Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter XI

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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एकादश अध्याय: जाट गोत्रों का संक्षिप्त वर्णन

पीछे तृतीय अध्याय से नवम अध्याय तक अनेक जाट गोत्रों का उल्लेख कर दिया गया है। उनके अतिरिक्त जितने जाट गोत्रों की प्राप्ति हुई है उनका संक्षिप्त वर्णन इस एकादश अध्याय में किया जाता है।

उत्पल-उप्पल, कादयान, शिवराण-श्योराण

(i) उत्पल-उप्पल

इस उत्पल जाट राजवंश का महाराजा अवन्तिवर्मन कश्मीर नरेश सम्वत् 912 (855 ई०) में सम्पूर्ण डोगरा प्रदेश पर शासन करता था। उसके पश्चात् इसके पुत्र राजा शंकरवर्मन शासक हुए, जिसके पास एक लाख घुड़सवार, 9 लाख पैदल सैनिक और 300 हाथियों की सेना थी। इसने विक्रमी संवत् 959 (902 ई०) तक अनेक विजययात्राओं में मन्दिरों को भी लूटा। इसके पुत्र राजा पार्थ के शासनकाल में अकाल के कारण मरने वालों की लाशों से जेहलम नदी का जल देर तक श्रीनगर को दुर्गन्धित किए रहा था। इस राजा पार्थ ने प्रजा से साधारण ऊंचे दर पर सम्पूर्ण अनाज मोल लेकर सैंकड़ों गुने ऊंचे दर से बेचा। उसने बड़ी प्रसन्नतायुक्त उत्सुकता से अपने महलों के पास दम तोड़ते अपनी प्रजा को देखा। वि० सम्वत् 994 (937 ई०) में इसके पुत्र उन्मत्तवन्ति ने तो क्रूरताओं की एक ऐसी सीमा स्थिर की जिसे अभी तक कोई न लांघ सका। इन अत्याचारों व क्रूरता के कारण इस राजवंश का अन्त हो गया।

जाटों और खत्रियों में इस वंश की समान रूप से संख्या है। वीर योद्धा हरीसिंह नलवा इसी वंश के महापुरुष थे (इसकी जीवनी देखो, पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह प्रकरण)।

उत्पल जाटों ने बीकानेर के पास बड़ी खाटू के समीप पिलाना गांव बसाया। उस गांव के बाद अन्य स्थानों पर बसने वाले उन जाटों ने अपना परिचय पिलानिया नाम से देना आरम्भ कर दिया।

इस वंश का बांहपुर बहुत ऊंचा घराना है, जो कुचेसर भरतपुर के वैवाहिक सम्बन्धों से जातीय जगत् में विशेष प्रसिद्ध हुआ। यहां के राजा कर्णसिंह ने वैधानिक रीति से ऊंचा गांव इस्टेट की स्थापना की। वहां पर कुं० सुरेन्द्रपालसिंह जी (बहनोई महाराजा भरतपुर) ने एक नया किला और दर्शनीय राजमहल बनवाया। उप्पल-उत्पल जाटों की सिक्खों में बहुसंख्या है।


(ii) कादयान-कदियान-कादू

मेजर ए० एच० बिंगले ने अपनी पुस्तक हैण्डबुक ऑफ जाट्स, गूजर्स, अहीर्स के पृष्ठ 28 पर लिखा है कि कादियान, चौहान राजपूत कादी की सन्तान हैं। खण्डन - राजपूत संघ तो ईस्वी सातवीं शताब्दी में बना, जबकि कादियान आर्य क्षत्रिय जाटों का बलोचिस्तान में शासन तीसरी शताब्दी ई० पू० था। साफ है कि इनकी उत्पत्ति तो इससे बहुत पहले की है। सो, मेजर बिंगले तथा


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भाटों के लेख असत्य, मनगढन्त तथा प्रमाणशून्य हैं। कादियान जाटों के शासन के विषय में प्रमाण इस प्रकार से हैं -

इस जाट गोत्र का शासन इस्लाम धर्म की उत्पत्ति से पहले बलोचिस्तान में था। प्राचीन समय के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिन पर पुरानी ब्राह्मी लिपि में कादान लिखा हुआ है। ये सिक्के कादान या कादियान जाट वंश (गोत्र) के हैं। इनका आरम्भ का नाम कादा है जिसका फारसी भाषा में अर्थ शक्तिमान या पुष्ट है। अमृतसर के निकट कादियां स्थान (गांव) और बलोचिस्तान में कादान स्थान के नाम इन्हीं कादियान जाटों के नाम पर पड़े हैं। इनके सिक्के जो प्राप्त हुए हैं वे ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी के हैं। इन सिक्कों पर एक खड़े हुए व्यक्ति की मूर्ति है जिसके बायें हाथ में भाला या राजदण्ड है। इन पर सूर्य व स्वास्तिक चिह्न भी है।1 इन प्रमाणों से साफ है कि कादियान जाटों का शासन पंजाब तथा बलोचिस्तान में था।

इन कादियान जाटों का एक समूह जिला रोहतक में आकर आबाद हो गया। जिला रोहतक में इनकी कदियान खाप है जिसमें निम्नलिखित 12 गांव हैं -

कादियान गोत्र के गांव

1. बेरी जो खाप का प्रधान गांव है 2. बागपुर 3. वजीरपुर 4. मांगावास 5. ढिराना 6. चिमनी 7. सिवाना 8. दूबलधन 9. माजरा - तथा अन्य गोत्रों के गांव 10. धौड़ 11. बिसहान 12. बाकरा (ब्राह्मणों का है)|

मदाना खुर्द को भी अपनी खाप में कह देते हैं और उसको अहलावत खाप भी अपने में शामिल किए हुए है। कादियान जाटों के गांव जि० बिजनौर में गढ़ी सिवहारा, जिला मुरादाबाद में मानपुर और मनकुवा सुप्रसिद्ध गांव हैं। जि० करनाल में बजाना कलां, बजाना खुर्द, सिवाहा, बिहौली, गढी और कैथल के पास जखोली 1/2 जि० सहारनपुर में गांगलौनी गांव कादियान जाटों के हैं।

जाट इतिहास पृ० 84 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने लिखा है कि कादियान और सांगवान गोत्र जाखड़ गोत्र की औलाद में से हैं। इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं। यह भी कह देते हैं कि कादियान, सांगवान, सौराण और जाखड़ गोत्र एक ही वंश के हैं, अतः चारों भाई हैं। यह अप्रमाणित दन्तकथा है। इन गोत्रों की उत्पत्ति अलग-अलग है। (देखो इन चारों गोत्रों का प्रकरण)। इनका एक वंश न होने का ठोस प्रमाण यह है कि इन चारों गोत्रों के आमने-सामने रिश्ते-नाते होते हैं। हरयाणा में इन चारों गोत्रों का पंचायती भाईचारा है।


(iii) शिवराण-श्योराण-सौराण

यह श्योराण प्राचीन जाट गोत्र है। भारतीय साहित्य में इसका नाम शूरा लिखा है (महाभारत 2/13/26)। आजकल मध्य एशिया में इसे शोर बोला जाता है। महाभारत में इन शूरा लोगों को सूरयासुर लिखा है। सूरा राजाओं ने आकर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भेंट दी थी। इन प्रमाणों से साफ है कि श्योराण जाटों का शासन महाभारत काल में था। गुप्तकाल के प्रसिद्ध विद्वान् वराहमिहिर ने अपनी पुस्तक बृहत-संहिता में श्योराण-शूराण जाटों को शूरा-सेना लिखा है।

चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र उनु की दसवीं पीढी में उशीनर के पुत्र शिवि से शिवि-शौव्य-शैव जाट गोत्र प्रचलित हुआ। शिवराण-श्योराण जाट गोत्र इसी शिवि-शौव्य जाट गोत्र की शाखा


1. जाट्स दी ऐन्शन्ट् रूलर्ज्, पृ० 337-338, लेखक बी.एस. दहिया।


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है। श्योराण के भाट की पोथी के अनुसार राज गज, जिसने गजनी बसाई और उसका शासक हुआ, के दो पुत्र मंगलराव और मसूरराव थे। मंगलराव लाहौर का शासक था और मसूरराव सियालकोट का। इनका राज्य ईरानी आक्रमणकारियों ने छीन लिया। वे राजस्थान की ओर भाग गये।

मंगलराव के छः पुत्रों में से एक का नाम शोराज था जिसके नाम पर श्योराण गोत्र प्रचलित हुआ। भाट की पोथी के लेख असत्य हैं क्योंकि इससे बहुत वर्ष पहले महाभारत काल में श्योराण जाटों का नाम व राज्य था। इनकी उत्पत्ति इस समय से बहुत पहले की है।

इन श्योराण जाटों का शासन मालवा में था। हुमायूंनामा के अनुसार ये लोग मालवा से हटकर जिस समय राजपूताना में गए, उस समय इनका एक दल नीमराणा के आस-पास पहुंच गया और हुमायूं के समय तब इनका छोटा-मोटा राज्य इस स्थान पर रहा। लोहारू रियासत के नवाब ने इनके 52 गांवों की छोटी-सी रियासत पर अधिकार कर लिया और 25 गांवों पर जींद रियासत ने। आज श्योराण जाटों के भिवानी जिले में लोहारु क्षेत्र में 25 गांव हैं और दादरी क्षेत्र में 25 गांव हैं। जिला हिसार में 25 गांव हैं। लोहारू क्षेत्र के 52 गांवों का प्रधान गांव चहड़ है।

इन जाटों की मेरठ में डगी जाम की एक अच्छी रियासत थी। वहां से जाकर रोरी, रोहटा गांव आबाद किये। बिजनौर व मंडावली और हरिद्वार के पास बहादरपुर, सहारनपुर के पास छछरौली, मथुरा में छाता के पास नानपुर, बदरूम, प्राणपुर पहाड़ी, श्यौराण जाटों के गांव हैं जो सभी हिन्दू जाट हैं।

नोट - ईरान में रोअन्दिज एक प्रान्त है जहां पर सौराण जाटों का शासन था। उस प्रान्त में सौराण कबीला आज भी आबाद है।

फौगाट, गुलिया

फौगाट

इस फौगाट जाट गोत्र के भाट ने इस वंश का प्रचलन सम्राट् पृथ्वीराज चौहान के लघुपुत्र बिल्हण से किया है। यह बात असत्य तथा प्रमाणशून्य है। पहली बात तो यह है कि जाटों से राजपूत तो बने किन्तु किसी भी राजपूत से कोई जाट गोत्र प्रचलित नहीं हुआ। दूसरी बात, कोई भी जाट गोत्र एक मनुष्य से प्रचलित नहीं हुआ। संघ रूप से एक व्यक्ति या स्थान की प्रसिद्धि के नाम से जाट गोत्रों का प्रचलन हुआ। एक वीर जाट फौगाट गोत्र को चौहान राजपूतों के वंशज कहना गलत बात है (पूरी जानकारी के लिए देखो, जाटों की उत्पत्ति प्रकरण)। फौगाट जाटों की उत्पत्ति के विषय में सत्य बात यह है -

अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थों के पढने से पता लगा है कि फौर एक जाट गोत्र है जिसका अच्छा संगठन था। उसका नाम फौरगाथ था। यूनानी भाषा में एवं मध्य एशिया में जाट को गाथ बोलते हैं। अतः फौर जाटों का समूह (संघ) फौरगाथ कहलाया। कुछ समय के पश्चात् भाषा भेद से इसका नाम फौगाट पड़ गया। इस गाथ शब्द से यह भी अनुमान लगता है कि फौरगाथ सम्भवतः यूनान एवं मध्य एशिया में रहे और उनका एक दल भारत में आकर दादरी क्षेत्र में आबाद हो गया जो आज फौगाट जाट कहलाते हैं। कुण्डू जाटों ने दादरी पर आक्रमण करके सांगवान व श्योराणों के 150 गांव जीत लिये और अपना राज्य स्थापित किया। सम्राट् अकबर के शासनकाल में ये सब गांव


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-997


मुगल साम्राज्य में मिला लिये गये। एक बार महाराजा जसवन्तसिंह जोधपुर नरेश अपनी सेना सहित देहली जाते हुए दादरी ठहरे। यहां पर दादरी के झाडू फौगाट जाट ने उनका बड़ा अतिथि-सत्कार किया। इससे प्रसन्न होकर राजा जसवन्तसिंह ने सम्राट् औरंगजेब से कहकर फौगाट जाटों की सहानुभूति लेने के लिए दादरी के अधीन 12 गांव कर दिये और झाडू फौगाट जाट को दादरी का सरदार बना दिया। इस तरह से फौगाटों का दादरी पर राज्य स्थापित हो गया। उसी समय से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि 12 गांव फौगाटों के झाडू सरदार। कई इतिहास पुस्तकों में इस झाडू को झण्डू फौगाट भी लिखा है। कुछ समय के लिए झज्जर के नवाब ने दादरी पर अधिकार कर लिया था।

सन् 1857 में महाराजा सरूपसिंह जींद नरेश का विवाह दादरी के फौगाट जाट सरदार की पुत्री से हुआ। सन् 1857 की प्रथम स्वतन्त्रता क्रान्ति में महाराजा स्वरूपसिंह ने अंग्रेजों की सहायता की थी। इस क्रान्ति के शान्त होने पर अंग्रेजों ने नवाब से दादरी का इलाका जब्त करके जींद महाराजा को दे दिया। परन्तु महारानी जींद ने अपने पिता द्वारा गोद लिए हुए पुत्र चौ० दरयावसिंह को 7 गांव जागीर में महाराजा से दिलवा दिए। किन्तु इनके एक पुत्री भी थी जो मुरसान (यू० पी०) विवाही गई। इस आधार पर ये गांव मुरसान रियासत के अधिकार में आ गए। भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर भारत में सब रियासतें सरकार के अधिकार में कर ली गईं। फौगाट जाटों की खाप में अब 12 गांव हैं जिसका प्रधान गांव दादरी है। अब दादरी जिला भिवानी में है।

जिला भिवानी में फौगाट जाटों के गांव - 1. दादरी 2. मौड़ी 3. मकड़ाना 4. ढाणी 5. टिकाण 6. रावळधी 7. खातीवास 8. फौगाट गांव 9. समसपुर 10. लोहरवाड़ा 11. कमोद 12. मकड़ानी 13. कपूरी 14. झींझर (1/2).

जिला हिसार में गांव हरिता और जिला रोहतक में भालौठ, रिठाल (1/2) समचाना, नयागाम जि० सोनीपत में किराड़ी, किलाना आदि फौगाटों के गांव हैं। चरखी दादरी से ही गये हुए जि० बुलन्दशहर में फौगाट जाटों के धमैड़ा, जसनावली, कुदैना नामक तीन गांव हैं।

फौगाट जाटों के प्रसिद्ध सन्त जमनादास भालौठ गांव के निवासी थे। आपने 40 वर्ष केवल गोदुग्ध पर जीवन बिताकर जनता को अपने सदुपदेशों से लाभ पहुंचाया। महात्मा जमनादास का स्वर्गवास वि० संवत् 1953 (सन् 1896) में हो गया।


गुलिया-गुल्या-गुलेया

यह गुलिया जाट गोत्र सूर्यवंशी गौर जाट वंश की शाखा है। सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट् मांधाता ने अपनी माता गौरी के नाम पर अपनी गौर उपाधि धारण की। मांधाता के वंशधर गौर नाम से प्रसिद्ध हुये। यह गौर जाट गोत्र है। इस गौर जाट गौत्र की शाखा गुलिया-गुलैया-तातराणा जाट गोत्र हैं (देखो तृतीय अध्याय गौर वंश प्रकरण)।

गुलिया जाटों का निवास एवं राज्य मध्यपूर्व में रहा है (देखो चतुर्थ अध्याय, मध्यपूर्व)। सन् 51 का वरदक (Wardak) में शिलालेख है जो कि अटक के निकट है। उस पर लिखा है कि भगवान् बुद्ध का स्मारक चिन्ह एक स्तूप में वगरामारेगा (Vagramarega) द्वारा स्थापित किया गया था जिसका वंश गुलिया था। यह गुलिया जाट वंश है। इन गुलिया जाटों का निवास तथा राज्य काबुल क्षेत्र में था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-998


पुराणों में इनका नाम कुलया/कुलिया लिखा है। मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि वे लोग मत्स्य (जाट गोत्र) लोगों के साथ मध्यभारत में थे।

इन गुलिया जाटों का एक दल चलकर रोहतक जिले के बादली गांव में आया और यहां से बादली ग्राम के चारों ओर फैलकर 24 गांवों में आबाद हो गये। गुलिया जाट खाप में 24 गांव हैं जिनका प्रधान गांव बादली है। बादली ग्राम से ताताराम नामक गुलिया जाट अपने कुछ साथियों सहित जिला बिजनौर के झालू गांव में जाकर आबाद हो गया। वहां पर इनके वंश की ताताराणा नाम से प्रसिद्धि हुई।

बादली गांव के गुलिया जाट वीर योद्धा हरवीरसिंह
तैमूरलंग ने सन् 1398 में भारत पर 92000 घुड़सवार सेना से तूफानी आक्रमण किया था। जब उसकी सेना दिल्ली से हरद्वार जा रही थी तब हरयाणा सर्वखाप की पंचायती सेना ने उससे रास्ते में युद्ध किया। उस सेना के उप प्रधान सेनापति 22 वर्षीय वीर योद्धा हरवीरसिंह गुलिया ने शेर की तरह झपटकर तैमूरलंग की छाती पर भाला मारा जिसके घाव से वह अपने देश समरकंद में पहुंच कर मर गया। वीर हरवीरसिंह शत्रु की मार से वहीं शहीद हो गया (पूरी जानकारी के लिये देखो चतुर्थ अध्याय, तैमूरलंग और जाट प्रकरण)।

देशवाल, दलाल

देशवाल / देसवाल

यह देशवाल गोत्र महाभारतकालीन है। जिला रोहतक में लाढौत गांव के महापुरुषों से पूछताछ से पता लगा है कि यह गांव महाभारत के समय से आबाद है। उनकी एवं अन्य लोगों की कहावत है कि हस्तिनापुर सूनी पड़ी, लाढौत में बाजें शंख दो। तात्पर्य है कि महाभारत युद्ध में हस्तिनापुर के वीर योद्धा कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र से चले गये थे तथा हस्तिनापुर मनुष्यों से खाली होई। उस समय लाढौत में एक राजा का और दूसरा एक साधु का शंख बजता था।

इस गांव में आज भी एक जोहड़ (तालाब) का नाम पाण्डु जोहड़ है। उनके नाम से एक उजड़खेड़ा भी है। इससे ज्ञात होता है कि पाण्डव इस स्थान पर ठहरे थे। देशवाल जाट उस समय इस गांव में आबाद थे और इनका यहां पर राज्य था। इनका कितने क्षेत्र पर राज्य था और राजा का क्या नाम था, यह एक खोज का विषय है। यह लाढौत गांव तब से अब तक कई बार अपना स्थान तथा आकार बदल चुका है। महाभारत युद्ध के बाद देशवाल जाटों का राज्य मध्यपूर्व में रहा। इसका एक प्रमाण यह है -

सन् 41 में खरोष्टी भाषा में लिखा हुआ अरा (Ara) में शिलालेख है जो कि अटक के निकट है। उस पर लिखा है कि देशवहर (Dashavjara) ने अपने माता-पिता के सम्मान में एक कुंआ खुदवाया था। यह देशवाल वंशज जाट राजा था। यह जाट वंश पहले से अफगानिस्तान में आबाद था।
देसवाल जाटों के गांव
1. लाढौत और इससे जाकर आबाद हुये 2. बलियाणा 3. दुलहेड़ा 4. खेड़का। और गांव बलियाणा से जाकर बसे गांव 5. खेड़ी (जैसोर) 6. भदानी (1/2)। 7. सुरहेती - ये सब जिला रोहतक में हैं। जि० सोनीपत में घिल्लोड़ कलां (1/3), खेड़ी दमकन (जोली)। जिला करनाल में मतलौडा, अण्टा, कुराड़, टोला। जिला जींद में गंगोली, गंगाना (1/3), अनूपगढ

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-999


जि० गुडगांव में मण्डकोला। रोहतक जिले से गये हुये उत्तरप्रदेश में देशवाल जाटों के गांव - जिला मुजफ्फरनगर में बसेड़ा, बधेव, कसेरवा। जि० मेरठ में सांधन, सदरपुर, मौड़। जि० बिजनौर में गावड़ी, अभीपुर, मानपुर देशवाल जाटों के प्रसिद्ध गांव हैं।

हरयाणा में देशवाल, दलाल, मान, सिहाग जाटों का आपस में भाईचारा है जिससे इनके आपस में आमने-सामने रिश्ते-नाते नहीं होते, परन्तु ये चारों एक ही माता-पिता की संतान नहीं हैं। जैसा कि भाटों ने लिख मारा कि वे चारों धन्नाराव राठोर राजपूत के पुत्र हैं, यह बात असत्य, प्रमाणशून्य तथा बेबुनियाद है। इन चारों गोत्रों की उत्पत्ति अलग-अलग समय में हुई है।


दलाल

दलाल जाट गोत्र प्राचीनकाल से है। इनका राज्य मुस्लिम धर्म की उत्पत्ति से पहले मध्यपूर्व में रहा था (देखो चतुर्थ अध्याय, मध्यपूर्व में जाट गोत्रों की शक्ति, शासन तथा निवास प्रकरण)।

मुसलमान बादशाहों की शक्ति बढने पर अनेक जाट गोत्रों की भांति दलाल जाट भी गढ़ गजनी से लौटकर अपने पैतृक देश भारत में आ गये (जाट इतिहास - उत्पत्ति और गौरव खंड पृ० 150, लेखक ठा० देशराज)।

दलाल जाटों का एक दल गढ गजनी से पंजाब, भटिंडा होता हुआ जिला रोहतक में आया। पहले ये लोग सिलौठी गांव में ठहरे, फिर यहां से माण्डोठी अदि कई गांवों में आबाद हो गये। माण्डोठी से निकलकर मातन व छारा गांव बसे। जिला रोहतक में दलाल खाप के 12 गांव निम्न प्रकार से हैं - 1. माण्डोठी प्रधान गांव 2. छारा 3. मातन 4. रिवाड़ी खेड़ा 5. आसौदा 6. जाखोदा 7. सिलौठी 8. टाण्डाहेड़ी 9. डाबौदा 10. मेंहदीपुर 11. कसार (ब्राह्मणों का गांव) 12. खरमान (सांगवान गोत्र)।

माण्डोठी गांव से जाकर दलाल जाटों ने चिड़ी गांव बसाया। चिड़ी गांव से दलालों का गांव लजवाना (जि० जीन्द]] में आबाद हुआ। जि० हिसार में मसूदपुर, कुम्भा आदि भी दलाल जाटों के गांव हैं। जि० रोहतक में अजैब गांव में दलाल जाटों के 35-40 घर हैं। हरयाणा में दलाल, देशवाल, मान, सुहाग जाटों का आपस में भाईचारा है जिससे इनके आपस में आमने-सामने रिश्ते-नाते नहीं होते, परन्तु ये चारों एक ही माता-पिता की सन्तान नहीं हैं।

दलाल जाटों की वीरता -
माण्डौठी गांव से दलाल गोत्र के चार भाई भुआल, जगराम, जटमल और गुरबा उत्तरप्रदेश में गये। वहां बड़ी वीरता से कई स्थानों पर अधिकार किया तथा कुचेसर रियासत जि० बुलन्दशहर पर शासन स्थापित किया। वहां पर अब दलाल जाटों के 12 गांव हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो, नवम अध्याय - उत्तरप्रदेश में दलाल जाटों का राजवंश प्रकरण)।
सन् 1856 में भूरा, निघाइया दलाल जाटों ने छः महीने तक महाराजा जींद से युद्ध किया -
जि० जींद में लजवाना दलाल जाटों का बड़ा गांव है जिसमें 13 नम्बरदार थे। नम्बरदारों के मुखिया भूरा और तुलसीराम दो नम्बरदार थे। ये दोनों अलग-अलग परिवारों के थे जिनमें आपस में शत्रुता रहती थी। भूरा नम्बरदार ने अपने 4 नौजवानों को साथ लेकर तुलसी नम्बरदार को कत्ल कर दिया। तुलसीराम का छोटा भाई निघाईया था जिसने इस कत्ल की सरकार को कोई

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1000


रिपोर्ट नहीं दी। अब निघाईया को नम्बरदार बना दिया गया। कुछ दिन बाद निघाईया के परिवार वालों ने तुलसीराम नम्बरदार के चारों कातिलों को रात्रि के समय मौत के घाट उतार दिया। भूरा ने भी इस मामले की सरकार को रिपोर्ट नहीं दी। इस तरह से दोनों परिवारों में आपसी हत्याओं का दौर चल पड़ा।

उन्हीं दिनों महाराजा जींद स्वरूपसिंह की ओर से जमीन की चकबन्दी की जा रही थी। उन तहसीलदारों में एक बनिया तहसीलदार बड़ा रौबीला था, जिससे जींद की सारी जनता थर्राती थी। वह बनिया तहसीलदार लजवाना पहुंचा और चकबन्दी के विषय में गांव के सब नम्बरदारों और ठौलेदारों को चौपाल में बुलाकर सबको धमकाया। उनके अकड़ने पर सबके सिरों पर से साफे उतारने का हुक्म दिया। इस नई विपत्ति को देख भूरा व निघाईया ने एक दूसरे की तरफ देखा और आंखों ही आंखों में इशारा कर चौपाल से नीचे उतरकर सीधे मौनी बाबा के मन्दिर में पहुंचे जो आज भी तालाब के किनारे वृक्षों के बीच में है। वहां उन्होंने आपसी शत्रुता को भुलाकर तहसीलदार से मुकाबले की प्रतिज्ञा की। फिर दोनों हाथ में हाथ डाले चौपाल में आ गये।

यह देखकर गांव वालों ने कहा कि आज भूरा-निघाइया एक हो गये, भलार नहीं है। उधर तहसीलदार जी सब चौधरियों के साफे उनके सिरों से उतरवाकर उन्हें धमका रहे थे और भूरा-निघाईया को फौरन हाजिर करने के लिए जोर दे रहे थे। चौपाल में चढते ही निघांईया नम्बरदार ने तहसीलादार को ललकार कर कहा कि - हाकिम साहब! साफे मर्दों के सिर पर बंधे हैं, पेड़ के खुंड्डों पर नहीं, जब जिसका जी चाहा उतार लिया। तहसीलदार साहब उस पर बाघ की तरह गुर्राया। दोनों ओर से झड़पों में कई आदमी मर गये। तहसीलदार भयभीत होकर प्राण रक्षा के लिए चौपाल से कूदकर एक घर में जा घुसा। वह घर बालम कालिया जाट का था। भूरा-निघांईया और उनके साथियों ने घर का द्वार जा घेरा। बालम कालिया के पुत्र ने तहसीलदार पर भाले से वार किया, पर उसका वार खाली गया। बालम कालिया की युवती कन्या ने बल्लम से तहसीलदार को मार डाला। यह सूचना सुनते ही महाराजा जींद ने लजवाना गांव को तोड़ने के लिए अपनी सेना भेजी। लजवाना से स्त्री-बच्चों को बाहर रिश्तेदारियों में भेज दिया गया। गांव में मोर्चेबन्दी कायम की गई। सहायता के लिए इलाके की पंचायतों को पत्र भेजे गये। तोपचियों के बचाव के लिए वटवृक्षों के साथ लोहे के कढ़ाह बांध दिये गये। इलाके के सब गोलन्दाज लजवाना में एकत्र हो गये। इन देहाती वीरों का नेतृत्व भूरा-निघांईया कर रहे थे। महाराजा की सेना और इन देहाती वीरों के बीच घमासान युद्ध होने लगा जो लगातार छः महीने तक चला। चारों ओर के गांवों से इन गांव वालों को हर प्रकार की सहायता मिलती रही। आहूलाणा गांव के गठवाला मलिकों के प्रधान दादा गिरधर मलिक (जो दादा घासीराम जी के दादाजी थे) प्रतिदिन झोटा गाड़ी में भरकर गोला-बारूद भेजते थे। पता लगने पर राजा ने अंग्रेज सरकार से इस बात की शिकायत की तथा अंग्रेज सरकार ने उस झोटा गाड़ी को पकड़ लिया। जब महाराजा जींद सरदार स्वरूपसिंह किसी भी तरह विद्रोहियों पर काबू पाने में असफले रहे तो उन्होंने ब्रिटिश सेना को सहायता के लिए बुलाया। ब्रिटिश सेना की तोपों की मार से लजवाना चन्द दिनों में जीत लिया गया। इस छः महीने के युद्ध में दोनों ओर के बड़ी संख्या में जवान मारे गये।

भूरा-निघांईया भागकर रोहतक जिले के अपने गोत्र दलालों के गांव चिड़ी में आ छिपे।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1001


उनके भाइयों ने वहां से उनको दादा गिरधर के पास आहूलाणा भेज दिया। जब ब्रिटिश रेजीडेण्ट जींद का दबाव पड़ा तो डिप्टीकमिश्नर रोहतक ने चौ० गिरधर को मजबूर किया कि वह भूरा-निघांईया को महाराजा जींद के समक्ष करे। अन्त में भूरा-निघांईया को साथ ले सारे इलाके के मुखियों के साथ चौ० गिरधर जींद राज्य के प्रसिद्ध गांव कालवा, जहां महाराजा जींद कैम्प डाले हुए थे, पहुंचे। उन्होंने राजा से यह वायदा ले लिया कि भूरा-निघांईया को माफ कर दिया जाएगा, तब दोनों को राजा के सामने पेश कर दिया। माफी मांगने व अच्छा आचरण का विश्वास दिलाने के कारण राजा उन्हें छोड़ना चाहता था, पर ब्रिटिश रेजिडेण्ट के दबाव के कारण राजा ने भूरा-निघांईया दोनों नम्बरदारों को फांसी पर लटका दिया। दोनों नम्बरदारों को सन् 1856 के अन्त में फांसी देकर राजा ने लजवाना के ग्राम निवासियों को गांव छोड़ देने का आदेश दे दिया। लोगों ने लजवाना खाली कर दिया और चारों दिशाओं में छोटे-छोटे गांव बसा लिए जो आज भी सात लजवाने के नाम से प्रसिद्ध हैं। मुख्य लजवाना से एक मील उत्तर-पश्चिम में भूरा के कुटुम्बियों ने चुडाली नामक गांव बसाया। भूरा के पुत्र का नाम मेघराज था। मुख्य लजवाना से ठेठ उत्तर में एक मील पर निघांईया के वंशधरों ने मेहरड़ा नामक गांव बसाया।

निघांईया के छोटे पुत्र की तीसरी पीढ़ी में चौ० हरीराम थे जो रोहतक के डाकू दीपा द्वारा मारे गये। इसी हरीराम के पुत्र डाकू हेमराज उर्फ हेमा (गांव मेहरड़ा) को विद्रोहात्मक प्रवृत्तियां वंश परम्परा से मिली थीं और वे उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो गईं।

मांडौठी गांव के सिपाही नान्हाराम दलाल की वीरता -

सन् 1900 में चीन सरकार की महारानी ने अपने देश चीन से, विदेशी उद्योगपतियों, व्यापारियों, दुकानदारों आदि को बाहर निकल जाने का आदेश दे दिया। उन विदेशियों ने अपने-अपने देशों की सरकार को इस आदेश की सूचना दी और चीन देश को न छोड़ने की लाचारी से सूचित किया। चीन सरकार के अपने इस आदेश पर दृढ रहने के कारण 12 देशों की संयुक्त सेनाओं ने चीन देश पर चढाई कर दी और ये सेनायें सन् 1901 में चीन देश में पहुंच गईं। ये संयुक्त सेनायें ब्रिटिश, रूस, जर्मनी, अमेरिका, जापान, कनाडा, इटली, फ्रांस, स्पेन, तुर्की, पुर्तगाल और अरब देशों की थीं। ब्रिटिश सेना के साथ छठी जाट लाइट इन्फेंट्री (6 जाट पलटन) भी चीन गई थी। चीन सरकार ने इनसे सन्धि कर ली और विदेशियों की सारी शर्तें मान लीं। इन सेनाओं को वहां कई महीनों तक रहना पड़ा। 6 जाट पलटन के कैम्प के उत्तर में थोड़ी दूरी पर शराब का ठेका था। 6 जाट के आर० पी० पहरेदार (Regimental Police Sentries) एक छोटा बेंत लेकर कैम्प के चारों ओर दिन में पहरा देते थे, जैसा कि प्रत्येक बटालियन में यह रीति है। रूसी हथियारबन्द सैनिक टोलियां सायंकाल 6 जाट के कैम्प के सामने से जाकर उस ठेके पर शराब पीकर आती थीं। एक दिन की घटना यह हुई कि सिपाही नान्हाराम दलाल आर० पी० सन्तरी था। एक रूसी हथियारबन्द सैनिक टोली शराब पीकर वापस लौटती हुई, सिपाही नान्हाराम को चाकू व संगीन मारकर सख्त घायल कर गई।

नान्हाराम को हस्पताल में दाखिल करवा दिया गया। अगले दिन पलटन के कर्नल साहब व सूबेदार मेजर उसे हस्पताल में देखने गये। अंग्रेज कर्नल ने क्रोध से नान्हाराम को यह कह दिया कि


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1002


तुम एक भी रूसी सिपाही को चोट नहीं मार सके, अतः चूड़ियां व साड़ी पहन लो। सूबेदार-मेजर ने कर्नल साहब से कहा कि हमारे सिपाहियों को छोटा बेंत के स्थान पर राईफल व गोलियां लेकर सन्तरी रहने की मंजूरी दी जाये। इससे कर्नल साहब ने यह कहकर इन्कार कर दिया कि हमारा सिपाही रूसी सैनिकों पर गोली चला देगा तो हमारा रूस के साथ युद्ध छिड़ जायेगा। फिर सूबेदार-मेजर ने पहरेदारों को लाठी लेकर जाने की आज्ञा मांग ली। लाठियों के सिरे पर लोहे के पतरे एवं तार जड़वाए गए। नान्हा सिपाही कर्नल के अपमानित बोल को सहन न कर सका। अतः उसने अपने पूरे तौर से घाव भरने से पहले ही हस्पताल से छुट्टी ले ली। अगले ही दिन वह लाठी लेकर पहरे पर चला गया। सायंकाल 25 रूसी सैनिकों की एक टोली जिनके पास अपनी राईफल, 50 गोलियां तथा संगीन प्रत्येक सैनिक के पास थीं, शराब पीकर वापस लौटते हुए सिपाही नान्हाराम के साथ छेड़छाड़ करने लगे। नान्हाराम छः फुट लम्बा तगड़ा, जोशीला वीर सैनिक था, जो अपनी पहली घटना का बदला लेने का इच्छुक था, ने एक रूसी सैनिक के सिर पर लाठी मारी जो वहीं पर ढेर हो गया। फिर बड़ी तेजी व फुर्ती से दूसरे सैनिकों पर लाठी मारना आरम्भ कर दिया। जिसको लाठी मारी, वहीं गिर पड़ा। रूसी सैनिक भयभीत होकर भाग खड़े हुए।

नान्हाराम ने उनको राईफल पर संगीन चढाने तथा गोलियां भरकर चलाने का अवसर न लेने दिया। उसने 25 सैनिकों को लाठी मार-मारकर भूमि पर गिरा दिया। इस मार से प्रत्येक की हड्डी टूट गई और गम्भीर रूप से घायल हो गए और कुछ मर भी गए। अन्तिम 25वें सिपाही को उसके रूसी कैम्प के गेट पर पहुंचने पर लाठी मारकर गिराया था। अब सिपाही नान्हाराम ने वापस आते समय उन सब 25 रूसी सैनिकों की 25 राईफलें अपने कंधों पर ले ली और अपने कैम्प में आ गया। यह रिपोर्ट जब सूबेदार-मेजर ने कर्नल साहब को दी तो वह बहुत खुश हुआ और सिपाही नान्हाराम को बड़ी शाबाशी दी तथा अपने उन अपमानित शब्दों के लिए खेद प्रकट किया। अगले दिन वहां के सब समाचार पत्रों में मोटी सुर्खी में यह सूचना छपी कि एक हिन्दुस्तानी जाट पलटन के एक जाट सैनिक ने केवल लाठी मारकर 25 रूसी सैनिकों के हथियार छीन लिये तथा उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया। 12 देशों के सैनिक जनरल उस सिपाही नान्हाराम को निश्चित दिन पर देखने आए। 6-जाट पलटन कवायद के तौर पर पंक्ति में खड़ी हुई। पलटन के आगे कर्नल साहब और सूबेदार-मेजर के बीच में सिपाही नान्हाराम खड़े हुए। सब जनरलों तथा अन्य कमांडरों ने सिपाही नान्हाराम से हाथ मिलाकर शाबाशी दी और उसकी वीरता के गुणगान किए। वहां पर जाट पलटन के जवानों को देखकर जर्मनी के जनरल ने कहा था कि हमारे पास वीर जाट सैनिक हों तो हम संसार को जीत सकते हैं। यह सिपाही नान्हाराम दलाल की अद्वितीय वीरता थी जो संसार के इतिहास में शायद ही दूसरी ऐसी घटना हुई हो।

नोट - लेखक के पिताजी हवलदार रायसिंह इसी 6-जाट पलटन में चीन गए थे। उन्होंने यह घटना अपनी आंखों से देखी थी और उन्हीं की जुबानी बताई गई नान्हाराम दलाल की वीरता की यह घटना लिखी गई है। इसके अतिरिक्त उस पलटन के साथ चीन जाने वाले अनेक सैनिक इस प्रसिद्ध वीरता की घटना को बड़े गौरव से सुनाया करते थे। - लेखक।

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डबास, हुड्डा

डबास

यह डबास गोत्र दहिया जाट गोत्र की शाखा है। दोनों गोत्रों का भाईचारा है इसीलिए दोनों के आपस में रिश्ते-नाते नहीं होते। इन दोनों गोत्रों के जाट विदेशों में तथा भारत में साथ-साथ रहे हैं। आज भी ये दोनों गोत्र साथ-साथ आबाद हैं।

डबास जाट छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व में बसे हुए थे। इनके साथ-साथ दहिया जाट भी उसी क्षेत्र में आबाद थे जिनके नाम पर यह सागर दधी सागर कहलाया था। यूनान के प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस ने अपनी भाषा में डबासों का नाम डरबिस (Derbice) लिखा है। सीथिया देश (मध्य एशिया) का एक प्रांत मस्सागेटाई जाटों का एक छोटा तथा शक्तिशाली राज्य था जिसकी रानी तोमरिस थी। 529 ई० पू० में इस रानी की जाट सेना का युद्ध महान् शक्तिशाली सम्राट् साईरस से हुआ था। इस युद्ध में सम्राट् साईरस मारा गया और जाट महारानी तोमरिस विजयी रही। इस युद्ध में दहिया/डबास जाट महारानी की ओर से साईरस के विरुद्ध लड़े थे। (देखो चतुर्थ अध्याय, जाट महारानी तोमरिस का सम्राट् साईरस से युद्ध प्रकरण)

जब दहिया जाटों का राजस्थान में राज्य समाप्त हो गया तब ये लोग डबास जाटों के साथ हरयाणा में जि० रोहतकसोनीपत में आकर आबाद हो गये। डबास जाटों के गांव निम्न प्रकार से आबाद हैं -

दिल्ली प्रान्त में सोनीपत तहसील की सीमा के निकट कंझावला डबास खाप का प्रधान गांव है। रसूलपुर, सुलतानपुर, पूंठ, घेवरा, रानीखेड़ा, मारगपुर, लाडपुर, मदनपुर, चांदपुर, माजरा डबास, बड़वाला आदि गांव डबास जाटों के हैं।

इधर से ही निकास प्राप्त करके डबास जाट जिला बिजनौर में आकर बसे। इस जिले में पीपली, डबासोंवाला, सिकैड़ा, पाड़ली, लाम्बाखेड़ा (कुछ घर), मण्डावली, मुजफरा, झिलमिला और नगीना आदि डबास जाटों के गांव हैं।


हूडा-हुड्डा-हाडा

यह प्रसिद्ध जाट गोत्र है जो वत्स जाट गोत्र की शाखा चौहान जाटों का वंशज गोत्र है। इनके विषय में किसी इतिहासकार ने इनको चौहान राजपूतों के वंशज लिखा है, तो यह बात असत्य, प्रमाणशून्य तथा बेबुनियाद है। चौहान जाट गोत्र तो राजपूत संघ, जो कि सातवीं शताब्दी में स्थापित हुआ, से बहुत समय पहले का है। वे चौहान जाट जो राजपूत संघ में मिल गये, चौहान राजपूत कहलाये और जो न मिले वे चौहान जाट आज भी है। इनकी उत्पत्ति का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - वत्स या बत्स गोत्र के जाट महाभारत युद्ध में पांडवों की ओर होकर लड़े थे। महाभारत के बाद इन जाटों का राज्य पंजाब में भटिण्डा क्षेत्र पर रहा जिनका राजा उदयन था। फिर इनका राज्य उज्जैन में भी रहा।

इसी गोत्र के प्रसिद्ध वीर योद्धा आल्हा, उदल और मलखान थे। (देखो तृतीय अध्याय, बत्स/वत्स प्रकरण)। इसी वत्स जाट गोत्र के वंशज चौहान जाट हैं (देखो जाटों का उत्कर्ष, पृ० 375, वत्स चौहान प्रकरण, भारत में जाट राज्य उर्दू, पृ० 416-417, हूडा चौहान या हाडा प्रकरण, दोनों पुस्तकों के लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

इन्हीं चौहान जाटों में हाडाराव वीर योद्धा हुए। ऐतिहासिक मिश्रबन्धु और मि० रेऊ, टॉड राजस्थान और हीराचन्द ओझा के लेखानुसार इसी हाडाराव के वंशज हाडा कहलाये। भाषा भेद से इन हाडा जाटों को हूडा-हुड्डा नाम से कहा जाने लगा। राजपूत संघ स्थापित होने के कई


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1004


शताब्दी बाद कोटा और बूंदी रियासतों पर राजपूत हाडा चौहानों का राज्य रहा। उस क्षेत्र या प्रदेश का नाम हाडौती पड़ गया। इस क्षेत्र से हूडा जाट हरयाणा के रोहतक जिले में आकर आबाद हो गये। यहां पर हूडा जाटों के 36 गांवों की हूडा खाप है जिसका प्रधान गांव खिडवाली है। खिडवाली के चारों तरफ इनके 12 गांव हैं और किलोई के आसपास इनके 12 गांव हैं।

इस गोत्र के जाट पंजाब में बहुत हैं जिनको हुड्डा कहा जाता है। जिला अमृतसर में बुढाला गांव, कोटली, सांगोदाद, मेन्दीपुर और जिला जालन्धर में बुटाला, जडिया गांव हुड्डा जाटों के हैं।

हुड्डा खाप के गांव निम्नलिखित हैं -

1. खिडवाली* 2. कटवाड़ा* 3. चमारिया* 4. सिसरोली 5. जीन्दराण* 6. घुसकानी* 7. सांघी* 8. जसैया* 9. बसंतपुर 10. बाहमनवास 11. मकड़ौली कलां 12. मकड़ौली खुर्द 13. किलोई खास* 14. किलोई दोपाना* 15. रुड़की* 16. पोलंगी* 17. मुंगान* 18. धामड़* 19. आसन* 20. कनसाला 21. हुमायूंपुर 22. बखेता 23. लाढौत 24. भैयापुर 25. मोई हुड्डा 26. फरमाना 27. माजरा फरमाना 28. रिढाऊ 29. मोजनगर 30. महीपुर 31. माजरा (जस्सुवाला) 32. गुहना 33. रिठाल 34. काहनी 35. घिलोड़ कलां 36. घिलोड़ खुर्द ।
नोट - * चिन्ह वाले गांव हुड्डा गोत्र के हैं जिनमें जसिया 1/2 हुड्डा गोत्र का है। शेष गांव अन्य गोत्रों के हैं।
चौ० टेकराम हूडा की वीरता
चौ० टेकराम हूडा का जन्म खिडवाली गांव (जि० रोहतक) में हुआ था। आपके पिताजी का नाम चौ० रामजीलाल हूडा था। आप एक निडर योद्धा, साहसी, हिन्दूधर्म के रक्षक तथा गोमाता के सच्चे सेवक एवं रक्षक थे। चौ० टेकराम की महानता इस कारण है कि आपने वह कार्य पूरा किया जो ईश्वर का आदेश है कि - हे राजपुरुषो! जैसे सूर्य मेघ को मार और उसको भूमि में गिरा सब प्राणियों को प्रसन्न करता है वैसे ही गौओं के मारने वाले को मार गौ आदि पशुओं को निरन्तर सुखी करो।" (ऋग्वेद मं० 1/अ० 18/सू० 120/मन्त्र 10)।

ईश्वर के इस आदेश का पालन करने के चौ टेकराम के अनेक उदाहरण हैं जिनमें से कुछ का ब्यौरा निम्न प्रकार है -

1. एक बार रोहतक शहर के मुसलमान कसाई ईद पर्व के दिन एक गाय को सजा-धजा कर उसे काटने के लिए बूचड़खाने में ले जा रहे थे। पता लगने पर वीर टेकराम हूडा उचित समय पर कसाइयों की गली में पहुंच गया। गाय को साथ ले जाने वालों पर वीर योद्धा टेकराम ने शेर की तरह झपटकर उनको मारना शुरु कर दिया। इनकी मार से दो-तिहाई मर गए और कई घायल हो गये। शेष गाय को छोड़कर भाग खड़े हुए। उस वीर ने अपने एक साथी को, जो कि कुछ दूरी पर खड़ा था, इस गाय को भगा ले जाने को पुकारा और वह इस गाय को भगाकर शहर से दूर ले गया। जब चौ० टेकाराम ने देखा कि सब कसाई उससे भयभीत होकर गाय को वापिस लाने का साहस छोड़ बैठे हैं, तब आप भी वहां से भागकर अपने गांव में आ गये।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1005


2. इस घटना के कुछ समय पश्चात् वीर योद्धा टेकराम अपने कुछ साथियों को लेकर रोहतक के बूचड़खाने में घुस गए जहां पर कई कसाई गौओं तथा बछड़ों की हत्या करने ही वाले थे। उन्होंने सब कसाइयों को मौत के घाट उतार दिया और सब गौओं तथा बछड़ों को वहां से निकाल लाए। ऐसी थी चौ० टेकराम की महान् वीरता।
3. चौ० टेकराम ने अपने मित्र पहलवान लोटनसिंह अहलावत जो चिराग दिल्ली के निवासी थे, को दिल्ली के मुसलमान कसाइयों से गौओं को छुड़ाने हेतु युद्ध करने में कई बार सहायता दी। पहलवान लोटनसिंह अहलावत ने दिल्ली के कसाइयों को मार-मार कर इतना भयभीत कर दिया था कि उन्होंने पशुहत्या बंद कर दी। चौ० लोटनसिंह भी चौ० टेकराम की इस गोरक्षा सहायता के लिए रोहतक आते रहते थे।

चौ० टेकराम ने रोलट एक्ट के विरुद्ध हरयाणा में स्वाधीन विचारों का प्रसार किया। परिणामस्वरूप इन्हें सन् 1919 ई० में लाहौर किले में 3 वर्ष बन्दी रखा गया।

हण्टर कमेटी ने इनकी स्वाधीनता का उल्लेख अपनी उस रिपोर्ट में किया जो हाउस ऑफ कामन्स में प्रस्तुत की गई थी।

जब चौ० लालचन्द जी चौ० मातुराम को हराकर एम.एल.सी. बने तथा वजीर भी बनाए गए तब चौ० मातुराम ने चौ० लालचन्द के खिलाफ चुनाव याचिका दायर कर दी। ट्रिब्यूनल ने चौ० लालचन्द की सदस्यता खत्म कर दी, साथ ही उन्हें वजारत भी छोड़नी पड़ी। उपचुनाव में चौ० मातुराम के मुकाबले में चौ० छोटूराम ने चौ० टेकराम को खड़ा किया। इस चुनाव में चौ० टेकराम भारी मतों से विजयी होकर एम.एल.सी बने।

दुर्भाग्य से अगस्त 1926 ई० में चौ० टेकराम को रोहतक में प्रेम निवास (सर छोटूराम की नीली कोठी) चौराहे पर उनके शत्रुओं ने कत्ल कर दिया।

वीर योद्धा चौ० टेकराम पर केवल हूडा गोत्र एवं जाट जाति को ही नहीं, बल्कि समस्त हिन्दू जाति को गर्व है। इनकी महानता सदा अमर रहेगी।

खोखर, धनखड़

खोखर

गुप्तवंशज सम्राट् धारण गोत्र के जाट थे जिनका शासन भारतवर्ष पर 240 ई० से 528 ‍ई० तक रहा। अंधकार युगीन भारत पृ० 252 पर डा० काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है कि गुप्त वंश के लोग कारसकर जाट थे। कारसकर-कक्कड़-खोखर एक ही नाम के अपभ्रंश हैं। ये लोग उसी मूल समाज के प्रतिनिधि हैं जिस समाज में गुप्त लोग थे। कारसकरों में भी गुप्त लोग जिस गोत्र के थे उसका नाम धारण था। (अधिक जानकारी के लिये देखो, पंचम अध्याय, गुप्त साम्राज्य प्रकरण)।

वायु पुराण व विष्णु पुराण में खोखरों का नाम कोकरकस लिखा है और विष्णु पुराण इंग्लिश पृ० 157-162 पर इनका नाम कोकर/खोखर लिखा है। ईरानी भाषा में खोखर को खिखर लिखा है और यूनानी भाषा में इनको गोगेरी (Gogiarei) लिखा है। इससे यह अनुमान लगता है कि ये खोखर जाट ईरान तथा यूनान में रहे। खोखर जाटों का स्वभाव स्वतन्त्र रहने का है। ये दूसरों के अधीन रहना पसन्द नहीं करते, जिसके लिए समय-समय पर इन्होंने अनेक युद्ध किये। खोखर जाट बड़े युद्धवीर हैं। इनके कुछ युद्धों का वर्णन इस प्रकार से है -


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1006


  • 1. महमूद गजनवी ने अपना छठा आक्रमण सन् 1008 ई० में राजा आनन्दपाल पर किया। आनन्दपाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं का संघ बनाया और आक्रमणकारी से युद्ध करने के लिए पंजाब की ओर बढ़ा। खोखर जाट भी इन हिन्दू सेनाओं में आकर मिल गये। महमूद को इससे पहले इतनी बड़ी सेना से सामना नहीं करना पड़ा था। 40 दिन तक दोनों पक्ष की सेनायें पेशावर के मैदान में आमने-सामने डटी रही थीं। महमूद ने अपने 6000 धनुर्धारियों को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए आगे रखा। 30,000 खोखर जाटों ने एकदम मुसलमान सेना पर आक्रमण कर दिया और मार-काट शुरु कर दी। महमूद के धनुर्धारियों को खोखरों ने पीछे भगा दिया और शत्रु सेना में घुस पड़े तथा उन्होंने लगभग 5000 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इस भीषण आक्रमण से घबराकर सुलतान महमूद युद्ध बन्द करने ही वाला था कि आनन्दपाल का हाथी डरकर युद्धभूमि से भाग खड़ा हुआ। यह देखकर हिन्दू सैनिक भयभीत हो गये और गजनवी की सेना ने दो दिन-रात तक उनका पीछा किया। अनेक मारे गये और महमूद विजेता को अपार धनराशि हाथ लगी। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ 53, लेखक ईश्वरीप्रसाद; तारीख हिन्दुस्तान, बाब 18, पृष्ठ 23)।
  • 2. महमूद गजनवी ने सन् 1025 में अपना 16वां आक्रमण सोमनाथ पर किया था। सोमनाथ के मन्दिर में अपार धन व सोना ऊंटों पर लादकर जब महमूद सिंध के रेगिस्तान में अपने देश गजनी को लौट रहा था तो मुलतान के समीपवासी खोखर जाटों ने सिंध के रेगिस्तान में आक्रमण करके उसकी सम्पूर्ण लूट का लगभग आधा भाग लूट लिया। महमूद घबरा गया। उसने अपने लश्कर को समेटा परन्तु खतरा दूर नहीं हुआ। उसे गजनी दूर लग रही थी। वह मन मारकर चलता बना और गजनी पहुंच गया। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 109, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री । (लेफ्टिनेंट रामस्वरूप जून, जाट इतिहास, पृ० 105; मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 57, लेखक ईश्वरीप्रसाद। तारीख हिन्दुस्तान, अध्याय 18, पृ० 27 पर यह लेखक लिखते हैं कि जाटों ने सिंध प्रदेश में महमूद का बहुत सा माल-असबाब आक्रमण करके लूट लिया)।
  • 3. जाटों की इस लूट से नाराज होकर महमूद ने बदला लेने के लिए जाटों पर अपना अन्तिम आक्रमण सन् 1025 में किया। यह युद्ध नावों में बैठकर दोनों ओर की सेनाओं में जेहलम नदी में हुआ। इस युद्ध में अन्य जाटों के साथ खोखर जाट भी वीरता से लड़े और उनका भारी नुकसान हुआ। इस युद्ध में जाट हार गए और महमूद विजयी रहा। (अधिक जानकारी के लिए देखो, षष्ठ अध्याय, महमूद गजनवी और जाट प्रकरण)।
  • 4. मुहम्मद गौरी ने सन् 1175 से 1206 ई० तक उत्तरी भारत पर कई आक्रमण किये। सन् 1178 में गौरी ने नेहरवाल (गुजरात) के राजा भीमदेव पर आक्रमण कर दिया। परन्तु शक्तिशाली राजा भीमदेव ने गौरी को करारी हार दी। गौरी वहां से जान बचाकर भाग आया। फिर गौरी ने पेशावर और समुद्र तट तक सिंध देश को जीत लिया। लाहौर न जीत सकने के कारण उसने खुसरो मलिक के साथ सन्धि कर ली और गजनी लौट आया।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1007


उसके चले जाने के बाद खुसरो मलिक ने खोखर जाटों की सहायता से सियालकोट के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह सूचना मिलते ही गौरी ने आकर लाहौर पर आक्रमण कर दिया और कूटनीति द्वारा सन् 1186 में खुसरो मलिक को जीत लिया तथा उसे मार दिया। इस प्रकार सुबुक्तगीन वंश का अंत कर दिया। (देखो षष्ट अध्याय, शहाबुद्दीन गौरी और जाट प्रकरण)।

  • 5. मुहम्मद गौरी ने सन् 1205 में मध्य एशिया पर आक्रमण कर दिया। वहां पर उसकी करारी हार हुई। इस हार के बाद प्रत्येक प्रदेश के राज्यपालों ने उसके विरुद्ध विद्रोह आरम्भ कर दिए। मुलतान पर एक नया शासक बन गया। खोखर जाटों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया तथा पंजाब के शासक बनने की घोषणा कर दी। सन् 1205 ई० में खोखरों को दबाने के लिए गौरी फिर भारत आया। इसने इस विद्रोह को दबा दिया। परन्तु जब वह लाहौर से 15 मार्च 1205 ई० को गजनी वापिस जा रहा था तब धम्यक (Dhamyak) के स्थान पर मुलतान के 25,000 खोखर जाटों ने गौरी की सेना पर धावा बोलकर मुहम्मद गौरी का सिर काट लिया। उसके मरते ही गौरी का विशाल साम्राज्य ऐसा अस्त हो गया कि मानो वह जादू का चमत्कार था। गौरी के कोई पुत्र न था। उसके मरने के बाद उसकी इच्छा के अनुसार सन् 1206 ई० में उसका गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक देहली साम्राज्य का बादशाह बना। (अधिक जानकारी के लिए देखो, षष्ठ अध्याय, खोखर जाटों का विद्रोह और गौरी की मृत्यु।)
  • 6. चंगेज खां ख्वारिज्म के अन्तिम शाह जलालुद्दीन पर आक्रमण किया तो वह भारत की ओर भाग गया। उसने सिंध नदी पर पड़ाव डाला और दिल्ली सल्तनत के बादशाह अल्तमश (सन् 1211-1236 ई०) से सहायता मांगी, परन्तु उसने इन्कार कर दिया। अन्त में 1221 ई० में जलालुद्दीन खां को चंगेज खां की सेना ने हरा दिया। कुछ सैनिकों को साथ लेकर उसने भागकर जान बचाई। उसने खोखर जाटों की सहायता से मुलतान के शासक नासिरुद्दीन कुबैचा पर आक्रमण किया और उसे मुलतान के दुर्ग में से भगा दिया। (अधिक जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, चंगेज खां का आक्रमण)।
  • 7. जब 1246 ई० में नासिरुद्दीन दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो बलबन को साम्राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया गया। बलबन ने 1246 ई० में रावी नदी को पार किया और जूद तथा जेहलम पहाड़ियां रौंद डालीं। खोखर जाटों ने उसके साथ युद्ध किया परन्तु उसने खोखरों तथा अन्य उपद्रवी जातियों को दबा दिया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 87, लेखक ईश्वरीप्रसाद); (तारीख हिन्दुस्तान, अध्याय 20वां पृ० 86)।
  • 8. फिरोज तुगलक के 6 उत्तराधिकारी हुये जो दुर्बल व डरपोक थे। उनमें तीसरा मुहम्मद द्वितीय था जिसकी सन् 1394 में मृत्यु हो गई। मुहम्मद के सबसे छोटे पुत्र शहजादा महमूद को सिंहासन मिला। वह नासिरुद्दीन महमूद तुगलक के नाम से राज्य करने लगा। उसके शासन काल में सारे देश में अव्यवस्था फैल गई और अपनी सीमाओं के भीतर जागीरदार और जमींदार एक तरह से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र बन गये। उत्तर में खोखर जाटों ने विद्रोह कर दिया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 159-160, लेखक ईश्वरीप्रसाद; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू, अध्याय 22वां, पृ० 181)।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1008


  • 9. तैमूरलंग ने भारत पर सन् 1398 ई० में 92,000 घुड़ासवारों के साथ आक्रमण कर दिया। उसने 24 सितम्बर 1398 को सिंध नदी पर कर ली और वहां से आगे जेहलम और रावी को पार करके तल्मबद शहर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद खोखर जाटों ने उससे युद्ध किया परन्तु हार गये। (तारीख हिन्दुस्तान उर्दू, अध्याय 22वां, पृ० 189)।
  • 10. सैय्यद वंश के बादशाह खिजर खां की सन् 1421 ई० में मृत्यु होने पर मुबारिक शाह दिल्ली का बादशाह बना। खोखर जाट और हिन्दू सरदार उसके शासन के लिए आपत्ति का कारण बन गये। (तारीख हिन्दुस्तान उर्दू, अध्याय 23वां, पृ० 193)।
  • 11. शेरशाह (1540 ई० से 1555 ई०) ने दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने के पश्चात् कुछ और प्रदेशों को भी जीता। जब वह पंजाब में मुगलों का पीछा कर रहा था तो उसने गक्खड़ (खोखर) प्रदेश में रहने वाली अनेक युद्धप्रेमी और स्वतंत्र जातियों को अधीन करने का प्रयास किया। (भारत का इतिहास, पृ० 179, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी)।
  • 12. मुबारिक शाह सैय्यद (सन् 1421-1434 ई०) के शासनकाल में दो प्रधान विद्रोह हुए। सन् 1428 ई० में जसरथ खोखर का विद्रोह हुआ और दूसरा सरहिन्द के निकट पौलाद तुर्क बच्चा का विद्रोह हुआ। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 209, लेखक ईश्वरीप्रसाद)।
  • 13. बाबर (सन् 1526 से 1530 ई०) अपनी सेना लेकर भारत पर चढ आया। पंजाब में भीरा, खुशाब और चनाब नदी के क्षेत्र में खोखर जाटों ने उससे कड़ी टक्कर ली। जाट इतिहास पृ० 17 पर कालिकारंजन कानूनगो ने लिखा है कि - बाबर को उसके मार्ग में नील-आब और भोरा के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले जाटों से पाला पड़ा जिनके सरदार गक्खर (खोखर) जाट थे (बाबर का इतिहास, पृ० 387, लेखक ए० एस० बेबरिज)। उनमें उनके प्राचीन लड़ाकू एवं लूटमार करने के गुण विद्यमान थे। बाबर लिखता है कि यदि कोई भारतवर्ष में प्रवेश करता है तो उसकी जाट और गुर्जर पहाड़ियों तथा मैदानों में बड़ी संख्या में एकत्र होकर लूटमार करते हैं।
  • 14. आधुनिक नगर रोहतक (हरयाणा) के उत्तर में खण्डहर पड़े हैं जिनको खोखराकोट कहा जाता है अर्थात् खोखरों का किला। इसकी खुदाई बहुत दिनों से चालू है, जिससे सिक्के तथा अनेक वस्तुएं निकली हैं। उनका अध्ययन करके स्वामी ओमानन्द जी आचार्य ने मुझे बताया है कि बहुत समय पहले इस स्थान पर खोखर जाटों का किला और शासन था। उन्हीं के नाम पर यह स्थान खोखराकोट कहलाता है। (लेखक)

खोखर जाटों के गांव - जिला रोहतक में कंसाला, जिला सोनीपत में शामड़ी, जिला जीन्द में धिमाणा गांव में कुछ घर हैं। कंसाला गांव से खोखर जाट जाकर जिला मेरठ, तहसील बागपत में आबाद हो गये। वहां पर इस गोत्र के गांव छपरोली, बदरका, रठोड़ा, हलालपुर, मुकन्दपुर और


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तलवाड़ा हैं। छपरोली खाप का बाहरा है जिसमें 6 अन्य गोत्र के गांव हैं। जिला मथुरा और अलीगढ़ में खोखर जाटों के 52 गांव हैं। जिला मुरादाबाद में 24 गांव इनके हैं। पंजाब में जिला भटिण्डा में मानसा मण्डी के आस-पास 150 गांव खोखर जाट-सिक्खों के हैं। जिला संगरूर में जाखल के निकट खोखर रेलवे स्टेशन है। पाकिस्तान में गुजरात से अटक तक खोखर जाटों की काफी संख्या है जो कि इस्लाम धर्मी हैं। इसी तरह सिंध और बलोचिस्तान में खोखर जाट बड़ी संख्या में आबाद हैं। बलोचिस्तान में खोखरों की काकड़जई नामक बहुत बड़ी खाप है।

सिंध और बलोचिस्तान के जाट मुसलमान जिनमें खोखर जाट अधिक हैं, आज भी पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर बैठते हैं। इन जाटों में स्वतन्त्र रहने की विशेषता आज भी विद्यमान है।


धनखड़-धनकर-धनकड़

गुप्त सम्राट धारण गोत्र के जाट थे जिनका प्रशासन भारतवर्ष में 240 ई० से 528 ई० तक लगभग 300 वर्ष रहा था। इनके शासनकाल को स्वर्ण-युग कहते हैं। (देखो पंचम अध्याय, गुप्त साम्राज्य (धारण गोत्र के जाट शासक प्रकरण)।

इसी तरह धारण वंश में एक प्रसिद्ध योद्धा धनया नामक हुआ जिसकी वीरता व प्रसिद्धि के कारण उसके साथ धारण जाटों का संघ (दल) उसके नाम पर धनखड़ गोत्र कहलाया। अतः धनखड़ गोत्र धारण गोत्र की शाखा है। सबसे पहले इस धनखड़ दल ने वन काटकर मोरवाला बसाया जो कि तहसील दादरी, जिला भिवानी में है। यहां से जाकर इनके 52 खेड़े (गांव) बसे हुये हैं।

धनखड़ जाटों के कुछ गांवों के नाम ये हैं -

तहसील दादरी में मोरवाला, जिला रोहतक में ढाकला, कासनी, फतहपुर माजरा (खुडन), ग्वालीसन, कलोई (सूहरा), छुडानी, करौंथा, शिमली, हुमायूंपुर, बखेता, गोला में 50 घर, झज्जर में 30 घर, जिला सोनीपत में खूबड़ू, गढी, गांवड़ा, नयाबास आदि गांव धनखड़ जाटों के हैं। भरतपुर में बकड़ौली, जिला मेरठ में बिहारी, जिला बिजनौर में फतेहपुर, मंगोलपुर, इस्लाम नगर, काफियाबाद, जिला मुरादाबाद में सालामतपुर आदि धनखड़ जाटों के प्रसिद्ध गांव हैं। भाषा भेद के कारण इनका नाम धनखड़-धनकड़-धनकर, धनोए बोला जाता है। जिला बरेली में दुपहरिया गांव धनोए जाटों का है। फौजी रिपोर्ट के अनुसार जिला अमृतसर में 1500 और पटियाला में 1300 धनोए जाट हैं। जिला झुंझनूं (राजस्थान) में नयाबास गांव धनखड़ जाटों का है।

इस धनखड़ गोत्र में दो प्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं - 1. परम सन्त स्वामी गरीबदास महाराज, 2. रिसलदार बदलूराम विक्टोरिया क्रॉस। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 378, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, भारत में जाट राज्य, 333, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।


1. परम सन्त स्वामी गरीबदास महाराज (1717-1788)

स्वामी गरीबदास महाराज

जन्म - चौ० शिवलाल गांव छुड़ानी जिला रोहतक के निवासी थे जो विशाल सम्पत्ति के मालिक थे। उनकी रानी नामक केवल एक ही लड़की थी जिसका विवाह जि० रोहतक के गांव करौंथा के चौ० हरदेवसिंह धनखड़ के पुत्र बलराम से हुआ था। चौ० शिवलाल के कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने अपने दामाद बलराम को अपने घर रख लिया। बलराम अपनी स्त्री रानी व परिवार सहित अपने गांव करौंथा से जाकर छुड़ानी गांव में चौ० शिवलाल के घर चला गया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1010


12 वर्ष के बाद चौ० बलराम धनखड़ के घर वैशाख पूर्णिमा के दिन वि० संवत् 1774 (सन् 1717 ई०) में रानी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक का नाम गरीबदास रखा गया। बाल्यावस्था में ही इन्हें वैराग्य हो गया था। ईश्वरभक्ति, स्पष्टवादिता, निर्भीकता के लिए आप बहुत शीघ्र प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। इन्होंने हरयाणा में आध्यात्मिकता का और हिन्दुत्व के उच्च सिद्धान्तों का बड़ा प्रचार किया। ये योगी और सिद्ध महात्मा के रूप में विख्यात हुए। मुगल सम्राट् मुहम्मदशाह रंगीला (1719-1748) ने एक बार महात्मा गरीबदास को आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दिल्ली दरबार में सादर आमन्त्रित किया तो आपने बादशाह को तीन बातें समझाईं -

  • 1. सम्पूर्ण राज्य में गोवध शीघ्र बन्द करो।
  • 2. अन्य धर्मियों पर अत्याचार बन्द करो।
  • 3. किसानों के अन्न पर टैक्स बन्द करो व अकालग्रस्तों के लगान में छूट दो।

तीनों बातें शाह ने मान लीं तो आपने आशीर्वाद दिया - जो कोई माने शब्द हमारा, राज करे काबुल कन्धारा। परन्तु मुल्लाओं ने यह कहकर कि काफिर का कहा मानना नापाक हो जाना है शाह को यह तीनों बातें मानने से रोक दिया। बन्दी बना लेने तक का षड्यन्त्र जब महात्मा गरीबदास को ज्ञात हुआ तो पांच सेवकों सहित चुपचाप ये दिल्ली से आ गए। चलते समय यह शाप दे आये - दिल्ली मण्डल पाप की भूमा - धरती नाल जगाऊं सूमा। (दिल्ली पाप की भूमि बन गई और यहां पर शत्रुओं के घोड़ों के खुरों की खूब धूल उड़कर रहेगी)। यही हुआ, अगले ही वर्ष सन् 1739 ई० में नादिरशाह के आक्रमण ने दिल्ली को रौंद डाला, दिल्ली की जनता को मौत के घाट उतार दिया, शाही खजाने को तथा नागरिकों की सम्पत्ति को लूटकर ले गया। दिल्ली साम्राज्य फिर उभर न सका।

सन्त गरीबदास, सन्त कबीर के सिद्धान्तों के अनुयायी थे। वे ग्रामीणों को उपदेश करते थे -

गरीब गाड़ी बाहो घर रहो, खेती करो खुशहाल।
साईं सिर पर रखिये तो सही भक्ति हरलाल ॥

दास गरीबा कहे दर्वेशा, रोटी बांटो सदा हमेशा। इस तरह के अनेक उपदेशों से हरयाणावासी आपसे हमेशा स्नेह करने लगे। आपकी भाषा सरल हिन्दी होती थी परन्तु गहरे रूप से प्रभावोत्पादक थी। इस तरह की आपकी 12000 वाणियों का विशाल संग्रह गरीबग्रंथ के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे रत्न सागर भी कहते हैं। श्री 1008 स्वामी गरीबदास के नाम से गरीबदासी एक पंथ चल पड़ा। मगर उनका अलग धर्म चलाने का कोई इरादा नहीं था। उनके उपदेशों में ईश्वर-भक्ति कबीर से अधिक बढ़ी-चढ़ी थी। इस पंथ की विशेष मुक्तिपुरी श्री छुड़ानी धाम मानी जाती है। दिल्ली, हरद्वार, ऋषिकेश, काशी आदि सभी तीर्थ स्थानों में इस पंथ के मठ तथा कुटियां बनी हुई हैं। हरयाणा, यू.पी., पंजाब हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और गुजरात में श्री गरीबदास के नाम पर लगभग 110 आश्रम हैं जहां पर आपके अनुयायी आपके उपदेश सुनाते हैं।

सन्त गरीबदास का विवाह चौ० नादरसिंह दहिया, गांव बरौना जिला सोनीपत की पुत्री मोहिनी से हुआ था। उनके चार पुत्र जैतराम, तुरतीराम, अंगदराम और आसाराम और दो पुत्रियां दिलकौर और ज्ञानकौर ने जन्म लिया। इनमें जैतराम जी के जब जगन्नाथ पुत्र हुआ तब वह गृहस्थ छोड़कर नागा साधु हो गये। करौंथा ग्राम निवासियों के आग्रह पर जैतराम जी करौंथा गांव में रहने लग गये। कुछ ही समय पश्चात् इनका सन् 1880 में महन्तपुर जि० जालन्धर में देहान्त हो गया। वहां आपकी छतरी बनी हुई है। गांव करौंथा में भी आपकी अस्थियां लाकर उन पर


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1011


छतरी बनाई गई। सन्त गरीबदास के दूसरे पुत्र तुरतीराम छुडानी की गद्दी पर बैठे जो 40 वर्ष तक विराजमान रहे। संवत् 1774 (सन् 1817) में आपका स्वर्गवास हो गया। स्वामी गरीबदास की दोनों पुत्रियां पूरी आयु कुंआरी रहकर ईश्वरभक्ति करती रहीं। महन्त तुरतीराम जी के पुत्र महन्त दानीराम जी संवत् 1874 में इस गद्दी पर बैठे और 13 वर्ष तक रहकर संवत् 1887 (सन् 1830) में स्वर्गवासी हुए। आपके बड़े पुत्र शीलवन्त उपनाम श्रीराम जी इस गद्दी के महन्त हुए जो 43 वर्ष तक रहकर संवत् 1930 (सन् 1873) में स्वर्गवासी हुए। आपके बड़े पुत्र शिवदयाल जी इस गद्दी के महन्त हुए। आपके कोई सन्तान न थी इसलिए आपने अपने भाई केशो जी के पोते सन्तोषराम के बेटे रामकृष्णदास जी को संवत् 1954 (सन् 1897) में गोद ले लिया। इसके बाद आप और 10 वर्ष तक जीवित रहकर संवत् 1964 (सन् 1907) में स्वर्ग सिधार गये। इनके पश्चात् महन्त रामकृष्णदास जी संवत् 1964 में इस गद्दी पर बैठे। आपके दो पुत्र हैं - 1. गंगासागर का जन्म 1990 वि० (सन् 1933) में हुआ। 2. दूसरा पुत्र दयासागर है। श्री गंगासागर जी छुडानी धाम के महन्त रहे परन्तु आपने गद्दी त्याग दी जिसके बाद महन्त दयासागर इस गद्दी पर विराजमान हैं। आपने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अनुज कमलसागर का तिलक कर दिया है।

छुडानी धाम में आजकल एक बहुत बड़ा गुरुद्वारा तथा स्वामी गरीबदास जी की छतरी देखने योग्य है। स्वामी गरीबदास जी के भाई-बहन के परिवार के छुड़ानी गांव में 60 घर हैं जिनको साध कहते हैं।


2. रिसलदार बदलूराम विक्टोरिया क्रास (मरणोपरान्त)

रिसलदार बदलूराम

रिसलदार बदलूराम धनखड़ गोत्र के जाट थे जिनका गांव ढाकला जिला रोहतक है। प्रथम महायुद्ध में आप 29 लॉन्सर (14 नं०) रिसाला में थे जो इस युद्ध में मध्यपूर्व में लड़ रहा था। आपको वहां 29 लॉन्सर में लगा दिया गया। 13 सितम्बर 1918 को आपके स्कॉड्रन (Squadron) ने जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर शत्रु के शक्तिशाली मोर्चे पर धावा कर दिया। जब आप शत्रु के मोर्चे के निकट पहुंचे तो आपके स्कॉड्रन पर बायें ओर की एक छोटी पहाड़ी पर से, जहां शत्रु के 200 सैनिकों का मोर्चा था, सख्त फायर करने लगा। इस गोलाबारी से आपके जवान मरने तथा घायल होने लगे। यह देखकर रिसलदार बदलूराम ने अपने साथ 6 जवान लेकर, खतरे की परवाह न करते हुए, वीरता से झपटकर शत्रु के उस मोर्चे पर धावा बोल दिया तथा वहां पर अपना अधिकार कर लिया। जब आपने शत्रु की एक मशीनगन को जा पकड़ा तब आप प्राणघातक घायल हो गये जिससे आप वहीं वीरगति को प्राप्त हुए। किन्तु आपके मरने से पहले शत्रु ने आत्मसमर्पण कर दिया था। आपकी यह महान् वीरता थी जिसके लिए ब्रिटिश सरकार ने आपको सर्वोच्च पदक विक्टोरिया क्रॉस (मरणोपरान्त) से सम्मानित किया। आप भारतीय सेना में सबसे पहले विक्टोरिया क्रॉस पदक प्राप्त करने वाले वीर योद्धा हैं। जाट जाति को आप पर बड़ा गौरव है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1012


चाहर, छीलर-छिकारा, नरवाल, नारा

चाहर

यह चाहर जाटवंश उस चोल जाटवंश की शाखा है जिसका शासन रामायणकाल में दक्षिणी भारत में था और महाभारतकाल में इनका राज्य उत्तर दिशा में था। चोल देश के नरेश ने महाराजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में काफी धनराशि भेंट की थी। (देखो तृतीय अध्याय, चोलवंश प्रकरण)।

आठवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में चोलवंशज जाटों का राज्य था जिसमें तमिलनाडु और मैसूर के अधिकांश प्रदेश शामिल थे। 14वीं शताब्दी में इनका राज्य मलिक काफूर ने जीत लिया था। (अधिक जानकारी के लिए देखो षष्ठ अध्याय, चोल जाटवंश प्रकरण)।

13वीं शताब्दी में गुलाम वंश के शासनकाल में जांगल प्रदेश (बीकानेर) में सीधमुख नामक स्थान पर जाट राजा मालदेव चाहर का शासन था। उसकी पुत्री राजकुमारी सीमादेवी ने मुसलमान सेनापति से अपना धर्म बचाने के लिए बड़ी वीरता से युद्ध किया और उसके हाथ न आई तथा अपने परिवार सहित बचकर निकल गई। (इसकी अधिक जानकारी के लिए देखो, अध्याय सप्तम, चाहर गोत्र की राजकुमारी सीमादेवी की अद्भुत वीरता प्रकरण)।

चाहर लोगों में रामकी चाहर बड़ा वीर योद्धा हुआ। उसने सोगरिया गढ़ी के राजा खेमकरण के साथ मिलकर मुगल सेनाओं पर आक्रमण करके उन्हें बड़ा तंग किया था। चाहर जाटों ने महाराजा सूरजमल, की, मुगलों के विरुद्ध युद्धों में बड़ी सहायता की थी। आगरा कमिश्नरी में चाहर जाटों के 242 गांव हैं जो चाहरवाटी के नाम से सब एक ही क्षेत्र में बसे हुए हैं। सिनसिनवाल, खूंटेल तथा सोगरवार जाटों की भांति वहां पर चाहर जाट भी फौजदार कहलाते हैं। फौजदार का खिताब बादशाहों की ओर से उन लोगों को दिया जाता था जो कि किसी प्रदेश के किसी भाग की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेते थे। तरावड़ी (आगरा कमिश्नरी) के आस-पास 150 गांव चाहर जाटों के हैं जिनको फौजदार कहते हैं। जिला मुरादाबाद में चाहर जाटों की बड़ी संख्या है। इस जिले के जटपुरा गांव के चाहर अपने पूर्ववर्ती रतनाथ जोगा का नाम बड़े आदर्शपूर्वक लेते हैं जो कि फिरोजपुर का निवासी था। उसने इधर आकर सम्भल के समीप सौंधन नामक किले को जीतकर वहां ही रहने लग गया था। यह आठवीं शताब्दी की घटना है। किल्ली गांव के पास जोगा पीर की समाधि पर फाल्गुन बदी चतुर्थी के दिन एक मेला भरता है। इस दिन वहां कई हजार जाट एकत्र होते हैं, विशेषकर चाहर जाट बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। इस पीर की चाहर परम्परा ने ही सिंहपुर, लखौरी, भारथल, मन्नीखेड़ा, मुण्डाखेड़ी, फूलपुर, रमपुरा, चिदावली, गहलुवा, गुलालपुर, सेण्डा, मुकन्दपुर, नारायणा, काजीखेड़ा, पौटा नामक गांव बसाए।

जिला बुलन्दशहर में चित्सौना गांव में चाहर हैं। जिला मुजफ्फरनगर में चाहरों के कई गांव बहादुरपुर, अफीमपुर, चोरवाला, सेनी, सयदपुर आदि हैं। मेरठ में सादपुर गांव चाहरों का है। बिजनौर जिले में कई गांव चाहर जाटों के हैं - रायपुर, भगीन, मारगपुर, भूना की गांवड़ी आदि। पहाड़ी धीरज देहली में हरफूलसिंह चाहर के नाम पर हरफूल बस्ती आबाद है। पंजाब के अमृतसर, जालन्धर, फिरोजपुर, नाभा, कपूरथला, पटियाला, मालेरकोटला में चाहर जाटों की बड़ी संख्या है जो अधिकतर सिक्ख धर्म के अनुयायी हैं। पाकिस्तान में गुजरांवाला में चाहर जाट हैं जो कि मुसलमान हैं। महाराजा रणजीतसिंह से पहले चाहरों के कई छोटे-छोटे राज्य एवं जागीरें पंजाब में थीं जो महाराजा रणजीतसिंह ने सिक्ख राज्य में मिला लीं।

राजस्थान में चाहर जाटों के गांव सिखाली, सियाऊ, सूऊ, तोपनी, लाड़नों के पास है। हरयाणा के हिसार में माढी, खढकर, पीलीजेहां गांव चाहर जाटों के हैं। जिला रोहतक तहसील झज्जर में माछरोली आधा (यह आधा कीन्हा जाटों का है), सिलाना, सिलानी, कन्होरी (1/3) गांव चाहर गोत्रों के हैं। यहां पर चाहर खाप में 17 गांव हैं, जिनका प्रधान गांव सिलानी है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1013


छीलर-छिकारा

इतिहासकारों ने यह सिद्ध किया है के छीलर-छिकारा चीमा जाटों के वंशज हैं तथा उसी की शाखा हैं। पंजाब में चीमा एवं छिकारे जाट एक ही स्थान पर बसे हुए हैं।

चीमा चन्द्रवंशी जाट गोत्र है। यह गोत्र वैदिककाल से है। चीमा जाट आर्यावर्त से चीन देश में गए और वहां बस्तियां बसाईं तथा राज्य किया। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, चीना या चीमा प्रकरण)।

छीलर व छिकारा एक ही नाम है, केवल भाषा-भेद से दो नाम बोले जाने लगे। छीलर व छिकारा एक ही रक्त के हैं, इसीलिए इनके आमने-सामने तथा भानजा-भानजी के आपस में रिश्ते-नाते नहीं होते हैं। यह इन दोनों का रक्त भाई का ठोस प्रमाण है। जिला रोहतक में छिकारा जाटों के गांव - 1. कानौंदा 2. मुकन्दपुर 3. खेरपुर 4. लडरावण 5. खेड़ी आसरा। दिल्ली प्रान्त में - जौंती, टटेसर, निजामपुर। जिला मेरठ में - 1. खानपुर 2. महोड़ा 3. महपा 4. नानू। जिला मुरादाबाद व बिजनौर में छिकारा जाटों के कई गांव हैं।

अमरोहा के पास कीलबकरी नामक रियासत छिकारों की थी। कमालपुर और बस्तापुर छिकारा जाटों के बड़े गांव हैं। जिला बिजनौर में 1. बाहुपुरा 2. ऊमरी 3. पामार 4. गजरोला गांव छिकारा जाटों के हैं। जिला सोनीपत में करेवड़ी गांव छिकारा जाटों का है। छीलर जाटों के गांव जिला रोहतक में बामनौली और बराही हैं। जिला सोनीपत में बड़ा गांव जूआं छिकारा जाटों का है।


नरवाल

नरवाल जाट गोत्र चन्द्रवंशी नोहवारों की शाखा है। चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र अनु से 9वीं पीढ़ी में महाराजा उशीनर हुये जिनके नव पुत्र ने नवराष्ट्र पर राज्य किया। महाराजा नव की प्रसिद्धि के कारण उनके नाम पर नव गोत्र प्रचलित हुआ जो कि जाट गोत्र है। भाषा भेद से इन जाट लोगों का नाम नव, नौवार, नौहवार पड़ गया जो कि एक ही है। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, नव या नौवार प्रकरण)। इन नौहवार जाटों में नरहरी क्षत्रिय के नाम पर इसी वंश के एक समूह का नाम नरवाल प्रचलित हुआ जो कि नौहवारों की शाखा है। नौहवार और नरवाल जाटों के जिला मथुरा में हसनपुर, बरौठ, बाजवा आदि 8 गांव है। हसनपुर सबसे बड़ा गांव है, यहीं से नरवाल हरयाणा और उत्तरप्रदेश में आबाद हुये।

जिला मेरठ में बढ़ला, तातारपुर, बहादुरपुर। जिला बिजनौर में कुम्हैड़ा। जिला मुजफ्फरनगर में शामली, लालोखेड़ा, मन्दीठ, कसीरवा 1/2, सोहनी खेड़ी। जिला अलीगढ़ में मीरपुर, गादोली, भोजाका, मंढ़ा, झरयाका और मरहला गांव नरवाल जाटों के हैं। देहली प्रान्त में सन्नौठ नरवाल जाटों का प्रसिद्ध गांव है। जिला सोनीपत तहसील गोहाना में कथूरा, बणवासा, कहल्पा रिठाल 1/2 और रिढाणा गांव नरवाल जाटों के हैं। जि० जींद में गांव जोशी, चूड़पुर, झमोला 1/3, भड़ताना 1/2 और जि० करनाल में खेड़ी नरू, चड़ावा, भालसी आदि गांव नरवाल जाटों के हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1014


नारा

यह प्राचीनकाल का गोत्र है। महाभारत काल के बाद विदेशों में जाटों का शासन रहा। जाटों का मध्यपूर्व में 80 जाट गोत्रों का निवास व शासन रहा। इसमें नारा जाटों का शासन व निवास था (देखो चतुर्थ अध्याय मध्यपूर्व में जाट गोत्रों की शक्ति, शासन तथा निवास सूची)।

यूनानी भाषा में नारा जाटों को नाराय (Nareae) लिखा है।1 पश्चिमी देशों में एक शक्तिशाली यवन2 सम्राट् ने नाराका (नारा जाट) लोगों पर शासन किया। असीरिया3 के शिलालेखों पर नारा जाटों को नैरी (Nairi) लिखा है।4 इन लेखों से प्रमाणित है कि नारा जाटों का शासन व निवास इन देशों में था। यह नहीं कहा जा सकता कि नारा जाट विदेशों में कहां-कहां रह गये। यह एक खोज का विषय है।

जिला रोहतक में मदाना कलांमदाना खुर्द नारा जाटों के गांव हैं जो कि अहलावत खाप में हैं। जिला अलीगढ़ में लगभग 80 गांव नारा जाटों के हैं।

गढ़वाल, राणा

गढ़वाल

गढ़वाल जाट गोत्र तोमर या तंवर वंश की शाखा है। चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र तुर्वसु के नाम पर क्षत्रिय आर्यों का दल तंवर या तोमर जाट वंश प्रचलित हुआ था (देखो तृतीय अध्याय, तंवर-तोमर प्रकरण)।

अनंगपाल के समय में गढ़वाल जाटों का राज्य गढ़मुक्तेश्वर में था। एक गढ़वाल जाट सरदार मुक्तासिंह ने गढ़मुक्तेश्वर का निर्माण कराया था। जब पृथ्वीराज चौहान दिल्ली का शासक हुआ तो गढ़वाल जाटों के साथ उसका युद्ध हुआ। इन्होंने बड़े पराक्रम के साथ चौहानों को पीछे धकेल तो दिया, किन्तु स्थिति ऐसी हो गई कि इन जाटों को गढ़मुक्तेश्वर छोड़ना पड़ा और ये वहां से राजपूताने की ओर चले गये। राजपूताना में आकर इन जाटों ने झुंझनूं के निकटवर्ती प्रदेश में केहड़, भाटीवाड़, छावसरी पर अपना अधिकार जमा लिया। यह घटना 13वीं सदी की है। उस समय झुंझनूं में जोहिया जाट राज्य करते थे। जिस समय मुसलमान नवाबों की शक्ति इधर बढ़ने लगी तो इन गढ़वाल जाटों का उनसे युद्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप इनको वहां से तितर-बितर होना पड़ा। इनमें से एक दल कुलोठ पहुंचा, जहां चौहानों का अधिकार था। लड़ाई में विजय प्राप्त करके इन जाटों ने कुलोठ पर अपना अधिकार जमा लिया।5 इन गढ़वाल जाटों की संख्या राजस्थान, हरयाणा तथा यू० पी० के कई जिलों में है। इस गढ़वाल जाट गोत्र का वीर योद्धा कम्पनी हवलदार मेजर छेलूराम था जिसका वर्णन इस प्रकार है -


1,2,3,4. क्रमशः 168, 287, 287 व 162, जाट्स दी एन्शेन्ट् रूलर्स - लेखक बी.एस. दहिया|
2. यवन - चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के एक पुत्र तुर्वसु की सन्तान यवन कहलाई, ये क्षत्रिय आर्य तथा जाट हैं। (महाभारत आदिपर्व, अध्याय 85वां, श्लोक 34-35, पृ० 265)।
3. असीरिया - आज का कुर्दिस्तान प्रदेश है जो ईरान और ईराक के बीच में स्थित है। वहां पर जाट मुसलमान बड़ी संख्या में हैं।
5. जाट इतिहास पृ० 554, 595, लेखक ठाकुर देशराज।


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2. कम्पनी हवलदार-मेजर छेलूराम विक्टोरिया क्रास (मरणोपरान्त)

कम्पनी हवलदार-मेजर छेलूराम का जन्म 10 मई 1905 ई० को दिनोद गांव जि० भिवानी के किसान चौधरी जयराम गढवाल गोत्री जाट के घर हुआ। आप 10 मई 1926 को राजपूताना राइफल रेजीमेंट में भरती हुए और द्वितीय विश्वयुद्ध में 4 राजपूताना पलटन के साथ युद्ध के मैदान में गये। आपकी पलटन 5 इन्फेन्ट्री ब्रिगेड में शामिल थी। आपकी पलटन ने 19 अप्रैल 1943 की रात्रि को शत्रु के शक्तिशाली मोर्चों पर जो दजेबल गर्सी पहाड़ी (Djbel Garci feature) पर थे, आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में सी० एच० एम० छेलूराम ने अद्भुत वीरता, निश्चय और कर्त्तव्य पालन का आदर्श प्रदर्शन किया। शत्रु के मोर्चों की ओर बढ़ते हुए अगली पंक्ति के सैनिक, शत्रु की मशीनगनों के फायर से रुक गये। यह देखकर वीर छेलूराम अपनी टोमीगन लिये हुए शत्रु के प्रचण्ड मशीनगन और मोरटर फायर में से एकदम झपटकर आगे बढ़े और अकेले ने शत्रु के 4 सैनिकों को मारकर यह प्रचण्ड फायर बन्द करा दिया, जिससे आगे को बढ़ना जारी हो गया। जब अगली कम्पनियां शत्रु के मोर्चों के समीप पहुंच चुकी थीं, तब शत्रु ने मशीनगनों और मोरटरों का प्रचण्ड फायर खोल दिया, जिससे कम्पनी कमांडर प्राणघातक घायल हो गया।

सी. एच. एम. छेलूराम ने उस अफसर को एक सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। इस कार्य के दौरान वह स्वयं भी घायल हो गया। तब उसने अपनी कम्पनी की कमान संभाली और उसे शीघ्र संगठित किया। शत्रु ने भी शीघ्रता से भारी जवाबी हमला कर दिया। हाथों-हाथ के इस भयंकर युद्ध में वीर छेलूराम ने एक अद्भुत वीरता दिखाई जो कि बड़ी प्रशंसनीय है। उसने एक स्थान से दूसरे स्थान तक झपटकर अपने जवानों को एकत्र किया और चिल्लाकर कहा कि जाटो, पीछे नहीं हटना है, हम सब आगे ही बढ़ेंगे। अपने जवानों को जोश दिलाकर शत्रु के जवाबी हमले को संगीनें मार-मार कर वापिस धकेल दिया। इस हाथों-हाथ युद्ध में वीर छेलूराम प्राणघातक घायल हो गया। उसने अपने को पीछे ले जाने से इन्कार कर दिया और अन्तिम सांस तक अपने जवानों को जोश दिलाता रहा। कुछ देर पश्चात् वह वीरगति को प्राप्त हुआ। वीर छेलूराम के इस तेजस्वी नेतृत्व के कारण हमारे सैनिकों का एक अति आवश्यक स्थान पर कब्जा हो गया।

सी. एच. एम. छेलूराम की मत्यु 19 अप्रैल 1943 की रात्रि के आक्रमण में हो गई और 20 अप्रैल 1943 को ब्रिटिश सरकार ने आपको सर्वोच्च पदक विक्टोरिया क्रॉस (मरणोपरान्त) से सम्मानित किया। भारतीयों तथा जाट जाति को आप पर बड़ा गौरव है।

राणा

सूर्यवंशी बाल या बालियान जाट गोत्र की कई शाखाओं में सिसौदिया और राणा शाखा भी है। इस बलवंश का शासन सन् 407 से 757 ई० तक, गुजरात में माही नदी और नर्मदा तक, मालवा का पश्चिमी भाग, भड़ोच, कच्छ, सौराष्ट्र और काठियावाड़ पर रहा। इस राज्य की स्थापना करने वाला भटार्क नामक वीर जाटवंशी था। इसने अपने बल वंश के नाम पर गुजरात में काठियावाड़ में बलभीपुर राज्य की स्थापना की। सन् 757 ई० में सिंध के अरब शासक के सेनापति अबरूबिन जमाल ने इस बलभीपुर राज्य को समाप्त कर दिया। यहां से निकलकर बलवंश के गुहदत्त या गुहादित्य बाप्पा रावल ने अपने नाना राजा माना मौर्य, जो कि चित्तौड़ का शासक था, को मारकर चित्तौड़ का राज्य हस्तगत कर लिया। बाप्पा रावल ने गुहिल या गुहलोत वंश मानकर


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शासन किया। यह गुहिल बलवंश की शाखा है। इसी वंश की सिसौदिया एवं राणा प्रचलित हुई। (देखो तृतीय अध्याय, बल-बालियान जाटवंश प्रकरण)।

एकलिंग माहात्म्य में - अथ कर्णभूमिभर्तुशाखा द्वितीयं विभाति लोके, एका राऊल नाम्नी राणा नाम्नी परा महती। सिसौदे गांव के मूल पुरुष कर्णसिंह से ही रावल और राणा उपाधियों का प्रचलन यद्यपि इतिहासकार मानते हैं। किन्तु सिसौदा वालों की रणरसिकता से ही यह प्रचलित हुआ है । किन्तु सिसौदिया की शाखा का नाम राणा क्यों पड़ा, इसकी गहराई में जाने से ज्ञात हुआ कि सन् 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर चढाई करके वहां के शासक राजा रतनसिंह को, उसकी सुन्दर रानी पद्मिनी को प्राप्त करने हेतु, युद्ध में हरा दिया। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के लेख अनुसार बाप्पा रावल के नाम पर चली आने वाली रावल शाखा का शासन राजा रतनसिंह के मरने पर मेवाड़ पर से समाप्त हो गया। कुछ वर्षों के पश्चात् सिसौदिया हमीर ने युद्ध करके चित्तौड़ पर फिर अधिकार कर लिया। फिर अलाउद्दीन खिलजी के मरने तक चित्तौड़ पर आक्रमण नहीं किया। रण में रुचि लेने के कारण हमीर ने राणा पदवी (उपाधि) धारण की। महाराणा अधिक सम्मान का शब्द है।

यह राणा उपाधि केवल उदयपुर राजघराने के लिए ही नहीं, अपितु पंवार जाटवंश के आबूनरेश रावल और उनके निकट परिवार के दान्ता वाले पंवारों का राणा पद यह प्रकट करता है अनेक शूरवीर वंश राणा उपाधि से सम्बोधित हुए हैं। राणा एक खिताब है, वंश नहीं है। उदाहरणार्थ जाट क्षत्रियों में काकराणा, आदराणा, तातराणा, जटराणा, शिवराणा, चौदहराणा आदि कई वंश अपनी राणा उपाधि पर गर्व करते हैं। इसी भांति ताजमहल आगरा के समीप बमरौली के निवासी जाट केवल राणा नाम से अपना परिचय देते हैं। उन्हीं में से गोहद के राणा लोकेन्द्रसिंह के पूर्वजों ने ग्वालियर और गोहद पर अधिकार करके प्रजातन्त्री शासन स्थिर कर लिया था। धौलपुर राजाओं का गोत्र भमरौलिया था परन्तु उनकी उपाधि राणा थी जो कि राणा नाम से बोले जाते थे। (देखो अष्टम अध्याय, धौलपुर जाट राज्य)। सूर्यवंशी काकुस्थ काक वंश की शाखा काकराणा, चौदहराणा, ठकुरेले हैं।


काकराणा जाटों की भूतपूर्व किला साहनपुर नामक रियासत जिला बिजनौर में थी। इस रियासत के काकराणा जाटों ने सम्राट् अकबर की सेना में भरती होकर युद्धों में बड़ी वीरता दिखाई और अपनी राणा उपाधि का यथार्थ प्रमाण देकर मुगल सेना को चकित कर दिया। इनका वर्णन आईने अकबरी में है। सहनपुर रियासत में काकराणा जाटों के चौदह महारथी (वीर योद्धा) थे जिनके नाम से इस वंश की शाखा चौदहराणा भी है जो पर्वों के अवसर पर साहनपुर रियासत में मूर्ति बनाकर पूजे जाते हैं । (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, काकुस्थ या काक वंश प्रकरण)।

जटराणा - इस वंश की जाटू या जटराणा नाम पर ख्याति है। इनके मुजफ्फरनगर में दतियाना, खेड़ा गढी के समीप 12 गांव हैं। जिला रोहतक में गढ़ी कुंडल, कुजोपुर, सैदपुर, सोहटी गांव हैं। जिला बिजनौर में मायापुर, सोफतपुर, सहारनपुर में उदलहेड़ी, नंगला, सलारू, मन्नाखेड़ी जटराणा जाटों के प्रमुख गांव हैं।


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गुहिलोत-गुहिलावत-मुण्डतोड़-गहलावत

ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति की 13 कन्याओं का विवाह सूर्यवंशी महर्षि कश्यप के साथ हुआ था। उनमें से एक का नाम दिति था जिससे एक पुत्र हिरण्यकशपु हुआ जिसके 5 पुत्रों में से एक का नाम प्रहलाद था। प्रहलाद का पुत्र विरोचन था जिसका पुत्र बलि था जो बड़ा प्रतापी सम्राट् था। इनकी प्रसिद्धि के कारण सूर्यवंशी क्षत्रियों का संघ उनके नाम पर बल या बलियान जाटवंश प्रचलित हुआ जो कि वैदिक काल से है। इसी बलवंश के वीर योद्धा भटार्क ने कच्छ-कठियावाड़ में अपने वंश के नाम पर बलभीपुर राज्य की स्थापना की। इस नगर का दूसरा नाम बला था। वहां पर इस बल वंश का शासन सन् 470 से 757 ई० तक रहा। सन् 757 ई० में सिंध के अरब शासक हशाब-इब्न अलतधलवी के सेनापति अबरूबिन जमाल ने गुजरात-काठियावाड़ पर चढाई करके बल्लभी के इस बलवंश को समाप्त कर दिया। वहां से निकलकर वलवंशी गुहिल वंश प्रवर्तक गुहदत्त या गुहादित्य बाप्पा रावल उत्पन्न हुए। टॉड ने भी इस मत की पुष्टि की है। गुहादित्य बाप्पा रावल ने अपने नाना मान मौर्य जो कि चित्तौड़ का शासक था, को मारकर चित्तौड़ का राज्य हस्तगत कर लिया। इसने अपने बलवंश के स्थान पर गुहिलवंश के नाम पर अपना शासन आरम्भ किया। बलवंश की शाखा - गुहिल, सिसौदिया, राणा, गहलौत, मुण्डतोड़, गहलावत हैं। (देखो तृतीय अध्याय बल-बालियान प्रकरण)।

जाट इतिहास लेखक लेफ्टिनेण्ट रामसरूप और हरयाणा सर्वखाप इतिहास रिकार्ड के अनुसार -

बलवंशी बाप्पा रावल का पिता शत्रु ने मार दिया। उसकी माता वहां से निकलकर दूसरे स्थान पर जा पहुंची जहां पर इस रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। उस पुत्र का नाम बाप्पा रावल रखा गया। रानी के मरने पर उसका पालन-पोषण बड़नगर की कमला ब्राह्मणी ने किया। उसको शत्रुओं से बचाने के लिए एक गुफा में छिपाकर रखा गया और उसका नाम गोहदित्त या गुहादित्ता रख लिया गया। शक्ति प्राप्त करके भीलों की मदद से इसने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।

राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 23-26, लेखक जगदीशसिंह गहलोत (राजपूत) ने गहलोत राजवंश के विषय में लिखा है -

इस वंश का सबसे पहला शिलालेख जो मिला है, उससे यह अनुमान किया जाता है कि वि० सं० 625 (सन् 568) के आसपास मेवाड़ में गुहिल (गुहदत्त) नाम का एक प्रतापी सूर्यवंशी राजा हुआ जिसके नाम से उसका वंश गुहिल वंश कहलाया। संस्कृत शिलालेखों और पुस्तकों में इस वंश के नाम गुहिलपुत्र, गुहिलोत, गौहिल्य मिलते हैं। भाषा में ग्रहिल, गहलोत और गेलोन प्रसिद्ध हैं।

ये एक ही शब्द हैं। देश के गौरव, मेवाड़ के महाराणा इसी गहलोत वंश के थे। मेवाड़ (उदयपुर) का यह राजवंश लगभग वि० सं० 625 (568 ई०1) से लेकर देश की आजादी तक, समय के अनेक हेरफेर सहता हुआ इसी प्रदेश पर लगभग 1380 वर्ष तक राज्य करता रहा। मेवाड़ के गहलोत वंशी शासक विक्रम की 11वीं शताब्दी तक अर्थात् गुहिल (गुहदत्त) (1) से रणसिंह (33) तक राजा की उपाधि धारण करते रहे हैं। रणसिंह के खेमसिंह, राहप और माहप नामक तीन पुत्र थे। राजकुमार राहप को सीसौदे गांव की जागीर मिली जिसके नाम से ये सीसोदिया कहलाने लगे और उसने राणा उपाधि धारण की। ज्येष्ठ पुत्र क्षेमसिंह या खेमसिंह मेवाड़ की गद्दी पर


1. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव-खण्ड) पृ० 120-121, लेखक ठाकुर देशराज ने लिखा है कि चित्तौड़ में मान मौर्य का जो शिलालेख मिला है उस पर संवत् 770 अंकित है अर्थात् सन् 713 में राजा मान आनन्द से चित्तौड़ पर राज्य कर रहा था। किन्तु टॉड राजस्थान सन् 729 में बाप्पा रावल को चित्तौड़ का अधीश्वर होना मानता है।


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बैठा। सं० 1236 के लगभग मेवाड़ का राज्य क्षेमसिंह के ज्येष्ठ पुत्र सामन्तसिंह के हाथ से निकल गया तब उसने डूंगरपुर राज्य की स्थापना की परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् क्षेमसिंह के दूसरे पुत्र कुमारसिंह ने अपने पूर्वजों के मेवाड़ राज्य पर फिर अधिकार कर लिया। क्षेमसिंह से रतनसिंह (42) तक ये नरेश रावल कहलाये। रावल रतनसिंह से सं० 1360 (सन् 1303 ई०) में बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ छीन लिया और रतनसिंह के काम आने पर रावल शाखा की समाप्ति हुई। अतः सीसौदिया की शाखा के राणा हमीर ने सं० वि० 1382 (सन् 1325) के आसपास बादशाही हाकिम राजा मालदेव सोनगर की पुत्री से विवाह करके, युक्ति द्वारा पुनः चित्तौड़ पर अपना कब्जा कर लिया। तब से यहां के नरेशों की उपाधि राणा हुई और गांव सीसौदा के निवासी होने से सिसौदिया कहलाने लगे। जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 119-124 पर लेखक ठाकुर देशराज ने लिखा है कि - मौर्य जाटों का राज्य चित्तौड़ पर 184 ई० पू० से 713 ई० तक 897 वर्ष रहा। और इसी मौर्य की शाखा राय नामक का शासन सिंध पर 184 ई० पू० से 660 ई० तक 844 वर्ष रहा। (देखो, पंचम अध्याय, मगध साम्राज्य पर मौर्य-मोर वंशज जाट नरेशों का शासन, प्रकरण)।

बप्पा रावल जिसे कि गहलोतों का विक्रमादित्य कहना चाहिये, चित्तौड़ के मौर्य राजा मान के ही यहां सेनापति बना था। फिर उसने सन् 713 में चित्तौड़ को अपने कब्जे में कर लिया।

राजा मान बौद्धधर्म का अनुयायी था और इस प्रान्त में हारीत नाम का साधु नवीन हिन्दू धर्म का प्रचार कर रहा था। श्रौत चरितामृत में भी इस बात को स्वीकार किया है कि हारीत ने बाप्पा को इसलिए काफी मदद दी कि वह उनके मिशन को पूरा करने के लिए योग्य पुरुष था। हारीत अपने षड्यन्त्र में सफल हुआ। सारी सेना और राज्य की जनता राजा मान मौर्य के विरुद्ध हो गई और मान से चित्तौड़ छीन लिया गया। सी० वी० वैद्य के अनुसार बाप्पा रावल चित्तौड़ के मौर्य राजा का सामन्त था। रावल के माने छोटा राजा के होते हैं। उदयपुर के उत्तर में नागदा नाम का छोटा सा गांव है। वहीं बाप्पा रावल राज्य करता था। आसपास में बसे हुए भीलों पर उसका राज्य था। बौद्ध धर्म के विरोधी हारीत ने उसे शिक्षा-दीक्षा दी। नागदा के आसपास के भीलों को उसका सहायक बना दिया। वह अपनी भीलों की एक सेना के साथ मान राजा के यहां नौकर हो गया। उधर हारीत, राजा मान के विरुद्ध काम करता रहा। अवसर पाकर बौद्ध राजा मान को हटाकर बाप्पा को चित्तौड़ का शासक बना दिया। धीरे-धीरे मेवाड़ से वे सब राज्य नष्ट हो गये जो मौर्य के साथी थे। सिंध के साहसी राय मौर्य जाट का राज्य चच ब्राह्मण ने और चित्तौड़ का मौर्य जाट राज्य हारीत ब्राह्मण ने नष्ट कर दिया। इस तरह से सिंध और मेवाड़ से मौर्य जाट राज्य को समाप्त ही कर दिया गया। चीनी यात्री ह्वेनसांग और सी० वी० वैद्य ने सिंध और चित्तौड़ के इन राजाओं को मौर्य ही लिखा है। जाट गहलोत और राजपूत गहलोत गोत बाप्पा रावत गुहिल से दो श्रेणियां हो गईं।

नोट - गहलोत जाट और गहलोत राजपूत दोनों बल या बालियान जाट वंश की शाखा है और दोनों का रक्त एक ही है। बाप्पा रावल जाट था। उसकी कुछ पीढ़ी बाद ये गहलोत जात शासक, राजपूत संघ में मिलकर राजपूत कहलाने लगे।

गहलावत या गहलोत गोत्र के जाटों की बड़ी संख्या है। इस गोत्र के जाटों का ब्राह्मणों से युद्ध हुआ जिसमें इन्होंने ब्राह्मणों के मुण्ड तोड़ दिए और विजय प्राप्त की। इसी कारण इनकी


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मुण्डतोड़ के नाम पर प्रसिद्धि हुई। इस गोत्र के जाटों के गांव जिला रोहतक में जौंधी, जिला सोनीपत में फरमाना, माजरा (फरमाना), गूहना, रिढाऊ, महीपुर, मोजनगर, माजरा (जस्सुवाला) आदि हैं।

दिल्ली में ककरोला, नांगलोई (कुछ घर), मोजनगर, महीमपुर, नड़ाछाड़, मितराऊ आदि प्रसिद्ध गांव हैं। भरतपुर राजघराने से वैवाहिक सम्बन्धों के कारण मितराऊ और शिक्षा में प्रगतिशीलता से नांगलोई प्रसिद्धि प्राप्त गांव हैं।

राजस्थान के राजवंशों के इतिहास पृ० 27 पर जगदीशसिंह गहलोत ने लिखा है कि निम्नलिखित नृपतिगण गहलोत वंश से निकले कहे जाते हैं -

“राजपूताने में उदयपुर, मेवाड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा। गुजरात में भावनगर, धर्मपुर, राजपीपला, पालीताना और लाठी। पंजाब में तीरोंच। मालवा में बड़वानी, ग्वालियर और इन्दौर1। मद्रास प्रान्त में सुन्दर राज्य और विजिगापट्टम जिले की 8000 वर्गमील और 60 लाख रुपये सालाना आमदनी की बड़ी जमींदारी विजयनगर। हिमालय में नैपाल2। दक्षिण में कोल्हापुर3, मुधोल, सांवतबाड़ी और अकलकोट। विदेश में जापान4 का राजवंश।”
नोट - यह पिछले पृष्टों पर लिख दिया गया है कि सूर्यवंशी बल या बलियान जाटवंश के बाप्पा रावल गुहादित्य ने चित्तौड़ पर गुहिल या गहलोत वंश के नाम पर अपना शासन आरम्भ

1. ग्वालियर की तरह इन्दौर राज्य ने भी हाल में छपे अपने इतिहास में अपने को चित्तौड़ के गहलोत वंश से निकला माना है।
2. टॉड राजस्थान वाल्यूम 1 पृ० 257 लन्दन, सन् 1829 के अनुसार इस गहलोत वंश का दूसरा पुत्र या तो शुरु में या चित्तौड़ को जीत लेने के बाद, नैपाल के पहाड़ों में भाग गया और वहां पर गहलोत वंश फैल गया।
3. शिवाजी, जिसने सातारा राज्य की स्थापना की, सज्जनसी का वंशज था, जिसकी वंशपरम्परा का वर्णन मेवाड़ के इतिहास में है। (टॉड राजस्थान वाल्यूम 1, पृ० 269)। मेवाड़ के सरकारी वृहद इतिहास वीर विनोद के खण्ड 2 पृ० 1582 पर महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी को अजयसिंह सीसौदिया के कुंवर सज्जनसिंह के वंश में होना लिखा है। तात्पर्य साफ है कि शिवाजी के पूर्वज बलवंशी थे।
4. बड़ौदा राज्य के सुप्रसिद्ध विद्वान् व एज्युकेशन कमिश्नर मिस्टर दीक्षित ने हाल ही में राजपूत राजाओं के राज्य विस्तार की चर्चा करते हुए बड़ौदा नरेश के सम्मुख अपने भाषण में बताया कि इस समय जापान की गद्दी पर जो राज करते हैं, वह गहलौत राजपूत हैं जो चित्तौड़ से किसी समय गये थे। जापानी भाषा संस्कृत का बिगाड़ है, उसमें महाराजा को मुख्य देव पहले कहते थे, फिर उसका अपभ्रंश मुकेडे हुआ जो अब मकेडो है, पर अर्थ में भेद नहीं है। उनके झण्डे पर अब तक सूर्य का चिह्न है और वे सूर्यवंशी क्षत्रिय हैं।
नोट - जगदीशसिंह गहलौत ने अपनी इसी पुस्तक के पृ० 5 पर लिखा है कि “लगभग 14वीं शताब्दी में राजपूत संघ बना।” सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी आर्य क्षत्रिय जाट तो आदि सृष्टि या वैदिक काल से हैं जो भारत से विदेशों में गए और राज्य स्थापित किये तथा जापान में भी पहुंचे। राजपूत संघ बनने के बाद यह जाति विदेशों में नहीं गई। अतः जापान में राजपूतों का राज होने वाली बात असत्य है। (लेखक)


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किया। इसकी कई पीढियों1 बाद यह जाट शासक राजपूत संघ में मिलकर राजपूत कहलाये। इन गहलोत जाटों और राजपूतों का रक्त एक ही है तथा इनके पूर्वज बलवंशी जाट हैं। अतः उपर्युक्त स्थानों एवं प्रान्तों और देशों में गहलोत जाट और राजपूत दोनों का शासन और निवास था। आज भी इन दोनों जातियों के गहलोत वंश की संख्या वहां पर बहुत है।

रघुवंशी-सीकरवार, सलकलान, भिंड-तंवर

रघुवंशी-सीकरवार

सूर्यवंश में महाराजा दशरथ के दादा रघु हुए जिनकी प्रसिद्धि के कारण उनके नाम पर सूर्यवंशी क्षत्रियों का संघ रघुवंशी कहलाया जो कि एक जाट वंश है (देखो प्रथम अध्याय सूर्यवंशी वंशावली)।

इन रघुवंशी जाटों की कई शाखायें हैं जिनमें एक सीकरी के स्थान पर रहने के कारण रघुवंशी जाटों का जत्था उस स्थान के नाम पर रघुवंशी-सीकरवार कहलाने लगा। राणा सांगा और बाबर के संग्राम में ऐतिहासिक प्रसिद्धि प्राप्त सीकरी नामक स्थान रघुवंशी जाटों का बड़ा गढ था जो कि यमुना और चम्बल के मध्य वर्तमान आगरा जिले में स्थित है। यहां पर रघुवंशी जाटों का बड़ा मजबूत किला था तथा राजधानी थी। देहली पर मुगल शासन स्थिर करने के लिये बाबर ने सीकरी को अधिकृत करना आवश्यक समझा था। अतः बाबर ने सीकरी पर आक्रमण कर दिया। किन्तु वहां के रघुवंशी जाटों ने राणा सांगा का समर्थन प्राप्त करके घनघोर युद्ध करके बाबर को पराजित किया।

किन्तु बाबर के पोते सम्राट् अकबर ने अपने दादा की पराजय का बदला लेने के लिये सीकरी पर आक्रमण करके उसे जीत लिया। अकबर ने वहां पर महल बनवाये और अपने परिवार सहित वहां पर रहने लगा। उसका नाम फतेहपुर सीकरी प्रचलित किया। यहां के महल आज भी देखने योग्य हैं। यह स्थान आगरा से रतलाम लाइन पर दूसरा स्टेशन है। सीकरी से उजड़कर बाहर बसने वाले जाट भी रघुवंशी-सीकरवार नाम से ही प्रसिद्ध हुए। सीकरी से अछनेरा तक 200 गांव रघुवंशी सीकरवार जाटों के हैं। ग्वालियर में इनके 50 गांव हैं परन्तु ये सब राजपूत संघ से मिल गये हैं।

जिला मथुरा में रघुवंशी सीकरवार जाटों के 12 गांव हैं। इन गांवों में आंगाई गांव बड़ा प्रसिद्ध है। यहां के कुंवर हुकमसिंह जी, प्रधान सार्वदेशिक (सब देशों की) आर्य प्रतिनिधि सभा, बहुत यशस्वी पुरुष हुए। इनके पुत्र नगीना रियासत के अधिपति थे। दूसरी पुरानी रियासत जारखी थी, जो टूंडला के समीप है। इसी वंश के ठाकुर मेवाराम हुए जिनके 12 पुत्रों ने अलीगढ जिले में सपेरा, जसराना, चितावर, सगीला, रामगढ, बेगपुर, सुखराल, किन्ढेरा, रसूलपुर, दुरसैनी, भवनगढ़ी और कलाई आदि गांवों को बसाया।

नोट - रूस में सीकरवार जाटों की बड़ी संख्या है, वहां इनको स्लाव (Slav) कहा जाता है। (देखो चतुर्थ अध्याय, शकवंश प्रकरण)।

1. गहलौत जाटों का राज्य चित्तौड़ व मेवाड़ पर 713 ई० से 14वीं शताब्दी तक लगभग 500 वर्ष तक रहा। राजपूत संघ की शक्ति तो 14वीं शताब्दी में बनी। इनकी शक्ति इससे पहले स्थापित नहीं हुई।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1021



सलकलान

सलकलान जाट, वैदिक कालीन तंवर या तोमर चन्द्रवंशी जाट गोत्र की शाखा है। इस गोत्र का आदि-पुरुष सलकपाल था जो तोमर वंशज जाट था। जिस समय अनंगपाल तंवर दिल्ली पर शासन करता था तब उसने सलकपाल तंवर को जि० रोहतक के गोरड़ गांव की जागीर दे दी थी, जिसमें आकर वह रहने लगा। जिस प्रकार शक्तिसिंह से शक्तावत, कुम्भा से कुम्भावत प्रचलित हुए, इसी भांति सलकपाल से तंवर जाटों का संघ सलकलान नाम से प्रसिद्ध हुआ। गोरड़ गांव से आकर सलकलान गोत्र के जाटों ने जिला रोहतक में समचाना गांव बसाया। यहां से इस गोत्र के लोग सामूहिक रूप से यमुना पार कर गये। इधर तगा लोगों की आबादी थी जिससे टक्कर लेकर इन्होंने बड़ौत (जि० मेरठ) को अपना केन्द्रीय निवास स्थान बना लिया। शनैः-शनैः इनका इतना विस्तार हुआ कि इनके 84 गांवों का जनपद देश नाम पर प्रसिद्ध हो गया। आज मेरठ जिले में इस वंश से अधिक संख्या किसी भी वंश की नहीं है। यहां पर इस वंश के जाटों की खाप को खाप सलकलान या देश कहा जाता है जिसका प्रधान गांव बड़ौत है। कृतवर्मा का बागप्रस्थ किला जो बागपत के नाम पर आज प्रसिद्धि प्राप्त है, उसके चारों ओर के नहरी सिंचाई वाले भूभाग पर यह जाट वंश अधिकारी है। सन् 1857 की प्रथम स्वतन्त्रता क्रांति में सलकलान जाटों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किए। बाद में अंग्रेजों ने इनकी जायदादें भी जब्त कर लीं थीं। बड़ौत की एक पट्टी के सलकलान जाट मुगलिया काल में मुसलमान हो गए जो मूले जाट कहलाते हैं। बड़ौत में चलने वाले दो जाट कालिजों के अतिरिक्त गांव-गांव में हाई स्कूल हैं। बड़ौत के अतिरिक्त बावली, बामनौली, हिलवाड़ी, शिकोहपुर, वाजिदपुर, गुराना, बिजवाड़ा, सिरसली, जोहड़ी, जौन्मना, मलकपुर, जमाना, सूप, बूढ़्पुर, कंडेरा, नस्तौली, बरवाला, बिजरौल, किशनपुर, बिराल, कासपुर खेड़ी आदि सलकलान जाटों के बड़े प्रसिद्ध गांव हैं। बावली अपनी जनसंख्या में प्रान्त में सबसे बड़ा गांव माना जाता है।

शिकोहपुर का परिचय केवल प्रवरवाग्मी चौ० पृथ्वीसिंह 'बेधड़क' की कवित्वकला में गायन का संयोग हो जाने पर ही हुआ।

जिला मुजफ्फरनगर में हैदरनगर, गढ़ी अजरू, वीनपुर, शाहपुर गांव इन सलकलान जाटों के हैं। जिला बिजनौर में बकैना, मेलनपुर, हुसैनपुर, हिरनाखेड़ी, वमनपुरा, मुस्तफाबाद, सेखपुरी, मलेशिया आदि 12 गांव सीधे समचाना (जि० रोहतक) से ही आकर बसे थे, जो अब समचानिया तंवर कहलाते हैं।

जिला मुरादाबाद में गोरड़ (जि० रोहतक) से जाकर सदरपुर और ग्वारऊ गांव बसे हुए हैं जो गोरड़िया सलकलान तंवर कहलाते हैं।


भिंड तंवर

सिन्धिया राज ग्वालियर के अन्तर्गत भिण्ड नामक स्थान पर प्राचीन मध्यकाल में जिन तंवर जाटों का राज्य था, वहां से उनके विस्तार होने पर भिण्ड तंवर के नाम से ही इन जाटों की प्रसिद्धि हुई। इस शाखा का मुख्य गांव बिजनौर जिले में हाजीपुर है। एक समय बिजनौर जिले के जाटों की अनुशासन व्यवस्था इसी गांव के देवता नैनसिंह के द्वारा संचालित होती थी। वे अपनी दूरदर्शितापूर्ण सूझबूझ न्यायपरायणता के लिये जिले भर में सर्वोच्च रूप में ख्याति प्राप्त थे। पंजाब में जिला अमृतसर, जालन्धर, गुरदासपुर में भिण्ड तंवर जाटों के कई गांव हैं।


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तंवर, आन्तल, रावत, राव या सराव

तंवर-आन्तल

आन्तल जाट गोत्र जो कि वैदिक कालीन तंवर या तोमर जाटों की शाखा है। ये तंवर जाट चन्द्रवंशी हैं। दिल्ली प्रान्त के गांव लाडोसराय से इन आन्तल जाटों का निकास हुआ। यह लाडोसराय के विद्वान् व वृद्ध लोगों से पूछताछ करने से मुझे जानकारी मिली है (लेखक)। लाडोसराय के जाटों का गोत्र जेसवाल है जो कि तंवर-तोमर जाटों की शाखा है। लाडोसराय के निकट जेसवाल जाटों का एक और गांव अधचीनी है। जिला मुरादाबाद में जेसवाल जाटों के लगभग 12 गांव हैं। लाडोसराय से निकलकर जेसवाल जाटों का एक संघ किसी दूसरे स्थान पर आबाद होने के लिए गया। जनश्रुति के अनुसार एक युद्ध में इन जाटों के दल ने ब्राह्मणों की आंतें निकाल ली थीं, जिसके कारण ये जाट आन्तल तंवर के नाम पर प्रसिद्ध हुए। इन जाटों ने सोनीपत जिले में जाकर अपनी बस्तियां बसाईं।

जिला सोनीपत में इन तंवर आन्तल जाटों के 24 गांव एक जत्थे के रूप में बसे हुए हैं। खेवड़ा के आसपास 12 गांव और मुरथल के चारों ओर 12 गांव इन जाटों के हैं, जिनका प्रधान गांव मुरथल है। मुरथल, नांगल, केमाशपुर, मकीमपुर, दीपालपुर, हुसेनपुर, खेवड़ा आदि तंवर आन्तल जाटों के प्रसिद्ध गांव हैं।

जिला बिजनौर में नूरपुर गांव में भी आन्तल जाट आबाद हैं। पटियाला जिले के 30 गांवों में तंवर आन्तल जाट आबाद हैं।

तंवर आन्तल जाटों का जेसवाल गोत्र के जाटों के साथ आमने-सामने रिश्ता-नाता नहीं होता है, क्योंकि यह रक्त भाई हैं।

रावत

रावत जाट गोत्र, चन्द्रवंशी तंवर-तोमर वैदिक जाट गोत्र की शाखा है।

गुड़गांव में पलवल के पास 80 गांव और अलीगढ़ के इगलास के समीप 8 गांव और बिजनौर में जटपुरा रावत जाटों के सुप्रसिद्ध गांव हैं। रावत जाटों ने बल्लभगढ राज्य की स्थापना कराने में और भरतपुर नरेशों की युद्धों में सहायता करने में बड़ा यश उपार्जित किया था। परन्तु ये जाट स्वयं अपना राज्य स्थापित न कर सके। गुड़गांव जिले के पहाकी गांव के रावत जाट की पुत्री राजकौर भरतपुर नरेश महाराजा बलवन्तसिंह (सन् 1826-1853) की महारानी थी।


राव या सराव

राव या सराव जाट गोत्र भी वैदिक कालीन तंवर-तोमर जाट गोत्र की शाखा है। कर्नल टॉड ने भी इनको तंवरों की शाखा माना है। इन जाटों को राव और कहीं पर सराव बोलते हैं जो दोनों एक ही हैं। ये जाट दिल्ली के चारों तरफ आबाद हैं। राव जाटों की यू० पी० और पंजाब में बहुत है। गाजियाबाद के निकट इस वंश के राजपूतों की भी काफी संख्या है।

सराव जाट गोत्र का उच्चकोटि का सुप्रसिद्ध वीर बाबा फूलसिंह अकाली था। इस वीर योद्धा ने सर्वथा स्वतन्त्र रहकर पठानों और अंग्रेजों से बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं। पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह के बुलावे पर आपने अपना बलवान् शहीदी जत्था साथ लेकर मुलतान विजय में अद्भुत वीरता दिखाई। महाराजा रणजीतसिंह की सहायता के लिए फूलासिंह का अन्तिम युद्ध


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नौशहरा का था जहां पर आप वीरगति को प्राप्त हुए (देखो नवम अध्याय, पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह प्रकरण)।

वीर फूलासिंह की समाधि तरनतारन में बनी हुई है। लुधियाना में दहड़ू, जयपुर में घरियाना, जोधपुर में छाजौली, साडीला, छोटी खाटू, मुजफ्फरनगर में घटायन, बिजनौर में पीपली, मंसूरपुर, मेरठ में नूरपुर, अटौला आदि राव गोत्र के जाटों के गांव हैं।

सहरावत, खिरवार या खरे, डागर

सहरावत

सहरावत जाट गोत्र भी चन्द्रवंशी तंवर या तोमर जाट वंश की शाखा है। दिल्ली के समीप महरौली, महीपालपुर, नांगल, मंगलपुर, दरयापुर, पालम, महरमनगर, कैर, बवाना, बाजितपुर, बकरवारा, गुड़गांव में दयालपुर, रोहतक में कुलताना, भैंसरू कलां, भदानी (1/2), गोवर्धन के पास नगला, राधिका, भरतपुर में जटौली, हिसार में भगान, नाथवास, खरड़, नाणा, मेरठ में लिसाढी, जलालाबाद, जगेंठी, मुजफ्फरनगर में भोकरहेड़ी, विटावदा, मुरादाबाद में पानौवाले, ओकरमाढ़ी, अलीनगर, रसूलपुर, हुमायूपुर, सिढावलीद, गुरसरी, अड़ौला, सौजनी, तिगरी आदि गांव सहरावत जाटों के हैं। इस वंश में चौ० शहजादसिंह पंजाबकेसरी महाराजा रणजीतसिंह का अंगरक्षक वीर योद्धा था। उसके वंशज भोकरहेड़ी में रहते हैं। सहरावत जाटों की राजधानी महीपालपुर रही। वहां पर एक पुरानी इमारत महल के नाम से है। जिला करनाल में गांव करस सहरावत जाटों का है।

खिरवार या खरे

भगवान् श्रीकृष्ण जी के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र बृज को, यादवों के आपस में लड़कर भयंकर विनाश होने पर, अर्जुन द्वारिका से लाया और उसे इन्द्रप्रस्थ की गद्दी पर बैठाया। इस यदुवंशी बृज के बड़े पुत्र खिर थे जिसके नाम पर इनकी परम्परा में खिरवार वंश प्रचलित हुआ। यह यदुवंशी जाट गोत्र है जो भाषाभेद से खरे भी कहा जाता है। महाराजा खिर का राज्य बृजमण्डल पर था अतः इस वंश के जाट आज भी बृज के अन्तर्गत आगरा जिले में ही रहते हैं। पथौली इस वंश की अच्छी रियासत रही। पंजाब में तरनतारन के समीप खण्डूशाह, सांगोकी, शेरों, उसभा, झाली, गोलावाड़ा, मानकपुरा इस वंश के प्राचीन आर्यों की बस्तियां हैं। मध्यप्रदेश में यह खिरवार शब्द खिनवाल नाम पर प्रसिद्ध हुआ। उधर इस वंश के जाटों ने हरदा होशंगाबाद में जाकर छत्रपति शिवाजी और उनकी परम्परा की युद्धों में सहायता की थी, जिसके कारण इनको भोंसला बहादुर की उपाधि से सत्कृत किया गया। राव जगभरथ ने नरसिंहपुर नामक नगरी को बसाया। इनकी परम्परा देर तक इस नगरी पर स्वतन्त्र शासन करती रही। इस खिरवार गोत्र के हिन्दू एवं सिक्ख जाटों ने समान प्रतिष्ठा प्राप्त की।

डागर-डागुर-डीगराणा

यदुवंशी श्रीकृष्ण जी की चौथी पीढ़ी में बृज की परम्परा में जाड़ेचा और यदुमान नाम के दो भाई थे। इनमें जाड़ेचा ने काठियावाड़ में अपने राज्य वैभव का विस्तार किया। आज वहां भुज, जामनगर, ह्वौल, राजकोट, गूण्डल, मौर्वी आदि राजपूत राज्य जाड़ेचा को ही अपना पूर्वज मानते हैं। तात्पर्य साफ है कि वे लोग पहले यदुवंशी जाट थे किन्तु राजपूत संघ स्थापित होने पर उसमें


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शामिल होकर राजपूत कहलाए। इसके दूसरे भाई यदुमान ने हिमालय की पर्वतमालाओं में अपना आधिपत्य स्थिर कर लिया। पर्वत को भाषाभेद से डांग ही कहा जाता है। आपकी अधिकृत पर्वत श्रेणियों को यदु की डांग पर प्रसिद्धि प्राप्त हुई। तब आपकी परम्परा के जाट क्षत्रिय डागा, डागुर एवं डीगराणा के नाम पर प्रख्यात हुए जो कि भाषावैषम्य से सर्वथा सम्भव है। सरहदी सूबा (पाकिस्तान) में इस वंश के जाट यदु की डांग ही कहलाते हैं।

इस वंश के जाट पंजाब में डागा और यू० पी० में डीगराणा कहलाते हैं। ये सब एक ही वंश या गोत्र के हैं। इस गोत्र के जाटों की अधिक आबादी बृज में ही आबाद है। बृजमण्डल के अलीगढ़ में टप्पल के समीप लालपुर, नांगल, पिढौलिया, जड़ाना, दरयापुर, डागुरों के गांव भरतपुर राज्य की ओर से समरू साहब को दिए गये थे। इनसे ब्रिटिश शासन में आये। सन् 1857 में स्वतन्त्रता संग्राम से 50 वर्ष पूर्व ठाकुर मुखरामसिंह ने डागुर नंगला नामक गांव मुरसान से 3 मील उत्तर में बसाया। देहली-शाहदरा के निकट निस्तौली, जलालपुर, ढिढार, सिकैड़ा, गाजियाबाद के पास चिपियाना, पलवल के निकट धतीर, जिला रोहतक में कबूलपुर, सुरखपुर, जोंधी (कुछ घर), पहलादपुर, दिल्ली प्रान्त में ढ़ांसा, शमसपुर, ऊजवा, इसापुर, झाड़ौदा कलां, मैदानगढी, मलिकपुर डागर जाटों के गांव हैं। मैदानगढ़ी (निकट महरौली) गांव के डागर जाटों ने सन् 1988 ई० में गोमठ मन्दिर के चारों ओर 100 एकड़ भूमि सर्वजातीय सर्वखाप पंचायत क, जिसके अध्यक्ष श्री स्वामी कर्मपाल जी हैं, दान में दी है। यहां पर इस पंचायत का मुख्य कार्यालय स्थापित हो गया है।

आज इस 100 एकड़ भूमि का मूल्य दो अरब रुपये है। इसके अतिरिक्त इस गांव तथा निकट के 6-7 गावों ने लाखों रुपये की धनराशि इस पंचायत को दान में दी है। ये वीर दानी धन्यवाद के पात्र हैं। जयपुर में हिण्डोन के समीप खरेटा, शेरपुर, आदि 24 गांवों की बस्तियां डागुर आर्य जाटों की हैं। भरतपुर में चैनपुरा, गगवाना, अटाली, टोला, बहसाल, हैरसोनी, आगरा में भरकौल, खेलड़ी आदि प्रसिद्ध गांव डागुर जाटों के हैं। बिजनौर जिले की काव्यप्रसिद्ध स्रोतोवहामालिनी नदी और भगीरथी गंगा के दोआबा में प्रसिद्ध अभीपुरा गांव के डागुर, डीगराणा नाम पर प्रख्यात हुए। बुलन्दशहर में खालौर, खदाना, बढपुरा के जाटों की प्रसिद्धि डोंगरी नाम पर हुई। प्रसिद्ध सन्त हरिदास डागर गोत्र के थे।

ग्रेवाल, हाला

ग्रेवाल-ग्रहवार-गहरवार

यह एक प्राचीन राजवंश है जो चन्द्रवंश की शाखा है। पांचाल जनपद से मिले लेखों में राजा महोतल का वंश गहरवार लिखा है। गहरवार, ग्रहवार, ग्रेवाल एक ही हैं जो भाषाभेद से अलग-अलग बोले जाते हैं। इस वंश का निवास चुनारगढ़ के किले से इलाहाबाद तक पाया जाता है जो पहले जाट थे, फिर राजपूत संघ में मिलकर सब राजपूत कहलाते हैं। मिर्जापुर में 7 लाख आय की विजयपुर और इलाहबाद में गढ़मांडो राजपूत गहरवारों की प्रसिद्ध रियासतें थीं। जाट ग्रेवाल जिला लुधियाना में नारंगवाल, किला रायपुर, मेमनवाला, ललतों कलां, गुजरवाल, झांलड़ा, बुड्ढोवाल, परोवाल, कुलावास, ध्रीके नामक बड़े-बड़े 52 गांवों में बसे हुए हैं। यह वंश शिक्षा में सबसे बढ़कर है। सेना और शासन में कोई पद ऐसा नहीं जिस पर इस वंश के वीर न पहुंचे हों। एशिया, यूरोप, अमेरिका, कनाडा का कोई ऐसा कोना नहीं जहां भारतीय लोग न बसते हों और उनमें लुधियाना का ग्रेवाल न हो। साधारण व्यवसायों से लेकर ऊंचे से ऊंचे व्यापारों में इनकी पहुंच है। मोटर पार्ट्स की दुकानदारी, टैक्सी बसों के संचालन तथा ट्रान्सपोर्ट व्यवसाय में इसकी बहुसंख्या


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उल्लेखनीय है। इन्होंने गांव-गांव में लड़के, लड़कियों के स्कूल, कालिज और हस्पतालों का वह सुन्दर आयोजन किया हुआ है जो लुधियाना जाकर देखने योग्य है। लुधियाना में सैंकड़ों कोठियां ग्रेवाल जाटों की हैं। पंजाब में ग्रेवाल जाट सिक्ख धर्मी हैं।

राजस्थान में शेखावाटी झुंझनूं के क्षेत्र में ग्रहवार जाटों के 40 गांव हैं। दिल्ली में बिजवासन, नंगला और हरयाणा में बामला, महम 1/2 गांव ग्रेवाल जाटों के हैं।

सन्त सावनसिंह जी

परम सन्त बाबा सावनसिंह जी - ग्रेवाल जाटों के गांव मेमनसिंहवाला के सरदार काबिलसिंह के पुत्र सावनसिंह जी हुए। आप जन्म से ही ईश्वरभक्त थे। आपका जीवन मिलिट्री इंजीनियर के रूप में विकसित हुआ। इन्हीं दिनों आपका परिचय राधा स्वामी मत से हुआ। व्यास गद्दी के श्री महन्त जयमलसिंह जाट ने आप को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। आपने इस पद पर रहकर जनता की आध्यात्मिक उन्नति के लिए विशेष प्रयास किया। आपने 8000 व्यक्तियों के बैठने योग्य एक विशाल हाल व्यास गद्दी के लिए बनवाया तथा इस कालोनी को डेरा बाबा जयमलसिंह के नाम पर प्रसिद्धि दी, जिसमें सभी आधुनिक सुविधायें सुलभ हैं। आपने अपना उत्तराधिकारी अपने पौत्र श्रीयुत चरणसिंह जी B.A. LLB को बनाया।

परम जाट सन्त बाबा सावनसिंह का जन्म 27 जुलाई 1858 ई० को हुआ तथा उनका स्वर्गवास 2 अप्रैल 1948 को हो गया। प्रतिवर्ष 31 दिसम्बर को बाबा जयमलसिंह जी के जन्म दिवस पर तथा 27 जुलाई को परम सन्त बाबा सावनसिंह के जन्मदिन पर डेरा व्यास पर बड़ा भारी सत्संग होता है जिसमें लाखों लोग उपस्थित होते हैं।


हाला

यादव वंशी जाट राजा गज ने गजनी का निर्माण किया। उसके पुत्र सम्राट् शालिवाहन थे। शालिवाहन ने गजनी से आकर शालिवाहनपुर (शालपुर) नगर की स्थापना करके उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी वंश में हालेय से हाला जाट गोत्र का प्रचलन हुआ। सत्यवान हाला जाट गोत्र के थे जिसका विवाह मद्र जाट गोत्र की राजकुमारी सावित्री से हुआ। (इनका पूरा वर्णन देखो, चतुर्थ अध्याय, मध्यपूर्व में शासन, जाट प्रकरण)।

इस सम्राट् शालिवाह के भाई कृष्ण थे। उन्होंने वर्तमान महाराष्ट्र प्रान्त के अन्तर्गत नासिक तक राज्य बढ़ाया। श्रीमदभागवत के द्वादश स्कंध के प्रथमाध्याय में राजा कृष्ण की वंशावली दी है, जो क्रमशः निम्नलिखित है - 1. महाराजा कृष्ण 2. शान्तकर्ण 3. पौर्णमास 4. लम्बोदर 5. चिबिलक 6. मेघस्वाति 7. अहमान 8. अनष्टकर्मा 9. महाराज हालेय 10. तलक 11. पुरीसमीस 12. सुनन्दन 13. चकोर 14. शिवस्वाति 15. गौतमी 16. पुरीमान 17. मेंदशिए 18. शिवस्कंदे 19. यज्ञश्री 20. विजय 21. चन्द्रविज्ञ 22. सलोमधि। इनमें वर्णित महाराजा हालेय से हाला नामक शाखा का यादव वंश में चलन हुआ। यह हाला जाट वंश (गोत्र) है। इस महाराजा ने गाथा सप्तसती नाम का ग्रंथ लिखा जिसमें 700 कथायें थीं। राजा हाला का समय लगभग सन् 69 का है (सरस्वती भाग 33, संख्या 3)। मणिमेकले नामक तेलगू ग्रन्थ में इस राजा और इस वंश की वीरताओं की अनेक प्रशंसाएं की गईं हैं। इस वंश की वीरता के कार्य और उज्जैन जीतने के वर्णन बड़े प्रभावोत्पादक हैं। इस हाला वंश का एक समय बंगाल, कर्नाटक, गुजरात, कश्मीर और सिंध पर भी राज्य था। बरार में भी वि० 187 से 277 (सन् 130 से 220) तक इस वंश का


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राज्य रहा। इनमें श्री पुलमई के प्रभाव और प्रताप का सभी इतिहासकारों ने गुणगान किया है। सिंध में चन्दराम हाला नामक नरेश की परम्परा का राज्य 7वीं शताब्दी में मुहम्मद-बिन-कासिम ने समाप्त कर दिया। वहां सिंध को बलोचिस्तान से पृथक् करने वाला हाला पर्वत इसी हाला वंश के नाम पर है जो आजकल सोमगिरी कहलाता है। यहां पर इनके राज्य क्षेत्र का नाम हाला खण्डी था। काठियावाड़ में हाला नामक जिला इन्हीं हाला जाटों का स्मारक है। सिंध में हाला जाट मुस्लिम धर्मी हैं और राजस्थान, पंजाब तथा यू० पी० (बदायूं) में बसने वाले सभी हाला जाट हिन्दू हैं जो डीलडौल और गठन में आदर्श क्षत्रिय हैं।

सारण, रणधावा

सारन/सारण

यदु वंश में राजा गज ने गजनी का निर्माण किया। उसके पुत्र शालिवाहन ने गजनी से आकर पंजाब में शालिवाहनपुर (शालपुर) नगर की स्थापना करके उसे अपनी राजधानी बनाया।

इस सम्राट् के 15 पुत्रों में से एक का नाम बलन्द था जो इसका उत्तराधिकारी बना। राजा बलन्द के 7 पुत्रों में से एक का नाम भट्टी था जिससे भट्टी जाट गोत्र प्रचलित हुआ। राजपूत संघ में मिलने से ये जाट भट्टी राजपूत कहलाने लगे और फिर ये भट्टी राजपूत मुगलकाल में बहुत से मुसलमान भी बन गये। आजकल भट्टी ईसाई भी हैं। भट्टी जाट राजकुमार अपने पिता बलन्द का उत्तराधिकारी बना जिसके दो पुत्र मसूरराव और मंगलराव नामक थे। मसूरराव के दो पुत्र अभेराव और सारनराव थे। सारनराव के नाम पर भट्टी जाटों का एक समूह सारन कहलाने लगा जो कि एक जाट गोत्र है। (अधिक जानकारी के लिये देखो चतुर्थ अध्याय, मध्यपूर्व में जाट शासन प्रकरण)।

पंजाब से जाकर इस भट्टी जाटवंश का शासन मालवा तथा जांगलप्रदेश में था। राजपूताना, जोधपुर, बीकानेर नाम पड़ने वाले स्थानों को पहले जांगल प्रदेश कहते थे। सारन जाटों का शासन जांगल प्रदेश (बीकानेर) क्षेत्र में 300 गांवों पर था जिनकी राजधानी भाडंग थी। इन गांवों के बीच में इनके जिले या परगने 1. केजर 2. भोग 3. बुचावास 4. सवाई 5. बादीनू 6. सिरसीला आदि थे। (देखो षष्ठ अध्याय, राजस्थान में जाटराज्य प्रकरण)।

रामरतन चारण ने इन सारन जाटों के अधिकृत गांवों की संख्या 360 लिखी है। इसी रामरतन चारण ने अपने इतिहास में लिखा है कि गोदारा जाटों का सरदार पांडु इन सारन जाटों के अधीश्वर पूला की स्त्री को भगा ले गया, इसी कारण जांगल प्रदेश के सभी जाट राज्य गोदारों के विरुद्ध हो गये। जोधा राठौर के पुत्र बीका ने जब जांगल शासक जाट शासकों पर आक्रमण शुरु किया तो पांडु गोदारा बिना शर्त उसके साथ मिल गया। अब राठौरों और जाट गोदारों की दोनों बड़ी शक्तियों ने एक-एक करके वहां से सब जाट राज्यों को जीत लिया।

कहना होगा कि पांडु गोदारा ने बीका की सहायता करके जाटों के राज्य के लगभग 3000 गांवों पर बीका का अधिकार करवा दिया। पांडु गोदारा ने जयचन्द राठौर की भांति देशद्रोही का कार्य किया। बीका ने अपने नाम पर वहां पर बीकानेर नगर की स्थापना सन् 1488 ई० में की, जिसको आज 500 वर्ष हो गये हैं। पांडु गोदारा यदि राठौर के हाथ अपनी स्वाधीनता को न बेचता तो राठौरों पर इतनी आपत्ति आती कि फिर वे जांगल प्रदेश की ओर आने का साहस तक न करते।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1027


यह कहना उचित नहीं कि जांगल प्रदेश के जाटों को राठौर राजपूतों ने जीत लिया। बल्कि यह बात साफ है कि जाटों के सर्वनाश का कारण उनकी पारस्परिक फूट थी। उसी फूट का शिकार सारन जाट भी हो गये। उनका प्रदेश युद्धों के समय उजाड़ दिया गया और वे पराजित कर दिये गये, किन्तु शांति-प्रिय सारनों ने जो वीरता अपने राज्य की रक्षा के लिये दिखाई थी, वृद्ध सारन जाट उसे बड़े गर्व के साथ अपनी सन्तानों को सुनाते हैं। आज भी सारन जाटों के 90 गांव सरदारशहर (राजस्थान) के पास हैं। सुजानगढ़ के नागौरिया, मन्दिरमार्गी श्वेताम्बरी जैन साधुओं की गद्दी पर बहुत काल से सारनवंशी जाट जैन साधुओं का ही अधिकार चला आ रहा है। जि० हिसार में कुगरा, बड़छपर, रीयासर, हसनगढ़, माजरा, खेरटी, बिरबाल आदि 24 गांव सारन जाटों के हैं। जि० मुजफ्फरनगर में ऊन, पण्डौरा, चन्दोड़ी, जि० रोहतक में फरमाना, मदीना 1/2, भैनी चन्द्रपाल, सिंघपुरा, निदाना 1/2, बेडला, सैमाण आदि गांव सारन जाट क्षत्रियों के हैं।

रणधावा

रणधावा जाट गोत्र है जो कि यदुवंशी भट्टी सारन गोत्र की शाखा है। सर लिप्ल ग्रीफन ने भी इनको यदुवंशी लिखा है और इनका बीकानेर से पंजाब के गुरदासपुर क्षेत्र में आना लिखा है। सारन गोत्री जाटों का बीकानेर में बड़ा राज्य था जो कि राठौर बीका ने विजय कर लिया। (देखो सारन गोत्र प्रकरण, पिछले पृष्ठ पर)। इन सारन जाटों का दल काजल नामक नेता के नेतृत्व में बीकानेर क्षेत्र से गुरदासपुर क्षेत्र में पहुंचा और वहां धावा बोलकर उस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। शत्रु पर रण में धावा बोलने के कारण इन जाटों का नाम रणधावा पड़ गया। फिर यह एक गोत्र ही बन गया जो कि सारन की शाखा है।

काजल जाट वीर के वंशजों ने सम्पारी, खोंडा, धर्मकोट, डोडा, तलवंडी, कण्ठूनगर की रियासतें बना लीं थीं। खोंडा बटाला के निकट है। सन् 1773 में इनका नेता सिक्ख धर्म का अनुयायी बन गया था जो कि कन्हैया मिसल का सैनिक अधिकारी नियुक्त हो गया था। इन्होंने खोंडा, अजान, बुद्धीपुर, शाहपुर, माली, समराला, जफरवाल और नौशीरा पर अधिकार कर लिया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने ये सब खालसा राज्य में मिला लीं। चम्पारी रियासत का नेता सांवलसिंह रणधावा सन् 1750 में सिक्ख धर्मी बन गया और भंगी मिसल की सेना का सेनापति नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद वह एक युद्ध में मारा गया।

रणधीरचन्द रणधावा ने सन् 1540 में बटाला के पास झण्डा नामक गांव आबाद किया। उसके पोते तुरगा ने तलवंडी आबाद की और इसके वंशज यहीं पर रहते रहे। रणधावा जाटों ने महाराजा रणजीतसिंह की युद्धों में बड़ी सहायता की थी।

पंजाब के सभी जिलों में रणधावा जाटों की कुछ-न-कुछ संख्या पाई जाती है परन्तु इनकी जिला गुरदासपुर में बड़ी संख्या है। जिला अमृतसर में इनके कई गांव हैं। रणधावा जाट अधिकतर सिक्ख धर्मी हैं।

गिल - शेरगिल

गिल क्षत्रिय जाट वंश है जो महाभारत काल के पश्चात् प्रचलित हुआ। इसके विषय में दो तरह के ऐतिहासिक लेख हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1028


  • 1. भारत में जाट राज्य (उर्दू), पृ० 403 पर योगेन्द्रपाल शास्त्री ने लिखा है कि -
“वास्तव में गिल क्षत्रिय आर्यों का वह दल है जो सबसे पहले कश्मीर से उतरा और कन्धार के पास से होता हुआ मुलतान के आगे उंची भूमि पर आबाद हो गया। प्राचीनकाल से यह भूमि उपजाऊ है। ऊपर बसने वालों ने, नीचे गीली भूमि में बसने वाला दल प्रसिद्ध किया। निचली तर भूमि को गीली कहते हैं। ये लोग सबसे ऊंची भूमि पंजाब व कंधार में आबाद थे, परन्तु इनसे ऊपर बसने वालों ने, निचली गीली भूमि में बसने वाला गिल नाम दिया। आजकल भी गंगा-यमुना के किनारे की भूमि को खादर और वहां बसने वालों को खदरया कहा जाता है, जबकि वे बाढ़ से बचने के लिए ऊपर भूमि पर रहते हैं। महाभारत काल के बाद इस वंश का अस्तित्व बौद्धकाल में काबुल नदी के किनारे और कन्धार क्षेत्र में था। यह लोग आज भी युसुफजई, काकरजई, सूरजई की भांति गिलजई पठान कहलाते हैं जो बड़ी संख्या में आबाद हैं। जई का अर्थ जत्था का है। ये लोग बौद्धधर्मी थे, फिर संघरूप से इस गिल दल ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। पंजाब में गिल जाटों ने गुरु गोविन्दसिंह के आह्वान पर सामूहिक रूप से सिक्ख धर्म ग्रहण किया।”
  • 2. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 370-71 पर योगेन्द्रपाल शास्त्री ने गिल वंश की उत्पत्ति निम्न प्रकार से लिखी है -
“गिल वंश केवल जाटों का वह सुप्रसिद्ध वंश है जो महाभारत के बाद ही विशेष प्रकाश में आया। प्राचीनकाल में फिरोजपुर का राजा अत्यन्त प्रतापी था। देर तक निस्सन्तान रहने पर जब उसके पुत्र हुआ तो कुछ कुचक्रियों ने रानी की मूर्च्छितावस्था में उसे उठाकर सद्योजात कन्या वहां रख दी और राजकुमार को राजमहल से लेकर एक रूमाल में लपेट कर गीले (नमी वाले) खेत में दबा दिया। किन्तु कुछ ही देर बाद एक शेर ने गन्ध पाकर उसे पंजों से खोदकर उखाड़ लिया और चाटने लगा। राजा भी उसी मार्ग से शिकार को निकले। घोड़ों की टापों से शेर तो जंगल में छिप गया किन्तु ऊपर मंडराती चीलों से राजा का ध्यान उस ओर गया। उसकी आकृति रानी के समान होने और रूमाल भी राजमहल का होने से दासियों ने भयभीत होकर सब भेद प्रकट कर दिया। गीले खेत से प्राप्त राजकुमार को गिल और शेर द्वारा रक्षित होने से शेरगिल ही कहा गया। इसी के नाम पर उसके वंशज क्षत्रिय, गिल एवं शेरगिल कहलाने लगे, जो कि जाट गोत्र है। समस्त गिल इसी कथावस्तु को अपना ऐतिहासिक आधार मानते हैं। महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों में भी गिल एक वंश है, वहां भी सम्भवतः गाड़े जाने वाली किम्वदन्ती के आधार पर ही वे गिल-गाडगिल कहलाते हैं जिनमें श्री नरहरि विष्णु गाडगिल गवर्नर पंजाब का नाम उल्लेखनीय है। इस गिल जाटवंश का विस्तार काबुल नदी के किनारे तक हुआ।”
इन गिल जाटों को प्रसिद्ध यूनानी इतिहासज्ञ हैरोडोटस ने एग्ली (Aegli) लिखा है और स्ट्रेबो यूनानी लेखक ने इनको गेलाई (Gelai) लिखा है। आजकल मध्य एशिया में इनको गीली (Gili) कहा जाता है। भारत में शेरगिल जाटों को मध्य एशिया में सीरीगिल्ली बोला जाता है। (जाट्स दी एन्शन्ट रूलरज, पृ० 245, 301, लेखक बी० एस० दहिया)।

इन गिल जाटों का शासन एवं शक्ति गिलगित पर्वत तथा कस्पियन सागर क्षेत्रों में थी। गिल जाटों के नाम पर गिलगित नगर एवं गिलगित पर्वत हैं, जहां पर इनका शासन था। कैस्पियन सागर पर इनका अधिकार होने से वह गिलन सागर कहलाया था। (देखो चतुर्थ अध्याय, मध्यपूर्व में जाट शासन प्रकरण)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1029


गिल हिन्दू जाट बहुत कम हैं। मुसलमान जाट बहुत हैं जो कि पाकिस्तान तथा काबुल प्रान्त में हैं। गिल सिक्ख जाटों की इनसे अधिक संख्या है। इन सिक्ख जाटों की बड़ी संख्या फिरोजपुर, अमृतसर, पटियाला, लुधियाना, गुरदासपुर, जालन्धर, अम्बाला, कपूरथला जिलों में है। इनकी मजीठा रियासत सबसे समृद्ध और पुरानी थी। मुगल शासन का उन्मूलन करके सिक्ख राज्य की स्थापना और संवर्धन में इस परिवार के पूर्वजों ने जो किया, इसी तरह देश की स्वतन्त्रता के प्रति गिल जाटों ने अपने कर्त्तव्य का पालन किया। इस वंश में सरदार देशासिंह जैसे वीर, सर सुन्दरसिंह मजीठिया जैसे कुशल राजनीतिज्ञ, सरदार दयालसिंह जैसे दानी, सरदार कृपालसिंह जैसे उद्योगपति हो चुके हैं। गिल जाटों की निशानवालिया मिसल की वीरता के कारनामे बड़े प्रसिद्ध हैं। (देखो नवम अध्याय, निशानवालिया मिसल प्रकरण)। गिल सिक्ख जाटों की मंसूरवाल, मुकन्दपुर, छैना नौशीरा या रायपुर और मोगा आदि प्रसिद्ध जागीरें थीं। आज भी ये लोग शासन विभाग में ऊंचे पदों पर हैं।

हंगा, लौरा

हंगा

कुषाण जाटवंशज सम्राट् कनिष्क (सन् 120 से 162 ई०) का सेनापति हंगामस था जो कि तुषार गोत्र का जाट था। सम्राट् कनिष्क की ओर से वह मथुरा में क्षत्रप (गवर्नर) रहा। उसके वंशधरों ने उसी के नाम से अपना परिचय देना प्रारम्भ किया। राज्यपदासीन वंशज होने से बृज में विशेष सम्मानित हुए। मुगल शासन ने इन हंगा जाटों को चौधरी की उपाधि दी। मथुरा जिले में हंगा चौधरी जाटों के गांव निम्न प्रकार से हैं -

निग्रवा गांव से 24, कुरसण्डा से 22, विसावर से 12, तरसीगा से 12, अरौठा से 5 गांव और 24 खेड़े बसे। इस तरह से मथुरा जिले में इन जाटों के 75 गांव और 24 खेड़े हैं। इनके प्रसिद्ध गांव - कारब, भरऊनेरा, धकरई, नगला नत्थू, नगला हरिया, अरोटा, रजावल, कलाई आदि हैं।

लौरे या लौरा

यह एक प्रसिद्ध जाट गोत्र है जो वत्स या बत्स जाट गोत्र की शाखा चौहान जाटों का शाखा गोत्र है। वत्स जाट गोत्र के योद्धा महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर होकर लड़े थे। महाभारत युद्ध के बाद वत्स जाटों का राज्य पंजाब में भटिण्डा क्षेत्र पर रहा जिनका राजा उदयन था। फिर इनका शासन उज्जैन में रहा। इसी गोत्र के प्रसिद्ध वीर योद्धा आल्हा, उद्दल और मलखान थे। (देखो तृतीय अध्याय वत्स/बत्स प्रकरण)।

इसी वत्स वंश का शाखा गोत्र चौहान है। इन चौहान जाटों में लौह नामक वीर योद्धा हुआ जिसके नाम पर इन चौहान जाटों का एक संघ लौरा या लौरे कहलाया।



इस अध्याय में अब तक लिखे हुए जाट गोत्रों की आधार पुस्तकें -
1. जाटों का उत्कर्ष, लेखक कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री। 2. भार्त में जाट राज्य (उर्दू) लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री। 3. जाट इतिहास हिन्दी तथा इंग्लिश, लेखक लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून। 4. जाट इतिहास, लेखक ठाकुर देशराज। 5. जाट इतिहास (उत्पत्ति तथा गौरव खण्ड), लेखक ठाकुर देशराज। 6. जाट्स् दी ऐन्शन्ट् रूलर्ज, लेखक बी० एस० दहिया आई आर एस 7. क्षत्रियों का इतिहास, प्रथम भाग, सम्पादक श्री परमेश शर्मा तथा श्री राजपालसिंह शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1030


पाठकों को ध्यान दिलाया जाता है कि चौहान जाट गोत्र के लोग राजपूत संघ बनने पर उसमें मिल गये वे चौहान राजपूत कहलाये और जो उस संघ में न मिले वे चौहान जाट ही रहे जो आज भी विद्यमान हैं।

लौरा जाटों के भाट की पोथी के अनुसार ये जाट लोग अजमेर से हिसार जिले में आये जहां इन्होंने बालसमंद गांव बसाया जो लौरे जाटों का बहुत बड़ा गांव है। इसी गांव से निकलकर हरयाणा में अन्य गांवों में ये लोग आबाद हुए। जैसे जिला जींद में गढ़ी (राखी)½ और मिर्जपुर एवं मसूदपुर में कई घर हैं। जिला भिवानी में लेघा गांव में कई घर हैं। जिला सोनीपत में घिलोड़ कलां 2/3 (देशवाल गोत्र 1/3) और गांव पलड़ी में कुछ घर लौरा जाटों के हैं।

लौरा जाटों की संख्या राजस्थान में बहुत है। उत्तरप्रदेश में जि० मेरठ, अलीगढ़ और बुलन्दशहर में इस गोत्र के जाटों के काफी गांव हैं।

भयाण एवं जागलान

इन दोनों भयाण एवं जागलान जाट गोत्रों के विषय में इनके भाट की पोथी में इनको चौहान राजपूतों का वंशज लिखा है जो कि असत्य, प्रमाणशून्य तथा बेबुनियाद बात है। ये गोत्र वत्स जाट गोत्र की शाखा चौहान जाटों के वंशज हैं। वत्स गोत्र के जाट वीरों का राज्य महाभारत काल में था और महाभारत युद्ध के बाद इनका राज्य भटिण्डा (पंजाब) क्षेत्र पर रहा, जिनका राजा उदयन था। इसी वत्स जाट गोत्र की शाखा चौहान जाट हैं। सातवीं शताब्दी में राजपूत संघ स्थापित होने पर जो चौहान जाट उसमें मिल गये वे चौहान राजपूत कहलाने लगे और जो उस संघ में न मिले वे चौहान जाट ही कहलाते रहे जो आज भी कई प्रांतों में विद्यमान हैं।

इसी चौहान जाट गोत्र के दो प्रसिद्ध वीर भैयाजग्गा नामक हुए। उनकी प्रसिद्धि के कारण चौहान जाटों का एक संघ, भैया से भयाण तथा दूसरा संघ जग्गा से जागलान शाखा गोत्र प्रचलित हुए। ये भयाण एवं जागलान जाट गोत्र राजपूत संघ बनने से बहुत पहले प्रचलित हो गये थे। इन जाट गोत्रों के लोग पंजाब-राजस्थान क्षेत्र से आकर हरयाणा प्रांत में आबाद हो गए, जिनके गांव निम्नलिखित हैं।

भयाण जाट गोत्र के गांव - जिला हिसार में जेवरा, बछपड़ी, सरसौद, बाड़ा आदि गांव हैं।

जागलान जाट गोत्र के गांव जिला हिसार में डाटा, कुम्भाखेड़ा, जाण्डली कलां, जुगलान आदि गांव हैं।

जिला जींद में इंटलछात गांव हैं। जिला भिवानी, जिला कुरुक्षेत्र और जिला करनाल में भी कई गांव जागलान जाटों के हैं।

भयाण और जागलान जाट गोत्रों के आपस में रिश्ते-नाते नहीं होते हैं क्योंकि ये दोनों रक्त-भाई हैं।


एकादश अध्याय समाप्त

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1031



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