिजगों देवताओं की पूजा किया करते थे। इन देवताओं को संस्कृत में क्रमशः सूर्य, स्कंद, कुमार्, महासेन तथा विशाख कहा गया है। पाणिनी ने स्कंद तथा विभा को लौकिक अर्थात्‌ लोकप्रिय देवता कहा है। स्कंद कार्तिकेय रोहतक के वीर यौध्येयों का संरक्षक देव है जो निश्चित रूप से सूर्य देवता से सम्बन्धित था। यह बात जे. मार्शल (J. Marshall) द्वारा भीता में प्राप्त मुद्राओं से भी स्पष्ट होती है, जिन पर अंकित है, "श्री स्कन्द सूर्यस्य"। चीनी यात्रियों ने गांधार में जाटों का कसून अर्थात्‌ सूर्य मंदिर देखा और उन्होंने आसपास के क्षेत्र में9 इस मंदिर के धार्मिक महत्व, की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस के अतिरिक्त मुलतान में तोरमान और मिहिरकुल के अधीन 505 ई.10 में जौहल (जोहल) जाटों द्वारा निर्मित सूर्य मंदिर इतने विख्यात हैं कि उन का अधिक विवरण देने की आवशयकता नहीं। मथुरा एवं ग्वालियर के सूर्य मंदिर भी उन्हीं ने निर्मित किये थे और सम्भवतः हमें इस बात का भी कहीं प्रमाण मिल जाए कि कोणार्क (उड़ीसा) का सूर्य मंदिर टांक नाम के जाट कबीले द्वारा बनवाया गया था, जिन के नाम के सिक्कों से भारतीय सिक्कों को टका नाम मिला। इतिहासकार इस बात पर सहमत हैं कि टांक अथवा टंक कुशान थे और इन्हें पुरी कुशान कहा जाता था। हमारा उद्देश्य यहां यह सिद्ध करना है कि जाटों में सूर्य उपासना प्रबलता से प्रचलित थी और जो कि प्राचीन आर्योंरूसियों में भी ईसाई मत ग्रहण करने से पूर्व प्रचलित रही। उन (मस्स गटईयों) का एक मात्र देवता सूर्य देवता ही था और वे उस को अश्वो की बलि चढ़ाया करते थे। इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि ये मस्स गटई उसी जाति से सम्बन्धित थे जो भारत में सूर्य उपासना लेकर आई थी और जो सूर्य देवता का सम्मान, उस का अभिनन्दन करती हुई अश्वमेध अथवा अश्वों की बलि देने वाला यज्ञ किया करती थी। इस अनुष्ठान का ऋग्वेद में उल्लेख है।11 इस संदर्भ में यह जानना भी रुचिकर होगा कि अश्व की बलि और विशेष रूप में पहाड़ की किसी चोटी पर श्वेत अश्व की बलि का उल्लेख परवर्ती काल में हूणोंचीनियों के बीच परस्पर विश्वास एवं मैत्रीसंधि की पुष्टि के रूप में किया गया है।12

9. BRWW, Vol. II, pp. 284-85.
10. Chachnama.
11. Rig Veda, I, 162, 2, 3, 18.
12. J.F. Hewitt, The Ruling Races of Pre-historic Times, p. 483.

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उनकि प्रथाएं

अश्वमेध का भव्य संक्रान्ति समारोह, सूर्य से उत्पन्न वैवश्वत के पुत्रों द्वारा मनाया जाता था और सम्भवतः यह प्रथा एक ही समय सिथिया से भारत के मैदानों में और पश्चिम् में स्केंडीनेविया में ओडिन (Odin), वोडोन (Wodon) अथवा बुद्ध (Budha) के पुत्रों द्वारा प्रारम्भ की गई और यह समारोह वहां ही-एल अथवा ही-उल के रूप में उत्तरीय राष्ट्रों का एक महान्‌ जयन्ती समारोह बन गया। हय और ही संस्कृत में अश्व का अर्थ देते हैं।13 इससे भी उन लोगों की आर्यों के साथ समानता व्यक्त होती है।
इतिहासकार इलियट लिखता है कि नौंवी शती में हज़ारा व उस के आसपास के क्षेत्रों में जब जाट मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध किया करते थे तब उन की यह एक विशेष प्रथा थी कि वे अपनी सेना का संचालन करते समय सींगो से निर्मित भोपू बजाया करते थे।14 शंखनाद की प्रथा तो प्राचीन आर्य प्रथा है जिस के प्रमाण महाभारत में मिलते हैं। भगवान कृष्ण का शंख पांचजन्य तो सर्वविख्यात ही है।
यह पहले ही बताया जा चुका है कि भारत मध्य एशिया तथा यूरोप में जाट/सिथ प्रथा के अन्तर्गत सभी भाइयों को अपने पिता की सम्पत्ति का एक बराबर भाग मिलता था। यह प्रथा बर्तानिया के केण्ट क्षेत्र में अब भी प्रचलित है तथा निस्संदेह भारत में भी है। हमें यह भी पता चलता है कि कुबर्त के अधीन जाटों ने जिसे इतिहासकार बलों का राजा कहते हैं, 630 ई. में रोम के सम्राट्‌ के साथ एक संधि की। उस की मृत्यु के पश्चात्‌ कुर्बत का साम्राज्य उस के पुत्रों में समान अनुपात में बांट दिया गया था।
हमें इस बात की जानकारी भी प्राप्त होती है कि अत्तिला की मृत्यु के पश्चात्‌ उस के तीन पुत्रों ने जिन के नाम अल्क, हरनक तथा देन्घीशक थे, अत्तिला के साम्राज्य को तीन भागों में बांट लिया। तथापि विभाजन के समय दो अन्य निकट सम्बन्धियों ने साम्राज्य पर अपना दावा जताया। उन के नाम उजिदंर तथा अम्रेजर दिये गये हैं। इसलिये अन्ततः साम्राज्य को पांच भागों में विभक्त किया गया। अपने पिता की सम्पत्ति का विभाजन, जिस में उस का साम्राज्य भी सम्मिलित है एक प्राचीन आर्य प्रथा है तथा जिस के अनुसार ययाति ऐल को अपने पिता नहुष से भारत वर्ष का राज्य प्राप्त हुआ तथा पृथ्वी के अन्य क्षेत्र उस ने अपने दूसरे पुत्रों को दिये। इसी प्रकार ययाति ने स्वयं भारत को अपने पुत्रों में विभक्त किया। यह महत्वपूर्ण प्रथा आज भी प्रचलित है तथा एक जाट पिता की सम्पत्ति उस के पुत्रों में एक समान बांट दी जाती है तथा लातानी ज्येष्ठाधिकार कभी भी लागू नहीं किया जिस में ज्येष्ठ पुत्र ही समस्त सम्पत्ति का स्वामी बनता है।

13. Annals of Rajasthan, Vol. I, p. 21.
14. Qanungo, History of Jats, p. 229-30.

पृष्ठ 93 समाप्त

संयोगवश पूर्वी यूरोप में तथाकथित हूण अपने मुखिया जम्बरगम के अधीन 618 ई. में ईसाई बन गये। महा मेरू अथवा समेरू पर्वत पौराणिक तथा आर्यों के भूगोल के केन्द्र बिन्दु हैं। ईरानियों, भारतीयों तथा यूनानियों को मेरू पर्वत का पूर्ण रूप से पता है तथा वह पृथ्वी का केन्द्रीय धुरा है। और मेरू पर्वत पामीर पर्वत श्रृंखला के अतिरिक्त और कुछ नहीं।15 पुराणों में तीन पर्वत शृंखलाएं दक्षिणी सिरे से उत्तरी सिरे तक पूर्व पश्चिम की ओर चली गई है। एस.एम. अली द्वारा उत्तरी शृंखलाओं का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है :—

पौराणिक नाम
आधुनिक नाम
टिप्पणी
1. नील पर्वत माला
जसपशान/तियेशान
रमणीक देश (सोगदियान उनके उत्तर में स्थित है)
2. श्वेत पर्वत माला
तुर्किस्तान एलाई इराक़
हिरण्यक देश इसके उत्तर में स्थित है।
3. शृंगवन पर्वतमाला
करतौ किरघी केतमन प्रणाली
उन के उत्तर में उत्तर कुरु स्थित हैं।

अतः उत्तर कुरु उत्तरीय साईबेरिया क्षेत्र में स्थित है और उत्तर मद्र के क्षेत्र उस के साथ सटे हुए थे। पुराणों में वर्णित जम्बू द्वीप को केवल भारत ही मान लेना भी गलत है हालांकि अज्ञानता वश कई स्थानों पर जम्बू द्वीप का अर्थ भारत के भू-क्षेत्र से ही लिया गया है, अन्यथा इस सुप्रसिद्ध पाठ से हम क्या अर्थ ग्रहण करें जिसका पुराणों में बलि एवं नैवेद्य अर्पित करने वाले स्थल के रूप में उल्लेख किया गया है :—

"जम्बू द्वीपे भारत वर्षे उत्तराखण्डे पवित्र गंगातीरे"

(अर्थात्‌ जम्बू द्वीप में भारत वर्ष है, भारत वर्ष मैं उत्तराखण्ड है और उत्तराखण्ड में पवित्र गंगा नदी है। जिस के पवित्र तट पर यह भेंट दी जा रही है.....)
अतः उत्तर कुरु व उत्तर मद्र भारत में नहीं थे अपितु मध्य एशिया में थे और यह हिमालय पर्वत शृंखला के पार स्थित थे। "ऐत्रेय ब्राह्मण" के अनुसार, "उत्तर दिशा में, हिमवत के पार, उत्तर कुरु व उत्तर मद्र प्रदेश स्थित में, राजाओं का अभिषेक देवताओं की पद्धति के अनुकूल किया जाता है।16 इस उदाहरण से इन उत्तरीय लोगों का आर्यत्व प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध होता है और अप्रत्यक्ष रूप से यह आर्य के देवताओं के मूल भू-क्षेत्रों का पता देता है। जाट इन्हीं क्षेत्रों से सम्बन्धित हैं।
"मत्स्य पुराण" इलावृत (उत्तर पश्चिम पामीर) को जम्बू दीप का क्षेत्र मानता है और यह क्षेत्र बड़ा एवं विस्तृत है एवं तीनों लोकों में देवताओं की जन्म भूमि के रूप में

15. S.M. Ali, The Geography of the Puranas.
16. Aitereya Brahmana VIII, p. 14.

पृष्ठ 94 समाप्त

विख्यात है।17 (135, 2—3)

इलावृतमिति ख्यातं तद्वर्ष विस्तृतायतम्।
यत्र यज्ञों बलेर्वृत्तों बलि र्यत्र च संयतः॥
देवानाम् जन्मभूमिर्या त्रिषुलोके विश्रुता।

"मार्कण्डेय पुराण" में उत्तर कुरुओं की भूमि को मानवता की जन्म स्थली कहा गया है।18
अब प्रश्न यह उठता है कि मध्य एवं उत्तरी एशिया के भू-क्षेत्रों को देवताओं एवं मानवता की जन्म भूमियां क्यो माना गया ? क्या इस से अन्य बातों के साथ यह प्रमाणित नहीं होता कि आर्य मूल रूप से इन्हीं प्रदेशों में से आए। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये के आर्य एक जाट कबीला भी है।19
इसके अतिरिक्त इन प्रदेशों की पहचान के और भी प्रमाण हिं। "महाभारत" के अनुसार कुरुओं की भूमि मेरू (पामीर) पर्वत शृंखला के उत्तर मे स्थित है।20 महाभारत पुनः दक्षिण कुरुओं को मध्य देश (यमुना के पास मध्य भारतीय क्षेत्र) में स्थित बताता है जबकि इस के विपरीत उत्तर कुरुओं को पामीर पर्वतमाला के उत्तर में अवस्थित बताया गया है।21 हम यह भी जानते है कि कुरु (कुरुश) नाम की एक नदी उत्तर पश्चिम से बहती हुई कैस्पियन सागर में जा मिलती है। क्‍या इस से उत्तर कुरुओं की भूमि का संकेत नहीं मिलता ? हम यह भी जानते हैं कि कुरु का वैदिक रूप स्वयं कुरुम्‌ है।
इस के अतिरिक्त उत्तर मद्र एवं दक्षिण मद्र का उल्लेख भी पाते हैं। दक्षिण मद्र पंजाब में है। Cambridge Ancient History के अनुसार उत्तर पश्तूनों अर्थात्‌ उत्तरीय पश्तूनों का प्रदेश आर्मिनिया के कहीं आसपास था। हैरोडोटस भी पश्तूनों का उल्लेख दो भिन्न भू-क्षेत्रों में करता है। एक तो दारा की तेरहवीं सत्रपी (आर्मेनिया)22 के रूप में दूसरी ऊपरी सिंध क्षेत्र अर्थात्‌ आधुनिक पाकिस्तान के रूप में।23 हेरोडोटस विशेष रूप में, तुकरियों की एक बस्ती पोनियां का उल्लेख करता है, जिसे दारा ने कृष्ण सागर के क्षेत्र से एशिया में स्थानांतरित कर दिया, सम्भवतः जहां इसे किया गया, वह जगह बक्‍तरिया के कहीं आसपास होगी। ध्यान रखना चाहिये कि तोखर और पौनिया दोनों आर्य जाट वंश हैं।

17. Matsya Purana, 135, 2-3.
18. Markandeya Purana, Tr. Pargiter, p. 389.
19. Tribes and Castes. Vol. II.
20. MBT, Bhisma Parvan, 7/2.
21. ibid., I, 109, 10.
22. Herodotus, bk. III, 93.
23. ibid., bk. IV, 44; and bk. III, 102.

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इस सारे विचार-विमर्श से यह तथ्य सामने आता है कि प्राचीन लोगों को एशिया के भूगोल की कहीं अधिक गहरी जानकारी थी और वे आज के साधारण व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक गतिशील थे। प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने के लिये जम्बू द्वीप की कल्पना केवल भारत के रूप में ही नहीं अपितु मंगोलिया से लेकर सीरिया और साइबेरिया से लेकर भारत तक फैले क्षेत्र के रूप में करनी होगी।
मध्य एशिया में आर्यों का स्थानांतरण और बाद में उसी क्षेत्र से विभिन्‍न नामों के साथ जाटों के स्थानांतरण की पुष्टि, केस्पियन सागर के बार-बार बदलते नामों से भी होती है। यह भी सर्वविदित है कि कश्यप आर्यों के प्रमुख कबीलों में से एक था, यूनानी इसे कस्यपी कहते थे। जब इस कबीले का प्रभुत्व स्थापित था तो इस सागर को कैस्पियन सागर कहा गया।
आगे चल कर विर्क लोग सत्ता में आए। इन्हें ईरानी वर्कन/वेर्क कहते हैं तथा यूनानी इन्हें हिकिन कहते हैं। इस कबीले के नाम पर न केवल इस क्षेत्र को हिर्केनिया कहा जाने लगा अपितु एक पर्वत का नाम भी इन के नाम पर रख दिया गया और निस्संदेह केस्पियन सागर को हिर्केयन का सागर कहा जाने लगा। आज के भारतीय जाटों के विर्क वही लोग हैं। संस्कृत साहित्य में इन का उल्लेख वृको अर्थात्‌ भेड़िया अथवा शेर (देखिए शेक्सपीयर Hyrcan Tiger का उल्लेख करता रहा है) के रूप में हुआ है। वायु पुराण में केस्पियन सागर का उल्लेख दधि (दही) सागर के रूप में हुआ है जिस की सीमा शकद्वीप का स्पर्श करती थीं24 और यह नाम इसे दहिया लोगों ने प्रदान किया।
इसके बाद मुख्य सत्ता गिल जाटों के हाथ में चली गई। ईरानी इन्हें गिलान तथा यूनानी लेखक इन्हें गिलानी अथवा गिलेन नाम से पुकार ते थे, अतः उस काल में केस्पियन सागर का नाम गिलों का सागर हो गया।
और इस के भी बाद इस क्षेत्र में खजर, भारत में इन्हें गुजर कहा जाता है, उस क्षेत्र में सत्तारूढ़ हो गए तो इरानियों ने केस्पियन सागर का नाम बहर-अल-खजर (अर्थात्‌ खजरों का सागर) रख दिया।25
बेनदीदाद (I) के अनुसार परमात्मा ने उत्तम भूमियों व देशों में सर्वप्रथम आर्य-नेमवीजो का निर्माण किया। आर्यों का यह बीज स्थान वर्तमान अज़रबेजान के उत्तरीय भाग को बताया गया है किन्तु साइबेरिया के दक्षिण पश्चिमी मैदान इस नाम पर अधिक दावा कर सकते हैं।26
यह क्षेत्र भारतीय आख्यानों के अनुसार देवताओं की भूमि थी और उसे उत्तर कुरु

24. Vayu Purana, 49/75.
25. See History of Persia, P. Syke, Vol. I, p. 26.
26. ibid., p. 97.

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कहा जाता था। इस के अतिरिक्त ईरानी आर्यों का एक, आख्यान इस सम्बन्ध में यह कहता है कि इन लोगों ने अपना पुराना भू-क्षेत्र इसलिये त्याग दिया क्योंकि शैतान ने इस क्षेत्र को हिम में परिवर्तित कर दिया था और जिस के कारण यह आवास के योग्य न रहा। इस आख्यान से यह संकेत भी मिलता है कि ये वही उत्तरीय साईबेरिया के मैदान हैं, जहां से आर्य और उन के बाद शक लोग भारत आए। शकों को कभी तुरानी भी कहा गया है और परवर्ती काल में इन्हें तुर्क भी कहा गया। परन्तु जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि तुरानी और तुर्क केवल एक ही लोग नहीं हैं अपितु उन के नाम भी एक जैसे ही हैं और पूर्वी ईरान के राजा तुर के वंशज थे। एक अन्य ईरानी आख्यान कै अनुसार ईरानियोंतुरानियों के जनक आपस में भाई-भाई ही थे।27
आइए अब हम History of Persia को उद्धृत करें और देखें कि इस में आर्यों के सम्बन्ध में क्या लिखा गया है।
"आक्रमणकारी आर्य जंगली चरवाहे लोग थे, जिन के पास घोड़े, पशु, भेड़ें, बकरियां और रखवाली करने वाले कुत्ते सदा रहते थे, वधुओं का हरण होता था। उन के परिवार पिता प्रधान व बहु पत्नीक थे... इस के पश्चात्‌ बड़ी देर तक ये लोग अनेक कबीलों मे ढीले संगठन बना कर रहते रहे जिन में ये एक दूसरे से स्वतन्त्र थे किन्तु आपात्‌ काल में सदा एकजुट होने के लिये भी तैयार रहते थे।"28
आर्यों के बारे में यह उल्लेख परवर्ती काल के मध्य एशिया के घुमकड़ लोगों पर भी ठीक बैठता है। वास्तव में एक कबीले के अधिकार शेष किसी भी अधिकार शक्ति से ऊपर होते थे। यह परम्परा भारतीय जाटों में आज भी विद्यमान है। नवम्बर 1976 में देश में आपात्‌ स्थिति के दिनों ज़िला सोनीपत (हरियाणा) में स्थित गांव पिपली के लोगों ने परिवार नियोजन के लिये जबरी नसबंदी कराने से इन्कार कर दिया था। पुलिस बलों को वापस धकेल दिया गया था। तब पुलिस ने अगले दिन प्रातः इस गांव को घेरने की योजना बनाई। किसी तरह इस योजना की भनक उन लोगों तक पहुंच गई जो दहिया जाटों से सम्बन्धित थे। तत्काल कबीले की शक्ति का प्रयोग करने की बात सोची गई और विशेष संदेशवाहक उन समीपी गांवों तक भेजे गए जहां उसी कबीले के लोग रहते थे और इन पड़ोसी गांवों को पिपली गांव वालों की मदद पर पहुंचने के लिये कहा गया। इस आहवान का तत्काल अनुकूल उत्तर दिया गया और कहा जाता है कि एक लाख के लगभग लोग पिपली गांव की सुरक्षा के लिये एकत्रित हो गए। हमारा उद्देश्य यहां उस घटना का उल्लेख करना नहीं है अपितु संचार एवं एक गोत्र की अधिकार शक्ति की ओर संकेत करना है। एक अकेले गांव को इतना अधिकार प्राप्त है कि वह आसपास के पड़ोसी गांवों को मदद के लिये कह सकता है। गांव जिन की संख्या प्रायः

27. J.J. Modi in ABORI memorial volume; and JBBARS, 1914, Vol. XIV, p. 562.
28. op., cit.

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निश्चित होती है, यह फैसला करते हैं कि अब क्या कदम उठाना है और इस के बाद वे अपने संयुक्त अधिकारों के बल पर समूचे दहिया कबीले को मदद के लिये कह सकते हैं। फिर परम्परा के अनुसार जो आज भी विद्यमान है, सहायता की इस प्रार्थना का सकारात्मक रूप से जवाब दिया जाना अनिवार्य है। यदि स्थिति ऐसी हो कि समूचा कबीला इस स्थिति का सामना करने में असमर्थ हो तो कबीले के बुजुर्गों की प्रसभा जिसे दहिया खाप पंचायत कहते हैं, अन्य कबीलों को मदद करने के लिये पत्र भेजती है और अन्य कबीलों के लिये इस आह्वान का पालन करना अनिवार्य होता है।
सभी कबीलों के सर्वोच्च संगठन को पंचायत सर्व खाप कहा जाला है। इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण बात यह है कि खाप के आदेशों का पालन हर स्थिति में अनिवार्य होता है, चाहे प्रस्तावित कार्यवाही की सामाजिक एवं न्यायिक स्थिति कुछ भी क्यों न हो। खाप अधिकारों की यह प्रथा पुरातन काल से चली आ रही है और यह सिबी, यौद्धेय, मालवों आदि में भी खूब प्रचलित थी, जो भारत में गणतन्त्रात्मक लौकतंत्रीय प्रणाली के अग्रदूत समझे जाते थे। हमें इस संदर्भ में यह भी याद रखना चाहिये कि ई.पू. 700 में इब्कटाना में मण्ड जाट कबीले का प्रथम शासक देवक विधिवत रूप में वहां का राजा निर्वाचित हुआ था और सम्भवतः विश्व इतिहास में अपनी तरह का यह पहला उदाहरण माना जा रहा है लेकिन राजा को विधिवत्‌ रूप में निर्वाचन करने की प्रथा तो इस से भी पुरानी है और यह ऋग्वेद की मानी जाती है।
आइए अब आर्यों की आकृति एवं उन के नयन नक्श एवं रंग रूप की कुछ बात करें। चीनी इतिहास की पूर्वकालीन गाथाओं से यह पता चलता है कि मंगोलियों के प्रारम्भिक लोगों के "केश लाल, आंखे हरी एवं चेहरे श्वेत रंग लिये होते थे।" यह लम्बे सिरों वाली सुन्दर जाति मंगोलिया के उत्तर में दक्षिणी साईबेरिया में भी रहती थी। अतः प्राचीन हूण श्वेत रंग की जाति से सम्बन्धित थे और यहां तक उन के मंगोलों जैसे रंग रूप व आकृति का प्रश्न है, यह चीनी रक्‍त के सम्मिश्रण का परिणाम है।29 उन की त्वचा के रंग के बारें में 'साहित्य दर्पण' की एक टिप्पणी उल्लेखनीय है, जिस से इस विषय पर कुछ और अनुमान लगाया जा सकता है। इस कृति में हूणों का उल्लेख करते हुए उन की ताज़ा हज़ामत की गई ठोड़ी के रंग की तुलना नारंगी से की गई है, इस से यह भी प्रमाणित होता है कि हूणों के चेहरों पर घने बाल हुआ करते थे। (ध्यान रहे कि मंगोलों के प्रायः चेहरे बाल रहित होते हैं) और उनकी त्वचा नारंगी जैसा रंग लिये होती थी। ये लोग दाढ़ी के बाल कारते भी थे। 'साहित्य दर्षण' की वह पंक्ति इस प्रकार है।

"सद्यः मुण्डित मत्तहूणा चिबुक प्रस्पर्धि नारंगकम्‌"

(अर्थात्‌ मद्यपान से मस्त हूण की ताज़ा हज़ामत की गई चिबुक (ठोडी) नारंगी की प्रतिस्पर्धा करती है।)

29. Mc Govern, Early Empires of Central Asia, p. 96.

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सम्भवतः पूर्ण भारतीय साहित्य में हूणों के रंग रूप को लेकर स्पष्ट रूप से केवल एक यही उल्लेख प्राप्य है। किन्तु भारतीय नृत्य एवं नाटक शास्त्र की प्रख्यात कृति "नाट्य शास्त्र" में भी एक स्थान पर कहा गया है।

शकाश्च यवनाश्चैव पह्लवा बाह्लिकाश्च ते ।
प्रायेण गोराः कर्तव्या उत्तरां येश्रिता दिशम् ॥

अर्थात् शक, यवन, पह्लव, बाहिलक और उत्तर दिशा में रहने वाले लोग रंग के प्रायः गोरे हैं।30 उनकी भाषा के बारे में भी भारतीय लेखकों ने उस में शकारों का बाहुल्य पाया और शकों की परिभाषा उन लोगों के रूप में की गई जिन की भाषा उष्म वर्णों से भरपूर है।31

"शकार बहुला भाषा यस्य स शकारः।"

अनु भी इस सम्बन्ध में यह कहता है कि शक और यवन मलेच्छों और आर्यों की भाषा बोलते हैं :—

"मलेच्छाश्चाय्-र्यावाचः"

इससे यह सिद्ध होता है कि वे (हूण) द्विभाषी थे। पंचविश ब्राह्मण के अनुसार व्रात्य लोग अदीक्षित थे किन्तु वे दीक्षित आर्यों की भाषा बोलते थे।
वैदिक इन्डैक्स में भी व्रात्यों को जाति व भाषा से आर्य ही माना गया है। इसी आधार पर ब्रिटेनिका विश्वकोष में कहा गया है कि इतिहास के उदय काल से ही आर्यों को मध्य एशिया के तुर्कस्तान में रहते पाया गया है।32 अब अन्त में हम यह भी जानते हैं कि तीसरी शताब्दी ई.पू. मे बाह्य मंगोलिया के प्रथम हूण शासकों के नाम माओदून और तौमन थे। ये ईरानी नाम हैं, जिन की समानता कर सातवीं शती ई.पू. में इलम के राजा प्रेदून तथा त्युमन में भी पाई जाती है। ये अन्तिम दोनों नाम क्रमशः तुरानी एवं ईरानी राजाओं के हैं। अल्लक, हरनेक, उजिन्द्र, अतिला के पुत्रों के नाम तो आज भी पंजाबियों में जाने पहचाने नाम हैं।
स्ट्रेबो के अनुसार मण्ड लोगों की भाषा ईरानी लोगों, अरियों, बक्तरियों तथा सोग्देनियों की भाषा से अधिक मिलती जुलती थी।33 पुनः जी.ए. पुगचन्कोवा के अनुसार वर्गों के आधार पर पूर्व कालीन कुशान (हिराई कबीले के कुशान) कुशान हफतल, पश्चिमी पामीर के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने बाले लोगों से सम्बन्धित प्राप्त तथ्यों का जो विश्लेषण किया गया है उस से हमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं34 :—
(क) पूर्वकालीन कुशानों के वर्ग को "उत्तर यूरोपीय" अधिक कहा जा सकता

30. IHQ, 1962, Vol. XXXVIII, p. 206.
31. ibid., p. 210.
32. EB, pt. 23, p. 639.
33. P. Syke, op. cit., p. 121.
34. Kushan Studies in USSR, p. 179.

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है। और वह यू.ची. वर्ग के अधिक निकट था।
(ख) हफतलों का वर्ग पामीर के पर्वतीय लोगों के वर्ग के अधिक निकट है।
(ग) पूर्वकालीन कुशानों के वर्ग में पूर्व कुशानों से चलकर कुशानों और हफतलों तक पहुंचने तक परिवर्तन हो जाता है।
(घ) छोर के इन दो वर्गों (पूर्वकालीन कुशान और हफतल) के मध्य कोई तीव्र विभेदीकरण नहीं है। वे दोनों एक पूर्वीय ईरानी मानवीय शारीरिक सरंचना के ही दो भिन्न रूप हैं। इन के शारीरिक अवशेष पामीर तथा उत्तरीय काफ में सुरक्षित है, जिन में ईरानी पठार को छोड़ कर पूर्ण सुनिश्चितता के साथ हिन्दोस्तान तथा पश्चिमी एशिया की जातीय वर्गों में से भिन्नता स्थापित की जा सकती है।
अतः यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि पुरातन जाट कबीले जीवन शैली, हाव भाव, भाषा व शारीरिक रूप में आर्य ही थे और जब भी स्थानांतरण की स्थिति हुई तो उन्होंने अपने पूर्वजों की जीवन शैली का ही अनुसरण किया।

विधवा पुनर्विवाह

माऊंट आबू में आयोजित अग्नि अनुष्ठान के समय जाटों, गूजरोंअहीरों और ब्राह्मणों में जिन दो प्रमुख बातों को लेकर मत भिन्नता थी उन में एक विधवा पुनर्विवाह से सम्बन्धित भी थी। इस अग्नि अनुष्ठान आयोजन में इन में से जिन लोगों ने ब्राह्मण पुरोहितों की सभी शर्तें मान लीं, उन्हें राजपुत्र कहा गया। जिन लोगों को आज जाट, गुज्जर, अहीर कहा जाता है उन्होंने हिन्दू धर्म में परिवर्तित होने से पूर्व दो शर्तें रखीं।
आर्थत् :—
(1) विवाह योग्य आयु की कोई विधवा, विधवा नहीं रहेगी और उस का पुनर्विवाह होगा।
(2) हम आप की यह शर्त तो मानते हैं कि हमें अपने ही जाति की किसी महिला से विवाह करना होगा। हम इतना मान लेते हैं किन्तु यदि हमें अपनी जाति से कोई ऐसी महिला उपलब्ध नहीं होती तो हमारा किसी अन्य कबीले या जाति से किसी भी ढंग से प्राप्त महिला को अपनी पत्नी बनाने का अधिकार सुरक्षित रहेगा।
प्रखर रूप से ये यथार्थवादी एवं आधुनिक विचार उन ब्राह्मणों द्वारा स्वीकार नहीं किये गये अतः इस अनुष्ठान में आए बहुत लोगों ने प्रस्तावित उच्च सामाजिक स्तर एवं धर्म परिवर्तित होने से इन्कार कर दिया। इन में पहली बात अर्थात्‌ विधवा पुनर्विवाह स्पष्ट रूप से एक पुरानी आर्य प्रथा है, जिस में एक विधवा से अपेक्षा रखी जाती है कि वह अपने मृत पति के छोटे भाई से विवाह कर ले। आर्यों की इस प्रथा का उल्लेख कई


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स्मृतियों में भी हुआ है। देवर शब्द का शाब्दिक अर्थ ही यास्क के अनुसार दूसरा वर अर्थात द्वितीयो वरः है।34a जब मृत पति का अन्तिम संस्कार किया जा रहा होता तो उस का छोटा भाई (अपने मृत पति के साथ लेटी) विधवा का हाथ पकड़ कर उसे अपनी पत्नी बनने का आग्रह करता था।35 इस प्रथा का एक और उल्लेख इस तरह भी मिलता है। इसके अनुसार एक विधवा अपनी शैय्या पर अपने पति के भाई को इस तरह आलिंगन में बांध लेती है जैसे विवाहिताएं अपने पति को।36 मनु, जो विधवा विवाह37 की प्रथा के विरुद्ध था, भी परोक्ष रूप में इन विचारों को ऐसा कहते हुए स्वीकार करता है कि यदि पुनः विवाहिता विधवा को ब्राह्मण पति के संसर्ग से पूत्र प्राप्त होता है तो वह ब्राह्मण ही कहलाएगा।38 गौतम भी इस प्रथा को स्वीकार करता है और दूसरे पति के सम्बन्धों से प्राप्त एक विधवा के पुत्र को अपने पिता की सम्पति प्राप्त करने का उत्तराधिकारी मानता है।39 वशिष्ट ने इस व्यवस्था पर बल दिया था कि एक ब्राह्मण जाति की स्त्री, जिस के सन्तान है अपने पति की मृत्यु के पांच वर्ष बाद, जो निःसन्तान है, वह चार वर्ष बाद पुनर्विवाह कर सकती है।40 ऋग्वेद स्पष्ट रूप से कह रहा है, "हे देवी उठो। तुम उसके साथ पड़ी हो जिस का जीवन समाप्त हो चुका है, अब अपने पति से बन्धन तोड़ कर जीवितों के संसार में लौटो और उसकी पत्नी बनो, जो तुम्हारा पाणिग्रहण कर रहा है और जो एक प्रणयी की तरह अपना प्रणय तुम्हारे प्रति समर्पित कर रहा है।"41
महाभारत कह रहा है, "एक महिला अपने पति की मुत्यु के बाद अपने देवर से विवाह करती है इसी प्रकार, जब ब्राह्मण उस की रक्षा करने में असफल रहा, तब घरा ने क्षत्रिय को अपना पति वर लिया।"42
समाज में व्यावहारिक रूप में यह प्रथा आम प्रचलित थी। हम जानते हैं कि बाली और सुग्रीव ने बारी-बारी तारा को अपनी पत्नी बनाया था। जयद्रथ ने द्रौपदी को अपनी पत्नी बनाना चाहा। त्रिशंकू ने विदर्भ राज कुमार की हत्या के बाद उस की पत्नी को अपनी पत्नी बनाया और उससे एक पुत्र भी प्राप्त हुआ। सत्यवती के पति शान्तनु की मृत्यु के बाद उग्रयुद्ध महाराज ने उससे पाणिग्रहण का प्रस्ताव रखा था। अर्जुन ने नाग

34a. Nirukta 3/15.
35. Rig Veda, bk. X, 18.8.
36. ibid., X, 40.2.
37. Manu, IX, 65.
38. ibid., III, 181.
39. Gautama, XXIX, 8.
40. For the views of Chanakya, see under Mauryas, and also R.N. Sharma. Brahmans Through the Ages; Chanakya permits, not only widow-marriage, but also divorce and Niyoga for Brahmanas.
41. Rig Veda, bk. X, 18.8.
42. MBT, Shanti Parvan, 72, V. 12.

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राजा ऐरावत की विधवा पुत्री से विवाह करना स्वीकार किया था और उससे उसे एक पुत्र भी प्राप्त हुआ था।
Annals of Rajasthan में कर्नल टाड मेवाड़ के राजा हमीरचित्तौड़ के राज्यपाल मलदेव की विधवा पुत्री से विवाह का उल्लेख-करते हैं। 1365 ई. अपने पिता (हमीर) की मृत्यु के बाद उसका इस विवाह से प्राप्त पुत्र सर्वाधिक गौरवशाली इस राजपूत राज्य का शासक बना।43 दत्ता पूर्ण औचित्य सहित लिखते हैं यह तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे वीर काव्यों में महिलाओं के पुनर्विवाह की चर्चा बहुत कम क्यों हुई है। अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि परवर्ती कट्टर ब्राह्मणों द्वारा बार-बार इन वीर काव्यों के परिशोधनों एवं संशोधनों के बाद भी इस प्रथा के इतने प्रमाण कैसे रहने दिये गये हैं।44
यहां तक कि तलाक को भी मान्यता प्राप्त थी तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस के लिये "मोक्ष" शब्द का प्रयोग हुआ है। नारद के अनुसार यदि पति खो जाए या मर जाए या संन्यासी बन जाए अथवा नपुंसक हो अथवा बिरादरी से निष्कासित कर दिया जाए इन पांच तरह की आपात्‌ स्थितियों में एक स्त्री दूसरा पति कर सकती है।45
नियोग विवाह (बड़े भाई की विधवा से) 1700 ई.पू. में एनातोलिया में खत्तियों में प्रचलित था और वे निश्चित रूप से आर्य थे। मनु स्मृति यवन, द्रविड, शक, कम्बोज, छीना आदि को क्षत्रिय मानती है, और उसके अनुसार, इनका पतन इस लिये हो गया क्योंकि उन्होने ब्राह्मणों को मुंह लगाना छोड़ दिया था। सम्बद्ध श्लोक नीचे प्रस्तुत है।

शनकैस्तु क्रियालापादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

परन्तु यह तो ब्राह्मणवाद के इन पुरोहित ठेकेदारों के अंहकार की पराकाष्ठा ही थी कि उन्होंने परवर्ती काल में भी पंजाबियों को जाति बहिष्कृत कह कर लांछित कर दिया।46
और अब तो हम स्वयं देख रहे हैं कि कई ब्राह्मण विधवाओ के पुनः विवाह हो रहे हैं। समय और काल परिवर्तन के प्रवाह में सभी आपत्तियां बह चुकी हैं। जहां तक जाति से बाहर विवाह करने का प्रश्न है, आज विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन आ चुका है। आजकल हम कई अन्तर जातीय विवाह होते देख रहे हैं, जिस से प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय एकता को बल मिल रहा है। उदाहरणतः एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री प्रो. शेर सिंह जी ने एक

43. For further details see Dutta in IHQ, Vol. XIV, p. 663.
44. ibid, p. 664.
45. ibid, p. 666.
46. Pargiter, Markandeya Purana, p. 312, notes.

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ब्राह्मण महिला से विवाह किया। आजकल ब्राह्मण जाट व अन्य जातियों की लड़कियों के विवाह अन्य जातियों में हो रहे हैं। अतः हम देख रहे हैं कि छटी शताब्दी की जो शर्तें ब्राह्मणों को मान्य नहीं थीं, वे बीसवीं सदी में और विशेष रूप में 1947 जबकि हम ने अंग्रेज़ों की दासता का जुआ उतार फैंका, के बाद वे शर्तें ब्राह्मणों द्वारा चाहते हुए सा अन्य किन्हीं कारणों द्वारा, स्वीकार कर ली गई हैं। कुछ वर्ष पहले, जब श्री मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने अहमदाबाद (गुजरात) में 16 युगलों को अपने आशीर्वाद दिये थे, जिन में से दो ऐसी ब्राह्मण कन्याएं थीं जिन्होंने शूद्रों से विवाह किया तथा तीन उच्च वर्गीय हिन्दू युवकों ने शूद्र कन्याओं से विवाह किया।47 विशेषतः (चाहे हंसी मज़ाक में ही) एक जाट तो अपनी बेटी को भी यह कह देता है, "आ बेटी ले फेरे, यू मर गया तो और बहुतेरे।"
हम इस प्रकरण का समापन एक विख्यात इतिहासकार के इन शब्दों के साथ कर रहे हैं, "शारीरिक रूप-रेखा में, भाषा में, चरित्र में, भावनाओं में, शासन व सामाजिक संस्थाओ से सम्बन्धित विचारो में आज का जाट निर्विवाद रूप में हिन्दुओं को इन तीन उच्च जातियों के किसी भी सदस्य की अपेक्षा प्राचीन वेदकालीन आर्यों का कहीं अधिक एवं श्रेष्ठ प्रतिनिधि है। हिन्दुओं की इन तीन उच्च कही जाने वाली जातियों ने तो सदियों की विकास की प्रक्रिया में निश्चित रूप से बहुत सीमा तक अपना मूल चरित्र ही खो दिया है।"

उनके प्रव्रजन की विधि

जिस विधि से प्राचीन जाटों का मध्य एशिया से भारत तथा अन्य देशों के लिये प्रव्रजन हुआ उस का अध्ययन भी कम रोचक नहीं है। मध्य एशिया को उचित रूप में "एशिया का हृदय" कहा गया है, जिस के माध्यम से इसकी विभिन्न धमनियों व शिराओं में ताजे रक्‍त का संचार होता है। इस "हृदय" द्वारा ताजे रक्‍त का संचार का आभास पहली बार तब हुआ जब आर्यों के रूप में ये लोग भारत आये। इन्होने स्थानांतरण क्यों किया, ऐसी कौन-सी परिस्थितियां थीं जिन के कारण उन्हें प्रव्रजन के लिये विवश होना पड़ा, यह हम नहीं जानते। किन्तु ऐसी कोई घटना अवश्य हुई होगी जिस ने इन लोगों को विभिन्न दिशाओं की ओर प्रस्थान करने के लिये विवश कर दिया होगा। सम्भवतः उन्हें नई भूमियों व नई चरागाहों की तलाश होगी।
मध्य एशिया से आर्यों के आगमन के बाद भी स्थिति इतनी स्पष्ट नहीं होती है। किन्तु हम यह जानते हैं कि 700 ई.पू. या इस के आसपास मण्ड कबीले ने देवक के नेतृत्व में अपने साम्राज्य की स्थापना की और 647 ई.पू. में उसका पुत्र प्रवर्ती उसका उत्तराधिकारी बना। 585 ई.पू. में उसके पौत्र इष्टवेगु ने राज्य अधिकार प्राप्त किया।

47. Hindustan Times, May 29, 1978.

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इष्टवेगू की पुत्री का नाम कुल के नाम पर मण्डाणी रखा गया। उसका विवाह इलम के एक छोटे राज कुमार से हुआ, जिस का नाम कम्बीस था। मण्डाणी और कम्बीस के पुत्र कुरूश महान के साथ युद्ध के बाद इष्टवेगु को सिंहासन से च्युत होना पड़ा। इस तरह ईरान के जाट साम्राज्य का पतन हुआ। परवर्ती काल में राज्य की पुनः प्राप्ति के लिये कई प्रयास हुए और मण्डों के एक नेता गौमत ने एक भयंकर युद्ध के बाद सिंहासन को पुनः प्राप्त किया। किन्तु छह महीने बाद ही उसे मार्च 521 ई.पू. में अपने राज्य को दारा के हाथ खो देना पड़ा और गौमत की अकबटाना के सोख्यवती राजमहल में हत्वा कर दी गई। घोर परिवर्तनों, कष्टों, यातनाओं एवं उथल-पुथल के उस महाकाल में जाटों के कई कबीले भारत की और आए और अफगानिस्तानपंजाब में बस गये। दारा का युद्ध ही वह ऐतिहासिक घटना है, जिस के बारे में हमें पूर्ण विवरण प्राप्त है। यह प्रव्रजन दशकों सम्भवतः इस से भी अधिक समय तक होता रहा। अतः हम इन लोगों को पाणिनी (पांचवीं शती ई.पू.) के काल में पंजाब में बसा हुआ पाते हैं। पाणिनी ऐसे कई नगरों, उपनगरों का उल्लेख करता है जिन के नामों के अन्त में कन्द आता है जो आधूनिक काल में मध्य एशिया में कंद के रूप में पाए जाते हैं। हम वी.एस. अग्रवाल को पहले ही उद्धृत कर चुके हैं जिसके अनुसार पाणिनी के समय के पूर्व यह नगर सिथ लोगों द्वारा बसाये जा चुके थे। हम यह भी जानते हैं कि सिंधु नदी के पार का क्षेत्र मण्ड साम्राज्य के अधीन था और अतः जब उनके हाथ से उन का राज्य जाता रहा तो वे इसी क्षेत्र (अफगानिस्तान-पंजाब) की ओर भागे होंगे। किन्तु उत्तर सोगदियाना में कंगों व केस्पियन सागर के मस्सा गटई जाटों ने आत्म समर्पण करने से इन्कार कर दिया और मस्सा गटईयों ने अपनी रानी तोमीरिस के नेतृत्व में युद्ध के दौरान कुरुश महान्‌ को मार गिराया। यूनानियों द्वारा दिया गया यह तोमीरिस एक व्यक्ति वाचक नाम नहीं है बल्कि यह एक सर्वनाम है जिस का अर्थ है "रानी"। इस के लिये शक शब्द है तमूरी, जिस का अर्थ भी रानी ही है। हेरोडोटस ने इसे तोमीरिस के रूप में लिखा।48 उसका अपना नाम स्परतरा (स्परत्रा) था, पति का नाम अर्मोध और पुत्र का नाम स्वर्गपति
व्यापक स्तर पर हुए अगले प्रव्रजन का पता हमें ई.पू. दूसरी शताब्दी में उस समय चलता है जब शक और उन के बाद कुशान भारत तथा पश्चिमी सीमाओं तक पहुंच चुके थे। इस महा प्रव्रजन का मुख्य कारण विभिन्न कबीलों के बीच गृहयुद्ध था। यह प्रक्रिया 17वीं शताब्दी तक भी चलती रही क्योंकि हम जानते हैं कि चौथी पांचवीं शती में श्वेत हूण कहे जाने वाले लोग भारत आये। आठवीं नौवीं शताब्दी में तुर्क अरबों के साथ भारत पहुंचे और इस तरह मध्य एशिया के लोग दिल्ली के मुगल साम्राज्य में ताज़े रक्‍त का संचार करते रहे। मुगल दरबार के कई मन्त्री एवं सेनापति मध्य एशिया से आने वाले लोग थे। अठारहवीं शताब्दी में यह प्रक्रिया थम गई। सम्भवतः इसलिये कि

48. See MAKI, Vol. I.

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तब तक सागरीय रास्तों से यूरोपियन लोगों का भारत आगमन शुरू हो चुका था। ये यूरोपीय लोग मद्रास, गोवा, कलकत्ता के तटों से भारत में प्रविष्ट हुए।
अतः हम देखते हैं कि मध्य एशिया सचमुच ही एक हृदय केन्द्र के रूप में काम कर रहा था और वह भारत सहित कई एशियाई राष्ट्रों में ताजे रक्‍त का संचार कर रहा था। उनके प्रव्रजन की विधि का उल्लेख राहुल सांकृत्यायन इन शब्दों में करते हैं, कल्पना कीजिये एक विशाल जनसमूह की। इस विशाल भीड़ के एक छोर पर दबाब डाला जाता है। जिस भाग पर दबाव पड़ता है वह अपना दबाव अगले भाग पर डालता है और यह प्रक्रिया अगले से अगले भाग तक निरन्तर चलती रहती है जब तक कि वह भीड़ के दूसरे छोर तक नहीं पहुंच जाती। इस दूसरे छोर को या तो भागना पड़ेगा, या फिर वह गिर पड़ेगा और कुचला जाएगा। इसी तरह दोनों छोरों के बीच लोग गिरने तथा कुचले जाने की आशंका से निरन्तर आगे बढ़ते रहे होंगे। मध्य एशिया में इन लोगों के प्रव्रजन की यही प्रक्रिया रही। जब हूणों ने यू-चियों पर दबाव डाला तो वे ईरानभारत की ओर भाग निकले। जब जन्जुआ लोगों ने हूणों पर दबाव डाला तो वे भी दक्षिण दिशा एवं पश्चिमी दिशा की ओर प्रस्थान करते गए और जब इन लोगों पर तुर्की तातारोंमुगलों ने दबाव डाला तब भी यही हुआ।49
अतः हम देखते हैं कि जब भी कोई घटना मध्य एशिया में होती है तो उस का एक दम प्रभाव चीन से लेकर भारत तक, भारत से ईरान, ईरान से तुर्की और वहां से यूरोप तक पड़ता चला जाता है। क्या यहां यह मुहावरा लागू नहीं होता कि जब मध्य एशिया को छींक आती है तो शेष एशिया को जुकाम हो जाता है ? यह बात इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि भारत के इतिहास को अच्छी तरह समझने के लिये मध्य एशिया के इतिहास को अच्छी तरह समझना ज़रूरी है और यदि इतिहास की कोई शिक्षा है तो यही है कि :—
"भारत को पूर्ण चौकसी के साथ मध्य एशिया के मरुस्थलों व नखलिस्तानों से उठने वाली विभिन्न लहरों पर नज़र रखनी होगी। इन से भारत देर या सवेर अवश्य ही प्रभावित होगा। समय पूर्व चेतावनी समय पूर्व शखबद्ध होने के लिये ही होती है।"50

माउंट आबू में धर्म परिवर्तन

छटी शताब्दी में मध्य एशिया की ओर से भारत की शिराओं में ताज़े रक्‍त की प्राप्ति की प्रक्रिया मंद पड़ गई थी। तोरमानमिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों के अन्तिम आक्रमण हो चूके थे। उन से पूर्व आ चुके लोग राजनीतिक सत्ता की बागडोर संभाले हुए थे। वे विजेता थे और वे ही राजा भी थे। विशाल सम्पतियों और महत्वपूर्ण पदों पर उन का ही वर्चस्व था। उत्कृष्ट कृषि योग्य भूमियां उन्हीं के हाथों में थीं। इन लोगों को भारत

49. See MAKI.
50. For further details see T. Talbot Rice. The Scythians, p. 43.

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से बाहर मार भगाना इतना सहज नहीं था जैसा कि हम ने 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया था। वे अपनी धार्मिक प्रथाओं का पालन कर रहे थे और इन प्रथाओं के लिये उन के अपने पुरोहित थे। ईरान के उत्तर से मग पुरोहित आकर अफगानिस्तान, कश्मीर और मालवा में बस चुके थे। पाणिनी के काल में इन लोगों के अपने आचार्य थे जो युद्ध में मर रहे उन के सैनिकों को सान्त्वना प्रदान किया करते थे।
इन परिस्थितियों में कट्टरपंथी ब्राह्मणों के विशेष अधिकार कम हो रहे थे और इस तरह उन्हें अपना जीवन यापन कठिन लपने लगा था। अग्रहारों के रूप में दान दक्षिणा नये ब्राह्मण को दी जा रही थीं। इसी लिये खारबेल के अभिलेख में यह अंकित पाया गया, "श्रेष्ठ ब्राह्मण रठिकों तथा भोजों की भूमि से भाग गए थे।" इसी स्थिति की ओर संकेत करता हुआ कल्हण अपनी राजतंरगिनी में यह कहता है कि गांधार में मिहिरकुल से अग्रहार प्राप्त करने वाले ब्राह्मण बहुत ही नीच ब्राह्मण थे।
इन परिस्थितियों में पुरोहित वर्ग ने अपने हितों की सुरक्षा के लिये यह आवश्यक समझा कि उन्हें भी राजाओं की ओर से मिलने वाले दान और दक्षिणा में भागीदार बनने के प्रयास करने चाहियें। इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुये वशिष्ट ने माउंट आबू (राजस्थान) में एक अग्नि यज्ञ का आयोजन किया। इस पवित्र अग्नि से बहुत-से नवागून्तकों को शुद्ध किया गया। उन्हें राजपुत्रों का नाम दिया गया जिस के अर्थ है राजवंशों के राज कुमार अथवा राजाओं के पूत्र जो वे वास्तव में थे ही। यह जानना भी रचिकर होगा कि ईरान में और विशेष रूप में सिस्तान क्षेत्र में बड़े-बड़े ज़मींदारों को विसपुहर कहा जाता था, जिस का अर्थ है राजाओं के पुत्र। भारतीय शब्द राजपुत्र इस ईरानी शब्द का ही शुद्ध अनुवाद है। वैदिक साहित्य में विश निस्संदेह राजा के लिये प्रयुक्त हुआ है लेकिन उस काल के भारत में इस शब्द का स्थान राजा अथवा राजन्य ने ले लिया था जबकि ईरान में यह शब्द अपने मूल रूप में ही प्रचलित रहा। पुहर संस्कृत के शब्द पुत्र का फारसी रूप है। भगवान के पुत्र के लिये शक शब्द पक पूहर है जो संस्कृत के शब्द भग पुत्र के अनुरूप है अर्थात्‌ भगवान का पुत्र।51 "शक विसपूहरों के ईरान में विद्यमान होने की पुष्टि सासानी इतिहास से होती है, जिस के माध्यम से हम जानते हैं कि विसपुहरों और शहरदारों ने 309 ई. में हामिर्जद द्वितीय की मृत्यु के बाद शाहपुहर द्वितीय के विरुद विद्रोह कर दिया था। आधुनिक पंजाबी में प्रयुक्त सरदार की उपाधि शहरदार से ही ली गई है। ठीक वैसे ही जैसे संस्कृत का राजपुत्र ईरानी भाषा के विसपूहर का ही रूपान्तरण है।
अब पुनः तनिक अग्नि यज्ञ की और मुड़ें। अग्नि यज्ञ का आयोजन हुआ और परमारों, परिहारों, चौहानों तथा चालुक्यों के चार मुख्य कबीलों को औपचारिक रूप में ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित कर लिया गया। अग्नि कुल राजपूतों के जन्म की गाथा का उल्लेख चन्दर वरदई अपने प्रख्यात वीर काव्य पृथ्वी राज रासो में भी करता है और इतिहासकार

51. MAKI.

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आमतौर पर इसे स्वीकार भी करते हैं। अभिलेखों पर आधारित कुछ उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं, जिन से इस धर्म परिवर्तन की विधि का परिचय प्राप्त होता है।
1. चालुक्य वीर धवल तथा सोम सिंह प्रमार के 1287 सम्वंत्‌ अभिलेख के अनुसार वशिष्ट की बलि वेदी से उन का पूर्वज परमार उदित हुआ। उस परिवार में सब से प्रथम धूम राज तथा इस के पश्चात्‌ धन धुक।"52
2. किन्तु 1344 सम्वत्‌ का अभिलेख (पतनारायण, सिरोही) के अनुसार "वशिष्ट ऋषि ने अग्नि कुंड से अर्बुद (माऊंट आबू) पर धौम राज को उत्पन्न किया उस की गाय वापस लाने के लिये तथा उसे (धोम को) परमार जाति तथा अपने गोत्र से प्रतिष्ठित किया।"
यहां पर प्रथम परमार का कोई वर्णन नहीं है तथा इस से यह प्रमाणित हो जाता है कि धूमराज प्रथम व्यक्ति था जो पवार/परमार कबीले से धर्म परिवर्तित हुआ। 1378 सम्वत्‌ का अभिलेख उसी गाथा की पुनरावृत्ति है।53
3. तोमर परिवार के पहेवा अभिलेख तीन पीढ़ियों के नामों का वर्णन करते हैं तथा उनके अनुसार, यह परिवार एक जौल राजा से विकसित था जो बहुत समय पहले हुआ था।54 इस से यह प्रमाणित होता है कि तोमर जाट तथा राजपूत, जौल जाटों की ही शृंखला से थे लेकिन यह बात सत्य नहीं है क्योंकि तोमर भी उतने ही पुराने हैं जितने जौल। हां, जौल वंश के नाम पर किसी तोमर राजा का नाम भी था, उसी का यहां ज़िकर है।
4. रासो की कथा अनुसार यज्ञ कुंड से प्रथम प्रकट होने वाला प्रतिहार था तथा उसे ऋषि द्वारा महल की सडक पर तैनात किया गया था अर्थात्‌ उसे प्रहरी का कार्य दिया गया। दूसरे क्रम पर प्रकट होने वाला चालुक्य था जिसे ब्रह्मा ने अपनी चुलु से उत्पन्न किया था। यह मध्य एशियाई लोगों के नामों के संस्कृतीकरण का एक उदाहरण है। चुलिक/सुलिक को चालुक्यों में परिवर्तित कर दिया गया। जो व्यक्ति इस के पश्चात्‌ प्रकट हुआ वह पवार था, सर्वश्रेष्ठ वीर पुरूष जिसे ऋषि ने शत्रु का नाश (परमार) करने बाले का नाम दिया। यह उन के नामों के भारतीयकरण का दूसरा उदाहरण है। सब से अन्त में अग्नि से प्रकट होने वाला चौहान था जिस की चार भुजायें थीं तथा प्रत्येक भुजा में एक खड़ग थी। हालांकि चार भूजाओं वाले व्यक्ति की कल्पना सम्भव नहीं फिर भी लेखक इस का उल्लेख करने से नहीं चूका।
5. बड़े नगर के चालूक्यों की 1151 ई. की प्रशस्ति के अनुसार देवताओं की प्रार्थना पर उन को दानवों से बचाने के लिये ब्रह्मा ने संध्या करते समय अपनी हथेली में गंगा

52. EI, Vol. XX, p, 71.
53. ibid., p. 96 (Serial No. 677).
54. EI., Vol. I, p. 244; article by R. Hoernle in JRAS, 1905.

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जल से चालुक्य वीर को उत्पन्न किया।55
इस से यह प्रमाणित होता है कि चालुक्यों का गंगा के तट पर भी धर्म परिवर्तन किया गया।56 चुलिक शब्द संस्कृत के चुलुक नाम के सामान ही पाया गया है। इसीलिये इस का चालुक्य में संस्कृतकरण कर दिया गया।
6. बिल्हण (Bilhan) भी 1085 ई. के आस पास अपनी कृति विक्रमा-ङ्कदेव चरित में चुलुक वंश का वर्णन ऐसे ही देता है।
7. मंगलेश का महाकूट अभिलेख पुल्केशिन-I के सम्बन्ध में कहता है, "अग्निस्तोम तथा अन्य यज्ञों के रूप में जो धार्मिक अनुष्ठान किये गये, उन के पुण्य प्रभाव से उस का शरीर पवित्र हो गया। वह हिर्णय-गर्भ (ब्रह्मा) से उत्पन्न हुआ था, उस ने बड़ों कीं डांट ड़पट स्वीकार की तथा ब्राह्मणों के प्रति उस का व्यवहार अच्छा था।"57 यहां पर अग्निस्तोम यज्ञ का वर्णन रुचिकर है। स्तोम विशेषतयः विदेशियों के ब्राह्मणीकरण के लिये निर्धारित थे।58 विदेशियों के लिये जिस अन्य शब्द का प्रयोग किया जाता था वह था व्रात/व्रात्य। वेबर (Weber) के अनुसार वे अ-ब्राह्मणीय पाश्चात्य कबीले थे, योद्धेओं पर आधारित थे।59 वैदिक अनुक्रमणिका (Vedic Index II 344) इस विचार से सहमत है। "इसलिए यह नियम बनाया गया है कि व्रात्य स्तोम यज्ञ को साधारण अग्नि (लौकिक अग्नि) में भी किया जा सकता है।"60
मंगलेश पुल्केशिन का पौत्र था तथा यह अभिलेख उस के द्वारा अंकित करवाया गया था। इसलिये जब वह अपने दादा के विषय में कुछ कहता है तो इसे सत्य मानता ही होगा। तथा होरनल के शब्दों के अनुसार "पुल्केशिन द्वारा जो कि एक विदेशी आक्रामक था अथवा प्रव्रजक था, ब्राह्मण धर्म को स्वीकार करने की एक स्पष्ट स्वीकारोक्ति है तथा पुल्केशिन और उसे मानव्य गोत्र की सदस्यता प्रदान की गई तथा हरित गोत्र की एक महिला का उसे वंशज बताया गया।"61
8. 861 ई. की घटयाला तथा जोधपुर में परिहारों की दो प्रशस्तियां मिली हैं।62 यह दो सौतेले भाइयों बौंक तथा ककुक्क के अभिलेख हैं। उन के पिता कक्क ने दो विवाह किये थे। उस की एक पत्नी जोकि बौंक की मां थी, महारानी थी। ऐसा कहा जाता है कि दोनों भाई परिहार वंश की बारहवीं पीढ़ी में से थे तथा वंश का संस्थापक कोई हरिचन्द्र

55. EI., Vol. I, p. 301.
56. JRAS, 1905, p. 23.
57. EI, VII, APP, No. 5; IA, XIX, p. 17.
58. V.S. Agarwala, op. cit., p. 441-42.
59. Weber, History of Indian Literature, p. 78.
60. V.S. Agarwala, op. cit., p. 442.
61. JRAS, 1905, p. 26.
62. ibid., 1895, p. 1; and 1895, p. 513.

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था। इसलिये एक पीढ़ी के लिये यदि हम 20 वर्ष का समय भी गिने तो हरिचन्द्र का काल सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध बनता है। यह कहा जाता है कि हरिचन्द एक ब्राह्मण था तथा उस ने एक ब्राह्मण महिला तथा भद्रा नाम की एक क्षत्रिय महिला से भी विवाह किया था। ब्राह्मण महिला से उत्पन्न हुये ब्राह्मण कहे गये तथा भद्रा से उत्पन्न पुत्रों को क्षत्रिय कहा गया तथा उन का वर्णन "सुरापायी" के रूप में किया गया है।
किन्तु हरिचन्द्र को एक रोहिल भी कहा जाता है तथा रोहिला नाम का जाटों का एक कबीला आज भी विद्यमान है। इस लिये हरिचन्द्र या तो रोहिला था अथवा ब्राह्मण। वह दोनों नहीं हो सकता क्योंकि रोहिला एक ब्राह्मण गोत्र का नाम नहीं है, कुछ भी हो इस कथा से यह पता लगता है कि शायद परिहार का धर्म परिवर्तन सातवीं शताब्दी ई. के आरम्भ में हुआ हो।
9. राजतरंगिनी में राज पुत्र का शब्द आया है जिस में राज पुत्रों को विदेशी कहा गया है तथा उन को वीर, स्वामी-भक्‍त यद्यपि घमण्डी कहा गया हैं। कल्हण ने स्थानीय कश्मीरियों की कायरता के सामने उन की वीरता की प्रशंसा की है। इस के अतिरिक्त काबुल तथा उदभण्ड के एक शाही वंश का भी वर्णन मिलता है।63 यह भी कहा गया है के 1021/1022 में अपनी पराजय के पश्चात्‌ लल्लीय शाही कश्मीर आ गये जहां पर उन्हें "साही वंशज राजपुत्र" कहा जाता था।64 यह भी वर्णन मिलता है कि 1101 ई. में जब कश्मीर का राजा हर्ष विद्रोहियों के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ तो राज वंश की कुलीन महिलाओं ने स्वयं को अग्नि की लपटों में भेंट कर दिया।65 यहां उस प्रथा का प्रमाण विद्यमान है जिसे बाद में जौहर के नाम से जाना गया। अन्त में कल्हण कहता है, "आज विदेशों में शाही उपाधि असंख्य क्षत्रियों के नामों को एक आशा प्रदान करती है जो अपने मूल को उस शाही वंश के साथ जोडते हैं।"66
यह टिप्पणी इस बात की द्योतक है कि कल्हण द्वारा लल्लीय शाही वंश को कितना उच्च मान तथा आदर दिया गया। तथा इस बात को भी यह सिद्ध करती है कि यह ब्राह्मणों का वंश नहीं था अपितु क्षत्रियों का, जिसे कुछ ब्राह्मण लेखकों द्वारा शूद्र कहा गया। इसलिये यह सही कहा गया है कि राजपूत कबीले विविध आक्रमणकारियों तथा शासकीय वर्गों की स्थानीय मूल की भारतीय महिलाओं के आपसी विवाह का परिणाम हैं। इस सिद्धान्त के विरुद्ध तीन मुख्य आपत्तियां हैं। प्रथम आपत्ति यह है कि राजपूत जिन की रूपरेखा आर्यों जैसी है, वे हूणों तथा गुज्जरों के वंशज नहीं हो सकते जोकि मंगोल नस्ल के थे, किन्तु यह आपत्ति निर्मूल सिद्ध हो गई है। उन खोजों तथा शोध के

63. Rajata., bk. V/VII.
64. ibid., bk. VII, 144, 178, 274.
65. ibid., bk. VII, 1550, 1571.
66. ibid., bk. VIII, 3230.

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संदर्भ में जिन {के} द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि हूणों में आर्यों के रक्‍त के बहुत सशक्त तत्व विद्यमान थे। उन के मकबरों की खुदाई से यह बात प्रकाश में आई है कि उन का आर्यों जैसा चेहरा मोहरा था। चीनियों द्वारा हियूंग-नू हूणों के विवरण तथा चित्रण से उन की इण्डो-यूरोपियन सजातीयता निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गई है। उदाहरण स्वरूप जिस बर्बर को हो-चू-पिंग के घोड़े के खुरों के नीचे कुचला दिखाया गया है उस की मुछें तथा पूर्ण दाढ़ी दिखाई गई है जो कि C.W. Bishop के अनुसार मंगोलों में एक असाधारण बात है।67 चिन-शू द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि चीनी शीह मिन जो 349 ई. में होनस (उत्तरी) का शासक बना, के आदेश पर जिन हियूंग-नू सैनिकों का वध कर दिया गया था उन के ऊंचे नाक तथा पूर्ण दाढ़ियां थीं।68
दूसरी आपत्ति यह है कि विदेशियों ने कभी भारतीय राजवंश की राजकुमारियों से विवाह नहीं किये। इस सम्बन्ध में यह आम धारणा है कि यह एक-मार्गी क्रिया थी जिस के अन्तर्गत भारतीयों द्वारा विदेशियों की सुन्दर महिलाओं को पत्नियों के रूप में तो स्वीकार कर लिया जाता था किन्तु कोई भी भारतीय महिला विवाह में विदेशियों, गुज्जरों, हणों आदि को नहीं दी जाती थी।
यह तर्क भी पूर्णतयः आधारहीन है क्योंकि बहुत-सी ऐसी घटनाये हैं जिन का उल्लेख किया जा सकता है तथा जिन से यह पता चलता है कि विदेशियों ने भारतीय राजघरानों में विवाह किये। कल्हण इस बात का उल्लेख करता है कि तोरमान का पुत्र प्रवरसेन II इक्षवाकू कूल की एक महिला से उत्पन्न हुआ था। यहां पर तोरमान निश्चित रूप से एक हूण (अथवा कम से कम कुशान) था जबकि महिला एक अति महत्वपूर्ण राजकीय वंश से सम्बन्धित थी अर्थात्‌ सूर्यवंशीध्रुवदेवी का विवाह पहले राम गुप्त से तथा बाद में चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य से, जोकि प्रव्राजक जाट थे, सर्वविदित ही है।
एक और घटना, ऐकर ड़ल्ल का विवाह गृहपाल की पुत्री गहपाला से होता है। यहां पर भी निस्संदैह महिला एक भारतीय है तथा उस का पति निर्विवाद रूप से एक विदेशी है। यह घटना कुषाण अभिलेख से है, जिसे पहले उद्धृत किया जा चुका है, यह भी सर्वविदित है कि मध्य एशिया में भी यह गुज्जर तथा जाट चीनी महिलाओं को अपनी पत्नियों के रूप में रखते थे। 1420 ई. पूर्व में भी मिथ्र (आर्य) नाम की एक राज महिला का विवाह मिश्र का राजा थुतमोसिस से हुआ था तथा उस के पुत्र अमेन होतेप (Amenhotep) ने भी ऐसा ही किया था। प्रसिद्ध फरोआ इरवनातोन (Phoroah Irivnaton) ने जगत्‌ प्रसिद्ध सुन्दरी नेफरतीती (जोकि आर्य राजा दशरथ की बहन थी) से विवाह किया था। यह पश्चिम एशिया से उदाहरण है।
इस के बाद हम यह पाते हैं कि ये मध्य एशिया के लोग ईरान के सम्राटों के सासानी शाही परिवार में विवाह कर रहे हैं। कवध, नोशेरवां तथा हार्मिज्द ने कुशानों की बेटियों

67. Artibus Asiae, 1928-29, Vol. I, p. 37.
68. SIH&C, p. 284.

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के साथ विवाह किये तथा तथाकथित श्वेत हूणों ने सम्राट् फिरोज की बहन से विवाह किया था।
इस के भी बाद यही कुछ भारत में भी हुआ और हम देखते हैं कि अकबर, जहांगीर, शाहजहां सबने राजपूत राजकुमारियों से विवाह किये तथा कम से कम तीन महान्‌ मुग़ल सम्राट् राजपूत महिलाओं के गर्भ से उत्पन्न हुये थे।
तीसरी तथा अन्तिम आपत्ति उपेन्द्र ठाकूर (The Huns in India), इस बात को ले कर करते हैं कि गुज्जरों एवं अन्य कबीलों जिन से बाद में चल कर राजपूत विकसित हुये, बाहर से आने के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। यह बात ठाकूर एक कमजोर आधार पर खड़े हो कर कह रहे हैं। गुज्जर शब्द प्रथम बार 585 ई. में सुना गया जब हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन के बारे में यह कहा जाता है कि उस ने गुज्जरों को पराजित किया था। यहां तक कि उस प्रदेश का नाम दसवीं शताब्दी के बाद गुजरात के रूप में मिलता है। पहले वह गुजरात न हो कर लाट था। अभिलेखों पर आधारित यह प्रमाण भी मिले हैं जिन के अनुसार विदेशी नाम के एक ऐसे व्यक्ति का पता चलता है जो स्वंय को गुसुर कबीले का वंशज मानता है। यह भी बताया जा चुका है कि चीनी शब्द वुसुन (Wusun) गुसुर के रूप में उच्चरित होता है और ऐसा लगता है कि गुसुर से गुज्जर शब्द आया। बाद में इसे संस्कृत रूप दे कर गुर्जर बना दिया गया। हम कुशान काल से सम्बन्धित ऐसे अभिलेखों का उल्लेख कर चूके हैं जिन के अनुसार व्यक्तियों के नाम तो विदेशी हैं किन्तु उन के कबीलों के नाम भारतीय हैं।68a इन अभिलेखों में अंकित गुसुर जाटों के गुस्सर/गुस्सल वंश के ही लगते हैं किन्तु महान्‌ राज्य की प्राप्ति के बाद उन्हें एक अलग जाति के रूप में दिखाने का प्रयास किया गया। फिर गुरज/गुर्ज भी एक जाट वंश है और इससे र प्रत्यय लगाने से गुर्जर बनता है।
तदान्तर काल के राजपूतों का सूर्य एवं चन्द्रवंश अर्थात्‌ रामकृष्ण कुलों से सम्बन्ध ब्राह्मणों द्वारा अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये स्थापित किया गया। औपचारिक धर्म परिवर्तन के बाद राजपूत ब्राह्मणों को मुक्तहस्त से दान दक्षिणा देने लगे वे और बदले में ये ब्राह्मण उन के सम्बन्ध उच्च एवं गौरवशाली वंशावलियो के साथ स्थापित कर रहे थे और अपने संरक्षकों के सम्मान में प्रशस्तियां लिख रहे थे। छत्रपति शिवा जी महाराज के साथ भी इस तरह की घटना हुई बताई जाती है जब उन का राज्य अभिषेक होने वाला था तो ब्राह्मणों ने आपत्ति की कि शिवा जी पूर्ण क्षत्रिय नहीं हैं अतः उन्हें राजा नहीं बनाया जा सकता। बाद में जब उन्हें अच्छी खासी दान दक्षिणा प्राप्त हो गई तो शिवा जी के कुल को उदय पुर के सूर्यवंशी कुल के साथ सम्बन्धित कर दिया

68a. Compare Gusura Simhabala of Indian inscriptions and Gusura Viharavala of Central Asia. (T. Burrow, "A Translation of the Kharosthi Documents from Chinese Turkestan", London, 1940, p. 35, s. no. 187).

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गया। बहुत से राजपूत कबीले अभी भी मध्य एशिया मे पाये जाते हैं। चालुक्य अर्थात्‌ चुलिक कबीले के अनेक लोग अब भी सोवियत मध्य एशिया में पाये जाते हैं और उन्हें अब भी चुल्लिक69 कहा जाता है।
संयोगवंश व्रात्य शब्द के वेदों और "ब्राह्मणों" में भिन्न-भिन्न अर्थ मिलते हैं। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्मा ही व्रात्य है क्योंकि व्रात्य की तरह ब्रह्मा पवित्रीकरण के सभी आयोजनों से मुक्‍त है।70 इस सम्बन्ध में अथर्ववेद कहता है - "व्रात्य का अर्थ है उदात्त, देवताओं को अति प्रिय ब्राह्मणों व क्षत्रियों के लिये समान रूप में ऊर्जा का स्रोत। इस के अतिरिक्त व्रात्य एक श्रेष्ठ देव हैं, जहां भी वे जाते हैं सभी देवता एवं समस्त जगत्‌ उन का अनुसरण करता है। ....... वह एक राजा की भान्ति चलते थे।" प्रश्न उपनिषद के अनुसार व्रात्य सर्वोच परमेश्वर है जो ब्रह्मा के सभी गुणों से सम्पन्न है।
एस.पी. चक्रवर्ती जिन के लेख से हम ने उपरोक्‍त उदाहरण लिये हैं, के अनुसार, "उत्तरी लोगों के विशाल समूह भारत आये और जब उन्होंने आर्यवर्त के विभिन्न भागों को अपने आधिपत्य में ले लिया और राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर ली तो उन्हें मलेच्छों अथवा अपवित्र लोगों के रूप में देखना सम्भव नहीं था......... इसलिये उन का भारतीयकरण कर दिया गया और उन्हें क्षत्रिय बना दिया गया। व्रात्य शब्द सम्भवतः उन शासन कर रही जातियों के लिये प्रयुक्त होने लगा, जिन्हें किसी वैदिक अनुष्ठान के बल पर क्षत्रिय कहा जाने लगा था। यह भी हो सकता है कि समय के प्रवाह में उन्हें अपना मूल स्थान वास्तव में ही भूल गया हो। लिछवी भी क्षत्रिय इसी अर्थ में ही थे।71
अतः व्रात्य जो देवताओं की भूमि से आये, उन्हें किसी भी तरह के पवित्रीकरण के आयौजनों की आवश्यकता नहीं थी किन्तु ऐसा लगता है कि बाद में इस स्थिति में एक महत परिवर्तन आया और इन लोगों (व्रात्यों) के लिये चार तरह के व्रात्य स्तोम निर्धारित कर दिये गये।72 यह शुद्धिकरण प्रक्रिया थी।
और अन्त में हम उपेन्द्र ठाकुर का ही एक उदाहरण दे रहे हैं जिसे उपेन्द्र ठाकुर अपनी कृति "The Huns in India" में बड़े ही अनमने ढंग से नकारने का भी प्रयास करते हैं और देखिये यह उद्धरण अपने आप में कितना सुस्पष्ट एवं सुव्याख्यित है73 :-
"उस काल के शिलालेखीय इतिहास में उन की सामरिक गतिविधियों का इतिहास भी पूर्ण रूप से दर्ज है और इस के साथ ही ये शिलालेखीय प्रमाण हमें इन लोगों के रूढ़िवादी हिन्दू समाज में, लड़ाइयों एवं तदोपरान्त वैवाहिक सम्बन्धों के

69. For other clans, see the chart given in the Appendices.
70. IHQ, Vol. IX, pp. 444-45.
71. ibid., p. 446.
72. See also A.C. Banerjee, Studies in the Brahmanas, chapter V.
73. Chapter VII, p. 204.

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जरिये क्रमिक विलय और आत्मसात का पता भी देते हैं। हूणों के बिखरे हुये दलों ने अभी तक अपना युद्ध स्वभाव एवं असभ्य चरित्र नहीं छोड़ा था और वह अपने समय की सब बड़ी-बड़ी शक्तियों के साथ एक के बाद एक किसी-न-किसी बहाने जूझले रहे। किन्तु इन रक्तिम भिड़ंतों का एक सुखद पहलू भी था और वह यह कि भारतीय पटल पर दो पूर्ण रूप से पृथक्‌-पृथक्‌ संस्कृतीयों (मंगोल एवं भारतीय) के संयोग से एक नई राजनीतिक जाति का उभरना। इस नई जाति (भारतीय हूणों) ने एक ओर तो अपने पूर्वजों से युद्ध कला की प्रतिभा एवं दबंग चरित्र को विरासत के रूप में पाया और दूसरी ओर ये लोग धीरे-धीरे भारतीय परिवारों एवं यहां के अभिजात वर्ग के संसर्ग से आ कर उन की उत्कृष्ट संस्कृती के गुणों को आत्मसात करते रहे। और फिर थोड़े ही समय में सम्पूर्ण देश में ये लोग योद्धा राजपूतों के अनेक कबीलों में से एक माने जाने लगे।"74
और सर इब्बटसन के शब्दो में, "ऐसा हो सकता है कि मूल राजपूत और मूल जाट अपने इतिहास के विभिन्न चरणों में भारत में प्रविष्ट हुये हों। यद्यपि मेरे विचार में राजपूत शब्द एक जातीय परिभाषा न हो कर व्यवसाय का परिचायक शब्द है। किन्तु यदि ये दोनों पृथक्‌ पृथक्‌ दो प्रव्रजक लहरों के परिणाम हों, तब भी अत्यधिक संभावना यह ही है कि अपनी शारीरिक संरचना आकृति गत विशेषताओं में अद्भूत समानता एवं चिरकालीन घनिष्ट सम्बन्धों के कारण ये लोग एक ही जातीय वर्ग से सम्बन्धित रहे होंगे। यदि ऐसा न भी हो तो भी यह पूर्ण रूप से निश्चित है कि वे कई शताब्दियों से और अब भी एक दूसरे के साथ इतने घुले-मिले और जुड़े हुये हैं कि व्यावहारिक रूप में उन्हें एक समूचे रूप में एक दूसरे से पृथक्‌ करके देखना लगभग असम्भव है.......। मेरे विचारानुसार अब ये दोनों एक जाति वर्ग के बन चुके हैं। जाटों और राजपूतों में कोई भेद एवं भिन्नता है तो केवल सामाजिक स्तर की है न कि जातीयता की।"75
कुछ लोगों का यह विचार भी है कि राजपूतों को प्राचीन काल में राजन्य कहा जाता था किन्तु राजन्य एक कबीले का नाम था तथा "अमर कोष" के अनुसार "राजन्यकम्‌" का अर्थ है योद्धाओं का समूह।76 पाणिनी ने पांचवीं शती ई.पू. यही अर्थ जाट शब्द को दिया था।
"मत्स्य पुराण" एक राजकीय व्यक्ति के समस्त धार्मिक अनुष्ठानं के बल पर एक कलष (हिरण्यगर्भ) से पुनर्जन्म का उल्लेख करता है और जिसे बाद में धार्मिक औपचारिकताएं पूरी करने के बाद दान के रूप में ब्राह्मणों को दे दिया जाता था।77
"पराशर स्मृति" के अनुसार उग्र कहे जाने वाले लोग वैश्यों की अम्बष्ट यूबतियों एवं राजकीय पुरुषों के शारीरिक सम्बन्धों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुये

74. ibid.
75. Tribes and Castes, Vol. II, pp. 362, 364.
76. JBORS, 1930, p. 472.
77. D.D. Kosambi, Indica, 1953, p. 203.

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उग्रों को राजपूत कहा जाता था।78 (अय च भाषायाम्‌ राजपूत इति प्रसिद्धः) यह मत भी अन्य मतों की तरह निराधार है। निस्संदेह स्थानीय भारतीय परिवारों के साथ अन्तरजात्तीय विवाह सम्पन्न हुये लेकिन यह मानना कि एक समूची जाति ही इन विवाहों के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आई होगी नितान्त असम्भव है। जबकि दूसरी ओर हमें मध्य एशिया में उईघर (Uighur) अथवा उग्र लोग मिलते है। हम उन की मूल उत्पति का कया कारण देंगे ? अतः कुछ उग्र वंशी भी भारत में आकर राजपूतों में मिले होगे।
हयून-त्सांग (7वीं शताब्दी) राजपूत शब्द का कहीं उलेख नहीं करता। अरब आक्रमणों (8वीं शताब्दी से ले कर 11वीं शताब्दी तक) का उल्लेख करते हुये बुद्ध प्रकाश कहते हैं, "क्षत्रिय शब्द बहुत कम देखने में आया है और राजपूत शब्द तो प्रचलित ही नहीं हुआ था।"79 डाक्टर पी. सरण के अनुसार 10वीं शताब्दी तक राजपूत शब्द का प्रयोग जातिगत रूप में नहीं हुआ।80 मुसलमान इतिहासकारों द्वारा कुछ जगहों पर जिस ठाकुर शब्द का प्रयोग किया गया है, वह एक कबीले का प्रतिनिधि शब्द है, उदाहरण के रूप में वर्तमान ठाकरान जाट, राय, रावत, राणा आदि नाम उपाधियों के नाम हैं, जो कबीलों के नामों में परिवर्तित हो गये राय कबीला (इसी रूप में) बहुत समय पूर्व ईरान में विद्यमान बताया गया है। प्रथम राणा जी (राणापन) उपाधि महमूद बिन कासिम द्वारा एक जाट को प्रदान की गई थी और रावत शब्द रॉथ, रॉत अथवा रौत शब्द से बना है जिस का अर्थ पूर्वी ईरान में राजा है। जब हरिभद्र सूरी एक जैन लेखक (529 ई., या 788-820 ई. एच.जेकोबी के अनुसार) द्वारा ठाकुर शब्द का प्रथम बार प्रयोग किया गया तो इस का अर्थ एक कबीले के रूप में था जो एक अन्य कबीले से शबर (आधुनिक काल के सभ्रवाल) से युद्धरत था। बुद्ध पकाश जिन्होंने ठाकुर शब्द का विस्तृत अध्ययन किया है, इन निष्कर्षों पर पहुंचे हैं।81
1. पहले यह शब्द प्राकृत में प्रयुक्त हुआ और उस के बाद संस्कृत में इस का प्रचलन हुआ।
2. शुरू में यह शब्द एक कबीले के प्रतीक के रूप में लिया जाता था किंतु आगे चल कर यह एक आदरपूर्ण उपाधि बन गया और इसे प्रतिष्ठित लोग अपने नाम के आगे लगाने लगे।
3. यह नाम क्षत्रिय एवं योद्धाओं को दिया गया था किन्तु बाद मे ब्राह्मण भी इस का प्रयोग करने लगे और अन्ततः यह भगवान का पर्याय बन गया।
4. पूर्ववर्ती साहित्य में इस शब्द का प्रचलन नहीं था।

78. Y.P. Sastri, JKI, p. 51.
79. SIH&C, p. 243.
80. Studies in Medieval Indian History, p. 23.
81. ibid.

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5. यह शब्द किसी विदेशी स्रोत से उधार लिया गया है।
हम इन विचारों से पूर्णतयः सहमत हैं और मानते हैं कि अन्य कबीलों की भान्ति जाटों का ठाकरान कबीला भी बाहर से आया। इसलिये यह नाम भी भारतीय नहीं है। बस्तुतः इन कुल नामों का भारतीय भाषा में कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि सारे नाम अभारतीय हैं।
हम पहले ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि सातवीं शताब्दी से पूर्व राजपूत शब्द कहीं भी दिखाई नहीं देता। सम्भवतः इस का सब से पहले उल्लेख हमें जोहल जाट विजेता तोरमान के कुरा अभिलेखों में मिलता है। इन अभिलेखों में उस के पुत्रों व पुत्रियों को "राजपुत्र" कहा गया है। इस का अर्थ यह है कि इस शब्द का प्रयोग इस के प्राकृतिक रूप में अर्थात्‌ राजा का पुत्र के रूप में किया गया। यह शब्द फारसी के शब्द विसपूहर अथवा वसपुहर के अनुरूप है, जिस का अर्थ भी राजा का पुत्र ही है। वास्तव में संस्कृत में विस शब्द का अर्थ भी राजा ही है। अतः भारत में 309 ई. जैसा कि ईरान में भी था या इस से भी पूर्व यह शब्द विसपुत्र होना चाहिये। किन्तु वैदिक काल के बाद शब्द "विस" लुप्त हो गया और सातवीं शताब्दी में इस के स्थान पर राजा शब्द प्रयुक्त होने लगा। तथा जब शंकराचार्य के नेतृत्व में पुरातन पंथी ब्राह्मण वाद को पुनः प्रतिष्ठित किया गया तो यह शब्द राज पुत्र के रूप में प्रयुक्त होने लगा और इस के साथ ही पुरोहितों की सर्वोच्चता स्थापित करने के लिये पुराने चार वर्षों के विभाजन को पुनर्जीवित करने के प्रयास किये गये। हम यह भी कह चुके हैं कि कल्हण ने "राजतरंगिनी" में राजपूतों को विशेष रूप में विदेशी कहते हुये उन्हें उद्धात, वीर एवं निष्ठावान भी कहा है।
इस घटनाक्रम को अच्छी तरह समझने के लिये हमें सातवीं और परवर्ती शतादियों में होने वाले सामाजिक एवं धार्मिक परिवर्तनों का गहन रूप से अध्ययन करना होगा. बौद्ध घर्म जो एक समय सर्वाधिक प्रभावी था को एकाएक निरस्त कर दिया गया और जस का स्थान पुरातन पंथी, कट्टरवादी ब्राह्मणवाद ने ले लिया। यह कैसे घटित हुआ? हम जानते हैं कि मिहिरकुल ने हज़ारों बौद्ध स्तूपों व मंदिरों का ध्वंस किया और वह बौद्धों को कड़ी यातनाएं देता रहा, जब तक कि बौद्ध राजा बालादित्य ने उस की शक्ति को आ ललकारा नहीं। बौद्ध इतिहास के अनुसार मिहिरकुल ने सिंध नदी के तट पर हज़ारों बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया या फिर इन्हें दासों के रूप में बेच दिया। मिहिरकुल ने यह भी आदेश दिये कि समस्त पांच इंडीज (through out the five Indies) अर्थात्‌ भारत के पांचों भागों में बौद्धों के सारे स्तूपों एवं चैत्यों को धाराशाई कर दिया जाये। इस ने उत्पेरक का कार्य किया होगा और शंकराचार्य की प्रचण्ड बेगमयी यात्राओं ने इन चिंगारियों को और भड़काया होगा। ब्राह्मणों द्वारा भारत में अन्तिम सूर्य उपासक बौद्ध सम्राट हर्ष वर्धन की हत्या का भी प्रयास किया गया। सौभाग्य से यह प्रयास विफल रहा और दोषियों को कड़ा दण्ड दिया गया। अन्ततः अहिंसा को एक हिन्दू


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आस्था मान लिया गया और महात्मा बुद्ध को भगवान के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
इतनी व्यापक तैयारियों एवं सावधानियों के साथ लोगों पर और विशेष रूप में शासकीय परिवारों पर पूरा मनोवैज्ञानिक दबाव डाला गया। फिर भी ब्राह्मणों की जाति प्रथा मे कहीं कमी थी। इस में ब्राह्मण तो थे, क्षत्रिय नहीं थे। मध्य एशिया के जाटों एवं गुजरों द्वारा लाये गये लोकतांत्रिक एवं समानता के विचारों के कारण तथा बौद्ध मत के सार्वभौमिक भ्रातृभाव के सिद्धान्त से सारा भारत एक ही जाति बन चुका था। कुछेक अपवादों को छोड़ कर, न तो कोई ब्राह्मण था, न कोई क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र। यह स्थिति महाभारत तथा पुराणों में बार बार विलापते प्रसंगों से पृष्ट होती है जो निश्चित रूप से यह कहते हैं कि समस्त भारत एक ही जाति का था और पहले समय के शूद्र ब्राह्मणों को 'भो' कह कर सम्बोधित करते थे जो एक समानता का सूचक शब्द थे जैसे कि आजकल हिन्दी का शब्द है 'ए' और 'अरे' पंडित
इस प्रक्रिया के अन्तर्गत, जो लोग इच्छुक थे, उन्हें क्षत्रिय एवं पुनः प्रतिष्ठित हिन्दू समाज में उच्च पद प्रस्तावित किये गये। जिन्होंने पुन-उर्दित हो रहे हिन्दू धर्म को स्वीकार कर लिया, उन्हें क्षत्रिय अथवा राजपूत कहा जाने लगा। यह बात भी याद रखने योग्य है कि इन नव धर्म परिवर्तित लोगों (क्षत्रियों) को ब्रह्म क्षात्र अथवा खुल कर केवल ब्राह्मण भी कहा जाता है। उदयपुर राणाओं के गुहिल परिवार के साथ बिल्कुल ऐसे ही हुआ। विदेशियों को हिन्दूमत से लाने के लिये व्रात्य स्तोमों का रूप से प्रयोग किया गया। माउंट आबू अभि अग्नि यज्ञ इस उद्देश्य के लिये निर्धारित चार यज्ञों में से पहला यज्ञ था। इस तरह क्षत्रियों का एक नया वर्ग अस्तित्व में लाया गया जो अपने पद तथा शक्ति के लिये अपने धार्मिक गुरूओं पर बुरी तरह तिस्सहाय रूप से आश्रित थे। एक बार धर्म परिवर्तित हो जाने के बाद वे अपने मूल भाइयों जाटों तथा गुज्जरों के समीप नहीं जा सकते थे। इस प्रकार परस्पर वैमनस्य की प्रक्रिया शुरू हुई जिस में जाट तथा गुज्जर अपना धर्म परिवर्तन करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगे और बदले में राजपूतों व ब्राह्मणों ने शेष सभी को शूद्रों के रूप में घोषित कर दिया।
और जब दृष्य-पटल पर इस्लाम आया तब भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई। अनेक राजपूत और ब्राह्मण मुसलमान बना दिये गये और जब वे एक बार मुसलमान बन गये तो उन्होनें अपने पूर्व भाई बहिनों को घृणा की दृष्टि से देखना शुरू कर दिया और स्वयं को वे उन से श्रेष्ठ मानने लगे।
अतः हमें ब्रह्म क्षत्रिय शब्द का महत्व आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहिये। यह वर्ग केवल उन शासकीय परिवारों, उन के सम्बन्धियों और उन के उत्तराधिकारियों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्होंने ब्राह्मणों को अपने धर्म गुरु के रूप में स्वीकार किया


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था। किन्तु इतना होने से वे ब्राह्मण तो नहीं बन सकते थे और न ही वह बने। वे तो केवल ब्राह्मण धर्म में ही दीक्षित हुये थे।
जाटों, गुज्जरों, ब्राह्मणों व कई अन्य पुरोहितों ने यह आवश्यक नहीं समझा कि कुछ परिवर्तन किया जाये। उन्हें सामाजिक व्यवस्था में उच्च एवं निम्न वर्ग का विभाजन स्वीकार नहीं था और वे विधवा विवाह पर लगे प्रतिबंध जैसी बुराइयों का खुला विरोध करते थे। वे भली-भान्ति जानते थे कि ये विचार विभाजक एवं विषटनकारी प्रकृति के हैं। उन की ये आशंकाएं उस समय सत्य सिद्ध हुईं जब नवोदित महान शक्ति अरबी इस्लाम ने उन्हें अपनी तलवारों की धार दिखाई। यह विभाजक प्रथा ही भारत के पतन का कारण सिद्ध हुई।82
ये निष्कर्ष कोई काल्पनिक नहीं है अपितु ये तो ठोस तथ्य है। किसी भी मुसलमान इतिहासकार ने पंजाब, सिंध, ब्लोचिस्तान, मकरान, कैकन, अफगानिस्तान, गजनी तथा कश्मीर के युद्धों का वर्णन करते हुये कहीं भी राजपूतों का उलेख नहीं किया। History of India as told by its own Historians में राजपूत शब्द कहीं मिलता ही नहीं है।83 इन सुविज्ञ लेखकों को यह बात सचमुच ही बडी असमंजस पूर्ण लगी होगी। निरन्तर किसी ऐसे शब्द की तलाश में जिस से इस शब्द (राजपूत) का आभास मिले, उन्हें केवल एक शब्द तक्कर मिला जो एक जाट कबीले का नाम है और अपने संदेह और संकोच के साथ उन्होंने कहा कि यह शब्द ठाकुर हो सकता है जो कि परवर्ती काल में राजपूतों के लिये प्रयुक्त होने लगा था। किन्तु इलियट (Elliot) तथा डासन (Dawsоп) ने न्यायोचित रूप में इस धारणा के प्रति प्रश्न चिन्ह लगाया है।84
इस प्रकार विदेशी आक्रमणकारियों के भारी संख्या में आगमन के कारण सामाजिक स्तर पर भारी उथल पुथल हुई। निस्संदेह इन विदेशियों को भारतीय समाज में आत्मसात कर लिया गया। लेकिन इस के साथ ही रूढ़िवादी शक्तियों का भी पुर्नोदय हुआ और समाज को चार वर्णों के आधार पर चलाने के ज़ोरदार प्रयास भी हुये।85 यहां तक कि रूढ़िवादियों द्वारा ब्राह्मणों में भी एक निम्न वर्ग बना दिया गया। यह स्पष्ट नहीं है कि यह निम्न पद उन्हें उन के विदेशी होने के कारण दिया गया था कि उन के द्वारा विशेष धार्मिक व सामाजिक विचारों के प्रचारित करने के कारण। मंदिर एवं मूर्ति पूजा व ज्योतिष जादू आदि के विकास में उन का योगदान उल्लेखनीय लगता है।86 इस प्रकरण के अन्त में इस विषय पर दी गई विशेष टिप्पणियां भी देखें।
कुछ अंग्रेज़ लेखकों ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि जाट राजपूतों की

82. Majumdar & Pusalkar, The Classical Age, 1962, p. IX.
83. Elliot and Dawson, Vol. I.
84. ibid., p. 164, note 2, and p. 458. See also chapter on Sind.
85. Article by G.R. Sharma in Central Asia, ed. Amalendu Guha, p. 117.
86. ibid., pp. 116-117.

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शाखा थे। इस सिद्धान्त को पूर्ण रूप से खण्डित करते हुये पहले ही बहुत सामग्री प्रस्तुत कर चुके हैं। यह एक दम उलट बात है, जैसे इक्का आगे और घोड़ा पीछे लगा हों। यदि इस से पूर्व समय में नहीं तो अष्टाध्यायी के समय में तो स्पष्ट उल्लेख मिलता है 'जट झट संघाते' भारत में जाटों के राज्य संघ के अस्तित्व की प्रमाणिकता सिद्ध हो चुकी है। शिबी, दहिया, मोर (मौर्य) वरिक, टांक, मान, कंग, लोहान, राठी आदि कबीलों के बारे में प्रमाणित किया जा चुका है कि वह ईस्वी सन से पूर्व भी विद्यमान थे। ये योद्धा कबीले 10वीं और 11वीं शताब्दी के राजपूतों की शाखा कैसे हो सकते हैं ? राजपूत तो स्वयं धर्म परिवर्तित जाट और गुज्जर थे। इस सिद्धान्त की निरर्थकता इन लोगों के मूल के विषय में अध्ययन करने वाले हर शोध कर्ता को महसूस हो सकती है। दहियों के बारे में यह कह दिया गया कि उन की उत्पति दही मथ जाने से हुई। मोरों के बारे में यह मान लिया गया गया कि वे मोर पालक थे। चुलिकों (सोलंकियों) को ले कर यह कहा गया कि वे चुलु अंजलि से पैदा हुये थे गिलों का नाम गिल इस लिये रखा गया क्योंकि वह गीली ज़मीन पर रहते थे। राठौरों के बारे में यह अनुमान लगा लिया गया कि वे इन्द्र के रथ के पहिये से उत्पन्न हुये थे। कछवाहों के सम्बन्ध में यह कहा गया कि वे कछवे से उत्पन्न हुये। ये सब कपोल कल्पित कहानियां हैं जो इन कहानियों के आविष्कार कर्ताओं के मानसिक दिवालियापन एवं बौद्धिक बेइमानी की परिचायक है।
इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिये कि मान, ढिल्लों, विर्क, कंग, हेर, मोर, जौहल, पुनिया आदि कबीलों के नाम राजपूतों में नहीं पाये जाते। इस का कारण भी बड़ा सहज है क्योंकि इन में से कोई भी औपचारिक एवं विधिवत्‌ रूप में रढ़िग्रस्त ब्राह्मण वाद में धर्म परिवर्तित नहीं हुआ। अतः हमे जाटों को राजपूतों के उत्तराधिकारी होने जैसी सभी ऐसी बाल-कथाओं जैसी धारणाएं त्यक्त कर देनी चाहिये। क्योंकि भारतीय विद्वान मध्य एशिया के इन कबीलों के नामों का अर्थ नहीं जानते थे अतः उन्होंने इन विभिन्न कबीलों को पक्षियों, पशुँ आदि के नाम से जोड़ दिया। इसलिये भी कि भारत में प्राकृत भाषा में उन कबीलों के कुछ नाम इन पशु-पक्षियों के साथ तनिक मिलते जुलते थे।
राजपूतों को ये नाम दिये गये तो वे केवल विदेशी ही नहीं थे बल्कि वे तब नये नये ही आये थे। इसलिये आर.सी. दत्त History of Civilisation in Ancient India में लिखते हैं, "इस में तनिक भी संदेह नहीं है कि राजपूत हिन्दू धर्म और संस्कृति में आ मिलने वाले नये लोग थे। नये धर्म में परिवर्तित लोगों की तरह इन लोगों में भी उस धर्म को पुनर्जीवित करने के प्रति विशेष उत्साह था, जो उन्होंने स्वीकार कर लिया था। ब्राह्मणों ने क्षत्रियों की इस नई जाति के इस विशेष उत्साह को और भी बल प्रदान किया। चौहानोंराठौरों ने स्वयं को क्षत्रिय मान लिये जाने के प्रतिदान स्वरूप ब्राह्मणों


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की वर्चस्वता को स्थापित किया।"87

टिप्पणी-I

मेधा तिथि जो मनु के एक महान्‌ भाष्यकार के रूप में विख्यात हैं, ने आदेश दिये "एक राजा जो श्रेष्ठ आचरण रखता है, वह मलेच्छों के देश भी जीत सकता है, वह वहां चतुर वर्णों पर आधारित व्यवस्था लागू कर सकता है, जो स्तर चाण्डलों को प्राप्त है, वह मलेच्छों को प्रदान कर सकता है और वह उन की भूमि को आर्यवर्त की तरह ही यज्ञों के योग्य बना सकता है।"88 यह टिप्पणी इस बात का स्पष्ट संकेत देती है कि रूढिवादी पुरोहितों की अपने प्रभावहीन राजाओं से क्या अपेक्षाएं थीं। इन राजाओं को केवल चतुर वर्ण प्रणाली ही लागू करने के आदेश नहीं दिये गये अपितु उन्हें अपने ही नागरिकों को अपमानित करने के लिये भी कहा गया। ये आदेश केवल अमानवीय एवं समाज विरोधी ही नहीं थे, अपितु एक राजा के कर्तव्यों के भी विरूद्ध हैं, जिसे अपनी सारी प्रजा के लिये पिता समान होना चाहिये। यह भी उल्लेखनीय है कि यह आदेश न केवल मौर्यों द्वारा अस्वीकार किये गये बल्कि कुशानों ने भी इन्हें मानने से इन्कार कर दिया। गुप्त राजाओं और यहां तक हर्षवर्धन ने भी इन्हें नहीं माना। हम भली भान्ति जानते हैं कि ये सभी राजा धार्मिक संकीर्णता से कहीं ऊपर और बहुत दूर खडे थे। वह अपनी प्रजा के साथ विशुद्ध रूप में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत के आधार पर व्यवहार करते थे। यद्यपि चन्द्रगुप्त मौर्य व सम्मति जैनवाद के अनुयायी थे। अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और कई गुप्त राजा बौद्ध धर्म में विश्वास रखते थे। कई भागवत धर्म को मानने वाले थे। व्यक्तिगत जीवन में हर्ष बौद्ध धर्म को प्राथमिकता देता था और जिस के कारण ब्राह्मणों द्वारा उस की हत्या का प्रयास भी किया गया था।89

टिप्पणी-II

मध्य एशियाई लोगों के वर्ण विहीन समाज होने का संकेत इस तथ्य से भी प्राप्त होता है कि ये लोग सूर्य उपासक होने के अतिरिक्‍त बुद्ध एवं शिव के भी अनुयायी है। ये दोनों ही मानवीय समानता के प्रतिपादक माने जाते हैं। आज भी पंजाब से लेकर मथुरा और यहां तक कि राजस्थान, मालवा, गुजरात आदि के विशाल क्षेत्रों में किसी अन्य देवता की अपेक्षा शिव के अनुयायी अधिक मिलेंगे। यह जानना भी रुचिकर होगा कि दिल्ली के आसपास और विशेषतः हरियाणा के लगभग हर गांव में शिव को समर्पित एक मंदिर अवश्य है और किसी अन्य हिन्दू देवता का कोई मंदिर नहीं है। इस-संदर्भ में हमें महादेव शिव के बारे में दक्ष के मत की ओर ध्यान देना चाहिये। दक्ष ने प्रस्तावित

87. p. 165.
88. Quoted in The Classical Age, p. IX.
89. Majumdar, Ancient India, p. 237; and D. Devahuti, Harsha: A Political Study, 1970, p. 154.

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बलि यज्ञ में शिव के भाग लेने के विरोध में चार आपत्तियां व्यक्त की थीं। ये आपत्तियां थीं, (1) शिव को वर्ण आश्रम धर्म स्वीकार नहीं। (2) उनके कुल, गोत्र एवं देश का पता नहीं। (3) वह वेदों के ज्ञाता नहीं हैं अतः वह ब्राह्मण नहीं हैं। (4) न तो वह क्षत्रिय हैं न ही वैश्य और ना ही वह शूद्र हैं।90
अतः हम देखते हैं कि शिव पूर्ण रूप से मध्य एशिया के जाटों की धारणा के अनुकूल देवता थे और जाति प्रथा के प्रति शिव के भी विचार वही थे जो इन जाटों के थे।

टिप्पणी-III

यह भी सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि जिन नामों के अन्त में दाम अथवा दामन आता है वह शक मूल के नाम हैं। सभी विशेषज्ञों के अनुसार के अनुसार ये नाम बाहर से आए। पश्चिमी प्रदेशों के क्षत्रपों, जिन्होंने सिंध, गुजरात, मालवा आदि पर अपनी राजधानी उज्जैन रखते हुए लगभग 400 वर्षों तक शासन किया था, के ऐसे नाम हैं, जिन के अन्त में दाम आता है। कछवाहा राजपूतों की शाखा में हम एक ऐसे शासक को पते हैं जिस का नाम वज्र दामन था, उस का शासन काल 975-95 ई. रहा। गुजरात के चौहान राजपूतों की शाखा के शासकों के नाम माहेश्वर दाम, भीम दाम, हर दाम आदि थे। क्या ये इस बात के संकेत नहीं हैं कि परवर्ती लोग जिन्हें राजपूत कहा गया, वे विदेशी ही थे?
"भविष्य पुराण" में तो यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि माऊंट आबू में धर्म परिवर्तन बौद्ध धर्म विरोधी था। योद्धाओं की एक नई जाति का निर्माण बौद्ध धर्म के विरूद्ध अभियान छोड़ने के उद्देश्य से किया गया। (जित्वा बौद्धान्‌) इस पुराण के सोलंकी (शुक्ल) वंश से सम्बन्धित अध्याय में उदाहरण के रूप में स्पष्टतः कहा गया है कि प्रथम सोलंकी (चालुक्य) आबू में अग्नि द्वार से धर्म परिवर्तन हो कर आया (अग्नि द्वारेण प्रयसौ स शुक्लऽ र्बुदपर्वते)। इसी पुराण में एक अन्य स्थल पर कहा गया कि मलेच्छ मेहना (राजस्थान के मीना) मेहना मलेच्छ जातीता और आर्य जाट (जट्टा आर्यमयः स्मृतः) दिल्ली के चौहान योद्धाओं के अवशेष हैं। (वे शषाः त्रियाश्चापहानिजाः)90a

जाट राजपूत सम्बन्ध

हम इतना देख चुके हैं कि तीन तरह के लोग भारत में आक्रमणकारियों अथवा अप्रवासियों के रूप में आए थे, वे थे जाट, गुज्जर तथा अहीर (संस्कृत में अभीर) और यही लोग मध्य एशिया के जेत (Getae), गुसुर/वुसुन और अबर/अवर लोग थे। ये प्रमुख रूप से सूर्य उपासक थे, किन्तु साथ ही ये लोग बौद्ध धर्म, पारसी धर्म मित्रमत व अन्य

90. Vayu Purana, quoted in IHQ, 1952, Vol. XXVIII, p. 261-262.
90a. Bhavishya Purana, by S.R. Sharma (1970, Barreily), pp. 171, 174-175.

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धर्मों से भी प्रभावित थे। इन लोगों के अपने पुरोहित थे, जिन्हें मागी अथवा शमन कहा जाता था। भारतीय जाति प्रथा की तरह इन लोगों का समाज एक विभक्त समाज नहीं था। इन लोगों के केवल दो वर्ग ही थे, शासक और शासित और आर्य व दास। शनैः शनैः इन लोगों का व्यावहारिक दृष्टि से पूरी तरह भारतीयकरण हो गया। इन लोगों ने भारतीय नाम व धार्मिक प्रथाएं भी अपना लीं। इन से जो लोग व्यावहारिक रूप में हिन्दू तो बन गये लेकिन जो रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद के कठोर चंगुल में नहीं फंसे उन्हें जाट गुज्जर और अहीर ही कहा जाता रहा। यद्यपि इन नामों को संस्कृत रूप देने का प्रयास किया गया जैसे जर्ताः गुर्जर, अभीर। इन में से जिन लोगों को विधिवत रूप में हिन्दू वाद में धर्म परिवर्तित किया गया और जिन्होंने पूर्ण रूप से ब्राह्मण कर्मकांड व इन की अन्य ओपचारिकताओं को ग्रहण किया उन्हें राजपूत कहा गया। इस विभाजन के कारण धार्मिक न होकर सामाजिक अधिक थे। इस के सम्बन्ध में हम पहले ही लिख चुके हैं, इस अध्याय में आगे चल कर भी इस पर कुछ प्रकाश डालेंगे। यहां पर तो हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि जाटों और राजपूतों के पूर्वज एक ही थे। राजपूत और जाट वंश एक ही पूर्व पुरुष, एक ही पुरखे की संतति हैं।
हम यह भी देख चुके हैं कि कुश्वान, जोहल, लाली और शाही कबीले ईस्वी शताब्दी के आरम्भ में और कम-से-कम 870 ई. तक अफगानिस्तान पर शासन करते रहे और इस के बाद की शताब्दियों में उन का शासन पंजाबकश्मीर पर भी रहा। भट्टी एक जाट कबीला है और राजपूत कबीला भी और इसे इतिहास का सौभाग्य समझा जाना चाहिये कि इन्होंने अपनी ऐतिहासिक गाधाएं जैसलमेर (राजस्थान) में सुरक्षित छोड़ रखी हैं, जहां सदियों तक उन का शासन रहा। इन से सम्बन्धित इन की ऐतिहासिक सामग्री को कर्नल जैम्स टाड ने अपनी कृति Annal & Antiquities के तीन खण्डों में संगृहीत किया हुआ है। हम कुछ उदाहरण इस कृति से दे रहे हैं।91
जैसलमेर के भट्टी अपना मूल स्थान अफगानिस्तान के जुबलिस्तान अथवा गज़नी से मानते हैं, जहां जाट कबीलों का शासन था। इन के ऐतिहासिक वृतान्त मथुरा के एक ब्राह्मण सुख धर्म द्वारा लिखे गये जो द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के यदुवंश की वंशावली, राजा नब तक स्थापित करता है। इस के बाद यह ब्राह्मण लेखक लिखता है, "अतः मैं भागवत से आगे बढ़ता हुआ भट्टियों का इतिहास आरम्भ कर रहा हूं...... ।" यहां यह स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि भागवत पुराण से यदुओं की वंशावली ली गई है और भट्टी जो अपना सम्बन्ध यदुओं के साथ स्थापित कराना चाहते थे, उन्हें नब के आगे जोड़ दिया गया। यह भी बिल्कुल उसी तरह किया गया है जैसे विष्णु पुराण में92 जहां सुजात तक यदु वंशावली को देते हुए जाटों को सुजात से सम्बन्धित कर दिया गया, क्योंकि दोनों

91. Vol. II, p. 242.
92. Translated by H.H. Wilson.

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नामों में समानता पाई गई। भट्टी प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए गज़नी के संस्थापक राजा गज का उल्लेख होता है, उस के बाद उस के पुत्र सल्वाहन का जिस ने गज़नी हाथ से खो जाने के बाद पंजाब में आ कर सलबाहन पुर (सालपुर) नगर बसाया (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी को देखिये) सल्वाहन के पन्द्रह पुत्र थे, बलन्द रसालू, नैमा, लेख, नीपक, सुन्दर बच, रूप। सल्वाहन के बाद बलन्द ने सिंहासन संभाला। उस के सात बेटे थे भट्टी, भूपति, कल्लार, जिंज, सरमौर, मंगरू आदि। कल्लार के आठ पुत्र थे जिन के उत्तराधिकारी कल्लार कहलाए ; इनमें सब मुसलमान हो गए। जिज॑ के सात पुत्र के वंशधरों ने अपने साथ जिजं जोडे रखा। (जिजं आज का जन्जुआ कबीला ही है) भट्टी अपने पिता का उत्तराधिकारी बना। उसके दो पुत्र हुए, "भट्टी के सत्तारूढ़ होते ही उस ने कुल गोत्र बदल लिया और अब उस का कुल उस के नाम से जाना जाने लगा।"93 यहां यह भी स्पष्ट दिखाई देता है कि बलन्द के समय तक कबीले का नाम दूसरा था और बलन्द के तीन पुत्रों अर्थात्‌ भट्टी, जिजं और कल्लार ने अपने नामों पर अपने कबीले चलाये। इस कबीले का मूल नाम लल्ली था या फिर जोहल और यह जुबलिस्तान के शासकों का कबीला था। अब भट्टी और काल्लेर अथवा कल्लेर जाट कबीलों के नाम भी हैं और संयोगवश श्री के.एस.जुंजुआ आयुक्‍त जालन्धर मण्डल राजपूत जंजुआ है। शासकीय परिवारों की हर पीढ़ी में नये वंशों का प्रारम्भ हुआ और कल्हण इसी तथ्य के आधार पर लिखता है कि आज भी साही पदवी विदेशों में रह रहे क्षत्रियों को अपनी आभा से मुंडित करती है, जो अपना मूल सम्बन्ध इस राजकीय परिवार से स्थापित करते हैं।94 'साही वंश्यः राजपुत्र'95 का अर्थ है काबुल गांधार के साही कुल के राजपूत। इस से भी यह पुष्ट प्रमाण मिलता है कि इन जोहललल्ली कबीलों के जाट राजाओं को बाद में चल कर राजपूत कहा जाने लगा और यह समय 12वीं शताब्दी का रहा होगा जोकि कल्हण का काल भी था यह प्रक्रिया (राजपूत कहलाने की) तब तक शुरू हो चुकी होगी। भट्टी के दो पुत्र थे, मसूर रावमंगल रावमसूर राव के दो पुत्र हुए अभय राव और सारण रावअभय राव के पुत्र अमोरिया कहलाए। सारण अपने भाई के साथ लड़ झगड़ कर अलग हो गया। उस के वंशज कृषक हो गये और वह सारण जट्टों के रूप में सुविख्यात हैं।96 भट्टी के दूसरे बेटे मंगल राव के छह पुत्र थे। मंगलराव अपने राज्य से भाग निकला। जाते समय वह अपने बच्चों को एक साहुकार के पास छोड़ गया। इन सब के विवाह जट्ट परिवारों में हुए और कल्लोरिया, मुंड, सियोरान जाट कबीलों के नाम मंगलराव के तीन बेटों के नाम पर चले (इन तीनों जाट कबीलों के नाम क्रमशः इस तरह हैं— कल्लार, मण्ड और सियोराण।)

93. ibid., p. 243.
94. RAJAT, VIII, 323.
95. ibid., VII, 144, 178.
96. op. cit., p. 250.

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